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________________ संख्या ६ ] उन पर जब यात्रियों के भारी जूतों के शब्द से युक्त कठोर पैर पड़ते थे, तब लगता था कि वे पीड़ा से कराह उठेंगे । किंवदन्ती है कि पहले शालामार का निर्माण और नामकरण श्रीनगर बसानेवाले द्वितीय प्रवर फिर स्वर्ग का एक कोना सेनद्वारा हुआ था, उसी के भग्नावशेष पर जहाँगीर ने अपने प्रमोदउद्यान की नींव डाली । अब तो उसके, अनन्त प्रतीक्षा में जीर्ण, वृक्षों की पंक्ति में, किसी परिचित पदध्वनि को सुनने के लिए निस्तब्ध पल्लवों में, ऊपर क्षणिक वितान बना देने वाले फ़ौवारों के सीकरों में और भङ्गिमामय प्रपातों में पारस्य देश की कला की अमिट छाप है। हमारे अजस्र प्रवाहिनी सरिताओं से निरन्तर सिक्त देश ने जल को इतने बन्धनों में बाँधकर नर्तकी के समान लास सिखाने की आवश्यकता नहीं समझी थी, परन्तु मुसलमान शासकों के प्रभाव से इसने हमारे सजीव चित्र से उपवनों को सजल भी बना दिया । जिस समय सारे फ़ौवारे सहस्रों जलरेखाओं में विभाजित हो-होकर आकाश में उड़ जाने की विफल चेष्टा में अपने तरल हृदय को खण्ड खण्ड कर पृथ्वी पर लौट आते हैं, सूखे प्रपातों से पात होने लगता है, उस समय पानी के बीच में बनी हुई राजसी काले पत्थर की चौकी पर किसी अनन्त अभाव की छाया पड़कर उसे और भी अधिक कालिमामय कर देती है। [मानस बल ] इस लेख के सब चित्र डब्ल्यू लैक्पर्ट की कृपा से प्राप्त डल झील की दूसरी ओर सौन्दर्य्यमयी नूरजहाँ के भाई आसफ अली का पहाड़ के हृदय से चरण तक विस्तृत निशातबारा है, जिसकी क्रमबद्ध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ५२५ उँचाई के अनुसार निर्मित १२ चबूतरों के बीच से अनेक प्रकार से खोदी हुई शिलाओं पर से भरते हुए प्रपात अपना उपमान नहीं रखते। इसकी सजलता में शालामार की-सी प्यास छिपी नहीं जान पड़ती, बरन एक प्रकार का निर्वेद मनुष्य को तन्मय - सा कर देता है । मनुष्य ने यहाँ प्रकृति की कला में अपनी कला इस प्रकार मिला दी है कि एक के अन्त और दूसरी के आरम्भ के बीच में रेखा खींचना कठिन है, अतः हमें प्रत्येक क्षण एक का अनुभव और दूसरे का स्मरण होता रहता है। इसके विपरीत अन्तःपुर की सजीव प्रतिमाओं के लिए इन प्रतिमाओं के आराधक और आराध्य बादशाह के लिए तथा इनके कौतुक से विस्मित सर्वसाधारण के लिए तीन भागों में विभक्त शालामार के पत्ते पत्ते में मनुष्य की युगों से प्यासी लालसाओं की अस्पष्ट छाया मदिरा की अतृप्त मादकता लिये घूमती-सी ज्ञात होती है, परन्तु दोनों ही अपूर्व हैं, इसमें सन्देह नहीं । इस चिर नवीन स्वर्ग ने सुन्दर शरीर के मर्म में लगे हुए व्रण के समान अपने हृदय में कैसा नरक पाल रक्खा है, यह कभी फिर कहने योग्य करुण कहानी है। www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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