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जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलाल-प्रति-विरचितया चूर्णि भाष्यावचूरिरुपया व्याख्यया समलङ्कृतम्
श्री - निशीथसूत्रम् ।
Shree Nishith Sutram
नियोजकः
संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागम निष्णात - प्रियव्याख्यानि - पण्डित मुनि - श्रीकन्हैयालालजी - महाराजः
गढसिवाणानिवासि श्रेष्ठश्री- कानुगा - धींगडमलजी मुलतानमलजी - कवाड़-महोदयप्रदत्तद्रव्यसाहाय्येन
प्रकाशकः
अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्रोद्धार समितिप्रमुखः श्रेष्ठिश्रीशान्तिलाल - मङ्गलदासभाई -महोदयः मु० राजकोट
प्रथमा - आवृत्ति प्रति १२००
वीर-संवत्
२४९५
मूल्यम् - रू०
विक्रम-लवत्
२०२५
ईसवीसन्
१९६९
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भगवानुday . श्री म. मा. श्वे. स्थानवासीજૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ઠેગડિયા કૂવા રેડ, ગ્રીન લેજ पासे, बोट (सौराष्ट्र)
Published by Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti Caredia Kuva Road, RAJKOT (Saurashtra), W. Ry. India.
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञा, जानन्ति ते किमपि तान् प्रत्ति नैप यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी ||१||..
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हरिगीतच्छन्दः
फरते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये। जा जानते हैं तत्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तस्य इससे पायगा । है काल निरवधि विपुल पृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥
भृत्य ३. २०-०
પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રતિ ૧૨૦૦ વીર રાવત , ૨૪૯૫ વિક્રમ સંવત્ ૦ર૫ ઇવીસન ૧૯૬૯
સ્વામી શ્રી ત્રિભુવનદાસજી શાસ્ત્રી
શ્રી રામાનંદ પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ કાકરિયા રેડ, અમદાવાદ –રર
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श्रीमान श्रेठ सा. श्री कानुगा धिंगडमलजी साव
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॥ श्री॥
लाईफ मेम्बर सा० श्रीमान् शेठ कानुगा धिंगडमलजी सा० का संक्षिप्त
जीवन-चरित्र श्रीमान् शेठ कानुगा धिंगडमलजी मुलतानमलजी कुवाड गढसिवाणा के निवासी हैं । आपका जन्म सं.० १९७९ पौषवदि दशमी के दिन गढसिवाणा में श्रीमान् कानुगा हेमराजजी सा० कुबाड के यहाँ हुआ, आपकी जन्मदात्री मातेश्वरी का नाम कन्नुवाई था । आप बचपन से ही बडे बुद्धिमान्
और व्यापारकुशल है अतः आप को १२ वर्ष की अवस्था में शेठ मुलतानमलजी की पत्नी प्यारीबाई ने आपको गोद रक्खा । आप व्यापार के निमित्त वल्लारी गये, वहाँ गणेशमलजी प्रतापमलजी की दुकान पर रहकर . वडी कुशलता के साथ व्यापार किया । आपकी कुशलता और नीतिमत्ता से प्रसन्न होकर सोलापुर के श्रीमान् शेठ भीमराजजी रतनचन्द्रजी ने आपको अपनी भागीदारी में रख लिया । आपने अच्छा व्यवसाय किया और धन उपार्जन किया । उसके बाद सं० २००७ में अहमदाबाद में आये और सा० गणेशमलजी वक्तावरमलजी की दुकान पर भागीदारी के साथ काम करने लगे । आपने अपने व्यवसाय में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की ।
संवत २०१८ में मृगसिरवदि छठ के शुभदिन में सा० धिंगडमल चन्दनमल के नाम से अपने स्वतन्त्र दुकान की। __आप धर्म के प्रताप से सम्पत्तिशाली बने और ५०००) पाँच हजार रुपये देकर आप शास्त्रोद्धारसमिति के आजीवन सदस्य बने । आप बडे उदार हैं । जीवदया आदि धार्मिककार्यों में आप उदारतापूर्वक खर्च करते हैं। धार्मिक तिथियों में उपवास पौषध आदि हर समय करते रहते हैं, साथ ही धार्मिक सेवा करते हैं । वेला, तेला चोला, पचोला अठाई आदि तपस्या भी करते हैं । जैसे ये धर्मात्मा हैं वैसे ही इनकी धर्मपत्नी पानकुंवरवाई भी दया पौपच सामायिक आदि धर्म ध्यान खूब करती है । आपने अनेक प्रकार की तपस्या की है और हर समय धर्म ध्यान का लाभ लेती रहती है। __ आपकी मातेश्वरी श्री प्यारीवाइ भी परम धर्मात्मा है उन्हीं के पुण्य प्रताप से ये फले फूले हैं और धर्मध्यान में अग्रेसर बने हैं । आपकी सुपुत्री भाग्यवती का विवाह सा० ऋषभचन्द्रजी रांका के सुपुत्र रूपचन्द्रजी के साथ हुआ है । वे भी धर्मपरायण है श्रीमान् धिंगडमलजी का यह धार्मिक परिवार सव परिवार के लिये एक आदर्श रूप वने यही अभिलाषा है ।
स्था. जैनशास्त्रोद्धारसमिति राजकोट
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॥ अथ द्वितीयोद्देशकः ॥ सु. सं. विषयः
पृ. सं. १-८ दारुदण्डकपादप्रोञ्छनस्य-करण ग्रहण-धरण-वितरण-विभाजन-परिभोगदृघर्धमासाधिकतद्धरण-शुष्कीकरण-निपेघः ।
३३-३६ अचित्तप्रतिष्ठितगन्धस्य रागद्वेषभावेन-आघाणनिषेधः ।। १०-१५ पदमार्गोंदकवीणिका-सिक्कक-सौत्रिकादिचिलिमिलीनां, तथा सूची-पिप्प
लक- नखछेदनक-कर्णशोधनकानां च स्वहस्तेनोत्तरकरणनिषेधः । ३७-१. १८-२० लघुस्वक (ईपत ) परुपवचन -मृपावादा -ऽदत्तादाननिषेधः ।
४०-१३ २१- लघुस्वकाचित्तशीतोष्णजलेन हस्तादीनामुन्छोलनप्रधावननिषेधः । १३-४४ २२-२३ कृत्स्न (अखण्ड) चम-कृत्स्नवस्त्रधारणनिपेधः ।
४४-४८ २४ - अभिन्नवनधारणनिषेधः ।
४८ २५-२६ अलावुपात्रादीनां दण्डकादीनां च स्वहस्तेन परिघट्टनादिनिषेधः । ४९-५० २७-३१ निजक-पर-वर-बल-लव-गवेपितपात्रधारणनिषेधः ।।
५०-५२ ३२-३७ नेत्यिकानपिण्ड-पिण्ड-नैत्यिकापार्द्धभाग-भाग-न्यूनार्द्धभागपरिभोगनैत्यिकवासनिपेधः ।
५२-५५ ३८- दानात् पूर्व पश्चाच्च संस्तवकरणनिषेधः ।
५५-५६ ३९- स्थिरवास-विहरमाणभिक्षुकयोः पूर्वपश्चात्संस्तुतकुले पूर्व प्रविश्य पश्चाद् भिक्षाचर्यार्थ गमननिपेधः ।
५७-५९ ४०-४२ अन्यतीथिकादिना सह भिक्षार्थ गाथापतिकुलप्रवेश-विचारभूमि-विहारभूमि -
गमन-ग्रामानुग्रामविहरणनिषेधः । ४३-४४ गृहीतभोजनपानजातमध्यात् मुरभिवर्णाद्युपेताहारपानपरिभोगेतरपरिष्ठापननिपेयः ।
६२-६४ परिवर्द्धितमनोजभोजनजातस्यादृरस्थितसाधर्मिकादिपृच्छामन्तरेण परि
ष्ठापननिपेत्रः। ४६-१९ सागारिकपिण्डग्रहण परिभोगा-ऽज्ञाततत्कुलभिक्षार्थप्रवेश-तन्निश्रयाऽशनादियाचननिषेधः।
६६-६९ ऋतुबद्धिकशय्यासंस्तारकस्य प्रत्यर्पणे पर्युषणोल्लसननिषेधः । एवं वर्षावासिकशय्यासंस्तारकस्य वर्षावासानन्तरं प्रत्यर्पणे दशरात्रोल्लसननिषेध. ।
७०-७१
५९-६२
.
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७४
सू. सं. विषय:
पृ.स. ५२- ऋतुबद्धिक-वर्षावासिक-शय्यासंस्तारकाधिक्ये तदनपसरणनिषेधः । ५३- प्रातिहारिकशय्यासंस्तारकस्य द्वितीयवारमाज्ञामन्तरेण बहिर्नयननिषेधः । ७२ ५४-५५ एवं सागारिकसत्कातिहारिक-सागारिकसत्कशय्यासंस्तारकस्य बहिनयननिषेधः ।
७३-७४ ५६-५७ गृहोतप्रातिहारिक शण्यासंस्तारकं तत्स्वामिनेऽदत्त्वा, यथागृहोतं चादत्त्वा
विहारनिषेधः । ५८- प्रातिहारिकसागारिकसत्कशय्यासंस्तारके विप्रणप्टे तदगवेषणनिषेधः । ७५
स्वल्पस्याप्युपधेरप्रतिलेखननिषेधः । प्रायश्चित्तकथनपूर्वकमुद्देशकपरिसमाप्तिः ।
॥ इति द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥२॥
॥ अथ तृतीयोदेशकः॥ आगन्त्रागाराऽऽरामागारादिषु अन्यतीर्थिकादिकमेकं पुरुषम् , एकांस्त्रियम् , अनेकान् पुरुषान् , अनेकाः स्त्रियश्चाधिकृत्य तेभ्योऽवभाण्याव
भाष्य अशनादियाचननिषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि । ५-८ एवमेव कुतूहलार्थ गतेभ्यः पूर्वोक्तेभ्यः पूर्वोक्तरीत्या अशनादियाचननिषेधः ।
७७-८०
८७
९-१२ आगन्त्रागारादिस्थितान्यतीर्थिकाघेकपुरुषबहुपुरुषैकस्त्रीबहुस्त्रीभ्योs
भिहत्य दीयमानाशनादि प्रतिषेध्य पुनः' पश्चाद् गत्वाऽवभाण्यावभाष्य याचननिषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि ।
८४-८६ गृहपतिप्रतिषिद्धे कुले द्वितीयवारं तत्र भिक्षार्थप्रवेशनिषेधः ।
संखडिप्रलोकनबुद्धया तत्र गत्वाऽशनादिग्रहणनिषेधः । १५- भिक्षाथै गतस्य त्रिगृहव्यवधानेनानीताशनादेर्ग्रहणनिपेधः । १६-७१ पादामार्जनादिप्रकरणम्।
८८-१०६ १६-२१ आस्मनः पादयोः आमार्जन-प्रमार्जन-संबाहन-परिमर्दन-तैलादिम्रक्षणा
भ्यञ्जन-लोघ्राघुल्लोलनीद्वर्तनाऽचित्तशीतोष्णजलोच्छोलन-प्रधावन-फूत्करण-- रखननिषेधात्मकानि षट् सूत्राणि |
८८-९१ २२-२७ एवं कायमाश्रित्य एतान्येव षट् सूत्राणि ।
८७
९२
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सू. सं.
विषयः
२८-३३ एवं कायन्रणमाश्रित्यापि पट् सूत्राणि ।
३४-३९ कायगतगण्डादीनां छेदन - तद्गतपूयादिनिस्सारण-विशोधना-ऽचित्तशीतोष्णजलो च्छोलन-घावन-लेपनद्रव्यालेपन- विलेपन-तैलाद्यभ्यङ्गनक्षण-धूपद्रव्यधूपन-प्रधूपन - निपेधात्मकानि पट् सुत्राणि ।
४०
पायुकृम्यादिनिस्सारणनिपेधमूत्रम् ।
११ - ४९ आत्मनो दीर्घनखशिखा वस्त्यादिरोम कर्त्तननिपेधपरकाणि नव सूत्राणि । ५०-५२ दन्तानामाघर्पण प्रधर्षणा-चित्त शीतोष्ण जलोच्छोलन - प्रधावन - फूत्करण - रञ्जन-निपेधात्मकं सूत्रत्रयम् ।
५३-५८ ओष्टस्यामर्जनादिनिपेधपरकाणि पट् सूत्राणि ।
५९-६० उत्तरोष्ठरोमदीर्घाक्षिपक्ष्मकर्त्त ननिपेधपरकं सूत्रद्वयम् ।
६१-६६ अक्ष्णोरामार्जनादिनिपेधपरकाणि षट् सूत्राणि । ६७-६८ दीर्घ श्ररोम पार्श्वरोमकर्तननिपेधपरकं सूत्रद्वयम् ।
६९-७० अक्ष्यादिमलकायस्वेदादिनिस्सारण विशोधननिपेधपरकं सूत्रद्वयम् । ग्रामानुग्रामविहरणकाले शीर्पदौवारिकाकरणनिपेधः ।
७१
॥ इति पादामार्जनादिप्रकरणम् ॥ शणकार्पासादिसूत्रेण वशीकरणसूत्रकरणनिषेधः ।
। उच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापनप्रकरणम् ।
७३ - ८१ गृहादिपु मृतकगृहादिषु, अङ्गारदाहादिषु, स्वेदायतनादिपु, अभिनव - गोहनिकादिपु, उदुम्बरादिवृक्षासन्नप्रदेशेषु, इक्षुवनादिषु, डागा (पत्रशाका) दिप्रत्यासन्नप्रदेशेषु अशोकवनादिषु च उच्चारप्रत्रणपरिष्ठापननिषेधपरकाणि नव सूत्राणि ।
रात्रौ विकाले वा स्वपरपात्रन्युत्सृष्टोच्चारप्रम्नवणस्य सूर्योदयात्पूर्वमप्रतिलेखितभूमौ परिष्ठापननिपेधः । पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेचिनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशपरिसमाप्तिः । ॥ इति तृतीयोदेशकः समाप्तः ||३||
७२
८२
८३
पू. सं.
९३
९४-९९
१००
१००
१०१-१०२
१०२
१०३
१०३
१०४
१०५
१०६
१०७
१०७ ११७
११२
११२
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पृ.सं.
सूत्राणि ।
११५
11 Ï **** *****!
॥ अथ चतुर्थोद्देशकः ॥
विषयः १-४ राज्ञः आत्मीकरणा-अर्चीकरणा-ऽच्छीकरणा-ऽर्थीकरणनिषेधविषयाणि चत्वारि
११३-११४ ___५-२० एवम्-राजारक्षक-नगरारक्षक-निगमारक्षक-सर्वारक्षकेतिचतुर माश्रित्य
प्रत्येकम् आत्मीकरणादिपदचतुष्टयसंयोगेन तन्निषेधपरकाणि षोडश सूत्राणि ।
११४-११५ कृत्स्न (अखण्डित)-शालिगोधूमाद्योषध्याहारनिषेधः । आचार्योपाध्यायादत्ताहारकरणनिषेधः । आचार्योपाध्यायाविदत्तविकृत्याहारकरणनिषेधः ।
११६ परिज्ञान-प्रच्छन-गवेषणमन्तरेण पिण्डपातवाञ्छया स्थापनाकुलप्रवेशनिषेधः ।
११६-११७ निर्गन्थ्युपाश्रयेऽविधिना प्रवेशनिषेधः ।
११७-११८ २६ निम्रन्थ्या आगमनमार्गे दण्डकादिस्थापननिषेधः ।
११८-११९ २७ . अनुत्पन्ननवीनाधिकरणोत्पादननिषेधः ।
११९-१२२ २८ क्षामितव्युपशमितपुराणाधिकरणस्य पुनरुदीरणनिषेधः ।
१२३ ___२९ मुखं विस्फार्य हसननिषेधः ।
१२४ ३०-३९ पार्श्वस्थादिसंसक्तपर्यन्तानां संधाटकदानाऽऽदाननिषेधपरकाणि दश _ . सूत्राणि ।
१२४-१२५ ४०-६० उदकादिविशेषणविशिष्टहस्तादिनाऽशनादिग्रहणनिषेधपरकाणि एकविंशतिसूत्राणि।
१२६-१२७ ६१-८० प्रामारक्षक-देशारक्षक-सीमारक्षका-ऽरण्यारक्षक-सर्वारक्षकेतिपञ्चसंख्यक
पुरुषानधिकृत्य प्रत्येकस्य आत्मीकरणा-अर्चीकरणा-ऽच्छीकरणा-ऽर्थीकर
णेति चतुरः पदान् संयोज्य निषेधपरकाणि विंशतिसूत्राणि । १२७-१२८ ८१-१३६ भिक्षोरन्योन्यस्य पादामार्जनादिशीर्षदौवारिकाकरणपर्यन्तनिषेध
परकाणि तृतीयोदेशसदृशानि षट्पञ्चाशत् सूत्राणि । १३७-१४६ उच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापनप्रकरणम् ।
१२९-१३३ १४७ अपारिहारिकस्य पारिहारिकं प्रति सार्द्धमशनादिग्रहणार्थ पृथक् पृथ
१२८
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१३४
१४८
१४१
विषयः
पृ. सं. सू. सं.
गुपविश्य भोजनार्थ च कथननिषेधः । पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्त कथनपूर्वकमुद्देशकपरिसमाप्तिः ।
१३४ -१३५ ॥ इति चतुर्थीद्देशकः समाप्तः ॥४॥
॥अथ पञ्चमोद्देशकः ॥ १-११ मचित्तवृक्षमूलाध. कायोत्सर्गादिसर्वसाधुक्रियानिपेधः। १३६ १३९
स्वसंघाच्या अन्यतीथिकादिना सीवननिषेधः । एवं स्वसघाट्या दीर्घसूत्रकरणनिषेध. । पिचुमन्दादिवृक्षत्राण अचित्तशीतोष्णजलन विलोड्याहारकरण
निषेधः। १५-२२ प्रातिहारिकसागारिकसत्कपादप्रोञ्छनकादीना-यथाकथितसमयवैपरीत्येन प्रत्यर्पणनिषेधः,
१४१-१४३ २३-२४ प्रातिहारिकसागारिकसत्काय्यासंस्तारकस्य प्रत्यर्पणानन्तरं द्वितीयवारमनुज्ञामन्तरण तदधिष्ठाननिषेधः ।
१४४-१४५ २५ गणादिसूत्रेण दीर्घसूत्रकरणनिषेधः ।।
१४५-१४६ २६-३४ सचित्त-चित्र-विचित्र-दारुदण्डादीनां प्रत्येकेषां करण-धरणपरिभोगनिपेधः ।
१४७-१४८ ३५-३६ नवनिवेशितग्रामादिलोहाकगदिपु अशनादिग्रहणनिपेधः । १४८-१४९ ३७-६१ मुखवीणिकादिकग्ण-वादन-तथाविधान्यानुदीर्णशब्दोदीरणनिषेधः । १४९-१५१ ६२-६४ मौशिक-सप्रामृतिक-सपरिकर्मवसतिप्रवेशनिषेधः ।
१५१-१५२ ६५ असांभोगिकः सहाहारादिकरणे तत्प्रत्यया क्रिया न भवतीतिप्ररूपणनिषेधः, १५२ ६६-६८ वस्त्राधलाबुप्रमृतिपात्र-दण्डकादीनां सत्यपि कार्यक्षमत्वे तेषां छेदनभेदन-परिभख्ननं कृत्वा परिष्ठापननिषेधः ।
१५३-१५४ अतिग्कप्रमाणरजोहरणधरणनिषेधः ।
१५५ ग्जोहरणस्य गोपिकरण बन्धनादिनिषेधपरकाणि दश मूत्राणि । १५५-१५८ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसविनां प्रायश्चित्तकथनपूर्वकमुद्देशकपरिसमाप्तिः । १५८
॥ इति पञ्चमोद्देशकः समाप्तः ॥५॥
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सू. सं.
१-२६
१-९२
१-९
॥ अथ षष्ठोद्देशकः ।। विषयः
पृ. सं. मातृग्राम-मैथुनप्रतिज्ञेतिपदद्वयमधिकृत्य तद्विषयकनिषेधपरकाणि षडूविंशतिसूत्राणि ।
१५९-१७० उपरोक्तपापस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चितप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकसमाप्तिः। १७०
॥इति षष्ठोद्देशकः समाप्तः ॥६॥
॥ अथ सप्तमोद्देशकः ॥ षष्ठोद्देशकवदेव मातृग्राममैथुप्रतिज्ञेतिपदद्वयमधिकृत्य तद्विषयकनिषेधपरकाणि द्विनवतिसूत्राणि ।
१७१-१८७ उपरोक्तपापस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकसमाप्तिः । १८७ ॥ इति सप्तमोदेशकः समाप्तः ॥७॥
॥ अथाष्टमोद्देशकः ॥ एकाकिन्या स्त्रिया सह आगन्त्रागारादिषु केषुचिदपि स्थानेषु विहारस्वाध्यायाशनाद्यशनोच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापनानार्यनिष्ठुरादिकथाकथननिषेधपरकाणि नव सूत्राणि ।
१८८-१९२ रात्रौ विकाले वा स्त्रीमध्यगततत्संसक्ततत्परिवृतस्य प्रमाणातिक्रमण कथाकथननिषेधः ।
१९२-१९३ भिक्षोः स्वगणीयपरगणीयनिम्रन्थ्या सह विहारे पुरतः पृष्ठतो गमनेऽवहतमनःसंकल्पादिविशेषणविशिष्टस्य स्वाध्यायाशनादिकरणोच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापनानार्यनिष्ठुरादिकथाकथननिषेधः । १९३-१९४ ज्ञातकाज्ञातकादीनामुपाश्रयान्तो रात्रौ संवासननिषेधः । १९४-१९५ ज्ञातकादीन् रात्रौ संवास्य तमाश्रित्य उपाश्रयाद्वहिनिष्क्रमणप्रवेशनि० । १९६ रात्री उपाश्रये संवासेच्छुज्ञातकादीनामप्रतिषेधे प्रायश्चितम् । राज-क्षत्रिय-मुदित-मूर्धाभिषिक्तानामिन्द्रमहादिमहोत्सवस्थितानां भिक्षाग्रहणनिषेधः ।
१९६-१९८ एवं पूर्वोक्तानां राजादीनामुत्तरशालादिषु विचरतां हयशालादिगतानां भिक्षाग्रहणनिषेधपरकं सूत्रद्वयम् ।
१९८-१९९
१२
१६-१७
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विपयः
सू. सं. १८-१९
२०
पृ.स. रानादीनां संनिधिसंचयात् क्षीरदध्यादीनाम् उत्सृष्टपिण्डादीनां च । ग्रहणनिषेधः।
१९९-२०० पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशसमाप्तिः। २०१
॥ इत्यष्टमोदेशकः समाप्तः ॥८॥
॥ अथ नवमोद्देशकः ॥ राजपिण्डग्रहण-तत्परिभोग-रानान्तःपुरप्रवेशनिपेधः ।
२०२ रानान्तःपुरिकां प्रति राजान्तःपुरतो भिक्षानयनकथननिषेधः। २०३-२०४ राजान्तःपुरतो भिक्षामानीय तुभ्यं ददामीति वदन्त्या अन्तःपुरिकाया वचनस्वीकरणनिषेधः।
२०४ राज-क्षत्रिय-मुदित-मूर्धामिषिक्तानां द्वौवारिकादिभक्तग्रहणनिषेधः । २०५ पूर्वोत्तरानादीनां कोष्ठागारशालादिपडदोपस्थानेषु परिज्ञान- ... प्रच्छन-गवेषणमन्तरेण प्रवेशनिष्क्रमणनिपेधः ।।
२०६-२०७ राजादीनां गच्छतामागच्छतामवलोकनेच्छया पदन्यासविचारनिषेधः । २०७-२०९ एवमेतेषां स्त्रीणामवलोकनेच्छया पदन्यासविचारनिषेधः - २०९-२१० पूर्वोक्तानां राजादीनां मांसादिखादनार्थ बहिनिर्गतानामशनादिग्रहणनिपेधः। रानादीनां बलवर्धकाशनादि दृष्ट्वाऽनुत्थितायां सभायां तदशनादिग्रहणनिपेघः
२११ राजक्षत्रियादिनिवासासन्नप्रदेशे विहरणस्वाध्यायादिसर्वकार्यकरणनि० । २१२ राजादीनां विजययात्रासंप्रस्थितानामशनादिग्रहणनिपेधः । एवं यात्राप्रतिनिवृत्तानामपि राजादीनामशनादिग्रहणनिपेधः। एवं नदीयात्रा-गिरियात्रा-संप्रस्थितानां ततः प्रतिनिवृत्तानां च राजादीनामशनादिग्रहणनिपेधः ।
२१४ रानादीनां महाभिषेके वर्तमाने तत्र प्रवेशनिर्गमननिषेधः ।
२१४ राजादीनां चम्पादिदशराजधानीपु द्वित्रिःकृत्वो निष्क्रमणप्रवेशनिपेधः। २१४-२१६
२१०
२१३
२१४
२०
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सू. सं. २१-३०
३१
१-४
५-६
७-९
१०-११
१२-१३
१४
विषयः
राजादीनां क्षत्रियादि-नटा-द्यश्वादि-पोषक- दमक-मर्दक-मार्जकाऽऽरोहकसार्थाह्नकादि-वर्षधरादि- कुब्जादिदासी रूपपरनिमित्तनिष्कासिता -
शनादिग्रहणनिषेधपरकाणि दश सूत्राणि ।
पूर्वोक्त प्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वक मुद्देशकपरिसमाप्तिः ।
॥ इति नवमोद्देशकः समाप्तः ||९||
॥ अथ दशमोद्देशकः ॥
भदन्तं (आचार्योपाध्यायपर्यायज्येष्ठं) प्रति आगाढपरुषतदुभयवचनात्याशातनाकरणनिषेधः ।
अनन्त काययुक्ताहाराधाकर्माहारनिषेधः ।
अतीत वर्त्तमाना-नागतनिमित्तकथन निषेधः |
३६
२४ - २७ एवम् अनुद्घातिकमाश्रित्य चत्वारि सूत्राणि ।
३२
२८-- ३१ एवमेव उद्घातिकानुद्घातिकसंमिश्रणमाश्रित्य चत्वारि सूत्राणि । उद्गतवृत्तिका नस्तमितमनः संकल्पस्य संस्तुतनिर्विचिकित्सा संपन्नस्य गृहीताशनादेरनुगताऽस्तमितपरिज्ञाने तत्परिभोगनिषेधः ।
३३
एवं संस्तृत विचिकित्सा संपन्नस्य तज्ज्ञाने गृहीताशनादेः परिभोगनिषेधः । ३४-३५ एवमेव असंस्तृत निर्विचिकित्सासंपन्न संस्तृत विचिकित्सासंपन्नविषयकं
पृ.सं.
२१६-२२१
२२३-२२५
२२६-२१८
२२९-२३०
शैक्षस्य विपरिणमनापहरण निषेधः ।
२३१-२३३
दिशस्य (आचार्योपाध्यायप्रवर्त्तिनी प्रभृतेः) विपरिणमनापहरणनिषेधः २३४ - २३६ अन्यगच्छीयादेशस्यागमनकारणपृच्छा मन्तरेण त्रिरात्रादधिक
संवासननिषेधः ।
२३६-२३७
१५
२३८
१६-१९
एवं साधिकरणान्युपशमित कलहस्य त्रिरात्रादधिकसंवासननिषेधः । उद्घातिकानुद्घातिकविषये वैपरोत्येन कथनप्रायश्चित्ताऽदान निषेधः २३९-२४० २०–२३ उद्घातिकमुद्धातिकहेतुमुद्रघातिकसंकल्पं तत्सर्वविशेषणविशिष्टं च श्रुत्वा तैः सह संभोगनिषेधः ।
सूत्रद्वयम् ।
रात्रौ विकाले च मुखसमागतसपानसभोजनोद्गालप्रत्यवगिलननिषेधः ।
२२२
२४१-२४२
२४२
*२४२
२४३
२४४
२४५-२४६
२४६
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५३
१४
४६
१८
सू. सं.
विषयः ३७-३८ ग्लाने थुते ज्ञाते च तदगवेषणस्य-उन्मार्गप्रतिपथगमनस्य च निषेधः। २४७-२१९ ३९ ग्लानवैयावृत्यसमुस्थितस्य तत्प्रायोग्यद्रव्यजातालाभे आचार्यादेरकथननिपेधः ।
२५० एव पूर्वोक्तस्य स्वलाभेन ग्लानाऽतृप्तौ पश्चात्तापाऽकरणनिपेषः ।। २५१-२५२ प्रथमप्रावृट्काले-आषाढमासे-प्रामानुग्रामविहरणनिषेधः ।
२५३ वर्षावासनिवासकरणानन्तरं प्रामानुग्रामविहरणनिषेधः ।
२५३-२५४ अपर्युषणायां पर्युपणाकरणनिपेधः ।
२५१ एवं पर्युषणायामपर्युषणाकरणनिषेधः ।
२५५ पर्युषणायां गोलोममात्रकेशधारणनिषेधः ।
२५६ पर्युषणायां-संवत्सरीदिने अल्पाहारस्यापिनिषेधः ।
२५७ अन्यतीर्थिकगृहस्थैः सह पर्युषणा-सांवत्सरिकप्रतिक्रमण-करणनिषेधः । २५८ प्रथमसमवसरण- वातुर्मास-प्राप्तचीवरग्रहणनिषेधः ।
२५८ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकपरिसमाप्तिः। २५९
॥ इति दशमोद्देशकः समाप्तः ॥१०॥
॥ अथैकादशोद्देशकः॥ अयःपात्रताम्रपात्रादीनां करण-धरण-परिभोगनिषेधपरकाणि त्रीणि सूत्राणि । २६०-२६१ अयःबन्धनादिकरण-धरण-परिभोगनिषेधपरकाणि त्रीणि सूत्राणि । २६१-२६२ अयोजनमर्यादातः परं पात्रग्रहणवाञ्छया गमननिषेधः ।
२६२ अईयोजनमर्यादातः परं सापायमार्गे अभिहतमागत्य दीयमानपात्रग्रहणनिषेधः।
२६३ ९-१० धर्मावर्णवादस्याधर्मवर्णवादस्य च निषेधः ।
२६३-२६४ ११-६३ अन्यतीथिंकगृहस्थयो. पादामार्जननिषेधपरकसूत्रादारभ्य शीर्षदौवारिका
करणनिधपर्यन्तानि षट्पञ्चाशत्सूत्राणि तृतीयोदेशकसदृशानि। २६४-२६५ ६४-६९ मआत्मपरयोः मापन-विस्मापन-विपर्यासननिपेधः ।
२६५-२६९ मुखवर्ण-जिनोक्तविपरीतवस्तुप्रशंसननिषेधः ।
२६९-२७० ७१ वैराग्यविरुद्धगज्ये गमना-ऽऽगमननिषेधः ।
२७० ७२-७३ दिवसभोजनावर्णवाद-रात्रिभोजनवर्णवादनिपेधः ।
२७१
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________________
११
२७३
म. सं.
विपयः ___७४-७७ दिवागृहीतस्य दिवसे, दिवागृहीतस्य रात्रौ, रात्रिगृहीतस्य दिवसे, रत्रिग
हीतस्य रात्रौ परिभोगनिषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि । २७१-२७२ ७८-७९ अशनादेः पर्युषितकरणस्य तादृशस्वल्पस्याप्यशनादेराहरणस्य च निषेधः। २७३ ८० मांसमत्स्यादिभोज्यस्थाने तदाशया तत्पिपासयाऽन्यवसतौ रात्रिव्यति
क्रमणनिषेधः । ८१ निवेदनपिण्डपरिभोगनिषेधः ।
२७४ ८२-८३ यथाछन्दप्रशंसमवन्दननिषेधः ।
२७५ ८४-८६ अयोग्यज्ञातकप्रव्राजनोपस्थापनस्य तत्कृतवैयावृत्त्यस्य च निषेधः । २७६ ८७-९० सचेलकस्य सचेलमध्ये, अचेलमध्ये च, एवमचेलकस्य सचेलमध्ये अचेलमध्ये च संवसननिषेधः ।
२७७-२७८ पर्युषितपिप्पल्याचाहारनिषेधः ।
२७८ ९२. गिरिपतनादिबालमरणनिषेधः।
२७९-२८० __९३ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशपरिसमाप्तिः । २८.१
॥ इत्येकादशोद्देशकः समाप्तः ॥११॥
॥ अथ द्वादशोद्देशकः ॥ १-२ करुणाप्रतिज्ञया त्रसप्राणजातेस्तृणादिपाशेन बन्धननिषेधः बद्धस्य च मोचननिषेधः ।
२८२-२८३ अभीक्ष्णं प्रत्याख्यानभञ्जननिषेधः । सचित्तवनस्पतिकायसंयुक्ताहारनिषेधः । १ सलोमचर्मधारणनिषेधः ।
२८५ पर-(गृहस्थ)-वस्त्राछन्नतृणादिपीठकाधिष्ठाननिषेधः । निर्ग्रन्थीसंघाच्या निर्ग्रन्थस्य गृहस्थद्वारा सीवननिषेधः ।
२८६ पृथिवीकायादेरल्पमात्रारम्भस्यापि निषेधः ।
२८६ सचित्तवृक्षारोहणनिषेधः ।
२८७ १०-१३ गृहस्थपात्रभोजन-तद्वस्त्रपरिधान-तन्निषद्योपवेशन तच्चिकित्साकरणनिषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि ।।
२८७-२८८ पुरःकर्मकृतहस्तादिनाऽशनादिग्रहणनिषेधः ।
२८८-२८९ गृहस्थान्यतीथिकानां शीतोदकपरिभोगयुक्तहस्तादिनाऽशनादिग्रहणनिषेधः ।
२८९-२९०
२८४
२८५
mao 5 w a va
२८५
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________________
पृ.सं.
सू. सं.
विषयः १६-२९ काष्ठकर्मादीनां १६, वप्रादीनां १७, कच्छादीनां १८, प्रामादीनां १९,
प्रामादिमहानां २०, प्रामादिवधानां २१, ग्रामादिपथानां २२, प्रामादिदाहानाम् २३, अश्वादिशिक्षणस्थानानाम् २४, अश्वादियुद्धस्थानानां २५, गोयूथिकादिस्थानानाम् २६, अभिषेकस्थानानां २७, डिम्बडमरादिस्थानानां २८, नानाविधमहोत्सवगतानां गानादि कुर्वतामशनादि मुजतां स्यादिननानां च २९, चक्षुषा दर्शनेच्छया मनसि विचारकरणस्यापि निपेधः ।
२९०-२९७ ऐहलोकिकपारलोकिकदृष्टादृष्टश्रुताश्रुतज्ञाताज्ञातरूपेषु परिष्वङ्गादिनिपेधः ।
२९८-२९९ प्रथमपौरुषीगृहीताहारस्य पश्चिमपौरुषीव्यतिक्रमणे निषेधः ।
२९९ अशनादेरर्द्धयोजनमर्यादाव्यतिक्रमणनिषेधः । ३३-३६ दिवागृहीतगोमयेन दिवा, दिवागृहीतगोमयेन रात्रौ, रात्रिगृहीतगोम
येन दिवा, रात्रिगृहीतगोमयेन रात्रौ-कायत्रणस्याऽऽलेपन-विलेपननिषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि ।
३००-३०१ ३७-४० एवमेवालेपनजातेन कायत्रणस्यालेपनविलेपननिषेधविषयेऽपि चत्वारि
सूत्राणि । ४१-४२ अन्यतीथिकगृहस्थद्वारा स्वोपधिवाहन-तन्निमित्ताशनादिदाननिषेधः। ३०२ ४३ गङ्गादिपञ्चमहानदीनां मासमध्ये एकदिःकृत्व उत्तरणसंतरणनिषेधः । ३०३ ४४ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकपरिसमाप्तिः। ३०४
॥इति द्वादशोद्देशकः समाप्तः ॥१२॥
॥ अथ त्रयोदशोद्देशकः ॥ सचित्तसरजस्कादिविशेषणविशिष्टायां पृथिव्यां स्थानशय्यादिकरण
निषेधपरकाणि अप्टौ सूत्राणि । १-११ दुर्बददुनिक्षिप्तादिविशेषणविशिष्टे स्थूणादौ कुलिकादौ स्कन्धादौ स्थाननिपधादिकरणनिपेघपरकाणि त्रीणि सूत्राणि ।
३०९-३११ १२ अन्यतीथिकादीनां शिल्पश्लोकादिशिक्षणनिपेधः ।
३११-३१२
३०२
३०५-३०८
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________________
ब. सं.
पृ. सं.
विषयः १३-१६ अन्यतीर्थिकगृहस्थं प्रति आगाढ-परुषा-ऽऽगादपरुषेतितदुभयवचनस्य,
तयोरत्याशातनयाऽऽशातनस्य च निषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि । ३१२-३१४ १९-३१ अन्यतीथिंकगृहस्थानां कौतुककर्म-भूतिकर्मादिकरणनिषेधपरकाणिपञ्चदश सूत्राणि ।
३१५-३१८ ३२ अन्यतीथिंकगृहस्थानां मार्गपरिभ्रष्टानां मार्गादिप्रवेदननिषेधः । ३१८-३१९ ३३-३४ अन्यतीर्थिकगृहस्थानां धातुनिधिप्रवेदननिषेधः ।
३१९-३२० ३५-४५ जलपात्राऽऽदर्शादिषु आत्मनो मुखादिदर्शननिषेधपरकाणिएकादश सूत्राणि । ३२१-३२२ ४६-१९ वमन-विरेचन-वमनविरेचनेतितदुभयाऽऽरोग्यप्रतिकर्मकरणनिषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि ।
३२२-३२३ ५०-६९ पार्श्वस्थकुशीलादीनां दशानां वन्दनप्रशंसनेतिद्वयनिषेधपरकाणि विंशतिसूत्राणि ।
३२४-३२६ ७०-८३ धात्रीपिण्डादिचतुर्दशपिण्डपरिभोगनिषेधपरकाणि चतुर्दश सूत्राणि । ३२७-३२८ ८५ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकपरि• समाप्तिः ।
॥ इति त्रयदोशोदेशकः समाप्तः ॥१२॥
॥ अथ चतुर्दशोद्देशकः ॥ क्रीत-प्रामित्य-परिवर्ता-ऽऽच्छेद्यदोषदूषितदीयमानपात्रग्रहणनिषेधः। ३३०-३३५ गणिविशेषमुद्दिश्य स्थापितातिरेकपात्रस्य तमनापृच्छयान्यस्मै वितरणनिषेधः ।
३३५-३३६ अतिरेकपात्रस्य परिपूर्णहस्ताघङ्गोपाङ्गक्षुल्लकादिभ्यो दाननिषेधः । ३३७ एवं हस्ताघङ्गोपाङ्गहीनेभ्योऽतिरेकपात्रस्याऽदाननिषेधः ।
३३८ अनला-(खण्डितावयवा दिविशेषणविशिष्टपात्रस्य धारणनिषेधः, तद्वि
यरीतस्याधारणनिषेधश्च । १०-११ वर्णयुक्तपात्रस्य विवर्णकरणनिषेधः विवर्णस्यव वर्णयुक्तकरणनिषेधः । ३३९ १२-३१ 'मया नूतनं पात्रं लब्धम्' इति कृत्वा शोभानिमित्तं तस्य तैलादिम्रक्षणप्रभृतिनिषेधपरकाणि विशतिसूत्राणि ।
३३९-३११
३२९
३३८
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सु. सं.
विषयः ३२-४२ सचित्तसस्निग्धादिपृथिवीप्रभृतिस्थानेषु पात्रस्यातापनादिनिषेधपरकाणि' त्रयोदशोदेशकोक्तगमसदृशानि एकादश सूत्राणि ।
३४१-३४२ ४३-५४ पात्रस्थितपृथिव्यपूतेजोवनस्पतिसम्बन्धिकन्दादिसप्तौ-पधिबीज-त्रसप्राण
जातनिस्सारणस्य, पात्रस्थितपृथिव्यादित्रसप्राणजातान्तं निस्सार्य दीयमानपात्रग्रहणस्य च निषेधपरकाणि द्वादश सूत्राणि ।
३४२ पात्रकोरण-कोरितदीयमानपात्रग्रहणनिषेधः । ग्रामान्तः, ग्रामपथि ज्ञातकादिभ्योऽवभाष्यावभाज्य पात्रयाचननिषेधः । ३४३-३४४
परिषद्गतज्ञातकादीन् उत्थाप्यावभाज्यावभाष्य पात्रयाचननिषेधः। ३४४-३४५ ५८-५९ पात्रनिश्रया ऋतुबद्धवर्षावासनिवासनिषेधपरकं सूत्रद्वयम् ।
३४५ ६० पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशपरिसमाप्तिः। , ३४६
॥ इति चतुर्दशोद्देशकः समाप्तः ॥१४॥
॥अथ पञ्चदशोदेशकः ॥ १-३ भिक्षोरन्यभिक्षून् प्रति-आगाढ-परुषा-SSगाढपरुषमिश्रितवचननिषेधः। ३४७-३४८ ४ एवं भिक्षोरन्यभिक्षूणामत्याशातनयाऽऽशातननिषेधः ।।
३४८-३४९ ५-६ सचित्ताम्रस्य परिभोग-विदशन-(चूपन)-निषेधपरकं सूत्रद्वयम् ।
३४९ सचित्ताम्रतत्पेशी-(चीरिका)-प्रभृतीनां परिभोगविदशननिषेधपरकं सूत्रद्वयम् ।
३४९-३५० ९-१२ सचित्तप्रतिष्ठिताम्रपरिभोगविदशनतत्पेशिकादिपरिभोगविदशननिषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि ।
। ३५०-३५१ १३-६८ अन्यतीर्थिकगृहस्थाभ्यामात्मपादयोरामार्जनादिनिषेधपरकाणि तृतीयोद्देशगमसदृशानि पट्पञ्चाशत्सूत्राणि ।
३५१-३५२ ६९-७७ आगन्त्रागारादिषु १, उद्यानादिषु २, अट्टाऽट्टालिकादिषु ३,
उदकादिपु ४, शून्यगृहादिपु ५, तृणगृहादिषु ६ यानगृहादिषु ७, पण्यगृहादिपु ८, गोणगृहादिपु ९ च उच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापननिषेधपरकाणि नव सूत्राणि ।
३५२-३५६ ७८-७९ अन्यतीर्थिकगृहस्थेभ्योऽशनादिपात्रादिदाननिषेधपरकं सूत्रद्वयम् । ३५७ ८०-१०३ पार्श्वस्थादिद्वादशभ्योऽशनादिदानस्य, तेभ्योऽशनादिग्रहणस्य च निपेधपरकाणि चतुर्विशतिसूत्राणि ।
३५७-३५८
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३६२-३६४
सू. सं..
विषयः १०४
चतुर्विधयाचनानिमन्त्रणावस्त्रस्य परिज्ञानपृच्छागवेषणमन्तरेण ग्रहणनिषेधः ।
३५८-३५९ १०५-१६० विभूषाप्रतिज्ञया-आत्मनः पादयोरामार्जनादिनिषेधपरकाणि तृतीयोद्देशगमसदृशानि षट्पञ्चाशत्सुत्राणि ।
३५९-३६० १६१-१६२ बिभूषाप्रतिज्ञया वस्त्राद्युपकरणस्य धारणधावननिषेधपरकं सूत्रद्वयम् । ३६० १६३ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशपरिसमाप्तिः ।
३६१ ॥इति पञ्चदशोद्देशकः समाप्तः ॥१५॥
॥अथ षोडशोद्देशकः ।। सागारिक-सोदक-साग्निकशय्या-वसति-प्रवेशनिषेधपरकाणि त्रीणि सूत्राणि । सचिसेक्षुतत्पेशिकादिपरिभोग-विदशन-(षण)-निषेधः ।
३६५ अरण्यादिगामिनामशनादिग्रहणनिषेधः ।
३६५ वसुराजिकं-ज्ञानदर्शनचारित्राराधकम्-अवसुराजिकत्वेन कथननिषेधः ।। अबसुराजिकं वसुराजिकत्वेन कथननिषेधः । वसुराजिकगणाद् अवसुराजिकगणसंक्रमणनिषेधः ।
३६७ १४-२२
व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानाम् (कलहं कृत्वा निसृस्तानाम्) अशनादिदानाऽऽदान--वस्त्रादिदानाऽऽदान-वसतिदानाऽऽदान-वसतिप्रवेश -स्वाध्यायदानाऽऽदाननिषेधपरकाणि नव सूत्राणि ।
३६७-३६९ सत्यन्यस्मिन् सुलभे देशेऽनेकदिवसगमनीयाटवीरूपमार्गे विहारेच्छया
मनसि विचारकरणनिषेधः । २४ एवं सत्यन्यस्मिन् सुलभे देशे अनार्यम्लेच्छप्रत्यन्तरूप दस्युस्थानेषु विहारे
च्छया मनसि विचारकरणनिषेधः । २५-३४ जुगुप्सितकुलेषु अशनादिग्रहण-वस्त्रादिग्रहण-वसतिग्रहण-स्वाध्याय. करणे-देशन-समुद्देशन-प्रशंसन-वाचन-ग्रहण-परिवर्तन-निषेधपरकाणि दश सूत्राणि ।
३७१-३७१ . ३५-३७ भुक्तावशिष्टाशनादेः पृथिवी-संस्तारक-शिक्केषु निक्षेपणनिषेधपरकाणि. त्रीणि सूत्राणि ।
• ३७१-३७५
११
m
m
२३
३७०
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पृ० सं०
ori
१० सं०
विषयः ३८-३९ अन्यतीर्थिकगृहस्थैः सहोपविश्य तैः परिवेष्टितो भूत्वा वाऽऽहारपरिभोगनिषेधः ।
____३७५-३७६ आचार्योपाध्यायादीनां शय्यासंस्तारके पादेन संघट्टिते हस्तेनाननुज्ञाप्य (अपराधमक्षमाप्य) गमननिषेधः ।
३७६-३८७ प्रमाण-गणनातिरिकोपधिधारणनिषेधः ।
३७८ सचित्तपृथिव्यां जीवप्रतिष्ठितादिदुर्बद्धादिविशेषणविशिष्टे च स्थाने उच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापननिषेधः ।
३९८-३७९ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकपरिसमाप्तिः ।
३७९-३८. ॥ इति पोडशोद्देशकः समाप्तः ॥१६॥
॥ अथ सप्तदशोद्देशकः ॥
कौतूहलपतिज्ञाप्रकरणम् । कौतूहलप्रतिज्ञया त्रसप्राणजातस्य णपाशकादिना बन्धननिषेधः । ३८१ एवं वद्धस्य मोचननिषेधः ।
३८२ कौतूहलप्रतिज्ञया तृणमुखमालिकानां करण-धरण-परिभोग निषेधपरकाणि त्रीणि सूत्राणि ।
३८३-३८४ ६-८ एवम्-अयोलोह-ताम्रलोहादीनां करणधरणपरिभोगनिषेधपरकाणि त्रीणि
सूत्राणि । ९-११ एवम्-हारार्द्धहारादीनां करणधरणपरिभोगनिषेधविषयाणि त्रीणिसूत्राणि । ३८५-३८६ १२-१४ एवम्-आजिन( मृगचर्म )वस्त्रादीनां करण-धरण-परिभोग-निपेघविषयाणि सप्तमोद्देशकगमसदृशानि त्रीणि सूत्राणि ।
३८६-३८७ । कौतूहलपतिज्ञामकरणं समाप्तम् । १५-७० निम्रन्येन अन्यनिम्रन्थस्यान्यतीर्थिकगृहस्थद्वारा-पादामार्जनादिसंपादन
निषेधपरकाणि तृतीयोद्देशगमसदृशानि शीर्पद्वौवारिकापर्यन्तानि पट्पञ्चाशत्सूत्राणि ।
३८७-३८९ ७१-१२६ एवम्-निम्रन्थेन निम्रन्थ्याः० । १२७-१८२ एवम्-निर्गन्ध्या निम्रन्थस्य । १८३-२३८ एवम्-निर्मन्थ्या-निर्ग्रन्थ्याः ।
३८५
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१७
विषयः
२४९ २५०
२३९ - निम्रन्थस्य सदृशान्यनिर्ग्रन्थाय स्वोपाश्रये सत्यवकाशेऽवकाशाऽदान-- निषेधः ।
३८९ २४० एवं निम्रन्ध्या सदृशान्यनिर्ग्रन्थीविषये सूत्रम् ।
- ३८९-३९० २४१-२४३ मालावहृतकोष्ठायुक्तमृत्तिकोपलिप्ताशनादेग्रहणनिषेधपरकं सूत्रत्रयम्। ३९०-३९१ २४४-२४७ सचित्तपृथिव्यप्तेजोवनस्पतिप्रतिष्ठिताशनादैर्ग्रहणनिषेधपरकं सूत्रचतुष्टयम् ।
३९१-३९२ २४८ अत्युष्णाशनादेर्मुखशूर्पादिवायुना फूत्कृत्य दीयमानस्य ग्रहणनिषेधः । ३९२-३९३
अत्युष्णाशनादेर्ग्रहणनिषेधः ।
उत्सेकिमादिपानकानामधुनाधौतादिविशेषणविशिष्टानां ग्रहणनिषेधः । ३९३-३९४ २५१ आत्मन आचार्यपदयोग्यलक्षणप्रतिपादननिषेधः ।
३९४ २५२ भिक्षोः गानहसनादिकरणनिषेधः । २५३-२५६ भेर्यादि-तालादि-वीणादि-शङ्खादिशब्दानां कर्णवर्णवाञ्छया मनसि । विचारकरणनिषेधपराणि चत्वारि सूत्राणि ।
३९६-३९८ २५९-२७० वप्रादिसूत्रादारभ्य ऐहलोकिकादिरूपाध्युपपत्तिपर्यन्तानि द्वादशो. देशकगमसदृशानि निषेधपराणि चतुर्दश सूत्राणि ।
३९८-३९९ २९१ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकसमाप्तिः। ४००
॥ इति सप्तदशोदेशकः समाप्तः ॥१७॥
॥ अथाष्टादशोदेशकः ।। १ . अनर्थ (अकारण) नावारोहणनिषेधः ।
४०१-४०२ नौकाविषये क्रयण-प्रामित्य-परिवर्तनाऽऽच्छेद्यनावारोहणनिषेधविषथाणि चतुर्दशोद्देशकगमसदृशानि चत्वारि सूत्राणि ।
४०२-४०३ नौकायाः स्थलाजलेऽवकर्षणस्य, जलास्थले उत्कर्षणस्य च निषेविषय
२-५
-
सूत्रद्वयम् ।
४०३-४०१
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१८
.
• 2022
..ccccc
४७
सू. सं. विषयः
पृ. संः नौकाजलोसिञ्चननिषेधः । जलपकमग्ननौकाया उत्प्लावन (उपर्युत्थापन) निषेधः ।
प्रतिनाविकं कृत्वा नावारोहणनिषेधः । ११ . जलप्रवाहाभिमुख-(जलप्रवाहानुसार )-गामिनीनौकारोहणनिषेधः । - १०५
योजनार्द्धयोजनवेलागामिनीनावारोहणनिषेधः । नौकाया आकर्षावण-क्षेपन-कर्पणनिषेधः ।
नौकाया अस्त्रिकादिनौकाचालकसाधनैश्चालननिषेधः । १५ -- नौकादेकभाजनादिना नौकोसिञ्चननिषेधः । १६ नौकागतजलागमच्छिद्रस्य हस्तादिना निरोधननिषेधः । १७-३२ नौगित-जलगत-पङ्कगत-स्थलगत-साधुदातृरूपपदद्वयस्य परस्पर
विपर्यासेन दातुरशनादिग्रहणनिषेधकषोडशभङ्गात्मकानि पोडश सूत्राणि __ . पोडशभङ्गप्रदर्शककोष्ठकं च ।
४०७-४०९ ३३-९० वस्त्रक्रयणनिषेधसूत्रादारभ्य वस्त्रनिश्रया वर्षावासनिवासनिषेधसूत्र -- पर्यन्तानि कोरणसूत्रवर्जितचतुर्दशोदेशकगमसदृशानि अष्टपञ्चा- .
शत्सूत्राणि । ९१ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायञ्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकसमाप्तिः ।. .
... ॥इति अष्टादशोद्देशकः समाप्तः ॥१८॥
. .॥अथ एकोनविंशतितमोद्देशकः ।। विकृतस्य-(द्राक्षासवादिप्रपाणकद्रवद्रव्यजातस्य ) क्रयणकापणक्रीतस्याहृत्य दीयमानस्य ग्रहणनिषेधः ।
४१३ २-४ एवं विकृतस्य प्रामित्यपरिवर्तनाच्छेधविषयेऽपि त्रीणि सूत्राणि । ४१४-४१५ ग्लानार्थ विकृतिदत्तित्रयादधिकग्रहणनिषेधः ।
४१५-४१७ विकृतिं गृहीत्वा ग्रामानुग्रामविहरणनिषेधः ।
४१७ ७. विकृतिगलनगालनयोः गालितविकृतेर्दीयमानस्य च ग्रहणनिपेधः । ४१७-४१८
४१०-१११,
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________________
४२२
१८
सू. सं. विषयः
पृ.सं. पूर्वादिषु चतसृषु सन्ध्यासु स्वाध्यायकरणविषेधः ।
४१८ कालिकश्रुतस्य पृच्छात्रयादधिकपृच्छाकरणनिषेधः ।
११८-४१९ दृष्टिवादस्य पृच्छासप्तकादधिकपृच्छाकरणनिषेधः । इन्द्रमहादिषु चतुषु महामहेषु स्वाध्यायकरणनिषेधः ।
४१९-४२० सुग्रीष्मिकादिषु चतसृषु महाप्रतिपत्सु स्वाध्यायकरणनिषेधः । ४२० स्वाध्याययोग्यपौरुषीचतुष्टयस्यातिक्रमणनिषेधः ।
४२०-४२१ रात्रिन्दिवे कालचतुष्टयसम्बन्धिस्वाध्यायाकरणनिषेधः ।
'४२१ अस्वाध्यायिके काले स्वाध्यायकरणनिषेधः ।
४२२ आत्मनोऽस्वाध्यायिके काले स्वाध्यायकरणनिषेधः । अधस्तनानाम्-आदिभूतानां-समवसरणानां (संमिलितसूत्रार्थरूपाणां) वाचानमन्तरेण उपरितन-(अग्रेतन)-समवसरणवाचननिषेधः । ४२२-४२३ आचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धगतनवब्रह्मचर्याध्ययनवाचनमन्तरेण उपरिमसूत्र (छेदसूत्र) वाचननिषेधः । अपात्रस्य वाचनादाननिषेधः ।
४२३-१२४ पात्रस्य वाचनाया अदाननिषेधः ।
४२४-४२५ २१ अव्यक्ताय वाचनादाननिषेधः ।
४२५ २२. व्यक्ताय वाचनाया अदाननिषेध । सदृशयोयोर्मध्ये एकस्य शिक्षणनिषेधः ।
४२५-४२६ २४
आचार्योपाध्यायाऽनध्यापितशास्त्रवाण्या अध्ययननिषेधः । अन्यतीर्थिक गृहस्थेभ्यः सूत्रार्थवाचनादान निषेधः ।
४२७ एवमन्यतीर्थिकगृहस्थेभ्यः सूत्रार्थवाचनाग्रहणनिषेधः । २७-३६ पार्श्वस्थादिसंसक्तपर्यन्तानां वाचनादानस्य, तेभ्यो वाचनाग्रहणस्य च निषेधपरकाणि दश सूत्राणि ।
४२७-४२८ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकपरिसमाप्तिः ।
॥ इति एकोनविंशतितमोद्देशकः समाप्तः ॥१९॥
४२३
· ·४२५
२६
४२७
४२८
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सू. सं.
प.सं.
.
विषयः
॥ अथ विंशतितमोद्देशकः ॥ १-६ मासिकादिपाञ्चमासिकपर्यन्तपरिहारस्थानप्रतिसेविनाम् अकपट
भावेनाऽऽलोचयतां मासिकादिपाञ्चमासिकपर्यन्तप्रायश्चित्तदानम् , कपटभावेनालोचयतामेकैकमासवृद्धया पाण्मासिंकपर्यन्तप्रायश्चित्तदानम् । पाण्मासिकप्रायश्चित्तादुपरिप्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चिते वा त एव
षण्मासाः प्रायश्चित्तत्वेन भवन्तीति प्रतिपादकानि षट् सूत्राणि । ४२९-४३१ ७-१२ एवमेव 'बहुसो' इतिपदं संयोज्य पूर्वोक्तसदृशानि षट् सूत्राणि । . ४३५ १३ एवं मासिकादारभ्य पाञ्चमासिकपर्यन्तपरिहारस्थानप्रतिसेविनामे- ''
कत्रमिश्रितसूत्रम् । एवं 'वहुसोवि' इति पदसंयोजनमाश्रित्य मिश्रितसूत्रम् । एवमेव 'साइरेग' सातिरेक-पदसंयोजनमाश्रित्य मिश्रितसूत्रम्। . . ४३६ एवम् 'वहुसोवि साइरेग' इति पदद्वयमाश्रित्य मिश्रितसूत्रम्। ४३७-४३८ 'मासिय वा साइरेगमासियं वा' इत्यादिक्रमेण पाञ्चमासिकपर्यन्त परिहारस्थानानां मध्ये एकतमपरिहारस्थानप्रतिसेविनः प्रायश्चित्तसेवन प्रकारप्रदर्शनम् ।
__ . ४३९-४४२ १८-२० एवमेव प्रायश्चित्तसेवनप्रकारप्रदर्शकाणि त्रीणि सूत्राणि । ४४२-४४५ २१-२६ पाण्मासिकपाञ्चमासिकेति एकैकन्यूनमासिकपरिहारस्थानप्रस्थापि
तानगारस्यान्तरापरिहारस्थानप्रतिसेवनालोचनायामारोपणाविधिप्रदर्शकाणि पट् सूत्राणि । एवमग्रे विंशतितमोद्देशकपरिसमाप्तिपर्यन्तं परिहारस्थानप्रस्थापितानगास्यारोपणाविधिप्रदर्शकाणि विंशतिसूत्राणि ।
॥ इति विंशतितमोद्देशकः समाप्तः ॥२०॥ இ ருவரும் பயப்பகருமுறை
इति निशीथसूत्रस्य विषयानुक्रमणिका समाप्ताः || அருருனறற்றற் றற்றை றைற முருருருகை
४४६-४४८
२७
४४९-४५८
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આમુરબ્બીશ્રીઓ
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શ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ
અમદાવાદ,
(સ્વ) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ
વીરાણી-રાજકોટ
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(સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ
ભાવસાર - અમદાવાદ,
હાગી મોઢાની અજુનિયા
* *
11 15 કામ પર નકારાના
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શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ
વિરાણુ-રાજકોટ
વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદુજી સા. જોહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતાબચન્દ્રજીસા, નાના – અનિલકુમાર જૈન (દત્તા)
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આમુરબ્બીશ્રીઓ
(સ્વ) શ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ
ભાણવડ,
(સ્વ) શેઠ રંગજીભાઈ મેહનલાલ શાહ
અમદ્દાવાદ.
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(સ્વ) શેઠશ્રી દિનેશભાઈ કાંતિલાલ શાહ
અમદાવાદ,
શ્રી વિનોદભાઈ વીરાણી.
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શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પિાચાલાલભાઇ
અમદાવાદ,
સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેક્લાલ
અમદાવાદ
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આઘમુરબ્બીશ્રીઓ
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સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનેપચંદ શાહ
ખંભાત,
. રોડ તારાચંદ્રની સાહેબે પોસ્ટર
मद्रास.
કર
માત્ર શેર તા. ચીમનીની તા. મચંદ્રજી ના નીતી ( વાર)
૧ અમીચંદભાઈ ત્યા ૨ ગીરધરભાઈ બાટવિયા
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વચ્ચે બેઠેલા મોટાભાઈ શ્રીમાનું મૂલચંદજી श्रीमान् सेठश्री
જવાહરલાલજી બરડિયા ૨ બાજુમાં બેઠેલા ભાઈ મિશ્રી લાલજી બરડિયા
___खीमराजजी सा. चोरडिया ૩ ઉમેલા સૌથી નાનાભાઈ પૂનમચંદ બરડિયા
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આમુરબ્બીશ્રીઓ
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શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ
રાજકેટ,
કેકારી હરગોવિંદ જેચંદભાઈ
રાજકોટ,
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પટેલ સાભાઈ ગોપાલદાસ મુ. સાણંદ (જી. અમદાવાદ)
શેઠશ્રી મિશ્રી લાલજી લાલચંદજી સા, લુણિયા તથા શેઠશ્રી જેવંતરાજજી લાલચંદજી સા.
