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सरस्वती
[हम लोग समुद्र-स्नान कर रहे हैं]
पानी में धोये जाते हैं। टब से निकलते समय सतह पर तैरता हुआ साबुन बदन में लग जाता है और नहाना एक प्रकार से मिट्टी में मिल जाता है । हमारे देश में कम से कम नहाने का तरीक़ा तो इन लोगों से कहीं अच्छा है। संडास में पानी का व्यव हार न करने से भी इन लोगों में गन्दगी रहती है। हफ़्ते भर की मल की सफ़ाई उसी साबुन मिले हुए टब के पानी में होती है। पता नहीं, ये लोग इस प्रकार की गन्दगी कैसे सहते हैं ! दाँत की सफ़ाई तो यहाँ कोई जानता ही नहीं। खाने के बाद कुल्ला करने की प्रथा ही नहीं है। भारत की तरह दातून का व्यवहार भी नहीं किया जाता। बहुत ही कम लोग पेस्ट और ब्रश का इस्तेमाल करते हैं ! इसी लिए यहाँ 'के लोगों को दाँत की बीमारी बहुत हुआ करती है। बच्चों के दाँत शुरू से ही गन्दे और कमज़ोर हो जाते हैं । मुँह में बुरी बदबू आने लगती है। हिन्दुस्तानियों के सफेद चमकते हुए दाँत देखकर इन लोगों को बड़ा आश्चर्य होता है । शायद ये लोग सोचते हैं कि सफ़ेद चमड़ेवाले मनुष्य ही साफ़
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प्रक
[ भाग ६३
रह सकते हैं। गाँव के खेतों की जमीन बड़ी कँकड़ीली है, तो भी उसमें गेहूँ की खेती की जाती है। भारतवर्ष में तो ऐसी भूमि में किसी प्रकार की भी खेती नहीं की जाती। यहाँ लोगों के पास अच्छे हल हैं। और ट्रेक्टर का व्यवहार करते हैं, अतएव पथरीली भूमि भी खेती के काम में लाई जा सकती है। घास के मैदानों में गायें और भेड़ें चर रही थीं। यहाँ की गायें यद्यपि भारत की गायों जैसी सुन्दर नहीं होतीं, तो भी दूध देने में पक्की होती हैं। उनका पिछला हिस्सा बहुत मोटा और मुँह बहुत पतला और छोटा होता है। गाँव में मकान एक-दूसरे से दूर दूर होते हैं। भारत की तरह पास पास घर न होने से सामाजिक जीवन का मज़ा यहाँ नहीं है। हाँ, जब कोई फुटबाल या क्रिकेट का मैच होता है। तब सब लोग अवश्य एकत्र होते हैं।
दूसरे दिन हम लोग ईस्टबोर्न शहर गये । यहाँ का विशेष सौन्दर्य समुद्र के किनारे ही है। दूर तक किनारा पक्का बना हुआ है और लोगों के नहाने और बैठने का समुचित प्रबन्ध है। शाम को यहाँ
[ हम लोग वोली-बॉल खेल रहे हैं]
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