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________________ संख्या १] शिक्षाप्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता सकता, परन्तु सब विभाग मिलकर उसका अधिकांश खपा सकते हैं । वर्तमान- शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह है कि बीस बरस तक स्कूल और कालेज की शिक्षा प्राप्त करने पर भी बेचारा भारतीय युवक अपना, अपनी पत्नी और बच्चों का तथा अपने माता-पिता का पालन करने में असमर्थ रहता है । इसलिए इसमें श्रामूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है। बालक की शिक्षा का प्रारम्भ उसी समय से होना चाहिए जब से वह माता के गर्भ में आता है । इसके लिए युवकों और युवतियों को माता-पिता होने के पहले ही शिक्षित करना होगा । जिस प्रकार इंग्लेंड या दूसरे देशों में अपने पने देश काल के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था होती है, उसी प्रकार हमें भी अपने देश काल के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। इंग्लैंड में माता भी शिक्षित, पेता भी शिक्षित और पड़ोसी भी शिक्षित होते हैं । वहाँ नगभग प्रत्येक व्यक्ति को विद्यालय से लाभ उठाना ही पड़ता है । शिक्षा संस्थायें और शिक्षा सम्बन्धी प्रत्येक कार्य - कम एक दूसरे से सहयोग करते हैं। समाचारपत्र और पुस्तक प्रत्येक के हाथ में रहती है। प्रत्येक सम्भव उपाय पे पढ़ने-लिखने और ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा को प्रोत्साहन दिया जाता है- जनता के हृदय में शिक्षा के प्रेम ने अपनी जड़ जमा ली है । वहाँ शिक्षा जीवन की एक श्रावश्यक वस्तु हो गई है। इस बात का तन-मनवन से प्रयत्न किया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति जन्म से लेकर जीवनान्त तक प्रत्येक दशा में शिक्षा प्राप्त कर सके । इसी प्रकार के वातावरण में अँगरेज़ बच्चे का जन्म और पालन-पोषण होता है । क्या बाल-पाठशाला में, क्या प्रारंभिक पाठशाला में, क्या माध्यमिक स्कूल में और क्या शिल्प-स्कूल में, सब कहीं बड़ी तत्परता, रुचि और मनोयोग से उसकी शिक्षा होती है और अन्त में जब वह स्कूल से निकलता है तब उपयुक्त रोज़गार के सर्वथा योग्य होता है और इसमें भी उसकी समुचित सहायता की जाती है । यदि वह विश्वविद्यालय में प्रवेश करता है तो इसके लिए भी वह पूर्ण रूप से तैयार होता है और उत्साह एवं उच्चाभिलाषा से भरकर वह उच्च शिक्षा प्राप्त करने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat १३ में जुटता है । यदि भारतीय युवक को भी ऐसी ही परिस्थितियाँ प्रदान की जायँ, उसको भी समुचित अवसर और सुविधायें प्राप्त हों, तो वह भी जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है । भारतवर्ष के बाहर अँगरेज़ी भाषा की उपादेयता चाहे कितनी ही अधिक क्यों न हो, पर यहाँ तो लाभ की अपेक्षा उससे हानि ही अधिक हुई है । योग्यता प्राप्त करने के मार्ग में यहाँ वह तो नाधक ही हुई है । हमारे स्कूलों में शिक्षा का माध्यम सात समुद्र पार की एक विदेशी भाषा बनाई गई है। संसार के किसी सभ्य देश में शिक्षा का ऐसा स्वाभाविक माध्यम नहीं है । यद्यपि भारत में 'कुछ प्रान्तों में शिक्षा तथा परीक्षा के लिए कुछ विषयों में देशी भाषा का माध्यम स्वीकार किया गया है, तो भी अँगरेज़ी का प्रयोग अभी बहुत ही व्यापक रूप से होता है। यहाँ बालक सात वर्ष की ही अवस्था से अँगरेज़ी पढ़ना प्रारम्भ कर देता है और उसी समय से मातृभाषा की शिक्षा की उपेक्षा शुरू हो जाती है । फल यह होता है कि उस समय से लेकर स्कूल छोड़ने के समय तक उसका बहुमूल्य समय ऐसी भाषा की जानकारी प्राप्त करने में नष्ट होता है 'जिसके शब्दों के हिज्जे याद करना किसी भी विदेशी को पागल बना सकता है।' भारतीय जनता के जितने धन और परिश्रम एवं समय का इस प्रकार विनाश होता है उसका हिसाब लगाना कठिन है । कालेज की शिक्षा की भी यही दशा है । तिस पर तुर्रा यह कि कभी कभी कतिपय मनचले शिक्षा निरीक्षक यह कहते हुए संकोच नहीं करते कि हमारे युवकों में बहुत थोड़े ही अँगरेज़ी में शुद्धता से अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। जब स्वयं पूज्य मालवीय जी ऐसे अँगरेज़ी में धारा प्रवाह वक्तृता देनेवाले महापुरुष यह स्वीकार करते हैं कि “सात' वर्ष की अवस्था से लेकर आज तक लगातार अँगरेज़ी पढ़ने पर भी मैं अँगरेज़ी में उसकी आधी आसानी और विश्वास से नहीं बोल सकता जिस प्रकार कि अपनी मातृभाषा में" तब समझ में नहीं आता कि इन स्कूलों और सरकारी दफ़्तरों में अँग १ - कनवोकेन ऐड्रेस हि० वि० वि० १९१६ www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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