(સ્વ) શ્રી ધારશીભાઈ જીવણલાલ
બારસી
સ્વ. શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા
ભાલિયા પાલી મારવાહ
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। श्रीवीतरागाय नमः। जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल-तिविरचित-चूर्णि-भाभ्याs
वचूरिसमलङ्कृतम्
श्रीनिशीथसूत्रम्
प्रथमोद्देशः प्रारभ्यते
श्रीमङ्गलाचरणम्अर्थप्रदं वीरजिनं प्रणम्य, लब्धेर्धर गौतममाप्तशक्तिम् । श्रीघासिलालेन वितन्यते यद्, भाप्यादिकं चात्र निशीथसूत्रे ॥१॥
तत्र क्रमः मूलं छायाऽथचूर्णी च, वदन्ते भाष्यभाषणम् ।
भाष्याऽवचूरिरन्ते स्यादित्थमत्र क्रमो भवेत् ॥ श्रीभगवन्महावीरभाषितागमेषु छेदसूत्राणि चत्वारि सन्ति, तत्र प्रथमं निशीथसूत्रं वर्तते । तत्र पूर्वं छेदसूत्रेति कोऽर्थः । तत्राह-छेदनं छेदः खण्डनम् , प्रस्तुते दूषितपर्यायस्य न्यूनीकरणं छेदः । यथा शेषशरीररक्षार्थ रोगादिदूषितशरीरैकदेशस्य छेदनमिव शेषपर्यायसंरक्षणार्थ दूषितपूर्वपर्यायस्य छेदार्हत्वाच्छेदः, तदर्थप्रतिपादिकानि सूत्राणि छेदसूत्राणि प्रोच्यन्ते, तेष्विदं निशीथसूत्रं प्रथमं विद्यते ।
अथ निशीथेति शब्दस्य कोऽर्थः ? तत्राह-पापं निशद्यते शात्यते यत्र इति निशीथः 'शद्ल शातने' इत्यस्मात् पृषोदरादित्वात् सिद्धम् १ । निर् निश्चयेन श्रुतं पठनमिति निशीथः २ । ' अथवा एतत्पठनमन्तरेण नितरां शुद्धाचारो नैव पालयितुं शक्यते तस्मादयं निशीथः ३ ।
अथवा-मोक्षमार्गप्रच्युतान् पुनरपि मोक्षमार्गमानीय पूर्वकृतकर्माणि तपोद्वारा निजीर्य सम्यक् प्रायश्चित्ताऽऽतापे तापयित्वा निश्चयेन शोधयति आत्मानं यः स निशीथः ४ ।।
अथवा-उन्मार्गगतान् निश्चयेन शुद्धिमार्गे स्थापयति इति निशीथः ५ । अथवा सम्यग्दनिज्ञानचारित्रतपोलक्षणं सुवर्ण प्रायश्चित्ताग्नौ संताप्य नितरां शोधयति इति निशीथः ६ ।
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निशीथसूत्रे वस्तुतस्तु निशि रानाविव यत्र अप्रकाशे गुप्तरूपेण श्रुतं स्थाप्यते पठ्यते स निशीथः । पृषोदरादित्वासिद्धम्, उपयुक्ताः सर्वा व्युत्पत्तयः पृषोदरादित्वात् सम्पद्यन्ते ७ । अथवा-अपात्रेभ्यो यद् न प्रकाश्यते अनेन इति स निशीथः ८ । अथवा निशेरते जीवा अस्मिन् मिथ्यात्वाऽविरत्यादिगाढान्धकारे इति निशीथः, 'नि-पूर्वकात्' शी स्वप्ने' इत्यस्मात् धातोः 'निशीथगोपीथावगथाः' (उणा० पा० २ सू० ९) इति थक् प्रत्यये निशीथशब्दसिद्धिः, तत् मिथ्यात्वादिजनितकर्ममलप्रक्षालकं सूत्रमपि निशीथपदेन मशकार्थी धूम इतिवद् उच्यते, आलोचनादिप्रायश्चित्तविधायके विधौ खल्वियमागमिकी संज्ञा विज्ञेया ९।
यथा-लौकिकानि विद्यामन्त्रयोगचूर्णादिप्रतिपादिकानि सूत्राणि अपरिपक्वबुद्धीनां न प्रकाश्यन्ते, तथैवेदमपि सूत्रम् अपरिपक्वबुद्धीनां पुरतो न प्रकाश्यते । के ते अपरिणतबुद्धयः ? इति तान् दर्शयति-अबहुश्रुताः, अकृतसूत्राः, रहस्यभेदकाः, सूत्रप्रत्यनीकाः, मिथ्यात्ववासितबुद्धयः, जिनवचनरहस्यानभिज्ञाः वैराग्यवासनावर्जिताः, दुर्वलचारित्राः अवसन्नाः पार्श्वस्थाः कुशीला: संसक्ताः यथान्छंदाः, इत्यादयोऽपरिणतबुद्धयः कथ्यन्ते ।
एतेभ्यः इदं सूत्रं न देयमिति, एतेषां सूत्रदाने प्रवचनस्य लघुता, घातः, उड्डाहः, तथा दुर्लभबोधित्वं च जायते । अत इदं निशीथामिधं सूत्रं योग्येभ्यो देयम् । तेषामबहुश्रुतादीनां प्रतिपक्षा बहुश्रुतादयो विज्ञेयास्तेभ्यो देयमिति भावः । कथमेवम् ? यतः 'गच्छतः स्खलनं चैव' इति न्यायात् संयममार्गे विचरतः कदाचित् प्रमादादतिचारादिसंभवः । तद्विशुद्धिः प्रायश्चित्तेन भवतीति प्रायश्चित्तं च वस्तुत्रय संभवति तथाहि-प्रतिसेवकः १ प्रतिसेवना २ प्रतिसेवितव्यं चेति ३ । तत्र प्रतिसेवकः प्रतिसेवनकर्ता, स द्विविधः, गीतार्थाऽगीतार्थभेदात् । प्रतिसेवनाशब्देनाऽत्र भावो गृह्यते, स द्विविधः कुशलाऽकुशलभेदात् । प्रतिसेवितव्य सेवनीय वस्तु, तदपि द्विविधं संयमाsसंयमभेदात् । अत्र मुनेर्या कुशलप्रतिसेवना, तस्याः नात्राधिकारः तस्याः कुशलत्वेन प्रायश्चित्ताविषयत्वात्, प्रस्तुतसूत्रस्य च दोपशुद्धयर्थं प्रायश्चित्तविधायकत्वात् , अतोऽत्राऽकुशलप्रतिसेवनाया अधिकारः । तद्विशुद्धयर्थमिदं सूत्रं प्रारभ्यते, तस्येदमादिमं सूत्रम्-'जे भिक्खू हत्थकम्म' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू हत्थकम्मं करेइ करतं वा साइज्जइ । सू० १॥ छाया-यो भिक्षुः हस्तकर्म करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे' यः कश्चित् 'भिक्ख' भिक्षुः निरवधभिक्षणशीलः । यद्वा भिनत्ति ज्ञानावरणीयाधष्टविधं कर्मेति भिक्षुः साधुः, अत्र भिक्षुशब्देन साध्वी चापि गृह्यते । तैन-साधुर्वा साध्वी वेत्यर्थः 'हत्थकम्म' हस्तकर्म हस्तः शरीरैकदेशः तेन कर्म करणं व्यापारः, तत् हस्तकर्म, उपस्थविपये हस्तादिनाऽतिक्रमाधाचरणं करोति स्वयं, कारयति परेण, कुर्वन्तं चान्यं
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चूर्णी-भाष्यावचूरी टीका० उ० १ ० १-५
अंकुशलप्रतिसेवना ३ 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स गुरुमासिकप्रायश्चित्तभाग्भवतीति प्रथमोद्देशके सर्वसूत्रेषु संयोजनीयम् ॥ सू० १॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अंगादाणं कटेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा संचालेइ संचालंतं वा साइज्जइ ।। सू० २॥
छाया-यो भिक्षुः अङ्गादानं काष्ठेन वा किलिंचेन वा अंगुलिकया वा शलाकया वा संचालयति संचालयंत वा स्वदते ॥ सू०२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू अंगादाणं' इति 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अंगादाणं' अङ्गादानम् तत्राङ्गानि अष्टौ तानि चेमानि शिरः १ उरः २ उदरम् ३ पृष्ठम् ४ बाहुद्वयम् ५-६ ऊरुद्वयम् ७-८ चेति । उपलक्षणात् उपाङ्गनामानि ग्राह्याणि, नानि चेमानि-कौँ नासिके अक्षिणी जचे हस्तपार्थाः नखाः केशाः श्मश्रु अंगुल्यः तलोपतलाः-हस्ततल-पादतल -समीपस्था भागाः, तेषाम् आदानम् उत्पत्तिकारणम् अङ्गादानम् उपस्थचिह्नम् तत् 'कटेण वा' काष्ठेन वा खदिरादिकाष्ठखण्डेन 'किलिंचेण वा' किलिञ्चेन वा वंशादिशलाकया वा । 'अंगुलियाए वा' अङ्गुलिकया- करचरणांगुलिना वा 'सिलागाए वा' शलाकया लोहादिनिर्मितशलाकया वा 'संचालेइ' संचालयति प्रेरयति, 'संचालंत वा' संचालयन्तं प्रेरयन्तम् 'साइज्जई' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तमाग्भवतोति भावः । अत्र दृष्टान्तमाह
यथा कोऽपि पुरुषः सुखसुप्तं सिंह काष्ठयष्टयादिना संचालयति तदा स सिंहः तं संचालक __ विनाशयति । एवमेव पुरुषचिह्नसंचालकस्य मुनेश्चारित्रजीवनं विनश्यतीति ।। सू० २ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू अंगादाणं संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवाहतं वा पलिमदतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३॥
छाया-यो भिक्षुः अङ्गादानं संवाहयति वा परिमर्दयति वा संवाहयन्तं वा परिमर्दयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू अंगादाणं संवाहेज्ज वा' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः मुनिः 'अंगादाणं' अङ्गादानम् पूर्वोक्तलक्षणम् 'संवाहेज्ज वा' संवाहयति वा सामान्येन मर्दयति पलिमदेज्ज' वा परिमर्दयति विशेषेण मर्दयति 'संवाहतं वा' संवाहयन्तं वा 'पलिमदंतं वा परिमर्दयन्तं वा 'साइज्जई' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवतीति ।
___ अत्र दृष्टान्तमाह-यथा सुखोपविष्टं सुप्तं वा सपै कोऽपि मर्दयति हस्तपादादिना तदा स सर्पः स्वमर्दकस्य जीवितं विनाशयति तथैव मर्दितं पुरुषचिहं मुनेश्चारित्रं ध्वंसयतीति भावः ।
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निशीथसूत्रे
सूत्रम्-जे भिक्खू अंगादाणं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवजीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा, अभंगेंतं वा मक्वंतं वा साइज्जइ॥ सू०४॥
छाया-यो भिक्षुः अगादानं तैलेन वा घृतेन वा वसया वा नवनीतेन वा अभ्ययति म्रक्षयति, अभ्यंगयन्तं वा ब्रक्षयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४ ॥
चूर्णी-जे भिक्खू तेल्लेण वा' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अंगादाणं' अङ्गादानं पूर्वोक्कलक्षणम् 'तेल्लेण वा' तैलेन वा तिलादितैलेन वा 'घएण वा घृतेन वा 'वसाए वा' वसया स्निग्धपदार्थनातेन 'णवणीएण वा' नवनीतेन 'मक्खन' इति प्रसिद्धन 'अभंगेज्ज वा' अभ्यङ्गयति मर्दयति 'मक्खेज वा' म्रक्षयति. विशेषेण मर्दयति 'अभंगतं वा' अभ्यङ्गयन्तं वा 'मक्खेंतं वा' प्रक्षयन्तं 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ।
अत्र दृष्टान्तमाह- यथा प्रज्वलिताग्नौ घृतादिना परिपिश्चिते सति असौ प्रज्वलितोऽग्निर्मूहादिकं प्रज्वलयति तथैव अङ्गादान तैलादिना मर्दकस्य चारित्रं विध्वंसयतीति भावः । सू० ४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अंगादाणं कक्केण वा लोहेण वा पउमचुण्णेण वा पहाणेण वा सिणाणेण वा चुण्णेहिं वा उब्वट्टेइ परिवट्टेइ उब्वटुंतं वा परिवटुंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५॥
छाया-यो भिक्षुः अङ्गादानं कल्केन वा लोधेण वा पद्मचूर्णेन वा स्नानेन वा स्नपनेन वा चूणैर्वा वर्णैर्वा उद्वर्तयति, परिवर्त्तयति उद्वर्तयन्त वा परिवर्तयन्तं वा स्वदते ॥ सू०५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू अंगादाणं कक्केण वा' इति । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः 'अंगादाणं' अङ्गादानम् 'कक्केण वा, कल्केन वा' कल्कोऽनेकसुगन्धिद्रव्यनिष्पन्न उद्वर्तनविशेषः, तेन, 'लोद्देण वा' लोधेण वा सुगन्धद्रव्यविशेपेण 'पउमचुण्णेण वा' पद्मचूर्णेन वा सुगन्धिकमलपुष्पचूर्णेन वा 'पहाणेण वा' स्नानेन वा सामान्यस्नानेन वा 'सिणाणेण वा' स्नपनेन वा विशेषस्नानेन वा मुगन्धाssमोदभरितजलस्नानेनेत्यर्थः । 'चुण्णेहि वा' चूर्णैर्वा यवादिपिष्टैः 'वण्णेहिं वा' वर्गा अवीरादिचूर्णविशेषः, 'उबट्टेइ' उद्वर्त्तयति सामान्यतो मर्दयति 'परिवइ' परिवर्तयति विशेषतो मर्द यति, 'उच्चतं वा' उद्वर्तयन्तं वा 'परिवदृतं वा' परिवर्तयन्तं वा 'साइज्जई' स्वदते अनुमोदने स प्रायश्चित्ताहों भवतीति । सू० ५ ॥
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चूणी-भाष्यावचूरी टीका० उ० १ सू० ६-११
अंकुशलप्रतिसेवना ५ अत्र दृष्टान्तमाह-यथा खड्गादिशस्त्रस्य मर्दनेन हस्तादेश्छेदो भवति तथैव गुप्तेन्द्रिय मर्दनेन संयमस्य छेदो भवतीति ॥ सू० ५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अंगादाणं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलंतं वा पधावंतं वा साइज्जइ ॥६॥
छाया-यो भिक्षुः अङ्गादानं शीतोदकविकृतेन वा उष्णोदकविकृतेन वा उत्क्षालयति वा प्रधावति वा, उत्क्षालयन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू सीओदगक्यिडेण वा' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अंगादाणं' अङ्गादानम् 'सीओदगवियडेण वा' शीतोदक विकृतेन वा विकृतम् विकारप्राप्तम् अचित्तं सत् शीतोदकं शीतोदकविकृत्तम् अचित्तशीतजलं तेन, 'उसिणोदगवियडेण वा' उष्णोदकविकृतेन वा विकृतम् अग्निशस्त्रेणाऽचित्तीकृतं यत् उष्णोदकम् उष्णजलम् उष्णोदकविकृतं तेन, 'उच्छोलेज्ज वा' उत्क्षालयति वा सामान्येन तस्य क्षालनं करोति 'पधोवेज्ज वा प्रधावति वा प्रकर्षेण धावति क्षालयति 'उच्छोलतं वा' उत्क्षालयन्तं वा 'पधोवेतं वा' प्रधावन्तं वा प्रकर्षण तस्य क्षालनं कुर्वन्तं वा 'साइज्जई' स्वदते अनुमोदते स दोषभाग भवतीति ।
अत्र दृष्टान्तमाह-यथा एकस्य कस्यचित्पुरुषस्य रोगवशात् नेत्रं नष्टम् तदा स वैधेन चिकित्सां कारयति । स वैद्यः औषधिमिश्रितजलेन नेत्रं घृष्ट्वा धृष्ट्वा वारं वारं प्रक्षालयति एवं करणेन नेत्रपीडा दुरघिसह्या समुत्पन्ना, तया स मरणमासादितवान् । एवमेव मुनेरङ्गादानस्य प्रक्षालनेन मोहोदयात् चारित्रजीवितं विनश्यतीति । सू०६॥ सूत्रम्-जे भिक्खू अंगादाण णिच्छलेइ णिच्छलतं वा साइज्जइ ॥७॥ छाया यो भिक्षुः अङ्गादानं निश्छादयति निश्छादयन्तं वा स्वदते ॥सू०७॥
चूर्णी--'जे भिक्खू अंगादाणं णिच्छलेइ' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अंगादाणं' अङ्गादानम् 'णिच्छलेइ' निश्छादयति निरावृणोति पुरुषचिह्नत्वचमपाकरोति 'निश्छालेत' निश्छादयन्तम् ‘साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स दोषभाग्भवति ।
अत्र दृष्टान्तमाह-यथा कोऽपि पुरुषः सुखसुप्ताजगरसर्पस्य मुखं स्फाटयति समसौ सर्पः गिलति तथा एवं कर्तुमुनेश्चारित्रं नश्यति ॥ सू० ७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अंगादाणं जिग्घइ जिग्धंतं वा साइज्जइ ॥सू०८॥ छाया-यो भिक्षुः अङ्गादानं जिघ्रति जिघ्रन्तं वा स्वदते ॥ सू०८ ॥
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निशीथसूत्रे
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चूणीं--'जे भिक्खू अङ्गादाणं जिग्घइ' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अंगादाण' अगादानम् जिग्घइ जिब्रति नासिकया तद्गन्धं गृह्णाति, यद्वा हस्तेन मर्दयित्वा हस्ताऽऽगतं गन्धं जिप्रति 'जिग्धंत' जिवन्तं वा 'साइज्जई' स्वदते तनुमोदते स चारित्रदोपभाग्भवति । अत्र दृष्टान्तमाद
यथा कोऽपि घातकगन्धपदार्थ नासिकया जिप्रति तस्य तद्गन्धेन प्राणवियोजनं भवति । यद्वा यथा कश्चित् राजकुमारः वैयेन प्रतिषिद्धोऽपि आनं जिध्रति आनं जिघ्रतस्तस्य 'आम्र' नामको व्याधिः समुत्पन्नः गन्धप्रियेण कुमारेण गन्धं जिघ्रता स्वात्मा जीविताद् भ्रंशितः। तथैवाऽङ्गादानं जिवन्मुनिर्मोहोदयेन स्वात्मानं सयमजीविताद् भ्रंशयति । सू० ८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अंगादाणं अण्णयसि अचित्तंसि सोयंसि अणुप्पवेसित्ता सुक्कपाग्गले णिग्याएइ णिग्घायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९॥
छाया-- यो भिक्षुः अङ्गादानम् अन्यतरस्मिन् अचित्ते स्नोतसि अनुप्रवेश्य शुक्रपुद्गलान् निर्घातयति निर्घातयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ९॥
चूर्णी -'जे भिक्खू अंगादाणं अण्णयरंसि' इति । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः 'अंगादाणं' अङ्गादानम् 'अण्णयरंसि' अन्यतरस्मिन् बहूनां मध्ये एकस्मिन् कस्मिश्चित् 'अचित्तंसि' अचित्ते 'सोयसि' स्रोतसि-वळ्यादिच्छिद्रे 'अणुप्पवेसित्ता' अनुप्रवेश्य 'मुक्कपोग्गले' शुक्रपुद्गलान् 'णिग्याएइ' निर्धातयति-विनाशयति साधुनिःसारयति, साध्वी च स्वयोनौ कदलीफलादि पवेश्य रजःपुद्गलान् निस्मारयति 'णिग्यायंतं वा निर्घायन्तं वा 'साइज्जई' स्वदते स सा च दोपभाग् भवति आत्मविराधनावान् भवति साध्वी दोपभागिनी आत्मविराधनावती च भवति शुक्ररजाक्षयेण त्रियते इत्यर्थः एवं सर्वत्र साध्वीविषयेऽपि संयोज्यम् ।। सू० ९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तं गंध जिग्घइ, जिग्त वा साइज्जइ ॥१०॥
सूत्रम्-जे मिक्खू सचित्तपइट्ठियं गंध जिग्घइ जिग्छतं वा साइज्जइ ॥ सू० ११॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तं गन्धं जिघ्रति जिघ्रन्तं वा स्वदते ॥ सू० १० ॥ यो मिक्षुः सचित्तप्रतिष्ठित गन्धं जिति जिघन्तं वा स्वदते ।। सू० ११ ॥
चूर्णी-'जे भिक्ख सचित्तं गंध' इति । स्पष्टम् । नवरम्-सचित्तं गन्धं पुष्पफलाद्यातिम् । उपरक्षणादचित्तं गन्धं चन्दनाटिकमपि जिघ्रति, सचित्तप्रतिष्ठितमिति सचित्तजलघटायुपरि स्थापितं सचित्तमचित्तं वा गन्धं जिनति, स प्रायश्चित्तभाग भवति ॥ सू० १०-११ ॥
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चूर्णी भाष्यावचूरी टीका० उ० १ सू० १२-१४
अकुशलप्रतिसेवना ७
सूत्रम् — जे भिक्खू पदमग्गं वा संकमं वा अवलंबणं वा अण्णउत्थि - एण वा गारत्थिएण वा कारेइ कारंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १२ ॥
छाया -यो भिक्षुः पदमार्ग वा संक्रमं वा अवलम्बनं वा अन्यतीर्थिकेन वा गृहस्थेन वा कारयति कारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १२ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पदमग्गं वा' पदमार्ग वा पदस्थानमार्गं वा 'संकर्म वा' संक्रमं वा - जलपङ्काद्युल्लङ्घनार्थं पाषाणादिस्थापनम् 'अवलम्बनं वा' - यदवलम्ब्य ऊर्ध्वमारुत्यते, तद्वस्तु सोपानादिकम् 'अण्णउत्थि एण वा' अन्यतीर्थिकेन वा शाक्यादिना 'गारत्थि एणवा' गृहस्थेन वा 'कारेइ' कारयति 'कारंतं वा' कारयन्तं वा 'साइज्जइ ' स्वदते अनुमोदते स दोषभाग्भवतीति ॥ सू० १२ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू दगवीणियं वा अण्णउत्थिए हिं वा गारत्थि एहिं वा कारे करें वा साइज्जइ ॥ सू० १३ ॥
छाया -यो भिक्षुः उदकवीणिकाम्-अन्यतीर्थिकैर्वा गृहस्थैर्वा कारयति कारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १३ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू दगवीणियं इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः निरवद्य भिक्षणशीलः श्रमणः । 'दगवीणियं' उदकवीणिकाम्, तत्र - उदकस्य - जलस्य वीणिका वाहः प्रणाली, जलनालिकेति लोकप्रसिद्धा वर्षादिजलनिर्गमनाय तामुदकवीणिकाम् । 'अन्न उत्थि - एहिं वा' अन्ययूथिकैः वा अथवा 'गारत्थि एहिं वा' गृहस्थैः श्रावकैर्वा 'कारे ' कारयति । अथवा 'कारेंतं वा साइज्जइ' कारयन्तं जनप्रवाहं स्वदते - अनुमोदते । अर्थात् - यः साधुः जल प्रणाली स्वयमेव करोति अथवा श्रावकादिद्वारा कारयति अथवा - जलस्य निःसारणार्थे मार्ग कुर्वन्तं अन्यमनुमोदते यथा सम्यक्कृतं भवतेत्यादि स साधुः प्रायश्चित्तभाग् भवति, जलप्रवाहकरणे एकेन्द्रियादि षड्जीवानामुपमर्दस्याऽवश्यं संभवात् इति ॥ सू० १३ ॥
भाष्यम् - नालिया दुविहा बुत्ता, संबद्धा च तयरा । संबद्धा तिवा ज्जा, वक्खमाणप भेयओ ॥१॥
छाया -- नालिकाद्विविधा प्रोक्ता संबद्धा च तथेतरा । संबद्धा त्रिविधा ज्ञेया वक्ष्यमाणप्रभेदतः ||१||
अवचूरी - 'जलनालिया' इति । 'नालिया' नालिका जटनालिका, यस्य जलप्रवाहस्य करणेऽन्यद्वारा वा करणे, तदनुमोदने साधूनां प्रायश्चित्त कथितम् । जलप्रवाहो द्विविधः
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निशीथ सूत्रे द्विप्रकारको भवति, एको वसति संवद्धो द्वितीयस्तदितरः, वसत्यसंबद्धः । पुनश्च वसति संबद्धो जलप्रवाहो वक्ष्यमाणप्रभेदतस्त्रिविधः त्रिप्रकारको भवति । अर्थात्-वर्षासमये वा-उदकवीणिका क्रियते सा द्विविधा वमतिसंबद्धा तदितरा च । तत्र वसतिसंवद्धा त्रिविधा भवति, उपरि संबद्धावसतिमभ्यसंवद्धा नीचैः संवद्वा च, तत्र याऽसौ वसतिसंवद्धा-वाह्या सा नियमतः परिगलनरूपा। याऽसावन्त संबद्धाः-सा भूमौ निपतति, याऽसौ वसतिसंबद्धा-उपरिसम्बद्धा सा हर्म्यतले छिद्रादिद्वारा वर्षासंबन्धिजलमुपाश्रये प्रविशति ॥ सू० १३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सिक्कगं वा सिक्कणंतगं वा अण्ण उत्थिकेण वा गारथिएण वा कारेइ करत वा साइज्जइ ॥ सू०१४॥
छाया-यो भिक्षुः शिषकं वा शिक्कांतकं वा अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन घा कारयति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४ ॥
चूर्णी-जे भिक्खू सिक्कगं वा' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः निरवद्यमिक्षणशीलः, 'सिक्कगं वा सिक्कणंतग वा' शिक्कं वा शिक्कांतकं वा, तत्र शिक्कं “सीक" इति लोकप्रसिद्धम् । अथवा-यादृशो हि परिव्राजकस्य भवति भिक्षान्नस्थापनाय मूषक-मार्जारादिभ्यो भिक्षान्नस्य रक्षणाय संकेतितपात्रविशेषः । तथा-शिक्कान्तरं शिक्कस्य पिधानं तदाच्छादकं वा, 'अन्न उत्थिएण वा गारथिएण वा' अन्ययूथिकेनाऽन्यतीर्थिकेन शाक्यभिक्षुकादिना गृहस्थेन केनचित् श्रावकादिना वा 'करेइ' कारयति-स्वयं करोति, अथवा अन्यद्वारा कारयति, 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते-अनुमोदनं करोति, स साधुः प्रायश्चित्तस्य मागी भवतीति ।। सू० १४ ॥
अत्राह भाष्यकारभाष्यम्-सिक्कगं दुविहं वृत्तं तसथावरनिम्मियं ।
पढमं अंडजाजायं वीयं य विविहं मयं ॥॥ छाया-शिक्कक द्विविधं प्रोक्तं त्रसस्थावरनिर्मितम् ।
प्रथममण्डजाज्जातं द्वितीयं च विविधं मतम् ।। ।। अवचूरिः-'सिक्कगं दुविह' इत्यादि । साधुभिरनिप्पाचं शिक्ककं द्विविधं द्विप्रकारक भवति । त्रसस्थावरनिर्मितम्-त्रसकायजीवदेहेन संपादितम्, तथा-स्थावरकायजीवदेहेन निर्मित संपादितम् । तत्र द्विविधशिक्ककमध्ये प्रथमम्-अंडजात्-अंडज-मयूर-हंसादिजीवपक्षासंपादितम् । अंडजदेहात्-वालयदेहात् पट्टकोशिकादिजीवविओपात् स्नायुतो वा जायमानम् । द्वितीय स्थावरजीवदेहनिर्मितन्तु विविधम् अनेकप्रकारकं भवति । तथाहि-कार्पास-नारिकेल-मुख्न-दर्भ
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चूर्णी-भाष्यावचूरी टीका० उ० १ सू० १४- १७
अकुशलप्रतिसेवना ९
स्थूलवंशादिविविधवनस्पतिमिर्मितम् । एतेषामन्यतमेन यो भिक्षुः स्वयं शिक्ककं करोति, अथवा - शाक्यभिक्षुकादिभिरन्यतीर्थिकेन गृहस्थश्रावकादिना या कारयति, अथवा कुर्वन्तं तमनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नुवन् प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १४ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू सोत्तियं वा रज्जुयं वा चिलमिलिं वा अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा कारेइ करेंतें वा साइज्जइ ॥ सू० १५ ॥
छाया- - यो भिक्षुः सौत्रिकां वा रज्जुकां वा चिलमिलि वा अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा कारयति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १५ ॥
।
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमण: 'सोत्तियं वा' सौत्रिकां वा - सूत्रभवां वा 'रज्जुयं वा' रज्जुकीं वा रज्जुः 'डोरी' लोकप्रसिद्धा तया शणकादिरज्जुभिर्वा निर्मिता ताम् 'चिलिमिलिं वा' चिलिमिलिकां वा तत्र चिलमिलिका - आहारकरणाय - शयनाय वा कल्पिता वस्त्रादिमयीजवनिका 'पडदा' इति लोकप्रसिद्धा ताम् 'अन्न उत्थिएण वा' अन्ययूथिकेन अन्यतीर्थिकेन वा 'गारत्थिएण वा' गृहस्थेन कलत्रादिपरिवारपरिवृतश्राचकेण वा 'कारे ' कारयति - स्वयं निर्माति अन्यद्वारेण वा निर्मापयति । 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते - अनुमोदते, कुर्वतोऽनुमोदनां करोति स श्रमणो लभते प्रायश्चित्तम् ।
भाष्यम् - सुत्त रज्जुनक्केहिं च दंडकडगेहिं तहा |
चिलिमिली खु पंचहा भिक्खुहिं करणिज्जा नो ॥ ॥
छाया - सूत्ररज्जुवल्कलैश्च दण्डः कटकैस्तथा ।
चिलमिली खलु पंचधा भिक्षुभिः क्रियमाणा नो ॥ ॥
अवचूरि : - 'मुत्तरज्जु' इत्यादि । चिलमिली शयनाहारादिकरणाय निर्मिता गृहप्रतिरूपिका जवनिका, एतादृशी चिलमिली पंचधा - पंचभिर्भेदैर्विभिन्नाः । सा साधुभिर्न करणीया तत्र पंचप्रकारान् भेदान् दर्शयति- 'सुत्ते ' इत्यादि । सूत्रमयी चिलमिली प्रथमा १, तत्र सूत्रेण - कार्पासिकेन- तदन्येन वा मेषादिकेशनिर्मितेन सूत्रेण वा या कृता सा सूत्रमयी चिलमिली १ । रज्जुमयी - रज्जुनिर्मिता "दोरी" ति प्रसिद्धा द्वितीया २ । 'वक्के' ति - वल्कलमयी, वल्कलं वृक्षत्वक् तया निर्मिता तृतीया ३, वंशो दंडादिः कटकमयीजवनिका ताभ्यां वंशकटकादिभ्यां चतुर्थी पंचमी च, एषा पञ्चप्रकारा चिलमिली साधुभिर्न कार्या ॥ सू० १५ ॥
२
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निशीथसूत्रे सूत्रम्-जे भिक्खू सूचीए उत्तरकरणं वा अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ।। सू० १६॥
छाया-यो भिक्षुः सूच्या उत्तरकरणम् अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा करोति फुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १६ ।।
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिभिक्षुः 'सूचीए उत्तरकरण? सूच्या उत्तरकरणम्, तत्र 'सूची सूई' इति प्रसिद्धा, तस्या उत्तरकरणं तीक्ष्णतादिसंपादनम् । 'अन्नउत्थिएण वा' अन्ययथिकेन तीर्थान्तरिकेण 'गारथिएण वा' गृहस्थेन श्रावकादिना वा करोति 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते । यो हि भिक्षुः सूच्योत्तरकरणमन्यतीर्थिकेन करोति अथवा कुर्वन्तमनुमोदते, स साधुः माज्ञाभंगादिकान् दोषान् प्राप्नोति ॥ स० १६ ॥
अत्राह भाप्यकार:-- भाष्यम्-विलवड्ढकरणं लण्हस्स करणं तदा ।
पज्जलणं उजुकरणं उत्तरकरणं वुहा ॥ छाया-बिलवर्धनकरणं लक्ष्णस्य करणं तथा ।
प्रज्वलनम् ऋजुकरणमुत्तरकरणं वुधाः ॥ अवचूरिः--'विलवड्ढकरणं' इत्यादि । सूच्या-उत्तरकरणम् तत्र किमिदमुत्तरकरणं तत्राह भाष्यकारः विलवर्धनकरणमित्यादि । विलवर्धनकरणं सूच्या यत्-विलं छिद्रं तस्य चर्द्धनं वृद्धिः तस्य करणं संपादनम् , तथा-श्लदणस्य-मूच्छितस्य कार्ये मन्दतामुपगतस्य तीक्ष्णीकरणम्-शिला घर्पणादि । तथा पज्जलणं प्रज्वलनम्-मन्दलौहस्याऽग्नौ संताप्य सन्ताड्य जले प्रक्षिप्योज्वलीकरणम् । तथा-ऋजुकरणम्-चक्रस्य-कुटिलस्य सरलता सपादनम् । एतत्सर्वमुत्तरकरणशब्देन प्रतिपादितम् । मून्याः उत्तरकरणे यस्मादग्निकायविराधनद्वारा पट्कायविराधना आज्ञाभंगादिका दोषा भवन्ति । तस्मारमून्या उत्तरकरणं न कुर्यान्नवा-कुर्वन्तमनुमोदयेत् , अन्यथा प्रायश्चित्त, भाग् भवतीति ॥ १६॥
मूत्रम्-जे भिक्खु पिप्पलगस्म उत्तरकरण अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १७॥
छाया- यो भिक्षुः पिप्पलकस्य उद्धरकरणमन्यवृथिकेन चा गृहस्थेन वा करोति पुर्वन्तं वा स्वदने ।। नृ० १७ ॥
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चूर्णी-भाष्यावचूरी टीका० उ० १ सू० १८-२२
अकुशलप्रतिसेवना १९ चूर्णी-'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः साधुः 'पिप्पलगस्स' पिप्पलकस्य- कतरिकायाः 'कैची' तिलोकप्रसिद्धस्य । 'उत्तरकरणं' उत्तरकरणम् पिप्पलकस्य तीक्ष्णादिसंपादनम् अपरभागस्य लोहकारगृहं गत्वा ऋजुतादिसंपादनम् । तथा--षोडशसूत्रोक्तं सर्वमिहोत्तरकरणशब्देन ज्ञातव्यमिति संक्षेपः ॥ सू० १७ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू नहच्छेयगस्स उत्तरकरणं अन्नउत्थिएण वा-गारथिएण वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १८॥
छाया-यो भिक्षुः नखच्छेदकस्य उत्तरकरणम् अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा करोति, कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १८ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'नहच्छेयगस्स' नख 'छेदकस्य, नखं पादर्ज, हस्तजं वा छिनत्ति येन स नखच्छेदकः 'नहरनी' ति लोकप्रसिद्धः तस्य नखच्छेदकस्य--उद्धरकरणं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते, पूर्वसूत्रवत् दोषभाग्भवतीति ज्ञातव्यम् ॥ सू० १८ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कण्णसोहणगस्स उत्तरकरणं अन्न उत्थिएण वा गारथिएण वा करेइ, करेंतं वा साइज्जइ ॥ १९॥
, छाया--यो भिक्षुः कर्णशोधनकस्य उत्तरकरणमन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १९ ॥
__ चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'कण्णसोहणगस्स' कर्णशोधनकस्य, येन साधनविशेषेण कर्णयोरन्तर्वर्तिमलमपनीयते-तत्कर्णशोधनकम्, एतादृशस्य कर्णशोधनकस्य । उत्तरकरणं नाम--केनचित् शस्त्रविशेषेण तीक्ष्णीकरणं, त्रुटितस्य लोहकारगृहे संघापनादिकरणम् । एतादृशमुत्तरकरण पूर्ववत् ज्ञेयम् ॥ सू० १९ ॥ सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णट्ठयाए सूई जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥२०॥
छाया--यो भिक्षुरनथतया सूची याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० २०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अण्णहयाए' अनर्थतया प्रयोजन विना, अन्यतीर्थिकेभ्यः श्रावकेभ्यो वा 'सूई जायई' सूची याचते. कारणमन्तरेणैव सूचीयाचनां कुरुते । अथवा -'जायंतं वा साइज्जइ याचमानमन्यं स्वदते अनुमोदते । यो भिक्षः कारणमन्तरेणैव श्रावकादिभ्यः सूची स्वयं याचते-प्रार्थयति. सदोषभागू भवतीति ॥सू०२०॥
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निशीथसत्रे अन्यसंयतार्थ याचकं याचमानं वाऽनुमोदयतो भिक्षुकस्य के दोषा भवन्ति तत्राह भाग्यकार:-'अकारण' इत्यादि । भाष्यम्-अकारणं जायमाणे भिक्खू सूई च पोसगो।
आणाणवटामिच्छत्तं तहेव य विराहणं ॥ छाया-अकारणं याचमानो भिक्षः सूची च पोपकः ।
आज्ञानवस्थामिन्यात्वं तथैव च विराधनम् ॥ अवचूरी-'अकारणं' इति । भिक्षुर्निरवभिक्षवृत्तिमान् श्रमणः सूच्याः याचनां कुर्वन् सूची याचमानस्य पोपकोऽनुमोदको वा साधुः आज्ञाभंगदोषान् प्राप्नोति । न खल्वेतादृशी तीर्थकरस्याज्ञा, यत्--साधुभिः अन्याथ सूच्याः याचनां करोतु । ततश्च तथाकुर्वन् श्रमणस्तीर्थकराज्ञाभंगं प्राप्नोति, तथाऽनवस्थादोपोऽपि प्रसज्जते तथा कर्तुः एवं मिथ्यात्वदोषं चापि प्राप्नोति तथैव विराधनम् आत्मविराधनां--संयमविराधनां-भाषासमितिविराधनां च प्राप्नोति ॥ सू० २० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अणट्ठयाए पिप्पलगं जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २१॥
छाया-यो भिक्षुः अनर्थतया पिप्पलकं याचते याचमान वा स्वदते ॥ २० २१ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अणहयाए' अनर्थतयानिष्प्रयोजनम्, कारणं विनेत्यर्थः । 'पिप्पलगं' पिप्पलकम्-'कैची' ति लोकप्रसिद्धम् 'जायई' याचतेअन्यतीथिकादिभ्यः । 'जायंतं वा साइज्जई' याचमानं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति । सू० २१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अणट्ठयाए कण्हसोहणं जायइ, जायंत वा साइज्जइ ॥ सू० २२॥
छाया-यो भिक्षुरनर्थनया कर्णशोधनकं याचते, योचमानं या स्वदते ॥ सू० २२ ॥
चूर्णी-'जे मिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'अणट्टयाए' अनर्थतया, तत्रार्थः प्रयोजनम-न-अर्थः इत्यनर्थः प्रयोजनाभावः । तमुद्दिश्य-कण्णसोहण' कर्णशोधनकम्, कर्णमलमपहतु, साधनविशेषलक्षणम् । 'जायड' याचते, अन्यतीर्थिकम्यो गृहस्थेभ्यो वा । जायंत वा साइज्जई' याचमानं वा स्वदते -अनुमोदते स प्रायश्चित्तमाम् भवति ॥ सू० २२ ॥
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चूर्णी-भाष्यावचूरी टीका० उ० १ सू० २३-२८ - अंकुंशलप्रतिसेवना १३
सूत्रम्-जे भिक्खू अणट्ठयाए णहच्छेयणं जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २३ ॥
छाया-यो भिक्षु अनर्थतया नखच्छेदन कं याचते, याचमानं वा स्वदते ॥ सू० २३ ।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः-श्रमणः अणट्टयाए' अनर्थतया प्रयोजनं विनैव 'णहच्लेयणगं' नखच्छेदनकम् नखच्छेदनिकाम् - "नहरनी" ति लोकप्रसिद्धाम् 'जायई' याचते अत्यतीर्थिकेभ्यः श्रावकेभ्यो वा 'जायंत वा साइज्जई' याचमानमन्यं स्वदतेअनुमोदते स आज्ञाभंगानवस्थात्मविराधनासंयमविराधनादिदोषैः प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० २३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अविहीए सूई जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥२४॥ छाया यो भिक्षुः अविधिना सूची याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० २४ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अविहिए' अविधिना 'सूई जायई' सूची याचते, तत्र विधि:--स्वसमयप्रसिद्धो नियमः तं विना । अर्थात् मह्यं कार्यमुपस्थितं सीवनस्याऽतः सूची मे देहि, कार्यं कृत्वा पुनरावर्तयिष्यामि-इति कथनमन्तरेणैव सूच्यायाचनम् अविधिना याचितं भवति । 'जायंतं वा साइज्जई' याचमानं वा स्वदते । अर्थात्यः श्रमणः विधिमन्तरेणैव याचनां करोति-यश्च याचमानं तमनुमोदते, सोऽपि प्रायश्चित्तभाग भवतीति ॥ २४ ॥ भाष्यम्-काहं वत्थस्स संहाणं तिकिच्चा जे उजायइ ।
करेइ अन्न संहाणं एसोऽविही उदाहिओ ॥ छाया-करिष्ये वस्त्रस्य संधानमिति कृत्वा यस्तु याचते ।
करोत्यन्यस्य संधानमेषोऽविधिरुदाहृतः ॥ अवचूरिः-'काहं इत्यादि । कोऽपि साधुः कस्यचित् श्रावकादेर्गृहं गतवान् तत्र गत्वा सूची याचमानो वदति-भो देवानुप्रिय ! श्रावकः । अहं वस्त्रस्य प्रावरणस्य संधानं करिष्ये इति कृत्वा-कथयित्वा सूची याचते । किंतु तया प्रावरणार्थ याच्यमानया सूच्या चोलपट्टादिकस्य संधानं करोति । एष अविधिरुदाहृतः कथितः । अनेन विधिना यो याचते याचमान वा स्वदते अनुमोदते, स भिक्षुर्दोषभागिति । एवं पिप्पलकादिसूत्रेष्वपि बोद्धयम् ।। सू० २४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अविहीए पिप्पलगं जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २५॥
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تتتتتت تتتتة :: :ته
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تیت تیت
تست تست نہ
کی
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चूर्णी-भाष्यावचूरी, टीका उ० १ सू० २९-३४
अकुशलप्रतिसेवना १५ सूत्रम्--जे भिक्खू अप्पणो एगस्स अट्ठाए पिप्पलगं जाइत्ता अण्णमण्णस्स अनुप्पएइ अनुप्पयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २९॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मन एकस्यार्थाय पिप्पलकं याचित्वा अन्योऽन्यस्यानुप्रददाति प्रददतं वा स्वदते ॥ सू० २९ ॥
चूर्णी-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः श्रमणः 'अप्पणो एगस्स अट्ठाए' आत्मनः स्वस्यैकस्यार्थाय-प्रयोजनाय । 'पिप्पलगं जाइत्ता' पिप्पलकं-कतरिका याचित्वा 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अणुप्पएइ' अनुप्रददाति, 'अनुप्पयंतं वा साइज्जई' अनुप्रददतं वा स्वदतेऽनुमोदते इति पूर्ववत् ।। सू० २९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू एगस्स अट्ठाए नहच्छेयणगं जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पएइ अणुप्पयंतं वा साइज्जइ ।। सू० ३०॥
छाया-यो भिक्षुरात्मन एकस्यार्थाय नखच्छेदनकं याचित्वा अन्योऽन्यस्याऽनुप्रददाति अनुप्रददतं वा स्वदते ।। सू० ३० ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः 'अप्पणो एगस्स अट्ठाय' आत्मनः स्वस्यैकस्याऽर्थाय, 'नहच्छेयणगं' नखच्छेदनकम् नखकर्तनसाधनम्, 'जाइत्ता' याचित्वा 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य-अन्यस्मै, 'अणुप्पएई' अनुप्रददाति 'अणुप्पयंत वा साइज्जइ' अनुप्रददतं वा स्वदतेऽनुमोदते इति, स प्रायश्चित्तभागिति पूर्ववत् ॥ सू० ३० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणा एगस्स अट्ठाए कण्णसोहणगं जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पएइ अणुप्पयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३१॥
___ छाया-यो भिक्षुरात्मन एकस्यार्थाय कर्णशोधनकं याचित्वा अन्योऽन्यस्याऽनुप्रददाति, अनुप्रदतं वा स्वदते ॥ सू० ३१ ॥
ची--'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः । 'अप्पणो एगस्स अट्ठाए' आत्मनः स्वस्य केवलमर्थाय-प्रयोजनसिद्धये । 'कण्णसोहणगं जाइत्ता' कर्णशोधनक याचित्वा समानीय तत् 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य-परस्परम् 'अणुप्पएई' अनुप्रददाति, 'अणुप्पयंत वा साइज्जइ' अनुप्रददतं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाक् इति पूर्ववत् ।। सू० ३१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पाडिहारियं सूई जाइत्ता वत्थं सीविस्सामित्ति पायं सिबइ सिव्वंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३२॥
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निशीथसूत्रे
छाया--यो भिक्षुः प्रातिहारिकी सूची याचित्वा वस्त्रं सीविष्यामि इति पात्रं सीव्यति सीव्यन्तं वा स्वदते ॥ ३२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि 'जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः 'पाडिहारियं' प्रातिहारिकीम्, 'सई' सूची-कार्य कृत्वा पुनः परावर्तयिष्यामीति कथयित्वा नयति-तादृशसूचीग्रहणं प्रातिहारिकसूचीग्रहणम् । तादृशी सूची 'जाइत्ता' याचित्वा 'वत्थं सीविस्सामित्ति' वस्त्रं सीविष्यामीति अनया नीयमानया सुच्याऽहं वस्त्रस्य संधानं करिष्यामीति कथयित्वा आनीतया तया 'पायं सिब्बइ' पात्रं सीव्यति, यदि कथिताद्वस्तुनोऽन्यद्वस्तु सीव्यति, 'सिव्वंतं वा साइज्जई' सीव्यन्तं वा सदधन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स भाषासमित्यास्खलितः प्रायश्चित्तभागिति ।। सू० ३२ ।।
सूत्रम्--जे भिक्खू पाडिहारियं पिप्पलगं जाइत्ता वत्थं छिंदिस्सामि त्ति पायं छिंदइ, छिदंतं वा साइज्जइ ।। सू० ३३॥ _ छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिकं पिप्पलकं याचित्वा वस्त्रं छेत्स्यामीति पात्र छिनत्ति छिन्दन्तं वा स्वदते ।। सू० ३३ ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः श्रमणः 'पाडिहारियं प्रातिहारिक-कार्यानन्तरं परावर्तनीयम् 'पिप्पलगं' पिप्पलकम्-लोहमयशस्त्रविशेष कतरिकादिकं 'जाइत्ता' याचित्वा, 'वत्थं छिदिस्सामि' वस्त्रं छेत्स्यामि इति कृत्वा, 'पायं छिंदई' पात्रं छिनत्ति, छेदयति वा, 'छिदंतं वा साइज्जई' छिन्दन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते इति पूर्ववत् ।। सू० ३३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पाडिहारियं नहच्छेयणगं जाइत्ता नहं छिंदिस्सामिति सल्लुद्धरणं करेइ, करेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३४॥
छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिक नखच्छेदनकं याचित्वा नखं छेत्स्यामि इति शल्योद्धरणं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सु. ३४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः 'पाडिहारिय' प्रातिहारिक पुनः परावर्तयिष्यामीति कथयित्वा 'नहच्छेयणगं' नखच्छेदनक-नखकर्तनसाधनम् । 'जाइत्ता' याचित्वा 'नहं छिदिस्यामिति' नखं छेत्स्यामि इति कृत्वा आनीतवान् । किन्तु तेन 'सल्लुद्धरणं करेइ' शल्योद्धरणं करोति, कारयति 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते-अनुमोदते इति पूर्ववत्प्रायश्चित्तभाक् सः ॥ सू० ३४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पाडिहारियं कण्णसोहणगंजाइत्ता कण्णमलंणीहरिस्सामिति दंतमलं वा नखमलं वाणीहरेइ णीहरंतं वा साइज्जइ ॥सू०३५||
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ० १ सू० ३६-४० अविधिसूची प्रत्यर्पण - पात्र परिघट्टनादिनिषेधः १७
छाया - यो भिक्षुः प्रातिहारिकं कर्णशोधनकं याचित्वा, कर्णमलं निर्हरिष्यामीति दन्तमलं वा नखमलं वा निर्हरति, निर्हरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३५ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः 'पाडिहारियं' प्रातिहारिकम् ‘कण्णसोहणगं' कर्णशोधनकम् ' जाइत्ता' याचित्वा 'कण्णमलं णीहरिस्सामित्ति' कर्णमलं निर्हरिष्यामीति कथयित्वाऽऽनीतेन तेन दन्तमलं वा स्वेच्छया नखमलं वा 'णीहरेइ' निर्हरति, निहारयति, 'णीहरंतं वा साइज्जइ' निर्हरन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ॥ सू० ३५ ॥
अत्राह भाष्यकारः-
भाष्यम् -सीविस्सं वत्थमेणं, वत्थं पायं च सव्वइ । सिविसामि च पायं वा, वत्थगं खलु सिन्वइ ॥
गिही सयं वा दहूणं, सुणित्ता विमणो हवे । खिसणं वा परस्सग्गे, कुज्जा अणायरं तहा || छाया - सीविष्यामि वस्त्रमेतेन वस्त्रं पात्रं च सीव्यति । सिविष्यामि च पात्रं वा वस्त्रकं खलु सीव्यति ॥ गृही स्वयं वा दृष्ट्वा श्रुत्वा विमना भवेत् । निन्दनं वा परस्याग्रे कुर्यादनादरं तथा ॥
अवचूरि : - 'सीविस्सं' इत्यादि । अहं भवत्प्रदत्तेन - एतेन सूच्यादिना वस्त्रं सीविष्यामि, इत्युक्त्वाऽऽनीतेन साधनेन सूचीसाधनेन वस्त्रं ततोऽन्यत् पात्रं च सीव्यति । एवमेव - पात्र वासीविष्यामीति कथयित्वाssनीतेन तेन खलु वस्त्रकं सीव्यति । गृही एवं सूचीद्वारा पात्रादिकं सीव्यन्तमेनं साधु कदाचित्स्वयं दृष्ट्वा परमुखाद्वा श्रुत्वा 'विमणो' विमनाः मनोवकृतिमान् भवेत् वा–अथवा परस्य-साधोर्गृहस्थस्य वा अग्रे - समक्षं तस्य साधोर्निन्दनं तथा - अनादरं यदि कुर्यात् तदा मृषाभाषणेन द्वितीय महाव्रतस्य भङ्गकरणात् संयमात्परिभ्रष्टः सन् शासनलघुतां कारयेत्साधुः, अतः साधुभिरेवं न कर्त्तव्यम् ॥ सू० ३५ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू अविहीए सूइं पञ्चपिणs पच्चपितं वा साइज्जइ ॥ सू० ३६॥
छाया - यो भिक्षुरविधिना सूचों प्रत्यर्पयति, प्रत्यर्पयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३६ ॥
३
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निसीपले
अरमाई देन-
देना ने दर दक्ष जति 1. नंद दे ने
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मकरमाय-मशः नमोन, इमा रहे ।
इनल पुर कि इन दिनिया: हर-जेजे इस इव प्रति यो मुनिः ।
राम नउनः' पति-
रेसने देर तक , उद- -दान हल्द- तुदेव इलेसे बहला-हर-मनन न ई इन्दत । ई स स र
उड़ दे इस देकर + चन्द रेट-: स
-दिन .३, दशा बदल ३. अपना कश ३९ सब दे
३४-३९ नम-जेनिज्नु लाज्मा का जायक रहिवाशश अम थिए- कान्दिए कामकाज का जमावश अल्ला
शार मुनावि हो गया जान लाल
समें कचरूरत्व शिरत विरलेल्हेर
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चर्णिभाष्यावचूरिः उ० १ सू० ४१-४३ दण्डकादिपरिघट्टन-पात्रसन्धाननिषेधः १९
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः श्रमणः 'लाउपायं वा' अलाबूपात्र वा-तूंबीपात्रं वा, 'दारुपायं वा' दारुपात्रं वा, तत्र-दारु-काष्ठं तत्संबन्धि पात्रं वा, 'मट्टियापायं वा' मृत्तिकापात्रं वा, एतानि त्रीणि अलाबूप्रभृतिपात्राणि 'अण्णउत्थिएण वा' अन्ययूथिकेन अन्यतीर्थिकेन वा, 'गारथिएण वा' गृहस्थेन वा 'परिघट्टावेइ वा' परिघट्टयति-निर्मापयति वा 'संठवेई' संस्थापयति वा-पात्रमुखादीनां निर्माणं कारयति 'जमावेइ वा' यमयति वा-संयमयति वा पात्रैकदेशोच्चनीचप्रदेशं समीकारयति । अलं=पर्याप्तम् 'अप्पणो करणयाए' आत्मना करणतया स्वयं कत्तु न शक्यते । 'मुहममवि' सूक्ष्ममल्पमपिः 'नो कप्पई' नो कल्पते । एवं स्वशक्तिं 'जाणमाणे' जानानः 'सरमाणे' स्वसामर्थ्य स्मरन् सन् वा 'अण्णमण्णस्स' अन्यान्यस्मै अन्यस्मै अन्यस्मै इत्यर्थः, तत्र-अन्यतीर्थिकाय गृहस्थाय वा 'वियरइ' वितरति समीकरणाद्यर्थाय पुनरग्रहणाय वा ददाति । 'वियरंतं वा साइज्जई' वितरन्तं ददतमन्यं वा स्वदतेऽनुमोदते इति । यदि कश्चित् श्रमणः तुम्बादिपात्रं स्फुटितं गृहस्थादिद्वारा संधापयति नवीनं वा निर्मापयति किंचिदपि विषमं समौकारयति सूक्ष्ममपि कार्य करोति-कारयति-कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवति । एतेषां करणेऽन्यद्वारा संपादने वा दाने वा षड्विधजोवनिकायानामुपमर्दसंभवेन साधुभिस्तत्त्याज्यम् ॥ सू० ४०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणुसूइयं वा अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा परिघट्टावेइ संठवेइ जमावेइ वा अलमप्पणो करणयाए सुहुममवि नो कप्पइ जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स वियरइ वियरतं वा साइज्जइ ।। सू० ४१॥
छाया-यो भिक्षुः दण्डकं वा यष्टिकां वा अवलेहनिकां वा-वेणुसूचिका वा अन्ययूथिकेन वा.गृहस्थेन वा परिघट्टयति संस्थापयति यमयति वा अलमात्मनः करणतया सूक्ष्ममपि नो कल्पते जानानः स्मरन् अन्याऽन्यस्मै वितरति वितरन्त वा स्वदते । सू० ४१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः 'दंडयं वा' दण्डकं वा, तत्र-दण्डो गमनसहायको लोकप्रसिद्धः, 'लट्ठियं वा' यष्टिकां वा, तत्र-यष्टिर्वशादिनिर्मितो लघुदण्डविशेषः, तां वा। 'अवलेहणियं वा' अवलेहनिकां वा वर्षासमये चरणसंलग्नकर्दमप्रोञ्छनशलाकाविशेषः। 'वेणुसइयं वा वेणुसूचिकां वा, तत्र-वेणुवंशस्तन्मयीं सूची वंशशलाकामित्यर्थः। एतत्पूर्वोक्तं सर्व वस्तु 'अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा' अन्ययूथिकेनाऽन्यतीर्थिकेन वा गृहस्थेन वा 'परिघट्टावेइ' परिघट्टयति परिघट्टनं निर्मापणम् ततश्चाऽन्यद्वारा दण्डादि निर्मापयतीत्यर्थः । 'संठवेई'
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निशियसूत्रे संस्थापयति, तत्र-संस्थापन-टण्डस्य मुखादीनां संपादनम् 'जमावेइ वा' यमयति वा संयमयति दण्डादिकं समीकारयति । 'अलमप्पणो करणयाए' अलमात्मनः करणतया पर्याप्तमात्मना स्वयं करणायालम् न स्वस्य कत्तुं सामर्थ्यमित्यर्थः । 'मुहुममवि नो कप्पई' सूक्ष्म-स्वल्पमप्यात्मनः कार्यमन्यद्वारा कारयितुं न कथमपि कल्पते । 'जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स वियरई' स्वात्मानं नानानः स्मरन् वा स्वसामर्थ्य अन्याऽन्यस्य अन्यस्मै अन्यस्मै इत्यर्थः वितरति-ददाति । 'वियरंतं वा साइज्जइ' वितरन्त वा-ददतं वाऽन्यं स्वदतेऽनुमोदते दण्डादीनां घर्पण--संस्थापनसंयमनादिकं कत्तु परतीथिकेभ्यो ददाति ददतं वाऽन्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवति । केवलं बाल-ग्लान-रोगि-वृद्धानां संचलनार्थ यष्ट्यादिर्गृहीतो भवति न तु सशक्तानां सर्वसाधूनामिति विवेकः ।। सू० ४१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्ख पायस्म एगं तुडियं तुडेइ तुडंतं वा साइज्जइ ।। सू० ४२॥
छाया-यो भिक्षु पात्रस्यै त्रुटितं स्थगयति-स्थरायन्त वा स्वदते ॥सू०४२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः श्रमणः 'पायस्स' पात्रस्यतुम्बीपात्रस्य, दारुपात्रस्य, मृत्तिकापात्रस्य वा। 'एगं तुडियं' एकं त्रुटितम् थिग्गलं छिद्रमित्यर्थः उपलक्षणात् अखण्डपात्रस्योपरि शोभाद्यर्थ पात्रस्य शोभा वर्द्धतामिति बुद्धया पात्रस्योपरि दीयमानं चिविशेपम् । 'तुढेई' स्थगयति आवृणुते त्रुटितं संयोजयतीत्यर्थः । 'तुडतं वा साइज्जई' स्थगयन्तं वा स्वदते । यश्च भिक्षुस्तुम्विकादित्रिविधपात्रेपु छिदमेकं निरुणद्धि, यद्वा-पात्रस्योपरि शोभातिशयसंपादनार्थ यत्र तत्र वा स्वस्तिकादिकं निर्माति-निर्मापयति वा, निर्मापयन्तं वाऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवति ॥ सू० ४२ ॥
सूत्रम्-जे भिक्ख पायस्स परं तिण्हं तुडियाणं तुडेइ तुडतं वा साइज्जइ ।। सू० ४३॥
छाया-यो भिक्षुः पात्रस्य परं त्रयाणां त्रुटितानां स्थगयति स्थगयन्तं वा स्वदते ॥ सू०४३॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः श्रमणः 'पायस्स' पात्रस्य तुम्बिकादेः। 'परं तिपदं तुडियाणं' परं त्रयाणां त्रुटितानाम् त्रिथिग्गलात् परं चतुर्थादिकम् 'तुढेई' स्थगयतिआवृतं करोति-कारयति वा 'तुडंतं वा साइज्जइ' -स्थगयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते, त्रिथिग्गला
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चूर्णिभाष्योवचूरिः उ० १ सू० ४४-४७ पात्रस्याविधिसंधानातिरेकबन्धननिषेधः २१ दधिक संयोजयति स प्रायश्चित्ती भवति । यः साधुस्तुम्बिकादिपात्रेषु-एक-द्विकं वा कदाचित्त्रिकं थिग्गलं योजयितुं प्राप्ताधिकारः स यदि चतुर्थादिकं थिग्गलं स्वस्वजातीयं खण्डं योजयति करोति, कारयति, कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते तदा प्रायश्चित्तभाग्भवति ॥ सू० ४३ ॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-उड्ढं तुडियतिया य, जोजेज्ज पायगं जई ।
आणाणवत्थामिच्छत्तं, पावेई य विराहणं ।। छाया-उर्ध्व त्रुटितत्रिकाच्च, योजयेत्पात्रकं यतिः ।
आज्ञानवस्थामिथ्यात्वं प्राप्नोति च विराधनम् ।। अवचूरिः-'उड्ढं तुडिय' इत्यादि । यो यतिः श्रमणः स्फुटितपात्रादिकस्य थिग्गलत्रयात् उर्ध्वमधिक थिग्गलेन पात्रकं तुम्ब्यादिपात्रं योजयेत्, चतुर्थादिकं थिग्गलं पात्रे स्थगयति--करोति, स श्रमणः आज्ञाभङ्गदोषम्-अनवस्थादोषम् -मिथ्यात्वदोषम्--विराधनं च प्राप्नोति, अतः स्फुटितस्य पात्रादिकस्य थिग्गलत्रयादधिकं न योजयेत्, इति ॥ सू० ४३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पायं अविहीए तुडइ तुडंतं वा साइज्जइ। सू०४४॥ छाया-यो भिक्षुः पात्रमविधिना स्थगयति स्थगयन्तं पा स्वदते ॥ सू०४४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पाय' पात्रम् 'अविहीए' अविधिना विध्यतिक्रमण, 'तुडई' स्थगयति -युनक्ति 'तुदंतं वा साइज्जई' स्थगयन्तं वा स्वदते, युनक्ति-योजयति -अनुमोदते वा स प्रायश्चित्तभागिति ॥ सू० ४४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पायं अविहीए बंधा बंधतं वा साइज्जइ। सू०४५॥
छाया-यो भिक्षुः पात्रमविधिना बध्नाति-बध्नन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४५॥
चूर्णी- 'जे भिक्खु इत्यादि । 'जेभिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः 'पाय' पात्रं तुम्बिकादिकम् 'अविहीए' अविधिना विध्यतिक्रमेण 'बंधई बध्नाति अविधिना बन्धनं करोति कारयति । 'वधंतं वा साइज्जइ' बध्नन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्ती भवति । त्रिप्रकारके sलाबूपात्रादौ द्विप्रकारको बंधो भवति । तत्रैकोऽविधिबन्धो द्वितीयो विधिबन्धः । तत्राविधिबंधोऽयम्-"तत्र स्वस्तिकबन्धो द्विप्रकारको भवति व्यतिकलितः । इतरौ वा व्यतिकलितौ समच
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निशीधसूत्रे
बुरखौ च कोणेषु ॥१॥र व्यक्तिकलित एकतो द्विधातच, एकतोऽयम् । दियातोऽम्
प्रतीतस्तेनबन्धः, स चाऽयम्।
एते सर्वेऽप्यविधिवन्धाः । विधिवन्धस्तु मुद्रिकासंस्थित ५
नौबन्धसस्थितश्च ६ । एतेषु बन्धेपु-अविधिमध्यादेकतरेणापि बन्धेन त्रयाणां पात्राणां मध्यात् एकमपि पात्रं बन्धयेत् स आज्ञाभङ्गादिकं दोपं प्राप्नोतीति ॥ सू० ४५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पायं एगेण बंधेण बंधइ, बंधतं वा साइज्जइ ॥ छाया-यो भिक्षुः पात्रमेकेन बंधेन बध्नाति वध्नन्तं वा स्वदते ।। सू० ४६।।
चूर्णी-'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्विक्षुः श्रमणः, 'पाय' पात्रं तुम्बिकादिपात्रम् 'एगेण बंधेण बंधई' एकेन बन्धेन बध्नाति । सामान्यतस्तावत्कथितम् यत् "अवन्धनं पात्रं तुम्बिकादिकं ग्रहीतव्यम्” पात्रस्यैकवन्धनमपि कुर्वतस्त एवाज्ञाभङ्गादिका दोपा भवन्तीति कथयितुमिदं सूत्रं प्रवृत्तम् । तच्चैवं प्रतिपादयति यत् कश्चिदेकबन्धनं पात्रे करोति स आज्ञाभङ्गाटिकान् दोषान् प्राप्नोति, तथा 'बंधतं वा साइज्जइ' वध्नन्तं वा एकेन बन्धेन पात्रादिकं बघ्नन्तं स्वटतेऽनुमोटते यः सोऽपि प्रायश्चित्तभाग्भवतीति ॥ सू० ४६ ॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-पायमेगेण बंधेण, बंधेज्जा भिक्खुओ जइ ।
विहिणाऽविहिणा वा से, आणाभंगाइ पावइ । छाया-पात्रमेकेन बंधेन, वन्नीयाद्भिक्षुको यदि ।
विधिनाऽविधिना वा स आशाभङ्गादि प्राप्नोति ।। अवचूरि:- 'पायमेगेण' इत्यादि । यः कश्चित् श्रमणः एकेन एकावृतेन बन्धेन विधिना मुद्रिकासंस्थानेन नौवन्धनसंस्थानेन वा, अविधिना स्वस्तिकादिवंधनेन वा, पात्रमलाबूप्रमृतिकं बन्धयेत् पात्रस्य बन्धनं कुर्यात् यदि, एवं कुर्वाणः स आज्ञाभङ्गादिकान् टोपान प्राप्नोति तस्माद्विधिना वा अविधिना वा पात्रस्यैकावृतेन बन्धनेन बन्धनं न कुर्यादिति ॥ सू० ४६ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू पायं परं तिण्हं बंधाणं बंधइ, बंधतं वा साइज्जइ ॥ छाया-यो भिक्षुःपात्रं परं त्रयाणां बंधानां बध्नाति वध्नन्तं वा स्वदते । सू०४७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुर्निर्ग्रन्थः 'पाय' पात्रं तुम्बिकाप्रमृतिकम् । 'परं तिण्डं बंधाणं बंधई' परं त्रयाणां बन्धानां वध्नाति त्रिरावृतवन्धनात्परं चतु
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १ सू० ४८
पात्रस्यातिरेकबन्धनकालमर्यादा २३ दिबन्धेन बध्नाति–बन्धनं करोति कारयति 'बंधतं वा साइज्जई' बध्नन्तं-बन्धनं कुर्वाणं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवति ॥ सू० ४७ ॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-बंधत्तिगाइरित्तेण, पायं बंधइ जो जई ।
विहिणाऽविहिणा वावि, से पावइ य दूसणं॥ छाया-बन्धत्रिकातिरिक्तेन, पात्रं बध्नाति यो यतिः ।
विधिनाऽविधिना वाऽपि, स प्राप्नोति च दूषणम् ॥ अवचूरिः-'बंधत्तिगा' इत्यादि । यः कैवल्यप्रापकज्ञानदर्शनचारित्रार्थ यतमानो यतिः बन्धत्रयातिरिक्तेन बन्धनत्रयादधिकेन चतुर्थबन्धनादिना पात्रमलाबूप्रभृतिकम् विधिना मुद्रिकादिसंस्थानेन, अविधिना स्वस्तिकादिसंस्थानेन बन्धनेन बध्नाति बन्धनं करोति कारयति, स दूषणमाज्ञाभङ्गादिदोषजातं प्राप्नोति तस्मात् कथमपि विधिनाऽविधिना वा चतुर्थेन बन्धनेन यतिः पात्रस्य बन्धन न कुर्यादिति ।। सू० ४७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अइरेगबंधणं पायं दिवड्डाओ मासाओ परेण धरइ धरतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४८॥
छाया-यो भिक्षुरतिरेकबन्धनं पात्र द्वयर्धात् मासात्परं धरति, धरन्तं वा स्वदते ॥ सू०४८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अइरेगवंधणं पायं' अतिरेक त्रिबन्धनादधिकं बन्धनम् , तेन बद्धं पात्रम् 'दिवड्ढाओ मासाओ' द्वयर्धात् मासात् एकं मासं परिपूर्ण द्वितीयमासस्या? भागः पंचदशदिनानि, तस्मात् द्वयर्धमासात् 'परेण' परेण परतः यदि द्वयर्धमासादधिककालपर्यन्तं 'घरेइ' धरति धारयति । 'धरंतं वा साइज्जई' धरन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्ती भवति ॥ सू० ४८ ॥
___ अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-अवलक्खणवंधणओ, होइ पमाभो असंजमो तत्तो ।
तेण य आणाभंगो, पडई तत्तो य संसारे ॥ छाया--अपलक्षणबन्धनतों भवति प्रमादः असंयमस्तस्मात् ।
तेन च आज्ञाभङ्गः, पतति तस्माच्च संसारे ॥
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निशीथसूत्रे २४
अवचूरिः-'अबलक्खण.' इत्यादि । अपलक्षणं यद्वन्धनं तस्मात् प्रमादो भवति, तस्मात् प्रमादात् असंयमः, तेन च असयमेन आज्ञाभङ्गः जिनाज्ञाविराधना, तस्माच्च माज्ञाभङ्गात् साधुः संसारे पतति तस्य पुनः पुनः संसारपातो भवति । तस्मादविधिवन्धनस्य सार्धमासात्परतो धर्ता-धारयिता, धारयतोऽनुमोदयिता च प्रायश्चित्तभाग् भवतीति विमर्शः ॥ सू०४८ ॥
एकबन्धनबद्धपात्रधारणे भिक्षुः के कं दोपं प्राप्नोतीत्याह भाष्यकार:भाष्यम्-आणाभंगाइयं दोसं, मिच्छत्तं च विराहणं ।
पावइ जम्हा य तम्हा, भिक्खू णेव धरेज्ज तं ॥ छाया-आक्षामगादिकं दोपं, मिथ्यात्वं च विराधनम् ।
प्राप्नोति यस्माच्च तस्माद् , भिक्षुनैव धरेत् तम् ॥ अवचरि:--'आणाभंगाइयं' इत्यादि । यस्मात्कारणात् एक-द्विक-त्रिकातिरेकबन्धनविशिष्टपात्रं धारयतस्तीर्थकाराणामाज्ञाभङ्गादिका दोपा भवन्ति, तथा अनवस्था, एकेन यदि धारितं तदाऽन्योऽपि तद्धारयिष्यति, तदन्योऽपि धारयिष्यति, एवं तदन्योऽपि, इत्थं क्रमेणाऽनवस्थादोपः समापतति । तेन मिथ्यात्वमपि प्राप्नोति, तीर्थकराणामाज्ञाभङ्गे मिथ्यास्त्र प्राप्तः । तथा विराधनम् आत्मविराधनं संयमविराधनं च प्राप्नोति । तस्मात्कारणात साधुरेकबन्धनाविधिवन्धनातिरेकबन्धनविशिष्टं पात्र न धारयेदिति सिद्धान्तः ॥ सू० ४८॥
अथ भाप्यकारोऽलक्षणपात्राणि प्रदर्शयति-'हुंडं' इत्यादि । भाष्यम्-हुंडं १ सवलं २ वायाइद्धं ३ दुपुयं ४ च खीलसंठाणं ५।
पउमुप्पल ६च सवणं ७ अलक्षणं दह ८ दुचणं ९॥ छाया-हुंडं १ शवलं २ वाताचिद्ध ३ दुष्पुतं ४ च कीलसंस्थानम् ५।
पद्मोत्पलं च सवर्ण ७, अलक्षणं दग्ध ८ दुर्वर्णम् ९ ।
अवरिः - हुंड' यत् पात्रं समचतुरखं न भवति तत् हुण्डम् अलक्षणम् १, शवलं तत् यस्य कृष्णादिरूपाणि, विचित्ररूपोपपन्नम् इत्यर्थः २ वाताविद्वं नाम-वातेन आविद्ध क्षिप्तम् उपचारात् स्फुटितमित्यर्थः ३, दुप्पुन नाम-दुष्टाधोभागं यत् स्थापितमूर्ध्वमेव तिष्ठतिचालितं सत् पुनः प्रत्यावर्त्तते तत् तादृशं दुष्पुतम् ४ इति । कोलसंस्थानम्-यत् स्थापयत् सन्न तिष्ठति तत्कीलसंस्थानम् ५, पद्मोत्पलम्-यस्य पात्रस्याऽधोनाभिः पद्माकृतिः, उत्पलाकृतिः नोलामा वा तत्पद्मोत्यलम् ६, सवर्णम् कण्टकादिक्षतक्षतं यत्पात्रं तत् ७, तथा दग्धम्अग्निना प्रचलितम् ८, दुवर्णम्-पञ्चवर्णोपेतमनिष्टवर्ण वा ९ । अथवा-प्रवालाड्कुरसदृशं
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चर्णिभाष्यावचूरिः उ० १ सू० ४९-५०
वस्त्रसन्धानप्रकरणम् २५ सुवर्णम् अन्यदुर्वर्णम्-अनिष्टमित्यर्थः । एतल्लक्षणयुक्तं पात्रमलक्षणं कथ्यते इति । तत्र कस्मिन् अलक्षणे सति तद्धारयितुः किमाकारको दोष आफ्धेत ? तत्रोच्यते-हुंडनामके लक्षणे चारित्रभेदः १, शबलनामके लक्षणे चित्तविभ्रमः २, वाताविद्धनामकेऽलक्षणे साधोन्मादो भवति ३, दुष्पुत-कीलसंस्थाननामकेऽलक्षणके गणे-चारित्रे च स्थानं न लभते ४५। पनोत्पलनामकालक्षणे-अकुशलं शरीरपीडा भवति ६, सवर्णापलक्षणे उपकरणस्य ज्ञान-दर्शन-चारित्रस्य च विराधना भवति ७, दग्धे अन्तर्बहिर्वा मरणं भवति ८ । दुर्वर्णनामकाऽलक्षणविशिष्टपात्रधारणे ज्ञानस्यागमो न भवति ९, तस्मात्-अलक्षणयुक्तं पात्रं न धारयेत् । कीदृशं पात्रं केन वा क्रमेण कियन्तं वा कालं मार्गयितव्यम् ! तत्रोच्यते-प्रथमं तावत् चतुरो मासान् पर्यन्तं यथाकृतं नाम पात्रं केवलकाष्ठनिर्मितं, पूर्वकृतमुखं वाऽलाबूपात्रं मार्गयितव्यं किन्तु न परिकमितमिति । यदि चतुर्मासं यावदन्वेषणे कृतेऽपि तादृशं यथाकृतं पात्रं न लब्धं भवति, तदा-तदनन्तरं मासद्वयं यावत् अल्पपरिकर्मितमेव पात्रं मार्गयितव्यम् । यद्येतावता कालेनाऽपि तादृशमल्पपरिकर्मितं पात्रं लब्धं न भवेत्, तदा-द्वयर्धमासं यावत् बहुपरिकर्मितमपि पात्रं मार्गयेत् , यस्मात्-तदनन्तरं वर्षाकालः प्राप्तों भवति, वर्षाकाले च परिकर्म न भवति । यदि यादृशमागमे कथितं सलक्षणं पात्रम् तादृशं पात्रं न लभेत, तदा तावद् यदेव प्राप्तं तदेव पात्रमनुकर्षयितव्यमिति संक्षेपः ॥ सू०४८॥
इतः पूर्वसूत्रेषु-एक-द्विकादिथिग्गलं बन्धनं वा दर्शितम्, अधुना-प्रकृतसूत्रे वस्त्रे थिग्गलयोजनाप्रकारमाह- 'जे भिक्खू इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थस्स एगं पडियाणियं देइ, देयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४९॥
छाया-यो भिक्षुर्वस्त्रस्य एकं प्रत्यनीकं ददाति ददतं वा स्वदते ॥ सू० ४९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'वत्थस्स' वस्त्रस्य, तत्रवासयति-आच्छादयति रक्षति शीतोष्णादिभ्यः शरीरमिति वस्त्रम्-प्रावरणक-चोलपट्टादिकम् , तस्य वस्त्रस्य, 'एगं पडियाणियं' एकं प्रत्यनीकम् अन्यजातीयवस्त्रसंभवं थिग्गलकम् कारणं विना तज्जातीयमेकं थिग्गलम्-अन्यजातीयवस्त्रस्य वा थिग्गलं ददाति, दापयति 'देयंत वा साइज्जइ' ददतं वा स्वदतेऽनुमोदते, स आज्ञाभङ्गादिकमात्मविराधनं संयमविराधनं च प्राप्नोति, अतः प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ४९॥
संप्रति सूत्रप्रतिपादितं वस्त्रं कतिप्रकारकं भवतीति जिज्ञासायामाह भाष्यकार:-'वत्थं पंचविहं' इत्यादि ।
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निशीथस्त्रे भाष्यम्-वत्थं पंचविहं वुत्तं, जंगमाइपभेयगं । जहासत्थं च तब्भेओ, णायचो हियवुद्धिहि ॥ छाया-वस्त्रं पञ्चविधमुक्तं जंगमादिप्रमेदकम् । यथाशास्त्रं च तद्भेदो शातव्यो हितबुद्धिभिः ॥
अवचूरिः-वस्त्रं पञ्चविधं पञ्चप्रकारकं भवति, जंगमादिभेदात्, पंच प्रकाराः वस्त्रस्य भवन्तिजंगिए,भंगिए, साणए, पत्तिए, तिरीडपट्टए" जङ्गमम् १, भगिकम् २ शाणकम् ३ पत्रकम् ४ तिरोडपट्टकम् ५, तत्र-जङ्गमम्-अजमेषलोमनिर्मितं कम्बलादि, उपलक्षणात्कासिकम् १, भङ्गिकम्अतसीनिर्मितं कृमिजं वा २, शाणकम्-शणसूत्रमयम् ३, पत्रकम्-तालपत्रनिर्मितम् ४, तिरीडपट्टकम्-तिरीडवृक्षत्वग्भिनिर्मितम् ५। एतेषु पञ्चविधेषु वस्त्रेषु-उत्सर्गमार्गेण वस्त्रद्वयं कल्पते, ऊर्णामय, कासिकं च, तत्र एकमूर्णामयं, प्रावरणद्वय कार्यासिकं च । अपवादमार्गेण द्विविधवस्त्रयोरलाभेऽन्यदपि वस्त्रं कल्पते । इत्थं सुबुद्धिभिर्यथाशास्त्रं भेदो ज्ञातव्यः ॥ स० ४९॥ ___ अथापवादमाह-'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं पडियाणियं देइ देयंत वा साइज्जइ ॥ सू० ५०॥
छाया यो भिक्षुर्वस्त्रस्य परं त्रयाणां प्रत्यनीकं ददाति ददतं वा स्वदते ॥सू०५०॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'वत्थस्स' वस्त्रस्य प्रावरणचोलपट्टकादिरूपस्य 'परं तिण्ह' परं त्रयाणाम्, त्रयाणां थिग्गलानां परतश्चतुर्थादिकम् , प्रत्यनीकं अन्यजातीयवस्त्रथिग्गलम् , 'देइ' ददाति दापयति, 'देयंत वा साइज्जई' ददतं वा स्वदतेऽनुमोदतेस प्रायश्चित्तभाग भवतीति ॥ सू० ५०॥
अत्राह भाष्यकार:-'कारणे' इत्यादि । भाष्यम्-कारणे थिग्गलं सत्थे, तियमेयमुदाहियं । तओ य परतो देइ, आणाभंगाइया मया ॥ छाया-कारणे थिग्गलं शास्त्रे त्रयमेतदुदाहृतम् । ततश्च परतो ददाति आज्ञाभंगादिका मताः॥
अवचूरिः-कारणे-कारणविशेषे सति, यावत्-एक-द्विकं त्रयं वा थिग्गलं वस्त्रोपरि देयम् , एतत् शास्त्रे एवोदाहृतम्-कथितम् । कारणे सति यावत् थिग्गलत्रयं तावदेयम् , ततश्च परतो ददतः ततः परं त्रिथिग्गलात्परं चतुर्थादि थिग्गलं वस्त्रोपरि ददतः श्रमणस्य-आज्ञाभगादिका दोपा मता भवेयुरित्यर्थः ॥ सू० ५०॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १ सू० ५१-५६ वस्त्रस्य सीवनफलिकाग्रन्थनप्रकरणम् २७
अथास्य प्रकृतसूत्रस्य पञ्चाशता सूत्रेण सह कः संबन्धः ? इति चेत् अत्रोच्यते-पूर्वपूर्वतरसूत्रेषु थिग्गलसंयोजनं कथितम् । तत् थिग्गलं सीवनमन्तरेण न संभवति इति थिग्गलसीवनं स्मारति, तत्सीवन केन विधिना भवतीति सीवनविधिप्रदर्शनार्थमेतत्सूत्रमाह-'जे भिक्खू' इत्यादि । सूत्रम्-जे भिक्खू अविहीए वत्थं सिव्वइ सिव्वंतं वा साइज्जइ ।५१।
छाया-यो भिक्षुरविधिना वस्त्र सीव्यति सीब्यन्तं वा स्वदते ॥सू० ५१॥ चूर्णी-'जे भिक्खू' यो भिक्षुः, 'अविहीए' अविधिना-विधिमुल्लच्य, 'वत्थंसिव्वई' वस्त्रं प्रावरणचोलपट्टादिकं सीव्यति सीवनं करोति, कारयति 'सिव्वंतं वा साइज्जइ' सीव्यन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति । अयं भावः-यथा गृहस्थः शोभार्थ वस्त्रादौ जालिकां करोति तथा यदि 'साधुः कुर्यात्, यद्वा कुर्वन्तमनुमोदयेत् तदा तादृशवस्त्रस्य प्रतिलेखनादिकं कत्तुं न शक्ष्यति, अतोऽविधिपूर्वकं तत् सीवनम्-इति, तथाकरणे कर्तुः कारयितुः कुर्वन्तमनुमोदयितुर्भवत्येव प्रायश्चित्तम् ।
अयं भावः-सीवनं पञ्चप्रकारकम्-गग्गरकसीवनम् १ दण्डिसीवनम् २ जालिकासीवनम् ३ एकसरासीवनम् ४ दुष्कीलकसीवनम् च ५ भवति । तत्र-गग्गरसीवनं दण्डिसीवनं च यथा गृहस्थानां 'कुर्ता-कोट, कोत्थल-कोथला-कोथली' इत्यादिभाषाप्रसिद्धानां सीवनम् १-२, जालिकासीवनं प्रसिद्धं वस्त्रेषु जालिंकादिकरणेन विच्छित्तिसम्पादनम् ३ । एकसरासीवनं लोकप्रसिद्ध 'कसीदा' 'भरत' इत्यादिनाम्ना ४ । दुष्कीलकसीवनं यथा तथा सोन्यते, यथा-उभयतो वस्त्रस्य कीलकमिर्व डोरकं भवति ५ । एतत्सर्वं सीवनमविधिरूपम्, यत एतेषु प्रत्युपेक्षणादिकं सम्यक् न संभवति अतो नैतत्कर्त्तव्यम् । विधिसीवनं गोमूत्रिकाकारसीवनं स्वसमयप्रसिद्धमिति दिक् ।। सू० ५० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थस्स एगं फलिय गंठियं करेइ करेंतं वा साइज्जइ॥ सू० ५२॥
छाया-यो भिक्षुर्वस्घ्रस्यैकां फलिका प्रथितां करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० ५२॥
चूर्णी—'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'वत्यस्स' वस्त्रस्य, 'एगं फलियं गंठियं करेई' एकां फलिकां-वस्त्रान्तस्थिततन्तुजालरूपां ग्रथितां करोति वस्त्रान्तस्थिततन्तुजालं फलिकारूपेण प्रथ्नातीत्यर्थः, 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तमागू भवति । शेषं प्राग्वत् ॥ सू० ५२ ॥
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निशीथसूत्रे सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थस्स पर तिण्हं फलियगंठियाणं करेइ करत वा साइज्जइ ॥ सू० ५३ ॥
__ छाया-यो भिक्षुर्वस्त्रस्य परं प्रयाणां फलिकाग्रन्थिकानां करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः 'वस्थस्स' वस्त्रस्य-प्रावरणवस्त्रादेः, 'परं तिण्ड' परं त्रयाणाम् 'फलियगंठियाण' फलिकाग्रन्थिकानां 'करेइ' करोति स्वयं संपादयति, कारयति 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागिति प्राग्वत् । अतः फलिकात्रयादधिकं फलिकाग्रन्थनं न विधेयम् ॥ सू० ५३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थस्स एगं विफलियं गंठियं देइ देयंत वा साइज्जइ ॥ सू० ५४ ॥
छाया यो भिक्षु वस्त्रस्यैकां विफलिकां ग्रन्थिकां ददाति दतं वा स्वदते ॥सू०५४॥
चूर्णी-'जे मिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'वत्थस्स' वस्त्रस्य 'एगं विफलियं गंठियं' एकां विफलिकाम्-फलिकारहितां ग्रन्थिकां 'देइ' ददाति-वस्त्रान्तभागेन सह प्रन्थिकां युनक्ति दापयति, योजयति मन्यद्वारा, 'देयंतं वा साइज्जई' ददतं वा स्वदतेऽनुमोदते तस्याज्ञाभङ्गाऽनवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनादयो दोषा भवन्तीति सुगमम् ॥ सू० ५४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं विफलियगंठियाणं देइ देयंतं वा साइज्जइ ।। सू० ५५ ॥
छाया-यो भिक्षुर्वस्त्रस्य परं त्रयाणां विफलिकप्रन्थिकानां ददाति ददतं वा स्वदते ॥ सू० ५५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'वत्थस्स' वस्त्रस्य 'परं तिण्ड' परं त्रयाणाम्-त्रयाणां परमधिकम् 'विफालियगंठियाणं देई' विफलिकग्रन्थिकानां ददाति दापयति, 'देयंतं वा साइज्जइ' ददतं वा स्वदतेऽनुमोदते स आज्ञाभगदोपात्प्रायश्चित्तभागिति सरलोऽर्थः ॥ सू० ५५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थं अविहीए गंठइ गंठतं वा साइज्जइ ॥ ५६ ॥ छाया-यो भिक्षुर्वस्त्रमविधिना अथ्नाति अनन्तं पा स्वदते ॥ सू० ५६ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'वत्थं वयं-चोलपट्टादिकम् 'अविहीए' अविधिना-विधिमुल्लय 'गंठइ' ग्रथ्नाति अविधिपूर्वक प्रन्थि ददाति-दापयति,
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १ सू० ५७-६०. वस्त्रगृहधूमपूतिकर्मप्रकरणम् २९ 'गंठतं वा साइज्जइ' अध्नन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिदोषात्प्राग्वत् प्रायश्चित्तभाग्भवति ।। सू० ५६॥ । सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थं अतज्जाएणं गंठेइ गंठेत वा साइज्जइ ॥ ५७॥
छाया-यो भिक्षुर्वस्त्रमतज्जातेन गुथ्नाति प्रथ्नन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५७ ।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'वत्थं' वस्त्रं चोलपट्टादिकम्, स्फाटितं संघातुम् 'अतज्जाएणं' अतज्जातेन, जातिमतिक्रम्य यद् भवति तद् अतज्जातम् अन्यजातीयम् तेन विभिन्नजातिकेन दवरकेण 'गंठेइ' प्रथ्नाति-सीवनादिकं करोति, कारयति 'गठेतं वा साइज्जई' अनन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नुवन् प्रायश्चित्तभागिति पूर्ववत् ॥ सू० ५७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अइरेगगहियं वत्थं परं दिवड्डाओ मासाओ घरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५८॥
छाया-यो भिक्षुः अतिरेकगृहीतं वस्त्रं परं द्वयर्धात् मासात् धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५८॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अइरेगगहियं वत्थं' अतिरेकगृहीतं वस्त्रम् श्रमणानां यादृशी वस्त्रग्रहणव्यवस्था, यादृयी वा संख्या, ततोऽधिकवस्त्रस्य कोऽपि ग्रहणं करोति । प्रमाणव्यवस्थातोऽधिकं यद् गृहीतं वस्त्रं तत् यदि 'परं दिवड्डाओ मासाओ घरेइ' परमधिकं द्वयर्धमासात्-अर्धाधिकैकमासात्, साधैंकमासात् परमधिकं कालमपि धरति, स्वसमीपे स्थापयति 'धरेंतं वा साइज्जइ' धरन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिदोषधारी प्रायश्चित्तभाग्भवति ।। सू० ५८॥
अत्राह भाष्यकारः-'अवलक्खणाई०' इत्यादि । भाष्यम्-अवलक्खणाइजुत्त-दुग-तिग-अइरेग-गठियं वत्थं, ।
__ धरइ य दिवड्ढमासा, अहियं जो दोसभाई सो ।। छाया-अपलक्षणादियुक्तं-द्विक-त्रिकाऽतिरेकग्रथितं वस्त्रम् ।
धरति च द्वयर्धमासाद् अधिकं स दोषभागी सः ॥ अवचूरिः-यो भिक्षुः अपलक्षणादियुक्तम्-त्रिकोणाद्यलक्षणयुक्तम् । आदिशब्दात्तथाविधान्यापलक्षणयुक्तं वा यथा एकग्रन्थियुक्तं, ग्रन्थिद्वययुक्तं, ग्रन्थित्रययुक्तं तदधिकप्रन्थियुक्तं वा, यत्समा
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निशिथसूत्रे ३० नाऽसमानजातीयकं चोलपट्टादिकं वस्त्रं सार्धमासादधिकं सार्धकमासादधिककालपर्यन्तं धरतिधारयति, यद्वा-धरन्तमनुमोदते स श्रमणः तीर्थकृतामाज्ञाभङ्गादिदोपभागी भवतीति । तथाअनवस्थादोपम्-आत्मसंयमविराधनादोपं च प्राप्नोति, अतः सलक्षणादिवस्त्रस्य मार्गणं कर्त्तव्यम् ।
तत्राऽपलक्षणोपधेर्धारणे-यस्मात्- ज्ञानदर्शनचारित्राणां विनाशो भवति, तस्मात्-अलक्षणयुतं वस्त्रं न धारयितव्यम् , किन्तु-सविधिवस्त्रस्य मार्गणा कर्त्तव्या । तत्र यथाकृतवस्त्रग्रहणे मासचतुष्टयं यावत्-अन्वेपणं कर्त्तव्यम् १, अन्यपरिकर्मितग्रहणे मासद्वयं यावत् मार्गणं कर्त्तव्यम्-२, ततः परं सार्धमासपर्यन्तं सपरिकर्मितं वस्त्रं मार्गयेत् ३, एवंप्रकारेण कृतेऽपि मार्गणे सलक्षणादिकमन्यदोपरहितं वस्त्रं यदि न मिलेत् , तदा तावत्पर्यन्तं मार्गणं कर्त्तव्यम् यावत्पर्यन्तमन्यत्सलक्षणं सर्वदोपहितं वस्त्रं न मिलेत् ॥ सू० ५८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू गिहधूमं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिसाडावेइ परिसाडावेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५९ ॥
छाया-यो भिक्षुः गृहधूमं अन्ययूथिकेन वा, गृहस्थेन वा परिशाटयति परि, शाटयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५९।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'गिहधूम' गृहधूमम् गृहं वसतिर्यत्र साधवस्तिष्ठन्ति, तस्मिन् गृहे वसतौ धूमं रोगाद्युपशामकगुग्गुलादिज्वालनाज्जायमानम् 'अण्णउत्थिएण वा अन्ययूथिकेन वा परतीर्थिकेन वा, 'गारथिएण वा' गृहस्थेन वा-येन केनचित् वा परिसाडावेइ' परिशाटयति-गृहादिकं पिधाय तदन्तधूमं निरुध्य प्रसारयति, सर्वतो विस्तारयति 'परिसाडावेतं वा साइज्जई' परिशाटयन्तं-इतस्ततो धूपयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्राग्वत् प्रायश्चित्तभाग्भवति ॥ सू० ५९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पूइकम्मं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ, तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ।। मू० ६०॥
___॥ णिसीहज्झयणे पढमो उद्देसो संमत्तो ॥१॥ छाया-यो भिक्षुः पूतिकर्म भुङ्क्ते भुञ्जन्तं वा स्वदते, तं सेवमान आपद्यते मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ॥सू० ६० ।।
॥ निशीथाध्ययने प्रथम उद्देशः समाप्तः ॥१॥
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चूर्णिभाष्यावरिः उ० १ सू० ६०
पूर्तिकर्मभाष्यम्-उद्देशसमाप्तिश्च ३१ चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि ! 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पूइकम्मं भुंनइ' पूतिकर्म भुक्ते, तत्र-विवर्ण विनष्टं कुथितमन्नजातं पूतिकं कथ्यते, स्वसमये पुनर्विशुद्धमप्याहारादिकमाघाकर्मिकादिकणमात्रेण मिश्रितं तत्पूतिकमिति कथ्यते, एतादृशमाहारं भुक्ते भुजतं वा साइज्जई' भुञ्जन्तं पूतिकाद्याहारस्योपभोगं कुर्वन्तं स्वदतेऽनुमोदते । 'तं सेवमाणे आवज्जइ' तत्-हस्तकर्माचारभ्य पूतिकभन्तमविधिमार्ग सेवमान आपद्यते-प्राप्नोति 'मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं' मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् । अनुद्घातिकं मासिकं प्रायश्चित्तं भवतीति सर्वत्र विज्ञेयम् ॥ सू० ६०॥
हस्तकर्मादारभ्य पूतिकर्मान्ताऽविधिमार्गस्य परिसेवनं कुर्वतः श्रमणादेः प्रायश्चित्तम् , तत्र किमिदं पूतिकर्म ? कतिविधं च ? तत्राह भाष्यकार:--'पूइकम्म' इत्यादि । भाष्यम्--पूइकम्मं दुहा वुत्तं, दव्वे भावे य धीमया ।
दव्वे मुन्दरदिलुतो, भावे सुहुमं च बायरं ॥ छाया-पूतिकर्म द्विधा प्रोक्तं द्रव्ये भावे च धीमता ।
द्रव्ये सुन्दरदृष्टान्तो भावे सूक्ष्मं च बादरम् ॥ अवचूरिः-तत्र-'पूति' इति कुथितमिति कथ्यते, कर्म-इत्याधाकर्मिकमिति । तच्चाऽऽधाकर्मिकं-साध्वर्थ षट्कायोपमर्दनपूर्वकं निर्मितमाहारादिकम् । आधाकर्मिकस्य निषिद्धत्वात् यद्यपि शुद्ध आहारः तत्राऽऽधाकर्मादिदोषयुक्ताहारस्य सिक्यमपि-कृणमपि यदि मिलति तदाऽसौ पूतिकर्माहार इत्युच्यते, तदाहारकरणे प्रायश्चित्तम् । तद् द्विप्रकारकं भवति, तदेव दर्शयति भाष्यकार:-'पूइकम्म' इयादिना ।
विदितशास्त्रहृदयैः पूर्वाचार्यैः पूतिकर्म विधा-द्विप्रकारकं कथितम् , तद्यथा-द्रव्ये भावे च, तत्र द्रव्ये सुन्दरदृष्टान्तो निदर्शनम् । तथाहि
अस्ति कश्चिद्गाथापतिः, तेन गृहकार्यकरणाय सुन्दरो नामकः सेवकः स्वगृहे स्थापितः। एकदा कदाचित्काचित् पुण्यतिथिः प्राप्ता । तदवसरे गाथापतिना प्राङ्गणोपलेपनाय सुन्दरः सेवको नियोजितः । स च सुन्दरो गोमयमानीतवान् परन्तु गोमयेन साकं पुरीषमपि-आनीय प्राङ्गणस्योपलेपनादिकं कृतवान् । यदा तु गाथापतिः समागतः तदा दुरभिगन्धयुक्तद्रव्येण लिप्त प्राङ्गणमिति मत्वा भृत्यं भसितवान् । तथा च यथा दृष्टान्तेऽपवित्रदुर्गन्धिमनुष्यपुरीषेण संसृष्टं गोमयमपि दुर्गन्धकारणम् । एवमेव-दार्टान्तिकेऽशुद्धाहारसंसृष्टः शुद्धाहारोऽपि दोषाय एवेति ।
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निशीथसूत्रे
भावपूतिकं च द्विप्रकारकं भवति सूक्ष्म-वादरं च । तत्र-इन्धनं दारुकम् , तस्य धूमःइन्धनधूमः, स चाऽऽधाकर्मिके भोजने रध्यमाने लोकानां प्राणप्रदेशं स्पृशति तेन छिवका जायते, ततः सर्वं पूतिकं भवति । गन्धपुद्गलैर्वा छिक्का भवति ततः सर्व पूतिकं भवति । अथवाधूमगन्धवर्जितैः सूक्ष्मावयवैश्छिक्का, ततः सर्वं पूतिकं भवतीत्येतत् सूक्ष्म पूतिकम् ।
___ वादरं त्रिप्रकारं भवति आहारे, उपधौ, शय्यायां च । तत्राहारपूतिकं चतुर्विधम् अशनादिभेदात् । आधाकर्मिकाद्याहारकणेनापि संसृष्टमाहारजातमाहारपूतिकम् १। उपधिपूतिकं द्विप्रकारकम्-वस्त्रे पात्रे च । तत्र-वस्त्रं जांगिकादिपञ्चप्रकारकभेदात् पञ्चविधम् । पात्रम्-अलावूदारु- मृत्तिकाभेदात् त्रिविधं ग्राह्यम् । धातुनिर्मितं सम्प्रतिकालप्रसिद्धं सेलोलाइटादिनिर्मितं सर्वमग्राह्यम् । ततश्च पात्रपूतिकमपि त्रिविधम् । तत्र वस्त्रे-आधाकर्मकृतेन सूत्रेण सीव्यति, थिग्गलं वा ददाति । पात्रेऽपि-आधाकर्मकृतेन सूत्रेण सीव्यति-संयोजयति थिग्गलं वा ददाति । वसतिपूतिकम्-शुद्धवसतौ आधाकर्मिकवंशकाष्ठप्रस्तरादिसंमेलनम् । यथा-वसतिनिर्माणे पद काष्ठादीनि प्राशुकानि सप्तमं किमपि वास्तुद्रव्यं चाऽऽधाकमिकं संयोजितं भवेत्तद् वसतिपूतिकं कथ्यते । विशेषतो यथाशास्त्रं ज्ञातव्यम् ॥ सू० ६०॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थिनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालचति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायां प्रथम उद्देशकः समाप्तः ॥१॥
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॥ द्वितीयोदेशकः ॥ कथितः प्रथमोद्देशकः, इदानीमवसरप्राप्तो द्वितीयोद्देशकः प्रारभ्यते, अस्य प्रथमोद्देशकेन सह कः सम्बन्धः ? इत्यत्राह भाष्यकारःभाष्य-पढमे गुरुमासं च, पायच्छित्तं पर्कित्तियं ।
वीए उ लहुमासं च, पायच्छित्तं कहिस्सए ॥ छाया-गुरुमासिकं च-प्रथमे, प्रायश्चित्तं प्रकीर्तितम् ।
द्वितीये तु लघुमासं च प्रायश्चित्तं कथयिष्यते ॥ अवचूरिः --'पढमे'. इत्यादि । तत्र प्रथमे-प्रथमोद्देशके हस्तकर्माधारभ्य पूतिकर्माहारपर्यन्तेपु दोपेषु 'गुरुमासं' गुरुमासिकं प्रायश्चित्तं कथितम् । द्वितीये-द्वितीयोदेशके तु 'लहुमासं' लघुमासिकं प्रायश्चित्तं कथयिप्यते । यद्वा-गुरु- इति पदं सापेक्षम् तच्च-लघुकमपेक्षतेऽतोऽत्रोद्देशके लघुप्रायश्चित्तं कथयिष्यते । अयमेव संबंधः पूर्वापरोद्देशकीयसूत्राणाम् । अथवा-प्रथमोहेशकचरमसूत्रस्थभाष्ये उपकरणपूतिकं कथितम् , इह च द्वितीयोद्देशकस्य प्रथमसूत्रे तदेवोपकरणं किम् ? इति कथयिष्यते, अयमेव संवन्धः पूर्वापरसूत्रयोः । अथवा-प्रथमोद्देशकस्यादिसूत्रे हस्तकर्मादिव्यवहारो निषिद्धः, अत्रापि दारुदण्डक--पादपोछनकरणं हस्तव्यवहार एवेति' तन्निपेधः कथयिष्यते, अयमेव संबंधः पूर्वापरसूत्रयोंर्भवति । अनेन संबन्धेनायातस्य द्वितीयोहेशकीयप्रथमसूत्रस्य व्याख्यानं प्रस्तूयते-'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणयं करेइ करेंतं वा साइज्जइ १ छाया- यो भिक्षुरुदंडकं पादपोंछनकं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित्- निरवभिक्षणशीलो भिक्षुः, अष्टविधकर्मणां क्षपणाय सर्वदा यतनावान् वा भिक्षुः 'दारुदंडयं पायपुंछणयं करेइ' दारुदण्डकं पादप्रोञ्चनकं करोति, तदारु-काष्ठम् , तन्मयो दंडो यस्य तदारुदण्डकम्-तादृशं काष्ठदण्डमात्रयुक्त निषद्याभिधवस्त्रवर्जितम्., एवंभूतं पादप्रोञ्छनकम् , अत्र ‘पादप्रोञ्छन'-शब्देन · रजोहरणं गृह्यते, एवंरूपं निपद्यावस्त्रविवर्जितं रजोहरणं करोति कारयति 'करेंतं वा साइज्जई कुर्वन्तं वा स्वदते-अनुमोदते तस्य मासलघुकं प्रायश्चित्तं भवति, अतो रजोहरणदण्डं वस्त्रविवर्जितं स्वयं न कुर्यान्न वा. कारयेत् तथा-कुर्वन्तमन्यं वा नाऽनुमोदेत, इति ।। सू० १॥ भाष्यम्-दुविहं रयहरणं, उणियं च तहेयरं ।
उस्सग्गे पढमं गेझं, अपवाए य अण्णयं ॥
सग्गे पदों
५.
