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________________ १५४ सरस्वती [भाग ३६ वह हृदय की अविरल साधना का सरल सौन्दर्य है। की है और प्रसन्नता की बात है अब हमारे कुछ नवयुवक उसका स्वरूप सर्वदेशीय और व्यक्तिगत दोनों हैं। कवियों का ध्यान फिर मूल रोमेण्टिसिज़्म की ओर फ्रेंच-साहित्य में आर्थर रिम्बाद, नर्वल श्रादि का जा रहा है। सङ्केतवाद, तेने, झोला, लेकान्त दे लिषिल प्रभृति के हिन्दी में वर्तमान सङ्केत की सृष्टि प्रधानतः तीन कारणों रोमेण्टिसिज़्म का उपपन्न है । सङ्केतवादी युग के बहुत से हुई है। प्रथम तो अँगरेज़ी अथवा योरपीय साहित्य पहले जड़-साधना-क्षब्ध फ्रांस में सुप्रसिद्ध औपन्यासिक के प्रभाव से, दूसरे बंगाली छायावाद के आकर्षण से फ़्लेबन ने प्रत्यक्ष जगत को असत्य मानकर आत्मविकासक और तीसरे कबीर की वाणी के पुनरुत्थान से। बंगाली कल्पना-साहित्य की सृष्टि की है। प्रभाववादी ([mpres- छायावाद अथवा कबीर के रहस्यवाद से उत्पन्न हिन्दी sionist) गनकोर्ल्स ने अपनी रचना में विश्व के उन सङ्केतवाद परिपक्व न होते हुए भी अपनापन लिये हुए काल्पनिक और व्यंजक चित्रों का आधार लिया जिनका सुन्दर है; किन्तु अँगरेज़ी की भावना से उत्पन्न सङ्केत कुछ अस्तित्व और छाया पर निर्भर रहता है। लेकांत ने अस्वाभाविक और अपरिपक्क हो गया है। इसका कारण यह जड़वादी होने पर भी पूर्वीय दर्शनालोक की 'निर्वाण'-उषा है कि बँगला का छायावाद कबीर के रहस्यवाद का सरस के वैभव का चित्रण किया। इस प्रकार कल्पनावाद के रूपान्तर है और इन दोनों में एकदेशीयता तथा जातीयता पश्चात् व्यंजनात्मक साहित्य का निर्माण हुअा और फिर है। हिन्दी के रहस्यवादी, छायावादी कहलानेवाले कवियों सङ्केतवाद की सृष्टि हुई । अँगरेज़ी-साहित्य में भी कालरिज में अधिकांश अँगरेज़ी से प्रभावित हुए हैं। मेरी समझ में शेली, बाइरन, कीटस आदि ने रोमेण्टिसिज्म की सृष्टि की। उनमें से एक भी पूर्णता अथवा परिपक्वता प्राप्त नहीं कर फिर ब्राउनिंग, मेरीडिथ तथा स्टेवेन्सन ने काव्य में व्यंजना सका है। वह या तो कभी केवल दार्शनिक ही रह जाता (suggestive style) का विशेषत्व स्थापित किया और है या कभी इहलौकिक सौन्दर्य के उपासक कवि के रूप तत्पश्चात् यीट्स, मनरो, गोरबूद, लॉ मेयर ने सङ्केतवाद में आता है । वह विशुद्ध सङ्केतवाद की सरसता को नहीं की स्पष्ट कला अंकित की। संसार के सभी साहित्यों में प्राप्त कर सकता, क्योंकि उसकी अनुभूति पर्यायवाची और इसी प्रकार, रोमेण्टि सिज़्म के पश्चात् क्रम से व्यंजकशैली रोमेण्टिक भावनायें अपरिपक्व ही रहती हैं। साथ ही वह और फिर सङ्केतवाद की सृष्टि होती है। सङ्केतवाद की भारतीय सङ्केतवाद का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। भूमि पर कविता अपनी उन्नति की सीमा पर पहँच जाती किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि वह कवि ही नहीं है। हिन्दी-साहित्य का विकास-क्रम निराला ही है। हिन्दी- हो सकता। ऐसे कवियों में कुछ तो महान् कलाकार के साहित्य का पुनरुत्थान अभी-अभी हुआ है, अतएव वह रूप में आते हैं । श्री सुमित्रानन्दन पन्त ऐसे कवियों में शीघ्र से शीघ्र विश्व-साहित्य के सभी अंगों से परिपूर्ण हो प्रमुख हैं। उनकी कल्पना सङ्केतार्थी और उच्च है; उनमें जाना चाहता है और इसी शीघ्रता के कारण उसके किसी काव्य-रस छलका पड़ता है, उनके शब्द-विन्यास में विशेष अंग की पूर्ति नहीं होने पाती । हिन्दी में खड़ी अनुपम सौन्दर्य और संगीत है, किन्तु उनके संकेत वाद में बोली के साथ ही रोमेण्टि सिज़म अाया, किन्तु उसकी (जो विस्मयवाद भी कहा जाता है) रोमेण्टि सिज़्म की शैशवावस्था में ही छायावाद के नाम से सङ्केतवाद का अपरिपक्वता के कारण पूर्णता एवं शाक्तिक एकीकरण नहीं जन्म हो गया। इससे हिन्दी-रोमेण्टि सिज़्म का सुन्दर है। उनमें साधना-उन्माद प्रतीत नहीं होता और साथ विकास न हो सका; उसकी धारा रुक गई। कहने का यह ही उनमें कबीर ऐसी तीव्रता भी नहीं है। उनके 'मौनतात्पर्य है कि हिन्दी में रोमेण्टिसिज़्म प्रगतिशील नहीं है। निमंत्रण' में लक्षणा-शक्ति का सुन्दर चित्रण है, किन्तु 'प्रसाद' जी की कला का प्राधार रोमेण्टिसिज़म ही है। भावों की तीव्रता शब्द-सौन्दर्य में अोझल-सी हो गई उन्होंने तरुणावस्था में सुन्दर रोमेण्टिक काव्य की रचना है। उसमें अप्रत्यक्ष सत्य का 'साकार' स्वरूप नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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