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________________ शिवप्रसाद गुप्त बाबू लेखक, श्रीयुत सीतलासहाय हिन्दी-लिपि और हिन्दी-साहित्य का गर्व करनेवाले बहुत हैं परन्तु कड़ाई के साथ अपने जीवन में उस गर्व को निभानेवाले एक मात्र बाबू शिवप्रसाद गुप्त ही हैं। राष्ट्र के साथ साथ उन्होंने राष्ट्र-भाषा की भी अभूतपूर्व सेवा की है। हमारे विशेष अनुरोध से बाबू सीतलासहाय ने आपके आदर्श जीवन की कुछ बातें यहाँ बताई हैं। बाबू शिवप्रसाद जी गुप्त के यहाँ अतिथि होने का सौभाग्य मुझे इस वर्ष वैशाख में करीब एक वर्ष के बाद प्राप्त हुआ । ‘सेवा-उपवन' वहीं स्थित है जहाँ गत वर्ष था। सुन्दर और सुगन्धित पुष्पों की क्यारियों और वृक्षों से तथा नाना प्रकार की लताओं और वल्लरियों से युक्त सेवाउपवन की वाटिका पूर्ववत् मनोहर है । श्री गंगा जी की उज्ज्वल धारा ग्राज भी इस उपवन की दूसरी मंज़िल से विश्वनाथ की निवास-भूमि काशी नगर को परिष्कृत करती हुई दिखाई देती है । किन्तु यहाँ एक बहुत बड़ी तब्दीली यह श्रा गई है। कि इस उपवन का स्वामी इस विशाल और रमणीक स्थान को छोड़कर सेवाउपवन के हाते के भीतर 1 ही एक फूस की झोपड़ी में निवास कर रहा है । उदारचरितों के मन में जीवन के किसी न किसी काल में जीवन की मधुर और मनोहर चीज़ों से एक प्रकार की अरुचि पैदा हो जाती है । जिन चीज़ों की प्राप्ति की अभिलाषा में साधारण पुरुष अपना सारा जीवन व्यतीत करते हैं उन्हीं चीज़ों से ये लोग दूर भागने लगते हैं। पूर्वीय संस्कृति में पले हुए व्यक्तियों में तो इस भावना का उदय और भी विशेषता से होता Tree Sudharmaswami. Cyanbhandar-Umara, Sural है । पिछले सत्याग्रह आन्दोलन के बाद से बाबू शिवप्रसाद जी सेवा उपवन के मुख्य भवन में न रहकर निकटस्थ एक पर्णकुटी में रहते हैं, जिसमें पहले पुस्तकालय था । इस मर्तबा एक वर्ष के बाद मुझे गुप्त जी से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था । अपनी पर्णकुटी में फूस के बरामदे के नीचे वे हैरिंगटन चेयर पर बैठे थे, जहाँ कभी कभी गरम 'हवा का झोका हम सब लोगों को वास्तविक लू का मज़ा चखा देता था । डेढ़ फुट लम्बाचौड़ा एक छोटा स्टूल उनके पास रक्खा था, जिस पर वे दो-चार चीजें रक्खी हुई थीं जिन्हें वे अपनी नज़र के सदा सामने रखते हैं । श्राश्रम - भजनावलि, गीता, तकली का छोटा बक्स, एक साधारण क़लमदान जिसमें लिफ़ाफ़ा खोलने की सलिया भी मौजूद थी, उस स्टूल पर रक्खा था। एक टेलीफ़ोन भी पास ही लगा हुआ था, मानो वह इस बात का प्रमाण था कि इस स्थान पर पूर्वीय और पश्चिमीय सभ्यता का मधुर सम्मिश्रण हो रहा है। जिसने बाबू शिवप्रसाद जी को दो-तीन वर्ष पहले देखा है उसे अब उन्हें पहचानने में कठिनाई होगी। दो आँखों का और चार अंगुल चौड़े माथे को छोड़कर www.umaragyanibhandar.com 210
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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