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________________ १६४ सरस्वती [ भाग ३६ ज्ञान से उसे उबुद्ध तथा सचमुच बलिष्ठ कर सकें। व्यव- है जिनसे स्त्रियों के प्रति अनादर और अविचार का भाव हार के लिए अनुपयोगी 'दर्शन-शास्त्र' वास्तव में जाति प्रकट होता है और लेखक महोदय जिन्हें 'प्रक्षिप्त' के जीवन में अकर्मण्यता और आलस्य का ही प्रसार समझते हैं। करता है । इस दृष्टि से लेखक महोदय का यह प्रयत्न शिक्षा का रूप' नामक अध्याय में कन्याओं को स्तुत्य है। आशा है, मोहता जी गीता के अन्य शेष 'कन्या-गुरुकुलों' में शिक्षा के लिए भेजने की सम्मति दी अध्यायों की भी व्याख्या करके अपने ग्रन्थ को पूर्ण गई है । जान पड़ता है, लेखक महोदय सहशिक्षा के करेंगे। गीता के प्रेमी सजनों को इस पुस्तक का जो लेखक विरुद्ध हैं । उन्होंने ज़ोरदार शब्दों में सह-शिक्षा से होनेमहोदय के गम्भीर चिन्तन, मनन, अध्ययन और सत्संग वाली हानियों की ओर जनता का ध्यान आकृष्ट किया है। का परिणाम है, उचित आदर करना चाहिए। पुस्तक उपयोगी है। ६--मनु और स्त्रियाँ ---ग्रन्थकार श्रीयुत चिन्तामणि ७-८ --सीतारामीय श्री मथुरादास जी महाराज'मणि', प्रकाशक, इंडिया बुक एजेन्सी, ६७ महाजनी कृत दो पुस्तकेंटोला, इलाहाबाद हैं । पृष्ठ-संख्या ३८२, मूल्य ६) है। (१) कल्याण कल्पद्रुम--इस ग्रन्थ में प्राप्य (ईश्वर) इस पुस्तक में लेखक महोदय ने यह दिखलाने का तथा जीव का स्वरूप, कर्म, ज्ञान तथा भक्ति द्वारा प्राप्य प्रयत्न किया है कि 'मनु' की 'मनुस्मृति' में स्त्रियों के प्रति तक पहुँचने के उपाय, नवधा भक्ति तथा प्रेमा भक्ति आदि अन्यायपूर्ण तथा अनुचित नियमों का उल्लेख कहीं नहीं विषयों का प्रतिपादन किया गया है। व्याख्याकार ने है । 'मनु' की दृष्टि में स्त्रियाँ आदर और सत्कार की पात्र शास्त्रीय प्रमाणों तथा हिन्दी के अन्य सन्त कवियों के पद्यों तथा मनुष्यों के समान ही समानाधिकारों की भागिनी कही को उद्धृत करके प्रतिपाद्य विषय को यथासंभव सरल गई हैं । पुस्तक में स्त्रियाँ कौन है, स्त्रियों की स्वतन्त्रता, और सुबोध बना दिया है। सर्व-धर्म-समन्वय की भावना उनके अधिकार, शिक्षा का रूप, दण्ड-विधान, तलाक- से पुस्तक अोतप्रोत है। छपाई सुन्दर है। धर्म-जिज्ञासयों समस्या, विधवा-विवाह, अन्तर्जातीय विवाह आदि अनेक को इसका संग्रह करना चाहिए। पृष्ठ-संख्या ३६५ तथा सामयिक तथा आवश्यक प्रश्नों पर विचार किया गया मूल्य ११) है। है । पुस्तक के रूप में इसे हम एक निबन्ध कह सकते हैं, (२) गीतागुह्यतमोपदेश-प्रस्तुत पुस्तक में लेखक जिसमें लेखक महोदय ने एक ओर तो यह दिखलाने का महोदय ने श्रीमद् भगवद् गीता के “मन्मना भव मद्यत्न किया है कि मनु के ऊपर किये जानेवाले स्त्री- भक्तो” तथा “सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज" विषयक आक्षेप निराधार हैं और दूसरी ओर अनेक ऐसे आदि श्लोकों के आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि विषयों का वर्णन किया है जो स्त्रियोपयोगी होते हुए भी ज्ञान, कर्म, भक्ति श्रादि योगों की अपेक्षा 'शरणागतिमनु या उनकी स्मृति से कोई सम्बन्ध नहीं रखते । 'आँखों योग' ही श्रेष्ठ है और इसी शरणागति-योग का प्रतिपादन का परदा' नामक शीर्षकवाले अध्याय में स्त्रियों के प्रति करना गीता का मुख्य विषय है । वैष्णव-संप्रदाय का ग्रन्थ किये गये अत्याचार, अपहरण तथा बलात्कार को कुछ होने के कारण पुस्तक के अन्त में लेखक महोदय ने वैष्णव एक घटनात्रों को भी लेखक ने अखबारों से लेकर पंच संस्कारों, तप्त मुद्राओं से धनुष बाण आदि के चिह्न उद्धृत कर दिया है । हमारी सम्मति में इन घटनाओं को भुज-मूलों पर अंकित करना, ऊर्ध्व पुण्ड्र-धारण आदि का पुस्तक में न देने से भी पुस्तक के प्रतिपाद्य विषय में कुछ करना भी शरणागत के लिए आवश्यक बतलाया है। न्यूनता न आती। मनुस्मृति के अनेक श्लोकों के अर्थ ऋग्वेद के "पवित्रं ते विततम्" इत्यादि मंत्र से भी करने में भी खींचातानी से काम लिया गया है । 'परिशिष्ट' शरीर को वैष्णव-चिह्नों से दग्ध करने का नियम सिद्ध नामक अध्याय में ऐसे श्लोकों की ओर निर्देश किया गया करने का प्रयत्न किया है। रामानन्दी संप्रदाय के श्रद्धालु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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