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निशीथसूत्रे
छाया-द्विविधं रजोहरण, औणिकं च तथेतरत् ।
उत्सर्गे प्रथम ग्राहा, अपवादे च अन्यत् ॥ अवचूरिः-'दुविहं' इत्यादि। रजोहरणं द्विविधम्-और्णिकं तथा इतरत्-तद्भिन्नं च । तत्रोत्सर्गमार्गे मौर्णिक ग्रहीतव्यम् । अपवादे-ऊर्णामयस्याऽलामे तु-अन्यत् भाषिकादिकमपि रजोहरण ग्रहीतव्यम् । रजोहरणं पञ्चविधं भवति–जाङ्गमिकं १, भाङ्गिकं २, शाणकं ३, पोतकं ४, तिरीटपटकम् ५ । तत्र जागमिकं-जङ्गमप्राणिकेशविनिर्मितं, यथा और्णिकम् औष्ट्रिकमित्यादि १ । भाङ्गिक 'पाट' इति लोकप्रसिद्धं यस्य तन्तुभिः कोत्थलकं निर्मीयते तन्निर्मितम् २ । शाणकं शणसूत्रनिर्मितम् ३ । पोतकम्-पोतो वस्त्रं, तन्निर्मितं कार्पाससूत्रनिर्मितमित्यर्थः ४, तिरीटपट्टकम्-तिरीट इति वृक्षविशेषः, तस्य त्वचाविनिर्मिततन्तुसम्पादितम् ५ । पुनरपि रनोहरणं त्रिविधम्-औत्सर्गिकम् १, आपवादिकम् २, तनुभयात्मकम् ३ । तत्र औत्सर्गिक सर्वात्मना मौर्णिकम् , आपवादिकम्-भाङ्गिकादिकं चतुर्भेदकम् । तदुभयात्मकम्--ऊर्णादिमिश्रितम् । एषां मध्यात्पूर्वपूर्वाभावे परात्परं रजोहरणं ग्राह्यम् । प्रतिमाधारी श्रावकस्तु निषधा-रजोहरणोपरिवेष्टनको वस्त्रविशेषः, तद्रहितदण्डिकायुक्तं रजोहरणं धारयति । साधुसाध्वीनां तु निषधारहितदण्डिकायुक्तं रजोहरणं कथमपि न कल्पते इति ।
तत्र-रजोहरणप्रमाणमाह-रजोहरणफलिकाया हस्तिनः पदन्यासस्य यावत् प्रमाणं भवेत् तावत्प्रमाणकं रजोहरणं कर्त्तव्यम् । दण्डिकाप्रमाणमाह--गमनसमये सुखपूर्वकं यया प्रमार्जयितुं शक्यते ताशप्रमाणा लम्बायमाना रजोहरणदण्डिका ग्राह्या । लधुदण्डिकया सम्यक् प्रमार्जनं न संमवति अत एव रनोहरणे लघुदण्डिका न धार्या । तथा--रजोहरणं परित्यज्य युगकाष्ठप्रमाणभूमितो दूरं न गन्तव्यम् । अप्रमार्जितभूमौ गमने चासमाधिस्थानदोपो भवतीति दशाश्रुतस्कन्धे भगवता प्रतिपादितमिति ॥ सू० १ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं गेण्हइ गेण्हतं वा साइज्जइ २ छाया-यो भिक्षुर्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं गृह्णाति गृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० २॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'दारुदंडयं पायपुंछणं' दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनम् निषद्यापरिवेष्टनरहितदारुदण्डयुक्तं रजोहरणम् 'गेण्हइ' स्वयं गृह्णाति 'गेण्हतं वा साइज्जई' गृह्णन्तं वा स्वदते, गृह्णाति ग्राहयति गृह्णन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तमाग्भवतीति ॥ सू० २ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ३
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चूणिभाष्यावचूरिः ॐ० २ ० ४-८
दारुदण्डकपादप्रोञ्छनप्रकरणम् ३५
छाया -यो भिक्षुर्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३ ॥ चूर्णी - 'घरेइ' धरति धारणं करोति घरन्तं वाऽनुमोदते । अन्यत्सुगमम् ॥ सू० ३॥ सूत्रम् - जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं वियरइ वियरंतं वा साइज्जइ ४
छाया - यो भिक्षुर्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं वितरति वितरन्तं वा स्वदते ॥ सू०४ ॥ चूर्णी - 'वियरइ' वितरति तत्र - वितरणं अन्यस्मै दानम् । अन्यत्सुगमम् || सू० ४ ॥ सूत्रम् - जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं परिभाएइ परिभाएंतं वा साइज्जइ || सू० ५ ॥
छाया -यो भिक्षुर्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं परिभाजयति परिभाजयन्तं वा स्वदते ॥५॥ चूर्णी - यो भिक्षुर्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं 'परिभाएइ' परिभाजयति-स्वार्थे णिच् विभजति, विभजनं- विभागकरणम् 'परिभाएंतं वा' परिभाजयन्तं वा विभजन्तं वाऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ५ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं परिभुंजइ परिभुजंतं वा सांई - ज्जइ ॥ सू० ६ ॥
छाया -यो भिक्षुर्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं परिभुङ्क्ते परिभुञ्जन्तं वा स्वदते ॥ ६ ॥
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चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुर्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं रजोहरणम् 'परिभुजइ' परिभुङ्क्ते, तत्र - परिभोगः परिभुञ्जनम् तादृशरजोहरणेन प्रमार्जनादिकार्य - संपादनम् । तथा-'परिभुजंतं वा साइज्जइ' परिभुञ्जन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ॥ सू० ६ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं परं दिवड्डाआ मासाओ धरेइधरेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७ ॥
छाया -यो भिक्षुर्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं परं द्वयर्थात् मासात् धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'दारुदंडयं' दारुदण्डकम् 'पाय पुंछणं पादप्रोञ्छनम् - वस्त्रवेष्टनरहितदा रुदण्डयुक्त रजोहरणम् कदाचित् - वस्त्राभावात् आगाढभयात्, अग्निदाहात्, राजप्रद्वेषाद्, अशिवादिकारणात्, तादृशोन्मादादिदोषग्रस्त शिष्योपसर्गाद्वा, इत्यादिकारणवशाद् यदि धारयेत् तदापि तत् सार्द्धमासपर्यन्तं धारयेत् । ततः परं दिव
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HALALAnurammarAmAna
निशीथसूत्र 'इडाओ मासाओ' द्वयर्धान्मासात् परमधिकं यदि धारणं ; करोति धरन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग भवति । उत्सर्गतो व्याघातितं ,रजोहरणं यः सार्द्धमासादधिककालपर्यन्तं धारयति, यद्वा धरन्तमनुमोदते स आज्ञाभङ्गदोप-मनवस्थादोपं मिथ्यात्वदोपमात्मविराधनं संयमविराधनं च प्राप्नोति ॥ सू० ७ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुछणं विसुयावेइ विसुयावेत वा साइजइ ।। सू०८॥
छाया-यो भिक्षुरुदण्डकं पादपोञ्छनं विशुष्कयति विशुष्कयन्तं वा.स्वदटे.॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः दारुदंडयं पायपुंछणं दारुदंडक निषधारहितं पादप्रोञ्छनं-रजोहरणम् 'विसुयावेइ' विशुष्कयति आतपे ददाति 'विमुयावेतं वा 'साइज्जइ' विशुष्कयन्तं वा स्वदते-आतपे ददतं वाऽनुमोदते, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोपा भवन्ति ।८।
सूत्रम्-जे भिक्खू अचित्तपइट्ठियं गंधं "जिग्घइ जिग्धंतं वा साइज्जइ.॥ सू० ९॥
छाया-यो भिक्षुरचित्तप्रतिष्ठितं गंधं जिघ्रति जिघन्तं वा स्वदते ॥ सू० ९॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'अचित्तपइद्वियं अचिचप्रतिष्ठितम् , 'अचित्ते वस्तुनि चन्दनकाष्ठादौ यत्र तत्र वा प्रतिष्ठितं विद्यमानम् 'गंध' गन्धम् सुगन्धम् 'जिग्घइ' जिप्रति, गन्धो द्विविधः-संवद्धः असंबद्धो वा, संवदो गन्धः सः ,यो नासिकासंबन्धेन आघ्रायते, असंबद्धो गन्धः स यो दूरतः समीपतो वा वायुद्वारा समागत आघ्रायते, अथवा संबद्धो गन्धः स यश्चन्दनकाष्ठादौ स्थितः, असंबद्धः सः यः गन्धद्रव्यापृथक्कृतश्चन्दनादीनां तैलरूपो निर्यास(अतर)रूपो वा, तं द्विविधमपि गन्धं रागेण द्वेपेण वा जिघ्रति, 'जिग्छतं वा साइजई' जिवन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते तस्याज्ञाभद्गादिका दोषा भवन्ति ॥ सू० ९ ॥ भाष्यम्-अचित्ते दबजाए जं, गंधजायं पवत्तए ।
अग्घाणं दुविहं तस्स, संवद्धं च तहेयरं ।। दुविहंपि गंधजायं, जिग्घई रागओ जई।
आणाभंगाइ पावेइ, मिच्छत्तं पडिवज्जइ ।। छाया-अचित्ते द्रव्यजाते यत् , गन्धजातं प्रवर्तते ।
आघ्राणं द्विविधं तस्य, संवद्धं च तथेतरत् । द्विविधमपि गन्धजातं, 'जिघ्रति रागतो यतिः। आशाभदादि प्राप्नोति, मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते ॥
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चूर्णिभाज्यावचूरिः उ० २ सू० ९-१०
गन्धाघ्राणपदमार्गादिनिरूपणम् ३७ अवचूरि:-'अचित्ते' इत्यादि । अचित्ते द्रव्यजाते शुष्कचन्दनकाष्ठादौ यत्र तत्र वाsन्यत्र गन्धजातं यत्किञ्चित्प्रकारकं सुगन्धजातं. प्रवर्तते, तस्य गन्धजातस्याऽऽघ्राणं द्विविधम्-द्विप्रकारकं भवति-संबद्धम् , तथा तदितरत् तद्भिन्नम् असम्बद्धम् ।।
अयं भावः-अचित्ते द्रव्ये यो गन्धस्तिष्ठति सोऽचित्तद्रव्यप्रतिष्ठितो गंधो यथा शुष्कचन्दनकाष्ठादौ, अन्यत्र वा तैलादौ वर्तमानः, तस्य गन्धस्याऽऽघ्राणं दिप्रकारकम् यथा-नासाग्रसंवद्धस्य नासामाऽसंबद्धस्य च, अथवा चन्दनकाष्ठादिस्थितस्य, ततः पृथक्कृतस्य तैलनिर्यासादिरूपस्य वा आघ्राणम् । तद् यथा-कश्चिन्नासापुटसंलग्नं कृत्वा जिघ्रति, कश्चिन्नासातो दूरेऽवस्थित चायुद्वारा समागतं वा, अथवा संबद्धं चन्दनकाष्ठादिस्थितम् , असंबद्धं तत्पृथकूकृतं तैलनिर्यासादिरूपं वा यो यतिः-मुनिः जिघ्रति तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति । तथाहि-तीर्थकराज्ञां समुल्लङ्घयति, मिथ्यात्वं च प्राप्नोति तत्र संयमात्मविराधनासद्भावात् । तत्र संयमविराधनाइत्थम्-नासिकानिःसृतसुगन्धनिःश्वासेन वायुकायगतजीवानां विराधनं भवतिः। आत्मविराधनं यथा-तस्मिन् गन्धे यदि विपं भवेत् , तदा तदाघ्राणे आत्मविराधनमपि संभवति । यथा-सुगन्धितद्रव्यलोलुपाः समागताः सर्पादयो दंशनं कुर्युः। सचित्तप्रतिष्ठितगन्धाऽऽत्राणं तु प्रथमोद्देशे एकादशे सूत्रे निषिद्धमेव, इति ॥ सू० ९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पदमग्गं वा संकमंवा आलंवणं वा सयमेव करेइ करेंतं वा साइज्जइ ।। सू० १०॥
-छाया-यो भिक्षुः पदमार्ग वा संक्रम:वा-आलम्बनं वा स्वयमेव करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पदमग्गं वा' पदमार्गपदमार्गः-पादस्थापनार्थ मृत्तिकादि प्रक्षिप्य गमनागमनार्थ मार्गः क्रियते तम्, स सोपानमिति कथ्यते । पदमार्गादित्रयाणामपि पदानां विस्तरतोऽथ करिष्यति भाष्यकारः । संकम वा' संक्रम-वा, -संक्रमः . कर्दमाद्युल्लद्धनाथ काष्ठेष्टिकादिस्थापनरूपस्तम् । 'आलंवणं वा' मालम्बनं वा, आल. म्बनम्-यदालम्ब्य कर्दमग दिकमुल्लवयते तत् मुञ्जशणादिनिर्मितरन्जुरूपं, तत् 'सयमेव करेई' स्वयमेव करोति । अन्यतीथिंकगृहस्थैः कारितपदमार्गादीनां निषेधः प्रथमोद्देशे गतः, अतोऽत्र 'स्वयमेव' इति प्रोकम् , एवमग्रेऽपि बोध्यम् । 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा स्वदते तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा - भवन्ति ॥ सू० १० ॥ भाप्यम् --पदमग्गो संकमो य, आलंवण तहेव य.।
. तिविहंपि करे मिक्खू, 'आणाभंगाइ पावई ॥
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निशीथस्वे छाया--यो भिक्षुः सौत्रि या रज्जुकं वा चिलमिलि स्वयमेवः करोति कुर्वन्त वा स्वदते ॥ सू० १३ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा सौत्रिकी कार्पाससूत्रोर्णासूत्रसम्पादितां वा, रज्जुकां वा कार्पासादिसूत्रनिर्मितदवरिकासंपादितजालिकासम्पन्नां वा चिलिमिली आच्छादनपटरूपां स्वयं करोति अन्यद्वारा वा कारयति कुर्वन्तं वाऽन्य' श्रमण: मनुमोदते सः प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सूईए उत्तरकरणं सयमेव करेइ करेंत वा साइज्जइ। छाया-यो भिक्षुः सूच्या उत्तरकरण स्वयमेव करोति कुर्वन्तं वा स्वदते । सू०१४ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे मिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सूईए' सूच्याः उत्तरकरणं, तत् पञ्चविधं भवति, तथाहि-छिद्रवर्धनम् १, श्लक्षणकरणम् २, तीक्ष्णकरणम् ३, लोहंकारालायां गत्वा तापनम् ' ४, ऋजुकरणं ५ चेति । एतत् पञ्चविधमप्युत्तरकरणं सूच्या स्वयं साधुः साध्वी वा करोति कुर्वन्तं वाऽन्यं श्रमणमर्नुमोदते स'दोपभोग भवतीति । सू० १४ ॥
सूत्रम्-एवं पिप्पलगस्स उत्तरकरणम्।। सू० १५॥णहच्छेयणगस्स उत्तरकरणम् ।। सू० १६ ॥ कण्णेसोहणगस्स उत्तरकरणम् ।। सू०१७॥
छाया-एवं पिप्पलकस्योत्तरकरणम् ॥ सू6 १५ ॥ नखच्छेदनकस्योत्तरकरणम् । सू० १६॥ कर्णशोधनकस्योत्तरकरणम्। सू० १७॥
चूर्णी-चिलिमिलिकामारभ्य कर्णशोधनकपर्यन्तं पञ्चसूत्री प्रथमोद्देशे कथिता मत्र पुनः सैव कथ्यते, तत्र को हेतुरिति चेत् अत्रोच्यते-तत्राऽन्यतीर्थिकद्वारा गृहस्थद्वारा वा करणं कारणं कुर्वतोऽनुमोदन च निषिद्धम् , अत्र तु-स्वयं करणं कुर्वतोऽनुमोदनं च निषिध्यते । एतावान् भेदोऽतो न पुनरुक्तिः व्याख्या सुगमा || सू० १७ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू लहुस्सगं फरुसं-वयइ वयंतं वा साइज्जइ॥१८॥ छाया-यो भिक्षुः लघुस्वकं परुपं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू०१८॥
चर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'लहुस्संग फरुसं। लघुस्वक परुपम् ईपदपि कठोरं वचनम् 'वयइ' वदति- 'वयंत वा साइज्जई' वदन्तं वा स्वदतेऽनुमोदने स स्नेहवर्जितकठोरवचनवक्ता प्रायश्चित्तभार भापासमिति विराधयति ॥ सू०१८॥ भाष्यम्-फरसं चउहा णेयं; दवे खेत्ते य कालगे।
भावे जहक्कम चोच्छं, जहासत्थं वियारियं ॥ छाया--परुपं चतुर्धा शेय, द्रव्ये क्षेत्रे च कालके ।
भावे यथाक्रमं वक्ष्ये, यथाशास्त्रं विचारितम् ॥
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ० २ ० १८-१९
परुषवाद - मृषावादनिषेधः ४१
तथा - भावे
अवचूरिः--'फरुसं' इत्यादि । परुष कर्कशं वचनं चतुर्विधम् चतुष्प्रकारकं ज्ञेयं भवतीति ज्ञातव्यम् । द्रव्ये - द्रव्यविपये, क्षेत्रे - क्षेत्रविषये च, तथा - काले-कालविषये, भावविषये, परुषवचनस्यैतेषु विषयेषु चातुर्विध्यं यथाशास्त्रम् - शास्त्रप्रकारमनतिक्रम्य विचारितं तीर्थकर गणधरैः कथितं तद् यथाक्रमं वक्ष्ये कथयिष्यामि इति ॥ सू० १८ ॥ पुनर्भाष्यकारः पूर्वोक्तपरुषस्य द्रव्यादिभेदान् विशदयति-- 'दव्वे ' इत्यादि । भाष्यम् - दव्वे वत्यम्मि पत्तम्मि, खेत्ते संधारयाइनु ।
काले तीesणागए य, भावे कोहाइ संमयं ।।
छाया - - द्रव्ये वस्त्रे पात्रे क्षेत्रे संस्तारकादिषु ।
कालेऽतीतेऽनागते च भावे क्रोधादि संमतम् ॥
अवचूरिः - द्रव्ये - द्रव्यविषये - वस्त्रपात्रादिपु, यहा जीवादिपु द्रव्येषु परुषवचनं भवति । तद्यथा - वस्त्र - पात्र - सूच्यादिपु - आत्मन एतान् - अपश्यन् एवं भणति ममैव विद्यते - इति कृत्वा ईर्ष्याभावेन वदति - ' ममासने को निद्रां लभते ?' पुनश्च ईर्ष्याभावेन 'मम वस्त्रादि तेन हृतम्' इत्येवं द्रव्यतो लघुस्वकं परूपं भापते १ ।
क्षेत्रे संस्तारका दिपु क्षेत्रतः परुषमेवं भवति यथा - कश्चित्साधुः स्वकीयस्य संस्तारशय्यावसतिषु पुरुषान्तरमुपविष्टं दृष्ट्वा वदति - को मम संस्तारादिपु स्थितः स्वकीयं जानानः ? | अथवा — स्वकीयासने उपविष्टं कमपि साधुं दृष्ट्वा वदति - कथं मम संस्तारके स्थितोऽसीति २ ।
काले यथा -- कमपि साधु बहिर्गन्तुमनसमुत्तिष्ठन्तं ब्रवीति - नेदानीं गमनस्य कालो विद्यते केन मूर्खेण कथितं यत् - इदानीं गमनकालः । यद्वा-गमनकाले उपस्थिते दुर्योधा एते साधवः इदानीमपि विलम्बते इति । यद्वा-यस्य स्वाध्यायादेर्यः कालस्तस्मिन् कश्चित् स्वाध्यायादिकं कर्तुं व्यवसितः, त प्रति वदति - नेदानीं कालो विद्यते स्वाध्यायस्य तत्र यदि कश्चिक्कि - ञ्चिदुत्तरं ददाति तदा भोः अभिमानिन् ! किं निरर्थकं वदसि ? इति परुपं ब्रूते । अथवा - आचार्येण पूर्वमादिष्टे औषधानयने अन्यस्तत्र गन्तुकामं साधुं पृच्छति - यत् त्वं गच्छसि औषधमानेतुम् ?, स पृष्टः साधुः परुपाक्षरं ब्रूते-नेदानीमौषधानयनकालो विद्यते धैर्य धारय, कथमेवं त्वरां कुरुषे ? । यद्वा- - कश्चित्साधुर्वस्त्रपात्रादिकमानेतुं गुरुणाऽऽज्ञप्तः तेनाssनीतं वस्त्रपात्रादिकम्, तद्दृष्ट्वा - ईर्ष्यालु - रन्यो वदति-केनैतदानीतम् ! स वदति - मयाऽऽनीतम् । तत् श्रुत्वा - ईर्ष्यालुनाऽनादरं कुर्वतोक्तम्भोः किमर्थं त्वमानेष्यसि, नायं कालो वस्त्राद्यानयनस्य त्वं तु काष्ठपापाणवज्जडो लब्धिरहितश्च । एवं प्रकारेण कालविषये परुषं वदति - इति ३ ।
भावे, परुषं क्रोधादिकम्, यतः क्रोधलोभादिमन्तरेण द्रव्यादिष्वपि परुषं न संभवति, क्रोधादि - मूलकतयैव सर्वत्र परूपवचनस्य संभवः ।
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निशोथसूत्रे
अत्र शिष्यः प्राह---यथेवं तदा भावपरुषमेव वक्तव्यम् द्रव्यादिषु परुषत्वं कथं कथ्यते ! आचार्यः प्राह--द्रव्यादिपु - उपचारकरणमात्रम् यतस्ते क्रोधादयो द्रव्यादिसमुत्थिता एव भवन्ति, तथा च क्रोधादौ भावे मुख्यं परुपत्वम्, क्रोधादिकारणे, तु द्रव्यादौ - उपचारात् परुषत्वं भवति । यः साधुरेतेषामन्यतमं परुषमीपदपि वदति, स आज्ञाभङ्गानवस्थात्मसंयमविराधनं प्राप्नोति तथा-मिथ्यात्वं च समापद्यते अतः साधुभिरेतादृशं परुषवचनं न वक्तव्यम् ॥ सू० १८ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू लहुस्सगं मुखं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १९ ॥
छाया - -यो भिक्षुर्लघुस्वकं मृषा वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू० १९ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'लहुस्सगं' लघुस्वकं स्तोकमल्पमपि, ‘म्रुसं’ मृषाऽसत्यवचनम् 'वयम्' वदति-अल्पमप्पसत्यभाषणं करोतीत्यर्थः, 'वयंतं वा साइज्जइ' वदन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चितभाग् भवति, तस्याज्ञाभङ्गादिदोषा भवन्ति ॥ सू० १९ ॥ अत्राह भाष्यकारः -- 'दव्वे' इत्यादि ।
भाष्यम् - दव्वे खेत्ते तहा काले, भावे यत्ति चउन्विहा । जहासत्थं मुसाभासा, तीए भेया- जहक्कमं ॥
छाया - द्रव्ये क्षेत्रे तथा काले भावे चेति चतुर्विधा ।
यथाशास्त्रं मृपाभाषा तस्या भेदा यथाक्रमम् ॥
अवचूरि:- मृपाभाषा असत्यभाषणं, यथाशास्त्रं शास्त्रोक्तप्रकारेण चतुविधा चतुष्प्रकारा भवतीति ज्ञेया । तथा - तस्या मृषाभाषाया भेदा यथाक्रमं आनुपूर्व्या क्रमेणेत्यर्थः, ज्ञातव्या इति । तत्र द्रव्ये - वस्त्रपात्रादिपु, क्षेत्रे - संस्तारकवसतिप्रभृतिपु, काले- अतीतेऽनागते वर्त्तमाने च भापादिषु । तत्र - द्रव्ये यथा - वस्त्रे पात्रं सहसा वदेत्, पुनरेवं वदेत्-नेदं तव किन्तु ममेदं वस्त्रं पात्रं वेति द्रव्यभूतोऽनुपयुक्त एव वदेत् ।
स्मथवा-- वस्त्रं पात्रं वा परेण समुत्पादितम् परन्तु -- अनानीतमपि पृष्टः सन् एतत्सर्वं वस्त्रपात्रादिकं मयाऽऽनीतम्, एवं क्रमेण द्रव्ये मृषा वदति । एवं क्षेत्रे यथा-- रजन्यां तमसावृतायां संमूढः परस्य संस्तारकादिकं ममेदमिति ज्ञात्वा त्वमितो निःसरेति मृपा वदति । यद्वा-मासकल्पप्रायोग्यं वा वर्षावासप्रायोग्यं वा वसत्यादिकं ऋतुकालप्रायोग्यं वाऽन्येनोत्पादितं मयोत्पादितमित्येवं वदति, एपा क्षेत्रविपये मृषाभाषा । काले-- मृषावादो यथा - एकः कश्चित् श्रद्धाशील एकेन साधुना उपशामितः, तदनु-- अन्येन साधुना पृष्टः - केन श्रमणेनायं श्रावक उपशामितः ? तदा कथयति परः साधुः - अन्यदा कदाचिद् विहरता सता मयैप श्राद्ध उपशामितः । एवं भावेऽपि -- कषायवशेन वदतीति ज्ञातव्यमिति । एतेषां द्रव्यक्षेत्रादिभेदभिन्नानां मध्यात्--अन्यतममपि मृपावादं वदति तस्य भिक्षुकस्याऽऽज्ञाभङ्गानवस्थामिध्यात्वसंयमात्मविराधनादयो दोपा भवन्तीति ॥ सू० १९ ॥
કર
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०२ सू० २०-२२ अदत्तादान-हस्तादिप्रक्षालन-चर्मधारणनिषेधः ४३
सूत्रम्-जे भिक्खू लहुस्सगं अदत्तमादियइ आदियंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २०॥
छाया-यो भिक्षुर्लघुस्वकमदत्तमाददाति आदतं वा स्वदते ॥ सू० २०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'लहुस्सगं' लघुस्वकम् स्वल्पमपि, अदत्तं तत्स्वामिनाऽप्रदीयमानम् 'आदियइ' आददाति--गृह्णाति, 'आदियंतं वा' आददतं वा स्वदते- स्तोकमपि--अदत्तादानं कुर्वन्तं श्रमणमनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ॥ सू० २० ॥ भाप्यम्-दव्वे खेत्ते तहा काले, भावे चेयं चउन्विहं ।
___एएसिं च जहासत्थं, णाणतं अवगम्मइ ॥ छाया-दवे क्षेत्रे तथा काले भावे चैतच्चतुर्विधम् ।
एतेषां च यथाशास्त्रं नानात्वमवगम्यते ॥ अवचूरी-'दव्ये' इत्यादि । मदत्तम् अदत्तादानं चतुर्विधम्-द्रव्यक्षेत्रकालभावैः चतुष्प्र. कारकं भवति । तत्र द्रव्ये-वनपात्रादौ. क्षेत्रे -वसत्यादौ, काले-अतीतादौ, भावे--भावविषयेरागादौ । एतेषां द्रव्यादिविषयकादत्तादानानां नानात्वम्-अवान्तरभेदो यथाशास्त्रं शास्त्रोक्तप्रकारेणाऽवगम्यते-बुध्यते ।। सू० २० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू लहुस्सएण सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा हत्थाणि वा पायाणि वा कण्णाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा नहाणि वा मुहं वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ।। सू०२१॥ ' - छाया-यो भिक्षुर्लधुस्वकेन शीतोदकविकटेन वा-उण्णोदकविकटेन वा हस्तौ वा पादौ चा कर्णों वा अक्षिणी बा दन्तान् वा नखान् वा मुखं वा, उच्छोलेद्वा प्रधावेद्वा उच्छोलन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते ॥ सू० २१ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'लहुस्सएण' लघुस्वकेन-स्वल्पेन विन्दुमात्रेणाऽपि 'सीओदगवियडेण वा' शीतोदकविकटेन वा, अत्र विकटशब्दोऽचित्तवोधकः, व्यपगतजीवेन' जलेनेत्यर्थः, तण्डुलधावनाद्यचित्तजलेनेति यावत् । 'उसिणोदगवियडेण वा' उष्णोदकविकटेन वा अचित्तेनोप्णजलेनेत्यर्थः । तथा चोपर्युक्तजलेन भिक्षुः 'हत्याणि वा हस्तौ वा 'पायाणि वा' पादौ वा 'कण्णाणि वा' कर्णौ वा 'अच्छीणि वा' अक्षिणी वानेत्रे वा 'दंताणि वा' दन्तान् वा 'नहाणि वा' नखान् वा 'मुहं वा' मुखं वा 'उच्छोलेज्ज
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४४
निशीथसूत्रे वा' उच्छोलेत्-प्रक्षालयेत्, हस्तपादाघवयवानामेकवारं प्रक्षालनं जलेन कुर्यादित्यर्थः । 'पधोवेज्ज वा' प्रधावेद्वा-वारंवारं हरतादीनां प्रक्षालनं कुर्यादित्यर्थः
'उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ' उछोलन्तं वा प्रधावन्तं वा प्रक्षालयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागिति ॥ सू० २१ ॥ भाष्यम्-उच्छोलणं च दुविह, देसओ सवओ तहा ।
___ जहासत्थं च णायव्वा, तस्स भेया जहक्कम ॥ छाया-उच्छोलनं च द्विविधं देशतः सर्वतस्तथा ।
यथाशास्त्रं च ज्ञातव्यास्तस्य मेदा यथाक्रमम् ॥ अवचूरिः–'उच्छोलणं' इत्यादि, । उच्छोलनम्-प्रक्षालनम् , तद् द्विविधं-द्विप्रकारकं भवति । तद्यथा-देशतो-देशविषयकम् । तथा-सर्वतः-सर्वविषयकम् । तस्य देशादिप्रक्षालनस्य भेदप्रभेदाः यथाशास्त्रं-सर्वज्ञप्रतिपादितशास्त्रात् , यथाक्रम क्रमेण ज्ञातव्याः। तथाहि-प्रथमतः 'उच्छोलने प्रक्षालनं द्विविधम् -देशतः सर्वतश्च । तत्र-पुनर्देशविषयकं द्विविधम्-आचीर्णमनाचीर्ण च । तत्र ज्ञातजिनागमश्रमणैराचर्यते यत् तत् आचीर्णम् । एतद्विपरीतमनाचीर्णम् । पुन चाऽऽचीर्णं देशप्रक्षालनं कारणाद्भवति निष्कारणाद्वा । यत्पुनः कारणे सति भवति तत्पुनदि विधम् , यथा-अशनादिना लेपकद्रव्येण हस्तमात्रं लिप्तम् , तत्प्रक्षालने यदि मणिबन्धतः प्रक्षालयति । एतत्सकारणक देशप्रक्षालनम् । यदि वा-यावन्मानं शरीरावयवरूपं हस्तपादादिकमशुचिद्रव्येण लिप्तं भवति तावन्मात्रमेव प्रक्षालयति । एतदपि सकारणकं देशप्रक्षालनम् । निष्कारणं तु-एतद्विपरीतम् , यथा-अशुचिद्रव्येण चरणमात्रं लिप्तम् किन्तु-प्रक्षालनं तु सपूर्णस्य शरीरस्य करोति । तत्राऽधिकदेशस्य प्रक्षालनमकारणमेव । प्रक्षालयितव्यदेशादधिकदेशप्रक्षालनस्य निष्प्रयोजनवादेतद् अनाचीर्णमिति ॥ सू० २१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कसिणाणि चम्माइं धरेइ धरतं वा साइज्जइ । छाया-यो भिक्षुः कृत्स्नानि चर्माणि धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० २२ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खु यो भिक्षुः 'कसिणाणि' कृत्स्नानि संपूर्णानि अखण्डानीत्यर्थः 'चम्माई' चर्माणि मृगादीनाम् 'धरेइ' धरति-पार्श्वे स्थापयति, उपयोगे आनयति वा, 'धरेतं वा साइजइ' धरन्तं-पार्श्वे स्थापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागभवति ।। सू० २२ ॥ भाष्यम्-कसिणं चउहा वुत्तं, सयलाइपभेयो ।
चउन्विहस्स चम्मस्स, धारणं नेव कप्पइ ।।
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चूर्णिभाष्यावेचूरिः उ० २ सू० २३
कृत्स्नवस्त्रधारणनिषेधः ४५
M
छाया--कृत्स्नं चतुर्धा प्रोक्तं, सकलादिप्रमेदतः ।
चतुर्विधस्य चर्मणो धारणं नैव कल्पते ॥ अवचूरिः- 'कसिणं' इत्यादि । कृत्स्नं चतुर्धा-चतुष्प्रकारकं प्रोक्तं भवति सकलादिप्रभेदतः, तद्यथा-सकलकृत्स्नम्-१, प्रमाणकृत्स्नम् २, वर्णकृत्स्नम् ३, बन्धनकृत्स्नं ४ च । एतत् चतुर्विधं कृत्स्नं भवति । एतच्चतुर्विघस्य-चतुष्प्रकारकस्याऽपि कृत्स्नस्य चर्मणो धारणं भिक्षणां न कल्पते ।। सू० २२॥ भाष्यम्-एगपुड सयलकसिणं १, पमाणकसिणं २ च होइ दुपुडाई।
कोसग-खल्लग-चगुरी-खवुसा-जंघ-दजंघा य ।। किसणाइपंचवण्णगचम्मेणं निम्मियं च वण्णकसिणं ३।
बंधणकसिणं जमिहा, बंधणतिगओ परं चउत्थाई ४ ॥ छाया-पकपुटं सकलं कृत्स्नं, प्रमाणकृत्स्नं च भवति द्विपुटादिकं ।
कोशक-खल्लक-वागुरी-खपुसा-जा-5 जवा च ॥ कृष्णादिपञ्चवर्णकचर्मणा निर्मितं च वर्णकृत्स्नम् ।
वन्धनकृत्स्नं यदिह बन्धनविकतः परं चतुर्थादि ॥ अवचूरिः-'एगपुड' इत्यादि । तत्रैकपुटम्-एकतलमखण्डितं सकलकृत्स्नं भवति । द्विपुटादिक-व्यादितलादिकम् यत्रोपानहादौ तत्प्रमाणकृत्स्नं भवति । अस्यैव प्रमाणकृत्स्नस्य भेदानाह-तद्यथा-कोशक-खल्लक-वागुरी-खपुसा जवाऽर्द्धजधाप्रभृतिका लोके व्यवहियमाणा मेदाः, तत्र-कोशकं-चर्ममयं (कोथली-थैली) इतिप्रसिद्धम् , यस्मिन् प्रवेशित
चरणागुलिनखो मार्गे संचलतो न भज्यते-न भियते तत् , सा च चर्ममयी कुत्थलिका ११ खल्लकम्अत्र पुनी भेदौ-अर्द्धखल्लक, सर्वखल्लकं च । तत्र-तलप्रतिबद्धं यावत्खल्लकैरनुस्यूतं यत्रोपानहि साऽर्द्धखल्लकोपानत् , या च-समस्तमेव चरणमाच्छादयति सा सर्वखल्लकोपानत् २ । या च पुनरङ्गली छादयित्वा चरणावुपरि छादयेत् सा वागुरी वागुरा वा ३ खपुसा सा या जानु पिदधाति-छादयति ४) या जबापर्यन्तमाच्छादयति सा जहा समस्तजधेति यावत् ५ । जवाया अर्द्धभागमेव याऽऽच्छायेत्साऽर्द्धजचोपानत् ६ । इति प्रमाणकृत्स्नमिति द्वितीयो भेदः २। ॥१॥
सम्प्रति भाष्यगततृतीयभेदमाह-'किसणाई' इत्यादि, यत् पुनश्चम वर्णेन कृष्णादिना शोभां पुष्णाति तत् वर्णकृत्स्नम्, तच्च वर्णकृत्स्नं चर्म कृष्णादिवर्णेन पञ्चविधं भवति, वर्णस्य पञ्चविधत्वात् ३। बन्धत्रयात्परं चतुर्थादिबन्धनयुक्तं यत् तद् बन्धनकृत्स्नं भवतीति चतुर्थों भेदः । इत्थं सकलचर्मनिर्मितोपकरणानामुपानहादीनां च धारणं साधूनां न कल्पते इति दिग्दर्शनम् ।। सू० २२ ॥
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निशोथसूत्रे
विशेषत उपानद्धारणे दोषान् दर्शयति-गन्चो' इत्यादि। भाष्यम्-गयो निम्मदवया, निप्येक्खो य णिय-णिरंतरया ।
भूयाणं उवधाओ, कसिणे चम्मम्मि छडोसा ॥ छाया~गों निर्मार्दवता निरपेक्षो निर्दय-निरन्तरता।
भूतानामुपधातः कृत्स्ने चर्मणि षडू दोषाः ॥ अवचूरि:- गर्व:-उपानहा सनद्धचरणः पुरुषोऽश्वादावारूढः पादचारिणं पुरुषमिवानुपानहमनादृत्य स्वस्मिन् गर्व धारयति-यदहमेतेभ्यो गरीयान् उपानद्यां चलामि, एते रङ्का उपानविहीनाः, इत्थमुपानद्धीनं पुरुषं विलोक्य सर्वदैव गर्वयुक्तो भवति ११ निर्दिवता-उपानदरहितचरणाम्यां सचलन् चरणस्य मृदुत्वेन न तथा जीवोपघाताय भवति यथा उपानद्यां संनद्धचरणा मार्दवराहित्येन कठिना अधिकमाराकान्ता जीवोपघाताय भवन्ति । एतावता गर्यो निर्दित्वं च व्याख्यातम् २१
निरपेक्ष इति यस्य चरणे-उपानही न स्तः स मार्ग विलोक्य व्रजति, अन्यथा चलने मम चरणे कण्टकादिवेधः स्यात् , इति कण्टकवेधभयात् सोपयोगचलति, चलन जीवोपरि उपयोगं ददत् जीवसद्धं रक्षति । यदा तूपानझ्यामाच्छादितचरणो व्रजति तदा निरपेक्षतया चलन् निरपायत्वादात्मनः कण्टकादिकमुपेक्षमाणो जीवेण्वप्युपेक्षा करोति ३॥
'नियनिरंतरया' इत्येकपदत्वात् 'ता' इत्यस्य द्वयोरपि सम्बन्धः, तेन निर्दय इति निर्दयता | आदौ यदाऽऽत्मनो मनसि निर्दयत्वं कृतं भवति तदा चरणयोरुपानही धरति; एवंप्रकारेण स्वभावतो दयालरपि पुरुषः कठोरो भवति, इति दयापरस्यापि तस्य निर्दयता समागच्छति, इत्थं निर्दयत्वं भवति ।
निरन्तरता-उपानसनद्धपादेन पडूजीवनिकायानां विनाशस्याऽवश्यम्भावात् निरन्तरता पापबन्धस्य नैरन्तर्यात् , इति । शुद्वेन चरणेन यदा भूमौ चलति तदा भूतानां विराधनं न भवति । उपानद्वेष्टितचरणतलगतो जीवः कदापि न जीवति कठिनत्वात् , अतिभारत्वात् , अवकाशाऽभावाच्चेति ५।
. भूतोपघातश्चेति-स्वभावतो दुर्बलदेहाना कोमलाऽवयवानां भूमौ चलतां लघुजीवानां सोपानकचरणैरुपघाती भवत्येव, इति षष्ठो भूतोपघातदोषोऽप्यवश्यम्भावी ६। यत इमे दोषा उपानद्वारणे ततो भिक्षुभिरुपानद्वारणं नैव कर्त्तव्यमिति विवेकः ॥ सू० २२ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कसिणाणि वत्थाई धरेइ घरे वा साइज्जइ ॥ छाया-यो भिक्षुः कृत्स्नानि वस्त्राणि धरति धरन्तं चा स्वदते ॥ स्० २३ ॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः 'कसिणाणि वत्थाई' कृत्स्नानि घनाणि, तत्र-प्रमाणादधिकानिः वस्त्राणि कृत्स्नवस्त्राणि 'धरेई' धरति, कृत्स्नवस्त्राणामुपभोगं
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २ सू० २४
अभिन्नवस्त्रधारणनिषेधः :४७ करोतीत्यर्थः। 'धरेंतं वा साइज्जई' धरन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुः प्रमाणातिरिक्तवस्त्राणां धारणं करोति, कारयति, कुर्वन्तं वाऽन्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ।। सू० २३ ॥ भाष्यम् कसिणं दव्य खेत्ते य, काले भावे चउन्विहं ।
दुविहं दवकसिणं, सयलं च पमाणगं ॥ छाया-कृत्स्नं द्रव्ये क्षेत्रे च काले भावे चतुर्विधम् ।
द्विविधं द्रव्यकृत्स्नं सकलं च प्रमाणकम् ॥ अवचूरिः-'कसिणं' इत्यादि। प्रकृतसूत्रघटककृत्स्नं चतुर्विधम् चतुष्प्रकारकं भवति । प्रथमं द्रव्ये-द्रव्यकृत्स्नम् १, द्वितीयं क्षेत्रे-क्षेत्रकरस्नम् २, तृतीयं काले-कालकृन्स्नम् ३, तथा चतुथे भावे-भावकृत्स्नम् ४। तत्र चतुष्प्रकारककृत्स्नेषु मध्ये द्रव्यकृत्स्नं द्विविधम् द्विप्रकारकं भवतिसकलकृत्स्नम् , प्रमाणकृत्स्नं च । तत्र-सकलकृत्स्नं नाम' यद्वस्त्रं धनं-तन्तुभिर्यनिष्ठं चिक्कणम्अतिकोमलम् , तथा-अखण्डितं पूर्व तन्मध्यान्न केनापि गृहीतं परिपूर्णमित्यर्थः, एतादृशं सदशिकं 'थान-ताका' इत्यादिरूपेणाऽखण्ड यद्वस्त्रं तत्सकलकृत्स्नमिति कथ्यते । एतच्च सर्वोत्कृष्टत्वान्न ग्राह्यम् । एतादृशानि सकलकृत्स्नानि वनाणि गृहस्थेभ्यः खण्डयित्वाऽऽनीतानि जघन्यमध्यमो. त्कृष्टरूपाणि मुखवत्रिकाचोलपट्टकप्रावरणादीनि साधुना न धारणीयानीति भावः । अथ प्रमाणकृत्स्नमाह-यद्वनम्-आयामतो द्विसप्ततिहस्तमित, विस्तारतश्चतुर्विशत्यङ्गुलकहस्तप्रमाणकम् , निर्मन्थीनां पण्णवतिहस्तप्रमाणम् प्रमाणकृत्स्नमिति कथ्यते, तन्न धारणीयं न च प्रायमिति ।। सू० २३ ॥
सम्प्रति-क्षेत्रकृत्स्नं प्रदर्शयति-'जं वत्थं' इत्यादि । भाष्यम्-जं वत्थं जत्थ देसे उ, दुल्लहं बहुमोल्लगं ।
___कसिणं खेत्तजुत्तं तं, जहन्नुक्कोसमज्झिमं ॥ छाया-यद्वस्त्रं यत्र देशे तु, दुर्लभं बहुमूल्यकम् ।
कृत्स्नं क्षेत्रयुक्तं तद् जघन्योत्कृष्टमध्यमम् ॥ अवचूरि:-यद् वस्त्रं कार्पासादिकं यत्र-यस्मिन् देशे मगधादौ दुर्लभं प्राप्त्ययोग्यं महर्षितं च, तद्वस्त्रं तेन क्षेत्रेण-देशादिना युक्त क्षेत्रकृत्स्नमिति कथ्यते । यथा-हस्तकतितकार्पासिकसूत्रनिर्मितं वस्त्रं संप्रति 'खद्दर' इति लोकप्रसिद्धम्-उत्तरविहारदेशेऽतिसुलभम् अल्पमूल्यसाभ्यं च, तदेव वस्त्रं गुर्जरद्रविडादौ देशे दुर्लभं भवति तत्क्षेत्रकृत्स्नमिति कथ्यते । तदपि बहुमूल्यं सत्न कल्पते । तदपि क्षेत्रकृत्स्नं वस्त्रं त्रिप्रकारकम् जघन्य-मध्यमो-कृष्टभेदात् , इति । एवं यद्वस्त्रं यस्मिन् काले महर्षितं दुर्लभं च तद्वस्वं तस्मिन् काले कालकृत्स्नं भवति । एतदपि जघन्यादिभेदात् त्रिविधं बहुमूल्यं न कल्पते इति विवेकः ॥ सू० २३ ॥
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निशीथसूत्रे सम्प्रति भावकृत्स्नं दर्शयति- 'दुविई' इत्यादि । भाष्यम्-दुविहं भावकसिणं, वण्णमुल्लपमेयो ।
वण्णओ पंचहा वुत्तं, मोल्लो तिविहं मयं ॥ छाया-हिविध भावकृत्स्नं वर्णमूल्यप्रभेदतः ।
वर्णतः पञ्चविधं प्रोक्तं मूल्यतस्त्रिविधं मतम् ।। अवचूरिः-भावकृत्स्नं द्विविधं-द्विप्रकारकं भवति, वर्ण-मूल्य-भेदात् । वर्णकृत्स्नम् , मूल्यकृत्स्नं च, तत्र-वर्णकृत्स्नं पञ्चविधम् पञ्चप्रकारकं भवति , वर्णानां पञ्चप्रकारकत्वात् । मूल्यकृत्स्नं तु त्रिप्रकारकं भवति जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदादिति ॥ सू० २३ ॥
तत्र वर्णत इदम्भाष्यम्-पंचण्डमवि वण्णाणं, वण्णढण्णयरेण जं ।
कसिणं वण्णजुत्तं तं, जहन्नुक्कोसमज्झिमं ॥ छाया-पञ्चानामपि वर्णानां वर्णाढयमन्यतमेन यत् ।
___ कृत्स्नं वर्णयुक्तं तत् जघन्योत्कृष्टमध्यमम् ।।
अवचूरि:-'पंचण्हमवि' इत्यादि । पञ्चाना-पञ्चप्रकाराणां कृष्ण-नील-रक्त-पीतशुक्लमेदभिन्नवर्णानां मध्यात् येन केनचित्कृष्णादिना वर्णेन-आढ्यमतिशयेन युक्तम् यथा-कृष्णंपुंस्कोकिलतुल्यम् , नीलं-शुकपक्षसन्निभम् , रक्तम्-इन्द्रगोपकीटसन्निभम् , पीत-तापितस्वर्णसदृश, शुक्लं-शशशशाङ्कतुषारसन्निभम् । तदेवं विविधवर्णयुक्त वर्णकृत्स्नमिति कथ्यते । तदपि वर्णकृत्स्नं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रिप्रकारकम् । तस्मात्-कृष्ण-नील-रक्त-पीत वस्त्रं कदापि न ग्राह्यम् , शुक्लं तु ग्राह्य, तदपि शास्त्रदर्शितमेव साधारणं शुक्लं ग्राह्यम्, तदपि बहुमूल्यं न ग्राह्यम्-इति ॥ सू० २३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अभिण्णाई वत्थाई धरेइ धेरैतं वा साइज्जइ।२४॥ - छाया-यो भिक्षुरभिन्नानि वस्त्राणि धरति घरन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अभिण्णाई वत्थाई' अभिन्नानि-अखण्डितानि वस्त्राणि 'धरेइ' धरति-परिदधाति पार्वे स्थापयति वा, अन्यं धारयति, 'धरतं वा साइज्जई' घरन्तं धारयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाक् । अभिन्नवस्त्रं नाम-विक्रयणस्थाने पूर्व न स्खण्डितं भवेत् 'ताका' इति भापाप्रसिद्धम् , तत् साधुमिन धार्यम् किन्तु 'ताका' इति भाषाप्रसिद्धाद् यद् खण्डीकृतं वस्त्रं भवेत् तद् दातुः प्राप्य तस्यापभोगः करणीय इति सूत्राशयः ।। सू० २४ ॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २ सू० २५-२६ पात्रदण्डकादीनां परिघट्टनादिनिषेधः ४९
ननु-अभिन्नवस्त्रधारणे को दोपस्तत्राह भाष्यकार:-'अभिण्ण.' इत्यादि । भाष्यम्-अभिण्णवत्थजुत्तस्स, भवे चोरभयाइयं ।
पडिलेहणवाधाइ, संजमत्तविराहणं ॥ छाया-अभिन्नवस्त्रयुक्तस्य भवेच्चौरभयादिकम् ।
प्रतिलेखनवाधादि संयमात्मविराधनम् ॥ अवचूरिः-अभिन्नवस्त्रयुक्तस्य साधोः चौरभयम् , चौरो हि-अभिन्नवस्त्रं दृष्ट्वा तल्लोभात्-चोरयितुमागच्छेत् , मारयेदपि कदाचित्साधुमित्यात्मविराधनासंभवः । तथा-तादृशविपुलवस्त्रस्य सम्यक् प्रतिलेखनमपि न संभवतीति तदकरणजनितोऽपि दोषः। प्रतिलेखनाचकरणे संयमबिराधनं स्यात् , अतः साधुभिरभिन्नवस्त्रं न धारणीयम् || सू० २४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू लाउपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा सयमेव परिघट्टेइ वा संठवेइ वा जमावेइ वा परिघटेंते वा संठवेतं वा जमावंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २५॥
छाया-यो भिक्षुः अलावूपात्रं वा दारुपात्रं वा मृत्तिकापात्रं वा स्वयमेव परिघयति वा संस्थापयति वा 'जमावेइ' इति यमयति वा परिघट्टयन्तं वा संस्थापयन्तं वा यमयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २५ ॥
चूर्णि:- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'लाउपायं वा' अलाबूपात्रं वा 'तुम्बा' इति लोकप्रसिद्धम् 'दारुपायं वा' काष्ठपात्रं वा, 'मट्टियापायं वा मृत्तिकापात्रं वा 'सयमेव परिघटेइ' स्वयमेव परिघट्टयति-निर्माति । 'संठवेइ वा संस्थापयतितत्र-संस्थानमवयव विशेषः मुखादिकं पात्रस्य करोतीत्यर्थः । 'जमावेइ वा यमयति-विषम समं करोति, तथाच-पात्राणां विषमभागं समीकरोतीत्यर्थः । तथा-'परिघटेतं वा' परिघदृयन्तं वा-निर्माणं कुर्वन्तं वा 'संठवेंतं वा' संस्थापयन्तं वा, 'जमातं वा' यमयन्तं वा, विशेषतो विषमभागस्य समतां कुर्वन्तं वा 'साइज्जई' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।
तत्र-पूर्वघट्टितादिपात्राणां ग्रहण कल्पते, तत्र--त्रिविधमपि पात्रं बहुकर्मिताऽल्पकमिताऽपरिकर्मितभेदात् त्रिप्रकारकं भवतीति प्रकृतसूत्रविषये प्रथमोदेशके--एव व्याख्यान कृतं तत एव द्रष्टव्यम् । विशेषस्तु केवलमेतावानेव यत् प्रथमोद्देशके परकृतं निषिद्धम् , अत्र तु स्वयंकरणस्य निषेध इति ॥ सू० २५ ॥
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मिशीथो
सूत्रम् — जे भिक्खू दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणुसइयं वा सयमेव परिघट्टेइ वा संठवेइ वा जमावेइ वा परिघट्टेत वा संवेत वा जमावे वा साइज्जइ ॥ सू० २६ ॥
५०
छाया - यो भिक्षुः दण्डकं घा यटिकां वा अवलेहनिकां वा वेणुसूचिकां धा, स्वयमेव परिघट्टयति वा संस्थापयति वा यमयति वा, परिघट्टयन्तं वा संस्थापयन्तं वा यमयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २६ ॥
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चूर्णिः - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'दंडयं वा' दंडकं वा दण्डः- रजोहरणसम्बन्धी तम् 'लट्ठियं चा' यष्टिकां वा- लघुदण्डं 'अवलेहणिय वा' = अवलेहनिकां वा - कर्दमावगुण्ठितचरणे तदपनयनाय शलाका विशेषस्ताम् 'वेणुसूइयं वा' वेणुसूचिकां वावेणुवंशस्तन्मयी सूची ताम्, 'सयमेव परिघट्टे' स्वयमेव परिघट्टयति, परिघट्टनं निर्माणम् तथाचदण्डादीनां निर्माणं करोतीत्यर्थः । 'संठवेइ वा' संस्थापयति दण्डादिकस्य हस्तिमुख सिंहमुखादीनां निर्माणं करोति । 'जमावेइ वा' यमयति वकदण्डादीन् ऋजून् करोति । 'परितं वा'' परिघट्टयन्तं - निर्माणं कुर्वन्तम् 'सठवेंतं वा' संस्थापयन्तम्, 'जमावेतं वा' यमयन्तं वक्रं ऋजुं कुर्वन्तम् ' साइज्जड़' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवति ॥ सू० २६ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू णियगगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २७ ॥
छाया - यो भिक्षुर्निजकगवेपितं प्रतिग्रहं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० २७ ॥ चूर्णिः - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खु' यो भिक्षुः 'णियगगवेसियं' निजकगवेपितम्, निजकः स्वजनः सांसारिको मातृ-पितृ--बन्धु बान्धवादिः तेनाऽन्विप्यानीतम् 'पडिग्गहं' प्रतिग्रहं - पात्रम् 'घरे' घरति पार्श्वे स्थापयति गृह्णाति । 'धरेतं वा साइज्जइ' घरन्तं पार्थे स्थापयन्तमन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चितभाग्भवति ॥ सू० २७ ॥
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सूत्रम् - जे भिक्खू परगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २८ ॥
छाया -यो भिक्षु परगवेपितं प्रतिग्रह धरति, धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० २८|| चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुरित्यादि पूर्ववत् । नवरम् - 'परगवेसियं' परगवेपितम्, तत्र - परोऽन्यः स्वजनातिरिक्तः सामान्यगृहस्थः विसंभोगी संयतो वा, तेन गवेपितमन्विष्यानीतम् ॥ सू० २८ ॥
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चर्णिभाष्यावचूरिः उ० २ सू० २७-३१
निजकादिगवेपितपात्रधारणनिषेधः ५१ .
सूत्रम्-जे भिक्खू वरगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ॥ छाया-यो भिक्षुर्वरंगवेषितं प्रतिग्रहं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० २९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे विभखू' यो भिक्षुरित्यादि पूर्ववत् । नवरम्-'वरगवेसियं' वरगवेषितम् । तत्र-वरो नाम ग्राम प्रधानः पुरुपस्तेन गवेषितमन्विष्यानोतम् ॥ सू० २९॥
संप्रति वरशब्दार्थमाह भाष्यकारः-- 'जो जत्थ' इत्यादि । भाष्यम् -जो जत्थ माणणिज्जो य, गामाइम्मि महत्तरो ।
पामाणिओ पहाणो सो, वरो तत्थ पउज्जइ ।। छाया-यो यत्र माननीयथ ग्रामादौ महत्तरः ।
प्रामाणिकः प्रधानः स वरस्तत्र प्रयुज्यते ॥ अवचूरिः-यः पुरुषो यत्र ग्रामादौ नगरादौ लोकैर्नागरिकैः संमानितो नागरादिपु मुख्यः प्रामाणिकः प्रधानश्च, तत्र वरशब्दः प्रयुज्यते । तेनानीतं पात्रादिकं गृह्णतो ग्राहयतः गृह्णन्तमनुमोदमानस्याऽऽधाकर्मिकादिमिथ्यात्वाऽऽमविराधनसंयमविराधनादयो दोषा भवन्ति ।। सू० २९॥ • सूत्रम्-जे भिक्खू बलगवेसियं पडिग्गहंधरेइ धरतं वा साइज्जइ ।
छाया--यो भिक्षुर्चलगवेपितं प्रतिमहं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३० ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुरित्यादि पूर्ववत् । नवरम्'बलगवेसिय' बलगवेषितम् । वलवता-शरीरजनपदादिवलविशिष्टेन पुरुपेण गवेपितमन्विप्यानीतम् ॥ सू० ३० ॥ भाष्यम्-जस्सोवरि पहू जो उ, बलड्ढो वा भवे अवि ।
बलवंतो सो चिन्नेओ, घरसामी जहा मओ॥ छाया-यस्योपरि प्रभुर्यस्तु वलाढयो वा भवेदपि ।
बलवान् स विज्ञेयो गृहस्वामी यथा मतः ॥ अवचूरिः-'जस्सोवरि' इत्यादि । यः पुरुषो यस्योपरि प्रभुत्व-स्वकीय प्रभाव करोति, तथा बलाढयः वलेन-शरीरादिवलेन समृद्धो भवेत् स बलवान् विज्ञेयः । तत्र दृष्टान्तं दर्शयति-'घरसामी' इत्यादि । यथा-येन प्रकारेण गृहस्वामी स्वकीयपरिवारोपरि प्रभुत्वं कुर्वन् परीवारे बलवान् भवति, यथा वा-शरीरबलेनोर्जितः सिंहो वनपशुं प्रति बलं दर्शयन् बलवान् कथ्यते, यथा वा कश्चिद्विद्वान् सामान्यजनं प्रति स्वविद्यावलं दर्शयन् प्रभुर्बलवान् इति कथ्यते ।
यद्वा-कश्चिदप्रभुरपि-अबलोऽपि बलवान् भवति-यथा गृहस्वामी, न तादृशः प्रभुः किन्तु स्वपरिवारे बलवानिति कथ्यते, एतादृशवलवता पुरुषेणाऽन्विप्यानीतं पात्रं यो भिक्षुर्धरति, धरन्तं वाऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति तथा तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनादयो दोषा भवन्तीति ।। सू० ३० ॥
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निशीथसूत्रे
सूत्रम्-जे भिक्खू लवगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥
छाया -यो भिक्षुर्लवगवेपितं प्रतिग्रहं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ ० ३१ ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खु, इत्यादि । 'जे भिक्खू, यो भिक्षुरित्यादि पूर्ववत् । नवरम् - 'लवगवेसियं, लवगवेपितम् तत्र - लवो नाम - यो दानफलं दर्शयित्वा वस्त्रपात्रादिकमुत्पादयति, तादृशः पुरुषो लव इति कथितो भवति, तेनान्विप्यानीतम् । यो हि भिक्षुर्वस्त्रपात्रादिस्वामिनं वस्त्रपात्रादिदानस्य फलं श्रावयित्वा तस्माद्वपात्रादिकमादत्ते दापयति चान्यस्मै । तथा-यथक्तव्यापारेणाऽऽददानमन्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागिति भावः । सू० ३१ ॥
५६
भाष्यम् — दाणफलं तु दंसीय, आदेइ दावए खलु । वत्थपायाइगं नृणं, तारिस लव बुच्चइ ॥
छाया - दानफलं तु दर्शयित्वा आदत्ते दापयेत्खलु । वस्त्रपात्रादिकं नूनं तादृशो लव उच्यते ॥
अवचूरि : - - ' दाणफलं' इत्यादि । यो भिक्षुः दानस्य फलं दर्शयित्वा वस्त्रपात्रादिकमादत्ते - आनयति लोकेभ्यः, दापयति चाऽन्यस्मै स लव उच्यते - कथ्यते । तत्र दानं द्विविधम्लौकिकं लोकोत्तरं च । लोकमुद्दिश्य यद्दीयते तल्लौकिकम् । कर्मनिर्जरार्थं दातव्यमितिबुद्धया पात्राय महात्रतधारिणे यद्दानं तल्लोकोत्तरम् ॥ सू० ३१ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू णितियं अग्गपिंडं भुजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥
छाया -यो भिक्षुर्नत्यिकं - अग्रपिण्डं भुङ्क्ते भुञ्जन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३२ ॥
चूर्णी – 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'णितियं' नैत्यिकं नियतं वा, तत्र नैत्यिकं प्रतिदिनम्, नियतं नियतकालप्रतिबद्वं यथा कस्मिंश्चिद् गृहे कचित् दिनद्वयमन्तरा - कृत्य दिनत्रयादिकं वा व्यवधानीकृत्य नियमतो गमनं नियतशब्दार्थः । 'अग्गपिंडं' अग्रपिण्डम् अग्रः प्रधानः पिण्डः - अग्रपिण्डस्तम्, अथवा भोजनात्पूर्वं यो निष्कास्यते सः तम् अग्रपिण्डम् । यदा तदा साधुम्योऽन्नपानवितरणकाले अग्रपिण्डं भुङ्क्ते भुञ्जन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायचित्तभाग् भवतीति ॥ सू० ३२ ॥
भाष्यम् - निमंतणं उप्पीलणं, परिमाणं सभावियं ।
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आइल्ला तिष्णि नो कप्पे, कप्पेज्जा य चउत्थगं ॥
छाया -- निमन्त्रणमुप्पीलणं परिमाणं स्वाभाविकम् । आद्यास्त्रयो न कल्पन्ते कल्पते च चतुर्थकम् ॥
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चर्णिभाष्यावचूरिः उ०२ सू० ३२-३६ नैत्यिकापिण्डायुपभोगनिषेधः ५३
अवचूरि:--'निमंतणं' इत्यादि 'निमंतणं' निमन्त्रणम्-आमन्त्रणम्, भोजनादिग्रहणार्थमभ्यर्थनमित्यर्थः १। 'उप्पीलणं देशी शब्दः तदर्थस्तु-उपहासः २। परिमाण भोजनस्येयत्ता ३। स्वाभाविकं स्वतः सिद्धम् , यथा-गृहस्थस्य दानम् ४। अत्राऽऽद्यास्त्रयो न कल्पन्ते, चतुर्थोऽपि नैत्यिकामपिण्डदोपरहितः स्वाभाविकपक्षः साधूनां कल्पते ।
अयं भावः-निमन्त्रणोप्पीलणपरिमाणानामेतत्स्वरूपम् ; तथाहि-कश्चित् श्रद्धालुः श्रावकः श्रमणसमीपमागत्य निवेदयति-भगवन् ! ममोपरि क्रियतामनुग्रहः, मद्गृहे समागत्य भक्तपानादिकं गृह्यताम् । इति प्रथमो भेदः (निमन्त्रणम्) १।
'उप्पीलणं' यथा-श्रमणो वदति-भो श्रावक ! तवोपरि करोम्यनुग्रहम् किन्तु-कथय यत् किं दास्यसि । श्रावको वदति-यद्भवतामभीष्टम् , येन वस्तुना भवतः प्रयोजनं तद्दास्यामि । तदनन्तरं साधुरुपहासमिव कुर्वन् वदति-भोः श्रावक ! अत्र प्रतिश्रुत्य गृहं नेप्यसि तत्र गतः सन् यदि नो दास्यसि तदा किम् ? एवं प्रकारेण-उप्पीलणमु हासंपकरोति । इति द्वितीयो भेदः २॥
अथ परिमाणस्वरूपमाह-अवश्यमेव दास्यामि नाऽत्र सन्देहः । एवं कथिते गृहस्थे साधुः परिमाणं वदति-भोः श्रावक ! कियत्परिमाणं दास्यसि ? कियत्कालपर्यन्तं दास्यसि ? किं दास्यसि ?, यदि स्वल्पं दास्यसि अदत्तवत् स्यात् । ततो दाता वदति-यावता भक्तेन-पानेन वा भवतः प्रयोजनम् , यावन्तं वा कालं भवतः प्रयोजनं तावन्तं कालं भवते परिपूर्णमोदनादिकं दास्यामि , किं बहुना -यद्वस्तु भवते रोचते, यावत्परिमाणं वा रोचते, यावत्कालं वा तावत्कालपर्यन्तमपरिहीनमपरिश्रान्तोऽहं दास्यामि । इति तृतीयो भेदः ३। मत्र-निमन्त्रणोप्पीलणपश्मिाणेषु प्रायश्चित्तं भवति । स्वाभाविकं यद् भक्तपानादिकमात्मार्थ गृहस्येन निष्पादितं नैत्यिकानपिण्डदोपवर्जितं च तदेव साधुभिाह्यम् नत्वन्यत् । इति चतुर्थो भेदः ।।
__अत्राह कश्चित्-चतुष्प्रकारकेऽपि अग्रपिण्डे न किमपि दोपं पश्यामि ? आचार्यः प्राह-यत्स्वामाथे स्वभावत एव निष्पादितं तत्-नितिकम् अनिमन्त्रितमनुप्पीलणमपरिमाणमपि यदि निमन्त्रणादिमिक्षाकणेनाऽपि स्पृष्टं तत्साधूनां न कल्पते । एतत् त्रयातिरिक्तं स्वाभाविकमपि भक्तपानादिकं यदि नियताग्रपिण्डदोपवर्जितं भवेत् तत् साधूनां कल्पते इति ।
स्वात्मार्थ निष्यादितेऽपि नियताप्रपिण्डदोपनिमन्त्रणादिदोषदूषिते इमे दोपा भवन्तिआत्मार्थ निष्यन्नेऽपि-उद्गमादिदोपा भवन्ति, साधुनिमित्तमयं पिण्डो नियमितः, इत्यवश्यं दातध्यम्, इति कृत्वा कुण्डादिपु स्थापयति तस्मात्-निमन्त्रणादिपिण्डो वर्जनीयः ॥ सू० ३२॥
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निशीथयो.
