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________________ संख्या ४] भूषण का महत्त्व ३६५ फुटकर कवित्तों के अतिरिक्त "भूषणहजारा", "भषण- प्रत्यक्ष शंकर का अवतार, हिन्दु-जाति के उद्धार के उल्लास" और "दूषण-उल्लास" ये तीन ग्रन्थ उनके लिए, मान लिया था। हिन्दुओं की सम्पूर्ण शक्ति, और भी सुने जाते हैं। इन ग्रन्थों के नामों पर से बलवीर्य और पराक्रम का एकत्रीकरण एकमात्र भी यही मालूम होता है कि महाकवि भषण की शिवाजी में ही हो रहा है-ऐसी भावना उस समय प्रवृत्ति मुक्तक छन्द लिखने की ओर थी। क्रमवार प्रत्येक हिन्दू-हृदय में कम से कम महाराष्ट्र में तो युद्ध-वर्णन की ओर नहीं। सर वाल्टर स्काट की अवश्य ही छाई हुई थी। शिवाजी का राज्याभिषेक तरह इन्होंने छत्रपति शिवाजी के किसी युद्ध का पूरा ही इस मसलहत से किया गया था कि हिन्दू-जाति पूरा वर्णन तो नहीं किया; परन्तु फुटकर यद्ध-काव्य की सम्पूर्ण स्वराज्यभावना एक ही जगह आकर लिखने में महाकवि भूषण ने जितनी सफलता प्राप्त केन्द्रीभूत हो जाय। इसी लिए भूषण कवि ने भी की है, उतनी शायद ही किसी हिन्दी कवि ने प्राप्त की अपनी कविता में सम्पूर्ण हिन्दू जाति को सम्बोधित होगी। शिवाजी की कई चढ़ाइयों का बहुत ही करके उसको उभाड़ने की आवश्यकता नहीं समझी। उत्कृष्ट और उद्दण्ड वर्णन इन्होंने किया है। शत्रुओं एक शिव छत्रपति को ही उन्होंने समस्त हिन्दू-जाति पर शिवाजी का जो आतंक और प्रभाव था, उसका का प्रतिनिधि मान लिया था। कवि की यही भावना बहुत ही अओजस्वी वर्णन भूषण के कवित्तों में पाया निम्नलिखित कवित्त से भी प्रकट होती हैजाता है। रौद्र, वीर, भयानक इन तीनों रसों का राखी हिन्दवानी हिन्दवान को तिलक राख्यो, जैसा पूर्ण परिपाक इस महाकवि के काव्य में पाया स्मृति औ पुरान राखे बेद-बिधि सुनी मैं। जाता है, वैसा अन्य कवियों की कविता में नहीं में नही राखी रजपूती रजधानी राखी राजन की, पाया जाता। धरा में धरम राख्यो राख्यो गुन गुनी मैं । ___ यह बात ज़रूर है कि उन्होंने सम्पूर्ण हिन्दू-जाति को सम्बोधन करके अपनी कविता नहीं रची है, _ भूखन सुकवि जीती हद्द मरहट्टन की, और जिस काल तथा जिस परिस्थिति में भूषण कवि देस देस कीरति बखानी तव सुनी मैं । ने अपनी रचना की है, उस समय सम्पूर्ण हिन्दू साहि के सपूत सिवराज, समसेर तेरी, जाति को लक्ष्य करके उसको उभाड़ने की आवश्य दिल्ली दल दाबि कै दिवाल राखी दुनी मैं ।। कता भी नहीं थी। वह छापेखाने और रेल-तार का भूषण के अनेक ऐसे कवित्त हैं कि जिनसे उनका युग नहीं था कि पूरी जाति को एकदम कोई वीर- स्वजातिप्रेम भली भाँति प्रकट होता है। राजकवि सन्देश पहुँचाया जाता। इसके सिवाय उस समय टेनिसन की भाँति उनको अपने समय का जातीय की कवि-परिपाटी भी ऐसी नहीं थी। विनोद. और प्रतिनिधि कवि कहना चाहिए। हिन्दूपन और विहारी जी को यदि थोड़ा भी ज्ञान शिवाजी के जातीय गौरव का जितना भाव इस कवि में पाया समय की ऐतिहासिक परिस्थिति का होता, तो वे जाता है, उतना अर्वाचीन काल के किसी कवि में ऐसा कदापि न लिखते। मुग़लकाल में महाराना नहीं पाया जाता। प्रताप और छत्रपति शिवाजी, ये दो विभूतियाँ ऐसी औरंगजेब के अत्याचारों का भी भूषण कवि ने हो गई हैं कि इनके व्यक्तित्व में ही हिन्दू-जाति का कई कवित्तों में बहुत ही सजीव वर्णन किया है सम्पूर्ण अस्तित्व मान लिया गया था। उस समय और शिवाजी की वीरता और शत्रुओं पर उनकी मुग़लों के अत्याचार से तमाम हिन्दू-जाति त्रस्त थी, विजय का वर्णन ऐसे ओजस्वी शब्दों में किया है और छत्रपति शिवाजी को उसी समय लोगों ने कि उसको पढ़ते समय, शायद ही ऐसा कोई कायर, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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