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________________ मल्लियों से सिकंदर का सिकन्दर और पुरु का युद्ध इतिहास में बहुत प्रसिद्ध है, परन्तु पुरु से भी अधिक पौरुष का परिचय मुल्तान के मल्लियों ने दिया था। इस लेख में 'सरस्वती' के पुराने लेखक श्रीयुत वनमालीप्रसाद शुक्ल ने उसी युद्ध का वर्णन किया है। मुकाबिला लेखक, श्रीयुत वनमालीप्रसाद शुक्ल लिन जान बबादशाह सिकन्दर पश्चिम- सिकन्दर घोर जलवृष्टि के कारण लगभग एक एशिया के अनेक राज्यों महीना तक महाराज पुरु की राजधानी में रुका एवं जनपदों को तृणवत् रहा। इसके बाद छत्रपति महाराज नन्द की पददलित करता हुआ असाधारण सैनिक शक्ति और अतुल सम्पत्ति की अपनी रक्तरंजित पताका वार्ता सुनकर वह मकदूनिया की विजयवाहिनी लेकर झेलम नदी के तट सेना के सहित पूर्व की ओर अग्रसर हुआ। उसके पर आ पहुँचा तब उसे आतंक से कायर तो भयभीत होकर शरण में आ ज्ञात हुआ कि अब तक जिन शत्रुओं को उसने गये, पर वीरों का रक्त खौल उठा और उन्होंने परास्त किया है उनमें और आर्यों में बड़ा अन्तर बढ़ते हुए शत्रु को रोकने या नीचा दिखाने के हेतु है। ये उसकी करालता एवं निष्ठुरता से भयभीत कोई बात नहीं उठा रक्खी । साँगल में ऐसे ही वीरों होकर अपनी स्वतन्त्रता, आत्माभिमान एवं गौरव से सिकन्दर की सेना को मुक़ाबिला करना पड़ा था। को युद्ध किये बिना समर्पित करनेवाले नहीं हैं। यद्यपि इस युद्ध में सिकन्दर की सेना विजयी हुई, इनकी देह में वज्र की शक्ति और आँधी-सा साहस तो भी कहना होगा कि पवित्र मातृभूमि को यवनों है। फिर भी वह अपने उद्देश से विचलित नहीं के पदाघात से बचाने के लिए साँगल के वीरों ने हुआ। और होता भी कैसे ? दिग्विजय की महत्त्वा- कुछ कम वीरता और युद्ध-कौशल नहीं प्रदर्शित कांक्षा उसे उल्लास प्रदान कर रही थी। नियति किया था और शत्रुओं को कुछ कम हानि नहीं उसका साथ दे रही थी। फल यह हुआ कि एक- पहुँचाई थी। अंत में सिकन्दर की सेना व्यास और मात्र भाग्यदेवी के प्रतिकूल होने से आर्यकुल-रवि सतलज के संगम-तट पर आकर ठहरी। महाराज पुरु युद्ध आरम्भ होते ही पराजित हो गये। यहाँ सैनिकों में काना-फूसी होने लगी। वे विजय-श्री सिकन्दर को प्राप्त हुई। इतना होने पर भी आपस में कहने लगे कि सम्राट् की बढ़ती हुई महाराज पुरु की निर्भीकता, निश्चलता एवं आर्यो- आकांक्षा को मान देकर उस अज्ञात एवं विस्तीर्ण चित आत्माभिमान में किंचित् अन्तर नहीं पड़ा। देश में जहाँ गंगा तथा ऐसे ही विस्तीर्ण अनेक नदीउनकी इस महत्ता को देखकर सिकन्दर ने न केवल नद अपने गुरु-गम्भीर गर्जन से वीरों के मन में भय उनका राज्य ही लौटा दिया, बरन जीतकर दूसरे उत्पन्न करते हुए बहते हैं, जहाँ महाराज नन्द के दो राज्य भी उन्हें दिये । इससे महाराज पुरु की अधी- लाख प्यादे, बीस हजार घुड़सवार और सैकड़ों नता में सात राष्ट्र, दो हजार नगर और सिन्ध के मदमत्त हाथी यूनानी सेना के मान-भंजनार्थ पूर्ववर्ती समस्त राजे आ गये। उपस्थित हैं, अपना अस्तित्व मिटाने की अपेक्षा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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