सूत्रम्-जे भिक्खू णितियं पिंड भुंजइ भुजतं वा साइज्जइ ॥३३॥ छाया-यो भिक्षुत्यिक पिण्डं भुङक्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥ सू० ३३ ॥
चूर्णी - 'जे मिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः "णितिय' नैत्यिक 'पिंड' पिण्डं अहरहरेकस्मादेव गृहादानीतम् 'भुंजई' भुङ्क्त, भोजयति 'झुंजतं वा साइजई' मुञानं वा स्वदतेऽनुमोदते तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ॥ सू० ३३ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू णितियं अवड्ढभागं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ।। सू०३४ ॥
छाया-यो भिक्षु त्यिकमपार्द्धभाग भुङ्क्ते-भुजन्तं पा स्वदते ॥ सू० ३४ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'णितियं नैत्यिकम् 'अवहभागं' अपार्द्धभाग-भक्तस्याद्रभागमपि अर्थात् पात्रे स्थाल्यादौ स्थापितभोजनस्यार्धभागस्त्रि भागश्चतुर्थभागो वा यो दानार्थ निष्कामितः यस्मिन् गृह्यमाणेऽन्यस्यान्तरायसंभवात् , एवंविधभोजनापार्द्धमागम् 'भुजई' भुक्त, भोजयति 'मुंजंत वा साइज्जई' अपार्द्धभागं भुनानं स्वदतेऽनुमोदते तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ।। सू० ३४ ॥
मूत्रम्--जे भिक्खू णितियं भागं भुंजइ जंतं वा साइज्जइ ॥३५॥ छाया-यो मिक्षु त्यिक भाग भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥ स्० ३५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः ‘णितियं भाग' नैत्यिकं भागं यत्र प्रतिदिन यो भागो दानार्थ निष्कास्यते तं भागं 'भुंजइ' भुङ्क्ते 'भुंजतं वा साइज्जइ' मुजानं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ३५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णितियं ऊणडूढभागंभुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ॥ छाया-यो भिक्षुर्नत्यिकमूनार्द्धभागं भुङ्क्ते भुञ्जान वा स्वदते ॥ सू० ३६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'णितियं नैत्यिकम् , 'ऊणइढभार्ग' ऊनार्धमागं-त्रिभागादितोऽप्यर्द्धभाग ऊनार्द्धभागस्तम् 'भुंजइ' स्वयं भुङ्क्ते । भुजंतं वा साइज्जई' भुजानं वा स्वदते । यः साधुः पुण्यार्थरक्षितभोजनमध्यात् कमपि भागं मुक्ते, भोज- . यति, तथा-भुजानमनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ३६ ॥ भाष्यम्-पिंडो भत्तद्वगो णेओ, तयद्धं च अवड्ढगो ।
भागो तिभागों तस्सद्धं, ऊणड्ढो सो वियाहिओ ॥ पिंढे णिइए अबइढे, भागे ऊणढगे तहा । एस एव गमो णेओ, सन्चया सत्यसंमओ ॥
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चूंर्णिभाष्यावचूरिः उ० २ सू० ३७-३८
नैत्यिकवास-पुर-पञ्चात्संस्तवनिषेधः ५५
mmmmmmmmmmmmmm
छाया-पिण्डो भक्तार्थको शेय-स्तदर्ध चाऽपार्धकः ।
भागस्त्रिभागस्तस्या ऊनार्यः स न्याख्यातः ॥ पिण्डे नैत्यिकेऽपार्धे भागे ऊनार्द्धके तथा ।
एप पव गमो शेयः सर्वदा शास्त्रसंमतः ॥ अवचूरिः - 'पिंडो भत्तहगो'-इत्यादि । पिण्ड:-पिण्डशब्दोऽत्र भक्तार्थकः भक्तार्थवाचको ज्ञेयः, ततः पिण्ड इति भक्तमित्यर्थः, तस्य यदर्द्ध सोऽपार्द्धभागः प्रोच्यते, भागः त्रिभागः, तथा तस्यापि यद् अर्द्ध स ऊनार्द्धः ऊनार्द्धभागः।
ततो नैत्यिके पिण्डे, तथा सूत्रघटकेऽपार्थे तथा भागे, तथा ऊनार्धके सर्वत्र एष एव गमोऽग्राह्यरूपः तीर्थकरगणधरैः सर्वदा-सर्वकालं व्याख्यातः कथितः, अत एव स शास्त्रसम्मतो ज्ञेयः । तत्र-रामस्वरूपमेव दर्शयति-'पिंडे' इत्यादि । सूत्रघटकपिण्डपदं भक्तार्थकं भवति, पिण्डो भक्तार्थ इति पर्यायः । यथा चतुस्त्रिंशत्सूत्रघटकं 'अवड्द' इति पदं पिण्डार्धबोधकम् , पिण्डस्यार्धभाग इत्यर्थः । भागपदम्-पञ्चत्रिंशत्सूत्रघटकपिण्डस्य त्रिभागबोधकम् । तथा षट्त्रिंशत्सूत्रघटकम् 'ऊणइढभाग'-पदं त्रिभागस्याप्यूनाऽर्धभागबोधकं ज्ञातव्यम्, एतत्सर्व दानाद्यर्थ निष्कासितबिषयकं बोध्यम् , तद्ग्रहणे साधुर्दोषभाग् भवति ॥ सू० ३६ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू णितियं वासं वसइ वसंतं वा साइज्जइ ।। सू०३७। छाया-यो भिक्षु त्यिकं वासं वसति वसन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'णितियं वास' नैत्यिकं वासं वर्षाकालवर्जिते ऋतुबद्धकालातिरिक्तकालेऽप्यकारणमेकस्मिन् स्थाने नित्यवासम् 'वसइ' वसतिवासं करोति कारयति 'वसंतं वा साइज्जइ' वसन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते, स हि
शीतकालाद्वर्षकालात् , परतः कारणेऽसति ।
प्रायश्चित्ती वसन्नित्यं, वसतो वाऽनुमोदनात् ॥१॥ इति ॥ सू०३७॥ सूत्रम्-जे भिक्खू पुरेसंथवं पच्छासंथवं वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ।
छाया-यो भिक्षुः पुर-संस्तवं पश्चात्संस्तवं वा करोति-कुर्वन्तं वा स्वदते ॥३८॥
चूर्णी-'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिभुः 'पुरेसंथवं' पुरःसंस्तवम् वस्त्रपात्रादिदातुर्दानात्पूर्व-पूर्वकालमेव संस्तवम् प्रशंसनम्-परिचयं वा 'संस्तवः स्यात्परिचय' इति वचनात् , 'पच्छासंथवं' पश्चात्संस्तवम् , वस्त्रपात्रादिदानानन्तरकाले संस्तवं प्रशंसनम्परिचयं वा 'करेइ' करोति 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते-अनुभोदते स प्रायश्चितभाग भवति ।
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५६
निशीथसूत्रे
.
N
" दातुश्च दानात्परतः पुरो वा कुर्वन् स्तवं वाऽप्यथ कारयन् यः ! 'कुर्वन्तमन्यं यदि वाऽनुमोदते, आज्ञादिभङ्गाल्लभते स दोपान् ॥१॥ इति सारः ॥| सू०३८|| भाष्यम् - दव्वे खेत्ते तहा काले, भावे संथव इस्सइ । सपरोभयसं जाओ, संतासंतो पुणो दुहा ॥
छाया - द्रव्ये क्षेत्रे तथा काले, भावे संस्तव हृप्यते । स्वपरोभयसंजातः, सन्नसन पुनर्द्विधा ॥
अवचूरिः - 'दव्वे' - इत्यादि । संस्तवः प्रशंसनम् चतुष्प्रकारक हृप्यते भवति । तद्यथाद्रव्ये - द्रव्यविपये १, क्षेत्र - क्षेत्रविषये २ काले-कालविषये ३, तथा - भावे - भावविषये चेति ४, द्रव्यादीनां चतुर्भेदभिन्नत्वात्, तत्सम्बन्धी संस्तवोऽपि चतुर्विध इष्यते कथ्यते इत्यर्थः । पुनः स्वपरोभयसंजातः पुनरेकैकः स्वपरोभयमेदात् त्रिविधः संजातः । पुनः स सदसद्भेदेन प्रत्येकं द्विधा भवति, तत्र - आत्मपरोभयभेदादेकैकस्त्रिविधः, यथा साधुरात्मनः संस्तवं करोति १, साधुः परस्य संस्तवं करोति २, साधुरुभयोरपि संस्तवं करोति ३ । अथवा - आत्मना संस्तवं करोतीतिआत्मसंस्तवः, इति व्युत्पत्त्या साधुरात्मना गृहस्थं संस्तौति - एप आत्मसंस्तवः १, गृहस्थः साधु स्तौति - इति परसंस्तवः २, द्वावपि परस्परं संस्तवं कुरुत इत्युभयसंस्तवः ३ । सदसद्भेदेन पुनर्द्विधा । एतेषामेकैकः पुवद्विविधो द्विप्रकारको भवति । सन् - विद्यमानः १, असनू -- अविध - मानश्च २ । तत्र सद्रूपे सत्सु गुणेषु प्रशंसाकरणम् १, असद्रूपेणेति असत्स्वपि गुणेषु प्रशंसाकरणम् २ । अथवा सदिति विद्यमाने तस्मिन् तस्य समक्षं प्रशंसनम् १, असदिति अविद्यमाने तस्मिन् तस्य परोक्षं प्रशंसनमिति २ । द्रव्य क्षेत्र - कालैस्त्रिविधसंस्तवमध्ये द्रव्यसंस्तवमाहयथा कश्चित् परेण पृष्टः - किं भवान् पूर्वं धनवानासीत् ? साधुर्वदति - एवमहं धनवानासम् ? स साधुः पूर्वं धनवानासीन्न वेति सन्देह. किन्तु तथा वदति । ततो गृहस्थ आह - अमुको हि धनवान् श्रेष्ठी - अमुकनामानं भवन्तं न जानाति भवानेवं कथयति, दरिद्रः प्रव्रजति न धनिक इति । तत् श्रुत्वा गर्वयुक्तः साधुः परं निन्दन् स्वात्मानं प्रशंसन् एवं वदति - यथेदानीं भवानैश्वर्ययुक्तस्तथाऽहमपि पूर्वमासम्, इति ।
I
क्षेत्र संस्तवमाह – यथा - साधु प्रति कश्चित् पृच्छति -त्वं कस्मात् क्षेत्रात् प्रत्रजितवान् साधुर्वदति-- युष्माकमेवाहं सहवासी ।
कालसंस्तवमाह -- कस्मिन् वयसि प्रत्रजितः इति पृष्टो वदति-त्वत्सदृशवयस्क एवं प्रव्रज्यां प्राप्तवानस्मि । अथवा – प्रथमे वयसि - उद्वाहिते सति प्रत्रजितः स्थापितविवाहदिने वा प्रत्रजितः । भावसंस्तवमाह -- भावसंस्तवो द्विप्रकारकः संयते वचने च । यथा कश्चित् साधुं पृच्छति--- योऽमुकः प्रव्रजितः स त्वत्सदृश एव ? साधुराह - एवमेव । अथवा तूष्णीं स्थितो भवति, वदति वा-क एवं पृच्छति ?
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०२ सू० ३९
परिचयं कृत्वा पश्चाद् भिक्षार्थप्रवेशनिषेधः ५७
वचनरूपः पूर्वसंस्तवः अदत्त दाने पूर्वमेव संस्तवं करोति-मदनेनन सन्तुष्टोऽभिलषितं मे दास्यात । वचनरूपः पश्चासंस्तवः-दाने दत्ते वा वचसा संस्तवं करोतीति संक्षेपः । एवं गुणसंस्तवोऽपि पूर्वपश्चाद्भेदेन विज्ञेयः ॥ सू०३८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू समाणे वा वसमाणे वा गमाणुगामं दूइज्जमाणे वा पुरेसंथुयाणि वा पच्छासंथुयाणि वा कुलाई पुवामेव अणुप्पविसित्ता पच्छा भिक्वायरियाए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ।। सू० ३९॥
छाया-यो भिक्षुः समाणो वा वसमाणो पा ग्रामा नुग्राम द्रवन् पुर संस्तुतानि वा पश्चात्संस्तुतानि वा कुलानि पूर्वमेवानुप्रविश्य पश्चात्-भिक्षाचर्यायै अनुप्रविशति अनुप्रग्शिन्तं वा स्वदते ॥ सू०३९॥ ।
चूर्णी-जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खु यो भिक्षुः 'समाणे वा' समाणो वा यो गृद्धिरहितः समर्यादं स्थिरवासं स्थितः स 'समाण' इत्युच्यते, एतादृशः साधुः, तथा योऽष्टमासिकं ऋतुबद्धकालं, चातुर्मासिकं वर्षाकालमिति नवकल्पविहारी भवति स 'वसमाण' इति कथ्यते 'समाणः' 'वसमाणः' इति द्वावपि सैद्धान्तिको शब्दो, एतादृशः कोऽपि साधुः 'गामाणुगाम दृइज्जमाणे' ग्रामानुग्राम द्रवन् एकस्माद्नामादपरं ग्रामं विहारं कुर्वन् 'पुरेसंथुयाणि वा' पुरःसंस्तुतानि-गृहस्थावस्थायां पूर्व वाल्ये वयसि सस्तु वाः परिचिता ये मातृ-पिन-वान्धवादयस्ते यत्र वसन्ति तानि, 'पच्छासंयुयाणि' पश्चात्-युवावस्थायाम् संस्तुतानि-परिचिताः श्वश्रू-श्वशुरश्यालकादयः ते, वसन्ति यत्र तानि 'कुलाई' कुलानि दीक्षाग्रहणात् प्राग्वत्र्तीनि पूर्वापरसंस्तुतानां गृहाणि 'पुब्बामेव' पूर्वमेव-भिक्षाग्रहणात्यागेव 'अणुप्पविसित्ता' अनुप्रविश्य-गत्वा 'पच्छा भिक्खायरियाए' पश्चात्-ततः परम् पूर्वापरसंस्तुतगृहाणि प्रविश्य तान् स्वागमननिवेदनबुद्ध्या संवोध्य तदनु पश्चात् भिक्षाचर्यायै 'अनुप्पविसई' अनुप्रविशति-गच्छति भिक्षार्थं प्रस्तुतो भिक्षाग्रहणं पृष्ठतः कृत्वा ज्ञातिकुलं पुरा प्रयाति ततो यो भिक्षां चरति 'अणुपविसंत वा साइज्जइ' अनुप्रविशन्तम् इत्थमन्यं यः स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाक् ॥ सू० ३९॥
सूत्रे 'समाणे 'वसमाणे' इति पाठेऽयमर्थः-- भाष्यम्-समाणे बुढवासी य, वसमाणे तहेयरो।
गमणं दुविहं बुत्त, निक्कारण-रकारणं ॥ छाया-समाणो वृद्धवासी च, वसमाणस्तथेतरः ।
गमनं द्विविधमुक्तं निष्कारण-सकारणम् ॥
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निशीथर्व अवचूरि:-यद्वा सूत्रे-'समाणे' इति वृद्धवासवासी--वृद्धत्वग्लानत्वादिकारणवशात् स्थिरवास स्थितः, तथा- इतर:- 'वसमाणे नवकल्पविहारी । तत्राऽष्ट कल्पाः ऋतुबद्धकालसंबद्धाः, नवमः कल्पो वर्षाकालः, तत्र विहारी नवकल्पविहारी । ___ गमनं द्विविध--द्विप्रकारकमुक्तं- कथितम्-एकं निष्कारणम् १, अपरं-सकारणम् २ । कारणविशेषमाश्रित्य नायमानं सकारणम् , कारणमन्तरेण जायमानं निष्कारणम् । तत्र सकारणं गमनं यथाआचार्यप्रमृतीनां वैयावृत्त्यनिमित्तं भिक्षानिमित्तं वा गमनम् । एवं निष्कारणमेव ग्रामानुग्रामं गमनम्, अकाले वा भिक्षार्थ गमनम् । तत्र इमे वक्ष्यमाणाः भूयांसो दोषा भवन्ति, तथाहि-कदाचिन्मागोंऽशोभनो भवेत् , भिक्षा वसतिरपि न सुलभा भवति, स्वपक्षपरपक्षेभ्योऽपमानं भवति, भिक्षार्थ निषिद्धगृहे गच्छतः शास्त्रस्य-जिनप्रवचनस्य निन्दा भवति, पृथिवीकायिकादीनां जीवानां विराधना भवति । एवं निष्कारण गच्छता पड्जीवनिकायानां विराधना क्रियते-इति संयमविराधना भवति । कण्टयादिद्वारा पादे क्षतिर्भवतीत्यात्मविराधनाऽपि । सागारिकभयात् प्रमादेन वा परिश्रान्त उपधीनां प्रतिलेखनं न करोति, उपधीनां हरणं वा भवति । एवं भिक्षाकालातिक्रमणे ग्राम प्राप्तस्तत्राऽनेपणीयमप्याहारं अहिप्यति । हिंस्रजन्तुना खादितः आत्मविराधनं प्राप्स्यति । एवं-समयातिक्रमे भिक्षार्थ गच्छतः पश्चात्कर्मदोषा अपि भवेयुः । इत्येते अकारणगमने दोषा आपद्यन्ते इति । सकारणं गमनं द्विविधम्-निर्व्याघाते व्याघाते “च गमनम् । तत्र-निर्व्याघातगमनम्-ऋतुबद्धकल्पे वर्षाकल्पे वा समाप्ते क्षेत्रात् क्षेत्रान्तरगमनम् । तत्र द्वयोः कालयोर्मध्ये एकतरस्मिन्नपि काले मासकल्प. प्रायोग्यानि क्षेत्राणि यो लक्ष्यति स 'प्रायश्चित्तमाक् । सम्प्रति व्याघातेन मासकल्पप्रायोग्य क्षेत्रान्तर संक्रामति, तत्र व्याघातकारणमाह-अशिवादिगृहीतं क्षेत्रम् , तत्र स्वाध्यायादिकं सम्यक् न भवति, उपधिर्वा तत्र न प्राप्यते, आचार्यादिप्रायोग्यं वा नास्ति । एतादृशे कारणे व्याघातगमनं भवति । कारणविशेषमाश्रित्यैकस्मात् क्षेत्रात् क्षेत्रान्तरं गच्छतो दोपो न भवति यस्मात् स तीर्थंकरानां नातिकामतीति । अत्र सकारणानामधिकारः । निष्कारणं गच्छतां तु दोषो भवत्येव । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण विहारं कुर्वतां संस्तव-इत्थं भवति ॥ सू० ३९॥
पुनराह भाष्यकारः - भाष्यम्-कुलसंथवो य तेसिं, गिहत्थधम्मे तहेव सामण्णे ।
पुण एक्केको दुविहो, पुवं पच्छा य णायचो ॥ छाया- कुलसंस्तश्च तेषां गृहस्थधर्म तथैव धामण्ये ।।
पुनरेकैको द्विविधः पूर्व पश्चाच्च ज्ञातव्यः ॥ अवचूरिः-'कुलसंथवो' इत्यादि । तेषाम् पूर्वोक्तप्रकारेण विहारं कुर्वतां भिक्षूणां संस्तवः द्विविधो-द्विप्रकारको भवति । तत्र-संस्तवो नाम परिचयः, स च द्विधा भवति-गृहि
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २ सू० ४० अन्यतीथिकादिसहभिक्षार्थगमननिषेधः ५९ धर्म-गृहस्थे १, श्रामण्ये-साधुपर्याये च २। स च गृहिधर्मे स्थितस्य परिचयो द्विधा द्विप्रकारकःपूर्वसंस्तवः १, पश्चात्संस्तवः २ । तत्र-पूर्वसंस्तुताः परिचिताः-पितृ-मातृ-प्रभृतयः, पश्चात्संस्तुताः परिचिताः श्वशुर-श्वश्रूप्रभृतयः ।।
एवं श्रामण्ये स्थितस्य परिचयः पूर्वसस्तुतः पश्चात्संस्तुतः । अथ साधूनां पूर्व विहारसमये ये परिचितास्ते पूर्वसंस्तुताः। ये वर्तमानविहारकाले संस्तुतास्ते पश्चात्संस्तुताः । एतेषां पूर्वसंस्तुत-पश्चात्संस्तुतानां श्रावकादीनां गृहे यः साधुः प्राप्तभिक्षाकाले प्रविशति, अथवा व्यतिकान्तभिक्षाकाले प्रविशति तस्याऽऽज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वादिदोपा. सम्भवन्ति, तथा संयमविराधना मात्मविराधना च भवति । तत्र संयमविराधना चेत्थम्-अकाले भिक्षार्थ परिभ्रमन्तं-गेहाद्गेहा. न्तरं गच्छन्तं साधुं दृष्ट्वा पूर्वसंस्तुताः पश्चात्संस्तुता वा श्रावकादयः उद्गमादिदोषयुक्तमाहारं निष्पादयिप्यन्ति, मतोऽकाले भिक्षार्थ तत्र साधुभिन गन्तव्यम् इति । अनाभोगादिकारणवशात्तु अकालेऽपि श्रावककुले प्रवेशो न निषिद्धः । यद्वा ग्लानाद्यर्थमकालेपि प्रविशेत् । यद्वाआकस्मिके विपूचिकादिरोगे समुपस्थिते पूर्वसंस्तुतादिकुलं प्रविशति । यद्वा यस्मिन् काले राज्ञा गमन निवारितं 'कफ्य' इति प्रसिद्धम् , तत्समये यदि चलिष्यति तदा द्रक्ष्यति राजपुरुषः, इतिकृत्वाऽकालेऽपि चलति यदि तदा तादृशो दोपो न भवति श्रमणानाम् । अकारणे पूर्वसंस्तुतादिगृहं वेलातिक्रमेण यदि गच्छति तदा सूत्रप्रतिपादितं प्रायश्चित्तं भवत्येवेति भावः ॥ सू० ३९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा पारिहारिओ वा अपारिहारिएण सद्धि गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए णिक्खमइ वा अणुप्पविसइ वा, णिक्खमंतं वा अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ॥ सू०४०॥
छाया-यो भिक्षः अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा पारिहारिको था अपारिहारिकेण सार्धम् गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिक्षया निष्कामति वा-अनुप्रविशति वा निष्कामन्तं वा-अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अण्णउत्थिएण वा' अन्ययूथिकेनाऽन्यतीर्थिकेन, 'गारस्थिएण वा' गृहस्थेन वा 'पारिहारिओ वा' पारिहारिको वा-मूलो. त्तरगुणधारी परिहारतपोवाहको वा भिक्षुः 'अपारिहारिएण' अपारिहारिकेण-अपारिहारिको मूलोत्तरगुणदोषयुक्तः पार्श्वस्थादिस्तेन 'सद्धिं' सार्धम्-युगपदेकत्रेत्यर्थः 'गाहावइकुलं' गाथापतिकुलम् , गाथा-गृहं तस्य पतिः गाथापतिः गृहस्थः, तस्य कुलं प्रति 'पिंडवायपडियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया भिक्षाग्रहणबुद्धया 'णिक्खमइ' निष्क्रामति-भिक्षां नीत्वा गृहस्थगृहात् निर्ग
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निशीथंपूर्व
छति 'अणुप्पविसइ वा' अनुप्रविशति-भिक्षार्थ गृहस्थगृहे प्रवेशं करोति । 'णिक्खमंत वा' निष्क्रामन्तं बहिरायान्तम्, 'अणुप्पविसंत वा' अनुप्रविशन्तम् , 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति ॥ सू० ४० ॥
अत्राह भ यकार:भाष्यम्-नो कप्पए य भिक्खुस्स, अण्णुत्थिय-गिहत्थिहिं ।
तहेव पारिहारिस्स, तविपक्खेण केणवि ॥ सद्धि णिक्खमिउं णिच्चं, पविसित्तुं तहेव य ।
णिक्खमणं पवेसं चे, जो करे दोसवं भवे ॥ छाया-नो कल्पते च भिक्षोः, अन्ययूथिकगृहस्थैः ।
तथैव पारिहारिणः, तद्विपक्षण केनापि ॥ साई निष्क्रमितुं नित्यं, प्रवेष्टुं तथैव च ।
निष्क्रमणं प्रवेशं चेद् यः कुर्याद दोपवान् भवेत् ॥ अवचूरि:-'नो कप्पए' इत्यादि । भिक्षोः श्रमणस्यान्यतीर्थिकैः गृहस्थैर्वा, तथा पारिहारिकस्य मूलोत्तरगुणयुक्तस्य तद्विपक्षेण अपारिहारिकेण मूलोत्तरगुणदोषवता पार्श्वस्थादिना सार्थ गृहिगृहे भिक्षार्थ निष्क्रमितुं प्रवेष्टुं वा न कल्पते नैव कथमपि युज्यते । एतैः सह निष्क्रमणं प्रवेशनं च कुर्वतः साधोः पारिहारिकस्य चाधाकर्मिकादिदोषाः समापद्यन्ते । यः कोऽपि भिक्षुः पारिहारिकश्च यदि एतैः सह निष्क्रमणं प्रवेशं च कुर्यात् तदा स आज्ञाभङ्गादिदोपभाग् भवति । सूत्रे 'गाहावइकुलं' इति पदं, तस्याऽयमर्थः-गाथा-गृहं तस्य पतिः-स्वामी, दारापत्यादिसमुदादायविशिष्टो गृहस्थः, तेषां कुलं-समूहः ।
___तत्र-'पिंडवायपडियाए' इत्यस्य व्याख्या-पिण्डोऽशनादिकम् , तस्य गृहिणा दीयमानाssहारस्य पातः ससत्कारं साधवे समर्पणम् , तस्य प्रतिज्ञया मध्यस्थभावेन ग्रहणबुद्धचा । तथा 'अणुप्पविसइ' तस्याऽयमर्थः-मनु--पश्चात् चरकादिपु भिक्षामादाय गतेषु । अथवा-भोजनकालतः पश्चात् भोजनकालसमाप्त्यनन्तरम् , एवमनुशब्दः पश्चायोगे प्रसिद्धः, भिक्षुः पारिहारिकश्च प्रविशतीत्यर्थः । गृहि-परतीथिकाऽपरिहारिकाऽन्यतमेन सह प्रविशतः श्रमणस्य पारिहारिकस्य च-आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनाऽऽत्मविराधनादिका दोषा भवन्ति । ____तथा परिवाजकादिभिः सह भिक्षार्थ गमने प्रवचनस्य निन्दा भवति । लोको वदतिपरिवानकादिप्रसादाल्लभ्यते भिक्षादिकम् , स्वयं न लभ्यते असारवचनप्रवृत्तत्वात् । अथवालोको वदेद्-अलब्धिमन्त एते जैनभिक्षुकाः परभवेऽदत्तदानाः आत्मानं न जानन्ति, अत एभिः सह परिभ्रमन्ति तस्मात् कारणाद एभिः सह न गन्तव्यम् ॥ सू० ४०॥
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चूर्णिभाग्यावचूरिः उ० २ सू० ४१ अन्यतीर्थिकदिसहविचारभूम्यादिगमननिषेधः ६५
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा पारिहारिओ वा अपारिहारिएण सद्धिं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा णिक्खमइ वा पविसइ वा, णिक्खमंतं वा पविसंतं वा साइज्जइ ।। सू० ४१॥
___छाया-यो भिक्षु अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा, पारिहारिको वा अपारिहारिकेण साई बहिर्विचारभूमि वा विहारभूमि वा निष्कामति वा प्रविशति वा, निकामन्तं वा प्रविशन्तं वा स्वदते ॥ सू०४१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अण्णउत्थिएण वा अन्ययूथिकेन वा- परतीर्थिकेन 'गारथिएण वा' गृहस्येन वा, तथा पारिहारिको वा अपारिहारिकेण मूळोत्तरगुणदोपवता पार्श्वस्थादिना 'सद्धि' सार्धम् एकत्र मिलित्वा 'वहिया' बहिः-'वियारभूमि वा' विचारभूमि वा तत्र-विचारः मूत्रपुरीपादिसमुत्सर्गः, तदर्थं योग्या या भूमिः सा विचारभूमिः, तां विचारभूमिम्, 'विहारभूमि वा' विहारभूमिम् , स्वाध्यायभूमिः विहारभूमिः, तां विहारभूमिम् ‘णिक्खमइ वा' निष्क्रामति 'पविसइ वा' प्रविशति विचाराद्यर्थ गच्छति वा । 'णिक्खमंतं वा' निष्क्रामन्तं वा 'पविसंत वा' प्रविशन्तं वा 'साइज्जई' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ४१॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-भिक्खुस्स नेव कप्पेइ, गंतुमण्णुत्थियाइहि ।
सद्धिं चारित्तपालस्स, वियारहूं कयाइवि ॥ छाया-भिक्षोर्नव कल्पते गन्तुमन्ययूथिकादिभिः ।
सार्द्ध चारित्रपालस्य विचारार्थ कदाचिदपि । अवचूरिः-'भिक्खुस्स' इत्यादि । यो हि भिक्षुः चारित्रपालकः चारित्रस्य पालने सदा यतनावान् भवति तस्य भिक्षोः विचारार्थ मूत्र-पुरीपाद्युत्सर्जनाय संज्ञाभूमिम् उपलक्षणाद् विहारभूमि वा गन्तुम्-अन्ययूथिकादिभिः सह अर्थात्-अन्ययूथिकैः परतीर्थिकैः शाक्यभिक्षुक-चरकपरिवाजकैः सह आदिपदात्-गृहस्थैः, पारिहारिकस्य च अपरिहारिकैः सह गन्तुं न कल्पते । एतेषु गृहस्थपरतीथिकाऽपरिहारिकादियु मध्यादेकतरेणाऽपि सह विचाराद्यर्थ चकारात्-विहाराधर्थ वा यो भिक्षुः पारिहारिको वा गच्छति तस्याऽऽज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनादोषा भवन्ति । विचारमभ्यां पुरुपाचागमने संलोकदोषः शङ्का च लोकानां भवेत् । अप्रवर्त्तने मूत्रपुरीपादिनिरोधाद् रोगादिसंभवः । उक्तं च केनचित्कविना राजसमीपे--
त्रयः शल्याः महाराज !, अस्मिन् देहे प्रतिष्ठिताः। वायुमूत्रपुरीपाणां, प्राप्तं वेगं न धारयेत् ॥१॥
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निशीथसूत्रे
वायोः-अघोवातस्य पुरीपस्य च वेगधारणे मस्तकादिरोगोत्पत्तिः । मूत्रवेगधारणे नेत्रहानि:, अतो नैतेषां प्राप्तं वेगं धारयेत् । स्थानमार्गादिपरिचयाभावरूपे सति कारणे पुनर्गच्छेदपि गृहस्थादिभिः सह विचाराद्यर्थम् ॥ सू० ४१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा पारिहारिओ अपारिहारिएण सद्धिं गामानुगामं दूइज्जइ दूइज्जंतं वा साइज्जइ ।।
__ छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा पारिहारिकोऽपारिहारिकेण साई ग्रामानुग्रामं द्रवति द्रवन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः, 'अण्णउत्थिएण वा अन्ययूथिकेन 'गारथिएण वा' गृहस्थेन तथा 'पारिहारिओ वा' पारिहारिको वा 'अपारिहारिएण' अपारिहारिकेण 'सद्धिं' साईम् 'गामाणुगाम' ग्रामानुग्रामम् एकस्माद् प्रामाद् ग्रामान्तरम् 'दुइज्जई' द्रवति--गच्छति विहारं करोतीत्यर्थः । 'दुइज्जत वा साइज्जई' द्रवन्तं-गच्छन्तं स्वदतेऽनुमोदते । स्वयमन्यतार्थिकादिभिर्दामाद्नामान्तरं गच्छन् गच्छन्तमनुमोदमानच प्रायश्चित्तभागभवति ॥ सू० ४२॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-गामाणुगामं भिक्खुस्स, गमणं नेव कप्पइ ।
__ अणुस्थियाइलोगेहिं, सद्धिं तस्स कयाइवि ।। छाया-ग्रामानुग्राम भिक्षोः गमनं नैव कल्पते ।
अन्ययूथिकादिलोकै साई तस्य कदाचिदपि ॥ अवचूरिः-'गामाणुगाम'-इत्यादि । 'भिक्षोः पारिहारिकस्य च चारित्रपालकस्य अन्ययूथिकादिलोकैः, आदिशब्देन गृहस्थैः अपारिहारिकैश्च सार्द्ध प्रामानुग्राम-एकस्माद् प्रामाद ग्रामान्तरं गमनं तस्य कदाचिदपि नैव कल्पते । एपु-अन्यतमेन येन केनाऽपि सह प्रामानुग्राम विहरतः साधोराज्ञाभङ्गानवस्यामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनादिदोपा भवन्ति । तत्र-परतोर्थिकादिभिः सह गमने तीर्थकराणामाज्ञा भग्रा भवति, तीर्थकरैस्तैः सह गमनस्य निषिद्धत्वात् । अनवस्था च भवति-एकस्तथा कुर्यात् तदा तं दृष्ट्वाऽन्योऽपि कुर्यात् , एवमन्योऽपीति-एवमनवस्था । तथा-तादृशैः सह गमनं कुर्वन्तं साधु दृष्ट्वा द्रष्टुर्भनसि अश्रद्धा भवेत् , यद् इमे जैनभिक्षवोऽपि शिथिलाचाराः सन्तीति । तद्वा श्रवणादिना मिथ्यात्वमपि समुत्पयेत । तथा-तैः सह यत्र तत्र वा आधार्मिकाद्याहारं भुजन् संयमं विराधयेत् । तया-चौरोऽयमिति कृत्वा ताडनमेदनादिसंभवाद-आत्मविराधनमपि संभवेदिति ।। सू ० ४२॥
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चूर्णिभाष्याषचूरिः उ० २ सू० ४३-४४ दुरभिकषायभक्तपानपरिष्ठापननिषेधः ६३
सूत्रम्-जे मिक्खू अन्नयरं भोयणजायं पडिग्गाहित्ता सुभि भुंजइ दुभि परिद्ववेइ, परिहवेतं वा साइज्जइ ।। सू० ४३ ॥
छाया-यो भिक्षुः अन्यतरत् भोजनजातं प्रतिगृह्य सुरभि भुक्ते दुरभि परिष्ठापयति, परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ।। सू० ४३ ।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः 'अन्नयरं भोयणजायं अन्यतरद भोजनजातम्-अनेकप्रकारकं खादिमस्वादिमादिभेदभिन्नं विविधं भोजनजातं भक्तादिकम् 'पडिग्गाहित्ता' प्रतिगृह्य, यदि श्रावकादिगृहादनेकप्रकारकं सुस्वादु दुःस्वादु वा भोजनादिकमानीय तन्मध्यात् 'सुभि भुंजई' सुरभि मनोज्ञं विशिष्टवर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शयुक्त भोजनं भुक्तं । दुभि परिडवेई' दुरभि-दुरभिगधन्युक्तं दुर्वर्ण-प्रशस्तवर्णरहितं दूरसं-प्रशस्तरसवर्जितं दुःस्पर्श-प्रशस्तस्पर्शहीनं भोज्यं परिष्ठापयति-गादिषु प्रक्षिपति, 'परिहवेंतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः श्रावकगृहादानीताहारमध्यात् सुस्वादूधृत्य भुक्ते, दुःस्वादु परित्यजति, एवं कुर्वन्तमनुमोदते वा स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ४३ ॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-वण्ण-गंध-रसेहिं जं, फासेहिं भोयणं जु।
मुभि तं चैव जाणिज्जा, इयरं इयरं हवे ॥ छाया-वर्ण-गन्ध-रसैर्यत्-स्पर्शभोजनं युतम् ।
सुरभि तदेव जानीयात् इतरदितरद् भवेत् ॥ अवचूरि:-'वण्ण-गंध' इत्यादि । यद्भोजनं भोक्तुं योग्यमोदनादिकम् , विलक्षणवर्णेन-श्वेतादिना, विलक्षणेन गन्धेन-सौरभ्यादिना भोजनोपयुक्तेन, मनोज्ञेन-रसेन मधुरादिना, मनोज्ञस्पर्शेन-कोमलादिस्पर्शयुक्तेन, एमिर्वर्णादिभिर्युक्तं यद् भोजनं तदेव सुरभि विजानीयात् । एतादृशं भोजनं सूत्रघटकसुरभिव्यपदेशं लभते इत्यर्थः 'इयरं इयरं हवे' इतरदितरद्भवेत् , यद्भोजनमितरत्-पूर्वोक्तविलक्षणवर्णादिना नोपेतं तद् भोजनमिरतरत् , दुरभि-दुर्वर्णगन्धादियुक्तमिति ज्ञेयम् । अथवा-रसोपेतमपि भोजनं दुरभिगन्धयुक्तं न प्रशस्तम्, तथा-अरसालं-शुष्क भोजनं सुरभिगन्धयुक्तं सुरभि भवतीति । अत्र-सुरभि-दुरभि, एतदुभयप्रकारकमपि भोजनमेकतः प्रत्येक वा गृहीत्वा सुरभिभोजनं भुङ्क्ते, दुरभि च परिष्ठापयति, तस्यैवं कुर्वतो यतेः प्रायश्चित्तं भवति । तथा-आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वात्मसंयमविराधनाः, यस्मादेते दोषा भवन्ति, तस्माद् दुरभिभोज्यस्य वस्तुनः पूर्वं भोजनं कर्त्तव्यम् , तदनन्तरं सुरभिभोजनं कर्त्तव्यमिति ॥ सू० ४३ ॥
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निशोथस् सूत्रम्-जे भिक्खू अन्नयरं पाणगजायं पडिग्गाहित्ता पुष्पगं-पुप्फगं आवियइ कसायं-कसायं परिद्ववेइ परिठ्ठवेंतं वा साइज्जइ ।। सू० ४४ ॥
छाया-यो भिक्षुः अन्यतरत् पानकजातं प्रतिगृह्य पुष्पकं पुष्पकं पापियति, कपायं कपायं. परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४४ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अन्नयर' अन्यतरत् अन्यतरपदग्रहणात्-अनेकप्रकारकम् ,, मधुररसयुक्तं कपायरसयुक्तं च, खण्ड-गुढ--शर्करा-दाडिमी-मृद्दीकाऽऽमलक-हरीतकी-चिश्चादिरसरूपं द्वयमपि 'पाणगजायं पानकजातं, जातशब्दग्रहणात् प्रासुकं 'पडिग्गाहित्ता' प्रतिगृह्य-विधिपूर्वकं गृहीत्वा 'पुप्फगं-पुप्फर्ग आवियइ' पुष्पकं पुष्पकमापिवति, तत्र-पुष्पकं-शुभवर्ण-गन्ध -रसस्पर्शः प्रधानम् अच्छं मनोज़मित्यर्थः । एतादृशमुत्तमोत्तमं पानकनातमापिवति, तथा-'कसायं-कसायं' कपाय कपायं कलपितं शुभवर्ण-गन्ध-रस स्पर्शः प्रतिलोम-कलपितमप्रधानं वा पानकजातम् 'परिहवेई' परिष्टापयति-भूमौ निक्षिपति ।
उक्तञ्च पुष्पककपायविपये
यच्च गन्धरसोपेत-मच्छं तत् पुष्पकं भवेत् ।
दुर्गन्धमरसं यच्च, कपाय कलुपं च तत् ॥१॥ इति ।
अनेकप्रकारकानीतपानकमध्यात् यत्समीचीनं तत्पिबति, यच्चाऽसमीचीनं तनिक्षिपति । 'परिहवेतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तमागू भवति ।
साधुलक्षणमेतत् तथाहि
मा भूयासमहं साधुः, प्रायश्चित्ती कदाचन । मन्यते सोऽसमीचीन, भुक्त्वा भुङ्क्ते तथेतरत् ॥१॥ अत्र भाष्यकारोऽप्याहभाप्यम् - वण्ण-गंध-रसोवेयं, दव्वं तं पुप्फनामगं ।
दुन्भिगंधाइसंजुत्तं, कसायं तं हवे पुणो । कसायं पुन्चमापेज्जं, पुप्फग तयणंतरं ।
एसा सत्यविही वुत्ता, अणंतवरनाणिहि ॥ छाया-वर्ण-गंध-रसोपेतं द्रव्यं तत्पुष्पनामकम् ।
दुरभिगन्धादिसंयुक्त कपायं तद् भवेत्पुनः ।। कपायं पूर्वमापेयं पुष्पकं तदनन्तरम् ।। एप शास्त्रविधिः प्रोकः अनन्तवरशानिभिः ।।
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०२ सू०४५ सांभोगिकपृच्छां विनाऽधिकाहारपरिष्ठापननिषेधः ६५
अवचूरिः- 'वण्णगंध' इत्यादि । यत्पानकनातं वस्तु, वर्ण-गन्ध-रसोपेतं-सुवर्णेन सुगन्धेन सुरसेन मधुरादिना युक्तं भवेत् तद्-द्रव्यं पुष्पसंज्ञकं भवति । तथा-यत्पानकजातं दुर्गन्धादि. विशिष्टं दुर्वर्णेन कुत्सितगन्धेन कुरसेन कठोरस्पर्शेन युक्तं तत् कषाय-कलुषितं भवेत् । तत्र कषायं पानकजातं पूर्वमापेयं, तदनन्तरं पुष्पकं पिवेत् , एष शास्त्रविधिः अनन्तवरज्ञानिमिस्तीर्थकरैरुक्तः, अतः पुष्पकं कषाय चैतवयमप्यानीय यत्पुष्पकं तत् पीत्वा यत्कपायं तस्य परिष्ठापनं न कुर्यात् , किन्तु प्रथमं पुष्पकं पीत्वा पश्चात् कषायं पिबेत् । उक्तञ्च -
शास्त्रकर्तुश्च मर्यादा, कपायं प्रथमं पिवेत् ।
आज्ञाभङ्गादिकान् दोपान् पश्यन् पश्चात्तु पुष्पकम् ॥१॥ अन्यथा प्रायश्चित्तभाग भवेत् ॥ सू० ४४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू मणुण्णं भोयणजायं पडिग्गाहेत्ता बहुपरियावन्नं सिया अदूरे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुन्ना अपरिहारिया संता परिवसति ते अणापुच्छिय अणिमतिय परिहवेइ परिडवेतं वा साइज्जइ ॥
छाया-यो भिक्षुर्मनोशं भोजनजातं प्रतिगृह्य बहुपर्यापन्नं स्यात् अदूरे तत्र साधर्मिकाः सांभोगिकाः समनोशा अपरिहार्याः सन्तः परिवसन्ति तान् अनापृच्छय अनिमन्त्र्य परिष्ठापयति, परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥सू० ४५॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि। 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'मणुण्णं भोयणजायं' मनोज्ञ भोजनजातम्-शुभ-वर्ण-गंध-रस-स्पर्शसमन्वितमुत्तमभोजनजातम् अनेकप्रकारकमाहारादिकम् 'पडिग्गाहेत्ता' प्रतिगृह्य-आनीय भुक्ते । तच्च यदि 'परियावन्न सिया' पर्यापन्नं स्यात्-प्रयोजनतोऽधिकं भवेत् 'अरे तत्थ साहम्मिया' अदूरे तत्र-न दूरमदूरम्-मासन्नम् क्रोशद्वयान्तरावधौ ग्रामादौ साधर्मिकाः-समानधर्माचरणशीलाः साधवः 'संभोइया' सांभोगिकाः, यैः सहैकमण्डल्यामाहारादिक कत्त कल्पते तथाविधाः साधवः 'समणुन्ना' समनोज्ञाः उद्यतविहारिणः, एतादृशाः पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टाः सन्तोऽपि सातिचारत्वेनाऽदेयाहारा भवेयुस्तत्राह-'अपरिहारिया' अपरिहार्याः, निरतिचारचारित्रत्वेनापरित्याज्याः, निरतिचारा इत्यर्थः । एतादृशाः साधवो यथासन्ने 'संता' सन्तः विद्यमानाः 'परिवसंति' क्रोशद्वयपरिमिते ग्रामादौ तिष्ठन्ति तदा ते अणापुच्छिय' तान्-अनापृच्छयाऽपृष्ट्वा 'अणिमंतिय' अनिमन्त्र्य, तेषां निमन्त्रणमकृत्वा, 'मत्सविधे-एतावदधिकं जातं, तस्य यदि भवतां प्रयोजनं भवेत्-तदा-गृह्णन्तु भवन्तः' एवंप्रकारेण तेषामामन्त्रणमकृत्वा अपृष्ट्वेत्यर्थः यदि 'परिहवेंति' परिष्ठापयन्ति, यद्वा 'परिहवेत साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवतीति ॥ सू० ४५॥
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निशीथस्त्रे
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अत्राह भाग्यकार:भाष्यम्-जावइयं उवजुत्तं, गिण्हेज्जा तावमेत्तमसणाइ ।
साहुस्स अहियगहणे, दोसा लोभाइणो होति ॥ छाया-यावत्कमुपयुक्तं गृहीयात् तावन्मात्रमशनादि ।
साधोरधिकग्रहणे दोपा लोभादयो भवन्ति ॥ अवचूरिः-'जावइयं उवजुत्तं' इत्यादि । साधूनां यावन्मात्रमुपयुक्तमाहारादिकं स्यात् तावन्मात्रमाहारं गृह्णीयात्-श्रावकगृहादानयेत् न तु ततोऽधिकग्रहणं कुर्यात् , प्रमाणादधिकाहारग्रहणे साधोः पुनर्लोभादयो दोषा भवन्ति । तथाहि-प्रमाणतो यावदेवोपयुक्तं तावन्मात्रमेवाहारादिकं गृह्णीयात् । अधिकग्रहणे लोभदोषः । तथा-तस्य परिष्ठापने परिष्ठापनादोपः । आज्ञाभङ्गादिकाश्चाऽपि दोषाः, तत्र-एकेन्द्रियादीनां विराधनात् । अधिकभोजनकरणे विपूचिकादयो रोगाः इत्यात्मविराधनम् , यस्मादेते दोषाः तस्मात् कारणात् प्रमाणादधिकमाहारादिकं न ग्रहीतव्यम् । अत्र शिप्यः प्राह-हे गुरो ! यदि प्रमाणयुक्तमेवाहारादिकं अहिप्यति तदा-मधिकं न भवति, अथ-यदि अधिकम् तदा प्रमाणतो ग्रहणमिति वाक्यं निरर्थकम् , एवं परस्परविरोधे सूत्रं निरर्थकमेव भवति ? आचार्यः प्राह-सूत्रं सार्थकमेव न निरर्थकम् । तथाहि-यत्र प्रामे नगरे वा वहूनि श्रावककुलानि-अतिभावयुक्तानि सन्ति, तत्र भिक्षाथै गतस्य साधोमनोज्ञमितिकृत्वा तैर्मावतोऽधिकं पात्रे निपातितं भवेत् , तच्च साधुरानीतवान् , एवमधिकं भवेदिति । तत्र यदधिकं तद् यदि क्रोशद्वयदूरे सांभोगिकसाधूनां निवासो भवेत् तदा तेपामावश्यकतायां तत्र गत्वा दद्यात् । तत्र प्रच्छनेऽयं क्रमः-यदि कृतेऽपि भोजनेऽधिकमवशिष्ट माहारो भवेत् तदा-प्रथमतः स्वग्रामे स्वकीये उपाश्रये च ये सांभोगिका भवेयुस्ते पूर्व प्रष्टव्याः । यदि ते न स्वीकुर्युः तदा स्वप्रामेऽन्योपाश्रये ये भवेयुस्ते सांभोगिकाः प्रष्टव्याः, यदि स्वीकुर्युस्तदा तेभ्यो देयम् । अथ यदि ते न स्वीकुर्युस्तदा स्वक्षेत्रेऽन्यग्रामे प्रष्टव्याः, ते यदि स्वीकुर्युस्तदा सम्यक् । नो चेत्, तदा स्वक्षेत्रावहिरन्यनामे किन्तु क्रोशद्वयाभ्यन्तरे यदि सांभोगिका भवेयुस्ते प्रष्ठव्याः, एवं क्रमशः साधवः प्रष्टव्याः एवमनापृच्छयैव यद्यधिकमाहारं साधुः परिष्ठापयेत्तदा-आजाभङ्गादिदोपभाग् भवतीति ॥सू० ४५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सागारियं पिंडं गिण्हइ, गिण्हतं वा साइज्जइ ॥ छाया-यो भिक्षुः सागारिक पिण्डं गृह्णाति गृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४६ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः 'सागारियं पिंडं' सागारिक पिण्डं, तत्र-सागारिकः-उयाश्रयाधिपतिः साधोः स्थानदाता शय्यातरो गृहस्थः, तस्य
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २ सू० ४६-४८ सागारिकपिण्डग्रहणोपभोगाशातत्कुल प्रवेशनि० ६७ पिण्डं भक्तादिकम् 'गिण्हई' गृह्णाति-स्वीकरोति 'गिण्हतं वा' गृह्णन्तं वा-स्वीकुर्वन्तं स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ४६ ।।
संप्रति सागारिकस्य षड् द्वाराणि प्राह-- भाष्यम्--सागारियस्स दाराणि, अणेगाणि हवंति खु ।
ताई सव्वाइं जाणंतु, जहासत्थं वियक्खणा॥ छाया-सागारिकस्य द्वाराणि अनेकानि भवन्ति खलु ।
तानि सर्वाणि जानन्तु यथाशास्त्र विच क्षणाः ॥ अवचूरि:--'सागारियस्त' इत्यादि । सागारिकस्य-शय्यातरस्य द्वाराणि अनेकानिअनेकप्रकारकाणि भवन्ति, तानि सर्वाणि यथाशास्त्रं-शास्त्रप्रतिपादितप्रकारेण विचक्षणा:-बुद्धिमन्तो जानन्तु ।
सागारिकस्य सप्त द्वाराणि भवन्ति, अत्र तत्संग्राहकं गाथाद्वयम् , तथाहि
"सागरिक इति को वा १, कदा शय्यातरो भवेत् २। कतिविधश्च तत्पिण्डः ३, अशय्यातरकः कदा ४ ॥१॥ त्याज्योऽसौ कस्य विज्ञेयो ५, दोषाः पिण्डग्रहे च के ६।
अनेकेषु च तेषु स्यादेकः सागारिकः पुनः ७ ॥२॥” इति तथा च तदर्थः-कः पुनः सागारिकः शय्यातरो भवतीति प्रथमद्वारम् १, कदा स शल्यातरो भवतीति द्वितीयद्वारम् २, कतिप्रकारकः शय्यातरपिण्डः इति तृतीयाद्वारम् ३, अशय्यातरः स कदा भवतीति चतुर्थद्वारम् ४, स च कस्य त्याज्यो भवति, इति पञ्चमं द्वारम् ५, दोषाः पिण्डग्रहे च के, इति षष्ठं द्वारम् ६, अनेकेपु द्वित्रादिषु सागारिकेपु वा एको ग्रहीतव्यः, इति सप्तमं द्वारम् ७ । 'सागारिक इति को वा' इति प्रथमं द्वारमाह-तत्र-अगारेण गृहेण यत् सहितं तत्सागारं, तसंयोगात् सागारिक इति, अस्य पञ्च नामानि एकार्थकानि नानाव्यञ्जनानि सन्ति, तथाहि-सागारिकः १, शय्यातरः २, शयदाता ३, शय्याधरः ४, शय्याकरः ५, इति । तत्र सागारिकशब्दस्यार्थः पूर्वमुक्त एव १, साधवे शय्यादानेन भवं तरतीति शय्यातरः २, शय्यादाता-साधवे शय्यादानात् ३, शय्याधरः-साधवे शय्यादानेन धरति आत्मानं दुर्गतेरुद्धरतीति ४, शय्याकरः-यस्मात् शय्यां करोति तस्मात् शय्याकरः ५, इति । 'सागारिक इति को वा' इति प्रथमं द्वारम् १ । 'कदा शय्यातरो भवेत्' इति द्वितीयं द्वारमाह-यस्मिन् काले वसतो वस्तं यत्सकाशाद् आज्ञा गृह्यते स तस्मात्कालादेव शय्यातरो भवेदिति द्वितीयं द्वारम् २ । 'कतिविधश्च तत्पिण्डः' इति तृतीयं द्वारमाह-शय्यातरपिण्डो द्विविधो भवति माहारः-उपधिश्च । चतुर्विधो वा भवति,
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निशीथसत्रे
अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य- भेदात् । षड्विधो वा भवति - अशनादयश्चत्वारः द्वौ उपधिविषयकौऔघिकोपधिः औपग्रहिकोपधिश्चेति तृतीयं द्वारम् ३ | 'अशय्यातरकः कदा ' इति चतुर्थ द्वारमाहयदा - वसतिं परित्यज्य गृहस्वामिन आज्ञां परावर्त्त्य स्थानान्तरं करोति तदा - सोऽशय्यातरो भवति - इति चतुर्थं द्वारम् ४ । ' त्याज्योऽसौ कस्य विज्ञेयः' इति पञ्चमं द्वारमाह - साधुगुणवर्जितानां लिङ्गमात्रधारिणां यः शय्यातरो भवेत्, ते तस्य शय्यातरस्य पिण्डं गृह्णीयात् न वा गृहीयात् तथापि स शय्यातरः साधूनां व्याज्य एव भवतीति पञ्चमं द्वारम् ५ । 'दोपाः पिण्डग्रहे च के' तस्य सागारिकस्य पिण्डग्रहणे के दोषा इति पष्टं द्वारमाह-अय्यातरपिण्डस्तीर्थकरैः ऋपभादिभिः प्रतिषिद्धः तस्मात् - शय्यातरपिण्डो न ग्रहीतव्यः, इति पष्ठं द्वारम् ६ । 'अनेकेषु च०' इत्यादि, अनेकस्वामिकेषु वसत्यादिषु “एकस्यैवाज्ञा ग्रहीतव्या" इति सप्तमं द्वारम् ७। शय्यातरस्य सविस्तर - वर्णनं दशवैकालिकसूत्रस्य मत्कृतायामाचारमणिमन्जुपाव्याख्यायां विलोकनीयम् ॥ सू० ४६ ॥
ઘૂંટ
सूत्रम् — जे भिक्खू सागारियपिंडे भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ । सू०४७| छाया -यो भिक्षुः सागारिकपिण्डं भुङ्क्ते भुञ्जन्तं वा स्वदते ॥ सृ० ४७||
'चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'सागारियपिंडं' सागारिकपिण्डं शय्यातरस्य भक्तपानादिकम् 'भुंजइ' भुङ्क्ते - शय्यात रपिण्डस्योपभोगं करोतीत्यर्थः । भुजंतं वा साइज्जइ' भुञ्जन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ४७ ||
सूत्रम् - - जे भिक्खू सागारियकुलं अजाणिय अपुच्छिय अगवे - सिय पुव्वामेव पिण्डवायपडियाए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंत वा साइज्जइ ॥ सू० ४८ ||
छाया -यो भिक्षुः सागारिककुलमज्ञात्वा - अपृष्ट्वा - अगवेपयित्वा पूर्वमेव पिण्डपातप्रतिज्ञयाऽनुप्रविशति - अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४८ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'सागारियकुलं' सागारिककुलं - शय्यातरगृहम्, 'अजाणिय' अज्ञात्वा - किमिदं श्रावकस्य गृहम् अन्यस्य वेति निश्चयमकृत्वा 'अपुच्छिय' अपृष्ट्वा - अमुकशय्यातरगृहं क्व वर्त्तते इति समीपवर्त्तिश्रमणादिभ्यः पृच्छा'मकृत्वा 'अगवेसिय' अगवेषयित्वा - शय्यातरः कस्मिन् स्थाने वसति - इति गवेषणामकृत्वा । तत्र-पूर्वदृष्टे पृच्छा, अपूर्वदृष्टे गवेषणा, इति पृच्छा - गवेषणयोर्भेदः । 'पुव्वामेव' पूर्वमेव-शय्यातरगृहादिगवेषणाकरणतः - प्रागेव 'पिंडवायपडियाए' पिंडपात प्रतिज्ञया, तत्र - पिण्डोऽशनादिकम् गृहिणा दीयमानस्याहारस्य पात्रे पातः प्रक्षेपो ग्रहणं, तस्य प्रतिज्ञया पिण्डग्रहणवुद्धचेत्यर्थः, 'अणुप्म
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०२ सू० ४९ सागारिकनिश्रयाऽवभाष्य भिक्षायाचननिषेधः ६६ विसई' अनुप्रविशति शय्यातरमज्ञात्वा भिक्षार्थ निर्णयात्पूर्वमेव शय्यातरकुलं प्रविशति, 'अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ' अनुप्रविशन्तमन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥
न दोपभागी प्रभवामि तस्माज्ज्ञात्वा च पृष्ट्वाऽथ गवेपयित्वा । ततो विशेत् श्रावकगेहमध्यं, मर्यादितः शास्त्रविलोकनेन ॥१॥ इति ।। सू० ४१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सागारियणीसाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ ।। सू०४९॥
छाया-यो भिक्षुः सागारिकनिश्रया-अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिम वा-अवभाज्या वभाष्य याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० ४९ ॥
चूर्णी-'जे मिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः 'सागारियणीसाए' सागारिकनिश्रया, सागारिकः-श्रावकः, तस्य निश्रा-परिचयरूपा, तया 'अहममुकस्य वसतौ स्थितोऽस्मि' इति परिचयरूपया, अथवा स्वजनस्य कस्यचिद् गृहे शय्यातरं स्थितं दृष्ट्वा-'अयं मे भिक्षां दापयिष्यति' तदाश्रयेण 'असणं वा पाणं वाखइमं वा साइमं वा' अशनं पानं खाचं स्वाद्यम्-अशनादिचतुर्विधाहारं 'ओभासिय-ओभासिय' अवभाण्यावभाष्य विशिष्टवचनरचनापूर्वकम् उच्चैःस्वरेण वदित्वा-वदित्वा 'जायई' याचते याचनां करोति-कारयति । 'जायंतं वा साइज्जई' एवं प्रकारेण याचमानमनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ॥ सू० ४९॥
अत्राह भाण्यकार:भाष्यम्-सयणो सावगस्सायं, तत्थ दहण सावगं ।
दावेज्जा एस में भिक्खं,-तिकट्टु सोऽवभासइ ॥ छाया-स्वजनः श्रावकस्यायं तत्र दृष्ट्वा तु श्रावकम् ।
__ दापयेदेष मे भिक्षा-मितिकृत्वाऽवभाषते ॥ अवचूरि:-'सयणो'- इत्यादि । श्रावकस्य प्रतिष्ठितोदारचित्तस्य यः स्वजनः आत्मीयो जनः स यत्र प्राङ्गणादौ तिष्ठति, तत्र प्राङ्गणे श्रावकं शय्यातरश्रावकं दृष्ट्वा एष मह्यमस्मात्परिजनसकाशाद् भिक्षां दापयेत्, इतिकृत्वा तन्निश्रयोच्चैःस्वरेण तमेव सागारिकभवभाषते १, तव स्वजनोऽयमतस्त्वं दापय एतस्मादशनादिकम् २, यद्वा-सागारिकस्य-पूर्वपश्चात्संस्तुतस्य निश्रायां भाषते-यद्स्यैव गौरवेणायं मे भिक्षां दास्यतीति तं वाऽवभाषते ३, मम चारित्राचारसंपन्नस्य प्रभावेण वा. दापय ४ । एभिश्चतुर्भिरपि' प्रकारैयों भिक्षुरशनादिकमवभाण्य
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निशीथसूत्रे याचते, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति । तथा-पूर्वपश्चात्संस्तुते उद्गमैपणादिदोषा भवन्ति, एवमुद्गमादिदोपाः श्रावकेऽपि भवन्ति । तथा पूर्वपश्चात्संस्तुतेऽपि एते दोपा:-ये श्रावकस्य पूर्वपश्चासंस्तुतास्ते परगृहेपु-अवभाषमाणा एवं कुर्युः-एप नित्यमस्माकमेव गृहे तिष्ठतीति कृत्वा, उद्गमादिदोपदुष्टमप्यशनादिकं करिष्यन्ति, परुपादिकं च वदेयुः । यस्मादिमे दोपा भवन्ति तस्मात्सागारिकनिश्रया पूर्वपश्चात्सस्तुतस्य सागारिकस्य निश्रया वा श्रावककुलेऽवभाण्याऽवभाज्याशनादीनां याचना न कर्त्तव्या । सागारिकस्याहारादिग्रहणं प्रागेव निषिद्धं पुनरत्र सागारिकनिश्राघटकस्य सागारिकशब्दस्य कोऽर्थः ? इत्यत आह-अत्र सागारिकशब्देन सामान्यो गृहस्थो वोध्यः ॥ मू० ४९ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू उज्वद्धियं सेज्जासंथारंगं परं पज्जोवसणाओ उवाइणावेइ उवाइणावेत वा साइज्जइ ।। सू० ५०॥
छाया-यो भिक्षुः ऋतुबद्धकं शय्यासंस्तारकं परं पर्युषणातः अतिक्रामयति अति. कामयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५० ।।
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'उउवद्धियं सेज्जासंथारगं' ऋतुबद्वकम्-ऋतुबद्वकालसम्बन्धि शय्यासंस्तारकम् पीठफलकतृणादिकं, शय्या च संस्तारकश्च, अनयोः समाहारे शय्यासंस्तारकम् , तत्र-शय्या शरीरप्रमाणा, सस्तारकः सार्द्धहस्तव्यप्रमाणः । ऋतुबद्वे-मार्गशीर्षायापाढपर्यन्ताष्टमासात्मके शेपकाले गृहीतं शय्यासस्तारकम् शेषकाले समानीतं शय्यासंस्तारकं 'परं पज्जोवसणाओ' पर्युषणातः परं संवत्सरीदिनतः परम् 'उवाइणावेई' अतिक्रामयति उल्लइयति यस्माद् गृहोतं तस्मै यः समर्पणकालस्तमुल्लयति, ऋतुवद्वकालगृहीतशय्यासंस्तारकं गृहस्थाय न समयं पर्युपणानन्तरं तस्योपभोगं करोतीत्यर्थः, अतिक्रामयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । संवत्सरीदिनतः प्रागेव तद् भोक्तव्यम् , संवत्सरीदिने तत् तत्स्वामिने समर्पणीयमेवेति भावः । यदि तस्योपभोगकारण स्यात् तदा तदुपभोगाय तत्स्वामिन आज्ञा पुनर्ग्रहीतव्येति विवेकः ॥ सू० ५० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वासावासियं सेज्जासंथारयं परं दसरायकप्पाओ उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइज्जइ ।। सू० ५१ ॥
छाया-यो भिक्षुः वर्षावासिकं शय्यासंस्तारकं परं दशरात्रकल्पात् अतिक्रामयति अतिक्रामयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५१ ॥
चूणि:-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्ख यो भिक्षुः वासावासियं' वर्षावासिक वर्षाकाले उपभोगार्थमानीतम् तत्-'सेज्जासंथारगं' शय्यासंस्तारकम् वर्षाकाले व्यतीतेऽपि
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०२ सू० ५०-५३ शय्यासंस्तारकस्य प्रत्यर्पणसंरक्षणादिविधिः ७१
वर्षादिकारणगौरवात् पञ्चदशरात्रपर्यन्तं व्यवहर्तुमुपभोक्तुं शक्नोति कथञ्चित् , किन्तु-परं दसरायकप्पाओ' परमधिकं दशरात्रकल्पात् यदि-'उवाइणावेइ' अतिक्रामयति-उल्लद्धयति 'उवाइणावेत वा साइज्जई' अतिक्रामयन्तं वा यो यदा स्वदतेऽनुमोदते स तदा प्रायश्चित्तभाग् भवति । शय्यासंस्तारकं द्विविधं भवति-परिशाटि अपरशाटि च। तत्र-कुशतृणादिनिर्मितस्य यस्योपभोगकाले कश्चिदंशः परिशटति--नश्यति तत् परिशाटि, यस्य च वंशकाष्ठादिनिर्मितस्योपभोगकाले किञ्चिन्मात्रोऽप्यंशो न परिशटति-न नश्यति तदपरिशाटि-इति बोध्यम् । परिशाटि च साधूनां नो कल्पते यतस्तद्ग्रहणे अनेके जीववधादयो दोषाः, तेन च संयमात्मविराधना भवति । परिशटितपीठफलकादिषु शुपिरस्थितजीवानां विराधना भवति, शटितं तत् त्रुट्यति तदा आत्मविराधनाऽपि भवति । तथा--आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनं च भवति । तीर्थकृतामाज्ञाभङ्गस्तैर्निषिद्धत्वात् , अनवस्था च-अन्यान्यकरणसंभवात् , लोके-मिथ्यात्वमपि जायते जीवविराधकवस्तूपभोगात् । संयमविराधनमित्थम्--शुषिरादिपु कुन्थुकादिसूक्ष्मजीवाः संमूच्छिता भवन्ति । तत्र परिशाटिशय्यासंस्तारकमास्तीर्य स्वपतः कुन्थुकादिजीवा विराघिता भवेयुरिति संयमविराधनम् । तथा--अन्येऽपि बहवो जीवाः पिपीलिकादयः वर्षायां शुषिरे संमूर्छिता भवन्ति, इत्येवमपि संयमविराधनम् । आत्मविराधनं चेत्थम्- वर्षायां तत्र शयने कृते पिरे स्थितः सादिर्दशति-इत्यात्मविराधनम् , तत्र शुपिरसद्भावात् पनकः (लीलनफूलन) अपि संछितो भवति । एते प्राणविघातकादयो दोषाः । तथा तद्गन्धादुपधौ यूकादिजीवा भवन्ति । इत्यादयो दोषाः परिशाटिशय्यासस्तारकग्रहणे भवन्ति ।
यस्मादेते दोपाः तस्मात्-कारणात् भर्पाकालेऽपरिशाटि शय्यासंस्तारकं ग्रहीतव्यम् । तदपि विधिपूर्वकं ग्रहणं कर्त्तव्यम् । यदा खलु पीठफलकादिकं लभ्यते--तदैवं वक्तव्यम्-भोः श्रावक ! अस्य शय्यासंस्तारकस्योपभोगानन्तरं पुनरर्पयिष्याम प्रातिहारिकं च अहिण्यामि नियमतोऽमुकेन कालेनाऽर्पयिष्यामि । यद्येवं श्रावकः स्वीकरोति तदा ग्रहीतव्यम् । अथ यदि कदाचिदेवं न स्वीकरोति श्रात्रकः तदाऽन्यदेव संमारकादिकं मार्गयितव्यम् । यदि गृहीतं च शय्यासंस्तारकादिकं नेतुं न शक्यते तदा-छन्ने प्रदेशे स्थापयितव्यम् येन वर्षाजलेन प्लावितं न भवेत् । एवं दाता (श्रावकः) प्रष्टव्यः मदीये कार्य समाप्ते शय्यासंस्तारकं मया कस्मै-अर्पणीयम् ३ श्रावको वदति मह्यमेव दात्रेऽर्पणीयम् । तदा पुनः साधुर्वदति-यदि त्वं कदाचिद् दृष्टो न भवेः तदा कस्मै अर्पणीयम् ? श्रावको वदति--अत्रैव गृहे भवद्भिरानेतव्यम् ।
तदा वक्तव्यं साधुना--कस्मिन् स्थाने स्थापयिष्यामि ! अथ स वदेत्--अत्रैव गृहे प्रच्छन्नप्रदेशे स्थापयितव्यम् । अथवा--एवं वदेत्-यस्मात्-स्थानाद् गृहीतं तत्रैव स्थापनीयम् । एवंप्रकारेण गृहीतशय्यासंस्तारकादिविषये भणितव्यम् ॥ सू० ५१॥
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निशीथसूत्रे
सूत्रम् — जे भिक्खू उउवद्धियं वा वासावासियं वा सेज्जासंथारगं उच्चरिसिज्जमाणं पेहाए न ओसारेइ न ओसारेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५२॥
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छाया -यो भिक्षु ऋतुवद्धकं वा वर्षावासिकं वा शय्यासंस्तारकं उद्वर्ण्यमाणं प्रेक्ष्य नाऽपसारयति, नाऽपसारयन्तं वा स्वदते ॥ सु० ५२ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'उउवद्धियं वा' ऋतुबद्धकं वामार्गशीर्षाचा पाढपर्यन्ताष्टमासात्मके काले स्वेनात्मना परेण वा गृहीतम् । 'वासावासियं वा' वर्षावासिकं वा चातुर्मास सम्बन्धिकम्, उपभोगाय वर्षाकाले समानीय स्ववसतौ स्थापितम् । 'सेज्जासधारणं' शय्यासंस्तारकं पीठफलकतृणादिकमनावृतस्थाने प्रसारितं 'उच्चरि सिज्जमाणं' उद्व
माणं घृष्ट्या विद्यमानं जलेन आदभवन्तमित्यर्थः ' पेहाए' प्रेक्ष्य - दृष्ट्वा 'न भसारइ' नाडपसारयति - न दूरीकरोति, अनावृतप्रदेशादावृतप्रदेशे न करोति, न कारयति 'न ओसारेंतं वा साइज्जर्' नाऽपसारयन्तं-नोऽन्तः कुर्वन्तं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ॥ ५२॥
अत्राह भाष्यकारः-
भाष्यम् - वासाज लेण सितं, सेज्जासंथारगं च पीढाइ । नो ओसारह जो उ, पावइ सो आणभंगाइ ॥
छाया - वर्षाजलेन सिक्तं शय्यासंस्तारकं च पीठादि । नो अपसारयति यस्तु प्राप्नोति स आज्ञाभङ्गादि ॥
अवचूरि : - 'वासाजलेणं' - इत्यादि । यो भिक्षुः ऋतुबद्धकाले वर्षाकाले वा अनावृतस्थाने प्रसारितं यत् शय्यासंस्तारकं पीठादि- पीठफलकतृणादिकं तद्यदि वृष्टिजलेन सिक्तं मियमानं वा भवेत् तत् नाऽपसारयति नो दूरीकरोति वर्षाप्रदेशात् वर्षारहितप्रदेशे - वसतेरन्तभांगे न करोति यः स आनाभङ्गादिदोपान् प्राप्नोति ॥ सू० ५२ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू पाडिहारियं सेज्जासंथारगं दोच्चंपि अणणुण्णवेत्ता चाहिं णी णातं वा माइज्जइ ॥ सृ० ५३ ॥
छाया - यो भिक्षुः प्रातिहारिकं शय्यासंस्तारकं द्विवारमपि - अननुज्ञाय्य वहिः निर्णयति निर्णयन्नं वा स्वदवे || सू० ५३ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्यू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षु: 'पाडिहारियं' प्रातिहारिकम् श्रावकगृहात्तस्य गृहपतेराज्ञया समानीय वसतौ स्थापितं - पुनः प्रतिज्ञातसमये प्रत्यर्पणीयम्
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चूर्णिमायावचूरिः उ० २ सू० ५०-६० प्रणष्टशय्याद्यगेवपणोपध्यप्रतिलेखन निषेधः ७५ कृत्वा विहारकाले 'अविगरणं कट्टु अणप्पिणित्ता' अविकरणं कृत्वा - अनर्पयित्वा विकरणम् अन्यथा करणं, न तथा-अविकरणं - यथागृहीतं तथाकरणमित्यर्थः, तत् कृत्वा श्रावकात् पीठफलकतृणादिकं यथागृहीतं तथाकृत्वा - तथा संपादनपूर्वकम्, अनर्पयित्वा - अदत्त्वा मत्कुणादिजीवसहितमेव पीठफलका दिकं तृणादिसंस्तारकं च दत्त्वेति भावः 'संपव्त्रयइ' संप्रव्रजति - विहारं करोति, तथा 'संपव्वयंतं' संप्रत्रजन्तमन्यम् 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ५७ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू पाडिहारियं वा सागास्यिसंतियं वा सेज्जासंथारगं विप्पण न गवेसइ न गवेसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५८ ॥
छाया -यो भिक्षुः प्रातिहारिकं वा सागारिकसत्कं वा शय्यासंस्तारकं विप्रणष्टं न गवेषयति न गवेपयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५८ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पाडिहारियं वा' प्रातिहारिकं - प्रत्यर्पणार्हम् 'सागारिय संतियं' सागारिकसत्कम् सागारिकसम्बन्धिकं सांप्रतं श्रमणाधीनम् 'सेज्जासंथारगं' शय्यासंस्तारकं - पीठफलकादिकं रक्ष्यमाणमपि 'विपणहूं' विप्रणष्टम्-चौरादिनाऽपहृतम् तद्यदि 'ण गवेसइ' न गवेषयति, इतस्ततोऽन्यान्यं न पृच्छति तद्रूपां गवेपणां न करोतीत्यर्थः, तथा ' न गवेसंतं साइज्जइ' न गवेपयन्तमन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्ता भवति ॥ सू० ५८ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू इत्तरियंपि उवहिं ण पडिलेहइ ण पडिलेहंत वा साइज्जइ ॥ सू० ५९ ॥
छाया -यो भिक्षुः इत्वरिकमपि उपधिं न प्रतिलेखयति न प्रतिलेखयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५९ ॥
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चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'इत्तरियंपि उबर्हि' इत्यरिक स्वल्पमप्युपधि वस्त्रपात्रादिकम्, सत्रिधा - जघन्य - मध्यमो - कृष्टभेदात् । तत्र - जघन्यो मुखवस्त्रिका वस्त्रखण्डं वा, मध्यमः -प्रावरणचोलपट्टकादिरूपः, उत्कृष्ट :- सर्व वस्त्रपात्रादिकम् तस्मिन् स्वल्पमपि मुखवस्त्रिका रूपमपि 'न पडिलेहर' न प्रतिलेखयति तस्य प्रतिलेखनां न करोति उभयकाल सर्वभाण्डोप करणादीनाम् तेन प्रमादी भवति । प्रमादप्रभावात् संयमकियां विस्मरति । एकस्यां संयमक्रियायां विस्मृतायामन्यापि स्वाध्यायादिक्रिया विस्मृता भवति, ततश्चारित्रभ्रंशः, चारित्रभ्रंशात्-चातुर्गतिकसंसारभ्रमणमनन्तजन्ममरणप्राप्तिः, तस्मादुभयकालं सर्वभाण्डोपकरणानां प्रतिलेखना कर्त्तव्या । 'ण पडिलेहंतं वा साइज्जइ' न प्रतिलेखयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ५९ ॥
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निशीथसूत्र छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिक-सागारिकसत्कं वा शय्यासंस्तारकं द्वितीयमपि अननुज्ञाप्य घहिः निर्णयति निर्णयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५५ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पाडिहारियं' प्रातिहारिक उपभोगानन्तरं प्रत्यर्पणयोग्यम् 'सागारियसंतिय वा' सागारिकसत्क-सागारिकसम्बन्धिकं वा 'सेज्जासंथारगं' शय्यासंस्तारकं-पीठफलकादिकं अपरिशाटिलक्षणं (५१ सू० द्र०) पीठफलकतृणादिकम् 'दोच्चंपि अणणुण्णवेत्ता' द्वितीयमपि वारमननुज्ञाप्य । प्रथमवारं तु मासकल्पशेघकालेऽनुज्ञापितम् , इदानीं पुनर्वहिनिर्णयनेऽनुज्ञाप्यम् , किन्तु-एकदैवाऽनुज्ञाप्यानीतं शय्यासं. स्तारकं पुनर्द्वितीयोपाश्रये नयनसमयेऽननुज्ञाप्य नयति । तथा 'णीणेतं वा साइज्जई' अननुज्ञाप्यैव वहिणिर्णयन्तमन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।
चतुष्पञ्चाशत्सूत्रे सागारिकाधीनवस्तुनो नयने दोषः कथितः । अत्र तु-पुनः प्रातिहारिकवस्तुनयने दोष इत्यनयोर्भेदः । मन्दमतीनां सुखबोधाय पुनः कथनम् ।। सू० ५५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पाडिहारियं सेज्जासंथारयं आदाए अपडिहट्ट संपव्वयइ संपव्ययंत वा साइज्जइ ॥ सू० ५६ ॥
छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिकं शय्यासंस्तारकम्-आदाय अप्रतिहत्य संप्रव्रजति संप्रवजन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५६ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पाडिहारियं सेज्जासंथारयं' प्रातिहारिकम्-प्रत्यर्पणयोग्यम् । अयं भावः-यद् मासकल्पादिकरणार्थ सागारिककुलादानीतं शय्यासस्तारकम् , तत्-मासकल्पे परिपूर्णे सति यस्माद् गृहीतं पुनस्तस्मै प्रत्यर्पणीयम, एतादृशशय्यासंस्तारकस्य धारणं भवति तत्प्रातिहार्य शय्यासंस्तारकं कथ्यते, एतादृशं शय्यासंस्तारकं पीठफलकादिकं श्रावकसकाशात् 'आयाए' आदाय-गृहीत्वा-अनुज्ञापूर्वकं प्रतिगृह्येत्यर्थः 'अपडिह?' अप्रतिहत्य अनर्पयित्वा, पूणे मासकल्पे पुनरर्पणमकृत्वैव यदि-'संपन्चयई' मंप्रव्रजति-विहारं करोति । तथा 'संपन्चयंत वा साइज्जइ' संप्रव्रजन्तमन्यं 'वा' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ५६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सागारियसंतियं सेज्जासंथारयं आयाए अविगरण कटु अणप्पिणित्ता संपव्वयइ संपव्वयंतं वा साइज्जइ ॥ सू०५७॥
छाया-यो भिक्षुः सागारिकसत्कं शय्यासंस्तारकमादायाऽविकरणं कृत्वा अन पयित्वा संप्रनजति संप्रव्रजन्तं पा स्वदते ॥ सू० ५७ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः सागारियसंतियं' सागारिकसत्क-गृहस्थसम्बन्धिकम् 'सेज्जासंथारयं' शय्यासंस्तारकम् 'आयाए' मादाय तदुपभोग
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चूर्णिमाष्यावचूरिः उ० २ सू० ५४-६० प्रणष्टशय्याद्यगेवषणोपध्यप्रतिलेखननिषेधः ७५ कृत्वा विहारकाले 'अविगरणं कड अणप्पिणित्ता' अविकरणं कृत्वा-अनर्पयित्वा, विकरणम् अन्यथा करणं, न तथा-अविकरणं-यथागृहीतं तथाकरणमित्यर्थः, तत् कृत्वा श्रावकात् पीठफलकतृणादिकं यथागृहीतं तथाकृत्वा-तथासंपादनपूर्वकम् , अनर्पयित्वा-अदत्वा मत्कुणादिजीवसहितमेव पीठफलकादिकं तृणादिसंस्तारकं च दत्त्वेति भावः 'संपन्चयइ' संप्रव्रजति-विहारं करोति, तथा 'संपव्ययंतं' संप्रव्रजन्तमन्यम् 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभार भवति ॥ सू० ५७ ॥
मूत्रम्--जे भिक्खू पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं विप्पणहूँ न गवेसइ न गवसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५८॥
छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिक वा सागारिकसत्कं वा शय्यासंस्तारकं विप्रणष्टं न गवेपयति न गवेषयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५८ ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पाडिहारियं वा' प्रातिहारिक-प्रत्यर्पणार्हम् 'सागारियसंतियं' सागारिकसत्कम् सागारिकसम्बन्धिकं सांप्रतं श्रमणाधीनम् 'सेज्जासंथारगं' शय्यासंस्तारकं-पीठफलकादिकं रक्ष्यमाणमपि 'विप्पण' विप्रणष्टम्-चौरादिनाऽपहृतम् तद्यदि 'ण गवेसइ' न गवेषयति, इतस्ततोऽन्यान्यं न पृच्छति तद्रूपां गवेपणां न करोतीत्यर्थः, तथा 'न गवसंतं साइज्जई' न गवेषयन्तमन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभार भवति ।। सू० ५८ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू इत्तरियपि उवहिं ण पडिलेहइ ण पडिलेहतं वा साइज्जइ ।। सू० ५९ ॥
छाया-यो भिक्षुः इत्वरिकमपि उपधिं न प्रतिलेखयति न प्रतिलेखयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५९ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'इत्तरियपि उबहि' इत्वरिक स्वल्पमप्युपधि वस्त्रपात्रादिकम् , स त्रिधा-जघन्य-मध्यमो-कृष्टभेदात् । तत्र-जघन्यो मुखवस्त्रिका वस्त्रखण्डं वा, मध्यमः-प्रावरणचोलपट्टकादिरूपः, उत्कृष्टः-सर्व वस्त्रपात्रादिकम् , तस्मिन् स्वल्पमपि मुम्बवत्रिकारूपमपि 'न पडिलेहई' न प्रतिलेखयति तस्य प्रतिलेखनां न करोति उभयकालं सर्वभाण्डोपकरणादीनाम् , तेन प्रमादी भवति । प्रमादप्रभावात् संयमक्रियां विस्मरति । एकस्यां संयमक्रियायां विस्मृतायामन्यापि स्वाध्यायादिक्रिया विस्मृता भवति, ततश्चारित्रभ्रंशः, चारित्रभ्रंशात्-चातुर्गतिकसंसारभ्रमणमनन्तजन्ममरणप्राप्तिः, तस्मादुभयकालं सर्वभाण्डोपकरणानां प्रतिलेखना कर्तव्या। 'ण पडिलेहंतं वा साइज्जई' न प्रतिलेखयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ५९॥
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निशीथस्त्रे सूत्रे-इत्वरग्रहणेन सर्वोपकरणग्रहण कृतम् , अतः प्रथमत उपकरणं निरूपणीयम् , अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-उवगरणं दुविहं, ओहियं च तहेयरं ।
एक्केक्कं तिविहं णेयं, जहन्नुक्किट्ठमज्झिमं ॥ छाया- उपकरणं द्विविध, मौधिकं च तथेतरत् ।
पकैकं त्रिविधं शेय, जघन्योत्कृष्टमध्यमम् ॥ अवचूरि:-'उवगरणं' इत्यादि । उपकरणं-वस्त्रपात्रादिकं द्विविध-द्विप्रकारकमुक्तम्एकमौधिक-सर्वसामान्यम् , वस्त्रपात्रादिसामान्यम् । तथा - इतरत् औपग्रहिकम् , प्रातिहारिकपीटफलकादिकम् । तद्-एकैकमपि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रिविधम् । तत्र-जघन्य-मुखवत्रिका, वस्त्रखण्डं वा, मध्यम-"चद्दर" चोलपट्टकादिकम् , उत्कृष्टं वस्त्रपात्रादिकं सर्वम् ।। सू० ५९।। सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ।६०
॥णिसीहज्झयणे वीओ उद्देसो समत्तो ॥२॥ छाया-तत्सेवमान आपद्यते मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकम् ॥ ० ६० ॥
॥ इति निशीथाध्ययने द्वितीय उद्देशः समाप्तः ॥२॥ चूर्णी-'त सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् उद्देशकप्रारंभे-'दारुदंडयं पायपुंछणं करेइ' इत्यादिप्रथमसूत्रादारभ्य, उद्देशकान्ते-'इतरियपि उबर्हि ण पडिलेहद' इति सूत्रपर्यन्तमेकोनषष्टिसूत्राणि सन्ति, तत्र-यानि यानि प्रायश्चित्तस्थानानि कथितानि तन्मध्यादन्यतममपि-अपराधस्थानं सेवमानः प्रतिसेवनां कुर्वन् श्रमणः 'आवज्जई' आपद्यते-प्राप्नोति । किमितिजिज्ञासायामाह-'मासियं परिहारहाणं उग्याइयं' मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकं प्रायश्चित्तम् लघुकमित्यर्थः । सू० ६० ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
चूर्णिभाण्यावचूरिरूपायां व्याख्यायां द्वितीय उद्देशकः समाप्तः ॥२॥
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॥ तृतीयोद्देशकः॥ अथ तृतीयोदेशकप्रथमसूत्रस्य द्वितीयोदेशकान्तिमसूत्रेण सह कः संबंधः ? इति चेदत्राह भाष्यकारः---'उवहि' इत्यादि । भाष्यम्-उवहिपडिलेहो य, पुव्वुत्तो तयणंतरं ।
आहारं पडिगिहिज्जा, संबंधोऽत्थ वियाहिओ ॥१॥ छाया--उपधिप्रतिलेखश्च पूर्वोक्तस्तदनन्तरम् ।
आहारं प्रतिगृहीयात्, सम्बन्धोऽत्र व्याख्यातः ॥१॥ अवचूरि:-'उवहीपडिलेहो य' उपधिप्रतिलेखश्च, उपधिप्रतिलेखः उपधेः-प्रतिलेखना 'पुव्वुत्तो' पूर्वोक्तः पूर्वमुक्तः कथितः, तदन्तरम् उपधि प्रतिलिख्य उपधेः वनादेः आहारप्रसङ्गात्पात्रस्य च प्रतिलेखनां कृत्वा आहारं प्रतिगृह्णीयात् , इति अस्मिन् तृतीयोदेशे आहारग्रहणविधिः प्रदर्श्यते, एष एवात्र तृतीयोदेशस्य द्वितीयोदेशान्तिमसूत्रेण सह सम्बन्धो व्याख्यातः कथितः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य तृतीयोदेशकस्येदमादिमं सूत्रम् , तत्र प्रथमं पुरुषमधिकृत्यएकवचनसूत्रमाह-'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसुवा, आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थियं वा गारस्थिय वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायइ, जायंत वा साइज्जइ ॥ सू० १॥
छाया-यो भिक्षुः आगन्त्रागारेपु वा-आरामागारेपु वा गाथापतिकुलेपु वा पर्यावसथेपु वा अन्ययूथिकं वा-गाहेस्थिकं वा अशन वा पानं या खाद्यं वा स्वाद्य वा भवभाष्याऽवभाण्य याचते, याचमानं वा स्वदते ॥ सू० १॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आगंतागारेसुवा' आगन्त्रागारेषु वा, तत्र-आगन्तारः-पथिकाः तेषां विश्रामकरणाय कृत आगारो गृहम् 'धर्मशाला' इति लोके प्रसिद्धम् , तत्र गत्वा, अर्थात्-यत्र स्थानविशेपे निर्मिते गृहे आगन्तुकाः सार्थवाहादयो गमनागमन“समये समागत्य विश्रामार्थं निवसन्ति तादृशगृहविशेषे स्थितश्रावकाणां पुरतोऽशनादिकं याचतेइत्यग्रिमेण संबन्धः । 'आरामागारेसु वा' मारामागारेषु, तत्र-"आरामः स्यादुपवनं कृत्रिमं वनमेव यत्" इत्यमरः, तस्मिन्नाराम-उपवने -आगारो गृहम् कञ्चित्कालं मनोविनोदनाय क्रीडार्थ वस्तुम निर्मीयते, तेपु वा 'गाहावडकुलेसु वा' गाथापतिकुलेषु वा-गाथा:-गृहाः, तेषां पतयस्तेषां कुलेषु । 'परियावसहेस वा' पर्यावसथेषु वा, तत्र-गृहिपर्याय परित्यज्य प्रव्रज्यापर्याये ये स्थितास्तापसा
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०३ सू०१-५ आगन्त्रागारादिषुगत्वाऽवभाज्यावभाज्ययाचननि० ७९
छाया-यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेपु वा गाथापतिकुलेपु वा पर्यावसथेषु वा, अन्ययूथिकान् वा गार्हस्थिकान् वा, अशनं वा पानं वा खाद्यं वा खाद्य वा, अवभाज्याऽवभाष्य याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० २ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः, 'आगंतागारेसु वा आगन्त्रागारेषु धर्मशालादिषु 'आरामागारेसु वा' आरामागारेपुवा 'गहावइकुलेसु वा गाथापतिकुलेषु वा 'परियावसहेसु वा' पर्यावसथेषु वा, एतेषु पूर्वप्रदर्शितप्रकारेषु स्थानेषु ये स्थितास्तान् 'अण्णउत्थियाओ वा' अन्ययूथिकास्तीर्थान्तरीयाः तापस-शाक्यभिक्षुकादयस्तान वा 'गारत्थियाओ वा' गाहस्थिका गृहस्थाः श्रावकास्तान् वा 'असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा' अशनादिचतुविर्धाऽऽहारम् 'ओभासिय-ओभासिय जायई' अवभाष्याऽवभाष्य याचते, महता दीर्घस्वरेण याचनां करोति । आगन्त्रागारादिपु स्थितान् तीर्थान्तरीयान् श्रावकान् वा उच्चैःस्वरेण संबोध्य तेभ्योऽशनादिकं याचते इत्यर्थः । 'जायंतं वा साइज्जइ' याचमान वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति । अत्र सूत्रे प्रथमसूत्रवद्भाष्यं ज्ञातव्यम् । एकत्र-प्रथम सूत्रे दायकपदे एकवचनम् , अपरत्र-द्वितीयसूत्रे बहुवचनमित्यनयोर्भेदः ।। सू० २ ॥
पूर्व पुरुषमधिकृत्य एकत्वबहुत्वेन सूत्रद्वयमुक्तम् , साम्प्रतं स्त्रीमधिकृत्य-एकवचन--बहुवचनाभ्यां सूत्रद्वयमाह
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसुवा, अण्णउत्थिणिं वा गारथिणि वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ॥ सू० ३॥
छाया-यो भिक्षुः आगन्त्रागारेपु वा आरामागारेपु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्या वसथेपु वा अन्ययूथिकी वा गार्हस्थिकी वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वायं वा अवभाष्याऽवभाष्य याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० ३ ॥
चूर्णी-'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आगंतागारेसु वा' आगन्त्रागारेषु 'आरामागारेसु वा' आरामागारेषु वा 'गाहावइछुलेमु वा' गाथापतिकुलेषु वा 'परियावसहेसु वा' पर्यावमथेषु वा 'अण्णउत्थिर्णि वा' अन्ययूथिकी-अन्यतीर्थिकस्त्री 'गारत्थिणि वा' गार्हस्थिकी गृहस्थस्त्री वा 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अर्शनादिचतुर्विधाऽहारम् , एतदशनादिकमागन्त्रागारादिस्थितानाम् अन्ययूथिकादिस्त्रीणां सकाशादित्यर्थः । यदि-'ओभासिय-ओभासिय' अवभाष्याऽवभाष्य-“साधुरहं मह्यमशनादिकं भवत्या देयम्" इत्येवं.
