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________________ लेखक, कुँवर राजेन्द्रसिंह भूतपूर्व मिनिस्टर इस लेख में श्रीमान् कुँवर साहब ने 'रस' नाम की तन्मात्रा का विवेचन किया है। तन्मात्राों -सम्बन्धी आपके जो लेख 'सरस्वती' के पिछले अंकों में निकल चुके हैं, वैसा ही पाण्डित्यपूर्ण तथा हृदयग्राही आपका यह लेख भी हुआ है । न अर्थो और भावों में जारी रहता तो 'न हम में कोई ___ हम लोग 'रस'-शब्द वहशी न डैमफूल होता', न का प्रयोग करते हैं उन स्वतन्त्रता ही खोते। हमने भी अन्य अर्थो और भावों को प्रकट करने देशों की तरह सब कुछ खो दिया | के लिए अंगरेजी-भाषा में कोई है, केवल फर्क इतना है कि वे सो शब्द नहीं है । उस भाषा में केवल करके जाग गये हैं और हमने ऐसे एक शब्द है, जिसका अर्थ द्रव है। पैर फैलाये, जैसी एक देहाती कहायह शायद हमारी भाषा के जूस वत है कि-'मानों घोड़ा बेच करके शब्द से बना है। उसका भी अर्थ सो रहे हैं।' हमारे ही देश ने लोहे, द्रव है। उच्चारण में केवल थोड़ा-सा अन्तर है। संखिया और धतूरे का प्रयोग अओषधियों में करना अँगरेजी-शब्द के उच्चारण में थोड़ा मुँह बनाना पड़ता तमाम दुनिया को सिखलाया था । हम जहाँ के तहाँ है और ज़रा ज़बान उभेठनी पड़ती है, पर अपने हैं या यों कहा जाय कि जो जानते भी थे वह भी भूल शब्द का सीधी तरह उच्चारण हो जाता है। हमारी गये और जिन्हें सिखलाया था वे कोसे हमसे आगे | भाषा में 'रस'-शब्द का सैकड़ों अर्थों और भावों हैं। एक दूसरी कहावत है, 'गुरु गुड़ रह गये और । में प्रयोग होता है। इस शब्द के योग से न मालूम चेले शकर हो गये। 'यदि' तुझमें कितना दर्द और | कितने यौगिक वाक्य बन गये हैं। रस के ही दुःख भरा हुआ है ! बार-बार यह स्मरण होता | सिद्धान्त पर हमारा समस्त वैद्यक-शास्त्र निर्भर है। आता है कि यदि हम आलसी और अकर्मण्य न | इस ओर अथक परिश्रम किया गया होगा। वही हो गये होते तो आज ये दिन कैसे देखने में आते। | नुस्खे जिन पर आक्षेप करते हुए हाली साहब ने अस्तु । लिखा है-"चले आते हैं जो कि सीना ब सीना", वैद्यक-शास्त्रानुसार छः रस हैं-मधुर, अम्ल, आज भी वह काम करते हैं कि लोगों की बुद्धि चक्कर लवण, कटु, तिक्त और कषाय । इसी कारण रस की में आ जाती है। यदि हमारा खोज का काम बराबर संज्ञा ६ की हो गई है, और इसी से एक कहावत ३०३ www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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