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________________ संख्या ६] प्राणदण्ड ५२९ - अन्त में सम्भव हो गया। एकलव्य की गुप्त साधना के समान होती रहती, गाँव गाँव में उत्सवगीत होते रहते । नगर धन-धान्य से. राजराजा की साधना सफल हुई। आज उसके दस लाख सैनिक युद्ध पूर्ण थे, देवमन्दिर स्तवगीत से मुखरित तथा भारती के घंटे से ध्वनित के लिए आवश्यक अस्त्र-शस्त्र से तैयार थे। सैकड़ों युद्धपोत रण के थे। ऐसा सुखमय युग था। गौरव से गर्वित थे। उनके मस्तूल पाल डालकर वन के वृक्षों के ऐसे ही समय में समाचार आया कि वेगी का राजा अभी तक समान आकाश की ओर मस्तक उठाये खड़े थे। इस प्रकार की सारी पराजित नहीं हो सका। वह इस समय भी स्वाधीन है। वेंगी छोटातैयारी हो जाने पर उस पहली मुलाकात के ठीक पाँच वर्ष बाद सा राज्य था, इसलिए राजराजा ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया था। सेनापति अविरम्यण ने आकर राजा के दर्शन की प्रार्थना की। शायद बाद को भी वह उधर ध्यान न देता। परन्तु वेंगी के राजा . राजराजा ने बड़े ही आदर के साथ सेनापति को ग्रहण किया। विमलादित्य ने राजराजा की राजधानी तऔर के एक वैश्य को इस पाँच वर्ष में सेनापति और भी वृद्ध हो गया था। उसके मस्तक अपमानित और लाञ्छित किया था, इसलिए इस अनुचित अपमान के के सभी बाल सफेद हो गये थे, किन्तु मुख में प्रसन्नता की प्रतीकार के लिए. राजराजा सोये हुए सिंह के समान जाग पड़े। उन्होंने मुस्कराहट थी। अपने पुत्र राजेन्द्र में कहा कि जिस प्रकार भी सम्भव हो, इस उद्धत एक दिन चेर तथा पाण्ड्य देश के राजाओं ने राजराजा के पास दृत राजा को बन्दी करके लाओ, अन्यथा जीवित अवस्था में मत लौटना। भेजकर कहलाया था कि या तो हमारी अधीनता स्वीकार करो या युद्ध पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके राजेन्द्र ने बेंगी के राजा के विरुद्ध करो। आज उसके उत्तर के रूप में चोलराज्य का दूत चेरराज्य तथा युद्ध करने के लिए प्रयाण किया। अन्यान्य तामिल-राजाओं के पास यही सन्देश लेकर गया। चेरराज्य ने उद्धृत-भाव से कहा-मैं युद्ध करूँगा। पाण्ड्य-राज्य ने कहा- राजा विमलादित्य को प्रजा नहीं चाहती थी। सैनिकगण भी सोचकर उत्तर दूंगा। उसके प्रति श्रद्धा नहीं करते थे । जो राजा प्रजा का पालन नहीं करता, राजराजा ने अब युद्ध की घोषणा कर दी। पहले युद्ध हुआ चेर- जो राजा सैनिकों को वेतन नहीं देता, दीन-दुखियों के दुख से दुखी राज्य के साथ। चेरराज्य जल तथा स्थल दोनों ही प्रकार के युद्ध में होकर आँसू नहीं बहाता, उसकी दुरवस्था देखकर प्रजा क्यों आँसू पराजित हुआ, उसकी नौवाहिनी ध्वंस हो गई, उसका अहङ्कार चूर्ण बहावे ? सैनिकगण ही उसके लिए क्यों लड़ने लगे ? राजा विमलादित्य हो गया। इसी प्रकार पराजित होने पर पाण्ड्य-राज्य ने भी उसकी राजकार्य नहीं देखा करता था। वह केवल आमोद-प्रमोद में ही अधीनता स्वीकार कर ली। विजय-लक्ष्मी ने उस दिन जो गौरव की अपना समय व्यतीत किया करता था, प्रजा के सुख-दुख का उसे माला हाथ में लाकर राजराजा को पहनाई थी वह आजन्म अम्लान-भाव कोई ख़याल नहीं था। राजेन्द्र चोल जिस समय अपना दल-बल लेकर से उनके गले में भूलने लगी। विमलादित्य की राजधानी के तोरण के सम्मुख पहुँचा और मोरचाबन्दी देखते देखते चोलराज्य समस्त करमण्डल-समुद्र-तट तक विस्तृत कर दी, उस समय विमलादित्य की आँखें खुलीं। किन्तु कहाँ उसके हो गया। राजराजा ने एक-एक करके अपनी मेनाओं का दिग्विजयी सेनापति थे, कहाँ मन्त्री थे और कहाँ सैनिक थे ? कोई उसके पास तक दल लेकर उत्तर में कलिङ्ग और दक्षिण में सिंहल तक विजय न फटका । सैनिकों ने कह दिया कि हम युद्ध नहीं करेंगे। उन्होंने कर लिया। माचा कि राजराजा प्रजावत्सल राजा हैं। वे चोल हैं तो इससे हानि राजधानी तंजौर अतुल धन-सम्पत्ति में ऐश्वर्यशाली हो उठा। ही क्या है ? हम चालुक्य होकर भी तो चालुक्यराज से किसी प्रकार वहाँ राजराजा ने एक अपूर्व देव-मन्दिर बनवा दिया। वह देव- के उपकार की आशा नहीं कर सकते ? वेंगी-राजा की एक चिड़िया भी मन्दिर आज भी वर्तमान रहकर उनकी कीर्ति का गौरव प्रकाशित राजा के पक्ष में युद्ध करने के लिए तैयार न हुई, विन्दुमात्र भी कर रहा है। इसी प्रकार देश पर देश जीतकर वे दक्षिण-भारत रक्तपात न हुआ। अनायास ही वेंगी पर विजय हो गई। बन्दी के एक विजयी सम्राट के रूप में परिगणित हो गये। उनकी उपाधि विमलादित्य की मुखश्री मलिन हो उठी। विजयी राजराजा के सैनिक हुई राजाधिराज राजचक्रवर्ती । विजय के उल्लास में वेंगी-राजा के हृदय पर आधात पर आघात पहुँचाने लगे। लज्जा और अपमान से उसका मस्तक नत हो उठा। इसी तरह बहुत दिन बीत गये। राजराजा अब प्रौढ़ हा चुके . इस विजय का समाचार पाकर राजराजा आनन्द से गद्गद हो थे। सेनापति अबिरम्यण दिवंगत हो गया था। युवराज राजेन्द्र उठे। विजय का डंका बज उठा, देवमन्दिरों में पूजा-पाठ होने लगे। तरुण युवक था। सैन्यदल का वह प्रिय सेनापति था। सर्वत्र शान्ति, सर्वत्र सुख-समृद्धि विराजमान थी। कमला के कमल हास्य से खेत-खेत उस दिन राजमार्ग में बेहद भीड़ थी। घर घर, बरामदों में तथा । में हरी-भरी खेती लहलहाती रहती, नदियों में क्षीर की धारा प्रवाहित खिड़कियों के पास सर्वत्र आदमी ही आदमी भरे थे। क़तार के कतार का. ७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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