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________________ ५३० सरस्वती [भाग ३६० नर-नारी खड़े थे बन्दा राजा को देखने के लिए। राजेन्द्र ने बन्दा था। अब वाणा ही उसका एकमात्र सङ्गिना थी । फाल्गुन में जब वनों विमलादित्य को लेकर विजयी सेना के साथ नऔर नगर में प्रवेश में फूल खिल उठते थे, चिड़ियाँ मधुर स्वर में गा-गाकर समस्त दिन किया। विमलादित्य के हाथ शृङ्खला से बँधे थे। बन्दी राजा विमलादित्य कलरव किया करती थीं, दक्षिणी हवा व्याकुल भाव से आवेग के साथ मस्तक नोचे किये हुए धीरे धीरे चला जा रहा था. पहरेदार लोग बहने लगती थी, उस समय फाल्गुन की शुक्ल निशा में वह स्वच्छन्द. उसे घेरकर राजप्रासाद की ओर लिये जा रहे थे। करुणाहीन दर्शक भाव से वीणा बजाया करता, सुर की लहर लहर में वसन्त की उसका उपहास करने लगे और ज़ोर से हँस-हँसकर उसका तिरस्कार शोभा खिल उठती, वर्षा के आकाश पर जब कजल के समान काले करने तथा उसे धिक्कारने लगे। बहुत-से लोग कापुरुष कह-कहकर मेघ मँडराते रहते, गड़गड़ा कर बादल गरजा करते, रह रहकर उसके प्रति घृणा प्रकट करने लगे। बिजली चमक उठती, उस समय वह अपनी वीणा में मेघमल्लार की तरुण राजा विमलादित्य के शरीर का अतुलनीय मौन्दर्य मेघ में रागिनी बजाया करता था। उसके श्रोता थे वन के पक्षी और फूले आच्छादित निष्प्रभ चन्द्रमा के ममान मलिन था, किसी ने भी उसके हुए वृक्ष और लतायें। निराशा की वेदना में उसके दिन कट रहे थे, प्रति सहानुभूति की दृष्टि से नहीं देखा । राजकुमारी कुण्ठवि ने खुली किन्तु एक दिनहुई खिड़की की राह मे उस बन्दी राजा का मलिन मुखच्छवि देवकर हृदय में वेदना का अनुभव किया। उसकी आँखों में आम के दो एक दिन एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई । उस समय शरद बूंद गिरे, परन्तु किसी को उसका पता नहीं चल सका। ऋतु की शोभा विकसित हो उठी थी। नील निर्मल आकाश था कहीं से मानो एक नवीन आनन्द हृदय में लेकर कमल और कुमु बन्दी जब राजराजा के सम्मुख उपस्थित किया गया तब सब लोगों खिले थे, मधु के लोभी मधुप मधु का लुण्ठन करते करते गुनगुना र को आशङ्का हुई कि कठोर प्रकृति के राजा शायद इसी समय वेंगी के थे। ऐसा ही शरद्-ऋतु के एक प्रभात में उस समय भी मू राजा के प्राणदण्ड का आदेश करेंगे। विमलादित्य ने अपने शृङ्खला मे आकाश में प्रदीप्त नहीं हो उठे थे, केवल साना उड़ाकर सबवे बँधे हुए दोनों हाथ मस्तक से लगाकर सम्राट राजराजा को प्रणाम प्रसन्न और मुग्ध कर रहे थे। चिड़ियाँ घोंसले छोड़कर उठ ही भर पा किया । राजराजा ने गम्भीर भाव से उस अलस युवक के सुन्दर और थीं। विमलादित्य उपवन के एक कोने में एक शिला पर विराजमा विवर्ण मुख की ओर तीक्ष्ण दृष्टि से देखा। बाद को युवराज राजेन्द्र हो, शरद्-ऋतु के उस सुन्दर प्रभात में वीणा बजाने में तन्मय था से कहा-वेंगो-राज का बन्धन मुक्त कर दो। ठीक उसी समय अपनी सहचरियों को साथ में लिये हुए राजकुमार राजेन्द्र ने स्वयं आकर विमलादित्य का बन्धन मुक्त कर दिया। कुण्ठवि देवमन्दिर में पूजा करने जा रही थी। रक्षकों से व सम्राट की इस उदारता के कारण सब लोग हपध्वनि कर उठे। बाद घिरी हुई थी। उसके कानों में पड़कर उस वोणा को सुरलहरी ने एक को एकान्त कमरे में बैठकर राजराजा ने विमलादित्य के सम्बन्ध में नवीन जगत् का पता बतलाया। किस दण्ड का विधान किया, यह बात किसी का ज्ञात न हो सकी। राजकुमारी चकित हो उठी। उसके मन में यह बात आई कि इ. (८) बन के भवन में वीणा कौन बजा रहा है। पीनस से उतरकर उस विमलादित्य का राज्य आज राजराजा के अधिकार में है। सम्राट कहा-ज़रा मैं इस बगीचे में घूम आऊँ। पहरेदारों ने कहा-या ने राज्यशासन की नई व्यवस्था कर दी है। प्रजा उनके उत्तम शासन तो ठीक नहीं है। सहचरियों ने कहा-लौटने में विलम्ब होगा। परन् से सुखी होकर शान्तिपूर्वक निवास कर रही है, इससे वह चालुक्यराज राजकुमारी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। उसने कहा-होने दो, विमलादित्य को भूल गई है। इसमें उनका अपराध ही क्या है ? जाऊँगी। सहचरियों ने साथ चलने की इच्छा प्रकट की, किन्तु राजकुमार भूल जाना तो मनुष्य का धर्म है। विशेषतः ऐसे असावधान और ने राजहंसिनी के समान गर्दन उठाकर गर्वमय स्वर में कहा नहीं। विलासी राजा के हाथ से वे लोग मुक्त हो सके है, यह तो विधाता राजा की यह दुलारी कन्या है, यह बात तो किसी से छिपी को कृपा ही हुई। नहीं, इससे मुंह खोलने का साहस कोई नहीं कर सका। विमलादित्य नगर के बाहर एक विशाल भवन में अकेला ही रहा वन का हरा-भरा और सुहावना पथ था। दोनों ओर वृक्ष ही वृद्ध करता । कोई उससे मिलने या बात-चीत करनेवाला नहीं था। परन्तु लगे थे, वे सभी पत्रों तथा पुष्पों से सुरभित और सुसज्जित थे। वीप उसे प्रतिदिन के उपयोग की सभी वस्तुएँ यहाँ मिल जाती थीं। बजानेवाला उस समय मुग्ध होकर भावों में तन्मय था, सुरलहरी पहरेदार लोग उस भवन के तोरण के पास पहरा दिया करते। सप्तम पर पहुँच गई थी। शरद्-ऋतु के देवता मानो यहीं इस उपवन राजा कहीं बाहर नहीं जाने पाता था। तरुण चालुक्यराज अकेले ही में आकर बन्दी हो गये थे। पत्तियों की आड़ से आ-आकर सुनहरी बैठे बैठे वीणा बजाया करता । इस कला में वह बहुत ही निपुण किरणें उसके मुंह पर पड़ रही थीं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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