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________________ संख्या १] सत्यं शिवं सुन्दर करती है, अन्तरात्मा को अनुप्राणित करती है। अर्थात् (धर्मयाजक) कहते हैं, स्वर्ग में हूरें मिलेंगी, कल्पना से ही हम अपने को दूसरे की परिस्थिति में आबेकौसर मिलेगा, मद्य की नदी, मधु और शर्करा रखकर विचार करते हैं। यदि कल्पना के पर काट मिलेगी। हे साक़ी ! मुझे एक प्याला आज और दिये जायँ तो स्वामी में सेवाभाव न हो, अत्याचारी दे दे, क्योंकि एक नक़द सहस्रों उधार से बढ़कर है। को दण्ड न मिले। कल्पना-हीन हृदयों को इस बात सच तो यह है कि प्रतिफल के पाने का लालच का पता नहीं लगता कि आत्मोत्सर्गकारी को उसके आते ही दया, धर्म, नेकी, सदाचार और सब प्रकार अत्याचार से किस ज्वाला में जलना पड़ रहा है। की समाज-नीति का सौन्दर्य नष्ट हो जाता है, जिन्दगी कल्पना-शक्तिशील पुरुष जब किसी के दुख को दूर का सारा मज़ा मिट्टी में मिल जाता है। ऐसे लोग जो करता है तब वह अनुभव करता है कि मैंने अपना ही फेरी करके धर्म-पुस्तकें बेचा करते हैं, बात के तथ्य दुख दूर किया है। दयालु हृदय जब किसी को सताया को नहीं जान सकते। कविता, चित्रकारी, दया, प्रेम जाता देखता है तब उसे ऐसा दुख होता है, मानो का भाव तो धरती, आकाश, चाँद, सूर्य, नदी, वह स्वयं सताया जा रहा है और जब वह अत्याचारी पहाड़, समुद्र आदि हमारे हृदय में उत्पन्न करते हैं। यहाँ पर आठमण करके निर्बल-निस्सहाय को बचा लेता दलाली काम नहीं देती। 'सत्यं शिवं सुन्दर' के मन्त्र है तब समझता है कि मैंने अपने निज प्राण और से मुग्ध प्राणी स्वत्व और दायित्व के उस पचड़े में शरीर की ही रक्षा की है। प्रेम और दया आदि नहीं पड़तं जो औरों को पापी और अपने को धर्मात्मा कल्पना-प्रसूत भावनायें हैं। कहना सिखाता है। इनका मार्ग सीधा है, सुगम है, जिन कवियों और लेखकों ने मनुष्य के मन को स्वतन्त्र है और स्वतः दिखलाई पड़ता है। तभी तो रुग्ण और निर्बलताओं का भाण्डार चित्रित करके उपदेशकों से खैयाम कहता हैउसकी धार्मिक चिकित्सा का उद्योग किया है वे विषय गर मय न खुरी तानः मजन मस्ताँ रा । को ठीक नहीं समझे। मानसिक चिकित्सा का यह गर दस्त देहद तोबः कुनम यजदाँ रा ॥ विधान प्रशस्त नहीं जंचता। यह भी कहना समी- तू फन बिदी कुनी कि मन मय न खुरम । चीन नहीं प्रतीत होता कि नेकी करने का अर्थ पर- मद कार कुनी कि मय गुलामस्त आँरा ॥ लोक के लिए सुख का साधन एकत्र करना है। यह अर्थात यदि तू शराब नहीं पीता तो मस्तों को तो एक स्वार्थ-पूर्ण व्यापारियों की नीति है। अन्तः- ताने क्यों देता है ? तुझे अभिमान है कि तू मद्य नहीं करण को विशुद्ध कल्पना का तो ऐसी बातों में नामों- पीता । हजारों काम तू ऐसे करता है जिसके सामने निशान तक नहीं है, हमें तो इसमें सौन्दर्य का सर्वथा मद्य-पान तो बहुत तुच्छ ठहरता है। अभाव ही दीखता है। व्यापार-बुद्धि-प्रेरित कवियों- कला का प्रेमी उन्मत्त होता है। उसे न घासलेट कोविदा की कवितायें और शिक्षायें तो प्रत्यक्ष ही की परवा होतो है, न चाकलेट की; श्लोल और सत्यता-सौन्दर्य सं हीन हमारे आन्तरिक सुखों को अश्लील का उसे पता ही नहीं रहता। बिना प्रबल हानि पहुँचानेवाली हैं। इसी से तो एक स्थल पर अनुराग के कोई भलाई होती ही नहीं; प्रबल अनुराग खैयाम कहता है रखनेवाले ही धर्मात्मा हैं। विशुद्ध हृदय की सच्ची गोयन्द बहिश्तो हूरो कोसर बाशद । गतिमति का पता उपदेशकों को नहीं होता। कला जए मयो शहदो शक्कर बाशद ॥ नीति-अनीति के बन्धन से मुक्त होती है। इसका एक जाम बिदेह ज्यादः अभ ऐ साकी। जीवन उसी की खातिर है, इसे दूसरों के झगड़े से नकदे जहजार नसिया बेहतर बाशद ॥ क्या मतलब ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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