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________________ २५० सरस्वती [भाग ३६ चतुर्वेदी जी ने प्रसंगवश उद्धृत किया है। उसी सम्बन्ध चिह्नों की अनावश्यक भरमार हो गई है। इसमें सन्देह में आप लिखते हैं नहीं, पुस्तक रोचक और उपयोगी भी है । पता-हिन्दी__ "क्यों नाथ ! द्रौपदी के झपटते हुए 'सुपट' में साहित्य-कुटीर, बनारस है । मूल्य १॥) है। प्रस्फुटित होते हुए प्रचुर परिश्रम पड़ा होगा ! इस तंग (२) आँख और कविगण-इस पुस्तक में आँख दायरे में दुरते हुए-छिपते हुए, अोह छलिया ! निहायत ही पर अनेक कवियों की कवितायें संकलित की गई हैं। कष्ट हुआ होगा! और ज़रूर हुअा होगा ! पर पीत ४२२ पृष्ठों में चतुर्वेदी जी ने जो नेत्र-विषयक मनोरंजक पटधारी लला! आपके इस अपरिमित परिश्रम की पोल सामग्री प्रस्तुत की है उसे देखकर उनके परिश्रम की 'मोहन कवि' ने बड़ी सुन्दरता से खोली है। अस्तु प्रशंसा करनी ही पड़ती है । उक्त पुस्तक में सबसे पहली सुनिए, और बतलाइए कि कविता 'पालम' कवि की है। १६५ पृष्ठों तक चतुर्वेदी "कबै आपु गये हे बिसाहन बजार बीचि, जी ने उद्धृत कविताओं को अपनी मसालेदार टिप्पणियों ___कबै बोलि जुलहा बुनाये दर-पट सौं । से गुंफित किया है। शेषांश में केवल संकलन है । नंद जू की काँमरी न काहू वसुदेव जी की, ____ पुस्तक की भूमिका में पंडित शिवरत्न शुक्ल ने ___ तीन हाथ पटुका लपेटें रहे कट सौं॥ तत्सम्बन्धी विषय की अच्छी विवेचना की है। पुस्तक के 'मोहन' भनत यामैं रावरी बड़ाई कहा अन्त में २० पृष्ठों में शब्दार्थ भी दिये गये हैं। इससे राखि लीन्हीं आन-बान ऐसे नटखट सौं। पुस्तक की उपयोगिता और बढ़ गई है। गोपिन के लीन्हें तब चोरि चोरि चीर अब, ___ निस्सन्देह नेत्र शरीर के अत्यन्त आवश्यक अंग हैं । जोरि-जोरि दैन लागे द्रौपदी के पट सौं। उनसे हृदय के गूढ़तम भावों का पता लगता है। किसी "हाँ-हाँ बतलाइए साहब ! खरीदने के लिए बाज़ार कब ने ठीक कहा हैतशरीफ़ ले गये थे ! अथवा किस जुलाहे से ऐसे सुन्दर तन की नारी कर गहे, मन की नारी बैन । समीचीन कपड़े बुनवाये ! क्योंकि श्रीमान् तो सिर्फ तीन जो कदापि बोलै नहीं, तुरत परखिए नैन । हाथ की लँगोटी लगाये और काला कम्बल सो भी न जाने अस्तु ! आँखों की सुन्दरता, सरसता, कठोरता, वीरता, "नन्दबाबा" का था या वसुदेव जी ने ही बाज़ार से सहनशीलता तथा और भी मानसिक और शारीरिक लेकर भेज दिया था। अोढ़े डोलते थे, था क्या पास! विचारदृष्टि से जितनी नेत्र-सम्बन्धी बातें हो सकती हैं उन अस्तु, भगवन् ! इन गुनन-गरूली गोप बालाओं के गुण सबका वर्णन प्रायः इस पुस्तक में था गया है। अाशा गाइए, जिनकी बदौलत शान रह गई । इनके चुराये चीर है, काव्यानुरागी और रसिक सुधीजन इसे पसन्द करेंगे। आज काम आ गये, और इस तरह नटखटपने से आन- इस पुस्तक में चतुर्वेदी जी की एक दूसरी प्रकाशित बान बनी रह गई।" होनेवाली पुस्तक का विज्ञापन भी छपा है। आँख के सम्पूर्ण पुस्तक में यही क्रम है। चतुर्वेदी जी ने विषय की इतिश्री करके चतुर्वेदी जी अब जिस दूसरे निर्भयतापूर्वक उर्दू और फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग अंग-वर्णन के सम्बन्ध में अपनी काव्य-रसिकता का किया है। आप व्रजभाषा की प्राचीन शैली के पोषक परिचय देना चाहते हैं, वह कहाँ तक उचित होगा, यह और समर्थक हैं । श्राप कहते हैं "हम रत्नाकरी अाधुनिक मतभेद की बात है। जिस पुस्तक से सर्वसाधारण जनता स्टाइल के कायल नहीं हैं, उसके नवीन रूप के मायल में स्वास्थ्यवर्धक प्रसन्नता तथा अच्छे अच्छे भावों का नहीं; अपितु उसी प्राचीनता के पुजारी हैं, उसी स्वरूप के प्रचार हो और साथ ही साथ हिन्दी में अनुराग उत्पन्न हो अभिलाषी हैं, नूतनता के नहीं।" उसका ज़रूर प्रचार होना चाहिए। आँख का विषय पुस्तक में कहीं कहीं प्रश्नसूचक तथा आश्चर्य-सूचक उनकी विज्ञप्त पुस्तक के विषय से सर्वथा भिन्न है। आँखों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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