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________________ संख्या ५] भारत में औद्योगिक उन्नति का प्रश्न ४६९ कर ही नहीं सकता। इस श्रेणी के और भी धंधे हो सकते कार्य के लिए एक संस्था की यावश्यकता है जो इनके हैं । इन धंधों पर राज्य का विशेष नियन्त्रण होना चाहिए, विषय में खोज करती रहे और इन धंधों का संगठन जिससे पूँजीपति इन पर एकाधिपत्य स्थापित न कर लें। करे। ऊपर लिखे हुए धंधों के अतिरिक्त अन्य धंधों के किन्तु इतने से ही देश की आर्थिक समस्या हल नहीं हो लिए यह आवश्यकता नहीं है कि हम योरपीय देशों की ही जायगी । हमें गृह-उद्योग-धंधों की भी उन्नति करनी होगी। भाँति बड़े बड़े कारखाने खोलें । गृह-उद्योग-धंधों और जिस अव्यवस्थित दशा में हमारे गृह-उद्योग धंधे इस समय ग्राम्य उद्योग-धंधों के द्वारा हमारी आवश्यकतायें भली चल रहे हैं उसे देखकर तो यह आश्चर्य होता है कि ये भाँति पूरी हो सकती हैं और हमारी बेकार जनता को कार्य क्योंकर अभी तक जीवित रह सके । सूती, ऊनी और रेशमी मिल सकता है। ग्राम्य उद्योग-धंधों के बिना तो हमारे कपड़े बुनने का धंधा; दरी, कालीन, कम्बल तथा शाल के किसानों को जीवित रहना ही कठिन हो रहा है। धंधेः पीतल, कांसे तथा ताँबे के बर्तन और मूर्तियाँ बनाने का खेती-बारी मौसमी धंधा है। उसमें लगा हुआ किसान धंधा; खिलौने, तथा लकड़ी और मिट्टी के बर्तनों का धंधा वर्ष में चार से छः महीने तक बेकार रहता है । अस्तु, यह यान भी किसी प्रकार जीवित हैं। इससे यह स्पष्ट ज्ञात स्वाभाविक है कि वह वर्ष में केवल छः महीने कार्य करके होता है कि इनमें जीवन-शक्ति है और वैज्ञानिक ढंग से बारह महीने का भोजन नहीं पा सकता। साथ ही यह चलाये जाने पर ये पनप सकते हैं। भारतीय गृह-उद्योग धंधा अत्यन्त अनिश्चित है, इस कारण किसान का केवल धंधों की उन्नति करने के लिए निम्न लिखित बातों की खेती-बारी पर ही अवलम्बित रहना आर्थिक दृष्टि से खतरे आवश्यकता है - कारीगरों की शिक्षा, पूँजी का प्रबन्ध, से खाली नहीं है । किन्तु किसान गाँव छोड़कर बाहर कार्य कच्चे माल का उचित मूल्य पर पाने का अायोजन, करने नहीं जा सकता, क्योंकि वह लगातार चार महीने हल्के, सस्ते किन्तु अच्छे यन्त्रों का आविष्कार, तैयार माल तक बेकार नहीं रहता, इस कारण हमें उमकी आर्थिक को बाजार में बेचने की सुविधा और बिजली की शक्ति का स्थिति को सुधारने के लिए गाँव में ही कुछ कार्य देना उपयोग । कारीगरों को व्यापारियों से पूँजी उधार लेनी होगा । संसार के किसी देश का भी किसान केवल खेती- पड़ती है और उस पर भयंकर सूद देना पड़ता है । धंधे के बारी पर ही निर्भर नहीं रहता। श्रीयुत कैलवर्ट महोदय लिए कच्चा माल प्राप्त करने में भी कारीगर लूटा जाता है, के शब्दों में “वह अपनी कमान में दो डोरे लगाता है।" क्योंकि उसे अपने महाजन से ही कच्चा माल लेना पड़ता जापान का किसान रेशम के कीड़े पालता है, फ्रांस का है। कारीगर के कर्जदार होने के कारण उसी व्यापारी किसान अंगूर की बेल और रेशम का धंधा करता है, तो को तैयार माल बहुत सस्ते दामों पर बेचना पड़ता है । डेन्मार्क का किसान दूध का धंधा करता है। भारतीय कारीगर को इस लूट से बचाने के लिए हमें उत्पादक किसान के लिए फल, तरकारी, दूध, घी, मुर्गी के अंडे, सहकारी समितियाँ स्थापित करनी होगी। समितियों में शहद की मक्खी पालने, गुड़, शक्कर, सूत कातना, ऊन मंगठित होकर कारीगर उचित मूल्य पर पूँजी और कच्चा कातना, रेशम के कीड़े पालना, रस्सी, चटाई, डलिया तथा माल प्राप्त कर सकेंगे और साथ ही ये सहकारी समितियाँ बान इत्यादि वस्तुएँ बनाना आदि उपयोगी धंधे होंगे। तैयार माल को अच्छे दामों पर बाज़ार में बेचने का प्रबंध भारतीय किसान के लिए केवल वे ही धंधे उपयोगी सिद्ध करेंगी। प्रत्येक धंधे के लिए सहकारी समितियाँ पृथक होंगे जिनमें अधिक पूँजी तथा कारीगरी की अावश्यकता होगी। हर एक प्रान्त की समितियाँ एक यनियन का संगन हो, जिनके लिए कच्चा माल वह स्वयं उत्पन्न करता ठन करें । यूनियन विज्ञापन, एजेंट, कनवेसर तथा प्रदर्शहो, जिनके तैयार माल की या तो उसे स्वयं आवश्यकता नियों के द्वारा अपने से संबंधित समितियों के सदस्यों के हो अथवा गाँव के आस-पास ही जो बेचे जा सकें। इस उत्पन्न किये हुए माल की खपत बाज़ारों में करें । साथ ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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