SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ सरस्वतो [भाग ३६ है ! ध्रुव से पहले-पहल नारद जी से पाँच मिनट की ही (४) बूढ़े माता-पिता और बड़े-बूढ़ों का आदर करना तो मुलाकात हुई थी। “धन्य घड़ी सोइ जब सत्संगा।" तथा उनके विचारों और इच्छाओं के अनुकूल चलना पारस-पत्थर का ज़रा-सा स्पर्श होते ही लोहा सोना बन तो आज-कल के युग में बहुत ही कठिन होता जा रहा जाता है। है । ब्याह हो गया और थोड़ी-सी जीविका का प्रबन्ध मज्जन फल देखिय तत्काला। हो गया कि बड़े-बूढ़े बेकाम और माता-पिता भार-रूप काक होहिं पिक बकहु मराला ॥ मालूम होने लगते हैं। वृद्ध माता-पिता का शारीरिक शठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पोषण तो लोकलज्जा के कारण कर भी दिया जाता पारस परसि कुधातु सुहाई॥ है, परन्तु उन्हें मानसिक संतोष पहुँचाना तो आज-कल सत्संगति क्या क्या नहीं करती ! राजर्षि भर्तृहरि एक बला मानी जाती है ! हिन्दू-कुटुम्ब-प्रणाली का कहते हैं कि वह सब कुछ कर सकती है; बुद्धि की जड़ता प्राचीन आदर्श बहुत उच्च था-माता-पिता की गिनती को हरती, वाणी में सत्य को खींचती, मान को बढ़ाती, देवताओं में की जाती थी । किसी-किसी घर में यह आदर्श पाप को दूर करती, चित्त को प्रसन्न रखती और दिशाओं अब भी दिखलाई पड़ता है। अस्तु, रामचन्द्र जी ने उस में कीर्ति को फैलाती है। जिस संगति से ये परिणाम नहीं हो प्राचीन श्रादर्श का उपदेश कई प्रसंगों पर किया है । सकते उसे सत्संग कैसे कहें ? जिससे ये परिणाम हो सकते अपने आचरण से भी उन्होंने अादर्श पितृ-मातृ-भक्ति हैं वह मूल्यवान सत्संग सचमुच दुर्लभ है। ऐसे दिखलाई है। राज-तिलक के दिन सहसा वनवास की राजहंस-रूपी विवेकी और सुधा के समान प्राणदायक आवश्यकता देखकर वे तिल भर भी दुखी न हुए और सज्जन बहुतायत से कहाँ मिल सकते हैं ? कैकेयी से प्रसन्नतापूर्वक कहने लगे-- (३) प्रायः देखा जाता है कि हम कहते कुछ और सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी । हैं और करते कुछ और हैं । हाथी के दाँत दो प्रकार के जो पितु मातु वचन अनुरागी । होते हैं---खाने के और दिखाने के और । दूसरे की विपत्ति तनय मातु पितु तोषनिहारा । के समय स्वयं धीरज रखने का उपदेश देना अलग दुर्लभ जननि सकल संसारा । बात है और अपनी विपत्ति के समय स्वयं धीरज रखना (अयोध्याकाण्ड) अलग बात है। जैसा कहना वैसा करना सबसे ___ अर्थात् वही पुत्र बड़ा भाग्यवान् है जो अपने माता-पिता नहीं होता। यदि ऐसा हो जाता तो संसार स्वर्ग बन के वचनों का प्रेमी अथवा अाज्ञाकारी हो; माता-पिता को जाता। हम जिन बुरी बातों (चोरी, जुत्रा, मद्य-पान, संतोष देनेवाला पुत्र सारे संसार भर में दुर्लभ है। अत्याचार) के लिए दूसरों को मना करते हैं, उन्हीं का जो अपने माता-पिता और पूज्यजनों की सेवा को श्राचरण स्वयं करते हैं। इसी लिए दूसरों पर हमारे उप- परम धर्म माने, उनकी आज्ञा का पालन करने में अपना देशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। "पर-उपदेश-कुशल सौभाग्य और पूरी भलाई समझे और उनका रुख देखकर बहुतेरे । जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥ (लंकाकाण्ड)" चले, वह सुपुत्र बड़े भाग्यवाले को मिलता है। अपने वचनों और उपदेशों के अनुसार स्वयं अाचरण "धन्य जनम जगतीतल तासू । करनेवाले आदमी संसार में बहुत कम हैं—जो है वे पितहिं प्रमोद चरित सुनि जासू ॥" धन्य हैं । जिसमें मन, वाणी और कर्म की एकता पाई जिसके चरित्रों को देख-सुनकर पिता को आनन्द हो वह जाती हो उसे आप दुर्लभ पुरुष ही समझिए-वह पुत्र धन्य है । ऐसा पुत्र निस्सन्देह दुर्लभ है। चाहे बूढ़ा हो या दरिद्र, अपढ़ हो या रोगी–वह कोई (५) संसार चापलूसी की मीठी बातें पसन्द करता महापुरुष अथवा श्रेष्ठ जीव है। है। ठकुरसुहाती कहते जाइए, दुनिया चाव से सुनेगी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy