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सरस्वती
“आखिर मैं भी तो सुनूँ । वह कौन-सी बात है ? शायद कुछ सहायता कर सकूँ । कम-से-कम तुमसे सहानुभूति तो कर सकूँगा ही ।" मैंने बड़े प्रेम से
कहा ।
" अच्छा तो फिर सुनो। तुम हँसोगे जैसे दुनिया मुझ पर हँसेगी। मगर सच तो यह है कि अपने वक्त में सभी उल्लू बन जाने हैं।" उन्होंने कहा ।
मैं ध्यान से उनकी कहानी सुनने लगा। मुझे गत मास की उनकी यह कहानी मालूम न थी । मैं महीने भर से बाहर भ्रमण कर रहा था। बाहर न जाता तो शायद उन्हें बचा लेता । कम-से-कम बचाने की कोशिश तो अवश्य करता । ( २ )
उन्होंने कहना आरम्भ किया -- “ तुम्हें यह तो मालूम ही है कि मेरे पिता मेरे वास्ते बहुत कुछ धन छोड़ कर मरे थे । तुमसे यह भी छिपा नहीं है कि कई कोठियाँ भी बनवा गये हैं जो मेरे क़ब्ज़े में आज तक हैं । उनमें से एक कोठी तो बहुत पुरानी है जो कभी किराये पर नहीं उठती । वह कभी कभी मँगनी पर उठा करती है और दो-एक गरीब आदमी उसकी बाहर की कोठरियों में पड़े रहते हैं। मैं उनसे किराया नहीं लेता, किराये के बदले में वे उसकी चौकी - दारी कर देते हैं। मेरा मुंशी अयोध्याप्रसाद कभी कभी कोठी को खुलवा कर सफाई करवा दिया करता है ।
"बीस-पचीस दिन की बात है कि मेरे पास अयोध्याप्रसाद ने आकर कहा- हुजूर, मेरी लड़की सयानी हो चुकी है, धनाभाव से मैं उसका विवाह नहीं कर सकता । बिरादरी मुझ पर थूकती है । हज़ार रुपया कहाँ से लाऊँ जो उसका व्याह करूँ ? इस वक्त मेरी खुशकिस्मती से एक शाह साहब आ गये हैं । वे कहते हैं, सौ रुपये लाओ तो दस गुना कर दें। सौ भी मेरे पास नहीं हैं। अगर हुजूर इनायत कर दें तो मेरा बेड़ा पार हो सकता है । मेरी तनख्वाह में १०) हुजूर हर महीने काटते जायँ । 'मैंने हँस कर कहा
वे एक के इस बना सकते हैं तो रुपया ही क्यों
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[ भाग ३६
माँगते हैं' ? मुंशी ने उत्तर दिया- हुजूर, उन्हें किसी बात की कमी नहीं है । वे तो पहुँचे हुए फ़क़ीर हैं, परोपकार करते हैं। मगर जो लाभ उठाना चाहेगा उसे कुछ खर्च करना ही पड़ेगा। मैंने फिर कहा--कोई लुटेरा होगा। मुफ्त में फँसोगे'। मगर अयोध्याप्रसाद ने न माना । वह कहने लगा - कल उन्हें हुजूर के पास लाऊँगा । बड़ी खुशामद से वे कहीं आते-जाते हैं, मगर मैं लाऊँगा । हुज़ूर खुद ही जान लेंगे ।
"अपने वादे के अनुसार वह दूसरे दिन मेरे पास उन्हें लाया। उनका कद लम्बा और माथा चौड़ा था। चाँद गंजी थी, मगर कनपटियों पर बड़े बड़े बाल थे, जो गर्दन तक लम्बे लटक रहे थे। गुठनों से नीचे तक एक कुर्ता पहने थे, टखनों तक पायजामा था । लम्बी दाढ़ी उनकी छाती तक लटक रही थी । मगर मूँछें मुँड़ी हुई थीं। सिर के बाल और दाढ़ी मेंहदी से रंगे हुए थे। हाथ में एक टेढ़ी-मेढ़ी मोटी छड़ी लिये । पीठ और गर्दन को ज़रा झुका कर वे अपनी बड़ी बड़ी आँखों से मुझे घूरते हुए मेरे पास आ बैठे। मैं भी उनके रोब में कुछ गया । उन्होंने अपनी तुर्की टोपी सिर से उतार कर मेज़ पर रख दी और अयोध्याप्रसाद की तरफ़ देखकर बोले- यही तुम्हारे मालिक हैं ? अयोध्या ने मुझसे कहा - बड़ी मुश्किल से मैं शाह साहब को यहाँ तक ला सका । इनके पीछे सेठ छन्नामल पड़े थे। मगर आपने जाने से इनकार कर दिया। शाह साहब ने मुझसे कहाकिसी गृहस्थ के घर आम तौर पर मैं नहीं जाता हूँ । मगर खुदावन्द करीम को इस वक्त यही मर्ज़ी थी कि मैं आपकी दरख्वास्त को नामंजूर न करूँ । इसके पश्चात् वे मुझसे इधर-उधर की बातें करते रहे । उस दिन की बातों का रंग मुझ पर बहुत जमा । जब वे उठकर जाने लगे तब मैंने उनसे सविनय प्रार्थना की कि कल फिर आयें। उन्होंने मुसकराकर स्वीकार किया, चलते समय बोले- अब आप मेरे मुरीद हैं। मैं आपको कुछ भेंट देता हूँ । इतना कह कर हाथ ऊपर उठाया। 'व' ! कह कर एक छोटा
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