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संख्या ५]
युद्धों की अनिवार्यता
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है, हड़प जाती है, उसी तरह पशुओं में भी हुआ कि वस्तु-स्थिति यह है कि आज हम एकदेशीय बलवान् निर्बल को अपना ग्रास बना लेता है। पशु- धर्म, ऐकान्तिक जातीयता आदि के लिए लड़ मरते जगत् में प्रत्येक कमजोर प्राणी अपने से बली प्राणी हैं और विश्व-धर्म की तरफ किसी का ध्यान भी का शिकार है, इसमें निर्बल की कोई रक्षा नहीं। नहीं जाता। यदि कोई विश्व-धर्म का नाम तक सचमुच निर्वल के जीने का अधिकार ही नहीं। लेता है तो वह आदर्शवादी, स्वप्नदर्शी आदि कह
मनुष्य भी तो एक पशु है-चौपाया नहीं तो कर हास्य का पात्र बनाया जाता है। दोपाया ही सही। धर्म, सभ्यता, सदाचार, नीति आदि तब यही सत्य है कि मनुष्य युद्ध-प्रिय है, स्वार्थतो केवल पागल दार्शनिकों के आविष्कार हैं। किसी परायण है, अल्प-दृष्टि है, आत्मैकनिष्ठ है और एक के सम्बन्ध में कोई अन्तिम निर्णय नहीं, कोई आचारहीन है। स्वभावतः घृणा करना, दूसरे की एकमत नहीं। भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार भिन्न उन्नति से जलना, अपने ही कल्याण में तन्मय रहना भिन्न परिभाषाओं के कारण धर्म आदि का कोई मानवीय धर्म है। एक समय था जब मनुष्य अपने स्वरूप निश्चित नहीं। सभ्यता तथा सदाचार की परिवार, अपने देश तथा अपनी जाति तक परोपकार कोई सर्वमान्य पद्धति नहीं। मनमानी नीति का करना अपना कर्तव्य समझता था, परन्तु आज लक्षण, धर्म का अनियमित आडम्बर मानवीय पाश्चात्य सभ्यता के कारण यह भावना भी प्रतिदिन बुद्धि पर कलङ्क है। क्या हुआ यदि मनुष्य ने ह्रास को प्राप्त हो रही है। हाँ, राजनैतिक उद्देश से एक वैज्ञानिक आविष्कारों से स्थल, जल और वायु पर हो जाना, अपनी स्वाधीनता-रक्षा अथवा सम्मानविजय प्राप्त कर लिया ? क्या हुआ यदि अनोखे रक्षा के लिए संगठित हो जाना अब तक भी स्वतंत्र भौतिक चमत्कारों से मानवीय प्रतिभा ने शायद देशों में अवशिष्ट है-यहाँ तक एक बन्धुत्व का ईश्वर को भी आश्चर्य-चकित कर दिया ? क्या हुआ अंश अब तक बचा हुआ है । इतना भी अवश्यमेव यदि दार्शनिक जगत् में उत्कृष्ट आध्यात्मिक कल्पनाओं प्रशंसा के योग्य है। मनुष्य का इतना महत्त्व तो की सृष्टि की जा सकी ? मनुष्य ने अब तक संसार अवश्य स्वीकार करना चाहिए कि कुछ सीमा तक के निःश्रेयस के लिए, विश्व के कल्याण के लिए कौन- उसने पाशविकता को दबाया है और मानवीय सा आविष्कार किया है ? उसने आज तक अपने भ्रातृत्व की कल्पना को सर्वथा विलुप्त होने से सुदीर्घ इतिहास-काल में ऐसा कौन-सा चमत्कार बचाया है। किया है जिससे संसार में होनेवाले रक्तपातों, ध्वंस- परन्तु किसी राजनीति-शास्त्र अथवा मनोविज्ञान कारी संहारों की समाप्ति हो सके ? ।
के विद्यार्थी को मनुष्य-स्वभाव की दुर्बलता तथा संसार के सत्यान्वेषकों, शास्त्रकारों, धर्म- असमता के कारण युद्धों की अनिवार्यता समझ में संस्थापकों ने अपने बुद्धिबल से कितनी ही सुन्दर आ सकती है, मनुष्य की अदूरदर्शिता-संकीणरचनायें की हैं। किसी ने उदात्त अदृश्य सृष्टि की रचना हृदयता के कारण विश्व-प्रेम की असम्भवनीयता की, किसी ने समाज-संगठन का निर्माण किया और बुद्धिगम्य हो सकती है। जो बात बिलकुल समझ में किसी ने अपने ही धर्मस्वरूप को सर्वोत्कृष्ट बतला- नहीं आती वह युद्ध-पोषकों की विचित्र तर्कशोलता कर अपने अनुयायियों में संघ-शक्ति का अद्भुत है। वे अच्छे-बुरे सब उपायों से युद्धों की उत्कृष्टता चमत्कार दिखलाया। परन्तु किसी ने विश्व के के गीत गाते हैं। उनकी सम्मति में युद्ध न केवल एक सर्वाङ्गीण अभ्युदय का मार्ग नहीं बतलाया । यदि अनिवार्य परन्तु अन्तर्जातीय व्यवस्था के लिए बतलाया भी तो उसका प्रभाव इतना थोड़ा आवश्यक तत्त्व है।
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