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निशीथसो. प्रकारेण तारस्वरेण कथयित्वा कथयित्वा 'जायई' याचते 'जायंत वा साइजई' याचमानं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तमाग् भवति । इदं मूत्रं स्त्रीजातीयविषयकमेकवचनपरक प्रायश्चित्तपरकं च ॥ मू० ३ ॥
अथ बहुवचनपरकं स्त्रीसूत्रमाह
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिणीओ वा गारस्थिणीओ वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-आभासिय जायइ, जायंत वा साइज्जइ ॥ सू० ४॥
छाया-यो भिक्षुः आगन्त्रागारेपु वा आरामागारेपु चा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेपु वा अन्ययुथिकीर्वा गार्हस्थिकीर्वा, अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा अवमाप्य-अवभाज्य याचते याचमान वा स्वदते ॥ सू०४॥
चूर्णी-व्याख्यानं पूर्ववत् । इदं स्त्रीसूत्रं वहुवचनपरकमित्येव भेदः ॥सू० ४॥ . अत्राह भाष्यकार:भाष्यम् – पढमे जो गमो वुत्तो, सो चेव य वितीयगे।
तइएवि चउत्थेवि, भेओ एगवहुत्तगो । छाया-प्रथमे यो गमः प्रोक्तः स एव च द्वितीयके ।
तृतीयेऽपि चतुर्थेऽपि मेद पकवहुत्वकः ॥ अवचूरि:-'पढमें - इत्यादि । प्रथमे-तृतीयोद्देशकस्य प्रथमसूत्रे यो गमः-प्रकारः प्रायश्चित्तादीनामाज्ञाभङ्गादिदोषाणां कथितः स एव गमो द्वितीयके, तृतीयोद्देशकस्य द्वितीये पुरुपबहुत्वसूत्रेऽपि ज्ञातव्यः । एवमेव तृतीयेऽपि तृतीयोहेशकस्य तृतीये स्त्रीमूत्रेऽपि स एव गम एकवचनात्मको ज्ञातव्यः । तथा-चमुर्थेऽपि तृतीयोद्देशकस्य चमुर्थे सूत्रे स्वीबहुत्वविषयको गमो ज्ञातव्यः, केवलं मेदो नानात्वं एकत्वबहुत्वयोः । अर्थात् प्रथमं द्वितीयं च सूत्र पुरुषमाश्रित्यैकवचनबहुवचनविषयकम् , तृतीयं चतुर्थ च सूत्रं स्त्रियमाश्रित्य एकवचनबहुवचनविषयकं ज्ञातव्यम् । मू० ४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा, आरामागारेसुवा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थियं वा, गारत्थियं वा, कोउहलपडियाए पडियागयं समाणं असणं वा पाणं वा, खाइमं वा साइमं वा आभासिय-ओभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू०५॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ३ सू० ६-७ प्रत्यागतान्ययूथिका दिकमव भाष्ययाचननिषेधः ८१
छाया -यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेषु वा अन्ययूथिकं वा गार्हस्थिकं वा कौतूहलप्रतिज्ञया प्रत्यागतं सन्तं अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्यं वा अवभाष्याऽवभाष्य याचते, याचमानं वा स्वदते || सू०५ || चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आगंतागारेसु वा' आगन्त्रागारेषु वा 'आरामागारे वा' आरामागारेषु वा 'गाहाबइकुलेसु वा' गाथापतिकुलेषु वा 'परियावस वा' पर्यावसथेषु वा 'अण्णउत्थियं वा अन्ययूथिक - दर्शनाऽन्तरीयं यं कमप्येकम्, ‘गारत्थियं वा' गार्हस्थिकं गृहस्थं वा 'को उहलपडियाए पडियागयं समाणं' कौतूहलप्रतिज्ञया प्रत्यागतं सन्तम् कौतूहलं क्रीडादिकं धर्मपृच्छा वा, तत्कौतूहलप्रतिज्ञया प्रत्यागतमागतं सन्तं तिष्ठन्तम् 'अण्णउत्थियं' अन्ययूथिकम् 'गारत्थियं वा' गार्हस्थिकं वा उपेत्य तत्स - काशात्- 'असणं वा' अशनं वा, 'पाणं वा' पानं वा खाइमं वा' खाद्यं वा, 'साइमं वा ' स्वार्थं वा यदि- 'ओभासिय - ओभासिय' अवभाष्याऽवभाष्य उच्चैरुच्चार्य्यं तिष्ठन्तमागन्तुकं परतीर्थिकं श्रावकं वा 'भो भोः मह्यं साघवेऽन्नपानादिकं देहि' इत्थम् 'जायइ' याचते, 'जायंत वा साइज्जइ' याचमानं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ५ ॥
अत्राह भाष्यकारः
भाष्यम् - आगंतुगाइ गेहेस, कोउगह उवद्वियं ।
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ओभासिय जायमाणो, समणो, दोसभा हवे ॥
छाया - आगन्तुकादिगेहेषु कौतुकार्थमुपस्थितम् । अवभाष्य याचमानः श्रमणो दोषभाग् भवेत् ॥
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अवचूरिः – 'आगंतुगाइ०' इत्यादि । यो भिक्षुः आगन्तुकादिगेहेषु - आरामागारेषु वा गाथापतिगेहेषु वा कौतुकार्थं साधोरागमनात् पूर्वमागत्य समुपस्थितं वर्त्तमानं परतीर्थिकं गृहस्थं वा एकमपि आभाष्योच्चस्वरेण शब्दं कृत्वा - अशन - पान खाद्य - स्वाद्यादिकं याचते स श्रमणः दोषभाग् भवेत् । कथमेते परतीर्थिकाः गृहस्था वा समागत्य स्थिता भवन्ति ? इति चेत् शृणु-केचित्--यथाभावेन, केचन कौतुकेन, केचन साधूनां दर्शनार्थम् केचन - स्वकीय संशयनिराकरणार्थम् केचन श्रावकधर्म श्रमणधर्म वा श्रोतुम् आगच्छन्ति । एषु समुपस्थितेषु - एकतमादपि - अवभाष्याऽशनादिकं याचते तस्यैते भद्रप्रान्तदोषा भवन्ति । तत्र भद्रदोषः - स्वस्य भद्रत्वेन उद्गमादिदोषदुष्टाहारग्रहणरूपः । प्रान्तदोषः अदत्तादानविषयक लोकगर्हारूप इति । तत्र यदि अवभाष्य कृतेपि याचने न लभ्यते तदा साघोरपमानं भवति । कथयन्ति लोका:क्षुद्राः साधवो न लभन्ते । अदत्ते दातुरपमानं कृपणोऽयमिति ॥ सू० ५ ॥
,
११
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निशीथसूत्रे
सूत्रम् — जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेस वा गहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा कोहलपंडियाएपडियागया समाणा अण्णउत्थिया वा गारत्थिया वा असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा साइमं वा ओभासिय- ओभासिय जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६ ॥
छाया - यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेपु वा कौतूहलप्रतिक्षया प्रत्थागतान् सतः - अन्ययूथिकान वा गार्हस्थिकान्, वा अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्यं वा, अवभाष्याऽवभाग्य याचते, याचमानं वा स्वंदते ॥ सू० ६ ॥
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'चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आगंतागारेसु चा' आगन्त्रागारेपु वा धर्मशालासु 'आरामागारेमुवा' आरामागारेषु वा 'गाडावइकुलेसु वा' गाथापतिकुठे वा 'परिया सवा' पर्यावसथेषु वा 'कोउहलपडियाए' कौतूहलप्रतिज्ञया 'पडियागया समाणा' प्रत्यागतान् सतः–म्थितान, आगन्तुकादिगृहेषु केचन - स्वभावतः केचन-दर्शनार्थम्, केचन कौतुकेन, केचन - धर्मश्रवणार्थम् केचन संशयनिराकरणार्थं समागतास्तान् । कांस्तान् ? तत्राह'अण्णउत्थिया' इत्यादि । 'अण्णउत्थिया' अन्ययूथिकान् तीर्थान्तरीयान् वा तथा-'गारत्थिया चा' गार्हस्थिकान्-गृहस्थान् 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशनादिचतुर्विधा - हारम्, 'ओ मासिय- ओभासिय जायर' अवभाष्याऽवमाष्य उच्चैरुच्चार्य याचनां करोति, तथा-'जायंतं वा साइज्जइ' याचमानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभांगू भवति । पूर्वसूत्रे पुरुषमधि1 कृत्यैकवचनप्रयोगः, अत्र बहुवचनस्य प्रयोग इत्यनयोर्भेदः ॥ सू० ६ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू आगंतागारेसु वा अरामांगारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा कोऊहलडियाएं पंडियांगयं समाणं अण्णउत्थिणि वा गारत्थिणि वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय- ओभासिय जायइ जायंतं वा साइंज्जई ॥ सू० ७ ॥
छाया -यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेषु वा कौतुहलप्रतिज्ञया प्रत्यागतां संतों अन्ययूंथिकीं वां गार्हस्थिक वा, अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा अवभाष्याऽवमाप्य याचते, याचमान वा स्वदते ॥ सू० ७ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आगंतागारे वा' आगन्त्रागारेषु वा 'आरामागारे वा' आरामागारेषु वा 'गाहावइकुलेस वा' गाथापतिकुलेषु वा 'परिया
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०३ २०८-९ निषेधानन्तरं पुनरनुवर्त्य याचननिषेधः ८३ वसहेसु वा पर्यावसथेषु वा परिव्राजकावसथेषु 'कोऊहलडियाए पडियागयं समाणं' कौतूहलप्रतिज्ञया प्रत्यागतां सतीम्-कौतुकार्थ दर्शनार्थ संशयादिच्छेदनार्थं धर्मश्रवणार्थ वा समागताम् 'अण्णउत्थिणि वा गारस्थिणि वा' अन्ययूथिकी गृहस्थिनी वा 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा'अशनादिचतुर्विधाहारम् 'ओभासिय-ओभासिय' अवभाण्याऽवभाष्य उच्चैः सम्बोधनं कृत्वा 'जायई' याचते 'जायंत वा साइज्जइ' याचमानं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभार भवति ॥ सू० ७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा कोऊहलपडियाए पडियागया समाणा अण्णउत्थिणीओ वा गारस्थिणीओ वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ।। सू०८॥
छाया-यो भिक्षुः आगन्त्रागारेपु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेपु वा पर्यावसथेपु वा कौतूहलप्रतिक्षया प्रत्यागताः सतीः अन्ययूथिकीर्वा गार्हस्थिकीर्वा अशनं घा पान वा खाद्य वा खाद्य वा अवमाप्याऽवभाष्य याचते याचमान वा स्वदते ॥८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आगंतागारेसु वा' आगन्त्रागारेषु 'आरामागारेसु वा' आरामागारेषु 'गाहावइकुलेसु वा' गाथापतिकुलेपु परियावसहेसु वा पर्यावसथेपु-परिवाजकावसथेपु कोऊहलपड़ियाए' कौतूहलप्रतिज्ञया 'पडियागया समाणा' प्रत्यागताः सतीः 'अन्नउत्थिणीओ वा' अन्ययूथिकीर्वा 'गारस्थिणीओ वा' गार्ह स्थिकोर्वा असणं वा' मशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा खायं वा 'साइमं वा' स्वाधं वा, 'ओभासिय-ओभासिय' अवभाण्यावभाष्य उच्चस्वरैः उद्घोण्य परतीर्थिक स्त्रियो गृहस्थस्त्रियो वा 'जायई' याचते 'जायंत वा साइज्जइ' याचमानं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति ॥ सू०८॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-पुरिसाणं गमो वुत्तो, पंचमे छट्ठगे जहा ।
____ सत्तमममुत्तेसु, इत्योणेगपुहुत्तभो ॥ छाया-पुरुषाणां गमः प्रोक्तः पञ्चमे षष्ठके यथा ।
सप्तमाष्टमसूत्रयोः स्त्रीणामेकपृथक्त्वतः॥ अवचरिः- 'पुरिसाण'-इत्यादि । यथा येन प्रकारेण पञ्चमे षष्ठे वा सूत्रे पुरुषाणामागन्तुकादीनां धर्मशालादौ स्थितानामन्ययूथिकानां गृहस्थानां वा एकस्य बहूनां वा समी
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निशीथसूत्रे
पेऽवभाष्य याचनाकरणे यो गमः-प्रकारः प्रोक्तः स एव गमः सप्तमेऽष्टमे च सूत्रेऽन्ययूथिकादित्रीणां एकत्वपृथक्त्वत इत्येकवचन-बहुवचनत एकस्याः स्त्रियाः, बहीना स्त्रीणां वा पुरतोऽवभाष्य याचनाकरणे स एव प्रकारो ज्ञातव्यः । पंचम-पष्ठं च सूत्रं पुंविषयकम् , सप्तममष्टमं तु स्त्रीविषयकम् । एतावानेव भेदः । तत्रापि यथा पञ्चमसूत्रमेकपुरुषविषयकम् , यथा वा-पष्टसूत्रं बहुपुरुषविषयकम् तथैव-सप्तमसूत्रमेकरत्रीविषयकम् , अष्टमसूत्रं त्वनेकस्त्रीविषयकम् । अन्यत्सर्वं समानम् ।। सू० ८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आह१ दिज्जमाणं पडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय-अणुवत्तिय परिवेढिय परिवेढिय-परिजविय-परिजविय ओभासिय-ओभासिय जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू ९॥
छाया-यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेपु वा-अन्ययूथिकेन वा गार्हस्थिकेन वा, अशनं वा पान वा खाद्य वा स्वाचं वा अभिहतम् (पुर आनीतम्) आहत्य दीयमानं प्रतिपेध्य, तमेवाऽनुवांनुवर्त्य परि वेष्टय परिवेष्टय परिजलप्य-परिजल्प्य, अवभाज्याञ्चभाज्य याचते, याचमानं वा स्वदते ।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आगंतागारेसु वा' आगन्त्रागारेषु 'आरामागारेसु वा आरामागारेषु 'गाहावइकुलेस वा' गाथापतिकुलेषु 'परियावहेसु वा' पर्यावसथेषु वा परिव्राजकावसथेषु 'अण्णउत्थिएण वा' अन्ययथिकेन वा-परतीर्थिकेन 'गारथिएण वा' गार्हस्थिकेन वा, अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाय वा 'अभिहर्ड' अभिढतम् साध्वयं संमुखमानीतं, तत् 'आइटु' आहृत्य-गृहीत्वा 'दिज्जमाण' दीयमानमशनादिकम् 'पडिसेहेत्ता' प्रतिषिध्य, पूर्वमभिमुखीभूय ददतं निषिध्य-ग्रहणार्थ निषेधं कृत्वा पुनः-तमेव 'अणुवत्तिय-अणुवत्तिय' तमेव दातारमनुवानुवर्त्य पञ्च-सप्त-पदगमनानन्तरमनुवर्तन कृत्वा पृष्ठतो गत्वा 'परिवेढिय-परिवेढिय' परिवेष्टय-परिवेष्टय पुरतः पृष्ठतः पार्श्वतो वा स्थित्वा । 'परिजविय-परिजविय' परिजल्प्य परिजल्प्य त्वया मदर्थमिदमशनादिकमानीतम् परिश्रमस्तव निरर्थको मा भवतु तवाऽशनादिकं प्रहिण्यामी'-येवंप्रकारेणोक्त्वा . 'ओभासिय-ओभासिय' अवभाष्याऽवभाष्य 'जायई' याचते, 'जायतं वा साइज्जई' याचमानं वा एवंविधमन्य स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभार भवतीति ।। सू० ९ ॥ ., भाष्यम्-आहटु दिज्जमाण जं, पडिसेहिय पुन्वो ।
पच्छा तं अणुवहित्ता, जायए दोसमावहे ॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ३ सू० १०-१३ निषेधानन्तरं पुनर्याचनगृहप्रवेशनिषेधः ८५ छाया-आहृत्य दीयमानं यत्, प्रतिषिध्य पूर्वतः ।
पश्चात्तमनुवलं, याचते दोषमावहेत् ॥ अवचूरिः-'आहटु' इत्यादि । 'आइटु' आहृत्य संमुखमानीय 'दिज्जमाणं' दीयमानमशनादिकं यत् 'पुचओ' पूर्वतः पूर्व प्रतिषिध्य ग्रहणार्थ तस्य निषेधं कृत्वा पश्चात् दातरि प्रस्थिते सति तमेव अनुवत्य पञ्चसप्तपदानि अनुगमनं कृत्वा पुरतः पृष्ठतः पाश्वतो वा स्थित्वा परिजल्प्य त्वया यन्मदर्थमानीतमशनादिक ततस्तव प्रयासो विफलो माभूदिति ग्रहीष्यामि त्वत्तोऽशनादिक'-मिति अवभाष्य पुनरशनादिकं यो भिक्षुर्याचते स दोषमावहेत् दोषमाज्ञाभङ्गादिकं प्राप्नुयादिति ॥ सू० ९ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइ'कुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्ण उत्थिएहिं वा गारथिएहिं वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहटु दिज्जमाणं पडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय-अणुवत्तिय, परिवेढिय-परिवेढिय, परिजविय-परिज. विय, आभासिय-ओभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ ।। सू० १०॥
__छाया-यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेपु वा अन्ययूथिकैर्वा गार्हस्थिका, अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा, अभिहतमाहत्य दीयमानं प्रतिषेध्य तमेवाऽनुवाऽनुवर्त्य परिवेष्टय परिवेष्टय प्रजल्प्यप्रजल्न्य, अवभाण्याऽवभाष्य याचते, याचमानं वा स्वदते ॥ सू० १० ।।।
चूर्णी- 'जे भिक्खू आगंतागारेसु वा इत्यादि सर्वं पूर्ववदेव, विशेष एतावानेव-यत् पूर्व पुरुषविषयकं तृतीयैकवचनमाश्रित्य सूत्रं प्रोक्तम्, अत्र तु तृतीयाबहुवचनमाश्रित्य सूत्रं प्रवर्तते इति ।। सू० १०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइ'कुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिणीए वा गारथिणीए वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहहु दिज्जमाणं पडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय-अणुवत्तिय रिवेढिय-परिवेढिय, परिजविय-परिजविय ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ११ ॥
छायायो भिक्षः आगन्त्रागारेपु वा आरामागारेपु वा गाथापतिकुलेषु-या पर्यावसथेषु वा, अन्ययूथिक्या वा गाईस्थिक्या वा अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वार्थ
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निशीथसने वा, अभिहतमाहृत्य दीयमानं प्रतिपेध्य तामेव अनुवाऽनुवर्त्य परिवेश्य-परिवेष्टयप्रजल्प्य प्रजल्प्य अवभाण्याऽवभाष्य याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० ११॥
चूर्णी-नवमं दशमं च सूत्रं याच्यमानपुरुषविषयकमेकत्व-पृथक्त्वेन व्याख्यातम् , संप्रतिएकादशसूत्रं याच्यमानस्त्रीविषयकं व्याख्यातुमाह-'जे भिक्खू' इत्यादि स्पष्टम् ॥ सू० ११ ॥
एकादशं सूत्रमेकां स्त्रीमाश्रित्य याचनाविषयकं व्याख्याय तदनु-अनेकस्त्रीविषयकं द्वादशें सूत्रमाह – 'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिणीहि वा गारत्थिणाहि वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइनं वा अभिहडं आहटु दिज्जमाणं पडिसेहेत्ताताओ अणुवत्तिय-अणुवत्तिय परिवेढिय-परिवढिय परिजविय-परिजविय ओभासिय-आसासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ।। सू० १२॥
छाया -यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पावसथेपु वा अन्ययूथिर्काभिर्वा गार्हस्थिकीभिर्वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्य वा अभिहतमाहृत्य दीयमानं प्रतिषेध्य ता पवाऽनुवाऽनुवयं परिवेष्टय-परिवेप्टय, परिजल्प्य परिजल्प्य अवभाष्याऽचमाण्य याचते याचमान वा स्वदते ॥ सू० १२ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । याच्यमानाऽनेकस्त्रीविषयक सूत्रम्-'जे भिक्खू' यो भिक्षुः, इत्यादि स्पष्टम् । एतच्च सूत्रं याच्यमानाऽनेकस्त्रीविषयकमित्येतावता-एकादशसूत्रादेकस्त्रीविषयकाद्भिद्यते ॥ सू० १२ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए प्रविढे प्रड़ियाइक्खिए समाणे दोच्चपि तमेव कुलं अणुप्पं विसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ।। .. छाया-यो भिक्षुः गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रतिक्षया प्रविष्टः प्रत्याख्यातः सन् द्वितीयमपि (वार) तमेव कुलं अनुप्रविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ।। सू० १३ ॥ ,
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । जे भिक्खू' यो भिक्षुः गाहावइंकुलं' गाथापतिकुलम् गृहिणां गृहम् 'पिंडवायपडियाए' पिंडपातप्रतिज्ञया अशन-पानादिग्रहणेच्छया 'पबिट्टे' प्रविष्टः कोऽपि साधुः केपाञ्चित्-श्रावकादीनां गृहे भिक्षा ग्रहीतुं गतः परन्तु 'पडियाइक्खिए समाणे प्रत्याख्यातः-निषिद्धः सन्-साधुमिक्षाथै गृहस्थगृहे प्रविशति किन्तु गृहस्वामी निषेधति "नाऽत्रागन्तव्यम्" इत्थं प्रतिषेधितोऽपि सन् साधुः 'दोच्चपि तमेव कुलं अणुप्पविसई द्वितीयमपि वारं-गृहस्वामिन आज्ञामन्तरेणाऽनुप्रविशति, तद्गृहे पुनः प्रवेश करोति । तथा 'अशुपविसंत वा सोइज्जई अनुप्रविशन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥१३॥
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पूर्णिभाग्यावधरिः उ०३ सू० १४-१५ संखडितचतुर्थादिगृहान्तरतश्च भिक्षाग्रहणानि० ८५ भाष्यम्-गाहावइकुलं भिक्खू, पच्चक्खाओ गओ जइ ।
पुणो पवेसमेत्तेणं, आणाभंगाइयं भजे ॥ छाया-गाथापतिकलं भिक्षुः प्रत्याख्यातो गतो यदि।
पुनः प्रवेशमात्रेण-आशाभङ्गादिकं भजेत् ॥ अवचूरिः-'गाहावइकुलं' इत्यादि । कश्चिद्भिक्षुः भिक्षाप्राप्त्यर्थ गृहपतिकुलं गतः, तत्र प्रविशन्नेव गृहपतिना प्रत्याख्यातः "नास्ति मद्गृहे भिक्षावकाशः' एवंप्रकारेण , निराकृतोऽपि यदि पुनर्गृहपतेराज्ञां विना तस्मिन् गृहे प्रविशति । ततः प्रवेशमात्रेणाज्ञाभङ्गादिकं दोषं. भजते तस्मात्तत्कुलं न प्रविशेदननुज्ञात इति ॥ सू० १३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू संखडिपलोयणाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहतं वा साइज्जइ ॥ सू० १४ ॥
___ छाया-यो भिक्षुः संखडिप्रलोकनया अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा प्रतिगृहाति, प्रतिगृह्यन्तं वा स्वंदते ॥ सू० १४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'संखडिपलोयणाए' संखडिप्रलोकनया, संखडीति देशी शब्दः तदर्थस्तु यत्र स्थानेऽनेकजनानां भोजनं निष्पाद्यते, तादृशस्थानं संखडी । यत्राऽनेकपृथिव्यादिषड्जीवनिकायनीवानां प्राणाः खण्डिताः विराधिता भवन्ति सा संखडीति व्युत्पत्तेः-"जिमनवार" इति भाषायाम् तत्र-संखडीस्थले गत्वा-'असणं वा' अशनं वा, पाणं वा' पानं वा, 'खाइमं वा खाद्यं वा, साइमं वा' स्वाद्य वा, 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति ।। सू० १४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठे समाणे परं तिघरंतराओ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१५॥
. छाया-यो भिक्षः गाथापतिकुल पिंडपातप्रतिशया अनुप्रविष्टः सन् परं त्रिगृहान्तरात् अशनं वा पानं वा स्वाद्य वा स्वाद्य वा अभिहृतमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० १५॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'गाहावइकुलं' गाथापतिकुलम् . ‘पिंडवायपडियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया तत्र-पिण्डोऽशनादिकं, तस्य गृहिणा दीयमानाहारस्य पाने ;
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निशीथस्त्र
te.
पातः प्रक्षेपः, तस्य प्रतिज्ञया मध्यस्थभावेन तद्ग्रहणबुद्ध्या भिक्षाग्रहणार्थमित्यर्थः 'अणुप्पविढे समाणे' अनुप्रविष्टः सन् भिक्षाग्रहणाय गाथापतिगृहं गतः सन् 'परं तिघरंतराओ' परमधिकं त्रिगृहान्तरात् , तत्र-त्रयाणां गृहाणां समाहारस्त्रिगृहम् त्रिगृहमेवाऽन्तरं व्यवधानमिति त्रिगृ. हान्तरम् गृहत्रयात्परत इत्यर्थः, प्रथमगृहादरम्य तृतीयगृहान्तराल एव, न तु-चतुर्थादिगृहे भिक्षानियमः । ततः परं यदि चतुर्थादिगृहात् 'असणं वा' अशनम् 'पाणं वा' पानम् 'खाइमं वा' खाद्यम् 'साइमं वा' स्वायम् 'अभिहर्ड' अभिहृतम्-आभिमुख्येनाहृतम् आनीतम् , तत् 'आहटु दिज्जमाण' आहृत्य गृहीत्वा दीयमानमशनादिकं चतुर्विधं पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति । 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० १५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १६॥ । छाया-यो भिक्षुः आत्मनः पादौ आमार्जयेद्वा प्रमाया आमार्जयन्तं व प्रमार्जयन्तं चा स्वदते ।। सू० १६ ॥
__चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो पाए' आत्मनः पादौस्वचरणौ 'आमज्जेज्ज वा' आमार्जयेद्वा-मलनिवारणार्थ शोभादिसंपादनार्थ वा येन केनाऽपि द्रव्येण सकृत्प्रमार्जनं कुर्यात् 'पमज्जेज्ज वा' प्रमार्जयेद्वा पुनः पुनः प्रमार्जनं कुर्यात् । तथा'आमज्जतं वा पमन्जंतं वा' आमार्जयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० १६॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-पमज्जणं च दुविहं, आइण्णाइपभयो ।
___अणाइण्णं सेवमाणे, आणाभंगाइ पावइ ॥ छाया-प्रमार्जनं च द्विविध-माचीर्णादिप्रमेवतः ।
____ अनाचीणं सेवमान आशाभङ्गादिकं प्राप्नोति ॥ ' अवचूरिः-'पमज्जणं'-इत्यादि । सूत्रे-चरणप्रमार्जने साधूनां दोपमुक्तवान् , तत्रप्रमार्जनं द्विविधं द्विप्रकारकं भवति आचीर्णादिप्रभेदतः-आचीर्णाऽनाचीर्णभेदात् । तत्रसाधुभिराचर्यमाणं चरणप्रमार्जनम्-आचीर्णप्रमार्जनम् , एतद्विपरीतमनाचीण भवति । तत्राssचीण प्रमार्जनमनेकप्रकारकं भवति तद्यथा-संसक्तौ चरणौ प्रमार्जयितव्यौ, मार्गे वा चलतः साधोर्यदि धूल्यादिभिश्चरणौ धूसरितौ भवेतां तदा प्रमार्जनीयौ । अस्थण्डिलात् स्थण्डिले गच्छतः पकिलभूमौ वा गच्छतो यदि पङ्केन चरणौ लिसौ तदा प्रमार्जनीयौ ।
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०३ सू० १६-१९ स्वपादयोः संवाहन-म्रक्षणोल्लोलनादिनिषेधः ८९ भिक्षाकरणेन प्रतिनिवृत्तः, यद्वा-संज्ञाभूमित आगतः, विहारभूमित मागतः, स्वाध्यायं कृत्वा समागतः, यद्वा-यामान्तराद् गणकार्यं कृत्वा प्रत्यागतः ।
एतेषु कार्येषु साधुश्चरणौ प्रमार्जयति । एतत् प्रमार्जनमाचीर्णम् , एतद्विपरीतमनाचीण प्रमार्जनमिति कथ्यते । तत्राऽनाचीण चरणप्रमार्जनं कुर्वन् श्रमणः आज्ञाभङ्गादीन् दोषान् लभते । तत्र संयमविराधनेत्थम्-रजोहरणेन येन केनचिदन्येनापि साधनेन चरणप्रमार्जने वायवः संघट्टिता भवन्तीति वायुकायिकजीवानां विराधनं भवति ।
तथा अन्येऽपि वायुकायिकेपु समुड्डीयमाना मशकादयो जीवा बादराश्च पतगादयः संघहनेन विराधिता भवेयुः, बकुशदोपः, ब्रह्मचर्याऽगुप्तिश्च यस्मात् पादप्रमार्जने संयमविघातः अनेकविधप्राणानां विराधनात् , तस्मात्कारणात् साधुभिरनाचीणं चरणप्रमार्जनं न कथमपि कर्त्तव्यम् ॥ सू० १६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो पाए संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवाहतं वा पलिमहतं वा साइज्जइ ॥ सू० १७॥ .
छाया-यो भिक्षुः आत्मनः पादौ संवाहयेद्वा परिमर्दयेद्वा संवाहयन्तं वा परिमर्दयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १७॥
चूणीं-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो पाए' आत्मनः स्वस्य पादौ-चरणा 'संवाहेज्ज वा' संवाहयेत्-एकवारं चरणौ संवाहयेत-निष्पीडयेत् 'पगचंपी' ति भाषाप्रसिद्धं कारयेत् 'पलिमद्देज्ज वा परिमर्दयेद्वा वारं वारं चरणयोः संवाहनं कारयेत् । 'संवाहेत वा पलिमदेंतं वा' संवाहयन्तं परिमर्दयन्तं वा, तत्र-संवाहनं चरणादिनिप्पीडनम् , तत् सवाहनं चतुर्विधम्-अस्थिसुखकरम् १, मांससुखकरम् २, रोमसुखकरम् ३, त्वक्सुखकरम् ४ । एवं संवाहयन्तं वा परिमर्दयन्तं वाऽन्यं 'साइज्जई' स्वदते-यः श्रमणः स्वयं चरणयोः संवाहनं परिमर्दनं वा कारयति कारयन्तं वा श्रमणान्तरं अनुमोदते स प्रायश्चित्तभा भवति । तथा-आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादिदोषान् लभते तस्माच्चरणयोः संवाहनं-परिमर्दनं वा न स्वयं कारयेत् न वा कारयन्तमन्यं श्रमणमनुमोदयेत् ॥ सू० १७ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अप्पणो पाए तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्वंतं वा भिलिंगेंतं वा साइज्जइ ।। सू० १०॥
१२
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निशीथस्ने
छाया-यो भिक्षुः आत्मनः पादौ तैलेन वा घृतेन वा नवनीतेन वा घसया वा प्रक्षयेद्वा-अभ्यञ्जयेद्वा प्रक्षयन्तं वा अभ्यञ्जयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १८ ।।
चूर्णी-'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो पाए' आत्मन:स्वस्य चरणौ, 'तेल्लेण वा तैलेन-तिलतैलेन सर्पपादितैलेन वा, 'घएण वा घृतेन-गोमहिध्यादीनाम् ‘णवणीएण वा' नवनीतेन 'मक्खन' इति प्रसिद्धेन, 'वसाए वा वसया 'च:-ति लोकप्रसिद्धया, चिक्कणपदार्थविशेपेणेत्यर्थः, पूर्वोक्तवस्तुविशेषैः स्वकीयौ चरणौ 'मक्खेज्ज वा' म्रक्षयेत्-एकवारं मर्दयेत् 'मिलिंगेज्ज वा' अभ्यञ्जयेद्वा-पुनः पुनः स्तोक--स्मोकं तैलादिना मर्दयेत् । तथा-'मक्खेंतं वा भिलिंगेंतं वा साइज्जइ' म्रक्षयन्तं वा अभ्यञ्जयन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुः स्वकीयचरणौ-एकवारमनेकवारं वा तैलादिनाऽभ्यञ्जयति, यश्च तमनुमोदते सोऽसौ प्रायश्चित्तभाग भवति, भवन्ति च तस्य भाज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनादयो दोषाः । तस्मात्कारणाद् भिक्षुणा कदापि तैलादिनाऽभ्यञ्जनं न कर्त्तव्यम् , न च कुर्वतो वाऽनुमोदनं करणीयमिति ॥ सू० १८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो पाए लोद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा पउमचुण्णेण वा उल्लालेज्ज वा उबटूटेज्ज वा, उल्लोलंतं वा उव्वटतं वा साइज्जइ ॥ सू० १९॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनः पादौ लोध्रण वा कल्केन वा चूर्णन वा वर्णन या पमचूर्णेन वा उल्लीलयेहा उद्वर्तयेद्वा, उल्लोलयन्तं वा उद्वयन्तं वा स्वदते । सू०१९।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो पाए' आत्मनः स्वस्य पादौ-चरणौ, 'लोद्धेण वा' लोण-लोधद्रव्येण 'कक्केण वा कल्केनाऽनेकद्रव्यमिश्रितद्रव्यविशेपेण वा, 'चुण्णेण वा' चूर्णेन-पिष्टसुगन्धिद्रव्यविशेषेण' 'वण्णेण वा' वर्णेनाऽवीरादिद्रव्यविशेपेण, 'पउमचुण्णेण वा' पद्मचूर्णेन-सुरभिगन्धद्रव्यविशेषेण 'उल्लोलेज्ज वा' उल्लोलयेद्वा- एकवारं मर्दयेत् 'उबटेज वा' उदृत्तयेद्वा -अनेकवारं मर्दयेत् 'उल्लोलंतं वा उव्वदृतं वा साइजइ' उल्लोलयन्तं वा उद्वर्तयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० १९ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो पाए सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ॥ सू० २०॥
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चूर्णिभाध्यावचूरिः उ०३सू०२०-२१ स्वपादयोरचित्तशीतोष्णजलेनोच्छोलनादिफूत्कारादिनि०६५
छाया-यो भिक्षुः आत्मनः पादौ शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा उच्छोलयेद्वा प्रधावयेद्वा उच्छोलयन्तं वा प्रधावयन्त वा स्वदते ।।सू० २०॥ .
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो पाए' आत्मनः पादौ 'सीओदगवियडेण वा शीतोदकविकटेन वा, तत्र शीतं च तदुदकं शीतोदकं तच्च विकठम्अचित्तं तण्डुलधावनादिजलं, तेन 'उसिणोदगवियटेण वा' उष्णोदकावकटेन वा-उष्णं तदुदकम् , कथंभूतम् !-विकटम् , तेन-अचित्तोष्णोदकेन 'उच्छोलेज्ज वा' उच्छोलयेत्-एकवारं प्रक्षालयेत् 'पधोएज्ज वा' प्रधावयेत्-वारं वारं प्रक्षालयेत् । तथा 'उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जई उच्छोलयन्तं वा प्रधावयन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुरात्मनश्चरणौ शीतजलेनोष्णजलेन वाएकवारमनेकवारं वा प्रक्षालयति तं योऽनुमोदते वा स प्रायश्चित्तभाग् भवति, तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति ।। सू० २० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणा पाए फुमेज्जा वा रएज्ज वा, फुतं वा रएंतं वा साइज्जइ ।। सू० २१ ॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनः पादौ फूत्कारयेद्वा-रज्जयेद्वा, फूत्कारयन्तं वा रजयन्तं वा स्वदते ॥सू०२२॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः पादौ पूर्वमलककादिना लिप्त्वा पश्चात्तदाताशोषणार्थ फूत्करोतीति फूकरणविषकं रञ्जनविषयकं चेदं सूत्रम्, ततो यो भिक्षुः 'अप्पणो पाए' आत्मनः पादौ-चरणौ 'फुमेज्ज वा' देशी शब्दोऽयम् , मुखादिवायुना फूत्कुर्यात् ' 'रएज्जवा' रञ्जयेद्वा अलक्तकादिरञ्जनद्रव्येण जयेत् । तथा-'फुमंतं वा रएतं वा साइज्जई'. फूत्कारयुक्तौ अलक्तकादिरागरञ्जितौ च कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २१॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-संवाहणाइ कुव्वंतो, समणो जिणसासणे।
आणाभंगाइदोसे य, पावेई नेत्थ संसओ ॥ छाया-संवाहनादि कुर्वाणः श्रमणो जिनशासने ।
___ आज्ञाभङ्गादिदोपांश्च प्राप्नोति नाऽत्र संशयः ॥
अवचूरि:-'संवाहणाई'-इत्यादि । तत्र-संवाहनं चरणमर्दनं सप्तदशसूत्रकथितम् १, तैलादिनाऽऽत्मनश्चरणमर्दनादिकमष्टादशसूत्रकथितम् २, लोध्रादिनोल्लोलनोद्वर्त्तनमेकोनविंशतिसूत्रकथितम् ३, शीतोदकविकटादिना चरणप्रक्षालनं विंशतिसूत्रकथितद् ४, तथा- मुखादिवायुना चरणयोः
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निशीथसूत्रे फूत्करणमलक्तकादिरसेन लेपनं चैकविंशतिसूत्रकथितम् ५ । एतत् पञ्चसूत्रोक्तं पश्चप्रायश्चित्तस्थानमासेवमानः, तथा-एतान् पञ्च दोषान् सेवमानोऽनुमोदमानश्च भिक्षुराज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नुवन् प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० २१॥
एवमित ऊर्ध्व पट् सूत्राणि एकगमानि सन्ति । विशेष एतावानेव-यत् पूर्व पादौ आश्रित्य पद सूत्राणि कथितानि, अत्र तु कायमाश्रित्य पट् सूत्राणि व्याख्येयानि, तानि चेमानि-'जे भिक्खू इत्यादि ।
", सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो कायं आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ।। सू०२२॥ जे भिक्खू अप्पणा कायं संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवाहतं वा पलिमहेंतं पा साइज्जइ ।सू०२३॥ जे भिक्खू अप्पणो कायं तेल्लेण वा घएण, वा णवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा मिलिंगेंतं साइज्जइ॥ सू०२४॥जे भिक्खू अप्पणा कायं लोद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा पउमचुपणेण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वटूटेज्ज वा उल्लोलेंतं वा उव्व टेत वा साइज्जइ ।। सू०२५॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्य सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ॥सू० २६॥ जे भिक्खू अप्पणो कायं फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुतं वा एतं वा साइज्जइ ।। सू० २७॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनः कायं आमायेद्वा-प्रमार्जयेद्वा आमार्जयन्तं वा प्रमाजयन्तं चा स्वदते ॥०२२।। यो भिक्षुः आत्मनः कार्य संचाहयेद्वा परिमर्दयेद्वा संवाहयन्तं पा परिमर्दयन्तं वा स्वदते ॥सू०२३॥ यो भिक्षुः आत्मनः कायं तैलेन वा घृतेन वा नवनीतेन चा वसया वा सूक्षयेद् वा अभ्यञ्जयेद् वा प्रक्षयन्तं वा अभ्यजयन्तं वा स्वदते ॥सू०२४॥ यो भिक्षुः आत्मनः कायं लोभ्रेण वा कल्केन वा चूर्णन वा वर्णन वा पद्मचूर्णेन वा उल्लोलयेद् वा उद्धग्रेद्वा, उल्लोलयन्तं वा उद्वयन्तं वा स्वदते ।।सू०२५।। यो भिक्षुः आत्मनः कार्य शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन चा उच्छोलयेद्वा प्रधावयेद्वा उच्छोलयन्तं वा प्रधावयन्तं वा स्वदते ॥सू०२६॥ यो भिक्षुः आत्मनः कायं फूत्कुर्याद्वा रञ्जयेद्वा फूत्कुर्वन्त पा रज्जयन्तं वा स्वदते ॥सू०२७।।
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चूर्णिभाण्यावचूरिः उ०३ सू०२२,३३ कायस्य कायगतवणस्य चाऽऽमर्जनादिनिपेधः २३
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि। एषां द्वाविंशतितमसूत्रादारभ्य सप्तविंशतितमसूत्रपर्यन्तानां कायसम्बन्धिनां षण्णां सूत्राणां व्याख्या पादसंवन्धिसूत्रषट्कवदेव कर्त्तव्या ॥ सू० २२-२७॥
एवमेवात्राऽप्यने अष्टाविंशतितमसूत्रादारभ्य त्यत्रिशत्तमसूत्रपर्यन्तानि षट् सूत्राणि एकगमानि सन्ति, विशेष एतावानेव-यत् पूर्व पादौ कायं चाश्रित्य प्रत्येकं षट् सूत्राणि कथितानि, अत्र तु कायगतवणमाश्रित्य तत्सदृशाण्येव षट् सूत्राणि व्याख्येयानि, तानि चेमानि- 'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्--जे भिक्खू अप्पणो कायंसि वणं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, संवाहतं वा पलिमहतं वा साइज्जइ ।। जे भिक्खू अप्पणो कायंसि वणं तेल्लेण वा घएण वा नवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्वंतं वा मिलिंगेत वा साइज्जइ ॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं लोद्रेण वा कक्केण वा चुण्ण वा वण्णेण वा पउमचुण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वद्वेज्ज वा उल्लोलेंतंवा उबट्टेतं वा साइज्जइ ॥ जे भिक्खू अप्पणो कायंसि वणं सीओदगवियडेग वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ।। जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुतं वा, रएतं वा साइज्जइ ॥ सू० २८-३३॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनः काये वर्णभामर्जयेद्वा, प्रमार्जयेद्वा आमार्जयन्तं वा प्रमाजयन्तं वा स्वदते ॥ यो भिक्षुः आत्मनः काये व्रणं संवाहयेद् वा परिमर्दयेद्वा संवाहयन्त वा परिमर्दयन्तं वा स्वदते ॥ यो भिक्षु आत्मनः काये-व्रणं, तैलेन वा, घृतेन वा नवनीतेन वा चसया वा म्रक्षयेद्वा, अभ्यञ्जयेद्वा, ब्रक्षयन्तं वा अभ्यञ्जयन्तं वा स्वदते ॥ यो. भिक्षुः आत्मनः काये घ्रणं लोभ्रेण वा कल्केन वा चूर्णेन वा वर्णेन वा पद्मचूर्णेन वा उल्लोलयेद्वा उद्वर्त्तयेद्वा उल्लोलयन्तं पा उद्वार्तयन्तं वा स्वदते ॥ यो भिक्षुः आत्मनः काये वणं शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा, उच्छोलयेद्वा, प्रधावयेद्वा उच्छोलयन्तं वा प्रधावयन्तं वा स्वदते ॥ यो भिक्षुः आत्मनः का ये व्रणं फूत्कारयेद्वा रज्जयेद्वा, फुत्कुर्वन्तं वा रञ्जयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २८-३३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । एवम्-अष्टाविंशतितमसूत्रादारभ्य (२८-२९-३०-३१३२-३३) त्रयस्त्रिंशत्तमसूत्रपर्यन्तं प्रत्येकैकस्य सूत्रस्य व्याख्या क्रमशः षोड़शपादसूत्रादारभ्य (१६-१७-१८-१९-२०-२१) एकविंशतितमसूत्रपर्यन्तवदेव कर्त्तव्या । सू० २८-३३ ।।
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miana
अत्राह भाष्यकार:
भाष्यम् -- वणं च दुविहं णेज्ज, साभावियमथेयरं । साभावियं देहजायं, सत्थाइजमथेयरं ॥ छाया--त्रणं च द्विविधं ज्ञेयं स्वाभाविकमयेतरत् । स्वाभाविकं देहजातं शस्त्रादिजमयेतरत् ॥
निशीथसर्व
अवचूरिः - 'वर्णं च' इत्यादि । शरीरसंबन्धि व्रणं द्विविधं - द्विप्रकारकं भवति । तत्रैकं स्वाभाविकं वाह्यकारणरहितं सत् - जायमानम् । अयेतरत् - इतोऽन्यत् द्वितीयम् इति ज्ञेयम् । तत्रस्वाभाविकं देहस्थितदोषतो जायमानम् आन्तरिकदोषमूलकमित्यर्थः, कुष्ठ - (कोढ) - दद्रु - (दाद) पामा - ( खुजली ) - इति लोकप्रसिद्धं गण्डमालादिकं च । अथेतरत् इतो द्वितीयं शस्त्रादिजातमागन्तुकम् आदिपदात्-खड्ग- कण्टक- स्थाणु-प्रभृतिवस्तुजातसंबाधाजनितानां संग्रहः । एतेषां व्रणानां मध्यादन्यतममपि व्रणं एकवारमनेकवारं वाssमार्जनादिकं करोति स प्रायश्चित्तभाग् भवति, तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । अत्र गुरोरुपदेशो यथा
" न रोदनं हन्त ! पितर्न मातरालप्य ताड्यः शिरसः प्रदेशः । प्रसन्नचितेन तदीयतीव्र संवेदनायाः सहनं क्रियेत " ॥१॥
प्रसन्नमनसा रोगसंजाततोत्रसंवेदनायाः सहनमेव कार्यम्, न तु हा पितः ! हा मातः ! इति मुहुर्मुहुरालभ्य रोदनं कार्यम्, न वा शिरसो मस्तकस्य प्रदेशो भागस्ताडनीयः । जिनकल्पिकपरकमिदं सूत्रम्, स्थविरकल्पिकस्य तु कारणवशात् व्रणस्य आमार्जनप्रमार्जनादिकं निरवद्यतया कर्त्तुं कल्पते ॥ सू० २८-३३ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंड वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा, अन्नयरेण तिक्खेण सत्थजाएण आच्छिदज्ज वा विच्छिदेज्ज वा, आच्छिदंतं वा विच्छिदंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३४||
छाया -यो भिक्षुः आत्मनः काये गण्डं वा पिलकं वा अरतिकां वा अर्शो वा भगन्दरं वा अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन, आहिन्याहा विच्छिन्द्याद्वा भाच्छिन्दन्तं वा विच्छि न्दन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३४ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो कार्यसि' आत्मनः काये - स्वशरीरे 'गंड वा' गण्डं वा तत्र गण्डो नाम य उच्चप्रदेशात् नीचप्रदेशं गच्छति स व्रणः गण्डमाला - कण्ठमालेति लोकप्रसिद्धः, तम्, तथा--पिलकं वा पादत्रणम्, 'अरइयं वा' अरतिकां वा यस्या वेदनया मनसि भरतिरुत्पद्यते, शरीरे रक्तविकारेण जायमानलघुत्रण पुञ्ज
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ३ सू० ३४-३५ कायगतगण्डादीनां छेदनपूयादिनिस्सारणनि० ९५ रूपाम् , यस्याः खर्जने तत्समये सुखमिव जायते पश्चात्-दुःखाधिक्यम् 'फुनसी-ति लोकप्रसिद्धम् , 'असियं वा' मरों वा-गुदागतो रोगः 'बवासीर' इति लोकप्रसिद्धस्तम्, 'भगंदलं वा' भगन्दरं वा--भगन्दरो गुह्यस्थानगतरोगविशेषो लोकप्रसिद्धस्तम् । एतान् व्रणविशेषान् 'अन्नयरेण तिक्खेण सत्थजाएण' अन्यतरेण येन केनाऽपि तीक्ष्णेन--निशितेन--शस्त्रजातेन क्षुरादिना 'आच्छिदेज्ज वा' आच्छिन्द्यात् न्यूनमेकवारं वा छेदनं कुर्यात् 'विच्छिदेज्ज वा' विच्छिन्यात् अधिकमनेकवारं वा छेदनं कुर्यात् । तथा-'आच्छिंदत वा विच्छिदंतं वा साइज्जई' आच्छिन्दन्तं वा विच्छिन्दन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तमाग् भवति । तस्याज्ञाभङ्गादिदोषा भवन्ति ॥ सू० ३४ ॥
मत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम्-सरीरत्थं च गंडाइ, छिदंतो पावए जई।
आणाभंगाइए दोसे, दुविहं च विराहणं ॥ छाया-शरीरस्थं च गण्डादि छिन्दन प्राप्नोति यतिः ।
___ आशाभादिकान दोषान् द्विविधं च विराधनम् ॥
अवचूरि:-सरीरत्थं' इत्यादि । यः खलु यतिः सम्यग् यतनावान् श्रमणः-श्रमणी वा शरीरस्थं-स्वकीयशरीरे वर्तमानं गण्डादिवणं तीक्ष्णेन क्षुरकादिशनेण स्वयमेव छिन्दन् छेदयन् वा परेण आज्ञाभगानवस्थामिथ्यात्वलक्षणान् दोषान् प्राप्नोति । तथा-द्विविध-द्विप्रकारकं विराधनम् संयमविराधनमात्मविराधनं च प्राप्नोति । व्रणच्छेदनकरणे सूक्ष्मबादरायनेकप्रकारकजीवानां विराधनं सम्भवति । तथा-क्षुरकादिशस्त्रेण व्रणादिच्छेदने आत्मवस्याऽपि संभवेनात्मविराधना चेति ॥ सू० ३४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो कायंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता-विच्छिदित्ता, पूयं वा सोणियं वा, णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णीहरेतं वा विसोहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३५॥
___ छाया-यो भिक्षुः आत्मनः काये गण्डं वा पिलकं वा अरतिकां वा भगन्दरं या अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन आच्छिद्य विच्छिद्य पूर्व वा शोणितं वा निहरेद्वा विशोधयेद्वा, निहरन्तं वा विशोधयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३५ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो कार्यसि' मात्मनः काये स्थितम् 'गडं वा' गण्डामिधत्रणम् , 'पिलगं वा पिलकं वा 'अरइयं वा' भरतिकां 'भगंदलं वा'
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निशीथस्चे
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भगन्दरं-लिङ्गगुदयोर्मध्ये नाडीस्थं व्रणम् , यदि 'अन्नयरेण' अन्यतरेण-येन केनाऽपि 'तिक्खण' तीक्ष्णेन, 'सत्थजाएणं' शस्त्रजातेन 'आच्छिदित्ता' आच्छिद्य-ईपदेकवारं वा छेदनं कृत्वा 'विछिदित्ता' विच्छिद्य-अधिकमनेकवारं वा छेदनं कृत्वा ततो व्रणप्रदेशात् 'पूयं वा सोणियं वा' पूर्व वा शोणितं वा-पक्वरुधिरं पूयः, अपक्वं रुधिरं शोणितम् 'णीहरेज्ज वा' निहरेत्निष्कासयेत् 'विसोहेज्ज वा' विशोधयेत्-त्रणगतपूयादिकस्य शोधनं कुर्यात् । तथा 'णीहरतं वा' निर्हरन्तं व्रणप्रदेशात् पूयादिकं निष्कासयन्तम्, 'विसोहेंतं वा' विशोधयन्तं पूयशोणितादेः शुद्धिं कुर्वन्तम् 'साइज्जइ' स्वदते, यो भिक्षुः स्वशरीरस्थितव्रणादिविशेष छित्त्वा ततो गलन्तं पूयशोणितादिकं निष्कासयति विशोधयति वा, वं योऽनुमोदते वा स प्रायश्चित्तभागू भवति, भवन्ति च तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वयंयमविराधनात्मविराधनादोषाः, तस्मात् कारणात् शरीरस्थमपि व्रणविशेष छित्त्वा छेदयित्वा वा ततो निर्गलन्तं पूयशोणितादिकं न निहरेत् , न वा विशोधयेत् , किन्तु ततो जायमानां वेदनां साम्यभावेन सहेतेति ।। सू० ३५॥
अत्राह भाष्यकार:भाप्यम् -जम्मंतरोवज्जियमत्थु दुक्खं, मुहं समागच्छउ वा जहिच्छं ।
इत्थं समाहित्थमणो मुणतो, जो सम्मभावेण सहे स साहू ॥ छाया-जन्मान्तरोपार्जितमस्तु दुःखं सुख समागच्छतु वा यथेच्छम् ।
इत्थं समाधिस्थमना जानन् य. साम्यभावेन सहेत स साधुः॥ अवचूरिः-'जम्मंतरोवज्जिय' इत्यादि । जन्मान्तरे परभवे यद् उपार्जितं दुःखमस्तु सुखं वा यथेच्छं समागच्छतु नात्र मम काऽपि चिन्ता, इत्थम्-अनेन प्रकारेण समाधिस्थमनाः स्वकृतकर्मफलं जानन् सन् यो मुनिः दुःखं सुखं वा साम्यभावेन सहेत स साधुः कथ्यते ॥
अयं भावः-समाधौ वर्तमानो भिक्षुः स्वात्मानं भूपयन्तं छेदयन्तं वा न जानीते तत्र तस्य किं महत्त्वम् , यत् सुखं दुःखं वा सहते ? । इत्थमोषधिप्रयोगेण भिपग्भिरचैतन्यावस्थामानीतस्तावत्सुखं दुःखं वा न जानाति तत्रापि तस्य सुखदुःखसहने न महत्त्वम् । महत्त्वं तु-यश्चैतन्यदशायां स्थितो न समाधौ-न वा मूर्छितावस्थायां तत्र प्रतिक्षणं स्वशरीरे व्रणादिजनितमसामपि दुःखं जन्मान्तरकर्मोपार्जितमिति मत्वा समभावेन सहते तस्य तदेव महत्त्वम् , उक्तं च
विपगणपरिवेगाद्वा समाधेः प्रयोगाद, यदि सहनसमर्थः स्वाङ्गदुःखस्य भोगे । नहि भवति स सोडा नास्य तत्तन्महत्त्वं,
परिभजति समस्थस्तन्महत्त्वं महत्त्वम् ॥१॥ ' 'सुखं तु सर्वोऽपि जनः सानन्दो भूत्वा हसन् सहते किन्तु-धीरस्तत्रानन्दमजानानस्तीथकरोक्तभावनां भावयन् दिवसं वा रात्रि वा व्यतिक्रामतीति ॥ ३५ ॥
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चूर्णि भाप्यावचूरिः उ० ३ ० ३६-३९
कायगतगण्डादीनामुच्छोलनादिनिषेधः १७०
सूत्रम् - जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंड वा पिलगं वा अरइयं वा. असियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिंदित्ता विच्छिदित्ता पूयं वा सोणिय वा नीहरिता विसोहित्ता सीओदगविय. डेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा धोवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३६ ॥
छाया -यो भिक्षुः आत्मनः काये गण्डं वा पिलकं वा अरतिकां वा अर्शो वा भगन्दरं वा अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन, आच्छिद्य विच्छिद्य पूयं वा शोणितं वा निर्हत्य विशोध्य शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा, उच्छोलेद्वा प्रधावेद्वा, उच्छोलन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३६ | !
