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________________ प्रेमचन्द जी की रचना-चातुरी का एक नमूना संख्या २] कहानी में भी जिसे उन्होंने मेरे उपन्यास के आधार पर लिखा है, बदला लेने का भाव भरा हुआ है। उन्होंने यह साबित किया है कि जहाँ धन है वहाँ ऐयाशी का बाज़ार अवश्य गरम होगा । 'ऐयाश की स्त्री गर ऐयाश न हो तो यह उसकी कायरता है, लतखोरपन है । ' खेद है कि गांधी और टैगोर के युग में रहते हुए भी प्रेमचन्द जी घृणा का यह बीज बोते चले जा रहे हैं । चरित्र का निर्माण धन या निर्धनता पर नहीं, व्यक्तिगत इच्छा और प्रयत्न पर निर्भर है । प्रेमचन्द जी यह छोटी-सी बात क्यों नहीं समझने ( १ ) किसलिए काँपता रहता; पीपल - पत्र लेखक, श्रीयुत धनराजपुरी वह बिना वायु के प्रतिपल । है कौन वेदना उसको, जिससे पड़ती न ज़रा कल ? ( २ ) क्या अत्याचार जगत कालख, काँप काँप उठता है ? अपनी रक्षा में प्रस्तुत - वह भी हिलता डुलता है ! ( ३ ) था प्रकृति - गर्भ से निकला, वह अमित वेदना सहकर । क्या याद उसी की करके- कँपता है पल पल थर थर ? (8) या जगत-पिता का निशि-दिन(स्वर वीणा तुल्य मिलाकर !) वह गुण-गौरव गाता है अपना सिर हिला हिलाकर ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat और साहित्य-रचना में वे उस लेखक के प्रति कृतज्ञता का भाव क्यों नहीं प्रकट करते जिसकी रचनाओं के आधार पर रचना करके वे यश और धन का अर्जन करते हैं ? क्या मैं आशा करूँ कि मेरे इस निवेदन पर वे क्रोध नहीं, तिरस्कार नहीं, घृणा नहीं, बल्कि प्रेम और उदारता के साथ विचार करेंगे। इस समय मैंने इतना ही लिखना उचित समझा है, पर यदि आवश्यकता पड़ी तो अपने तर्कों को लम्बे उद्धरण देकर अधिक विस्तार के साथ भी उपस्थित करूँगा । ( ५ ) क्यों बार बार आ जाकर - भी जगत मोह में फँसता ? क्या देख नाट्य यह प्रतिपल वह मचल मचल है हँसता ? ( ६ ) निज रूप भूल, जग झुक क्योंकर रहा पाप का अर्जन ! क्या इसी लिए करता हैकर- इङ्गित से वह वर्जन ? (७) आधार सूक्ष्मतम पा करं १७७ क्या सँभल नहीं पाता है, जो इधर-उधर पल पल में वह हिल-डुल-सा जाता है । (=) मुसा ही जग-जीवन है पल पल हिल उठनेवाला ! क्या यही बताता है वहमत बेसुध हो मतवाला । www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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