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________________ ५२० सरस्वती [भाग ३६ में हुई थी। अनेक शिल्पियों ने इसे अतिसुन्दररूप दिया था, किन्तु ५५६ ईसवी में आग से जलकर राखमात्र रह गई। दसवीं और पंद्रहवी सदियों में इसके पुनर्निर्माण में राजाओं का हाथ रहा। किन्तु सोलहवीं सदी के जापानी हमले में यह फिर आग की भेंट हुआ और ताइयुहो देन-मन्दिरमात्र बच रहा। रेल के स्टेशन के पास होने से अब इस मठ की भो श्रीवृद्धि । हुई है। ६० भितु | रहते हैं। _स्टेशन-मास्टर से | मालूम हो चुका था, अन्तिम | ट्रेन साढ़े तीन बजे जायगी।। [समुद्र-तट से कोङ्गो—कोरिया का वज्रपर्वत जाकर मन्दिरों के दर्शन । किये, भिक्षुओं से मिले, बाक़ी भार को सँभालने के लिए एक लोहस्तम्भ लगा है। यह एक- मध्याह्न भोजन समाप्त किया। फिर थोड़ी देर विश्राम किया और दो स्तम्भी मठ कोङ-गो-सान् की अजायबात में से है। बजे रवाना हुए। स्टेशन तक (प्रायः ॥ मील) पहुँचाने के लिए तीनों शिलाओं में छ:-छः इंच गहरे कितने ही लेख हैं। उनमें अधिकांश साथी भी चले। मठ के कार्यालय के सामने लोहे और सोमेंट का नये हैं। कुछ मिनट और उतरने पर नदी की बाई ओर रास्ते सुन्दर पुल था। यहाँ तक मोटर भी आते हैं। सड़क अच्छी है। जहाँ । की एक शिला में बहुत-सी मूर्तियाँ उत्कीर्णं मिलीं। सामने तीन बुद्ध- तहाँ कोरियन और जापानी होटल हैं। स्टेशन प्रायः ११॥ मील पर है। मूर्तियाँ हैं, इसो लिए जापानी लोग इसे सम्बुत्सुगन् (तीन बुद्धशिला) उससे पहले ही योरपीय ढंग का चो-अन्-जी होटल है, जो रेलवे-द्वारा कहते हैं। सञ्चालित है। ___ ग्यारह बजे के कुछ बाद हम ह्योकुन-जी मठ में पहुँचे। यहाँ भी स्टेशन पर पहुँचने पर मालूम हुआ, अभी गाड़ी के आने में आध ३० भिक्षु रहते हैं। मठ अच्छी अवस्था में है। कोरिया की भाषा में घंटे की देर है। इसे प्यो हुन्-शा कहते हैं। प्यो हुन् नाम के एक यशस्वी भिक्षु ने ६७७ यहाँ से तेचुगन् तक (प्रायः ७० मील) एक कम्पनी की बिजलोईसवी में इसकी स्थापना की थी। किन्तु उस समय की कोई चीज़ अब चालित रेलवे है। पहाड़ों की अधिकता के कारण बहुत-सी सुरंगें। नहीं है। प्रधान मन्दिर तथा कुछ और इमारतें पंद्रहवीं सदी में बनी पड़ती हैं। लाइन बड़ी लाइन ( थीं। इस मठ के एक दर्जन शाखा-मठ हैं। ९॥ बजे रात को गाड़ी केइ-जो स्टेशन पर पहुँची: प्लेटफार्म पर आते । यहीं हमें अगले चोअन्-जी मठ के एक भिनु तथा उचिकोङ्गो के ही देखा श्री ताची पहुँचे हुए हैं, और इस प्रकार भाषा की दिक्कत का स्टेशन-मास्टर मिल गये। साथ ही नीचे चले । प्रायः डेढ़ मील पर सामना न करते हुए हम हिगाशी होङ्-गान्-जी मन्दिर में पहुँच गये। चोअन्-जी (चङ-अन्-शा) मठ मिला। इस मठ की स्थापना पाँचवीं सदी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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