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द्वापर
लेखक, श्रीयुत मैथिलीशरण गुप्त गुप्त जी ने 'द्वापर' नाम का एक महाकाव्य लिखना प्रारम्भ किया है। यह सुन्दर रचना उसी का एक प्रारम्भिक अंश है । श्राशा है यह काव्य भी गुप्त जी के नाम और यश के अनुरूप ही
हिन्दी की श्रीवृद्धि करनेवाला सिद्ध होगा।
श्रीकृष्णराम भजनकर पाश्चजन्य, तू , वेणु बजा लूँ आज अरे, जो सुनना चाहे सो सुन ले स्वर ये मेरे भाव-भरे, कोई हो, सब धर्म छोड़ तू आ बस, मेरा शरण धरे; डर मत, कौन पाप वह, जिससे मेरे हाथों तू न तरे ?
राधाशरण एक तेरे आई मैं धरे रहे सब धर्म हरे ! बजा तनिक तू अपनी मुरली, नाचें मेरे मर्म हरे ! नहीं चाहती मैं विनिमय में उन वचनों का वर्म हरे !
तुझको–एक तुझी को–अर्पित राधा के सब कर्म हरे ! यह वृन्दावन, यह वंशीवट, यह यमुना का तीर हरे ! यह तरते ताराम्बरवाला नीला निर्मल नीर हरे ! यह शशि रंजितसितधन-व्यंजित, परिचित त्रिविध समीर हरे ! बस, यह तेरा अंक और यह मेरा रंक शरीर हरे !
कैसे तुष्ट करेगी तुझको, नहीं राधिका बुधा हरे ! पर कुछ भी हो, नहीं कहेगी तेरी मुग्धा मुधा हरे ! मेरे तृप्त प्रेम से तेरी बुझ न सकेगी क्षुधा हरे !
निज पथ धरे चला जाना तू अलं मुझे स्मृति-सुधा हरे ! मैं रो रोकर सब सह लूंगी, देना मुझे न बोध हरे ! इतनी ही विनती है मेरी, इतना ही अनुरोध हरे ! क्या ज्ञानापमान करती हूँ, कर न बैठना क्रोध हरे! . भूले तेरा ध्यान राधिका तो लेना तू शोध हरे !
भुक, वह वाम कपोल चूम ले यह दक्षिण अवतंस हरे ! मेरा लोक आज इस लय में हो जाव विध्वंस हरे ! रहा सहारा इस अन्धी का अब वह उन्नत अंस हरे ! मग्न अथाह प्रेम सागर में मेरा मानस-हंस हरे !
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