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________________ सरस्वती [भाग ३६ कहाँ से किस प्रकार लाये थे । इस प्रदेश में २५ कोस तक बतलाई। इस पर उसका पिता बहुत नाराज़ हुआ । अन्त केवल बालू ही बालू है । मन्दिर के निर्माण में किसी प्रकार में धर्मा के विशेष अनुरोध पर पिता ने उसे आज्ञा दे दी। का गारा-चूना नहीं लगाया गया है। और यह इतना उसने एक रात में ही मन्दिर के शेष कार्य को तैयार कर विशालकाय मन्दिर बनाकर किस प्रकार खड़ा किया गया दिया । होगा, यह और भी एक इसकी अद्भुत बात है। सवेरा होते ही मन्दिर को पूरा बना देखकर सब ___ इस मन्दिर के निर्माण में एक और मज़ेदार घटना कारीगर आश्चर्य में डूब गये। और जब उन्हें यह मालूम है | उड़ीसा के प्रसिद्ध नाटककार अासुनी बाबू ने उसका हुआ कि एक १२ वर्ष के बालक ने शिखर को इस तरह उपयोग अपने 'कोणार्क' नाटक में किया है। वह घटना तैयार किया है तब वे और भी चिन्ता में पड़ गये। वे इस प्रकार है-नरसिंहदेव के समय में वीसी महाराणा सोचने लगे कि यदि राजा जानेगा तो सबको बिना मारे नामक एक शिल्प-विशारद था। वह बड़ा बुद्धिमान् था। न छोड़ेगा। इस बात को लेकर वे उसी के ऊपर बिगड़े। उससे भूल कभी नहीं होती थी। और होती थी तो कोई धर्मा यह स्वार्थ-पूर्ण दृश्य देखकर दुखी हुश्रा और उसने पकड़ नहीं पाता था । कोणार्क-मन्दिर के निर्माणकर्ताओं अात्महत्या करने का निश्चय किया। वह उसी समय में वह प्रधान था। उसके नीचे १,२०० कारीगर काम पास के समुद्र में जाकर कूद पड़ा। वीसी भी झपटा, पर करते थे। मन्दिर जहाँ है, पहले वहाँ समुद्र का पानी लोगों ने उसे पकड़ लिया। वीसी शोक में पागल हो भरा रहता था। मन्दिर बनकर तैयार हो गया, पर शिखर गया। राजा ने जब सना कि मन्दिर बन गया है तब का बनना शेष था। इसी बीच में राजा ने हुक्म दिया कि वीसी पर बहुत खुश हुअा और उसे पुरस्कार देने का मन्दिर को बनते १२ वर्ष बीत गये हैं और वह अभी तक निश्चय किया। पर राजा को इसका पता लग गया कि बनकर तैयार नहीं हुआ है । यदि मन्दिर १५ दिन के भीतर धर्मा ने मन्दिर को तैयार किया है और वह समुद्र में डूबबनकर न तैयार होगा तो सब मिस्त्रियों को प्राणदण्ड दिया कर मर गया है। राजा बहुत दुखी हुआ और धर्मा की जायगा। वीसी महाराणा को घर छोड़े १२ वर्ष हो गये प्रतिमा मन्दिर के सामने बनवाने का निश्चय किया। पर थे। उसकी अनुपस्थिति में उसके एक पुत्र हुआ। उसका वह कार्य बाद को न हुआ। नाम धर्मा था। बाल्यकाल से वह शिल्पकला सीखने कोणार्क का यह सूर्यमन्दिर पुरी तथा भुवनेश्वर के लगा। एक दिन माता से उसे अपने पिता का इतिहास मन्दिरों की तरह अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है । मालूम हुआ। अतएव वह अपने पिता के पास जाने का परन्तु यहाँ के इन भव्य मन्दिरों की शृङ्गारिक मूर्तियों से आग्रह करने लगा। उसकी माता ने बहुत समझाया, उड़ीसा के विलासमय जीवन का भी प्रमाण मिलता है। पर उसने न माना और वह उसके पास चला गया। पुरी, भुवनेश्वर और कोणार्क की विलासमय जीवन के वह उसके पास उसी समय पहुँचा था जब राजा ने उक्त द्योतक मूर्तियों को देखकर आश्चर्य इसलिए होता है कि अादेश किया था। पिता को चिन्ताग्रस्त देख तथा उसका धर्म-स्थानों में यह सब प्रदर्शन क्यों किया गया है और कारण जानकर धर्मा मन्दिर के निकट गया। वहाँ से दुःख इसलिए होता है कि कला का बेरहमी के साथ लौटकर उसने अाकर मन्दिर की त्रटियाँ पिता को दुरुपयोग किया गया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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