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________________ ३०४ सरस्वती [भाग ३६ हो गई है कि 'वहाँ का क्या पूछना ? षट्रस भोजन गुण की अधिकता से मधुररस, पृथ्वी और अग्नि था।' ऐसे अवसर होते हैं जब पेट भर जाता है, पर के गुण की अधिकता से अम्लरस, जल और अग्नि स्वादु को तृप्ति नहीं प्राप्त होती है, और जब स्वादु के गुण की अधिकता से कटुरस, वायु और आकाश तृप्त हो जाता है तब उपर्युक्त कहावत का प्रयोग के गुण की अधिकता से तिक्तरस, और पृथ्वी तथा होता है। देहाती अमीरी का अनुमान इन चीजों वायु की अधिकता से कषायरस उत्पन्न होता है।" से करते हैं—षट्स भोजन, सोने का थाल, सोने और देखिए, "रस जलीय गुण से उत्पन्न होता है", का गड़वा, पीने के लिए गङ्गाजल, और सोने के तभी तो आचार्यों ने जल को रस का देवता माना लिए वह बिस्तर जिस पर चुन-चुन करके कलियाँ है। फिर उनका कहना है—'जलीय गुण से उत्पन्न बिछाई गई हों। यही देहाती गीतों का विषय होता यह रस जब सभी भूतों के साथ मिलकर विदग्ध है। "पदरसों की उत्पत्ति भूमि, आकाश, वायु और होता है तब छः प्रकार में बँट जाता है। ये छः रस . अग्नि आदि के संयोग से जल में होती है ।" यही है—मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय । पञ्चमहाभूत हैं, जिनसे शरीर बना है। अब प्राचीन पार्थिव और जलीय गुण की अधिकता से मधुरभारत के विद्वानों की खोज देखिए । ज्ञानेन्द्रिय रस, पार्थिव और आग्नेय गुण की अधिकता से जिह्वा का विषय रस है। रस का देवता जल है। अम्लरस, जलीय और आग्नेय गुण की अधिकता रस वही जो द्रव है और कोई पदार्थ द्रव हो ही से लवणरस, वायव्य और आग्नेय गुण की अधिनहीं सकता है जिसमें जल नहीं है, और किसी वस्तु कता से कटुरस, वायव्य और आकाश गुण की का स्वादु मालूम ही नहीं हो सकता, जब तक अधिकता से तिक्तरस तथा पार्थिव और वायव्य जिह्वा की पूर्ण सहायता न हो। रस का विषय गुण की अधिकता से कषायरस उत्पन्न होता है।" मछली में अधिक होता है। तभी तो बेचारी वरवे में एक का यह मत है। यह इस बात का प्रमाण है कि फँसती है। हगों की दीनता प्रकट करते हुए एक बहुतों ने इस ओर खोज की है। कवि ने कहा है-'मृगराज के दावे विंधे बंसी के वैद्यक-शास्त्र के मत से इन छः रसों के मिश्रण बिचारे मले मृग मीन से है।' विषय इसी का नाम से छत्तीस प्रकार के रस उत्पन्न होते हैं। चाहे आधुहै कि सब जानते हुए भी और दुःख उठाते हुए भी निक समय के पढ़नेवाले थक जायँ, परन्तु खोज उससे आसक्तता न जाय । बलदेव जी ने कहा है- करनेवाले नहीं थके। अब इसका पता लगाया गया "जिमि नीर में मीन के प्रान बस रस छीर की कि किस रस का क्या असर किस दोष पर पड़ता चाहत सींच नहीं।” पसन्द तो नीर है, 'छोर' नहीं। है—'मधुर, अम्ल और लवणरस वात को, मधुर, एक दूसरे कवि ने और अच्छी तरह से इसी भाव तिक्त और कषायरस पित्त को तथा कटु, तिक्त और को कहा है.-'तब कहूँ प्रीति कीजै पहले से सीख कषायरस कफ का नाश करते हैं।" किसी किसी लीजै बिछुड़न मीन और मिलन पतंग की।' बिछु- के मतानुसार रस केवल दो ही प्रकार के होते हैंड़ने में तो कष्ट होता ही है, पर प्रेम के पंथ में मिलना "आग्नेय और सौम्य" । मधुर, तिक्त और कषाय भी जान देना हो जाता है। बहुत सुन्दरता से रस सौम्य रस और कटु, अम्ल और लवण आग्नेयरस और स्पर्श का विषय प्रकट किया गया है ! कहलाते हैं। मधुर, अम्ल और लवण गुरुरस तथा अब हमारे शास्त्रकारों ने खोज करके यह कटु, तिक्त और कषाय लघुरस कहलाते हैं। निकाला कि किन पञ्चमहाभूतों से कौन रस उत्पन्न फिर इसका वर्णन है कि किस रस में क्या गुण होता है। उनके मतानुसार "पृथ्वी और जल के हैं। मधुर रस से 'रक्त, मांस, मेदा, मज्जा, अस्थि, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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