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________________ सरस्वती [भाग ३६ महान रहस्य से लाभ उठाने के लिए बड़े से बड़ा तीसरे ने कहा---"मेरा एक अत्याचार-पीड़ित . कष्ट उठाने के लिए तैयार न हो। मित्र है। मेरे सिवा उसका कोई नहीं। मैं मर कर . ___ यह देखकर आचार्य ने कहा-"अच्छा ! वही उससे विश्वासघात नहीं कर सकता।" सही जो तुम सब चाहते हो। अब ध्यान से मेरी बात चौथे ने कहा-"मेरा एक जानी दुश्मन है। सुनो। मेरे सामने ये सात गिलास रक्खे हैं। इनमें उससे बदला लिये बिना मैं मरना नहीं चाहता।" से एक में अमृत है । बाक़ी छ: में तेज़ से तेज विष पाँचवें ने कहा-"मैं अपना जीवन विद्या-प्राप्ति भरा है। अब यदि तुम उस रहस्य को मालूम करना के लिए अर्पित कर चुका हूँ। अभी मैंने कुछ भी चाहते हो तो आगे बढ़ा। एक एक गिलास उठा लो विद्या प्राप्त नहीं की है। इतना जल्दी मेरा मर जाना और गट गट पी जाओ। तुम में से छः फौरन मर ठीक नहीं है।" जायेंगे और सातवाँ जिन्दा रहेगा। मौत कभी उस छठे ने कहा-"जब तक चाँद के निवासियों से पर विजय न पा सकेगी, क्योंकि अमृत उसके शरीर बातें न कर लूँगा, मुझे मरना स्वीकार नहीं है।" में पहुँच जायगा। __ सातवें ने कहा-“गुरुवर ! न मेरी माँ हैं, न बहन, न मित्र, न शत्रु, विद्या से भी मुझे अधिक शिष्यों ने चकित होकर एक दूसरे के मुंह की ओर प्रेम नहीं है । परन्तु मुझे अपनी जान बड़ी प्यारी देखना प्रारम्भ कर दिया। फिर अपने गुरु के मुँह है। मैं सुन्दर हूँ और मैं इस भरी जवानी में मरना को गौर से देखा कि कहीं हँसी तो नहीं कर रहे हैं। नहीं चाहता।" फिर सातो गिलासों पर निगाहें जमा दी, जिससे आचार्य ने कहा-"तब तुममें एक भी ऐसा नहीं अमृतवाले गिलास को पहचान सकें। परन्तु न गुरु जो अमर जीवन के लिए अपने नाशवान जीवन के चेहरे पर हंसी थी और न गिलासों में ही किसी को ख़तरे में डाल सके।" प्रकार का फर्क था। शिष्यों की गर्दनें शरम से झुक गई और वे आचार्य की आवाज़ फिर बुलन्द हुई; उन्होंने आचार्य को कोई उत्तर न दे सके। कहा-"तम चकित और किंकर्तव्यविमूढ क्यों हो ? मुझे विश्वास था कि इस समय मैं तुममें से छः की लाशें यहाँ पड़ी तड़फ़ती देलूंगा।" कुछ देर के बाद शिष्यों ने सोच कर कहा-"गुरुपरन्तु आचार्य की इस बात का भी कुछ असर देव, हम आपस में परचा क्यों न डाल लें। जिसका न हुआ। केवल दो शिष्यों ने तो आगे को हाथ नाम पहले निकले वही पहला गिलास पी ले।" बढ़ाये, परन्त बाकियों ने साथ नहीं दिया, इसलिए आचार्य ने उत्तर दिया-"अच्छा, यही करो।" वे भी हिम्मत न कर सके। परचा डाला गया और पहिला नाम उस नवयुवक ___बड़ी देर तक खामोशी छाई रही। अन्त में एक का निकला जिसने अपनी माँ के होने का बहाना शिष्य ने कहा-"पूज्यवर गुरुदेव ! आप विश्वास किया था। परन्तु अब वह मजबूर था। दृढ़ पैरों से करें कि मेरी नज़र में जीवन का कुछ भी मूल्य नहीं वह आगे बढ़ा और आधी दूर तक हाथ भी बढ़ाया, है। किन्त मेरी एक बूढी माँ है । मैं ही उसका सहारा फिर एकदम उस साथी की तरफ मुड़ा जिसने हूँ। मैं डरता हूँ कि मेरे पीछे वह ठोकरें खायगी।" बहन के होने का बहाना किया था। उसने कहा- दूसरे शिष्य ने कहा-"मेरी कुँवारी बहन मौजूद "तुम जानते हो कि माँ का नाता बहन के नाते है। मैं मर जाऊँगा तो उसका क्या होगा?" से कहीं अधिक दृढ़ होता है। क्या यह अच्छा hcomic Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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