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो कार्यसि' आत्मनः काये 'गंडं वा' गण्डं - कण्ठमालां वा, 'पिलगं वा' - पादत्रणं वा 'अरइयं वा' अरतिकां वा-लघुव्रणजालरूपाम् 'असियं वा' अर्शो वा 'भगदलं वा' भगन्दर वा 'अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं' अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन 'आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता' आच्छिद्य विच्छिय, ततो निर्ग - लन्तं पृय वा 'सोणियं चा' शोणितं वा 'नीहरिता' निर्हृत्य - निष्कास्य 'विसोहिता' विशोध्य, तदनन्तरम् 'सीओद्गवियडेण वा' शीतोदकविकटेन वा - अचित्तशीतोदकेन - तण्डुला दिघावनजलेन वा 'उसिणोदगवियडेण वा उष्णोदकविकटेन - अचित्तोष्णोदकेन, 'उच्छोलेज्ज वा ' उच्छोलेत्-एकवारमल्पं वा प्रक्षालयेत्, 'पधोवेज्ज चा' प्रधावयेत् - अनेकवारमधिकं वा प्रक्षालयेत् । तथा- - उच्छोलेंत चा पधोवेंतं वा साइज्जइ' उच्छोलन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते - - sनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति, भवन्ति च तस्याज्ञाभङ्गानवस्था मिथ्यात्वसंयम विराधनात्मविराधनादोषाः, तस्मात्तथा न कर्त्तव्यं भिक्षुणा ॥ सू० ३६ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंड वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता - विच्छिदित्ताणी हरेता विसोहेत्ता उच्छोलित्ता पधोवित्ता अन्नयरेणं आलेवणजाएणं आलिंपेज्ज वा विलिपेज्ज वा, आलिपेतं वा विलिपेंतं वा साइ ज्जइ ॥ सू० ३७ ॥
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छाया -यो भिक्षुः आत्मनः काये-गण्डं वा पिलकं वा अरतिकां वा' अश' वा भगन्दरं वा अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन, आच्छिद्य विच्छिद्य निहत्य विशोध्य उच्छोल्य
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निशीथस्त्रे प्रधाव्य अन्यतरेण आलेपननातेन आलिम्पट्टा विलिम्पेडा आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३७ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः, इत्यादि स्पष्टम् । नवरम्उच्छोलनप्रधावनानन्तरम् 'अन्नयरेण आलेवणजाएणं' अन्यतमेनाऽऽलेपनजातेन-औषधिविशेपेण 'मलहम' इति लोकप्रसिद्धन, 'आलिंपेज्ज वा' आलिम्पेत् ईपदेकवारं वा आलेपनं कुर्यात् , 'विलिंपेज वा विलिम्पेत्-अधिकमनेकवारं वा द्रव्यलेपनं व्रणोपरि कुर्यात् । 'आलितं वा विलिं
तं वा साइज्जइ' आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति, भवन्ति च तस्याज्ञाभङ्गादिदोषाः ।। सू० ३७ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणा कायंसि गंड वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा, अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता णीहरिता विसोहेत्ता उच्छोलित्ता पधोइत्ता विलिंपित्ता तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा अभंगतं वा मक्वंतं वा साइज्जइ ।। सू० ३८॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनः काये गण्डं वा पिलकं वा अरतिकां वा अर्को वा भगन्दरं वा अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन आच्छिद्य विच्छिद्य निहत्य विशोध्य उच्छोल्य प्रधाव्य चिलिप्य तैलेन वा घृतेन वा वसया वा नवनीतेन वा अभ्यङ्गयेद्वा म्रक्षयेद्या अभ्यद्गयन्तं वा म्रक्षयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३८ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुरित्यादि स्पष्टम् । पूर्वोक्तं संवैकृत्वा तदनन्तरं 'तेल्लेण वा' तैलेन सार्पपादिना 'पएण' घृतेन 'वसाए वा' वसया 'णवणीएण वा' नवनीतेन म्रक्षणेन 'अभंगेज्ज वा' अभ्यङ्गयेत्-अल्पमेकवारं वाऽभ्यङ्गनं कुर्यात् , 'मक्खेज्ज वा' प्रक्षयेद्वा-अत्यधिकमनेकवारं वा तैल दिना मर्दनं कुर्यात् । 'अन्मंगेत वा मक्खेंतं वा साइज्जई' अभ्यद्गयन्तं वा म्रक्षयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति, तस्याज्ञामगादयो दोपा भवन्ति ।। सू० ३८ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो कायंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा , असियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता नीहरित्ता विसोहित्ता उच्छोलित्ता पधोइत्ता विलिंपित्ता
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ३ सू० ४०-४९ पायुकृमिकादिनिस्सारणनखशिखादिकर्त्तननि० ९६ मंखेत्ता, अण्णयरेणं धूवजाएणं धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा, धूवेंतं वा पध्वंतं वा साइज्जइ ।। सू० ३९॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनः काये गण्डं वा पिलकं वा अरतिकां वा अर्को वा भन्दरं वा अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन आच्छिद्य-विच्छिद्य निहत्य विशोध्य उच्छोल्यप्रधाव्य विलिप्य सूक्षयित्वा अन्यतरेण धूपजावेन धूपयेद्वा प्रधूपयेद्वा धूपयन्तं वा प्रधूपयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३९॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि ! 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो कायंसि' आत्मनः काये, गण्डादिकं स्पष्टम् । पूर्वोक्तं सर्वं म्रक्षणादिपर्यन्तं कृत्वा तदनन्तरं 'अन्नयरेणं धृवजाएणं' अन्यतरेण धूपजातेन यं कमपि धूपं वह्नौ प्रक्षिय्य तज्जातधूमेन 'धूवेज्ज वा' धूपयेत्-धूमेनैकवारं धूपयेत् 'पधूवेज्ज वा' प्रधूपयेत्तादृशधूमेन वारं वारम् ‘धृतं वा पधूवेतं वा साइज्जई' धूपयन्तं वा, प्रधूपयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते . स प्रायश्चित्तभाग भवति । तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषाश्च भवन्ति ॥ सू० ३९ ॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-कार्यसि अप्पणो भिक्खू , गंडाई जइ छिदए ।
छिदित्ता य विच्छिदित्ता, नीहरे पूयसोणियं ।। णीहरेत्ता विसोहेत्ता, सीओसिणवियटेण वा । उच्छोलेज्जा पधोवेज्जा, विलिंपेज्जाहवा जइ ॥ मंखेत्ता धृवजाएणं, धूवेज्जा अणुमोयए ।
आणाभंगाइदोसाई, पावई नस्थि संसओ ॥ छाया-काये-आत्मनो भिक्षु-गण्डादि यदि छिनत्ति ।
छित्वा च विच्छिद्य निहरेत् पूयशोणितम् ॥ निहत्य विशोध्य शीतोष्णविकटेन वा । उच्छोलेत्प्रधावेत् विलिंपेदथवा यदि ॥ म्रक्षयित्वा धूपजातेन धूपयेदनुमोदयेत् ।
याज्ञाभङ्गादिदोपान प्राप्नोति नास्ति संशयः॥ अवचूरिः- 'कायंसि अप्पणो' इत्यादि । यो भिक्षुर्गण्डादिमात्मनः काये स्थितं यदि छिनत्ति । अथाऽनन्तरम्-छित्त्वा, विच्छिद्य, एकवारमनेकवारं वा । ततः-पूयं वा शोणितं वा निह रेत . निहत्य-विशोध्य वा शीतोदकविकृतेन अचित्तशीतजलेन तण्डुलधावनादिना, अचित्तेप्णोदकेन वा उच्छोलेद्वा प्रघावेद्वा । अथवा विलिप्य म्रक्षयित्वा हस्तलाघवेन मर्दनं कृत्वा, ततो धूपजातेन केनापि धूपेन धूपयेत् । तथाभूतमन्यं वाऽनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिदोपान प्राप्नोति अत्र संशयो नाऽस्तीति ।। सू० ३९ ॥
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१००
निशीथसूत्रे सूत्रम्---जे भिक्ख अप्पणो पाउकिमियं वा कुच्छिकिमियं वा अंगुलीए निवेसिय निवेसिय णीहरइ, णीहरतं वा साइज्जइ ।। सू०४०॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनः पायुकृमिकं वा कुचिकृमिकं वाऽगुल्यां निवेश्य-निवेश्य निहरति, निहरन्तं वा स्वदते ॥ खू० ४० ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे मिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो पाउकिमियं वा' आत्मनः पायुकृमिकं वा स्वगुदास्थितक्षुदजीवान् 'कुच्छिकिमियं वा' कुक्षिकृमिकम् , तत्रकुक्षाबुदरे भवान् - लघुजीवान 'अंगुलीए निवेसिय निवेसिय' अड्गुल्यां निवेश्य निवेश्य-स्वाड्. गुलीमन्तः पायौ-कुक्षौ वा प्रवेश्य प्रवेश्य 'णीहरई' निर्हरति-निष्कासयति ‘णीहरंत चा साइज्जइ' निर्हरन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तमागू भवति । तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिध्यात्वसंयमात्मविराधनादोषा भवन्ति । तत्र विविनाऽविधिना निष्कासने जीवानां विराधनसंभवेन संयमविराधनम् । तथा-कदाचित् देहक्षतौ स्वात्मविराधनम् । तस्मात्कारणात् संयमार्थिना कदाचिदपि कृमीणां निर्हरणं न कर्त्तव्यम् , किन्तु-समभावेन कृमिवाधाजनितं दुःखं सर्वदाऽदीनभावेनाऽघिसोढव्यम् , इति ।। सू० ४०॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अप्पणो दीहाओ णहसीहाओ कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्पंतं वा संठवंतं वा साइज्जइ ।। सू०४१॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनो दीर्घाः नखशिखाः कल्पेत वा संस्थापयेद्वा कल्पयन्तं घा संस्थापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४१ ।। ___चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षु , 'अप्पणो दीहाओ' आत्मनो दीर्घा अतिवमानाः 'नहसिहाओ' नखशिखा:-नखाग्रभागान् 'कप्पेज्ज वा' कल्पेतकर्तयेत् , 'संठवेज्ज वा' संस्थापयेत्-संस्कुर्यात् रागादिना, 'कप्तं वा संठवेतं वा साइज्जई' कल्पमानं-कर्त्तयन्तं संस्थापयन्तं संस्कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रयश्चित्तभागू भवति । तस्याऽऽज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । इत आरभ्यैकोनपञ्चाशत्सूत्रं यावत्-जिनकल्पिकमधिकृत्य ज्ञातव्यम् ॥ सू० ४१॥ . मूलम्-एवं-दीहाई बत्थिरोमाई० ॥४२॥ दीहाई चक्खुरोमाई. ४३ दीहाइंजंघरोमाइं० ॥४४॥दी हाई कक्खरामाई ॥४५॥ दीहाई मंसुरोमाइं०॥४६॥ दीहाई केसाइं० ॥४७|| दीहाई कण्णरामाइं० ॥४८॥ एवं नासारोमाई० ॥५०४९॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ३ सू० ०-५८ दन्तघर्पणाद्यौष्ठाऽऽमर्जनादिनिषेधः १०१
छाया -- पवम्-दीर्घाणि वस्तिरोमाणि० ॥४२॥ दीर्घाणि चक्षुरोमाणि० ॥४३॥ दीर्घाणि जवारोमाणि० ॥een दीर्घाणि कक्षारोमाणि० ॥४५॥ दीर्घाणि श्मश्रुरोमाणि० ॥४६॥ दीर्घान् केशान्० ॥४७॥ दीर्घाणि कर्णरोमाणि० ॥४८॥ एवं नासारोमाणि० ॥४९॥
चूर्णी-एतानि द्विचत्वारिंशत्सूत्रादारभ्य एकोनपञ्चाशत्सूत्रपर्यन्तानि सूत्राणि पूर्ववद् व्याख्येयानि ॥ सू० ४२-४९॥
सून-जे भिक्खू अप्पणो दंते आघंसेज्ज वा पघंसेज्ज वा आघंसंतं वा पघसंत वा साइज्जइ ॥ सू० ५०॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनो दन्तान् आघद्वा प्रघद्वा आघर्षन्तं वा प्रधर्पन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो दंते' आत्मनः स्वस्य दन्तान् 'आपसेज्ज वा' मधपेत् मृत्तिकया क्षारपुटादिना वा सकृत् धत्, 'पसेज्ज वा' प्रघत्-अनेकवारं वा धपेत् । तथा-'आघसंतं वा पघंसंतं वा साइज्जइ' आधर्पन्तं वा प्रघपन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः स्वकीयदन्तान् मृत्तिकादिनैकवारमनेकवारं वा घर्पति घर्षन्तं वाऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनादयो दोषा भवन्ति ॥ सू० ५०॥
सूत्रम्-जेभिक्खू अप्पणो दंते सीओदगवियडेण उसिणोदगवियडेणं वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ।। सू० ५१॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनो दन्तान् शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा. उच्छोलेद्वा प्रधावेढा उच्छोलन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते । सू० ५१॥
ची:-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘अप्पणो दंते' आत्मनः स्वस्य दन्तान् 'सीओदगचियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा' शीतोदकविकटेन-तण्डुलधावनादिजलेन अचित्तेन, उष्णोदकविकटेन-अचित्तोष्णोदकेन 'उच्छोलेज्ज वा उच्छोलेत् एकवारं वा 'पधोवेज्ज वा' प्रधावेद् वारं वारम् । तथा--'उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ' उच्छोलन्तं वाप्रधावन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः स्वकीयदन्तानेकवारमनेकवारं वा प्रक्षालयेत् अथवा-प्रक्षालयन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्ताभाग् भवति । तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । यस्माददन्तधावनेएते दोपा अतो भिक्षुभिर्दन्ता न प्रक्षालयितव्याः ।। सू० ५१॥
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६०५
निशीथसूत्र सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो दंते फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुतं रएंतं वा खाइज्जइ |सू० ५२॥
छाया-यो भिक्षुरात्मनो दन्तान फूत्कुर्याद्वा रज्जयेद्वा फूत्कुर्वन्तं वा रजयन्तं वा स्वदते ॥ सू०५२।।
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे मिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो दंते' आत्मनो दन्तान् 'फुमेज्ज वा फूलकुर्यात् मुखवायुना 'रएज्ज वा' रञ्जयेद्वा-रागादिद्रव्येण स्वदन्तान् रागयुक्तान् कुर्यात् । तथा 'फुमतं वा रएंतं वा साइज्जई' फूत्कुर्वन्तं वा रञ्जयन्तं स्वदते स प्रायश्चित्तभागू भवति । तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । दन्तानां फूत्कारे वायुकायविराधना भवति रञ्जनेऽनेके दोषा उक्ता अतस्तान्न फूत्कुर्यात् न वा रञ्जयेत् ॥ सू० ५२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो ओठे आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥सू० ५३॥
सूत्रम्-एवं ओठे पायगमओ भाणियब्वोजाव फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमतं वा रएंतं साइज्जइ ।। सू० ५४-५८||
छाया-यो भिक्षुः आत्मन ओप्टौ-मामार्जयेद्वा प्रमार्जयेद्वा आमार्जयन्त वा प्रमाजयन्तं वा स्वदते ॥सू० ५३॥ ___ एवम्-ओष्ठे पादगमको भणितव्यो यावत्फूत्कुर्याद्वारञ्जयेद्वा, फूत्फुर्वन्तं वा रज. यन्त वा स्वदते ।। सू० ५४-५८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः 'अप्पणो ओ?' आत्मनःऔष्ठो, 'आमज्जेज्ज वा' आमार्जयेत्-एकवारं वस्त्रादिना ओष्ठयोः प्रमार्जन कुर्यात् 'पमज्जेज्ज वा' प्रमार्जयेद्वा-अनेकवारं प्रमार्जनं कुर्यात् । 'आमज्जतं वा पमज्जंतं वा साइज्जई आमजयन्तं वा प्रमाजयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ५३॥ ‘एवं ओढे' इत्यादि । 'एवं ओढे' एवम्- अनेन प्रकारेणोप्ठे-ओष्ठविपयेऽपि 'पायगमओ' पादसूत्रोक्तो गमकः प्रकारः 'माणियब्यो' भणितव्यः 'जाव फुमेज्ज वा-रएज्ज या' यावत्-फूत्कुर्याद्वारजयेद्वार, 'फुमतं वा रएतं वा साइज्जइ' फूत्कुर्वन्तं वा रजयन्त वा स्वदते ॥सू० ५४-५८॥
तथाहि-"जे भिक्खू अप्पणो ओढे संवाहेज वा पलिमद्देज्ज वा संवाहतं वा पलिमहेंतं वा साइज्जइ ॥० ५४॥ जे मिक्खू अप्पणो ओढे तेल्लेण वा घएण वा वसाए वाणवणीएण वा, मखज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मखंत वा मिलिंगेंतं वा साइज्जइ ।।सू०५५॥
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चूर्णिभाष्यावचूरि उ० ३ सू० ५९-६८ उत्तरौष्ठादिरोमकरीनाक्ष्यामर्जनादिनिषेधः १०३ जे भिक्खू अप्पणो ओढे लोद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा पउमचुण्णेण वा, उल्लोलेज्ज वा उन्चट्टेज्ज वा, उच्छोलेंतं वा उब्वटेतं वा साइज्जइ ॥ सू०५६॥ जे भिक्खू अप्पणो ओढे सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा वधोन्तं वा साइज्जइ ॥सू०५७॥ जे भिक्खू अप्पण्णो ओढे फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुतं वा रएंतं वा साइज्जइ ॥सू० ५८॥" व्याख्या पूर्व पादसूत्रे गता ॥ सू०५४-५८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अप्पणो दीहाइं उत्तरोठरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५९॥ एवं दीहाई अच्छिपत्ताई । सू०६०॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनो दीर्घाणि-उत्तरोष्टरोमाणि कल्पयेद्रा संस्थापयेद्वा, कल्पयन्तं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५९ ॥ एवम्-दीर्धाणि-अक्षिपत्राणि ॥ सू० ६० ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः 'अप्पणो' मात्मनः 'दीहाई दीर्घाणि-प्रवृद्धानि 'उत्तरोहरोमाई उत्तरोष्ठरोमाणि 'कप्पेज्ज वा' कल्पयेत्-शोभार्थं छिन्द्यात्, संठवेज्ज वा संस्थापयेत्, शोभावृद्धयर्थमशोभानिवारणार्थमूर्ध्वमधः कुर्यात् । तथा 'कप्तं वा संठवेंतं वा साइज्जई' कल्पयन्त वा संस्थापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । तस्याज्ञाभङ्गादयो दोपा भवन्ति ॥सू० ५९॥ एवं दीहाई अच्छिपत्ताई' एवम्-पूर्वोक्तोत्तरोष्ठसूत्रवदेवअक्षिपत्रसूत्रमपि ज्ञेयम् । अक्षिपत्राणीति-अक्षिपदमाणीत्यर्थः, एवं पूर्वसूत्रवत्-अक्षिपत्रस्त्रं ज्ञेयम् । तथाहि-"जे भिक्खू अप्पणो दीहाई अच्छिपत्ताई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा साइज्जइ" व्याख्या पूर्वोक्तोत्तरोष्ठरोमकतनसूत्रस्येव बोध्या ॥ सू० ६०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जतं वा साइज्जइ ॥ सू०६१॥ एवमच्छिसु पायगमओ भाणियव्वो, जाव फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुतं वा रएंतं वा साइज्जइ ॥६६॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनोऽक्षिणी आमार्जयेद्वा प्रमार्जयेद्वा, आमार्जयन्तं वा, प्रमार्जयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६१ ॥ एवमक्षिपु पादगमको भणितव्यः यावत् कुर्याद्वा रज्जयेद्वा फूत्कुर्वन्तं वा रञ्जयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६२-६६ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो अच्छीणि' आत्मनोऽक्षिणी-नेत्रे, "आमज्जेज्ज वा' आमार्जयेत्-तयोरेकवारं मार्जनं कुर्यात् 'पमज्जेज्ज वा' प्रमार्जयेद्वा, अनेकवारं प्रमार्जनं कुर्यात् । तथा 'आमज्जंतं वा पमज्जत वा 'साइज्जई' आमार्जयन्तं वा-प्रमार्जयन्तं वा-स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ६१॥ 'एवमच्छिमु' ।
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१०४.
निशीथस्त्र इत्यादि । 'एवमच्छिमु' एवम्-अनेनप्रकारेणाऽक्ष्णोः विषये पादसूत्रवद्गमकः प्रकारो भणितव्यः, यावत्-'फूमेज्ज वा-रएज्ज वा, फूमंत वा-रएतं वा खाइज्जड' !
तथाहि-"जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि संवाहेज वा पलिमद्देज्ज वा, संवाहेंत वा पलिम देतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६२॥ जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि तेल्लेण वा घरण वा बसाए वा णवणीएण वा मंखेज्ज घा भिलिंगेज्ज था, मंखंतं वा मिलिगेंत वा साइजड ॥ सू०६३॥ जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि लोद्रेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा चण्णेण वा पउमचुण्णेण वा, उल्लोलेज्ज वा उबज्ज वा. उल्लोलेंतं वा उचढेतं वा साइज्जइ ॥ मू०६४॥ जे भिक्खू अप्पणो मच्छीणि सीओदगवियटेण वा उसिणोदगवियटेण चा, उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा, उच्छोलेंतं वा-पधोतं वा. साइजइ ।। सू० ६५॥ जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि फुमेज्ज वा-रएज्ज वा, फुतं वा एतं वा साइजइ ॥ सू० ६६॥" पपां व्याख्या पादसूत्रवत् कर्तव्या ॥ .
जे भिक्खू अप्पणो दीहाई भमुहरामाई कप्पेज्ज वा संठवेंज्ज वा. कप्तं वा संठवेंतं वा साइज्जइ ।। सू०६७॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनो दीर्घाणि धूरोमाणि कल्पद् वा-संस्थापयेद्वा, कल्पयन्तं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते ॥ सू. ६७॥
चू -'जे मिक्खू इत्यादि । जे मिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो' आत्मनः 'दीहाई' दीर्घाणि-लम्बमानानि 'भमुहरोमाइ' भूरोमाणि-भ्रुवो रोमाणि केशान् , 'कप्पेज्ज वा' कल्पयेद् वा-शोमार्थ कर्त्तयेत् , 'सठवेज्ज वा' संस्थापयेद्वा, तत्र संस्थापन कतरिकादिवत्-तीदणीकरणं, शुकतुण्डवद्वाऽऽकुञ्चितं कुर्यात् । तथा-'कप्त वा संठवेंतं वा साइज्जइ' कल्पयन्तं वा संस्थापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ६७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो दीहाई पासरामाई कप्पेज्ज वा संटवेज्ज वा कप्तं वा संठवेतं वा साइज्जइ ।। सू० ६८||
__छाया-यो मिक्षुः आत्मनो दीर्घाणि पारोमाणि कल्पयेद्वा संस्थापयेता कल्पयन्तं चा संस्थापयन्तं वा स्वदते ॥ स० ६॥ __ चूर्णी-"जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्ख' यो भिक्षुः 'अप्पणो दीहाई पासरोमाई आत्मनो दीर्घाणि पार्श्वरोमाणि 'कप्पेज्ज वा' कल्पयेत् कर्तीप्रभृतिना 'संठवेज्ज वा' संस्थापयेद्वा-शुकतुण्डादिवत् कुर्यात् । “कप्पेतं वा--संठवेंतं वा साइज्जई' कल्पयन्तं संस्थापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ६८॥
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A
चूर्णिभाष्यावचूरिःउ०३सू०६९-७१ अक्ष्यादिमलनिष्कासनकायगतस्वेदादिनिहरणनि० १०५
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा णहमलं वाणीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णीहरंतं वा विसोहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६९॥
छाया-यो भिक्षः आत्मनोऽक्षिमलं वा कर्णमलं वा दन्तमलं वा नखमलं वा निहरेता विशोधयेद्वा, निर्हरन्तं वा-विशोधयन्तं वा स्वदते ॥सू० ६९॥
चुर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो' आत्मनः अच्छिमलं वा' -अक्षिमलं नेत्रमलम् , तथा-'कण्णमलं वा' कर्णमलं वा, 'दंतमलं वा' दन्तमलंदन्तपतिसंलग्नम् । 'णहमलं वा' नखमलं वा-नखानां करचरणगतानां मध्ये विद्यमानं मलम् तत्स्थानात् 'णीहरेज वा' निहरेत्-निष्कासयेत्, तथा--'विसोहेज्ज वा' विशोधयेत्--मलमपनीय शोभा संपादयेत् । 'णीहरतं वा विसोत वा साइज्जइ' निर्हरन्तं वाविशोधयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० ६९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो कायाओ सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मलं वाणीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा नीहरतं वा विसोहेंतं वा साइज्जइ ॥७॥
छाया-यो भिक्षुरात्मनः कायात् स्वेदं वा-जल्लं वा पच चा-मलं वा निहरेद्वाविशोधयेद्वा, निहरन्तं वा-विशोधयन्तं वा स्वदते ॥ सू• ७०॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू , यो भिक्षुः, 'अप्पणो कायाओ' आत्मनः कायात्-स्वशरीरात् 'सेयं वा' स्वेदं वा-धर्माऽतिशयेन शरीराद्विनिर्गतं जलम्, 'जल्लं वा' जल्लं शरीरमलम् 'पंकं वा' तत्र-पङ्कः-शरीरसंलग्नप्रस्वेदमिश्रितधूलिरूपस्तम्' 'मलं वा' मलं-शोणितादिरूपम् 'नीहरेज्ज वा' निर्हरेत्-निष्कासयेत् 'विसोहेज्ज वा' विशोधयेत, तथा-'नीहरतं वा-विसोत वा साइज्जई' निर्हरन्तं वा विशोधयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभार भवति तस्याज्ञाभङ्गादयो दोपा भवन्ति ।। सू० ७०॥
(वसन्ततिलकावृत्तम्) भाष्यम् - दिलं मलं सयमहेत्थ पडेज्ज चित्तं,
तप्पाडणे जइ जएज्ज मुमुक्खुलोगो। सिंगारकामुगजणेसु य साहुलोगे, भेओ कियं अहह संसइयं च चेओ ॥ सेयाइयं देहमलं, नीहरेज्जा सदेहओ।। आणाभंगाइए दोसे, पावेज्जा नेत्थ संसओ ॥
११
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१०६
निशीथसूत्रछाया-दिग्धं मलं स्वयमथाऽत्र पवेत् चित्रं-,
तत्पातने यदि यतेत मुमुक्षुलोकः । शृङ्गारकामुकजनेषु च साधुलोके, भेदः कियानहह ! संशयितं च चेतः ॥ स्वेदादिकं देहमलं निहरेत् स्वदेहतः ।
आज्ञाभङ्गादिकान दोपान प्राप्नुयान्नात्र संशयः ॥ अवचूरिः-'दिद्धं मलं' इत्यादि । अथ-अत्र देहे दिग्ध-लिप्त-शरीरसंग्न मलं वृद्धिंगतं 'सत्' स्वयः मेव पतेत्-शरीरात् पृथग् भवेत् तस्य-स्वयं पततो मलस्य पातने-निष्कासने, शृङ्गारिकजनो व्यवस्यति तथैव क्षुद्रकर्मणि मलनिष्कासने यदि मुमुक्षुलोकः साधुवर्गों यतेत, अत्र चित्रं मन्ये । यः साधुर्मोक्षं यत्नतः साधयति, स यदि यत्नमास्थाय शरीरशोभामेव वयेत्, शरीरशोभामेव साधयेत् तदा शृङ्गारकामुकेषु जनेषु च पुनः साधुलोके कियान् भेदः ! को भेदः ? महह (1) मदीयं चेतः संशयितम् , यथा न संभावयामि यत् शरीरशोभासंलग्नो मुनिर्णोक्षं साधयिष्यतीति । इत्थंमुहुर्मुहुः शास्त्रतत्त्वविद्भिर्बोध्यमानोऽपि यदि भिक्षुः स्वेदेहत स्वदादिकं देहमलम् उपलक्ष णाकर्ण-नेत्रादिमलं निर्हरेत् , तदा-आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नुयात्, अत्र सन्देहो न मन्तव्यः ॥सू० ७०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गामाणुगाम दूइज्जमाणे अप्पणो सीसदुवारियं करेइ करतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७१॥
छाया-यो भिक्षुामानुग्राम चन्-आत्मन. शीद्वारिकां करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७१॥ ___चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'गामाणुगामं दूहन्जमाणे' प्रामानुग्रामं द्रवन्-एकस्माद् ग्रामाद् प्रामान्तरं गच्छन् , शिशिरऋतौ-ग्रीष्मऋतौ च शीत-धर्मवारणार्थ 'अप्पणों' आत्मनः, 'सीसदुचारिय' शीर्पद्वारिका -शीर्षस्य मस्तकस्य द्वारिका आवरकां, शीर्षाऽऽवरणमिति यावत् । साध्वी तु मस्तकं 'बूंघट' इति लोकप्रसिद्धनाऽवगुण्ठयितुं शक्नोतीत्यपवादः । 'करेइ' करोति, आतपः शीतं वा मा वाधतामिति बुद्धया येन केनापि साधनेन मस्तकमाछादयति । 'करेंतं वा साइजई' कुर्वन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुर्मासकल्पं परिसमाप्य ग्रामाद्ग्रामान्तरं गच्छन् स्वात्मनः शिरसि वस्त्रादिना छत्रवत् प्रावरण-मवगुण्ठनं करोति तथा कुर्वन्तं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ७१॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्- मत्थे पावरणं असे, करेमाणेऽवरोवणं ।
गिहिस्स लिंगमन्नस्स, करंतो दोसभा हवे ।।
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चूर्णि० उ०३ सू० ७२-७५ वशीकरणसूत्रस्यास्थानेपूच्चारादिपरिष्ठापनस्य च नि० १०७
छाया-मस्तके प्रावरणमंसे कुर्वाणोऽवरोपणम् ।
___ गृहिणो लिङ्गमन्यस्य कुर्वन् दोपभाग् भवेत् ॥
अवचूरिः-'मत्ये' इत्यादि । ग्रामाद्नामान्तरं गच्छन् संयतः मस्तके स्वशिरोदेशे प्रावरणम् आच्छादनम्, असे-स्कन्धस्यैकदेशे शोभार्थम् अवरोपणं-स्थापनं वा कुर्वन्. मस्तके स्कन्धदेशे वा चोलपट्टादिकं वनन् , यद्वा-गृहिणो लिङ्गम्-गृहस्थवेपं, यद्वा -गृहस्थवत् वनाच्छादनं करोति, अन्यस्य वा लिङ्गम् अन्ययूथिकवत् वत्रस्य परिधानादि कुर्वन् तिष्ठति स दोषभाग भवेत् , आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् लभेत ॥सू० ७१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सणकप्पासाओ वा उण्णकप्पासाओ वा बोंडकप्पासाओ वा अमिलकप्पासाओ वा वसीकरणसुत्ताई करेइ करेंत वा साइज्जइ ।। सू० ७२॥ छाया-यो भिक्षुः शणकार्पासाद्वा ऊर्णाकार्पासाद्वा चोंडकार्पासाद्वा अमिलकार्पा
साद्वा वशीकरणसूत्राणि करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० ७२॥ चूर्णों-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः, 'सणकप्पासाओ वा' शणकार्पासाद्वा--शणसूत्रात् 'उण्णकप्पासाओ वा' ऊर्णाकार्पासाद्वा--ऊर्णासम्पादितसूत्राद्वा 'बोंडकप्पासाओ वा' बोंडकार्पासात् तत्र 'बोंड' इति देशी शब्दः कर्पासवाची तेन बोंडसूत्रादिति कार्पाससूत्राद्वा 'अमिल' इति देशी शब्दः ऊर्णाविशेषवाची तेन अमिलं--ऊर्णाविशेषः, तन्निर्मितसूत्राद्धा एतैः शणकार्पासादिभिः सूत्रैः 'वसीकरणमुत्ताई करेई' वशीकरणसूत्राणि करोति, अयं भावःयो भिक्षुर्वशीकरणाथ पतिपुत्रादि वशीकर्तुं शणकार्पासादिना सूत्राणि करोति-निर्माति । 'करें। वा साइजई' कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ७२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गिहंसि वा गिहमुहंसि वा गिहदवारंसि वा गिहपडिदुवारंसि वा गिहेलूयंसि वा गिहंगणंसि वा गिहवच्चंसि वा उच्चारं वा पासवणं वा परिट्ठवेइ परिहतं वा साइज्जइ ॥सू०७३॥
___ छाया-यो भिक्षुः गृहे या गृहमुखे वा गृहद्वारे पा गृहप्रतिद्वारे वा गृहलुके वा गृहाङ्गणे वा गृहवर्चसि वा उच्चारं वा प्रस्रवणं वा परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥सू० ७॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'गिहंसि वा' गृहे वा 'गिहमुइंसि चा' गृहमुखे वा 'गिहदुवारंसि चा' गृहद्वारे वा यदाश्रित्य गेहे प्रविशति--तस्मिन् स्थाने वा, 'गिहपडिदुवारंसि वा' गृहप्रतिद्वारे वा--गृहस्याऽवान्तरद्वारे इत्यर्थः 'गिहेलयंसि वा'
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निशीथसूत्रे गृहैलके वा-गृहस्य--एलकेऽप्रभागे 'गिहंगणंसि वा' गृहाङ्गणे वा--गृहमध्ये निरावृतस्थानविशेषे 'गिहवच्चंसि वा' गृहवर्चसि वा--गृहस्थवर्चीगृहे, गृहस्थस्योच्चारनिवारणस्थाने, 'उच्चारं वा' उच्चार--पुरीपोत्सर्ग वा 'पासवणं वा' प्रस्रवणम्-मूत्रं वा 'परिद्ववेई' परिष्ठापयति-व्युत्सृजति गृहस्थस्यैतेपु प्रदेशेषु यदि भिक्षुर्मूत्रपुरीपादिकं करोतीत्यर्थः । 'परिहवेंतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ७३॥
सूत्रम्--जे भिक्खू मडगगिहंसि वा मडगछारियसि वा मडगथूभियंसि वा मडगआसयंसि वा मडगलेणंसि वा मडगथंडिलंसि वा मडगवच्चंसि वा उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ परिहवेतं वा साइज्जइ ।। सू०७४ ॥
छाया-यो भिक्षुः मृतकगृहे वा मृतकक्षारे वा मृतकस्तपे वा मृतकाश्रये वा मृतकलयने वा- मृतकस्थण्डिले वा मृतकवर्चसि वा, उच्चारं वा प्रस्रवणं वा, परिष्ठापयति परिण्ठापयन्तं वा स्वदते सू०७४|
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'मडगगिहंसि वा' मृतकगृहेयत्र मृतकं स्थापयित्वा तदुपरि मृत्तिकादिना चयनं क्रियते किन्तु न दहति तत् मृतकगृहं कथ्यते, तस्मिन् 'मडगछारियसि वा' मृतकक्षारे वा-दग्धमृतकस्य पुजीकृतभस्मस्थाने 'मडगथूभियंसि वा' मृतकस्तूपे मृतकोपरिकृतशिखररूपे स्थाने वा 'मडगासयंसि वा मृतकाश्रयेश्मशानासन्नप्रदेशे यत्रानीय मृतकं स्थाप्पते तस्मिन् 'मडगलेणंसि वा मृतकलयने मृतकदाहस्थाने कृतं देवकुलादिकं स्थानम् , तस्मिन् , 'मडगथंडिलंसि वा' मृतकस्थण्डिले वा मृतकभस्मचितावर्जिते मृतकदहनस्थाने मडगवच्चसि वा मृनकवर्चसि शटितमृतकस्थाने, यत्र-श्वादयो मृतकस्याङ्गप्रत्यङ्गाघानीय पातयन्ति, तत्स्थाने 'उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेई' उच्चार-पुरीपं प्रस्रवणंमूत्रं परिष्ठापयति, तथा परिहतंवा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ७॥
सूत्रम्--जे भिक्खू इंगालदाहंसि वा खारदाहंसि वा गायदाहसि वा तुसदाहंसि वा भुसदाहंसि वा उच्चारपासवणं परिट्ठवेइ, परिठवेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७५॥
छाया-यो भिक्षुः अङ्गारदाहे वा क्षारदाहे वा गात्रदाहे वा तुपदाहे वा भुसदाहे वा उच्चारं वा प्रस्रवणं वा परिष्ठापयति, परिण्ठापयन्तं वा स्वदते ॥सू० ७५||
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'इंगालदाहंसि वा' अङ्गारदाहे वा, यत्र-खदिराद्यगारा (कोलसा) इति लोकप्रसिद्धाः क्रियन्ते तत्स्थाने 'खारदाहंसि वा' क्षार
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चूर्णिभाष्यावी उ० ३ सू०७६-७९ अस्थानेपु-उच्चारादिरिष्ठापननिषेधः १०९ दाहे वा-क्षारकरणस्थाने, यत्र स्थानविशेपे क्षारद्रव्य (साजी खार-आदि) करणार्थ क्षारजातीयकाष्ठं दह्यते तादृशस्थानं क्षारदाह इति कथ्यते, तत्र, 'गायदाहसि वा' गात्रदाहे वा ज्वरादिरोगाक्रान्तानां पालितपशूनां गवादीनां तत्तदङ्गावयवस्तप्तलोहशलाकया दंदह्यते तस्मिन् गात्रदाहस्थाने 'तुसदाहंसि वा' तुपदाहे वा-यत्र स्थले कुम्भकारादयः नूतनघटादीनां पाकक्रियायां तुषादिकं दहन्ति तस्मिन् तुषदाहस्थाने 'भुसदाहंसि वा बुसदाहे वा 'कडगरो चुसं क्लीवे, घान्यत्वचि पुमांस्तुषः" इत्यमरः “भुसा" इति लोकप्रसिद्धस्य दाहस्थाने । एतादृशदाहस्थाने यदि 'उच्चारपासवणं परिट्ठवेइ' उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति, तथा-'परिवेंतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ७५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सेयाययणंसि वा पंकसि वा पणगंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिहवेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७६॥
- छाया-यो भिक्षुः स्वेदायतने घा, पके वा पनके वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ।। सू० ७६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'सेयाययणंसि वा, स्वेदायतने वा-सचित्तजलमिश्रितकर्दमवहुलस्थाने 'पंकसि वा' पके वा सामान्यपके 'पणगंसि वा' पनके वा-जलप्रपातजनितशेवाल ('नीलन-फुलन') इति लोकप्रसिद्धस्थाने वा 'उच्चारपासवणं परिहवेई' उच्चारप्रनवणं परिष्ठापयति, 'परिद्ववेतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ७६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अहिणवियासु गोलेहणियासु वा अहिणवियास मट्टियाखाणीसु वा परि जमाणियासु वा अपरिभुजमाणियासु वा उच्चारपासवणं परिठ्ठवेइ परिहवेतं व साइज्जइ ॥ सू० ७७॥
छाया--यो भिक्षुः अभिनविकासु गोलेहनिकासु वा अभिनविकासु मृत्तिकाखानिपु वा परिभुज्यमानासु वा अपरिभुज्यमानासु वा उच्चारप्रेनवणं परिष्ठापयति परिण्ठापयन्तं वा स्वदते ।। सू० ७७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अहिणवियामु' अभिनविकासु-नव निर्मितासु 'गोलेहणियामु' गोलेहनिकासु-यत्र गवामवलेहनाथै लवणादिक्षारद्रव्यं स्थाप्यते यदवलिह्य गावो रुचिपूर्वकं पानीयं पिबन्ति तृणादिकं वा खादन्ति तादृशानि स्थानानि गोलेहनिकाः कथ्यन्ते. तासु गोनिमित्तं नवनिर्मितासु गोहनिकासु 'अहिणवियासु वा मट्टियाखाणीसु' नवीनासु वा मृत्तिकाखानिपु यस्मात्-मृत्तिका निष्कास्यते तादृशस्थानेषु 'परिझुंजमाणियामु वा' अपरिभुंज
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निशीथसूत्र माणियामु वा' परिभुज्यमानासु-व्यवह्रियमाणासु अपरिभुज्यमानासु-अव्यवह्रियमाणासु वा भूमिपु 'उच्चारपासवर्ण परिहवेइ' उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति, परिहवेतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागू भवति, संयमात्मविराधनालोकनिन्दादिदोपसगावात् ।। सू०७७॥
सूत्रम्--जे भिक्खू उंबरवच्चंसि वा नग्गोहवच्चंसि वा आसत्थवच्चंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिहवेतं वा साइज्जइ ॥सू० ७८||
छाया- यो भिक्षुः उदुम्बरवर्चसि वा न्यग्रोधवर्चसि वा अश्वत्थवर्चसि वा उच्चारप्रनवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते । सू० ७८।।
चूर्णी- 'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः 'उंवरवच्चंसि वा' उदुम्बरवर्चसि वा, उदुम्बरो वृक्षविशेषः 'उमर' इति 'गुलर' इति वा लोके प्रसिद्धस्तस्य वर्चसि प्रत्यासन्नप्रदेशे यत्र गिरितटे फलानि पतन्ति पात्यन्ते पुञ्जीक्रियन्ते वा, तस्मिन् प्रदेशे, 'नग्गोहवच्चंसि वा' न्यग्रोधवर्चसि वा, न्यग्रोधो वटवृक्षस्तस्यासन्नप्रदेशे यत्र फलानि पतन्ति पात्यन्ते वा तत्र, 'आसत्यवच्चंसि वा' अश्वत्थवर्चसि वा तत्राऽश्वत्थः पिप्पलवृक्षस्तत्फलपतन-पातनप्रदेशे, 'उच्चारपासवर्ण' उच्चारप्रसवणं 'परिटवेइ' परिष्टापयति 'परिहवेतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ७८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू इक्खुवर्णसि वा सालिवणंसि वा कुसुंभवणंसि वा कप्पासवणंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०७९॥
छाया-यो भिक्षुः इझुवने वा शालिवने वा कुसुम्भवने वा कार्पासवने वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७९॥
चूर्णी-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'इक्खुवर्णसि वा' इक्षुवने वा, इक्षुः-'सेलडी'-तिभापाप्रसिद्धः, तस्य वन-क्षेत्रं, तत्र | यथा-वने वृक्षा निविडाः सघनाः तद्वरक्षेत्रे-इक्षणां सघनत्वात् क्षेत्रे वनत्वस्योपचारः, तथा च एतादृशेक्षुवने वा 'सालिवर्णसि वा' शालिवने वा, शालिः-व्रीहिस्तस्य वनं तत्र 'कुसुंभवणंसि वा' कुसुम्भवने वा तत्र-कुसुम्भ-रक्तरगसमुत्पादकपुष्पविशेषः 'कुसुंबा' इति भाषाप्रसिद्धः, तस्य वनं क्षेत्रं तत्र 'कप्पासवर्णसि वा' कार्पासवने वा कार्यासक्षेत्रे 'उच्चारपासवणं परिहवेइ' उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति, 'परिहवेतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चितभाग् भवति ॥ सू० ७९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू डागवच्चंसि वा सागवच्चंसि वा मूलगवच्चंसि वा कोत्थुभरिखच्चंसि वा खाखच्चंसि वा जीरयवच्चंसि वा दमणय
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चूर्णिक उ० ३ सू० ८०-८३ उच्चारादीनामस्थाऽनुगतसूर्यकाले च परिष्ठापननि० १११ वच्चंसि वा मरुयवच्चंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिठवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८०॥
छाया-यो भिक्षुः डागवसि वा शाकवर्चसि वा मूलकवर्चसि वा कोत्थुम्भरिवर्चसि वा क्षारवर्चसि वा जीरकवर्चसि वा दमनकवर्चसि वा मरुकवर्चसि वा. उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति, परिप्ठापयन्तं धा स्वदते ॥ सू० ८०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'डागवच्चंसि वा' डागवर्चसि वा-डागः पनशाकस्तस्य वर्चसि तदासन्नस्थाने यत्र पत्रशा कः पुञ्जीक्रियते तत्स्थाने 'सागवच्चंसि वा' शाकवर्चसि वा-शाको वृन्ताकादिस्तस्य स्थाने 'मूलगवच्चंसि वा' मूलकवर्चसि वा मुलकं 'मूली'-तिलोकप्रसिद्धं, तस्य क्षेत्रे 'कोल्युंभरिवच्चंसि वा' कोत्थुम्भरिवर्चसि वा-कोत्थुम्भरि
Cन्याकम् 'घाना' 'कोथमी' इति भाषाप्रसिद्धः, तस्य पुजे 'जीरयवचंसि वा' जीरकवर्चसि यत्र जोरकमुत्पद्यते संस्थाप्यते वा तादृशस्थाने 'दमणयवच्चंसि वा' दमनकवर्चसि वा दमनकोनाम-वनस्पतिविशेषस्तस्य वर्चसि स्थाने 'मरुयंवच्चंसि वा' मरुकवर्चसि वा, मरुकोऽपि वनस्पतिविशेषस्तस्य पुजस्थाने 'उच्चारपासवणं परिहवेइ' उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति, 'परिहवेंतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ८०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू असोगवणंसि वा सत्तवण्णवर्णसि वा चपयसि वा चूयवणंसि वा अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु पत्तोवेएसु पुष्फोवेएसु फलोवेएसु छाओवेएसु उच्चारपासवणं परिहवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥
छाया-यो भिक्षुः अशोकवने वा सप्तपर्णवने वा चम्पकवने वा चूतवने वा अन्यतरेषु वा तथाप्रकारेषु पत्रोपेतेपु पुष्पोपेतेपु फलोपेतेषु छायोपेतेषु उच्चारप्रन्न वणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू०८१॥
चूर्णी-"जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः 'असोगवणं सि वा' अशोकवने वा-लोकप्रसिद्धोऽशोकवृक्षस्तस्य वनं, तत्र 'सत्तवण्णवणंसि वा' सप्तपर्णवने वा तत्र-सप्तपर्णो नाम-वृक्षविशेपस्तस्य वनं, तत्र, 'चंपगवणंसि वा' चम्पकवने, 'चूयवणंसि वा' आम्रवने वा 'अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु' अन्यतरेषु वा तथाप्रकारेषु अशोकादिवृक्षभिन्नाऽशोकादिसमानेषु वृक्षसमुदायेषु । कथम्भूतेषु तेषु ? तत्राह-'पत्तोवेएम' इत्यादि । 'पत्तोवेएम' पत्रोपेतेषु-पत्रयुक्तेषु वृक्षषु 'पुष्फोवेएस' पुष्पोपेतेषु पुष्पसहितेषु 'फलोवेएसु' फलोपेतेषु 'छाओवेएम छायोपेतेषु पत्र-पुष्प-फल-च्छाया-समन्वितवृक्षसमूहेपु इत्यर्थः उच्चारपासवणं 'परिद्ववेई' उच्चारप्रनवणं परिष्टापयति, तथा-'परिहवेंतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तमागू भवति, तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति ।। सू० ८१॥
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निशीथसूत्र मूत्रम्--जे भिक्खू सपायंसि वा परपायंसि वा दिया वा राओ वा वियाले वा उव्वाहिज्जमाणे सपायं गहाय, परपायं वा जाइत्ता उच्चारपासवणं परिद्ववेत्ता अणुग्गए सूरिए एडइ एडतं वा साइज्जइ ।। सू० ८२॥
छाया-यो भिक्षुः स्वपात्रे वा परपात्रे वा दिवा वा रात्री वा विकाले वा उद्वाध्यमानः स्वपात्रं गृहीत्वा परपात्रं वा याचित्वा उच्चारप्रस्रवण परिष्ठाप्य अनुद्गते सूर्ये पडति पडन्तं वा स्वदते ॥ सू० ८२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः 'सपायंसि वा' स्वपात्रे वा स्वनिश्रितोन्दके वा पात्रे इत्यर्थः 'परपायसि वा' परपात्रे वा-परकीयोन्दके वा 'दिया वा' दिवा वा-दिवसे इत्यर्थः. 'राओ वा' रात्रौ वा 'चियाले वा विकाले वा, विकाले-संन्ध्यासमये वा 'उच्चाहिज्जमाणे' उहाध्यमानः उच्चारप्रस्रवणवेगेन बाध्यमानः उच्चारप्रस्रवणबाधामनुभवन् 'सपायं गहाय' स्वपात्रं गृहीत्वा, स्वकीयं पात्रं गृहीत्वा 'परपायं वा जाइत्ता' परपात्र वा याचित्वा तस्मिन् 'उच्चारपासवर्ण' उच्चारप्रस्रवणम्, 'परिहवेत्ता' परिठाप्य कृत्वेत्यर्थः 'अणुग्गए सूरिए' अनुद्गते सूर्ये सूर्योदयात्प्रागेव 'एडई' एडति-परिष्ठापयति अप्रतिलिखितभूमौ व्युत्सृजति , 'एडतं वा साइज्जई' एडन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥सू० ८२॥ सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारहाणं उग्घाइयं ॥३॥
तइओ उद्देसो समत्तो ||३|| छाया-तत्सेवमान आपद्यते मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकम् ॥ सू० ८३॥
॥ इति तृतीयोदेशः समाप्तः ॥ चूर्णी-'त सेवमाणे इत्यादि । तं सेवमाणे, तत्सेवमानः, तृतीयोदेशके आदित आरभ्य समाप्तिपर्यंतं यद्यत् प्रायश्चित्तकारणं वर्णितं तदेकमपि यत्किश्चित्सेवमानः श्रमणः श्रमणी वा 'उग्याइयं' उद्घातिकम्, 'मासियं परिहारहाणं' मासिकं परिहारस्थानम् , लघुमासिक प्रायश्चित्तम् 'आवज्जई' आपद्यते प्राप्नोति ॥सू० ८३॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायां तृतीय उद्देशकः समाप्तः ॥३॥
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॥ चतुर्थोदशकः ॥ व्याख्यातस्तृतीयोदेशकः, तदनु-अवसरसङ्गत्या चतुर्थोदेशकः प्रारभ्यते-- अथाऽस्य चतुर्थोद्देशकीयादिसूत्रस्य तृतीयोदेशकीयान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्धः । इति जिज्ञासायामाह भाष्यकार:भाष्यम्-परिद्वावेउमुच्चारं, वसहीओ बर्हि गयं ।
गिव्हिज्जा जइ मं राया, एवं तं ण वसं नए ॥ छाया-परिष्ठापयितुमुच्चारं, वसतितो वहिर्गतम् ।
गृहीयाद्यदि मां राजा, पवंत न वशं नयेत् । अवचूरिः-'परिहावेउ०' इत्यादि । तृतीयोदेशकान्तिमसूत्रे-उच्चारप्रस्रवणयोः परिष्ठापनं कथितम् । तत्र-रात्रौ उच्चारम्-उपलक्षणात् , प्रस्रवणादिकं परिष्ठापयितुं यधुपाश्रयाद् बहिर्गतं मां 'चौरोऽयं विचरती'ति शङ्कया गृह्णीयात् गृहीतोऽदण्ड्योऽपि तत आत्मानं मोचयितुं नृपाश्रयःराज्ञा सह परिचय आवश्यकः,एवम् इति मत्वा तं राजानं न वशं नयेत् राजानं वशीकत्तुं न यतेतेति भावः । य एवं कुर्यात् स प्रायश्चित्तभागी भवतीत्यस्मिन्नुदेशके प्रतिपादयिष्यते । अयमेव सम्बन्धः पूर्वापरोद्देशकस्त्रयोः । तदनेनसम्बन्धेनायातस्याऽस्योदेशकस्य प्रथमं सूत्रमाहसूत्रम्-जे भिक्खू रायं अत्तीकरेइ अत्तीकरतं वा साइज्जइ ॥सू० १॥ छाया-यो भिक्षुः राजानमारमीकरोति आत्मीकुर्वन्त वा स्वदते ॥सू० १॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'रायं अत्तीकरेइ' राजानं तत्रत्यमण्डलाधिपतिमात्मीकरोति स्वाधीनं नयति, 'अत्तीकरेंतं वा साइज्जइ' आत्मीकुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्ती भवति । तथा-तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति । तत्र-राज्ञ आत्मीकरणं द्विप्रकारकम्-प्रत्यक्षं, परोक्षं च। तत्र-तत् प्रत्यक्षं यत्स्वयमेव करोति १, परोक्षं तु पुनरन्येन अमात्यादिना कारयति । यत्र स्वकीयप्रयत्नेन स्वयमेव गत्वा राज्ञा सह परिचयकरणं तत् प्रत्यक्षम् । परोक्षमन्यद्वारा राज्ञा सह सम्बन्धसंपादनमिति ॥सू० १ ॥ सूत्रम-जे भिक्खू रायं अच्चीकरेइ अच्चीकरेंतं वा साइज्जइ॥सू०२॥
छाया-यो भिक्षुः राजानमर्चीकरोति, अर्चीकुर्वन्त वा स्वदते ॥सू० २॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'राय' राजानम् 'अच्चीकरेइ' अर्चीकरोति-शौर्यादिगुणवर्णनेन प्रशंसति, तद् अर्चीकरणं द्विविधम्-सदसद्गुणवर्णनभेदात् । पुनरपि एकैकं द्विविधम् -प्रत्यक्षम् १ परोक्ष च २ । तत्र-प्रत्यक्षं स्वयमेवात्मना गुणवर्णनम् १, परोक्षं तु परद्वारा गुणवर्णनम् २ । तथा-'अच्चीकरेंतं वा साइज्जइ' अर्चीकुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागू भवति । तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । राजगुणवर्णनेनाऽनुकूलाः प्रतिकूला वा
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परिषहा भवन्ति । राज्ञा सहातिपरिचर्यकरणेऽनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसंभवेन प्रसङ्गोऽपि तस्माद्राज्ञोऽतिप्रशंसनं न कर्त्तव्यमिति ॥ सू० २||
निशीथसूत्रे
संयमात्मविराधनादि
सूत्रम् - जे भिक्खू रायं अच्छी करेइ अच्छी करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०३ ||
छाया - यो भिक्षुः राजानमच्छीकरोति, अच्छीकुर्वन्त वा स्वदते ॥सू० ३॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'राय' राजानम् 'अच्छी करेइ' अच्छी करोति, अच्छो निर्मलस्तं करोति अच्छीकरोति, औषधयन्त्रमन्त्रादिदानेन रुग्णं नीरोगं करोति । 'अच्छीकरेंतं वा साइज्जइ' अच्छीकुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ३ ||
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सूत्रम् — जे भिक्खू रायं अत्थी करेइ अत्थी करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४ ||
छाया - यो भिक्षुः राजानमर्थीकरोति अर्थीकुर्वन्त वा स्वदते || सू० ४ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'राय' राजानम् अत्थीकरेइ' अर्थीकरोति यावता व्यापारेण राजा श्रमणेऽर्थी प्रयोजनवान् भवेत् तथा करोतीत्यर्थीकरोति । तीतानागतवस्तुनो ज्ञाताऽयं श्रमणो मय्यनुकूलो मां मन्त्रादि दास्यतीत्याशावन्तं राजानं स्वसमीपे समागमनाय प्रयोजनवन्तं करोत्यर्थीकरोतेरर्थः । ' अत्थी करेंतं वा साइज्जइ' अर्थीकुर्वन्तं वाऽन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति, तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति ॥ सू० ४ ॥ एवं-'रायारक्खयं' राजारक्षकं राज्ञ आत्मरक्षकम् - 'अत्तीकरेइ ५, अच्चीकरेइ ६, अच्छीकरेइ ७, अत्थीकरेइ ८, इति चत्वारि सूत्राणि ॥सू० ८॥ नगरारक्षकं नगरपालकं राजपुरुषम्, अत्रापि चत्वारि सूत्राणि ॥ सू० १२॥ निगमारक्षकं, तत्र निगमः - व्यापारप्रधानस्थानं, तस्याधिष्ठातारम् । अत्रापि चत्वारि सूत्राणि ॥सू० १६ ॥ एवं 'सन्चारक्खयं' सर्वारक्षकम् सर्वान् राजारअकादारभ्य निगमारक्षकपर्यन्तान् सर्वान्, आ पामराः प्रजा वा आ - समन्ताद् रक्षति य स सर्वारक्षकः प्रधानोऽधिकारी, तम् । अत्रापि चत्वारि सूत्राणि ||२०|| 'अत्तीकरे १, अच्चीकरे २, अच्छीकरे ३, अत्थीकरेइ ४' इत्येतद्विषयाणि प्रत्येकं चत्वारि चत्वारि सूत्राणि राजारक्षकादारम्य सर्वारक्षकपर्यन्तानां विषये व्याख्येयानि राजसूत्रादारम्य सर्वारक्षकसूत्रपर्यन्तानि पञ्चापि सूत्राणि आत्मीकरणादिकमधिकृत्यैकगमानि सन्तीति ॥ सू० ५-२० ॥
एवमेव ' नगरारक्खयं' एवमेव 'णिगमा रक्खयं'
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भाष्यम् – अत्ती करेइ य णिवाद कयाड अच्ची, अच्छीकरेs जइ वाss करेज्ज अत्थी । सव्त्रत्थ एत्थ दुइओ उवसग्गदोसा, तम्हा जई नहि करेज्ज यंति त्ते || छाया - आत्मीकरोति च नृपादि कदाचिदर्ची अच्छीकरोति यदिवाऽथ कुर्यादर्थी । सर्वत्राऽत्र द्विघात उपसर्गदोषाः तस्माद्यंतिनंहि कुर्याद्वदन्ति सूत्रे ॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०.४ २०२१-२३ कृत्स्नौषधेराचार्याद्यदत्तस्य चाहारस्य निषेध ११५
अवचूरिः-'अत्तीकरेई' इत्यादि । यो हि भिक्षुः-'निवाई' नृपादि अर्थात्-राजानम् , राजारक्षकम् , नगरारक्षकम् , निगमारक्षकम् , सर्वारक्षकं वा, यं कमप्येकमात्मीकरोति, च पुनःअर्चीकरोति, यदि वा-अच्छीकरोति, अथ कदाचित् अर्थीकरोति । अत्राऽऽत्मीयकरणादौ सर्वत्रापि द्विधात उभयथापि- अनुकूल-प्रतिकूलादिनोपसर्गदोषाः संभवेयुः, यथाऽङ्गारः शीतो वा उष्णो वा(ठण्टा-कोलसा) (जलता-कोलसा) करस्पृष्टः सन् शीतोष्णाभ्यां गुणदोषाभ्यामुपसर्गकर एव भवति, यदा शीतस्तदा करं कृष्णायते यदोष्णो जाज्वल्यमानस्तदा करं दहति । एवमेव-राजा दयोऽपि कुर्युः, तस्मात् -यतिमध्यस्थभावे वर्तमानो नैतेषामुपकारमपकारं वा कुर्यात् । इति सूत्रे-विंशतिसूत्रसमुदाये गणधरादयो वदन्ति ।। सू० २०॥
सूत्रम्--जे भिक्खू कसिणाओ ओसहीओ आहारेइ आहारेंत वा साइज्जइ ॥ सू० २१॥
छाया-यो भिक्षुः कृत्स्ना ओपधीराहरति-आहरन्त वा स्वदते ॥सू० ॥२१॥ .
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘कसिणाओ ओसहीओ' कृत्स्नाः सम्पूर्णा अखण्डिताः द्रव्यतो भावतश्च ओषधयः शालिगोधूमादयः, तत्र--द्रव्यतोऽखण्डिताः स्वरूपेणाऽवस्थिताः, भावतः सचित्ताः, ताः 'आहारेइ' आहरति, 'आहारेंतं वा साइज्जई' आहरन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । अत्र कृत्स्नौषधीनां द्रव्यभावभेदेन चत्वारो भङ्गा भवन्ति, तथाहि--द्रव्यतोऽखण्डिताः भावतः खण्डिताः इति प्रथमो भगः १, द्रव्यतः खण्डिता भावतोऽखण्डिताः, इति द्वितीयो भङ्गः २, द्रव्यतोऽखण्डिता भावतोऽखण्डिताः, इति तृतीयो भङ्गः ३, द्रव्यतः खण्डिताः, भावतश्च खण्डिताः, इति चतुर्थो भङ्गः ४ । तत्र--प्रथमचतुर्थौ भगौ शुद्धौ । सू०२१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आयरियउवज्झाएहिं अदत्तं आहारेइ आहारतं साइज्जइ ॥ सू० २२॥ 'छाया-यो भिक्षुराचार्योपाध्यायैरदत्तमाहरति आहरन्तं वा स्वदते ॥ सू० २२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आयरियउवज्झाएहि' आचायोपाध्यायः-उपलक्षणाद्रत्नाधिकैर्वा 'अदन' अनवतीर्णमशनादिकम् 'आहारेइ' आहरति, 'आहारेत वा साइज्जइ' आहरन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥२२॥ भाष्यम्-आयरियाइअदिण्णं, असणाइ चउन्विहं ।
वत्थ कंवल-पत्ताई, कयावि नेव गेहए ॥
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छाया - आचार्याद्यदत्तमशनादि चतुर्विधम् ।
वस्त्र - कम्बल - पात्रादि कदापि नैव गृहीयात् ॥
अवचूरिः -- 'आयरियाइ' इत्यादि । अशनादिकं चतुर्विधमाहारम्, तथा - वस्त्रकम्बलपात्रादि, आदिशब्दादोषध - भैषज्यादिकं च सर्ववस्तुजातम्, आचार्योपाध्यायादिनाऽदत्तं मुनिः कदापि काले नैव गृह्णीयात् । यदि गृहीयात्तदा प्रायश्चित्तभाग् भवेत् ॥ सू० २२॥
निशीथसुत्रे
सूत्रम् — जे भिक्खू आयरियउवज्झाएहिं अविदिण्णं विगई आहाts आहार वा साइज्जइ ॥ सू० २३ ॥
छाया -यो भिक्षुः आचार्योपाध्यायैः अविदत्तां विकृतिम् आहरति अहरन्तं वा स्वदते ॥ सू० २३ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आयरियउवज्झाएहिं' आचार्योपाध्यायैः उपलक्षणाद्वत्नाधिकैर्वा, 'अविदिणं' अविदत्तामननुज्ञाताम् 'विगई' विकृति-दधिदुग्धादिरूपाम् 'आहारेइ' आहरति- भुङ्क्ते आहारेंतं वा साइज्नइ' आहरन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति, तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति ॥ सू० २३ ॥
अत्राह भाष्यकारः
भाष्यम् - विगई य घयं, तेल्लं, दहिदुद्धगुडाइयं ।
मुंजे अविदिण्णं जो, पायच्छित्तं स पावई ॥
छाया - विकृतिश्च घृतं तैलं, दधि- दुग्ध- गुडादिकम् । भुङ्क्तेऽविदत्ते यः प्रायश्वित्त स प्राप्नोति ॥
अवचूरिः - ' विगई' इत्यादि । सूत्रे विकृतिश्च घृतं तैलं, दधिदुग्धगुडादिकं प्रोच्यते । आदिपदान्मधुरादि, तद्विकृतिपदानीतं सर्वमपि - आचार्योपाध्यायरत्नाधिकाद्यैरविदत्तं सत् यो यतिर्भुङ्क्ते स प्रायश्चित्तं प्राप्नोति ॥ सू० २३||
सूत्रम् — जे भिक्खू ठेवणकुलाई अजाणिय, अपुच्छिय, अगवेसिय पुव्वामेव पिंडवायपडियाए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २४ ॥
छाया - यो भिक्षु स्थापनाकुलानि भचात्वा, अपृष्ट्वा, अगवेपयित्वा पूर्वमेव पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविशति, अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'ठवणकुलाई' स्थापनाकुलानि,
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तत्र स्थापनाकुलम् यत्र साव्वादिनिमित्तमन्नपानादिकं स्थाप्यते तत् स्थापनाकुलम् 'अजाणिय'
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ.४ सू०२४-२६ स्थापनाकुलाहार-निर्ग्रन्थ्युपाश्रयाऽविधिगमनादिनि० ११७ अज्ञात्वा 'अपुच्छिय' अपृष्ट्वा, तत्र-पृच्छा तु नाम्ना गोत्रेण च । 'अगवेसिय' अगवेषयित्वा--अन्वेघणमकृत्वा, तत्र गवेषणं-वृक्षरतूपादिचिह्नः परिज्ञानम् 'पुन्यामेव' पूर्वमेव गवेषणकरणादितः प्रागेव, 'पिंडवायपडियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया-आहारग्रहणेच्छया 'अणुप्पविसई' अनुप्रविशति स्थापनाकुलेषु प्रविशति । 'अणुप्पविसंत वा साइज्जइ' अनुप्रविशन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग भवतीति ॥ सू० २४॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-लोगुत्तरं लोगिगं च, दुविहं कुलमुच्चइ ।
लोगिगं दुविहं तत्थ, साहारणं दुगुंछियं ॥१॥ तत्थ लोगुत्तरं गच्छे, गच्छे य अदुगुंछियं ।
तत्थावि ठवणादोसं, मुणी जाणिय नो वए ॥२॥ छाया-लोकोत्तरं लौकिकं च-द्विविधं कुलमुच्यते ।
लौकिकं द्विविधं तत्र-साधारण जुगुप्सितम् ॥१॥ तत्र लोकोत्तरं गच्छेद् गच्छेच्चाऽजुगुप्सितम् ।
तत्रापि स्थापनादोपं मुनित्विा नो व्रजेत् ॥२॥ अवचूरिः-'लोगुत्तरं' इत्यादि । यत् खल सूत्रे कुलं कथितं तत्कुल द्विविधं द्विकारकमुच्यते-लौकिकं लोकोत्तर च, तत्र लौकिकं द्विविधं साधारणं जुगुप्सितं च । तत्र-साधारणं ब्राह्मणादिकुलम् , जुगुप्सितं चाण्डालादिकुलम् लोकनिन्दितं च । लोकोत्तरं श्रावक-सम्यष्टष्टिकुलम्, तत्र मुनिर्गच्छेत् भिक्षालामाय । तथा-लौकिकमप्यजुगुप्सितं कुलं गच्छेत् । भिक्षार्थ यपत्कुल प्रशस्तं तत्रापि यत्कुल स्थापनादोषदुष्टं भवति, तज्ज्ञात्वा तत्र नो व्रजेत् ॥२४॥
- सूत्रम्--जे भिक्खू णिग्गंथीणं उवस्सयंसि अविहीए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २५॥
छाया-यो भिक्षुर्निम्रन्थीनामुपाश्रये अविधिनाऽनुपविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥ सू० २५॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'णिग्गंथीणं' निर्ग्रन्थीनां-साध्वीनाम् ‘उवस्सयंसि' उपाश्रये-वसतौ तदावासस्थाने 'अविहीएं' अविधिना-मर्यादामतिक्रम्य 'अणुप्पविसई' अनुप्रविशति-सहसा याति, अनुप्रतिशन्तं वाऽन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभार भवति ।। सू० २५॥
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निशीथसूत्र
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम् -अकारणे जो विहिणा, कारणेऽविहिणा विसे ।
अकारणे अविहिणा, कारणे विहिणा जई ॥ एत्य भंगतिगे दोसो, एसो सत्यविणिच्छओ ।
कारणे विहिणा एयं, चउत्थं भंगमायरे ॥ छाया--अकारणे यो विधिना कारणेऽविधिना विशेत् ।
अकारणेऽविधिना कारणे विधिना यतिः ॥ अत्र भंगत्रिके दोष एप शास्त्रविनिश्चयः ।
कारणे विधिनैतं चतुर्थ भंगमाचरेत् ॥ अवचूरि:-'अकारणेइत्यादि । सूत्रेऽविधिना श्रमण्या उपाश्रये प्रवेशो वारितः। तत्र प्रवेशे चत्वारो भङ्गा भवन्ति तथाहि-अकारणे-विधिना, इति प्रथमः १, कारणे-विधिना, इति द्वितीयः २, अकारणे-ऽविधिना, इति तृतीयः ३, कारणे-विधिना, इति चतुर्थः ४ । अत्र यदि भगत्रयमाश्रित्य प्रतिशेत् तदा दोपः प्रायश्चित्तमिति शास्त्रविनिश्चयः शास्त्रनिर्णयः, तस्मात्कारणात् , 'कारणे विधिना' एत चतुर्थ भङ्गमाचरेद्भिक्षुः । उपाश्रये स्थानत्रयं भवति, तच्चेत्थम्-अग्रभागद्वारमेकम् १, उपाश्रयमध्यं द्वितीयम् २, श्रमण्या आसन्नस्थानं तूंतीयम् ३ । एतेपु त्रिवपि स्थानेषु नैपेधिकों 'निसीहि-निसीहि' इत्युच्चारणं विना अंमण्या उपाश्रये प्रविशतः श्रमणस्य प्रायश्चित्तम् ।
अथ यदि-श्रमणोवसतेर्मूलद्वारसमीपे बहिस्तिष्ठेत् तदापि प्रायश्चित्तम् , यद्यन्तमध्यं वा प्रविशति तदापि प्रायश्चित्तमापद्यते, इति' श्रुत्वा शिष्यः पृच्छति
हे गुरो ! यदि श्रमणः श्रमण्या उपाश्रयं गच्छति तदा तु तत्र न भवति किञ्चित्प्राणातिपातादिकम् , तथाप्यधुना केन कारणेन प्रायश्चित्तं कथ्यते ? कस्मात् कारणात् मूलद्वारस्य बहिभांगेऽपिं तिष्ठतः प्रायश्चित्तम् ? केन वा कारणेन द्वारस्य मध्यं गच्छतोऽन्तर्गच्छतश्च प्रायश्चित्तम् ? इति प्रश्नः । आचार्य उत्तरं प्राह-तत्र विह्वलादयो बहवो दोपाः, तथाहि-'सुखासीना कदाचित्स्यात्-प्रावृताऽवृता यदि वा, नैधिकी विना यान्तं दृष्ट्वा सा विहला भवेत् । एवमन्येऽपि दोषा भवेयुरिति ।। सू०२५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णिग्गंथीणां आगमणपहंसि दंडगं वा लठियं वा स्यहरणं वा मुहपत्तियं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं ठवेइ ठवतं वा साइज्जइ ।। सू० २६॥
- छाया-यो भिक्षुः निर्ग्रन्थीनामागमनपंथे दण्डक वा यष्टिकां वा रजोहरण वा मुखवस्त्रिको वा अन्यतरद् वा उपकरणजातं स्थापयति स्थापयन्तं वा स्वदते सू० २६।। - चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'णिग्गंथीणं' निम्रन्थीनाम्साध्वीनाम् 'आगमणपहंसि' आगमनपथे, येन पथा श्रमण्यः साधोरुपाश्रयं पाक्षिकक्षमापना
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11.
चूणिभाष्यावरिः उ. ४ सू०-२७ अनुत्पन्नाधिकरणोत्पादननिषेधः ११९ रोगादिकारणेष्वागच्छन्ति तस्मिन् मार्गे साध्वीनां गमनागमनमार्गे 'दंडग वा' दण्डक वा, तत्र दण्डो नाम-यं हस्ते निधाय वृद्धत्व-रोगादिकारणे साधुर्गच्छति स तम् 'लट्ठियं वा यष्टिको वा, यष्टिका लघुर्यः प्रतलो दण्डश्चलनसहायभूतः, साऽपि कारणवशादेव गृह्यते, तां वा 'रयहरणं वा' रजोहरणम् 'मुहपत्तियं वा' सदोरकमुखवत्रिकाम् , प्रक्षालिता या शुष्ककरणार्थ स्थाप्यते 'अण्णयरं वा उवगरणजायअन्यतरद् वा उपकरणजातम् प्रमाजिकादि, अन्यतरपदग्रहणात्-औधिकमौपग्रहिकं चेति द्विविधमप्युपकरणजातं गृह्यते । तत्र-औधिक सामान्यं वस्त्रपात्रादिकम , भोपग्रहिक-रोगादिकारणेऽल्पकालार्थ यद् गृह्यमाणं शय्यासंस्तारकपीठफलकादिकमुपकरणजातं, तत् 'ठवेइ' स्थापयति, 'ठवेंतं वा साइज्जई' स्थापयन्तं वा स्वदते। यो भिक्षुः पाक्षिकक्षमापनारोगादिकारणेन साधूनामुपाश्रये समागच्छन्तीनां साध्वीनां मार्गे पूर्वोत्तोपकरणादिकं स्थापयति स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० २६||
ननु साधोः रजोहरणादिकं सर्वदैव सार्धं ग्राह्यत्वेन सूत्रे कथितं ततश्च तस्य मार्गे स्थापनसंभावना कुतः, यस्य सम्भावनैव नास्ति तस्य निषेधः सुतरां निरर्थकः ? इत्याशङ्कयाह भाष्यकार:भाष्यम्-चिट्ठतो पडिलेहतो, कुणंतो वावि लुचणं । .
