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सरस्वती
ने भी अपनी अपनी सेनाओं के बढ़ाने की माँग की है। यही नहीं, हाल में तो ग्रास्ट्रिया ने यह व्यवस्था भी कर दी है कि उसके राजघराने के लोग जो अभी तक देश-निकाले का दण्ड भोग रहे हैं, आस्ट्रिया में लौट श्रावें और अपनी खानगी सम्पत्ति का उपभोग करें । ताज्जुब नहीं कि कुछ दिनों के बाद हैप्सवर्ग घराने के वर्तमान उत्तराधिकारी राजकुमार प्रोटो आस्ट्रिया के सिंहासन पर भी बिठा दिये जायें। जर्मनी ने भी कैसर के जर्मनी वापस आ जाने की सारी बाधायें हटा दी हैं और
श्चर्य नहीं, भूतपूर्व सम्राट् विलियम अपनी सुविधा के अनुसार फिर जर्मनी में श्रा जायें। इन परिवर्तनों से लाभ उठाने में तुर्की के कमालपाशा कैसे उदासीन रह सकते हैं ? उन्होंने भी दरे दानियाल के ग्रास-पास के चलों में पहले की ही भाँति फिर किलेबन्दी करने की माँग पेश की है । इस तरह महायुद्ध के ये पराजित राष्ट्र अपनी स्वतन्त्रता पूर्ण रूप से व्यक्त कर रहे हैं और वे सन्धिपत्रों की खुल्लम-खुल्ला उपेक्षा करते जा रहे हैं । सारांश यह कि योरप के बड़े बड़े राष्ट्रों में एकमत नहीं रहा और जो सन्धि-पत्र उन्हें एक सूत में बाँधे हुए था उसे जर्मनी ने नष्ट कर डाला है और वे अब भविष्य की चिन्ता से अपने अलग अलग दल संगठित करने में लगे हुए हैं । योरप की यह अवस्था त्रासजनक है और इससे यह भी प्रकट होता है कि उसका भविष्य जोखिम से शून्य नहीं है ।
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[ भाग ३६
और मंचूरिया जैसे बड़े बड़े देश हो गये हैं । जापान की आबादी में अत्यधिक वृद्धि होने से उसको भारत जैसे बड़े देश की ज़रूरत है । उसके सौभाग्य से उसके पड़ोस में चीन का बड़ा देश मौजूद ही है, जो गत २० वर्ष से वहाँ के स्वार्थी रईसों तथा शक्तिशाली व्यक्तियों के परस्पर के युद्धों का अखाड़ा बना हुआ है। चीन को अपनी संरक्षा में ले आने के लिए इससे अधिक उपयुक्त समय उसे कदाचित् ही कभी प्राप्त हो सके । यह बात जापान से छिपी नहीं है और वह अपने उद्देश की सिद्धि में लगा हुआ है । अभी हाल में उसने मंचूरिया के दक्षिण के उत्तरी चीन के विशाल प्रदेश को चीनी सेनाओं से खाली करवा लिया है और वह वहाँ के शासन प्रबन्ध पर कड़ी नज़र रखता है। ऐसा जान पड़ता है, चीन के उत्तरी प्रान्तों में जापान ने अपना पूरा प्रभाव स्थापित कर लिया है। रूस, ब्रिटेन तथा अमरीका के संयुक्त राज्य को जापान की इस प्रभुतावृद्धि से हानि होने की संभावना है । परन्तु इनमें से रूस अधिक चिन्तित है । उसे डर है कि कहीं जापान बढ़कर सैबेरिया के पूर्व की ओर खाली पड़े हुए बहुत बड़े विशाल भूखण्ड पर अधिकार न कर ले । निस्सन्देह अपने राज्य की रक्षा के लिए उसने अपनी शक्ति भर पूरी व्यवस्था कर ली है, तो भी वह शंकित रहता है । ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अपने अधिक निकट के झमेलों में फँसे हुए हैं। उन्हें चीन की ओर ध्यान देने की फ़ुर्सत ही नहीं है। चीन के मसले को लेकर इन दो महाशक्तियों में से कोई एक या दोनों मिलकर कम-सेकम अभी कुछ समय तक जापान से युद्ध करने को नहीं तैयार हैं। रहा रूस सो उसने अपनी मंचूरियावाली रेलवे जापान के हाथ बेचकर अपने इसी मनोभाव को व्यक्त किया है कि वह भी जापान से भिड़ना नहीं चाहता। ऐसी दशा में जापान चीन में स्वेच्छानुसार अपनी सत्ता कायम कर सकता है और वह तदनुसार कर भी रहा है और यदि दैवदुर्विपाक से वैसी कोई विघ्न-बाधा न उपस्थित हुई तो कुछ ही वर्षों में जापान एशिया के उस भाग का शासक नहीं, तो कम से कम नियन्ता तो ज़रूर ही हो जायगा ।
आपान का प्राबल्य
इधर एशिया में जापान की प्रभुता बढ़ती जा रही है । स्याम, अफ़ग़ानिस्तान और ईरान यदि देशों की सरकारें अब जापानी विशेषज्ञों को अपने अपने यहाँ बुला कर उनका उपयोग करने लगी हैं। अभी तक यह गौरव केवल यrरपीयों को ही प्राप्त होता था। यही नहीं, जापान का व्यापार भी प्रायः सभी एशियाई तथा योरपीय देशों में जमता जा रहा है । इसके साथ ही वह बड़ी सावधानी के साथ अपने साम्राज्य का विस्तार भी करता जा रहा । सन् १८६५ में उसके पास केवल उसके द्वीप । परन्तु अब इस समय उसके क़ब्ज़े में कोरिया
भर
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