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________________ २३८ सरस्वती हाथ में है, इसलिए सरकार नहीं चाहती कि उस व्यवसाय से विदेशी फ़ायदा उठावें । प्पू के कु हमारी जमात में श्राठ भारतीयों के अतिरिक्त एक जापानी श्री मियोची भी । मियोची अमरीका से अध्ययन समाप्त कर स्वदेश लौट रहे थे । वे अँगरेज़ी अच्छी जानते थे, इसलिए ऐसे एक आदमी की हमें श्रावश्यकता भी थी। पता लगाने पर ज्ञात हुआ, बेप्पू की ट्रेन रात में नौ बजकर पचपन मिनट पर छूटती है । हम लोग सेकंड क्लास के मुसाफिरखाने में गये। सेकंड और फ़र्स्ट क्लास का एक मुसाफ़िरखाना है, और थर्ड का दूसरा । थर्ड में भी बहुत-सी कुर्सियाँ थीं। प्लेटफ़ार्म के टिकट और मिठाइयों के बेचने की मशीनें थीं, और साथ ही ट्रेन छूटने आदि की सूचना देने के लिए शब्द प्रसारक यंत्र लगा था। फ़र्स्ट में भी वही बात थी. हाँ, इसमें कुर्सियों पर की गद्दे - गद्दियाँ अधिक मुलायम थीं । यहाँ ज़नाना - मर्दाना अलग मुसाफिरखाना नहीं है । एक ही कुर्सी पर स्त्रीपुरुष दोनों बैठते हैं । मुसाफ़िर आते-जाते रहते थे, तो भी वहाँ ६०-७० के क़रीब तक एक बार में देखे गये । पुरुष अधिकतर हैट, कोट, पतलून में थे, किन्तु स्त्रियाँ बहुधा अपनी जातीय पोशाक किमोनो पहने हुई थीं । किमोनो विशेषकर स्त्रियों का किमोनो बहुत ही सुंदर पोशाक है । उसका कलापूर्ण कमरबंद तो हद से अधिक सुंदर है । किमोनो ऍड़ी तक लम्बा ढोली बाहों का चोग़ास होता है । इसका कमरबंद ७-८ अंगुल चौड़ा होता है, और पीठ पर अधिक सुंदर बनाने के लिए एक चौड़ी कपड़े की परत देकर उसे चौड़ा कर देते हैं । अधिकांश स्त्रियाँ रबर के चप्पल पहने थीं, और कुछ के पैरों में पूर्वी युक्तप्रान्त में बरसात के दिनों में इस्तेमाल किये जानेवाले बद्धीदार खड़ाऊँ थे । जापानी स्त्रियों की बालों की सजावट में अब बहुत अन्तर या गया है, तो बारह वर्ष की कम उम्र वाली लड़कियों को छोड़कर किसी के बाल कटे नहीं हैं। अगल-बगल, आगे-पीछे तथा चाँद पर बालों को फैलाते हुए जूड़ा बनाने का रवाज अब बहुत ही कम हो गया है । उसकी जगह आगे छोटी-सी दस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ भाग ३६ तिछ माँग बनाकर पीछे काँटों से जूड़ा बाँधा जाता है। इसमें शक नहीं कि यह केश सज्जा पहले की अपेक्षा अधिक सुंदर मालूम होती है। सेकंड और फ़र्स्ट क्लास के यात्री अपना अपना बाक्स स्वयं हाथ से लटकाये श्रा रहे थे । पता लगा, जापानी लोग बाबूगिरी पसन्द नहीं करते । बैठे बैठे देख रहे थे, हमारा पीला कपड़ा लोगों की दृष्टि को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। लेकिन उसका उपाय क्या था ? हमने अगल-बगल की छोटी छोटी दूकानें देखीं। चीज़ों को सजाकर खूब सफ़ाई के साथ रखने में तो जापान ने कमाल का ही काम किया है। एक फल और मिठाई की दूकान में देखा, नारंगी, बिस्कुट तथा पचासों तरह की मिठाइयाँ और फल थे, और सभी पतले मामी काग़ज़ के थैलों के भीतर थे । जेटी पर हमें एक पेसेंजर गाइडर (बाई बाँह पर यही लिखा था ) मिल गया । उससे टिकट आदि लेने में बड़ी सहायता मिली । माजी से वेप्पू सौ मील है, उसके लिए सेकंड क्लास का टिकट ३८६ येन है, और तीसरे दरजे का १८० येन । जाते वक्त सेकंड क्लास से चलने की सलाह हुई। ट्रेन में पहुँचे । जापान की रेलवे लाइनें ई० आई० चार० से कम और बी० एन० डब्लू० आर० से अधिक चौड़ी हैं। फ़र्स्ट, सेकंड, थर्ड तीन दर्जे हैं । थर्ड से दूना सेकंड का किराया है। उसके ड्योढ़े से कुछ अधिक फ़र्स्ट का । थर्ड और सेकंड में कोई अधिक फ़र्क नहीं है । थर्ड में सिर्फ़ नीचे ही गद्दा रहता है, पीठ के पीछे नहीं । सेकंड में दोनों जगह । और थर्ड से सेकंड में पैर फैलाने की अधिक जगह रहती है। डिब्बे में बीच से रास्ता सारी ट्रेन में चला जाता है । इसी रास्ते के दोनों ओर दो आदमियों के बैठने लायक़ बैठकें हैं । योरप की ट्रेनों का ढंग इससे अच्छा है । वहाँ बराम्दा बग़ल में होता है, जिससे बेंचों पर चार आदमियों के बैठने की जगह रहती है, और पैर फैला कर सोने लायक़ जगह निकल आती है । हम लोगों को डेढ़ बजे रात तक चलना था । सोना मुश्किल था । यदि किसी ने सोने की कोशिश की तो गर्दन में दर्द लेकर उसे उठना पड़ा । www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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