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________________ ३९८ अभी वह अपनी बात खत्म न कर पाया था कि भाभी साहबा बिजली की तरह कड़ककर बोलीं- "दम भी लोगे या नहीं । बूट पहनाओ! चाचा जी तो बस יין. सरस्वती यह झिड़की खाकर अश्विन रोने लगा। उसी कारण मैं भौजाई की बात न सुन पाया। मैंने अश्विन से कहा" अरे सुनो, तुम्हारे बूट कहाँ हैं ? लाओ, मैं पहना दूँ ।" आँखें मलते मलते अश्विन मुझे शू रैक के पास ले गया। उसके जूते उठाकर पहना दिये । हम आँगन में आ गये। जेमी एक कोने में बैठा था । धूप का वह यों भी बहुत शौक़ीन है। लेकिन इस कोने में तो किसी तरफ़ से तेज़ हवा भी न थाती थी, इसलिए यह जगह उसे बहुत पसंद आई। जेमी के बालों के साथ सूर्य की किरणें खेल रही थीं। हम दोनों के पास आने पर उस पर छाया हो गई । अब मुझे ऐसा मालूम हुत्रा जैसे हमें देखकर किरणें छिप गई हैं और उन्होंने ग्राँख-मिचौनी बन्द कर दी है। जेमी की पीठ पर मैंने हाथ फेरना शुरू किया । इसका जवाब उसने पूँछ से दिया; वह हिलने लगी । मुझे ऐसा करते देखकर अश्विन ने डरते-डरते अपना हाथ आगे बढ़ाया और बालों को छुत्रा । जेमी बदस्तूर पड़ा रहा। अब तो अश्विन का हौसला बढ़ गया । उसने पहले जेमी के पाँव को हुआ, फिर पूँछ को और अंत में आहिस्ता से सिर को । " तुमको यह कुछ न कहेगा । " मैंने कहा – “इसका नाम जानते हो ? इसका नाम है जेमी साहब । बस, जेमी साहब कहकर पुकारा करोगे तो यह कुछ न कहेगा । दूसरों का तो यह काटा करता है, लेकिन तुमसे यह प्यार करेगा ।" साहब-शब्द सुनकर अश्विन को कुछ हैरानी हुई । उसने कहा - "चाचा जी, यह साहब है ?" "हाँ, यह जेमी साहब है ।" "यह साहब है तो फिर इसका टोप कहाँ है ?" " टोप ? टोप घर पर है ।" अब अश्विन का विश्वास हो गया कि यह सचमुच साहब है, क्योंकि इसका टोप भी है। वह फट दौड़कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat अपनी मा के पास गया। बोला- “भाभी जी, चाचा जी का जेमी ! इधर देखो, वह बैठा है, वह साहब है ।" ( भाग ३६ “हाँ बेटा, तुम्हारे चाचा जी भी साहब हैं और जेमी भी साहब है। दोनों एक जैसे साहब भौजाई का पारा नीचे उतर आया था। इसलिए उन्हें मखौल सूझा | अश्विन पर इस मखौल का तो क्या असर होना था, हाँ, उसे यह ख़याल ज़रूर हो गया कि जेमी साहब ही है। चुनांचे यह बात उसने बलंदी से भी जाकर कही । ין वक्त काफ़ी हो गया था, इसलिए लौटने की ठानी। भौजाई से इजाज़त माँगी। लेकिन इजाज़त का शब्द सुनते ही वे तो तैश में आ गई - " तुम्हारे मिज़ाज अत्र बिगड़ गये हैं। शहर में क्या रक्खा है जो इतनी जल्दी जाने की पड़ गई है ? क्या वह भौजाई बहुत खातिर करती है ? भाई, हमसे जैसी होगी वैसी रोटी खिला देंगे ।" "तो क्या जनाब रोटी के लिए इतनी नाराज़ हो रही हैं ? अंगर यही बात है तो लाइए मैं कच्ची रसद लेता जाऊँगा ।" " कच्ची रसद क्या ?" " सीधा, सीधा ! जैसे साधु दाल, चावल, आटा - कच्ची रसद लिया करते हैं वैसे मैं लेता जाऊँगा ताकि जनाब को तसल्ली हो जाय ?" अब भाई साहब भी सैर से लौटकर आ पहुँचे । राम राम के बाद उन्होंने पूछा - " क्यों हज़रत, आज इधर कहाँ ?" " आपके दर्शनों के लिए ।" मैंने कहा । "खाली दर्शन या कुछ और भी ?" "कुछ और भी । " "क्या ?" " कल मैंने इरादा किया था कि हर रोज़ सुबह सैर को जाया करूँगा । मुल्ला की दौड़ मसजिद तक हमारी सैर चौबुर्जी तक। लेकिन चलते वक्त डाक्टर साहब ने कहा कि मा जी का भेजा हुआ यह मिठाई वग़ैरह का पैकट भी लेते जाओ। बस, इसी लिए चला आया ।” " तब दर्शन की बात तो यों ही ग़प हुई न !” www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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