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________________ प्रेमचन्द जी की रचना-चातुरी का एक नमूना लेखक, श्रीनाथसिंह I जा सम्बर सन १९३३ की और भावों पर कहानियाँ या उपन्यास लिखने से 'सरम्वती' में मैंने 'घृणा के उनकी मौलिकता की धाक बनी नहीं रह सकती, प्रचारक प्रेमचन्द' शीर्षक इसलिए उन्होंने और उपाय सोचे। पर इतने दीर्घएक लेख लिखा था। उसमें काल तक मौलिक ढङ्ग से सोचने और विचार करने मैंने यह दिखाया था कि का अभ्यास न होने के कारण उन्हें कठिनाई का S E प्रेमचन्द जी अपनी रच- अनुभव हुआ। उन्हें कोई न कोई आधार चाहिए LU O नाओं-द्वारा पाठकों के ही, इसलिए वे भारतीय उपन्यासों की ओर झुके। हृदयों में घृणा और तिरस्कार के बीज किस प्रकार और मुझे प्रसन्नता है कि सबसे पहले उन्होंने बोते हैं। उस लेख में मैंने जो तर्क उपस्थित किये थे मुझे ही यह आदर प्रदान किया। उन्होंने हाल उन्हें प्रेमचन्द जी या उनके समर्थक काट नहीं में प्रकाशित मेरे उपन्यास 'उलझन' के आधार सके। कुछ लोगों ने यह सिद्ध करने का असफल पर एक कहानी लिखी। सम्भव है, उन्होंने अन्य प्रयत्न अवश्य किया था कि प्रेमचन्द जी ने प्रेम का कहानियों में हिन्दी के और भी उपन्यासों का भी प्रसार किया है, पर जब स्वयं प्रेमचन्द जी ने सहारा लिया हो । खैर। 'जागरण' में यह घोपित किया कि समाज में घृणा मेरे उपन्यास के आधार पर प्रेमचन्द जी ने जो की भी आवश्यकता है तब वे बेचारे भी चुप हो रहे। कहानी लिखी है उसका नाम है 'जीवन का शाप' उस लेख में मैंने यह भी लिखा था और वह गत जून मास के 'हंस' में प्रकाशित हुई ___ "प्रेमचन्द जी में मौलिकता भी नहीं है। अपने है। मैं ऊपर ही कह चुका हूँ कि दूसरों की चीज़ों को उपन्यासों के प्लाट और भाव सभी वे पाश्चात्व अपनाते समय प्रेमचन्द जी उन्हें इतना भद्दा बना लेखकों से लेते हैं। पर उनको भारतीय रूप देने में देते हैं कि अर्थ का अनर्थ हो जाता है। अपनी इस उन्हें इतना भद्दा बना देते हैं कि अर्थ का अनर्थ हो कहानी में भी चोरी के अपराध से बचने के लिए जाता है।" उन्होंने मेरे उपन्यास के प्लाट, पात्रों, तर्को और __मुझे प्रसन्नता है कि मेरे उस लेख के बाद भावों की इतनी छीछालेदर की है कि पढ़कर दु:ख प्रेमचन्द जी ने जो कहानियाँ लिखी हैं उनमें उन्होंने होता है। मौलिक उपन्यासकार या कहानी-लेखक उन त्रुटियों को न आने देने का प्रयत्न किया है कहलाने का भूत प्रेमचन्द जी पर सवार न होता जिनकी ओर मैंने संकेत किया था। परन्तु बुढ़ाई और वे जिन लेखकों के आधार पर अपनी रचनायें उम्र में पहुँच कर स्वभाव बदलना मुश्किल होता है। करते हैं उन्हें छिपाने का व्यर्थ प्रयत्न न करते, तो भी पर यही क्या कम संतोप की बात है कि उन्होंने उनका साहित्य में वही नाम और स्थान होता जो उचित दिशा की ओर प्रयत्न तो किया। इस समय है। उनके पास भाषा है, बात कहने का ___ मेरे उस लेख से कदाचित् प्रेमचन्द जी के हृदय अपना ढङ्ग भी है। किसी बात को अपने शब्दों में वे में यह बात बैठ गई कि पाश्चात्य लेखकों के प्लाटों रोचक ढङ्ग से उपस्थित करने की कला में भी निपुण १७१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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