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________________ २६८ सरस्वती [भाग ३६ जल्दी से नोट-बुक को उठाकर उसके पृष्ठों को पलटा, रात को डाक्टर हरिकुमार सो न सके । बीसियों सुखविविध प्रकार के नुस्खे लिखे हुए थे। एक पृष्ठ पर उन्हें स्वप्न देखते रहे। उन्होंने काँटे को परे हटा कर मार्ग लिखा हश्रा नजर आया-ऐरोमा। उन्होंने झट वह या-'ऐरोमा । उन्होंने झट वह साफ़ करने का इरादा कर लिया था। अब उनका नाम माफ करने का पृष्ठ फाड़कर नोट-बुक को फिर वहीं फेंक दिया । सब कुछ 'ऐरोमा' के आविष्कारक की हैसियत से प्रसिद्ध होगा। पलक झपकते हो गया। उनकी ख्याति का पक्षी पर लगा कर संसार के चारों प्राणनाथ ने गर्दन को सहलाते हुए कहा-“डाक्टर कोनों में उड़ेगा। पहले वे डाक्टर थे-केवल डाक्टर, साहब, प्रतीत होता है, मेरी गर्दन पर किसी ने डङ्क मार अब वे ऐरोमा के आविष्कारक होंगे, जिसने दुनिया में दिया और कुछ क्षण के लिए मेरा सिर घूम गया और मेरी तहलका मचा दिया है। अब वे प्राणनाथ को उपेक्षाआँखें बन्द-सी हो गई। भरी दृष्टि से देखते । आत्मा पर स्वार्थ का पर्दा पड़ गया "काम बहुत करते हो । सिर तो चकरायेगा ही।" था। चिनगारी को राख ने छिपा लिया था। "लेकिन डंक !" "मच्छड़ होगा, चलो बाहर चलें। आज सिनेमा दिन गुज़रते गये। चलोगे क्या ? मिस भंडारी भी आ रही हैं ।" डाक्टर साहब प्राणनाथ को रोज़ खाने में 'टारकल' प्राणनाथ ने फिर गर्दन को सहलाते हुए कहा- विष की एक खूराक देते रहे। उन्होंने उसे स्थायी तौर पर "देखिए तो डाक्टर साहब. क्या चीज चभ गई है, अपने यहाँ खाना खाने के लिए बाध्य कर दिया था। डाक्टर हरिकुमार ने धड़कते हुए दिल के साथ झुक 'टारकल' ही एक ऐसा विष था जिससे वे प्राणनाथ को कर देखा, एक हलका-सा लाल रङ्ग का निशान पड़ा हुआ बे-खटके अपने मार्ग से परे हटा सकते थे। इस विष की था। उन्होंने सुई को 'ऐमनीशिया' में भिगो कर चुभो एक एक खूराक शरीर के अन्दर इकट्ठी होती रहती है दिया था। उनका रंग फक हो गया, परन्तु सँभल कर और खानेवाले को प्रतीत भी नहीं होता, किन्तु जिस बोले-"राम जाने क्या चुभ गया है ? यहाँ निशान- दिवस उसकी दो खूराकें दी जायँ उस दिन सब विष विशान तो कोई नहीं है । शीघ्र कपड़े बदल लो। पात्रो, अपनी सम्मिलित शक्ति से अपने शिकार पर आक्रमण तनिक बाज़ार घूम श्रावें। उठात्रो सब चीजें, देखो ज़मीन करता है और उसकी जान लिये बिना नहीं छोड़ता। पर बिखर गई हैं।" शनि का दिन था । लाहौर में प्रेम या कर्तव्य' नामक प्राणनाथ को जैसे किसी ने नींद से जगा दिया हो। चित्रपट ने सनसनी पैदा कर दी थी। लाहौर में पहली बार उसने जल्दी से नोट-बुक को उठाया और पतलून की ही यह फ़िल्म 'केपिटल' में लगी थी। प्राणनाथ ने भी जेब में ठूस लिया। फिर कोट पहन कर बाहर निकल यह खेल देखने का इरादा प्रकट किया । डाक्टर साहब अाया। किसी पक्षी को मारने का इरादा करो। वह झट ने इस अवसर को उपयुक्त जाना । खाने के साथ विष उड़ जायगा । फिर प्राणनाथ तो मनुष्य ही था । वह कैसे की दो खूराकें दे दी। प्राणनाथ खेल देखने चला गया, डाक्टर हरिकुमार के कुत्सित इरादों को न भाँप पाता ? उसे डाक्टर साहब ने सिर-दर्द का बहाना करके साथ जाने से कुछ कुछ आशंका अवश्य हो गई थी। प्रयोगशाला के इनकार कर दिया। बाहर एक अँगीठी जल रही थी। उसने नोट-बुक को उसमें आज न जाने कितनों को सिनेमाहाल से निराश फेंक दिया। अब जब उसे सब नुस्खे कंठस्थ हो गये थे लौटना पड़ा था। देखनेवाले बुत बने देख रहे थे। तब उसे उठाये फिरने की क्या ज़रूरत थी ? परन्तु उसे प्राणनाथ की निगाहें चित्रपट पर जमी हुई थीं। प्रेमिका क्या मालूम था कि चौकीदार रखने से पहले ही चोर की मुहब्बत और देश के प्रति कर्तव्य दोनों में जङ्ग छिड़ी अपना काम कर गया है ? हुई थी। ईमान और शैतान की लड़ाई थी। प्राणनाथ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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