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________________ संख्या ५] विवाह की कुछ और विचित्र प्रथायें PARIES ../ रखना विशेषतया अशुभ समझा जाता है, क्योंकि लोगों का खयाल है कि उसका पैर ज़मीन पर पड़ते ही पाताल में दानव उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। मुसलमानों में ना आज भी यह धारणा प्रचलित है कि ऐसी वध के बच्चे दानव होते हैं। भारको में वर वधू को गोद में उठाकर मकान के भीतर घुसता है। चीन, पलेस्टाइन, मिस्र, प्राचीन गेम और ब्रिटेन तथा वहत-से अन्य आधुनिक यारपीय देशों में इमी प्रथा का साम्राज्य है अथवा रहा है। वेल्स म गिरजाघर से विवाह के उपरांत लोटन पर वध बहुत संभाल कर मकान की देहरी के ऊपर से उठाकर मकान के भीतर ले जाई जाती है, क्योंकि वधू के लिए देहरी पर या उसके आस-पास पैर रखना बहुत ही अशुभ और अनिष्टकारी समझा जाता है। स्काटलैंड में भी अभी हाल तक नवव देहरी या पहली सीढ़ी के ऊपर से उठाकर ले जाई जाती थी, जिसमें उसे किसी की नज़र न लगे और उस पर किसी का जादू न चले। बहुत-से देशों में वधू को उठाकर ले जाने के बजाय उसे देहरी पर पैर न रखने का आदेश दिया जाता था। भारत में भी वधू को यही आदेश मिलता था. और यह वध तक ही सीमित नहीं है। बहुत-से देशों में वर को भी [मोरक्को में इसी तरह गठरी बनाकर वधु के घर के भीतर ले जंगली जानवर न घुस आया हो कि घर में घुसते जाते हैं। भारत में ही वध का मामा वर को गोद ही आदमी पर दौड़ पड़े। इसी लिए इन सब भयामें उठाकर भीतर ले जाता है। नज़र लगना बचाने नक बातों से बचने के लिए यह अधिक अच्छा था के लिए भारत में भी बर को कजरबिलौटा बना कि वर-वधू भीतर उठा कर ले जाये जायें। धीरे कर घर से निकालते हैं। इन सब प्रथाओं का जन्म धीरे मनुष्य सभ्य हो चला, गृह उसका गढ़ बन असभ्य काल में हुआ था। बाहर के उजले से एक- चला, पर रूढ़ियाँ और कूट कूट कर भरे हुए विचार दम घर के अंधेरे में पहुँचते ही आदमी एक बार उसे विवश किये रहे और कारण न समझ में आने महम उठता था । भूत, प्रेत, दानव, जिन्न इन सबका पर भी वे कार्य वरावर होते रहे। आज भी हजारों भय उसे पग पग पर मताता था, जादू टोना पढ़े-लिखे आदमियों के मुंह से मुझे स्वयं सुनने को उसके जीवन का त्रास था। मकान उस ज़माने में मिलता है कि "अमुक घर मुझ फला हे". "अमुक ठीक तरह सूर्य के दशन भी न करते थे। ऐसी दशा घर अशुभ है, उसे छोड़ दो" इत्यादि । तब विवाह में वह घर के भीतर पैर रखते कैसे न सहम जाता? में इस तरह की नासमझी की बातें क्यों न की कुटियों के काल में यह भी भय था कि भीतर कोई जायँ ? धर्म-संस्कार तो बड़ी ही कठिनाई से परिव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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