मिसेणं वाऽह वत्थूणं, णिक्खेवस्स हि संभवो । छाया-तिष्ठन् प्रतिलिखन् कुर्वन् वाऽपि लुञ्चनम् ।
मिषेण वाऽथ वस्तूनां निक्षेपस्य हि सम्भवः । अवचूरिः-'चिठंतो' इत्यादि । मार्गे तिष्ठन् वा साधुः कदाचित् रजोहरणं निक्षिपेत् , भक्तपानादिकं प्रतिलिखन् वा, अथवा-लुञ्चनमप्यात्मनः शिरसः कुर्वन् मार्गे रंजोहरणादिकं निक्षिपेत् । अथवा-मिषेण-केनचिद् व्याजेन उपहासाधर्थ वा वस्तूनां रनोहरणाधुपकरणानां निक्षेपस्य सम्भवः । सम्भाव्यते-एभिः कारणैर्मार्गे रजोहरणार्दीनां निक्षेपः । इत्थं मार्गे निक्षिपतः साधोः, रजोहरणादिकं निक्षिपन्तं वा अनुमोदमानस्य साधोः प्रायश्चित्तमाज्ञाभंङ्गादयों दोषाश्च भवन्ति ॥ सू०२६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णवाई अणुप्पण्णाई अहिंगरणाई उप्पाएंई उप्पाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २७॥ छाया-यो भिक्षुः नवानि-अनुत्पन्नानि अधिकरणानि-उत्पादयति, उत्पादयन्तं
वा स्वदते ॥ सू० २७॥ . चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः, ‘णवाई नबानि-नवीनानि-अपवाणि 'अणुप्पण्णाई अनुत्पन्नानि-तत्कालेऽविद्यमानानि 'अहिंगरणाई अधिकरणानि-कलहान् ,
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निशीथसूत्रे १२० तत्राऽधिकरणं नाम-अधिक्रियतेऽधोगती पात्यते आत्माऽनेनेत्यधिकरणं कलहः, तथाभूतानि-अधिकरणानि 'उप्पाएइ' उत्पादयति- नवीनक्लेशानुत्पादयति 'उप्पाएन्तं वा साइज्जई' उत्पादयन्तं वा नवीनमधिकरणम्, स्वदतेऽनुमोदते, स प्रायश्चित्तभाग भवति तस्याज्ञाभङ्गादयोऽपि दोषा भवन्ति ।। सू० २७॥
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम्-दुहाहिगरणं वृत्तं, दव-भावप्पभयो ।
दवे चउन्विहं णेज्ज, भावे सत्थाणुसारी॥ छाया-द्विधाऽधिकरणं प्रोक्तं द्रव्य-भाव-प्रमेवतः ।
द्रव्ये चतुर्विधं शेयं भावे शास्त्राऽनुसारतः।। अवचूरिः-'दुहाहिगरणं' इत्यादि । यदिदमधिकरणं कथितं तद् द्रव्य-भावप्रमेदतो द्विधा द्विप्रकारकं प्रोक्तम् । तत्र द्रव्यतोऽधिकरणं चतुर्विधम् , तद्यथा-निर्वर्तनाधिकरणम् १, निक्षेपाधिकरणम् २, संयोजनाधिकरणम् ३, निसर्जनाधिकरणम् ४ चेति । तत्र-निर्वर्तनाऽधिकरणं' द्विविधम्-मूलोत्तरमेदात् । तत्र-मूलनिर्वर्तनाऽधिकरणं पञ्चविधम् , तानि-औदारिकादिशरीरपञ्चकस्य निर्वतनरूपाणि पञ्च, तान्यपि एकैकं संघातकरणशाटकरणतदुभयकरणभेदात् त्रिविधम् । तत्र-संघातकरणं-पुद्गलानां पिण्डीकरणम् । शाटकरणं पुद्गलानां परिशाटनम् | उभयकरणम्-संघात-परिशाटोभयकरणम् । एतद्विपयेऽधिकरणम् । तत्र-तैजसकार्मणरूपे शरीरद्वये सर्वसंघातकरणं न भवति, अनादित्वात् , शेपेषु त्रिपु शरीरेपु-औदारिक-वैक्रिया-ऽऽहारकरूपेषु संघातपरिशाट-तदुभयरूपं त्रयमपि निवर्तनाधिकरणं भवति, तत्र स्थितिः संघात-परिशाटयोः प्रत्येकमेकसामयिकी, तदुभयस्यानियता स्थितिः, यथा-संघात दौ, परिशाटोऽन्ते भवति । अत्रापूपदृष्टान्तःयथा-अपूपः, स च घृते प्रक्षिप्तः प्रथमसमये एकान्तेन घतग्रहणं करोति, द्वितीयादिसमयेषु घृतं गृह्णाति मुञ्चति च, एवं यथा लोहकारस्तप्तमायसं जले प्रक्षिपति तदा तत् प्रथमसमये एकान्तेन जलादानं करोति, द्वितीयादिसमयेपु गृह्णाति मुञ्चति च । एवं त्रिपु औदारिकादिशरोरेपु प्रथमसमये ग्रहणं, द्वितीयादिसमयेषु संघात-परिशाटो द्वावपि भवतः । तैजसकार्मणयोः सार्वकालिकः संघातः परिशाटश्च, तयोरनादित्वात् । पञ्चानामपि सर्वशाटोऽन्ते भवति । इदं मूलनिवर्तनाधिकरणम् । अथवा-औदारिक-वैक्रियाऽऽहारकेति त्रयाणां शरीराणां मूलकारणानि अष्टौ-शिरः १, उरः, २, उदरं ३, पृष्ठिः ४, बाहुद्वयम् ५, ६, उरुद्वयं ७-८ चेति । शेषमुत्तरकरणम् । अथवाआधेषु औदारिकवैक्रियाहारकरूपेषु-त्रिपु शरीरेषु कर्णवेधकरणं, कर्णच्छेदकरणं त्रिफलादिघृतादिना वर्णकरणं चेत्युत्तरकरणम् । अथवा त्रिपु आधेपु शरीरपु निर्वर्तनाधिकरणं भवति । तत्रऔदारिकम्-एकेन्द्रिय-द्विन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रिय-भेदात्पञ्चविधम् । तत्तच्छरीरनिवर्त्तन
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चूर्णिभाष्यावद्भिः उ० ४ सू० २७-२८ व्यपशमिताधिकरणस्य पुनरुदीरणनिषेधः १२१ रूपं निवर्तनाधिकरणम् । उक्तञ्च भगवतीसूत्रे षोडशशतकस्य प्रथमोद्देशे-"जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे अहिगरणी अहिगरणं ? गोयमा !अहिगरणीवि अहिगरणंपि"। जोवः खलु भदन्त ! औदारिकं शरीरं निवर्तयन् अधिकरणी अधिकरणम् ? गौतम ! अधिकरणी अपि, अधिकरणमपि, । इति च्छाया। ततः जीवोऽधिकरणी, शरीरमधिकरणम् । गतं निर्वर्तनाधिकरणं प्रथमम् । द्वितीयं-निक्षेपाधिकरणम् , तत्र निक्षेपो नाम पात्रादीनामधः स्थापनम् , तद्विषये यदधिकरणं, तच्चतुर्विधम् , तत्र-प्रमार्जनायाः प्रतिलेखनायाश्चाऽकरणे द्वौ २, तथैवतयोरेव प्रतिलेखन-प्रमाणनयोरविधिकरणे द्वौ २, एवं निक्षेपणाधिकरणस्य चत्वारो भेदाः।
___ तृतीयं-संयोजनाधिकरणम्-संयोजना-संमेलनम् , तद्विषयेऽधिकरणम् , तद् द्विविधम्-भक्तसंयोजनाधिकरणाम् १, उपधिसंयोजनाधिकरणं च २ । तत्र भक्तसंयोजनाधिकरणम्-सरसभोजनेऽरसभोजनस्य, अरसे सरसस्येत्यादिरूपेण संयोजनम् तत्र कलहोऽधिकरणम् ।
चतुर्थ-निसर्जनाधिकरणम्-निसर्जन-निष्कासनं प्रदानम् , तद्विषयकमधिकरणम् । तत् त्रिप्रकारकम् , तद्यथा-सहसानिसर्जनम् १, प्रमादनिसर्जनम् २, अनाभोगनिसर्जनम् ३, क्रमेण त्रयो भेदाः । तत्र-सहसानिसर्जनमाकस्मिकम् । प्रमादनिसर्जनम् -कर्त्तव्याऽकर्तव्याऽनवधारणे निःसारणम् । अनाभोगनिसर्जनम् अज्ञानवशात् निस्सारणम् ।
पूर्ववर्णितेपु मध्ये निर्वर्तनाऽधिकरणं विशेषतः पूर्व निरूपितम् । अथ निक्षेपाधिकरणं विविच्यते-निक्षेपाधिकरणं द्विविधम्-लौकिक लोकोत्तरिकंच । तत्र लौकिकमनेकप्रकारक-हल-मुसल. मृगवन्धन्यादीनां स्थापनम् , लोकोत्तरिकं वस्त्रपात्रादीनां स्थापनम् , तच्च सप्तविधम् , तद्यथा-'न प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयति १, न प्रन्युपेक्षते-प्रमार्जयति २, प्रत्युपेक्षते न प्रमाजयति ३, दुष्प्रत्युपेक्षते दुष्प्रमार्जयति ४, दुष्प्रत्युपेक्षते सुप्रमार्जयति ५, सुप्रत्युपेक्षते-दुष्प्रमार्जयति ६, यस्तु-सप्तमो भङ्गःसुप्रत्युपेक्षते सुप्रमार्जयति ७, एप नाधिकरणम्, तस्य शुद्धत्वात् । यद्वा--अशनादीनामपावृतत्वेन स्थापनं तदपि निक्षेपाधिकरणम् । इति निक्षेपाधिकरणम् ॥
__ अथ संयोजनाधिकरण प्रारभ्यते--संयोजनाधिकरणं द्विविधम् -लौकिकं १, लोकोत्तरिक च २ । तत्र -लौकिकं तद् यद् रोगादिकारणे नानाविधौषधीनां सम्मेलनम् , विषगगदीनां निष्पत्तिनिमित्त सम्मेलनम् । लोकोत्तरिक संयोजनाधिकरणं द्विविधम् -आहारे-उपारणे च २। तत्राहारेऽपि द्विविधम्--अन्तर्बहिश्च २ । तत्रान्तर्वसतौ यत् संयोजनाधिकरणं तत्-त्रिविधम्--भाजने १, हस्ते २, मुखे च ३। तत्र भाजने क्षीरखण्डादीनां सम्मेलनम् , हस्ते-गुडादिकस्य । मुखे प्रथम मण्डादिकं प्रक्षिप्प पश्चात् गुडादिकं प्रक्षिपेत् ।
__ बहिस्तत्-यद्भिक्षामटन् ययेन सह संयुज्यते तत्तेन सह संयोजयेत् । यत्सामान्य दुग्धं, घनीभूता दुग्धविकृतिश्च (मावा) इति लोके प्रसिद्धा, यदि लभ्यते तत्र विचारणा जायेत
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निशीथस्त्रे
"आचार्यों दुग्धमेव मह्यं दास्यति, न दुग्धविकृतिम्" इति हेतोस्तावुभावपि पदार्थों सम्मेलयतीत्यादि । उपाधौ--अकारणेऽविधिना वस्त्रादिकं सीव्यते १, अकारणे-विधिना सौव्यते २, कारणेऽविधिना सीव्यते ३, एते त्रयोऽपि भगा अधिकरणम् । 'कारणे विधिना सीव्यते' इति चतुर्थों भनस्तु शुद्धः, अनधिकरणत्वात् । तदेतत्संयोजनाधिकरणम् ।
___ अथ निमर्जनाधिकरण प्रदर्श्यते--तद्-द्विविधम्-लौकिक-लोकोत्तरिकं च २, तत्र-लौकिक यथाकृतं निसृजति, यथा कस्मैचिद्वस्त्रभूषणादीनां क्रोधादिवशात्प्रदानम् , इत्यादिकम् । लोकोतरिकं निसर्जनं.त्रिविधम् -सहसा १, प्रमादेन २, अनाभोगेन च ३ ।
तत्र-पूर्वादिष्टेन योगेन किञ्चित्सहसा निसृजेत् । पञ्चविधप्रमादाऽन्यतरेण प्रमत्तो निसृजेत् । एकतो विस्मृत्याऽनाभोगेन निसृजेत् , तदेतन्निसर्जनाऽधिकरणम् । इति द्रव्याधिकरणम् ।
इदानीं-भावाधिकरणं प्रदर्शयामि-तद्यथा-संरम्भे १, समारम्भे २, आरम्भ च ३ । उक्तञ्च-संकप्पो संरंभो, परितावकरो भवे समारंभो । .
आरंभो उद्दवओ, सन्चनयाणं विसुद्धाणं ॥ प्राणातिपातादेः सङ्कल्पः-संरम्भः१, परितापकरण-समारम्भः २, उपद्रवणं-हननम्-आरम्भः ३ विशुद्धानां सर्वनयानां मतमेतत् । एतेषामघो मनोवचनदेहाः स्थापनीयाः, तदधः करण-कारणाऽनु. मोदनानि, एतानि त्रीणि स्थापयितव्यानि । एतेषामप्यधः क्रोधमानमायालोभाः, एते चत्वारः स्थापयितव्याः । तत्राऽऽलापप्रकार इत्थम्-क्रोधसम्प्रयुक्तो मनसा संरंभं करोति १, मानसम्प्रयुक्तो मनसा संरम्भं करोति २, मायासम्प्रयुक्तो मनसा संरम्भं करोति ३, लोभसम्प्रयुक्तो मनसा संरम्भं करोति ४, एते चत्वार आलापकाः करणे ।
एवमन्यद्वारा कार्यमाणेऽपि चत्वार मालापकाः । तथा-क्रोधसम्प्रयुक्तो मनमा संरंभ कारयति १, मानसम्प्रयुक्तो मनसा संरम्भं कारयति २, मायासम्प्रयुक्तो मनपा संरम्भ कारयति ३, लोभसंप्रयुक्तो मनसा संरम्भं कारयति ।
एवं क्रोधसम्प्रयुक्तो मनसा संरम्भमनुमोदते १, मानसंप्रयुक्तो मनसा संरम्भमनुमोदते २, मायासम्प्रयुक्तो मनसा संरम्भमनुमोदते ३, लोभसम्प्रयुक्तो मनसा संरम्भमनुमोदते ४,
एवं द्वादश वियल्पा मनसा लब्धाः । एवमेव-द्वादश वचनेन । तथैव द्वादश कायेन । तदेवं संरम्भस्य पत्रिंशद्गङ्गाः । एवं-समारम्भस्याऽपि पत्रिंशगङ्गाः । एवमारम्भस्याऽपि पत्रिंशद्ङ्गाः । सर्वसङ्कलनयाऽष्टोत्तरशतं भङ्गानां भवति ।
एतेषां द्रव्य-भावाधिकरणानामन्यतरेणाऽपि--अधिकरणं यो भिक्षुरुत्पादयति स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ।
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ४ सू० २९-३० हसनपार्श्वस्थादिसंघाटकादानप्रदाननिषेधः १२३
अत्र सूत्रे-भावाधिकरणेन प्रथमभङ्गेनाऽधिकारः, तत्र चैते दोषाः-तापो भवति-अहं तेनाऽतीव तप्ये, एवं भवति तापः साधिकरणस्य । एवं-भेदः-अयशो भवति साधिकरणस्य । तथा-ज्ञानदर्शन-चारित्र-तपसां हासो भवति । तथा-साधिकरणस्य पुरुषस्य संसारोऽपि वर्द्धते, इत्यादयोऽनेके दोषा भवन्ति । तस्मात् कारणात् श्रमणैः श्रमणीभिर्वाऽधिकरणं नोत्पादनीयम् , किन्तु-समभावमास्था य चारित्राराधनं कर्तव्यमिति तीर्थकराणामाज्ञा शास्त्राणां मर्यादा चेति ।। सू० २७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पोराणाई अहिगरणाई खामिय-विओसमियाई पुणो उदीरेइ उदी रेतं वा साइज्जइ ॥ सू० २८॥
छाया-यो भिक्षुः पौराणानि अधिकरणानि क्षामितव्युपशमितानि पुनः उदीरयति उदीरयन्तं वा स्वदते ॥२० २८॥
__ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पोराणाई' पौराणानि पूर्वकालिकानि-पूर्वकालभवानि व्यतीतानीत्यर्थः 'अहिगरणाई' अधिकरणानि-कलहान् । 'खामियविओसमियाई क्षामितव्युपशमितानि, क्षामितानि वन्दनादिना, मतो व्युपशमितानि शान्तीकृतानि तानि यदि 'पुणो उदीरेइ' पुनरुदीरयति उत्पादयति, तथा-'उदीरंतं वा साइज्जइ' उदीरयन्तं समुत्पादयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याऽऽज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति ॥सू०२८॥
मत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-अहिगरणं पुन्वर्ग, उप्पाएइ जई जइ ।
आणाभंगाईए दोसे, पायच्छित्तं च पावइ । छाया-अधिकरणं पूर्वगमुत्पादयति यतिर्यदि।।
___आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्रायश्चित्तं च प्राप्नोति ॥ , अवचूरिः–'अहिगरणं' इत्यादि । यः कश्चिद्भिक्षुः पूर्वगं--पूर्वं गतं क्षान्तं-विशोधितम्मिथ्यादुष्कृतादिनोपशमितमधिकरणं क्लेशरूपं पुनरुत्पादयति । यत्र यदा कदाचित् द्वयोः श्रमणयोः कलहो जातस्ततस्तं मिथ्यादुष्कृतदानादिना शान्तीभूतमपि पुनरेकः कथयति-"त्वं पूर्व ममापमानं कृतवानसि" एवंप्रकारेण परस्परं वार्तालापप्रवाहे पूर्वजातमपि विस्मृतं नवीनं करोति स आज्ञाभङ्गादीन् दोषान् प्रायश्चित्तं च प्राप्नोति । एवं कलहकरणेन मनसि तापो भवति लोकेऽयशो भवति । एवं--ज्ञान--दर्शन-चारित्र-तपसा परिहानिर्भवति, स्वाध्यायादिकालस्य कलहेनैव परिसमाप्तेः । तथा साधुभिः सह प्रद्वेषोऽपि जायते । एवं-कलहकरणात् संसारोऽपि, परिवर्द्धते, कलहेऽवश्यं कषायोदयात् , कषायाणां च संसारकारणत्वात् ।
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निशीथसूत्रे यस्मादेते दोपाः कलहकारिणां भवन्ति तस्मात् कारणात् व्यपशमितं पुरातनं कलहं नोत्पादयेत् । कदाचित्-उत्पन्नमपि मिथ्यादुष्कृतिदानादिना प्रशमयेत् , संयमाराधने कालं नयेत् ॥सू०२८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू मुहं विष्फालिय विप्फालिय हसइ हसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २९॥ . छाया-यो भिक्षुर्मुखं विस्फार्य विस्फार्थ हसति हसन्तं वा स्वदते ॥ सू०२९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'मुई' मुखम् 'विष्फालियविष्फालिय' विस्फार्य-विस्फार्य 'हसइ' हसति, हास्यं च नोमोहनीयकर्मोदयाद्भवति । तच्चतर्विधम्-नग्नादिकं दृष्ट्वा हसति १,अथवा-विकृतं वाक्यं समुच्चार्य२, काक-सरटादीनामाख्यान श्रुत्वा ३, मोहजनकं वाऽन्यस्य हासोत्पादकं सविकारं वाक्यं श्राव-श्रावं महता-उत्कलिकाशब्देन कहकहं हसति ४ । 'हसंत वा साइज्जई' हसन्तं वाऽन्यं श्रमणं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्ती भवति, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोपा भवन्ति ।।
एवं-यो यतिहसति तस्य पूर्वकाले यः शूलादिको रोगोऽभूत् स इदानी च शान्तः, परन्तुअतिहसनेन पुनरपि स रोगः प्रादुर्भवति । एवं-नवीनोऽपि शूलादिरोगोऽतिहास्येन समुत्पद्यते । एवं कर्णरोगोऽपि भवति, मुखमपि विकृतं विष्फारितं वा भवति । एवं-कदाचित् एकत्राऽनेके तापसा आसन् , तत्रैकेन तापसेनाऽदेशकाले केशादीनां मुण्डनं कृतम् , तद्-दृष्ट्वा सर्वेऽप्यन्ये हसितुमारेभिरे, न विरामं नीतवन्तः, तेन च तेषां रोगोदयान्मरणं सजातमिति श्रूयते । एवं-यं हसति तस्य मनसि शोको भवति 'अहसुपहसितः' ततश्च तेपु शत्रुभावो वर्द्धते, शरीरे हानि निश्च भवति । यस्मादेते दोपा भवन्ति तस्मात्कारणात् मुखं व्यादाय नोपहासः करणीयः किन्तु-शमभावेन संयमाराधनं कर्त्तव्यमिति ॥ सू० २९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडयं देइ देंतं वा साइज्जासू०३०॥ छाया-यो भिक्षुः पार्श्वस्थाय संघाटकं ददाति ददतं वा स्वदते ॥ सू० ३०॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पासत्थस्स' पार्श्वस्थाय, तत्रयो ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपसां पार्श्व-समीपे तिष्ठति न तु-तेपामाराधको भवति स पार्श्वस्था, तस्मै 'संघाडयं' संघाटकं-स्वपरशिष्यरूप साहाय्यम् 'देई' ददाति, तथा "देतं वा साइ-- ज्जइ' पार्श्वस्थाय सघाटक ददतमन्यं मश्रमणं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति ।। सू० ३०॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०४ सू०३१-६० उदकादिसंसृष्टहस्तादिनाऽशनादिग्रहण नि० १२५
सूत्रम्-जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडयं पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ।। सू० ३१॥
छाया-योभिक्षुः पाश्वस्थस्य संघाटकं प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥सू०३१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पासत्थस्स' पार्श्वस्थस्य 'संघाडयं' संघाटक-शिष्यसाहाय्यम् 'पडिच्छई' प्रतीच्छति--स्वीकरोति-.गृह्णातीत्यर्थः, 'पडिच्छंतं वा साइज्जई' प्रतीच्छन्तं वा स्वदते । यः पार्थस्थस्य शिष्यादिपरिवारं स्वसाहाय्यतया वान्छति तं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादयो दोषा भवन्ति, अतः पार्श्वस्थसंघाटकस्य साहाय्यं न गृह्णीयात् ।। सू० ३१॥ एवम् - 'ओसन्नस्स संघाडयं देइ पडिच्छई' ॥३२॥३३॥ एवं 'कुसीलस्स' इति सूत्रद्वयम् ॥३४॥३५॥ 'णितियस्स' इति सूत्रद्वयम् ||३६।३७|| 'संसत्तस्स' इति सूत्रद्वयम् ॥३८-३९॥ चेति सूत्राष्टकं पार्श्वस्थसूत्रद्वयवद् व्याख्येयम् ॥ सू० ३८-३९॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-पासस्थाईण संघाडं, देइ तेर्सि पडिच्छइ ।
आणाभंगाइए दोसे, पावई सो जई सया ।। छाया-पार्श्वस्थादिभ्यः संघाडं, ददाति तेपां प्रतीच्छति ।
आशाभङ्गादिकान् दोपान प्राप्नोति स यतिः सदा ॥ अवचरि:-'पासत्थाईण' इत्यादि । यदि भिक्षुः पार्श्वस्थादिभ्यः संघाटं ददाति तदाऽऽज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनायो दोपा भवन्ति । तत्र संयमात्मविराधना : यथा-- पार्श्वस्थादिभ्यः प्रदत्तः संघाटको यदि प्रतिलेखन-प्रमार्जनादिकां साधुक्रियां सम्यक्तया करोति तदा स्वापमानं विज्ञायेत प्रतिपेधिष्यति च । ततस्तद्वचनं स यदि स्वीकरोति, तदाऽऽचारे शैथिल्यं प्रतिपद्यते तेन संयमविराधना जायते ।
यदि न स्वीकरोति तदा-कलहो युद्धं वा संभवति, तेनाऽऽत्मविराधना समापयेत । एव. मशनादिग्रहणेऽग्रहणे च पूर्वोक्ता दोषाः समापघेरन् , अतः पार्श्वस्थादिभ्यः संघाटको न दातव्यः ।
एवं-यदि पावस्थादीनां संधार्ट प्रतीच्छति तदाऽपि पूर्वोक्ता एव दोषा भवन्ति ।
तथाहि- यदि श्रमणः पार्श्वस्थादिसंघाटकं स्वीकृत्य तेन सह विहरति तदा विहारसमये स उद्गमादिदोपदूपितं भक्तपानादिकं गृह्णाति । तस्य चोपभोगः श्रमणस्यापि अवश्यमेव भवेत संघाटाऽऽनीतत्वात् ।
अथ यदि कुत्रचित् साधुना प्रतिषिद्धे पार्श्वस्थादिसंघाटकेन गृहोते सदोषान्नपानादिके साधुमौनमालम्बते तदाऽऽज्ञाभगदोषः स्यात् । तथा- दातॄणां गृहिणामविश्वासोऽपि स्यात् । तथा
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निशीथसूत्रे
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ते श्रावका एवं वदेयुः- “किं तीर्थकरेण द्विप्रकारको धर्मः साधूनां कृते कथितः यदत्र सदोषमपि एके गृह्णन्ति न पुनरेके” एवं गृहस्थैः कथितेऽपि यदि साधुः पार्श्वस्थादिसंघाटकस्याऽनुरोधान्मौनमालम्बते - अनुमति वा ददाति, तदा धर्मे महान् अविश्वासो भवेत् । तथा-- दीर्घसंसारकान्तारावाप्तिर्भवेत् । अथ यदि साधुर्वदति - "न द्विविधो धर्मस्तोर्थकरेण कथितः" तदा पार्श्वस्थादेर्वचनं प्रतिहतं भवति ततश्च स एव कलहो द्वयोर्भविष्यति तेनाऽऽत्मविराधनायाः सम्भवः । तदानीता - Sशनादिस्वीकारे पोडश उद्गमादिदोषाः, उत्पादनादोषाश्चापि पोडश, दश - एषणादोषाः, एवं द्विचत्वारिशदाहारदोपा : भविष्यन्तीति पार्श्वस्थादिभिः सह संघाटकस्यादानं प्रदानं वा न कर्त्तव्यमिति ॥ सू० ३९ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू उदउल्लेण हत्थेण वा मत्तेण वा दव्वीए वा भायणेण वा, असणं वा ४ पडिग्गाहेइ, पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ सू०४०॥ छाया - यो भिक्षुः उदकार्द्देण हस्तेन वा मात्रेण वा दर्या वा भाजनेन वा अशनं वा ४ प्रतिगृह्णाति प्रतिगृदन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४०||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'उदउल्लेण ' उदकार्येण सचित्तजलाद्रेण 'हत्येण' हस्तेन उदकलेपाद् यावद् आर्द्रः करस्तावद् तादृशेनैव करेण 'मत्तेण वा' मात्रेणमृत्तिकादिनिर्मितलघुपात्रेण वा 'दबीए वा' दव्य - 'कडछो' इति भाषाप्रसिद्धया वा 'भायणेण चा' भाजनेन - कांस्यादिपात्रेण वा । हस्तवत् - अमत्र - दव - भाजनेषु विशेष्येषु सचित्तोदकाईपदं प्रत्येकमभिसंबद्ध्यते । तादृशेभ्यो हस्तादिभ्य 'असणं वा ४' अशनादिचतुर्विधमाहारम् 'पडिग्गा हेइ' प्रतिगृह्णाति आदत्ते, 'पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति, तस्याज्ञाभद्गादयो दोषाश्च भवन्ति ॥ सू० ४० ॥
=
सूत्रम् -- एवं ससणिद्धेण० २ ॥ सू०४१ ॥ ससरक्खेण ०३ ॥ सू०४२|| ||मट्टियासंसट्टेण०४ ॥ सू०४३ || ओसा० ५ ॥ सू०४४॥ लोण० ६ || सू०४५ || हरियाल० ७ || सू०४६ || मणोसिला ० ८ ॥ सू०४७ ॥ वण्णिय० ९ || सू०४८|| गेरुय० १० ॥ सू०४९ ॥ सेठिय० ११ ॥ सू०५० ॥ हिंगुलुय० १२ || सू०५१|| अंजण० १३ || सू०५२ | लोद्ध० १४ ॥ सू५३ ॥ कुक्कुस ० १५ || सू०५४|| पिठ्ठ०१६ || सू० ५५|| कंद ० १७ ॥ [सू०५६ ॥ मूल० १८ ||सू०५७|| सिंगबेर० १९ ॥ सू० ५८ ॥ पुप्फग० २० ॥ ०५९ ॥ कुट्टगसंसट्टेण वा २९, एगवीसभेएण हत्थेण वा मत्तेण वा दव्वी वा भायणेण वा असणं वा ४ पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥सू०६० ॥
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चूर्णिभाष्यावरि: उ०४सू०६१-१३३ ग्रामारक्षकाद्यात्मीकरणाचन्योन्मपादामार्जनादिनि० १२
छाया-एवम्-सस्निग्धेन. २ ॥सू० ४१॥ सरजस्केण ३॥सू. ४२॥ मृत्तिका०४ ॥सू०४३ अवश्याय०५॥सू०४४॥ लवण०६ ॥सू०४५॥ हरिताल०७ ॥सू०४६॥ मनःसिला०८ ॥स्०४७॥ वर्णिक० ९॥स०४८॥ गैरिक० १० ॥सू०४९।। सेटिका० ११ ॥सू०५०॥ हिंगुलुक० १२ ॥सू०५१॥ अञ्जन० १३ । सू०५२॥ लोध्र० १४॥सू०५३।। कुक्कुस०१५ ।।१०५४॥ पिष्टक० १६ ॥सू०५५॥ कंद. १७ ॥सू०५६|| मुल० १८ ।सु०५७॥ शृङ्गबेर० १९ ॥सू०५८॥ पुष्पक० २० ॥सू० ५९॥ कोष्ठक-संसृण्टेन २१, एकविंशतिमेदेन हस्तेन वा मात्रेणघा १ दा वा ३ भाजनेन वा ४ अशनं वा. प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥सू०६०॥
चूर्णी- एवम्-यदि कोऽपि भिक्षुः सस्निग्धेन-सचित्तजलाऽल्पार्द्रतासंश्लिष्टेनाऽपि "हस्तेन मात्रेण-दा-भाजनेन वा” इति सर्वत्र संयोज्यम् ||सू०४१।। सरजस्केण-सचित्तरजोयुक्तेन ॥४२॥ मृत्तिकासंसृष्टेन-सचित्तमृत्तिकासंयुक्तेन ॥ सू०४३।। अवश्याय (तुषार) संसृष्टेन-सचित्ततुषारयुक्तेन ॥ सू० ४४ ॥ लवणसंसृष्टेन सचित्तलवणयुक्तेन ॥ सू० ४५॥ हरितालसंसृष्टेनलोकप्रसिद्धसचित्तहरितालनामकपीतखनिजद्रव्ययुक्तेन ॥सू० ४६|| मनःशिलासंसृष्टेन-सचित्तमनःशिलाभिधीखनिजद्रव्यसंश्लिष्टेन ॥सू० ४७॥ वर्णिकसंसृष्टेन-सचित्तपीतमृत्तिकासंश्लिष्टेन ।सू० ४८॥ गैरिकसंसृष्टेन-सचित्तगैरिकधातुलिप्तेन ॥सू० ४९॥ सेटिकासंसृष्टेन-सचित्तश्वेतमृत्तिकासंलग्नेन । सू० ५०॥ हिंगुलुकसंसृष्टेन-सचित्तहिंगुलेतिप्रसिद्धरक्तद्रव्यसंलग्नेन ।। स्० ५१॥ अञ्जनसंसृष्टेन-सचित्तसौवीराद्यजनयुक्तेन ॥सू०५२॥ लोध्रसंसृष्टेन-लोघद्रव्यसंश्लिष्टेन ॥२०५३॥ कुक्कुससंसृप्टेन तत्कालसंमर्दित सचित्ततुपसंलग्नेन ।सू० ५४॥ पिष्टकसंसृष्टेन-सचित्तगोधूमादिचर्णयुक्तेन ॥सू० ५५॥ कन्दसंसृष्टेन-सचित्तकन्दसंश्लिष्टेन ॥सू० ५६॥ मूलसंसृष्टेन-सचित्तमूललेपयुक्तेन ॥स्० ५७॥ शृङ्गवेरसंसृष्टेन-सचित्ताकसंसृष्टेन |सू०५८|| पुष्पकसंसृष्टेन–सचित्तपुष्पयुक्तेन ॥सू० ५९॥ कोष्ठकसंसृष्टेन-सचित्तसुगन्धितद्रव्यसमुदायसंमिश्रणरूपकोष्ठपुटाभिधद्रव्यविशेषसंश्लिष्टेन २१, पूर्वोक्तैकविंशतिभेदयुक्तेन हस्तेन वा मात्रेन वा दा वा भाजनेन वा अशनं वा ४ प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू०६०॥
सूत्रम्--जे भिक्खू गामारक्खयं अत्तीकरेइ अत्तीकरतं वा साइज्जइ ६ एवं सो चेव रायगमओ भाणियन्वो ॥ सू० ६१-६४||
छाया-यो भिक्षु मारक्षकमात्मीकरोति आत्मीकुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू०६१॥ एवं स एव राजगमको भणितव्यः ॥सू०६१-६४॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'गामारक्खयं' प्रामारक्षकम् ग्रामपालकम् 'अत्तीकरेई' आत्मीकरोति-मन्त्रादिना स्वाधीनं करोति। तथा 'अत्तीकरेंतं वा साइज्जई' आत्मीकुर्वन्तं वाऽन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्या
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निशीथसूत्रे त्वसंयमविराधनाऽऽत्मविराधनादोषा भवन्ति ||० ६१ || 'एवं सो चेव रायगमओ भाणियन्वो' एवम् अनेनैव रीत्या स एव योऽस्यैवोदेशकस्य द्वितीयादिसूत्रगतो राजगमकः - 'अच्चीकरेइ ' ||सृ०६२|| अच्छीकरेइ ||सू० ६३|| अत्थीकरेइ ||सू० ६४ ॥ इत्येवंरूपः सोऽपि सूत्रत्रयात्मकोsत्रापि भणितव्यः ॥ सू० ६४ ॥
सूत्रम् — एवं देसरक्खयं ४ (६८) एवं सीमारक्खयं ४ (७२) एवं रन्नारक्खयं४ (७६) एवं सव्वाक्खयं ४ || सू० ८० ॥
छाया - एवं देशरक्षकम् ४ (६८) एवं सीमारक्षकम् ४ ( ७२ ) एवमरण्यारक्षकम् ४ (७६) एवं सर्वारक्षकम् ४ || सू० ८०||
चूर्णी - एषां व्याख्या च पूर्ववद् बोध्या । सू० ५-८०॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जैतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८१ ॥
१२८
छाया - यो भिक्षुरन्योन्यस्य पादौ आमार्जयेद्वा प्रमार्जयेद्वा आमार्जयन्तं वा प्रमाजयन्तं घt स्वदते ॥ सू० ८१ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । यो भिक्षुः अन्योन्यस्य परस्परं साधुः साध्याः, साध्वी साघोर्वा, इत्येवं परस्परं पादौ आमार्जयेद्वा प्रमार्जयेद् वा आमार्जयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वद स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८१ ॥
सूत्रम् - एवं तइयउद्देसगमो भाणियव्वो (सू०८२ से सू० १३३
जाव
छाया -- एवं तृतीयोद्देशगमो भणितव्यः (सू० ८२ से सू० १३३) यावत् ॥
चूर्णी -- ' एवं ' इत्यादि । एवम् अनेनैवालापकप्रकारेण तृतीयोदेशगमः - तृतीयोद्देशे यो गभस्त्रिपञ्चाशत्सूत्रात्मकः प्रोक्तः सोऽत्राऽपि ज्ञातव्यः । कियत्पर्यन्तम् ? इत्याह- ' जाव' इत्यादि, 'जाव' यावत् शीर्षकद्वारिकासूत्रपर्यन्तम् । एकाशीतितमादामार्जनसूत्रादारभ्य त्रयस्त्रिंशदधिकशततमं शीर्पद्वारिकासूत्रपर्यन्तं त्रिपञ्चाशत्सूत्रसमुदायोऽत्र वाच्यः । विशेषस्त्वयम् - [ तत्र तृतीयोद्देशे 'अपष्णो पाए' इत्यादि पठितम् अत्र तु - 'अन्नमन्नस्स पाए' इत्यादि पठितव्यम् । तथाहि तदन्तिम - सूत्रम् —
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जे भिक्खु गामाणुगामं दुइज्जमाणे अण्णमण्णस्स सीसवारिय करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १३३॥
छाया -- यो भिक्षुग्रमानुगामं द्रवन् अन्योन्यस्य शीर्षद्वारिकां करोति कुर्वन्तं बा खदते ||सू० १३३ ॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ. ४ सू० १३४-१३५ उच्चारप्रस्रवणभूमेः प्रतिलेखनाधिकारः १२९
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'गामाणुगामदुइज्जमाणे' ग्रामानुग्राम द्रवन् एकस्मात् ग्रामाद् ग्रामान्तरं द्वितीय ग्राम प्रति गच्छन् मार्गे गमनसमये आतपादिभ्यो रक्षणबुद्ध्या 'अण्णमण्णस्स सीसदुवारियं करेइ' अन्योन्यस्य परस्परस्य साधुसाध्वीति परस्परं शीर्षद्वारिकाम् मस्तकोपरिवस्त्राच्छादनलक्षणां करोति संपादयति तथा 'करें। वा साइज्जई' अन्योन्यस्य शीषद्वारिकां कुर्वन्तं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । एतेषां सर्वेषां पादप्रमार्जन-कायवणगण्ड-केश-रोम मल-जल्लादिसूत्राणां चूणीभाष्याऽवन्यस्तत्तत्सूत्रव्याख्याऽवसरे तृतीयोद्देशके एव द्रष्टव्याः ॥ सू० १३३ ॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम् - पमज्जणाइसुत्ताणं, तइए जो गमो मओ ।
साहूणीण य साहूणं, अन्नोन्नमत्थ आहिओ ॥ छाया-प्रमार्जनादिसूत्राणां तृतीये यो गमो मतः ।
साध्वीनां च साधूना-मन्योन्यमत्राख्यातः ॥ अवचूरिः- 'पमज्जणाई' इत्यादि । प्रमार्जनादिसूत्राणां पादप्रमार्जनादारभ्य शीर्षद्वारिकापर्यन्तं त्रिपञ्चाशत्सूत्राणां यो गमो यादृशस्तृतीये उद्देशके भरख्यातः स एव गमः प्रकारः अत्र चतुर्थे चतुर्थोद्देशके साध्वीनां साधूनां च अन्योन्य शोपद्वारिकाकरणे ज्ञातव्य इति सर्वमत्र तृतीयोद्देशकवदेव व्याख्यातव्यमिति |सू० १३३॥
___ यावत् शब्देन गृहीतानि सूत्राणि व्याख्यातानि सम्प्रति क्रमप्राप्तं सूत्रमाह-'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्--जेक्खू साणुपाए उच्चारपासवणभूमि ण पडिलेहेइ, ण पडिलेहतं वा साइज्जइ सू० १३४॥
छाया-यो भिक्षुः सानुपादे उच्चारप्रस्रवणसूमि न प्रतिलेखयति न प्रतिलेखयन्तवा स्वदते ॥सू० १३४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'साणुपाए' सानुपादे, पादः चतुर्थभागरूपः, तम् मनु-अधिकृत्य यद् भवति तद् अनुपादं, तेन सहितं सानुपादम्-दिवसस्य चतुर्थभागावशेष, तस्मिन् सानुपादे चतुर्थभागावशेषायां चरमायां पौरुष्यामित्यर्थः, यो भिक्षुः 'उच्चारपासवणभूमि ण पडिले हेइ' उच्चारप्रस्रवणभूमि न प्रतिलेखयति, अयं भावः-रात्रौ यत्र उच्चारप्रस्रवणं व्युत्स्रक्ष्यते ताशभूम्या यदि दिवसावसाने चरमपोरुण्यामेव प्रतिलेखनं न करोति तथा 'ण पडिलेहेंतं वा साइज्जई' न प्रतिलेखयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १३४॥
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१३०
अत्राह भाष्यकारः-
भाष्यम् – साणुप्पा काले, पडिलेहं नो करिज्ज जो भिक्खू । उच्चारपासवणस्स, भूमीए पावर मिच्छ्रं ॥
निशीथसूत्र
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छाया - सानुपादे काले प्रतिलेखं नो कुर्याद् यो भिक्षुः ।
उच्चारप्रस्रवणस्य, भूम्याः प्राप्नुयात् मिथ्यात्वम् ॥ अवचूरिः - 'साणुप्पाए' इत्यादि । सानुपादे काले दिवसस्य चतुर्थ भागावशेषे काले उच्चारप्रस्रवणस्य भूम्याः प्रतिलेखनं यो भिक्षुर्न कुर्यात् स मिथ्यात्वम् आज्ञाभङ्गादिदोषाँश्च प्राप्नोतीति । रात्रौ यत्रोच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापनीयं भवेत् तादृशं भूमिभागं दिवसस्य चरमभागे एवावश्यं प्रतिलेखयेदिति, तस्यः यः प्रतिलेखनं न करोति तस्य आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वादिकान् दोषान् प्राप्नोति । तत्राऽप्रतिलेखितायां भूमौ उच्चारप्रस्रवणयोः परिष्ठापने इमे दोपाः, तथाहि - अप्रतिलेखितायां भूमौ परिष्ठापयति उच्चारप्रस्रवणं तदा द्रव्यतः पटुकायानामुपमर्दनसंभवेन संयमविराधनम्, तथा तत्र विलादिकसंभवेऽप्रतिलेखिते प्रतिष्ठापने सर्पवृश्चिकादिजन्तुसंभवे तेनोपघात संभवेनात्मविराधनम्, तथा अन्धकारे गमने उच्चारप्रस्रवणादिना चरणौ उपलिप्तौ भवेतामिति उपकरणादिविनाशः, साधोर्विपरिणामो वा भवेत्, यस्मात् अप्रतिलेखितायां भूमौ मूत्रपुरीषपरिष्ठापने इमे दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात् दिवसस्य चरमपौरुष्यामेव प्रयत्नपूर्वकम् उच्चारप्रस्रवणभूमिमवश्यमेव प्रतिलेखयेत् ॥१३४॥
सूत्रम् - जे भिक्खू तओ उज्वारपासवणभूमीओ ण पडिलेहेइ ण पडिलेर्हेतं वा साइज्जइ ॥ सू० १३५ ॥
छाया - यो भिक्षुः तिस्रः उच्चारप्रस्रवणभूमीर्न प्रतिलेखयति नं प्रतिलेखयन्तं वा स्वते ||० १३५||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खु यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'तओ उच्चारपासवण भूमीओ' तिस्रः - त्रिसंख्यका उच्चारप्रस्रवणभूमी: त्रीणि मंडलानीति यावत् 'ण पडिले हेइ' न प्रतिलेखयति, 'ण पडिलेवेंते' न प्रतिलेखयन्तं प्रतिलेखनं न कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते । एकस्या भूम्या एव प्रतिलेखनकरणेन तत्र उच्चारप्रनवण परितिष्ठापसंभवेऽपि भूमित्रयस्य प्रतिलेखनं किमर्थमिति चेत् व्याह-यदि कदाचित् रात्रौ एकस्यां भूमौ परिष्ठापने कश्चित् व्याघातो भवेत् तदा द्वितीयतृतीयप्रतिलेखित भूमौ प्रस्रवणादीनां परिष्ठापनं कर्तव्यम्, अतोभूमित्रयस्य प्रतिलेखन सूत्रे प्रदर्शितम् ।
यो हि भिक्षुः भूमित्रयं न प्रतिलेखयति किन्तु अप्रतिलिखितायामेव भूमौ उच्चारप्रस्रवण परिष्ठापयति स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नोति तथा अप्रतिलेखित भूमौ व्युत्सजेने द्रव्यतः पड्जीवनिकायविराधने संयमविराधनम्, बिलादिसंभवे सर्पादीनां
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ. ४ सू० १३६-१३९ उच्चारप्रवणपरिष्ठापनाधिकारः १३३ दंशने चात्मविराधनं च । यस्मादेते दोषास्तस्मात् कारणात् दिवसस्य चरमपौरुण्यामेव भूमित्रयस्यावश्यमेव प्रतिलेखनं कर्तव्यम् । तिस्रो भूमय आसन्न-मध्य-दूररूपाः, तत्र-आसन्नभूमिर्वसतिसमीपस्था, मध्यभूमिर्लोकानां गमनागमनमार्गरूपा, दूरभूमिः-सार्द्धद्विशतहस्तप्रमाणात्परं या भूमिः सा इति ॥ सू० १३५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू खुड्डागंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं परिठवेइ, परिहतं वा साइज्जइ १३६॥
छाया-यो भिक्षुः क्षुल्लके स्थण्डिले उच्चारप्रवण परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥सू० १३६॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् मिक्षुः 'खुड्डागंसि थंडिलंसि' क्षुल्लकेऽतिसंकुचिते स्थण्डिले स्थाने, तत्र हस्तप्रमाणतो यत् न्यूनं स्थानं तत् क्षुल्लकं स्थानं, तस्मिन् . क्षुल्लकस्थाने 'उच्चारपासवणं परिहवेइ' उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति । 'परिहवेतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥१३६॥
क्षुल्लकस्य किं प्रमाणम् ? अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-विक्खंभायामेहि, रयणीमेत्तं हवेज्ज थंडिल्लं ।
चउरंगुलमोगादं, जहण्णवित्थिण्णमच्चित्तं ।। एत्तो हीणतरं जं, खुड्डागं थंडिलं मुणेयव्वं ।
एत्थ य परिह-तो, आणाभंगाइ पावेइ ।। छाया-विष्कम्भायामाभ्यां रत्निमात्रं भवेत् स्थण्डिलम् ।
चतुरगुलावगाढ़, जघन्यविस्तीर्णमचित्तम् ।। अस्मात् हीनतरं यत् क्षुल्लकं स्थण्डिलं ज्ञातव्यम् ।
अत्र च परिष्ठापयन् , आज्ञाभङ्गाद्रि प्राप्नोति ।। अवचूरि:-'विक्खंभायामेहि' इत्यादि । विष्कम्भायामाभ्यां रनिमात्रं बद्धमुष्टिकहस्तप्रमाणं यद् भवेत् , तथा यच्च चतुरमुलावगाई भूमेरघश्चतुरझुलं यावद् अचित्तं भवेत् तत् स्थण्डिलं जघन्यविस्तीर्ण जघन्यतो विस्तीर्ण कथ्यते । 'एत्तो' इत्यादि, अस्मात् जघन्यविस्तीर्णात् यत् हीनतरं भवेत् तत् क्षुल्लक स्थण्डिलं ज्ञातव्यम् , अत्र--अस्मिन् एतत्परिमिते स्थण्डिले उच्चारप्रस्रवणं परिष्टापयन् साधुः आज्ञाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ सू० १३६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उच्चारपासवणं अविहीए परिठ्ठवेइ, परिट्ठवैतं वा साइज्जइ॥ सू० १३७॥
छाया-यो भिक्षुरुच्चारप्रस्रवणम् अविधिना परिष्ठापयति परिष्ठापयन्त वा स्वदते ॥सू०१३७॥
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निशीथसूत्रे चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'अविहीए' अविधिना शास्त्रप्रदर्शितविधिव्यतिक्रमेण 'परिहवेइ' परिष्ठापयति व्युत्सृनति 'परिहवेतं वा' अविधिना उच्चारप्रस्रवणादिकं परिष्ठापयन्तं व्युत्सृजन्तं स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तत्र विविमाह-यत्र परिष्टापयितुमिच्छति तत्र स्थानस्य दिशायाश्च दृष्टया प्रतिलेखनं करणीयम् , तथा तादृशस्थाने त्रसस्थावरादिजीवो भवेत् तदा तादृशस्थानस्य प्रमार्जनं कर्तव्यम् , प्रमार्जनं कृत्वा भूमेरुपरि चतुरङ्गुलोच्छ्रितहस्तेन परिष्ठापयेत् , इति विधितिव्यः । एतादृशविधिव्यतिरेकेण य उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा अनुमोदते तस्य पूर्वोक्ता दोषा भवन्तीति ॥१३७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिद्ववेत्ता न पुंछइ, न पुंछंतं वा साइज्जइ ।। सू० १३८॥
छाया-यो भिक्षुरुच्चारप्रस्रवणं परिष्ठाप्य न प्रोग्छति, न प्रोग्छन्तं वा स्वदते ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'उच्चारपासवर्ण' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिद्ववेत्ता' परिष्टाप्य व्युत्सृज्य 'न पुंछइ' न प्रोञ्छति तयोर्लेप नापनयति, तथा 'न पुंछंतं वा साइज्जई' न प्रोञ्छन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० १३८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिवेत्ता कट्ठेण वा किलिं चेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा पुंछइ पुंछत वा साइज्जइ ॥१३९॥
छाया-यो भिक्षुरुच्चारप्रस्रवणं परिष्ठाप्य काष्ठेन वा किलिंचेन वा अङ्गुल्या वा शलाकया वा प्रोञ्छति प्रोग्छन्तं वा स्वदते ॥सू० १३९ ।।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रसवणं 'परिद्ववेत्ता' परिष्टाप्य 'कटेण वा' काष्ठेन वा 'किलिंचेण वा किलिंचेन वा तत्र किलिंचो वंशचीरिका, वेणुना निर्मितः क्षुरिकासदृशो वस्तुविशेषस्तेन वा 'अंगुलियाए वा' अङ्गुल्या वा 'सलागाए वा' शलाकया वा लौहादिनिर्मितशलाकया -'पुंछई' प्रोञ्छति-स्वच्छं करोति 'पुछतं वा साइज्जई' प्रोञ्छत वा स्वदते । जीर्णवस्त्रस्याङ्गुलत्रयदीर्घायामपरिमितेन खण्डवस्त्रेण क्रमशः प्रथममुन्चारस्थानं प्रोञ्छनीयम् , तदनु च नावापूरत्रयपरिमिताचित्तजलेन तत् स्थानं प्रक्षालनीय, तत्त एकनावापूरपरिमितेनाचित्तजलेने हस्तौ प्रक्षालनीयो, इति । सू० १३९ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिवेत्ता णायमइ, णायमंतं वा साइज्जइ ॥१४॥
छाया- यो भिक्षुरुच्चारप्रनवणं परिष्ठाप्य नाचमति नाचमन्तं वा स्वदते ।१४०। चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'उच्चारपासवर्ण
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ० ४ सू० १४० - १४५
उच्चारप्रवणपरिष्ठापनाधिकारः १९३३ उच्चारप्रस्रवणं 'परिद्ववेत्ता' परिष्ठाप्य व्युत्सृज्य 'णायमइ' नाचमति आचमनं न करोति- शौचं न करोतीत्यर्थः 'णायमंतं वा साइज्जइ' नाचमन्तं वा स्वदते मुत्रपुरीषोत्सर्जनानन्तरमचित्तजलेन प्रक्षालनं न करोति न कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १४० ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिवेत्ता तत्थेव आयम, आयमंतं वा साइज्जइ ॥ १४१ ॥
छाया - यो भिक्षुरुच्चारप्रस्रवणं परिष्ठाप्य तत्रैवाचमति आचमन्तं वा स्वदते । चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'उच्चार पासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिद्ववेत्ता' परिष्ठाप्य व्युत्सृज्य ' तत्थेव आयमइ' यत्रैव स्थण्डिलादौ परिष्ठापयति तत्रैव स्थंडिला दौ - आचमति शौचं करोति, तत्रैवाचमने उच्चारादिना हस्तस्य लेपसंभवात् । तथा तत्रैव 'आयमंतं वा साइज्जइ' आचमन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १४१ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिवेत्ता अइदूरे आयमह आयमंतं वा साइज्जइ ॥ १४२ ॥
छाया - यो भिक्षुरुच्चारप्रस्रवणं परिष्ठाध्यातिदूरे आचमति आचमन्तं वा स्वदते ॥१४२॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'उच्चार पासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिद्ववेत्ता' परिष्ठाप्य व्युत्सृज्य. 'अइदुरे आयमइ' अतिदूरे आचमति यत्र स्थण्डिलादौ परिष्ठापन कृतं तस्मात् स्थण्डिलादतिदूरे हस्तरातप्रमाणे स्थाने गत्वा आचमति शौचं करोति तथा 'आयमंतं वा साइज्जइ' पुरीषपरिष्ठापनस्थानादतिदूरं गत्वा आचमन्तं शौचादिकं कुर्वन्तं श्रमणं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ॥ सू० १४२ ॥
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सूत्रम् — जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिवेत्ता परं तिण्हं नावा पूराणं आयमइ आयमंतं वा साइज्जइ ॥ १४३ ॥
छाया - यो भिक्षुरुच्चारप्रस्त्रवणं "परिष्ठाप्य परं त्रयाणां नावांपूराणांमाचमति आचमन्तं वा स्वदते ॥ सू १४३ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिद्ववेत्ता' परिष्ठाप्य व्युत्सृज्य 'परंतिण्डं' परमधिकं त्रयाणाम् 'नावापूराणं
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निशीथसूत्र नावापूराणां नावाकारकृतानामे हस्ततलानां 'पसली' इति प्रसिद्धानां 'आयमइ' आचमति शौचं करोतीत्यर्थः, प्रथमं तु यदि एकेनैव नावापूरेण निर्लेप्तुं शक्यते तदा एकेनैव नावापूरेण निर्लेपयेत् न तु तदधिकेन, किन्तु कारणवशात्तदधिकेन द्वितीयेन तृतीयेन वा नावापूरेणापि निर्ले. पयेत् । ततोऽधिकेन चतुर्थपश्चमादिना नावारेण यद्याचमति । 'आयमंतं वा साइज्जई' नावापरत्रयान् अधिकेन नावापूरेण आचमन्तं शौचं कुर्वन्तं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० १४३ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू अपारिहारिए णं पारिहारियं वएज्जा-एहि अज्जो ! तुमं च अहं च एगओ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता, तओ पच्छा पत्तेयं पत्तेयं भोक्खामो वा पाहामो वा, जो तं एवं वयइ, वयंत वा साइज्जइ ॥सू० १४४॥
छाया - यो भिक्षुः अपारिहारिकः खलु पारिहारिकं वदेत् "एहि आर्य ! त्वं च अहं च एकतोऽशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्य ततः पश्चात् प्रत्येक.प्रत्येक भोक्ष्यावो पास्याचा वा" यस्तमेवं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४४।। । ।
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अपारिहारिए गं' अपा'रिहारिकः खलु, तत्र पारिहारिकः परिहारनामकप्रायश्चित्तरहितो विशुद्धः' शुद्वाचारो वा साधुरित्यर्थः, 'पारिहारियं' पारिहारिक-प्राप्तपरिहारनामकप्रायश्चित्तं मासिकादियावत्पाण्मासिकान्तं परिहारनामकप्रायश्चित्ततपो वहमानं पारिहारिकम् 'वएज्जा' वदेत्-कथयेत्, किं वदेत् ! इत्याह-एहि अज्जो' ! इत्यादि । 'एहि अन्जो' एहि आर्य ! हे आर्य एहि अत्रागच्छ 'तुमं च अहं च त्वं चाहं च 'एगओ' एकतः-एकत्र मिलित्वा 'असणं वा' अशनम् वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइम' खाद्यं वा 'साइमं वा' स्वाद्य वा 'पडिग्गाहेत्ता' परिगृह्य एतेषामशनादीनां मिलित्वैव ग्रहणं कृत्वा 'तओ पच्छा" तंतः पश्चात् ग्रहणादनन्तरम् 'पत्तेयं पत्तेयं प्रत्येक प्रत्येकं-भिन्नभिन्नस्थाने उपविश्य 'भोक्खामो वा पाहामो वा' भोक्ष्यावः आहारं करिष्यावः, पास्यावः-जलादिपान करिष्यावः, 'जो त एवं-वयई' यो भिक्षुरेवप्रकारेण तं पारिहारिक प्रति वदति-कथयति 'वयंतं वा साइज्जई' वदन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। स्०१४४॥
संप्रति उद्देशकोपसंहारमाह-'त सेवमाणे' हुन्यादि । सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारहाणं उग्घाइयं ११४५॥
।। निसीहे चत्यो उद्देसो समत्तो ॥४॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ५ सू० १ सचित्तवृक्षमूले स्थानादिकरणनिषेधः १३५ छाया-तं सेवमान आपद्यते मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकम् ॥सू० १४५॥
॥ निशीथाध्ययनस्य चतुर्थों द्देशकः समाप्तः ॥४॥ चूर्णी-'तं सेवमाणे' इत्यादि । 'त सेवमाणे' तत् सेवमानः चतुर्थोद्देशकस्य 'रायं अत्ती करेई' इतिप्रथमसूत्रादारभ्य 'जे भिक्खू अपारिहाएि णं' एतत्सूत्रपर्यन्तं यत्-यत् प्रायश्चित्त स्थानं प्रदर्शितम् तेषु एक किमपि अपराधपदं सेवमानः एकस्यापि स्थानस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् 'आवज्जई' आपद्यते प्राप्नोति 'मासियं' मासिकम् 'परिहारहाणं उग्याइयं' परिहारस्थानमुद्घातिकम्-लघुमासिकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीत्यर्थः ॥१४५॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायां चतुर्थोद्देशकः समाप्तः ॥४॥
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॥पञ्चमोद्देशकः॥ चतुर्थोदेशक व्याख्याय सम्प्रति पञ्चमोद्देशको व्याख्यायते, तत्र चतुर्थोद्देशकीयान्तिमन्त्रेण सह पञ्चमोद्देश कादिसूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्यत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-परिहारतवडिओ उ, काउस्सग करेज कहिं नो वा ।
चोत्थरस पंचमस्स य, संबंधो एस अक्खाओ ॥१॥ छाया-परिहारतपःस्थितस्तु, कायोत्सर्ग कुर्यात् कुत्र नो वा।
चतुर्थस्य पञ्चमस्य च, सम्बन्ध एप आख्यातः ॥१॥ अवचूरिः-'परिहारतवढिओउ' इत्यादि । परिहारतपःस्थितः पूर्वं चतुर्थो देशकस्यान्तिमसूत्रे यत् परिहारतपः प्रोक्तं तद् वहमानः साधुः कायोत्सर्ग तथा शय्यानिषद्यादिकं वा करोति, तं कायोत्सर्गादिकं साधुः कुत्र स्थित्वा कुर्यात् ? कुत्र वा नो कुर्यात् ? इति तदत्र पञ्चमोद्देशके प्रदर्शयिप्यते, इति चतुर्थस्य पञ्चमस्य च उद्देशकस्य एप सम्बन्ध आख्यातः ॥१॥ तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य पञ्चमोद्देशकस्येदं प्रथम सूत्र प्रस्तूयते–'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा तुयट्टणं वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ॥सू० १॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्थान वा शय्यां वा नैपेधिकी वा. त्वरवर्तनं वा चेतयति चेतयन्तं वा स्वदते ॥सू० १॥
___ ची-'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'सचिचरुक्खमूलसि' सचित्तवृक्षमुलेसचित्तवृक्षस्याधः 'ठिच्चा' स्थित्वा-सचित्तवृक्षस्य यदि हस्तिपदप्रमाणः स्कन्धः स्यात् तादृशस्य वृक्षस्य सर्वतः समन्तात् रलिप्रमाणं यावद् भूमिः सचित्ता भवति, एतदनुसारेण यस्य वृक्षस्य यावपरिमितः स्कन्धः स्यात् तत्तत्प्रमाणेन तदप्रेतना भूमिः सचित्ता भवतीति स्वयमूहनीयम् । अतो वृक्षस्य हस्तिसुण्डामात्रे दूरे एव स्थातव्यमिति नियमानादरणेन तत्रोपविश्य 'ठाणं वा' स्थानं वा तत्र स्थानं नाम कायोत्सर्गः, स्थीयते स्थिरीभूयते यत्र तत् स्थानं कायोत्सर्गः तत् 'सेज्ज वा शय्यां वा शरीरप्रमाणां करोति तथा 'निसीहियं चा' नैपेधिकी वा-पापक्रियानिषेधकत्वात नैषेधिकी स्वाध्यायभूमिः स्वाध्यायस्थानं, तां वा 'चेएई' चेतयति करोति, तथा यदि कोपि साधुः स्वयं सचित्तवृक्षमूले कायोत्सर्ग करोति शय्यां वा करोति नैषेधिकी स्वाध्यायभूमि निर्धारयतीत्यर्थः । तथा 'चेएतं वा साइज्जइ' चेतयन्तं कुर्वन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः मचित्तवृक्षमूले कायोत्सर्गादिकं करोति तमनुमोदते वा यः साधुः स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका अपि दोषा भवन्ति तस्मात्तथा न कर्तव्यमिति ।। सू०१॥
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ० ५ सू० २ ६ सचितवृक्षमूले स्थित्वाऽऽ लोकना दिसर्व निषेधः १३७ सूत्रम् — जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा आलोएज्ज वा पलो. एज्ज वा आलोत वा पलोएंत वा साइज्जइ ॥ सू० २॥
छाया - यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा आलोकयेद्वा प्रलोकयेद्वा आलोकयन्तं वा प्रलोकयन्तं वा स्वदते ॥सू० २ ||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'सचित्तरुक्खमूलंसि' सचित्तवृक्षमूले, प्रकृतसूत्रं सचित्तवृक्षमूलगतसचित्तभूमिपरकम्, तत्र स्थित्वा यो भिक्षुः 'आलोएज्ज वा' आलोकयेत् - ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्षु दिक्षु विदिक्षु काञ्चिदेकां दिशमाश्रित्य पश्येत् एकवारं वा पश्येत् 'पलोएज्ज वा' प्रलोकयेत् - सर्वासु दिक्षु विदिक्षु ऊर्ध्वमघो वारं वारं वा पश्येत् तथा 'आलोएंतं वा पलोएवं वा साइज्जइ' आलोकयन्तं वा प्रलोकयन्तं वा स्वदते । यो हि साधुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा एकवारमनेकवारं वा आलोकयति तस्यानुमोदनां वा करोति स प्रायश्चित्तभागी भवति । वृक्षमूलं द्विविधं सपरिग्रहं वा अपरिग्रहं वा, सपरिग्रहं तु चतुर्विधम्दिव्यमनुजतियमिश्रपरिगृहीतभेदात् । तत्र दिव्यपरिगृहीतं देवाधिष्ठितम् १, एवं मनुष्य - परिगृहीतं मनुष्याधिष्ठितम् २, तिर्यक्परिगृहीतं तिर्यगधिष्ठितं यत्र गोमहिष्यादयो बद्धा भवेयुस्तत् ३, मिश्रपरिगृहीतं त्रिभिरप्यधिष्ठितम् ४, तत्र देवपरिगृहीतवृक्षमूले स्थित्वा पश्यति तदा साधोः क्षिप्तचित्तयक्षाविष्टोन्मादप्राप्तत्वादयो दोषाः संभवेयुः १, मनुष्यपरिगृहीतवृक्षाधः स्थित्वाऽवलोकने तदधिष्ठातुः शङ्का स्यात्–“किमर्थमयमेवं पश्यति ? किं वृक्षस्य छेदादिकं करिष्यति ?" इत्यादि २, तिर्यक्परिगृहीते तेषामाहारादावन्तरायः स्यात्, साधुदर्शनात् पशवः उद्विग्ना भूत्वा बन्धनं त्रोटयित्वा नश्यन्तीत्यादि ३, मिश्रपरिगृहीते पूर्वोक्ताः सर्वेऽपि दोषाः समापतेयुः ४ । एतद्वचतिरिक्तमपरिंगृहीतम्, तत्राऽपि अनेके दोषा भवन्तीति स्वयमूहनीयम् । अतः साधुर्वृक्षमूले स्थित्वा आलोकनप्रलोकनादिकं न कुर्यात् ।
अत्राह भाष्यकारः
भाष्यम् – सचित्तरुक्खमूलसि, ठिच्चा ठाणाइयं करे । पावs भिक्खुओ सज्जो, आणाभंगाइयं तया ॥
छाया - सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्थानादिकं कुर्यात् । प्राप्नोति भिक्षुकः सद्य आज्ञाभङ्गादिकं तदा ॥
अवचूरिः - 'सचित्त रुक्खमूलसि' इत्यादि । सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा यो भिक्षुः स्थानादिकं कायोत्सर्गशय्यादिकम् कुर्यात्, यदि सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा यः कायोत्सर्गादिकं करोति
१५
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निशीथरचे
स भिक्षुराज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नोति । तथा सचित्तवृक्षमूले स्थितस्य भिक्षोर्हस्तपादादिना वृक्षस्य संघट्टनं भवेत् तदा तस्य त्रसस्थावरजीवादिविराधनं भवति तेन संयमविराधना, तथा छायार्थ तत्पत्रादिभक्षणार्थ शरीरसंघर्पणार्थ वा समागततिर्यगादिभ्य उपघातोपि भवति तेनात्मविराधना भवति तस्मात् सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा साधुना कायोत्सर्गादिकं न कर्तव्यमिति ॥सू०२॥
सूत्रम्--जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ आहारत वा साइज्जइ ॥ सू० ३ ॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य का आहरति आहरन्तं वा स्वदते ॥सू० ३॥
चूर्णी—'जे भिक्खू' इत्यादि । एवं सचित्तवृक्षमुळे स्थित्वाऽशनादेराहारोऽपि न कर्तव्य इति ॥सू० ३॥ + सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा उच्चारपासवणं परिद्ववेइ परिहवेतं वा साइज्जइ॥ सू० ४॥ ____ छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा उच्चारप्रनवर्ण परिष्ठापयति परिष्ठा. पयन्तं वा स्वदते ॥सू०४॥ . चूर्णी-'जे भिक्खू, इत्यादि । एवं सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा' उच्चारप्रस्रवणादिपरिष्टापनमपि न कर्त्तव्यम् ॥सू०४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायं करेइ करें। वा साइज्जइ ॥ सू ५॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्वाध्यायं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते। चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । अस्मिन् सूत्रे स्वाध्यायनिपेधः प्रतिपादितः ॥२०५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायं उदिसइ उद्दिसंतं वा साइज्जइ ॥ सू०६॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्वाध्यायमुद्दिशति उद्दिशन्तं वा स्वदते । सू॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । अस्मिन् सूत्रे सचित्तवृक्षमूले 'सूत्रार्थतदुभयरूपस्वाध्यायस्य पाठनं निषिद्धम् ॥सू० ६॥ ।' fir
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायं समुदिसइ समुदिसंत वा साइज्जइ॥ सू०७॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०५ सू०७-१३ अन्यतीथिकादिभ्यः संघाटिकासीवनादिनिषेधः १३९ . . छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्वाध्यायं समुद्दिशति समुदिशन्तं वा स्वदते ॥सू० ७॥
चूणी-जे भिक्खू' इत्यादि । मत्र पूर्वोक्तस्वाध्यायस्य वारं वारं पाठनं, परेभ्यः समुपंदेशश्चेति द्वयमपि निषिद्धम् ॥सू० ७॥
सूत्रम्--जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलसि टिच्चा सज्झायं अणुजाणइ अनुजाणंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्या स्वाध्यायमनुजानाति अनुजानन्तं वा स्वदते ॥ सू० ॥
चूर्णी- जे भिक्खू' इत्यादि । स्वाध्यायादिकरणार्थमाज्ञाप्रदानमनुज्ञानम् , अन्यत् सर्व पूर्ववदेवेति ॥२० ८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायं वाएइ वाएंत वा साइज्जइ ।। सू० ९ ॥
. छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्या स्वाध्यायं वाचयति पाचयन्तं वा स्वदते ॥ सू. ९॥
___ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । तत्र वाचयति वाचनां ददाति तथा वाचनां ददत स्वदतेऽनुमोदते, अन्यत्सर्वं पूर्ववदेव ।। सू० ९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायं पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ।। सू० १०॥
छोया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमुले स्थित्वा स्वाध्यायं प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥सू. १॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्वाध्याय प्रतीच्छति आचार्येभ्यः प्रदत्तां वाचनां गृह्णाति, तथा वाचनां गृह्यन्तं स्वदतेऽनुमोदते ॥सू० १०॥ - सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायपरियट्टइ परियद्वृतं वा साइज्जइ ।। सू० ११ ॥
छांया-यो भिक्षुः सचिचवृक्षमूले स्थित्वा स्वाध्यायं परिवर्तयति परिवर्तयन्त वा स्वदते ॥ सू० ११॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्वाध्याय परिवर्तयति पूर्वाधीतस्याऽऽवर्तनं करोति, तथा परिवर्तयन्तं वा स्वदत्तेऽनुमोदते ॥ सू० ११॥
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निशीथसूत्र
सूत्रम् — जे भिक्खु अप्पणो संघाडियं अण्णउत्थिएण वा गारत्थि - एण वा सागारिएण वा सिव्वावेइ वा सिव्वावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १२॥
छाया -यो भिक्षुरात्मनः संघाटिकाम् अन्ययूथिकेन वा गार्हस्थिकेन वा सागारिकेण वा सीवयति सीवयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १२||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अप्पणो संघाडियं आत्मनः स्वस्य संघाटिकां प्रावरणवस्त्रं 'चादर' 'पछेवडी' इति भाषाप्रसिद्धाम् 'अण्णउत्थिपण वा' अन्ययुथिकेन वा परतीर्थिकेन 'गारस्थिएण वा' गार्हस्थिकेन वा येन केनचित् पूर्वसंस्तुतादिना तदन्येन वा गृहस्थेन 'सागारिएण वा' सागारिकेण वा, तत्र सागारिकः श्रावक इत्यर्थः तेन 'सिव्वावे ' सीवयति - परद्वारा स्वकीयप्रावरणवस्त्रस्य संधानं कारयतीत्यर्थः, तथा 'सिच्वावेंतं वा साइज्जइ' सीवयन्तं वा स्वदते ।
","- अत्राह भाष्यकारः-
भाष्यम् – परतित्थिगित्येहिं संघाडीए य सीवणं । कारेह समणो जो उ, आणाभंगाइ पावइ ॥ छाया - परतीर्थिगृहस्थैः, संघाटवाश्च सीवनम् ।
कारयति श्रमणो यस्तु, आज्ञाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः – 'परतित्थि०' इत्यादि । यस्तु श्रमणः साधुः परतीर्थिकगृहस्थैः, उपलक्षणात् श्रमणीभिर्वा संघाटचा : - 'चादर' 'पछेवडी' इति भाषाप्रसिद्धायाः सीवनम्, उपलक्षणत्वात् आहाराद्यानयनवैयावृत्यादिकं वा क्वापि कस्मिन्नपि काले कारणेऽकारणे वा कारयेत् तदा आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोति । यस्मिन् संप्रदाये गच्छे वा संयतीभिः उपर्युकं कार्यं कारयति स गच्छः लोकानां पुरतो नपुंसक इव शास्त्रविदां परिषदि सर्वथैव अनादृतो भवतीति भावः ॥ सू०१२॥
:
सूत्रम् — जे भिक्खू अप्पणा संघाडीए दीहसुत्ताई करेइ करेंतं वा साइज्जइ || सू० १३ ॥
छाया - यो भिक्षुरात्मनः संघाटया दीर्घसूत्राणि करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू०१३ || चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अप्पणो' आत्मनः स्वस्य ‘संघाडीए' संघाट्याः प्रावरणवस्त्रस्य 'चादर' 'पछेवडी' इति लोकप्रसिद्धायाः 'दीहसुत्ताई करेई' दीर्घसूत्राणि प्रावरणवस्त्रान्तभागस्थितानि दशिकारूपाणि लघुसूत्राणि, तानि दीर्घसूत्राणि कार्पासिकसूत्रेषु ऊर्णासूत्राणां ऊर्णास्त्रेषु क्षौभिकादिसूत्राणां बन्धनं दत्त्वा दीर्घाणि चतुरङ्गुलादधिकानि विस्तृतानि सूत्राणि शोभार्थं करोति-संपादयति 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञामगादिका दोपा अपि भवन्तीति ॥ सू० १३ ॥
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चूर्णिभाष्यावरिः उ०५ सू०१४-१६ प्रातिहारिकपादप्रोन्छनस्योक्तकाले प्रत्यर्पणनि० १४१
सूत्रम्-जे भिक्खू पिउमंदपलासयं वा पडोलपलासयं वा बिल्लपलासयं वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा संफाणिय संफाणिय आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ ॥ सू० १४॥
__छाया यो भिक्षः पिचुमन्दपलासकं वा पटोलपलासकं वा बिल्वपलासक वा शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा संफाणिय संफाणिय आहरति आहरन्तं वा स्वदते ॥सू० १४॥
__ चूर्गी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पिउमंदपलासयं वा' पिचुमन्दपलाशकं वा, तत्र पिचुमन्दः निम्बवृक्षः, तस्य पलाशकं पत्रं वा 'पडोलपलासथं वा' पटोलपलांशकं वा, तत्र पटोलो लताविशेषः 'परवल' इति भाषाप्रसिद्धः, तस्य पलाशकं पत्रम् , तद्वा विल्लपलासयं वा' बिल्वपलाशकं वा, तत्र विल्वो विल्ववृक्ष 'विल्ली' 'वेल' इति प्रसिद्धः, तस्य पलाशकं पत्रम् । एतेषां पत्राणां भक्षणस्य दर्शनान्तरीयसाधौ प्रसिद्धत्वेनात्र तस्य प्रतिषेधो वर्णितः, किन्त्वत्र पत्रमात्राणां सर्वेषां पत्राणां ग्रहणं बोध्यम् , तेषां सजीवत्वेन जीवविराधनात् , तादृशानि सचित्तानि पत्राणि 'सीओदगवियडेण' शीतोदकविकटेन वा, तत्र विकटेन व्यपगतजीवेन अचित्तशीतजलेन तण्डुलधावनादिजळेनेत्यर्थः, अथवा 'उसिणोदगवियटेण वा' उष्णोदकविकटेन वा व्यपगतजीवेनोप्णोदकेन अचित्तोष्णोदकेनेत्यर्थः, 'संफाणिय संफाणिय' तत्र 'संफाणिय' इति देशी शब्दस्तेन 'संफाणिय' इति फेनयुक्तानि कृत्वा कृत्वा, तथा च अचित्ताभ्यां शीतोष्णजलाभ्यां सम्यक तादृशपत्राणि समर्थ संमर्चेत्यर्थः 'आहारेई' आहरति तेषां भक्षणं करोति, तथा 'आहार वा साइज्जई' आहरन्तं वा स्वदते । निम्बादिवृक्षपत्राणामचित्तजलेन प्रक्षालन कृत्वा आहारं कुर्वन्तं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति ॥ सू० १४॥ ' सूत्रम्--जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुंछणं जाइत्ता तमेव रयणि पच्चप्पिणिस्सामि'-त्ति सुए पचप्पिणइ पच्चप्पिणतं वा साइज्जइ ॥सू० १५॥
छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिकं पादपोंछनक याचित्वा तस्यामेव रजन्यां प्रत्यर्पयिध्यामी'-ति श्वः प्रत्यर्पयति प्रत्यर्पयन्त वा स्वदते ।।सू० १५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'पाडिहारियं पायपुंछणं' प्रातिहारिक पादपोंछनकम् , तत्र श्रावकादिभ्य आनीतं प्रत्यर्पणयोग्य वस्तु प्रातिहारिकमिति कथ्यते, तथा पादपोंछनक रजोहरणम् 'जाइत्ता' याचित्वा 'तमेव रयणि पच्चप्पिणिस्सामि'-त्ति वस्यामेव रजन्यां प्रत्यर्पयिष्यामीति, सूत्रे 'तमेव रयणि' इत्यत्र सप्तम्यर्थे द्वितीया प्राकृतत्वात् ,
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ફેર
निशीथसूत्रे श्रावकादिभ्यो गत्वा कथितम्-मह्य रजोहरणं देहि अहं पुनः कार्य संपाद्य तस्यामेव रजन्यां रात्रौ प्रत्यर्पयिष्यामि गत्रेः प्रागेवेत्यर्थः, रात्रौ आदानप्रदानस्य निषिद्धत्वात् रननीतिपदं दिवसावसानबोधकम् , इत्येवं प्रकारेण याचनां कृत्वा रजोहरणमानीतवान् किन्तु 'मुए पच्चप्पिणई' श्वः प्रत्यर्पयति श्वः परदिने प्रातःकाले रात्रिव्यपगमानन्तरं प्रत्यर्पयति रजोहरणम्, तथा 'पच्चप्पिणतं वा साइज्जइ' प्रत्यर्पयन्तं वा स्वदते । यो हि रजोहरणादिकं तदिवसमात्रस्य कृते याचित्वा आनीतवान् , यद्यपि प्रातिहारिकं रजोहरगमाहारवस्त्रपात्रादि कम्बलं च न कल्पते साध्नामिति रजोहरणस्य प्रातिहारिकत्वेन याचनं न संगञ्छते तथापि अकस्मात् चौरादिना अपहृतम् , अग्निना दग्धं, कुत्रापि विरमृतं चेद् जोहरणं भवेत् तदा तात्कालिककार्यकरणाय तद्याचनस्य संभवः किन्तु प्रत्यर्पयति द्वितीयदिने प्रातःकाले । एतादृशं श्रमण स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति मृपावादादिदोषसंभवात् , तथा एतादृशस्याज्ञाभङ्गादयोऽपि दोषा भवन्तीति ।सू० १५॥
सूत्रम्--जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुंछणं जाइत्ता 'सुए पच्चप्पिणिस्सामि'-त्ति तमेव रयणि पच्चप्पिणइ पञ्चप्पिणतं वा साइज्जइ । सू०१६।
- छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिकं पादपोंछनक याचित्वा श्व. प्रत्यर्पयिष्यामो-ति तस्यामेव रजन्यां प्रत्यर्पयति प्रत्यर्पयन्तं वा स्वदते ॥सू०१६॥
' चूणीं-'जे भिक्खू पाडिहारियं 'इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पाडिहारिय' प्रातिहारिक पुनः प्रत्यर्पणयोग्यम् 'पायपुंछणं' पादपोंछनकं "जाइन याचित्वा श्रावकेभ्यो पादप्रोछनस्य याचनां कृत्वाऽऽनीतं 'मुए पच्चप्पिणिस्सामि'-ति वा प्रात:काले प्रत्यर्पयिष्यामि, अर्थात् कश्चित् साधुःश्रावकगृहं गत्वा कथयति-'मोः । मह्यमेकं पादपोंछनकै देहि कार्य कृत्वा प्रातः पुनः प्रत्यर्पयिष्यामि' इति कथयित्वा श्रावकेभ्यो पादपोछनक गृहाति किन्तु 'तमेव रयणि पच्चप्पिणई' तस्यामेव रजन्यां-रजनीमुखे दिवसावसाने प्रत्यर्पयति, यदिवसे एवं याचनां कृत्वा द्वितीयदिवसे दातुं कथयित्वा आनीतवान् तत् तस्यामेव रात्रौ रात्रेः पूर्वमेव - पुनः प्रत्यर्पयति, तथा 'पञ्चप्पिणतं वा साइजई' प्रत्यर्पयन्तं वा वा स्वदते, प्रातःकाले प्रत्यर्पयिष्या, मीति कथयित्वा प्रातिहारिक रजोहरणं याचित्वा आनीतवान् परन्तु तदात्रः प्रागेवं · प्रत्यर्पणं करोति, तादृशं श्रमणं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, एवं करणे साधोर्वचने मृषावाददोषापत्तिः स्यात् ।
सूत्रम्-जे भिक्खू सागारियसंतियं पायपुंछणं जाइत्ता 'तमेव रयणि पच्चप्पिणिस्सामि'-त्तिं सुए पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणतं वा साइज्जइ ॥ सू० १७॥
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चूर्णिमायावधरिः उ.५५.१७-२३ प्रातिहारिकसागारिकसत्कदण्डादेरुक्तकाले प्रत्यर्पणनि० १४३
छाया-यो भिक्षुः सागारिकसत्कं पादोकनकं याचित्वा तस्यामेव रजन्यां प्रत्यपयिष्यामी-'ति श्वः प्रत्यर्पयति प्रत्यर्पयन्तं वा स्वदते ॥सू०१७॥ ___चूर्णी-'जे भिक्खू सागारिय०' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षु. श्रमण श्रमणी वा 'सागारियसंतियं' सागारिकसत्कम्-सागारिको गृहस्थः तत्सत्कं तत्सम्बन्धि 'पायपुंछणं जाइत्ता' पादपोंछनकं याचित्वा । शेषं पञ्चदशसूत्रवद् व्याख्येयम् ॥सू० १७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सागारियसंतियं पायपुंछणं जाइत्ता 'सुए पच्चप्पिणिस्सामि'-त्ति तमेव रयणि पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणतं वा साइज्जइ ॥
__ छाया-यो भिक्षुः सागारिकसत्कं पादप्रोंछननं याचित्वा श्यः प्रत्यर्पयिष्यामी-ति' तस्यामेव रजन्यां प्रत्यर्पयति प्रत्यर्पयन्तं वा स्वदते ॥सू० १८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू सागारिय' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'सागारियसंतियं' सागारिकसत्कम् गृहस्थस्वामिकं यद् उपाश्रये स्थितं तत् 'पायपुंछणं जाइत्ता' पादप्रोगनकं याचित्वा, शेष पोडशसूत्रवद् व्याख्येयम् ॥सू० १८॥ .
सूत्रम्--जे भिक्खू पाडिहारियं दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणुसूई वा जाइत्ता एवं एएहिं दोहिं वि चेव पाडिहारिय-सागारियगमएहिं दो दो आलावगाणेयव्वा ।। सू० १९ ॥२०॥ २१॥ २२॥
छाया-यो भिक्षु. प्रातिहारिक दण्डक वा यष्टिकां चा अवलेहनिकां वा घेणुसूची वा याचित्वा, पवम् पताभ्यां द्वाभ्यामप्येव शातिहारिक-सागरिकगमकाभ्यां द्वौं द्वौ आलापको ज्ञातव्यौ । सू० १९ ।२०।२१ । २२ ॥
चूर्णो-'जे भिक्खू पाडिहारिय०' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'पाडिहारिय' प्रातिहारिकम पुनः प्रत्यर्पणयोग्यम् ‘दंडयं वा' दण्डकं वा, तत्र दण्डः पूर्वोक्तस्वरूपस्तम् 'लट्टियं वा' यष्टिका लघुदण्डरूपां वा रुग्णाद्यवस्थायां ग्रहणयोग्याम् 'अवलेहणियं वा' अवलेहनिकां वा, तत्र चरणादिसंलग्नकर्दमादिकं यया अपनीयते सा वेत्रप्रभृतिनिर्मिता क्षुरिकादिसशवस्तुविशेषरूपा, ताम् अवलेहनिकाम्, तथा 'वेणुसूई वा' वेणुसूची वा वंशनिर्मितां सूचीम् ‘जाइत्ता' याचित्वा श्रावकात् तद्याचनां कृत्वा 'एवं एएहि' इत्यादि-एवम् अनेनैवाऽऽलापकप्रकारेण एताभ्यां पूर्वप्रदर्शिताभ्यामपि द्वाभ्यामेय, कीदृशाभ्यामित्याह-'पडिहारिय०' इत्यादि-"प्रातिहारिक-सागारिकसत्करूपाभ्यां गमकाभ्यां प्रत्येकस्य द्वौ द्वौ आलापको कर्तव्यौ, तथाहि-प्रातिहारिकस्य दण्डकादिकस्य तस्मिन्नेव दिवसावसाने प्रत्यर्पयिष्यामीति कथयित्वा श्वः प्रात.काले प्रत्यर्पयतीति तद्विषयकं सूत्रम्
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- निशीथसूत्रे - ॥१९॥ ततः प्रातिहारिकस्य दण्डकादिकस्य प्रातःकाले प्रत्यर्पणार्थ कथयित्वा दिवसावसाने एव प्रत्यर्पयतीति तद्विषयकं सूत्रम् ॥२०॥ एवम्-सागारिकसत्कस्य दण्डकादिकस्य तस्मिन्नेव दिवसावसाने प्रत्यर्पयिष्यामीति कथयित्वा प्रातः प्रत्यर्पयतीति तद्विषयं सूत्रम् ॥२१॥ एवं सागारिकसत्कस्य दण्डकादेः प्रातः प्रत्यर्पयिष्यामीति कथयित्वा तस्मिन्नेव दिवसावसाने प्रत्यर्पयतीति तद्विषयकं सूत्रम् ॥२२॥ एतत्सूत्रचतुष्टयमपि साधोर्वचने मृषावाददोषवत्त्वेन 'निषेधविषयकमस्ति । शेष पञ्चदशसूत्रवद् व्याख्येयम् ॥सू०२२॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-पाडिहारियसागारि,-संतिए जे गमा भवे । - : .
पायपुंछणगे दंडाइए वेत्थ तहेव य ॥ छाया-प्रातिहारिकसागारि,-सत्के ये गमा भवेयुः ।
पादप्रोग्छनके दण्डादिके चात्र तथैव च ।। अवचूरि:-'पाडिहारिय' इत्यादि । प्रातिहारिक प्रातिहारिकपादपोञ्छनकविषयकपश्चदशषोडशसूत्रयोर्यो गमद्वयप्रकारः कथितः स एव हि गमद्यप्रकारः सागारिकपादप्रोञ्छनविषयकसप्तदशाष्टादशसूत्रयोरपि ज्ञातव्यः । तथा पादपोंछनकविषयके पञ्चदशादिसूत्रचतुष्टये यदत् येन प्रकारेण रजोहरणस्य प्रतिपादितो द्वितीयोद्देशकप्रकारेण स एव प्रकारः प्रातिहारिकसागारिकसत्कदण्डादिष्वपि सूत्रचतुष्टयी प्रयोकव्या । एतत्सर्व द्वितीयोद्देशके प्रथमसूत्रादारभ्याप्टमसूत्रपर्यन्तं यथा वर्णितम् तथैवात्रापि पञ्चमोद्देशके वर्णयितव्यम् । श्रावकात् याचित्वा आनीतस्य पादप्रोञ्छनकस्य दण्डादेर्वा यथासमयमप्रदाने प्रायश्चित्तं भवति, तथा आज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्तीति ।।सू०२२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पाडिहारियं वा सेज्जासंथारगं पच्चप्पिणित्ता दोच्चपि अणणुन्नविय अहिठेइ अहिट्ठेतं वा साइज्जइ सू० २३॥
छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिकं पा शय्यासंस्तारकं प्रत्यर्पयित्वा द्वितीयमपि अननुशाप्याधितिष्ठति अधितिष्ठतं वा स्वदते ॥सू० २३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पाडिहारियं वा' प्रातिहारिकं वा 'सेज्जासंथारगं' शय्यासंस्तारकं श्रावकादानीतं श्रवकाय 'पञ्चप्पिणित्ता' प्रत्यर्पयित्वा प्रत्यर्पणार्थ तु गतवान् किन्तु तत्स्वामिनोऽनुपस्थित्यादिकारणवशात् अनर्पयित्वा तदादायैव समागतः, तत् शय्यासंस्तारकं तत्रैव तिष्ठति, तादृशं शय्यासंस्तारकं पुनः 'दोच्चं पि अणणुन्नविय' द्वितीयं-द्वितीयमपि वारम् अननुज्ञाप्य तस्याज्ञामगृहीत्वैव यदि कारणवशात् 'अहिठेइ' अधितिष्ठति तदुपरि समुपविशति तस्याननुज्ञापितस्य शय्यासंस्तारकस्योपभोगं
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ. ५ सू० २४-२५
दीर्घसूत्रकरणनिषेधः १५५, करोति, तथा 'अहिडेतं वा साइज्जई' अधितिष्ठन्तं वा त्वदते । यो हि आनीतं शय्यांसंस्तारक श्रावकायार्पयित्वा पुनरपि आज्ञामन्तरेण तस्योपभोगं करोति उपभोक्तारमनुमोदते च. स प्रायश्चित्तः भागी भवति । प्रातिहारिकाऽप्रातिहारिकशय्यासंस्तारकमर्पयितुं गतः किन्तु कारणवशाद् न'समर्पितवान् तच्च शय्यासंस्तारकं तयैवावतिष्ठते तादृशं शय्यासंस्तारकं द्वितीयवारमननुज्ञाप्य तदाज्ञामनवाप्य तस्योपभोगं करोति स प्रायश्चितभागी भवती, तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति । अननुज्ञातस्य शय्यादेरननुज्ञाप्य, पुनरुपभोगे मायित्वं मृषावदित्वं च स्यात् , तथा अदत्तादानम् अप्र: त्ययः कलहः उपालम्भश्च स्यात् , यस्मादेते दोषास्तस्मात् , कारणात् समर्पितं शय्यासंस्तारक द्वितीयवारमननुज्ञाप्य न भोक्तव्यमिति 'सू० २३॥ .
सूत्रम्--जे-भिक्खू सागारियसंतियं सेज्जासंथारंगं पच्चप्पिणित्तादोच्चंपि अणणुन्नविय अंहिठेइ अहिद्रुतं वा साइज्जइ ॥ सू०२४॥
छाया--यो भिक्षुः सागारिकसत्कं शय्यासंस्तारकं प्रत्यर्पयित्वा द्वितीयमप्यननुशाप्याधितिष्ठति कधितिष्ठन्तं पा स्वदते ॥ सू० २४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू सागारिय'० इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सागारियसंतियं सेज्जासंथारगं' सागारिकसत्कं श्रावकसम्बन्धि यदुपाश्रयः स्थितं तत् पुनः शय्यासंस्तारकं पीठफलकादिकं 'पच्चप्पिणित्ता' प्रत्ययं तदुपभोगाज्ञां समर्प्य तत् पुनः 'दोच्चंपि अणणुन्नविय' - द्वितीयमपि वारम् अननुज्ञाप्य श्रावकस्याज्ञामनादाय 'अहिठेई' अधितिष्ठति तादृशशय्यासंस्तारकस्योपभोगं करोति, तथा 'अहिद्रुतं वा साइज्जई अधितिष्ठन्तमुपभोगं कुर्वन्तं वा श्रमणं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञामलादिका दोषाश्चापि भवन्ति । तस्मात् कारणात् तस्य तादृशस्य सागारिकसत्कशय्याने संस्तारकस्य द्वितीयवारम् अननुज्ञाप्य नोपभोगः करणीयः, न वा तदुपभोक्तुरनुमोदनं करणीयमिति ||मू० २४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सणकप्पासाओ वा उण्णकप्पासाओ वा पोंडकप्पासाओवा अमिलकप्पासाओवादीहसुत्ताइं करेइ करेंतं वा साइज्जड॥
छाया-यो भिक्षः शणकार्पासतो वा ऊर्णाकासितो वा बोण्डकार्पासतो वा अमिलकार्पासतो वा दीर्घसूत्राणि करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० २५॥
१९
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निशीथयो "चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि। 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः 'सणकप्पासाओ 'वा' शणकार्पासात् शणसूत्रात् 'शणं' लोकप्रसिद्धम् "उण्णकप्पासायो वा' ऊर्णाकार्पासादा- अजोट्रादीनाम्-ऊर्णासूत्रेणेत्यर्थः, पोंडकप्पासाओ वा' पोडकार्पासाद्वा-वनजातकार्यासेनेत्यर्थः, 'अमिलकप्पासाओ वा' अमिलकार्पासाद्वा कार्पासविशेषात् , कर्तितशणादिसूत्रेणेत्यर्थः दीहमुत्ताई करेइ' दीर्धसूत्राणि करोति शणादिसूत्रेण दीर्घसूत्राणि वस्त्रान्तभागस्थितस्त्राणि दीर्घाणि संपादयतीत्यर्थः तथा "करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तमागी भवति, तथा तस्याज्ञामङ्गादिका दोषा भवन्ति । एवं शणादिना सूत्राणि संपादयतः श्रमणस्य सूत्रार्थयोनिभवति । यस्मात् दीर्घसूत्रनिर्माणे एव समयस्य व्यतीयमानत्वात् स्वाध्यायार्थ 'समय एव न मिलति, इत्येवं क्रमेण सूत्रार्थयोविस्मरणं जायते । एवं यदि कश्चित् श्रावकादि दीर्घसूत्रं कुर्वतं साधु पश्यति तदा 'दीर्घसूत्रनिर्माण गृहिणां कर्म' इति कृत्वा तस्य श्रमणस्य शासनस्य च लघुता भवति । एवं तेषु दीर्घसूत्रेषु शुषिरभागे मशकादिजीवानां विनाशोपि जायते इति संयमविराधनमपि भवति ।। । यस्मात् कारणात् दीर्घसूत्रनिर्माणे एते उपर्युक्ता दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात् श्रमणः स्वयं दीर्घसूत्रनिर्माण न कुर्यात् न वा दीर्घसूत्राणि कुर्वन्तमनुमोदयेदिति । दीर्घसूत्रार्थ यन्त्रादिचालनमावश्यक ततश्च यन्त्रचालनेन वायुकायिका जीवा विनश्यन्ति ततश्च संयमविराधनम् , संयतास्तु वायुविराधनापेक्षया खात्मविराधनमेव वरमिति मन्यन्ते, वायुकायिकविराधने घटकायानामपि-विराधनं संभवति तेन संयमविनाशः, संयमविनाशे च सर्वेषां महाव्रतानां विराधनमप्यापधेत, उक्तं च आचारागसत्रेप्रथमाध्ययने सप्तमोद्देशके प्रथमसूत्रे-इह संतिगया दविया रणावखंति जीविउं' इति । इह शान्तिगताः शान्तिमग्नाः द्रविकाः द्रवः--संयमस्तद्वन्तः कर्मनिवारणशीलाः संयमिनः जीवितुम् व्यजनादिना वायुकायिकस्य 'विराधनेनप्राणान् धारयितुं नावकाङ्क्षन्ति नेच्छन्ति–इत्यर्थः । यस्तु एकजीवविराधनं करोति स पण्णामपि विराधनं करोति । उक्तं चाचारागसूत्रे द्वितीयाध्ययने षष्ठोदेशके द्वितीयसूत्रे-'सिया तत्थ एगयरे विप्परामुसइ छसु अन्नयरंमि कप्पई' स्यात्तत्रैकतरं विपरामशति षट्सु अन्यतरस्मिन् कल्पते, इति छाया । अयं भावः-एककायविराधनायां सत्यां षट्काय विराधना भवति, विस्तरतस्तु तत्रैव विलोकनीयम् । एवं ध्वनिवर्धकयंत्रे (लाउडस्पीकर) इति संपतिकालप्रसिद्ध व्याख्यानादिकरणे पटकायविरा धनं भवतीति, तत्र वायुकायविराधनात् । एवं दीर्घसूत्रनिर्माण वायुकायिकविराधनासंभवात् सूत्रे दीर्घसूत्रकरणस्य निषेधः कृत इति, तस्मात् वायुकायरक्षणार्थ यतना कर्तव्या, अकरणे प्रायश्चित्तप्रसंगात् ।। सू० २५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २६ ॥
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चणि उ०५ सू०२८-३५ सचित्तादिदारुदण्डकादेनवनिवेशितमामादौभिक्षायाश्चनि० १४७,
छाया-यो भिक्षुः सचित्तान् दारुदंडान् वा वेणुदंडान् वा वेत्रदंडान् वा' करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू०. २६।
__ चूर्णी-'जे भिक्खू सचित्ताई' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः 'सचिताई सचित्तान्-सजीवान् 'दारुदंडाणि वा' दारुदण्डान्- वा शिंशपादिवृक्षसंपादितदण्डान् इत्यर्थः 'वेणदंडाणिः वा' वेणुदण्डान् वा, तत्र वेणुवंशस्तत्सम्बन्धिनो दण्डान् , 'वेत्तदंडाणि वा वेत्रदण्डान्, वा. तत्र वेत्रम् लताविशेषलक्षणं 'वेत' 'नतर' इति लोकप्रसिद्धम् , तस्य वेत्रस्य सचित्तदण्डान्। वेत्यर्थः 'करेई' करोति सचित्तदारुदण्डादीन् स्वयं संपादयतीत्यर्थः तथा 'करतं वा साइज्जई' सचित्तदारुदण्डान् कुर्वन्तं संपादयन्तमन्यमनुमोदते । यो हि भिक्षुः श्रमणः सचित्तदारुवंशादिदण्डं स्वयं करोति कुर्वन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गाऽनवस्थादयो दोषा भवन्तीति ।। सू० २६॥ एवं 'धरेई' धरति-हस्ते धारयति ॥सू०.२७॥ 'परिभुजई' परिमुड़ने अन्यस्मिन् कार्ये परिभोगं करोति, शेषं पूर्ववत् |सू० २८॥
मूत्रम्--जे भिक्खू चित्ताइं दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणिवा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २९ ॥
छाया-यो भिच चित्रान् दारुदण्डान्- या वेणुदण्डान् वा वेत्रदण्डान्.वा करोति. कुर्षन्तं वा स्वदते ॥ २९॥
चूर्णी-'जे.भिक्खू चिताई' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'चिंताई! चित्रान्-वर्णयुक्तान्. 'दारुदंडाणि वा' दारुदण्डान्, तत्र चित्रः एकवर्णेन नोलपीतादिना वा एकेन वर्णेन अतिशयेनोज्ज्वलः, तथा.चःएकवर्णेन येन केनापि अतिशयेन दारुदण्डान् उज्ज्वलान् 'करोति' इत्यप्रिमेणा सम्बन्धः, तथा 'वेणुदंडाणि वा' वेणुदण्डान् वा तत्र घेणुवंशः, तस्य दण्डान् , तान् वर्णेनोउज्वलान् करोति, तथा 'वेत्तदण्डाणि वा' वेत्रदण्डान् वा एकवर्णेनातिशयेनोज्ज्वलान् 'करेइ! करोति-स्वयंः संपादयति; तथा 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा संपादयन्तमन्यं श्रमणं स्वदतेऽनुमोदते । यो भिक्षुचित्रं दारुदण्डं वेणुदण्डं वेत्रदण्डं करोति कुर्वन्तं वा अनुमोदते सप्रायश्छित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ।मु०२९॥ एवं 'धरेइ' सू० ३०॥ 'परिभंजड' सू०३.१॥ व्याख्यानं. पूर्ववत् ॥
सूत्रम्-जे भिक्खूाविचित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणिः वा वेत्त. दंडाणिवा करेइ करेंत वा साइज्जइ। सू० ३२॥
छाया-यों भिक्षुः विचित्रान् दारुदण्डान् वा वेणुदण्डान् वा वेत्रदण्डान् वा' कलेति कुर्वन्तं वा स्ववते ॥सू० ३२॥
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१४८
. . - निशीथसचे · · चूर्णी-'जे भिक्खू विचित्ताई' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः विचित्ताई विचित्रान् नानावणोपेतान् 'दारुदंडाणि' दारुदण्डान् 'वेणुदंडाणि वा वंशदण्डान् 'वेत्तदैडाणि वा' वेत्रदण्डान् वा 'करेइ' करोति 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते । यः श्रमणः नानावर्णोपेतान् दारुदण्डादिकान् स्वयं करोति कुर्वन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ।सू० ३२ ॥ एवं 'धरेई' ।सू० ३३। 'परिध्रुजई' व्याख्यानं पूर्ववत् ।।सू.०३४॥
सूत्रम्--जे भिक्खू नवणिवेसंसि गामंसि वा जाव संनिवेसंसि वा अणुप्पविसित्ता असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडि. ग्गाहेंतं साइज्जइ ॥ सू० ३५॥
___ छाया यो भिक्षुर्नवनिवेशे ग्रामे वा यावत् संनिवेशे वा अनुप्रविश्याशन वा पानं वा-खाद्य, वा स्वाय, वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णतं वा स्वदते ॥सू० ३५॥... . .
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'नवणिवेसंसि वा' नवनिवेशे वा-नवतया निवेशः स्थापनं यस्य स नवनिवेश:-तस्मिन् प्रथमतया - निवासिते, तादृशे 'गामंसि वा' ग्रामे वा 'जाव संनिवेसंसिवा' यावत् सनिवेशे वा अत्रयावत्-पदेन नगरखेटकवटादीनां संग्रहो भवति, एतेषु नवनिवेशितेषु प्रामादिषु अणुप्पविसित्ताअनुप्रविश्य प्रवेशं कृत्वा, यो हि भिक्षुर्नवनिर्मितप्रामादिषु मध्ये प्रवेशं 'कृत्वेत्यर्थः 'असणं वा' अशनमाहारादिनातं वा 'पाणं वा' पानं तण्डुलधावनादिकमचित्तजलम् 'खाइमं 'वा' 'खाद्यद्राक्षाखण्डादिकम् 'साइमं वा' स्वार्य लवङ्गादिकम् 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति-ग्रहणं करोति 'पडिग्गाहेत वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते । यो हि'श्रमणो नवनिर्मितीमादावनुप्रविश्याहा. देब्रहणं करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभांगी भवति; तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति तस्मात् कारणात् श्रमणो नवनिर्मितप्रामादिषु प्रविश्य न चतुर्विधाहारादिकं गृह्णीयात् नवा गृह्णन्तमनुमोदयेदिति ।
- अयं भावः-नवनिर्मितग्रामादौ प्रविशन्तं 'श्रमणं दृष्ट्वा भद्रका अनिवसितुकामा अपि एवं विचारयन्ति-अहो भाग्यवशात् साधुः समागतो महन्मङ्गलं जातम् , 'स्थिरीभूतं च । एवं जानन्ति बदन्ति च- अहो साधुदर्शन धन्यम् , साधुनाऽत्रं प्रथममेव 'भिक्षाग्रहणं कृतम्, तिन कारणेन ग्रामोपि स्थिरो भविष्यति, वयमपि चात्र सुस्थिरा. सन्तो वसिष्यामः, इति कृत्वा ते तत्रागत्य -निवसन्ति -- तेनारम्भप्रवृत्तिः । ततस्ते भद्रकाः तेषां साधूनामन्येषां वा. निमित्तमुद्गमादिदोषदुष्टमाहारादिकं कुर्युः । यश्च अभद्रकः स पुनर्नवनिर्मितग्रामादौ आवासं कर्तुकामोपि प्रथमतः साधू दृष्ट्वा .
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घर्णिभाष्यावरिः उ०५सू०३६-६० नवलोहादिखन्यामिक्षायाः मुखवीणिकादेश्च निषेधः १४९ अमङ्गलमिति कृत्वा न वासं करोति ततो निवर्तते । अस्थिरे च ग्रामे जाते लोका वदन्ति-कुतोऽस्माकं सुखम् यस्मात् प्रथममेव तु मुण्डशिरसो दृष्टाः भिक्षया लम्भिताश्च, इति तस्यान्येषां च श्रमणानां भक्कादीन् निवारयिष्यन्ति, एवं चान्तरायदोषो भवति । एवं च नवनिर्मितमामादौ प्रवेशे दोषा भवन्ति । एवं नवनिर्मितग्रामादौ प्रवेशे कृते सचित्तपृथिव्यादिसंघट्टनादोषः, अप्कायहरितकायादिसंघट्टनदोषोपि भवेत् तस्मात् कारणात् नवनिर्मितग्रामादौ प्रवेशो न कर्तव्यो न वा प्रविशन्तमनुमोदयेदिति ॥सू० ३५॥ . ... सूत्रम्-जे भिक्खू नवणिवेसंसि अयागरंसि वा तंबागरंसि वा तउ. आगरंसि वा सीसागरंसि वा हिरण्णागरंसि वा सुवण्णागरंसि वा रयणा. गरंसि वा वइरागरंसि वा अणुप्पविसित्ता असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥सू० ३६॥
छाया-यो भिक्षुर्नवनिवेशे वा अय माकरे वा ताम्राकरे वा अप्वाकरे वा सीसाकरे वा हिरण्याकरे वा सुवर्णाकरे वा रत्नाकरे वा वज्राकरे वा अनुप्रविश्याशनं वा पानं पा स्वाद्य वा स्वाद्य वा प्रतिगृह्माति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३६ ॥
. चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा इत्यदिना यथा नवनिवेशिते ग्रामादौ प्रविश्य भिक्षाग्रहणनिषेधः कृतस्तथैव नवनिवेशिते लोहखन्यादावपि भिक्षांग्रहणनिषेधो ज्ञातव्यः। तथाहि-नवनिवेशिते अयाकरे-लोहखन्यां, एवं ताम्राकरे-ताम्रखन्यां, प्वाकरे त्रपुः-'जसदी' इति प्रसिद्धो धातुविशेषः, तस्य खन्यां, सीसाकरे-सीसकनामधातुविशेषखन्या, हिरण्याकरे-रजतखन्या, सुवर्णाकरे, रत्नाकरे-रत्नखन्यां, बज्राकरे वजरत्नखन्यां वाऽनुप्रविश्य श्रमणः श्रमणी वाऽशनादिकं गृह्णाति गृहन्तं वा स्वदते स दोषभागू भवति । तत्र गमने संयमात्मविराधनाऽवश्यम्भाविनी, एषां सचित्तत्वासंयमविराधना । पतनादिसंभवेनाऽऽत्मविरावना च भवति । तथा तत्र स्थितानां चौरादिशङ्कासंभवोऽपि स्यात् ।।सू० ३६॥ -: ।
सूत्रम्-जे भिक्खू मुहवीणियं करेइ करेंत वा साइज्जइ ॥सू० ३७॥
छाया यो भिक्षुर्मुखवीणिकां करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० ३७। • चूर्णी-'जे भिक्खू मुहवीणिय' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः, श्रमणी वा 'मुइवीणियं करेइ' मुखवीणिकां करोति, तत्र वीणा वाद्यविशेषलक्षणा, तथा च वीणावत् मुखं करोति, वीणया हि मधुरशब्दोऽभिव्यज्यते ततो मुखस्य तथा- चेष्टां करोति यथा मुखं वीणा-..
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निशीथसूर्यः
१५०
वद् भवति, तथा 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुः स्वकीयं मुखं। कुचेष्टया वीणावत् करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिकाः- दोषा भवन्ति, ॥सू० ३७|| एवं मुखवीणिकाकरणसूत्रवदेवान्यान्यपि दन्तवीणिकाकरणसूत्रत आरम्य हरिवोणिकाकरणसूत्रपर्यन्तानि एकादश सूत्राणि व्याख्येयानि । तथाहि - 'जे भिक्खू दंतव्रीणियं करेड़' यो भिक्षुर्दन्तत्रीणिकां करोति ॥ ३८ ॥ एवम् 'उद्ववीणियं' ||३९|| 'नासावीणियां ॥४०॥ 'कक्खवीणियं' ॥४१॥ ' हत्थवीणियं' ||१२|| 'नहवीणियं' ||४३||| 'पत्तवीणियं ||४४ || 'पुप्फचीणियं ॥ ४५|| 'फलवीणियं' ||४६ || 'वीयवीणियं ||१७|| 'हरियत्रीणियं' ||४८ || छाया-यो भिक्षुर्दन्तवणिकां करोति ||३८|| एवम् - ओष्ठवणिकाम् ||३९|| नासावीणिकाम् ||४०|| कक्षावीणिकाम् ॥४१॥ हस्तवीणिकाम् ||४२ || नखवीणिकाम् ||४३|| पत्रवीणिकाम् ||४४ || पुष्पवीणिकाम् ||४५|| फलवीशिकाम् ॥४६॥ वीजवीणिकाम्ः ॥४७॥ हरितवणिकाम् ||४.८|| एतानि सूत्राणि मुखवीणिकाकरणसूत्रवद्, व्याख्येयानि ॥ सू० ४८ ॥
सूत्रम् जे. भिक्खू मुहवीणियं वाएइ. वाएंतं. वा: साइज्जइ ॥ सू० ४९ ॥
,
छाया -यो भिक्षुर्मुखवीणिकां वादयति वादयन्तं वा स्वदते ॥ ५९॥. चूर्णी - 'जे भिक्खू मुवीणियं' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मुहत्रीणियं वाएई' मुखवीणिकां वादयति मुखं वीणावत् वादयति मुखेन / वीणावत् शब्दं करोंति, मोहं विलक्षणं मधुरशब्दकरर्णेन जनयति तथोंपशान्तमपि मोहमुदीरयति । तथा 'वाएंतं वा साइज्जइ'' वादयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते । यो हि साधुः मुखं वीणावद् वादयति वादयन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ॥ सू० ४९ ॥ एवं सुखवीणिकावादनसूत्रवदेवाऽन्यान्यपि दन्तवीणिकावादनसूत्रत आरभ्य हरितवीणिकावदनसूत्रः पर्यन्तानि एकादश सूत्राणि व्याख्येयानि । तथाहि - 'जे भिक्खुदंतवीणियं वाएइ' सु० ५०॥ 'ओट्टत्रीणियं वाएइ' ॥५१॥ 'नासावोणियं वाई' ॥ ५२ ॥ 'कक्खवीणियं' वाएइ || ५३ ॥ 'इत्थवीणियं वाएइ' ||५४|| 'नहवीणियं वाइ' || ५५ || 'पत्तवीणियं वापई ॥ ५६ ॥ पुप्फवीणियं वाएइ ॥५७॥ 'फलवीणियं वाएइ ||१८|| 'वीयवीणियं वा ए३: ।। ५९ । 'हरियवीणियं चाएइ' ||६०|| छाया–यो भिक्षुर्दन्तवीणिकां वादयति ॥सू०५० || ओष्ठवीणिकां वादयति ॥ ५१ ॥ नासावीणिकां वादयति ||१२|| कक्षावीणिकां वादयति ॥ ५३ ॥ दस्तवीणिकां वादयति ॥ ५४ ॥ नखवणिकां वादयति ॥५५॥ पत्रवीणिकां वादयति ॥५६॥ पुष्पवीणिकां वादयति ॥५७॥ फलवीणिकां वादयति ||५८ || बीजवोणिकां वादयति ||५-९॥ हरितवीणिकां वादयति ॥ ६० ॥ एतानि सूत्राणि मुखवीणिकावादनसूत्रबद व्याख्येयानि ||सु० ६० ॥
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पूर्णिमा यावचूरिः उ० ५ सू० ६१-६४ औहेशिवयादिवसतिवासनिषेधः १५१ -
सूत्रम्-एवं अण्णयरांणि वा तहप्पगाराणि वा अणुदिन्नाई सदाई उदीरेइ उदीत वा साइज्जइ ॥ सू० ६१॥
छाया-एवमन्यतरान् वा तथाप्रकारान् वा 'अनुदीर्णान् शब्दान्' उदीरयति उदीरयन्तं वा स्वदते ॥ सू०.६१ ॥
चूर्णी- 'एवं अण्णयराणि' इत्यादि । संप्रति प्रकृतप्रकरणमुपसंहरन्नाह-'एव'मित्यादि । 'एवं' एवं यथोक्तप्रकारेण 'अण्णयराणि वा' अन्यतरान् वा वीणावादनप्रकारेण अन्यानपि शब्दान् पशुपक्षिसादीनां शब्दान् 'तहप्पगाराणि वा' तथाप्रकारान् वा तं प्रकारमापन्ना इंति तथाप्रकाराः, तान् शब्दान् वादित्रशब्दसमानानन्यानपि 'अणुदिन्नाई अनुदीर्णान् 'सहाई' शब्दान् 'उदीरेइ' उदीरयति उच्चारयति, अर्थात् यत् मोहनीय कर्म उपशान्तं तत् पुनरनेकप्रकारकशब्दोच्चारणेन उदीरयति, तथा 'उदीरेंतं वा साइज्जई' उदीरयन्तं वा स्वदते । यो हि श्रमणोऽनेकप्रकारकान् शब्दानुदीरयति तं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ।। सू० ६१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उद्देसियं सेज्जं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंत वा साइज्जइ ॥ सू० ६२॥
छाया यो भिक्षुरौदेशिकी शय्यामनुप्रविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥सू० ६२॥
चूर्णी-जे भिक्खू उद्देसियं' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उरेसियं सेज्ज' मौदेशिकी शय्याम्-एकं श्रमणं श्रमणी वा उद्दिश्य कृता इति औहेशिकी, सा चासौ शय्या वसतिः स्थानकमित्यर्थः तामौदेशिकी शय्याम् 'अणुप्पविसई' अनुप्रविशति साधुमुद्दिश्य कृतोपाश्रये उपागच्छति, उपाश्रये निवासकरणार्थं यः श्रमणः प्रवेश करोति, तथा 'अणुप्पविसंत वा साइज्जइ' 'अनुप्रविशन्तं वा स्वदते । यः ‘श्रमण औदेशिकस्थानके उपागच्छति तं योऽन्यः श्रमणोऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभादिका । दोषा भवन्ति ।। सू० ६२ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सपाहुडियं सेज्जं अणुप्पविसइ अणुप्पक्सितं वा साइज्जइ॥ सू० ६३ ॥
छाया-यो भिक्षुः सप्राभृतिकां शय्यामनुप्रविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ६३
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निशीथसूत्रे.
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'सपाहुडियं सेज्जं
1
सप्रामृतिकां शय्याम्, प्रामृतम् - उपहारः यत्र कर्म प्राभृतं भवति कर्मण आगमनं भवति तेन सहिता या सा प्रामृतिका, यस्यां वसतौ छादनलेपनभूमिकर्मादिकं क्रियते तादृशीं शय्यां वसतिम्, या प्राचूर्णकानां निवासाय कियत्कालार्थ दत्ता साऽपि वसतिरुपचारात्- सप्राभृतिका प्रोच्यते, तादृशीं शय्यां वसतिं स्थानकमित्यर्थः 'अणुप्पविसइ' अनुप्रविशति एतादृशोपाश्रये निवासार्थमागच्छति 'अणुप्पवितं वा साइज्जइ' अनुप्रविशन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुः सप्राभूतर्क स्थानकं निवासार्थमागच्छति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागो भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति । यस्मात् कारणात् सप्राभृतिकावसतौ निवासकरणे एते पूर्वोक्ता दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात् श्रमणः सप्राभृतकस्थानके निवासं न कुर्यात्, न वा सप्राभृतकस्थानके निवसन्तं श्रमणमनुमोदयेदिति ॥ सू० ६३ ॥
१५२
सूत्रम् — जे भिक्खू सपरिकम्मं सेज्जं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंत वा साइज्जइ ॥ सू० ६४ ॥
छाया -यो भिक्षुः सपरिकर्मा शय्यामनुप्रविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥सू०६४ || 'चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'सपरिकम्मं सेज्जं 'अणुप्पविस ' सपरिकर्मा शय्याम् अनुप्रविशति, तत्र सपरिकर्मा - परिकर्मसहिता लिसा घृष्टा मृष्टा धवलिता भवेत्, यत्र निवासकरणेन मूलगुणोत्तरगुणानां विघातो. जायते, अथवा यस्यां वसतौ साधुमुद्दिश्यानुद्दिश्य वा कश्चित् घावनघर्षणलेपनादिकं चित्रकर्मादिकं वा संपादितं भवेत् तादृशी वसतिः सपरिकर्मा शय्या कथ्यते । तामनुप्रविशति तत्र निवासं करोति, तथा 'अणुष्पविसंत वा साइज्जड़' अनुप्रविशन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुः सपरिकर्मवसतौ निवासं करोति तं योऽनुमोदते स प्रायवित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ॥ सू० ६४ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू ' णत्थि संभोगवत्तिया किरिय' -त्ति वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६५ ॥
छाया - यो भिक्षुः 'नास्ति संभोगप्रत्यया क्रिया' इति वदति वदन्तं वा स्वदते ॥६५॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'णत्थि संभोगवत्तिया किरिय' - चि वयइ' नास्ति संभोगप्रत्यया क्रियेति वदति । तत्र नास्ययं प्रतिषेधः, 'संभोग' इत्यत्र संशब्दः एकीभावे भुजघातुः पालनाभ्यवहरणार्थकः, ततश्च एकत्र भोजनमित्यर्थः, एकमण्डल्या
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पूर्णिभाष्यावरिः उ०५ सू०६६-६८ पक्षपात्रादीनां छेदनादि कृत्वा परिष्ठापननिषेधः १५३ मुपविश्याहारादिकरणम्, ततः असमानसामाचारीकैरपि सहाहारादिकरणे संभोगप्रत्ययकारणिका क्रिया कर्मबन्धो न भवति, इत्येवंप्रकारेण यो वदति । अत्र 'संभोग'--शब्देन द्वादशप्रकारकसंभोगो ज्ञातव्यः, येन साधुना सह एकत्र भोजनादिव्यवहारो न भवेत्तेन, अथवा यः विरुद्धसामाचारीकस्तेन सह भोजनादिक्रियां करोतु न तत्र कोऽपि कर्मबन्धः, इत्येवं यो वदति, तथा 'वयंत वा साइज्जइ'. वदन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुः 'संभोगकारणकः कर्मबन्धो न भवति एवं वदति, तमनुमोदते च स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वादिका दोषा भवन्ति तस्मात् संभोगप्रत्यया क्रिया न भवतीत्येवं न वदेत् ॥सू०६५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अलं थिरं धुवं धारणिज्जं पलिच्छिदिय पलिच्छिदिय परिहवेइ परिहवेत वा साइज्जइ॥ सू० ६६॥
छाया-यो भिक्षुर्वस्त्रं वा प्रतिग्रह वा कम्बलं वा पादप्रोग्छनकं वा अलं. स्थिर ध्रुवं धारणीयं प्रतिच्छिद्य प्रेतिच्छिद्य परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ खू०६६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू - यः कश्चिद् भिक्षुः निरवधभिक्षणशील: श्रमणः श्रमणी वा 'वत्थं वा वस्त्रं वा-क्षौमिकं कामिकं वा 'पडिग्गरं वा' प्रतिग्रहं वा-पात्रं वा 'कंवलं वा कम्बलं वा-ऊर्णादिनिष्पन्न 'पायपुंछणं वा' पादपोछनकं वा-रजोहरणमित्यर्थः, 'अल थिरं धुवं तत्र मलं कार्यकरणे पर्याप्तं समर्थमपि, स्थिरम् यथावस्थित, ध्रुवं चिरकालपर्यन्तवर्तनयोग्यं 'धारणिज्ज' धारणीय-धारणयोग्यं कार्यकरणयोग्यमपि वस्त्रादिकम् 'पलिच्छिदियपलिच्छिदिय' प्रतिच्छिद्य प्रतिच्छिद्य हस्तेन छुरिकादिना वा खण्डं खण्डं कृत्वा 'परिहवेई' परिष्ठापयति-कार्यक्षममपि वस्त्रादिकं हस्तेन शस्त्रादिना वा छित्त्वा भूमौ परिष्ठापयति निक्षिपति तथा 'परिहवेत वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते, तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति । यस्मादेते दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात् श्रमणः श्रमणी वा कार्यकरणक्षमं वस्त्रादिकं छित्वा न परिष्ठापयेत् , न वा परिष्ठापयन्तमनुमोदयेदिति ॥सू०६६॥
सूत्रम्--जे भिक्खू लाउयपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा अलं थिरं धुवं धारणिज्जं पलिभिदिय पलिभिदिय परिहवेइ परिद्ववेतं वा साइज्जइ सू० ६७॥
__ छाया-यो भिक्षुरलावुकपात्रं वा दारुपात्रं वा मृत्तिकापात्रं वा अलं स्थिरं धवं धारणीय परिभिद्य परिभिद्य परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६७ ॥
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निशीथसत्रे
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चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'लाउयपायं वा' अलाबुकपात्रं 'अलाबु' इति तुम्बिकेति लोकप्रसिद्धं, तस्य पात्रम् ' दारुपायं वा' दारुपात्रं वा-काष्ठपात्रमित्यर्थः 'मट्टियापायं वा' मृत्तिकापात्रं वा मृण्मयं भाजनमित्यर्थः 'अलं' अलम् - अखण्डम् 'थिरं' स्थिरं दृढं 'धुवं' ध्रुवं बहुकालपर्यन्तपरिभोगयोग्यं 'धारणिञ्ज' धारणीयं धारयितुं योग्यं न तु त्यागयोग्यम्, एतावता पात्राणां परिष्ठापनाभावे कारणं प्रदर्शितम् एतादृशं कार्यक्षममपि अलाबुपात्रादिकम् 'पलिभिदिय पलिभिदिय' परिभिध परिभिद्य प्रस्फोट्य प्रस्फोटयेत्यर्थः ' परिद्ववेई' परिष्ठापयति पात्राणि चूर्णीकृत्य भूमौ निक्षिपतीत्यर्थः तथा 'परितं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते । यः श्रमणः कार्यक्षममपि अलाबुपात्रादिकं खण्डीकृत्य परिष्ठापयति, तमनुमोदते च स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयम विराधनादिका दोपाश्चापि भवन्ति, यस्मात्कारणात् कार्यक्षमानामपि पात्राणां स्खण्डीकृत्य परिष्ठापने परिष्ठापयितुरनुमोदने च पूर्वोक्ता दोषा भवन्ति, तस्मात् कारणात् श्रमणः अलाबुपात्रादिकं कार्यक्षमं चूर्णीकृत्य न परिष्ठापयेत्, न वा परिष्ठापयन्तमनुमोदयेदिति ॥ सू०६७॥
1
१५४
सूत्रम् — जे भिक्खू दंडगं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणसूइयं वा पलिभंजिय पलिभंजिय परिद्ववेइ परिद्ववेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६८ ॥
छाया -यो भिक्षुः दण्डकं वा यष्टिकां वा अवलेहनिकां वा वेणुसूचिकां वा परिभज्य परिभञ्ज्य परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६८ ॥
चूर्णी: - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दंडगं वा' दंडकं - दारुवेणुप्रभृतिदण्डं वा 'लट्ठिय वा' यष्टिकां वा 'अवलेहणियं वा' अवलेहनिकां वा तत्र अवलेहनिका चरणलग्नकर्दमनिःसारणाय वंशादिनिर्मित्तक्षुरिकादिरूपा, ताम् 'वेणुसूइयं चा' वेणुसूचिकां वा 'पलिभंजिय पलिभंजिय' परिभञ्ज्य परिभञ्ज्य त्रोटयित्वा त्रोटयत्वेत्यर्थः 'परिवे' परिष्ठापयति, तथा 'परिहवेंतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुर्दण्डादिकं त्रोटयित्वा परिष्ठापयति, तं वा योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाः भवन्ति ॥सू० ६८ ||
सूत्रम् — जे भिक्खू अइरेगपमाणं स्यहरणं धरेइ धरेंतें वा साइज्जइ ॥ सू० ६९ ॥
छाया - यो भिक्षुरतिरेकप्रेमाणं रजीहरणं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू१ ६९ ॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ५ ० ६९-७४
रजोहरणस्यानुचितवन्धनिषेधः १५५
चूर्णी: - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अइरेगपमाणं' अतिरेकप्रमाणम् 'स्यहरणं' रजोहरणम् रजोहरणस्य मानमित्थम् - तथाहि-गमनसमये अधोमुखतामन्तरेणैव सुखतो भूमेः प्रमार्जनं कतु शक्नोति तावत्प्रमाणको दण्डः, तद्घटितरजोहरणं हस्तिपदप्रमाणकं शास्त्रसंमतम्, एतस्मादधिकमल्पं वा प्रमाणम् रजोहरणस्यातिरेकप्रमाणम् । अथवा द्वात्रिंशदकुलप्रमाणो दण्डः, अष्टाशुलप्रमाणाफली, ताश्च जघन्यतः सार्द्धशत संख्यकाः, मध्यमत ऊनशतद्वयसंख्यकाः, उत्कृष्टतः शतद्वयसंख्यका फलिकाः, एतादृशं भूमिकर्मकरणसमर्थम् भवभ्रमणकारणस्य कर्मरजसो हरणे समर्थ रजोहरणं घर्त्तव्यम्, इतोधिकप्रमाणकं न्यूनप्रमाणकं वा रजोहरणमतिरेकप्रमाणरजोहरणमिति कथ्यते । द्रव्यभावभेदेन द्विप्रकार करजसो हरणं करोतीति रजोहरणमिति व्युत्पत्तेः । तत् 'धरेइ' एतादृशप्रमाणतोऽतिरेकप्रमाणं रजोहरणं घरति, तथा 'घरेंतं वा साइज्जइ' घरन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुरतिरेकप्रमाणकं रजोहरणं घरति घरन्तं वा योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति तस्मात् कारणादतिरेकप्रमाणकं रजोहरणं न धरेत् न वा घरन्तं श्रमणं कथं कथमपि अनुमोदयेदिति ॥ सू० ६९ ॥
तथा
सूत्रम् — जे भिक्खू सुहुमाईं स्यहरणसीसाईं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७० ॥
छाया -यो भिक्षुः सूक्ष्माणि रजोहरणशीर्षाणि करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ ७० ॥
चूर्णो – 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सुहुमाई' सूक्ष्माणि श्लक्ष्णानि शोभार्थम् 'स्यहरण सीसाइ' रजोहरणशीर्षाणि - रजोहरणस्य शीर्षाणि फलि - कास्तदप्रभागान् ‘करेइ' करोति संपादयति ' करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७० ॥
सूत्रम् — जे भिक्खु रयहरणस्स एकं बंधं देइ देतं वा साइज्जइ । ७१ |
छाया - यो भिक्षुः रजोहरणस्यैकं वन्धं ददाति ददतं वा स्वदते ॥ सू० ७१ ॥ चूर्णी – 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रयहरणस्स एक्कं बँधे देइ' रजोहरणस्यैकं बन्धनं ददाति रजोहरणस्योपरि निशीथिकासूत्रस्य एकमेव बन्धनं ददाति, अयं भावः—रजोहरणदशानां मध्ये प्रथममेकं बन्धनं दातव्यं, तदनन्तरं द्वितीयं बन्धनं फलिकामध्ये दातव्यम्, तदनन्तरम् तृतीयं बन्धनं रजोहरणस्य दण्डोपरिभागे अङ्गुलत्रयं परित्यज्य देयम्; एतादृशस्थितौ एकमेव बन्धनं ददाति तमंनुमोदते च स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७१ ॥
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निशीथसंत्र 'सूत्रम्-जे भिक्खू रयहरणस्य परं तिण्हं बंधाणं देइ देंते वा साइ ज्जई सू० ७२॥
छाया-यो भिक्षुः रजोहरणस्य परं प्रयाणां वन्धानां ददाति ददतं वा स्वदते ॥७२॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः रियहरणस्स' रजोहरणस्य 'परं तिण्हें बंधाणं' परं त्रयाणां वन्धानाम् बन्धनत्रयादधिकं बन्धनम् 'देइ' ददाति बन्धनचतुष्कादिना बैनातीत्यर्थः, 'देत वा साइज्जइ' ददतं वा स्वदते । यो हि रजोहरणे वन्धनत्रयादधिकानि चतुः पश्च वा बन्धनानि ददाति, तं योऽनुमोदते च स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दीपाश्चापि भवन्तीत्यतो रजाहरणे बन्धनत्रयादधिकं बन्धनं न दद्यात्, तथा दैदतं नानुमोदयेत् ॥ सू० ७२ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू स्यहरणं अविहीए बंधइ बंधत वा साइज्जई |७३। छाया-यो भिक्षुः रजोहरणमविधिना बध्नाति बध्नन्तं वा स्त्रंदते ।। सू० ७३ ।।
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिवखू यः कश्चिद् भिक्षुः 'श्यहरणं' रजोहरणम् अविहीए बंधई' अविधिना शास्त्रोक्तविध्यतिक्रमेण बध्नाति बन्धनं ददाति तथा 'वधतं वा साइज्जई' वग्नन्तं वा स्वदते, अविधिना यो रजोहरणे बन्धनं ददाति तमनुमोदते वा से प्रायश्चित्तभागी भवति । यस्मात् अविधिबन्धने पूर्वोक्ता दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमशः कथमपि रजोहरणे अविधिबन्धनं न दद्यात् , न वा अविधिना बन्धनं ददतमन्यमनुमोदयेदिति ॥ सू० ७३ ।। -सूत्रम्-'जे भिक्खू स्यहरणं कंडुसगवंधेणं बंधा बंधतं वा साइज्जंइ।
छाया-यो भिक्षुः रजोहरणं कन्दुकवन्धेन बध्नाति वध्नन्तं वा स्वदते ॥ सू०७४।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः "रयहरण' रजौहरणम् 'कंडसगवंधेणं' कन्दुकबन्धनेन, कन्दुकमिति बालानां खेलनोपकरणविशेषः 'दंडा' 'बोल' इति प्रसिद्धं, तद्वन्धनसदृशबन्धनेन 'बंधइ' बध्नाति, तथा 'बंधतं वा साइज्जइ' बघ्नन्तं बन्धनं कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते । यः श्रमणः कन्दुकबन्धनसदृशबन्धनेन रजोहरणं वघ्नाति तस्य कठिनबन्धनकरणे पुनर्मोचने विलम्मो भवति तेन सूत्रार्थयोर्हानिर्भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोपा भवन्ति तस्मात् रजोहरणे तादृशं बन्धन न दातव्यं, न वा ददतं कमप्यनुमोदयेदिति ॥ सू० ७४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू स्यहरणं वोसटुं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ।।७५/
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पूर्णिमाष्यावद्भिः उ.५ २. ७५-८० रजोहरणस्यानुचितोपभोगनिषेधः १५७ . छाया-यो भिक्षुः रजोहरणं व्युत्सृष्टं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥सू० ७५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रयहरेणं' रनोहरणम् 'वोसटुं' व्युत्सृष्टं स्वस्माद् अतिदूर-सार्द्धहस्तत्रयात् दूरम् , एतावद्रे अवस्थितं रजोहरणम् 'धरेइ' धरति-स्थापयति तथा 'धरेतं वा साइजई' घरन्तं वा स्वदते अनुमोदते । यो हि भिक्षुरतिदूरे रजोहरणं धरति स्थापयति, अथवा रजोहरणमन्तरेणैव गमनागमनं करोति तदा शरीरोपरि उपकरणोपरि वा पिपीलिकादि आगच्छेत् तत् हस्तादिना निवारणेन पिपीलिकादीनां विराधनं भवति, तथा हस्तेन शरीरकण्डूयने वा जीवविराधनासंभवः, तेन संयमविराधना भवति, तथा कदाचिदकस्माद् कोऽपि विपकीटः शरीरोपरि समापतति तदा रजोहरणाभावे आत्मविराधनाया अपि संभवः । यत इमे. दोषा भवन्ति तस्मात् रजोहरणस्य दूरे स्थापनं न कुर्यात् , न वा तथाकरिनुमोदनमपि कुर्यादिति ।। सू० ७५ ॥ .
सूत्रम्-जे भिक्खू रयहरणं अणिसिटूठं धरेइ धरेतं वा साइज्जइः॥
छाया-यो भिक्षुः रजोहरणमनिसृष्टं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७६ ॥ - चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् 'भिक्षुः रियहरणं' रजोहरणम् 'अणिसिटुं' मनिसृष्टम् यदनेकस्वामिकं वस्तु तदेकेन दीयमानम् अनिसृष्टमिति कथ्यते, एतादृशं रजोहरणम् 'धरेइ' धरति तादृशरजोहरणस्य धारणं करोति तथा 'धरतं वा साइज्जइ' धरन्तं वा स्वदते । यो हि श्रमण अनेकस्वामिकमेकेन दीयमानं रजोहरणं धरति तं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञामङ्गादिका दोषा भवन्ति । तथा सर्वस्वामिनाऽप्रदत्तस्य ग्रहणे इतरस्वामिना कलहादिरपि भवेत् तस्मात्तादृशं रजोहरण न धारयेत् , न वा धारयन्तमनुमोदयेदिति सर्वस्वामिदत्तं रजोहरणं ग्राह्यामेति भावः ।। सू० ७६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू स्यहरणं अहिछेइ अहिछतं वा साइज्जइ ॥७७|| - छाया-यो भिक्षुः रजौहरण अधितिष्ठति अधितिष्ठन्तं वा स्वदते ॥ सू०.१७७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू रयहरणं' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रयहरणं' रनोहरणम् 'अहिढेई' अधितिष्ठति रजोहरणोपरि उपविशति 'अहिटुंतं वा साइज्जई' अधितिष्ठन्तं वा स्वदते । यो हि रजोहरणोपरि उपविशति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति तस्मात् रजोहरणोपरि उपवेशनं न कर्त्तव्यम् ; न वा उपविशन्तं श्रमणमनुमोदयेदिति ।। सू० ७७ ॥ . .
सूत्रम् "जे भिक्खू रयहरण उस्सीसमूले ठवेइ ठवेत वा साइज्जइ।७८ छाया-यो भिक्षुः रजोहरणम् उच्छीपमूले स्थापयति स्थापयन्तं वा स्वदते ॥७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू स्यहरणं' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः ‘रयहरणं' रजोहरणम् 'उस्सीसमूले ठवेइ' उच्छीर्षमूले स्थापयति शयनसमये मस्तकाधोभागे निदध्यात
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निशीथवे रजोहरणीपरि मस्तकं दत्त्वा शयनं करोतीत्यर्थः, 'ठवेंतं वा साइज्जई' स्थापयन्तं वा स्वदते । यो हि श्रमणः रजोहरणोपरि मस्तकं दत्त्वा शयनं करोति तं श्रमणं यो भिक्षुरनुमोदते स प्रायश्चिचभागी भवति तस्मात् रजोहरणोपरि मस्तकं दत्त्वा शयनं न कुर्यात् , न वा तदुपरि मस्तकं दत्त्वा शयनं कुर्वतोऽनुमोदनमेव कुर्यादिति ॥ सू० ७८ ॥ .
सूत्रम्-जे भिक्खू स्यहरणं तुयटेइ तुयटेतं वा साइज्जइ ७९) छाया-योो भिक्षुः रजोहरणं त्वगूवर्तयति त्वरवर्तयन्त वा स्वदते ॥ सू० ७९ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू रयहरणं' इत्यादि। 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रयहरणं' रजोहरणम् 'तुय?ई' त्वग्वर्तयति रजोहरणोपरि शयानस्तत्रैव त्वगवर्तनं पार्श्वपरावर्तनं करोति इतस्ततः त्वचः परावर्तन करोतीत्यर्थः 'तुयटेंतं वा साइज्जई' त्वग्वर्तयन्तं वा स्वदते अनुमोदते । यो हि श्रमणः रजोहरणोपरि शयनं कृत्वा तदुपरि पार्श्वपरिवर्तनं करोति तं श्रमणं यः श्रमणः अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, , तस्मात् कारणात् रजोहरणोपरि त्वगवर्तनं न कुर्यात् , न वा त्वग्वर्तयन्तमनुमोदयेदिति ॥ सू० ७९ ॥ . सूत्रम्--तं सेवमाणे आवज्जइमासियं परिहारट्ठाणं उग्धाइयं ८०॥
॥निसीहज्झयणे पश्चमो उदेसो समत्तो ॥ छाया- तत्सेवमानः आपद्यते मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकम् ॥ सू० ८०॥
निशीथाध्ययने पञ्चम उद्देशकः समाः ॥५॥ चूर्णी-'त सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् सेवमानः सचित्तवृक्षमूलावस्थानादारभ्य रजोहरणोपरि त्वग्वर्तनपर्यन्तकथितप्रायश्चित्तस्थानेषु मध्ये यत् किमप्येकं प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेवमानः 'आवज्जइ' आपद्यते प्राप्नोति 'मासियं परिहारद्वाणं उग्घाइयं' मासिकं परिहार स्थानमुद्घातिकम् लघुमासिकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीत्यर्थः । अयं भावः-पञ्चमोदेशके यावन्ति प्राय चित्तस्थानानि प्रोक्तानि तेषु एकमनेकं वा प्रायश्चित्तस्थानं यो भिक्षुः सेवते स लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्तं लभते ।।सू० ८०॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगहल्लम-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाइछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर- पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथमत्रस्य"
चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायां पञ्चमोद्देशकः समाप्तः ॥५॥
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॥ षष्ठोद्देशकः॥
(मारग्रामप्रकरणम्) पञ्चमोद्देशक व्याख्याय साम्प्रतमवसरप्राप्तं षष्ठोद्देशं व्याख्यातुमाह,-तत्र पञ्चमोदेशकेन सह षष्ठोदेशकस्य कः सम्बन्धः ? इत्यत्राह भाष्यकारः-'उस्सीसं' इत्यादि । भाष्यम्-उस्सीसं पुन्चकहियं, तेणं रत्तिं च सुचई साहू ।
रत्तीए मोहुदओ होइ जया तस्स पच्छित्तं ॥१॥ छाया-उच्छीर्ष पूर्व कथितं, तेन रात्रौ व स्वपिति साधुः ।
रात्रौ मोहोदयो भवति यदा तस्य प्रायश्चित्तम् ॥१॥ अवचूरिः-पञ्चमोद्देशकस्यान्तिमसूत्रे रजोहरणेन उच्छीर्षकरणस्य निषिद्धत्वेन प्रतिपादितम् एतावता रात्रौ शयनं कथितं, दिवसे तु साधोः शयनं न कल्पते । उच्छीर्षण शयने रात्रौ साधोर्यदा मोहोदयो भवेत् तेन स मैथुनप्रतिज्ञया मातृग्राम-स्त्रियं विज्ञपयेत् तस्यात्र षष्ठोदेशके प्रायश्चित्तं निरुपयिष्यते, अयमेव पञ्चमोद्देशकेन सह षष्ठोदेशकस्य सम्बन्धोऽस्ति ॥१॥
भनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य षष्ठोद्देशकस्येहमादिस्त्रम्-'जे भिक्खू माउग्गाम' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू माउंग्गाम मेहुणवडियाए विण्णवेइ विणवेतं वा साइज्जइ ॥ सू० १॥
छाया-यो भिक्षुर्मातग्राम मैथुनप्रतिक्षया विक्षपयति विज्ञपयन्तं वा स्वदते ॥ सू०१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिद् भिक्षुः-श्रमण श्रमणीः वा 'माउग्गाम' मातृप्राम-मातुः समानः ग्रामः इन्द्रियसमुदाय इति मातृग्राम इति षष्ठीतत्पुरुषस्तम् । देशविशेषभाषया 'मातृप्राम' शब्देन स्त्री गृह्यते तेन 'स्त्रियम्' इत्यर्थो बोध्यः, सर्वाः स्त्रियो भिक्षुणा मातृवद्द्रष्टव्या अतोऽत्र मातृग्रामशब्देन निर्देशः कृत इति भावः । 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञयामैथुनवाल्छया मिथुनस्य स्त्रीपुरुषस्य कर्म मैथुनम् अब्रह्मचर्यमित्यर्थः, तस्य वाच्छया स्त्रियम् 'विण्णवेई' विज्ञपयति-मैथुनाथ स्त्रियं प्रार्थयतीत्यर्थः 'विण्णवेतं वा साइज्जइ' विज्ञपयन्तं मैथुनाथ स्त्रियं प्रार्थयन्तं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा प्रार्थयितुः प्रार्थयितारमनुमोदयितुश्चाज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्तीति ॥ सू० १ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए हत्थकम्मं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ।। सू० २ ॥
छाया-यो भिक्षुर्मावग्रामस्य मैथुनप्रतिशया हस्तकर्म करोति कुर्वन्तं धा स्वदते ॥२॥
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निशीथसूत्रे
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः श्रमणः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य स्त्रियाः 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया मैथुनवाञ्छया 'हस्थकम्मं' हस्तकर्महस्तेन संपाद्यमानं कर्म किया व्यापारः, तत् करोति स्व॒य॑म् तथा 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते । यो हि मैथुनेच्छया हस्तकर्म करोति तमनुमोदयति स प्रायश्चित्तमाप्नोति तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका टोपा भवन्ति । यस्मात् हस्तकर्मकरणेऽनुमोदने चैते दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् स्वय श्रमणो हस्तकर्म न कुर्यात् न' वा हस्तकर्म कारयेत् कुर्वन्तमनुमोदयेत्, चतुर्थमहाव्रतविराधनाया अवश्यम्भावादिति ॥सू० २ ॥
१६०
सूत्रम् — जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं कट्ठेण वा किलिचेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा संचालेइ संचालें वा साइज्जइ ॥ सू० ३ ॥
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अङ्गादानं काण्ठेन वा किलिञ्चेन वा शलाकया वा संचालयति संचालयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य-स्त्रियाः ‘मेहुणवडियाए' मैथुनवाञ्च्या 'अंगादाणं' अङ्गादानम्, तत्राङ्गं शरीरं तस्य, आ॒दानं॑ प्र॒स्रुतिरि॒त्यर्थः, अ॒ङ्गादा॒नम् - अङ्गस्योत्पत्तिर्भवति यस्मात् तत् अङ्गादानम्, यद्यपि दाधातुर्दानार्थं कस्तथापि धातोरनेकार्थत्वादुपसर्गवत्त्वात् आर्यप्रकरण बळाच्चात्रोत्पत्तिरर्थो भवतीति । अङ्गादानं मेढ्रं स्त्रीपुरुषयोश्विह्नविशेषमित्यर्थः, एतादृशं स्त्रीणां स्वस्य वा भङ्गादानम् मोहनीय कर्मोदयात् 'कडे वा' काष्ठेन शिशपादिदारुदण्डेन वा 'किलिचेण' वा किलिञ्चेन वा तत्र किलिञ्चो वंशकर्परी, तादृशेन किडिचेन वा 'अंगुलियाए वा' अंगुल्या वा 'सलागाए वा' शलाकया वा लौड़ादिशलाकया वैत्रशलाकया वा 'सचालेइ वा' संचालयति 'संचालतं वा, साइज्जइ' संचालयन्तं वा स्वदते । यो हि अङ्गादानम् काष्ठादिना संचालयति तं योऽनुमोदते स प्रायवित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोपाश्चापि भवन्ति ॥ सू० ३ ॥
1
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सूत्रम् -- जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज व संवाहतं वा पलिमतं वा साइज्जइ ||सू० ४ ||
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अङ्गादानं संवादयेहा परिमर्दयेद्वा संवाहयन्तं वा प्ररिमर्दयन्तं वा स्वदुते ॥ सू० ४ ॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ०६ सू०४-८
मातृग्रामप्रकरणम् १६१ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य-यस्याः कस्याश्चित् स्त्रियाः 'मेहुणवडियाए" मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनेच्छयेत्यर्थः अंगादाणं' अङ्गादानं 'संवाहेज्ज वा' संबाहयेद्वा 'पलिमद्देज्ज वा' परिमर्दयेद् वा 'संवाहेंतं वा' संबाहयन्तं वा एकवारं मर्दयन्तम् 'पलिमतं वा' परिमर्दयन्तं वा अनेकवारं परिमर्दनं कुर्वन्तं वा 'साइज्जइ स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ४ ॥.
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं तेल्लेण वा घएणवा वसाए वा नवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा अन्भंगेंतं वा मक्वंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५॥
छाया-यो भिक्षुर्मातग्रामस्य मैथुनप्रतिशया अङ्गादानं तैलेन वा घृतेनं वा वसया वा नवनीतेन वा अभ्यञ्जयेद्वा ब्रक्षयेद्वा अभ्यञ्जयन्तं वा ब्रक्षयन्तं वा स्वदते॥सू० ५॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य-स्त्रियाः 'मेहुणवडियाए' मैथुनवाञ्छया 'अंगादाणं' मङ्गादानम् 'तेल्लेण वा' तैलेन वा तिलसर्पपादिनातेन 'घएण वा' घृतेन वा 'वसाए वा' वसया वाचति-लोकप्रसिद्धया 'णवणीएण वा' नवनीतेन वा 'मक्खन' इति लोकप्रसिद्धेन 'अभंगेज वा' अभ्यञ्जयेद्वा एकवारं तैलादिना मर्दयेत् 'मक्खेज्ज वा' म्रक्षयेद्वा अनेकवारं विशेषतो वा मर्दयेत् 'अभंगतं वा मक्खेंतं वा साइज्जइ' अभ्यञ्जयन्तं वा सूक्षयन्तं वा स्वदते स प्रायचित्तभागी भवति ॥ सू० ५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं कक्केण वा लाद्धेण वा पउमचुण्णेण वा सिणाणेण वा पहाणेण वा चुण्णेहिंवा वण्णेहिं वा उव्वटूटेइ वा पविटूटेइ वा उव्वटेंतं वा पविटेंते वा साइज्जइ ।।
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिशया अङ्गादानं कल्केन वा, लोध्रण वा पनचूर्णेन वा स्नपनेन वा स्नानेन वा चूर्णैर्वा वर्णैर्वा उद्वर्तयति वा परिवर्तयति वा उद्वर्तयन्तं वा परिवर्तयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनवाञ्छया 'अंगादाणं' अङ्गादानं 'कक्केण वा' कल्केन वा-अनेकद्रव्यसंयोगेन क्रियमाणो वस्तुविशेषः, तेन 'लोद्रेण वा' लोभ्रेण' वा 'पउमचुण्णेण वा' पद्मचूर्णेन वा 'हाणेणवा' सपनेन वा, तत्र स्नपनं घिष्टादिनिर्मितोद्वर्त्तनद्रव्यमिश्रितजलेन सिञ्चनं,
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निधीप तन, सिणणेण वा स्नानेन बा, तत्र स्नान-सुगन्धद्रव्यसमुद्रानिर्मितवम्नुविगेपमिश्रितजन 'सा' इनि छोसिद्धवस्तुमिश्रिचनलेन वा धावनम् , 'चुगणेहिं वा चूर्ण; चन्दन चूर्णादिमिः 'वृण्णेहिं वा'. वर्णा मुगन्धान्त्यिर्थः, पतंयु अन्यतरण द्रव्येण 'उबर'
नयन्ति पन्चारमुद्रुतनं करोति 'परिचछे वा परिवर्नयनि अनेकवारमुर्ननं करोति, तथा 'उन्ट वा उद्वर्तयन्तं वा पन्चारमुहर्तन कुर्वन्नं वा 'परिचतं वा परिवर्तयन्तम् अनेकवारमुद्रतनं कुर्वन्तं बरसाइनई वदनंऽनुमोदन-कगेनि म प्रायश्चित्तमागी मवति । यथा खड्गाद्विशत्रस्य मनन हस्तस्य छेदो भनि नथैवाङ्गादानस्योद्वर्ननाठिकाणेन संयमस्य च्छेदो भवतीति ।। सू० ६॥
मूत्रम्-जे मिक्खू माउग्गामस्म मेहुणबडियाए अंगादाणं सीओदगवियडेण वा उसिणादगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज्ज वा उच्छो लेंतं वा पथोवेतं वा माइज्जइ ।। मू०७॥
छाया-यो मिक्षुर्मादृग्रामस्य मैथुनप्रतिवया अङ्गादानं शीतोदकविकटेन या उम्णो. दकत्रिटेन या उच्छोलयेहा प्रथावेदा इच्छोलयन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदत्ते ॥ सू०७॥
चूर्णी-जे मिक्लू माउमाामस्स' इत्यादि । 'ज भिकाजु यः कश्चिद भिक्षुः, 'माउग्गामासे' मानुग्रामस्य 'मेडणवडियाए' मैथुनप्रतिनया 'अंगादाणं' अङ्गादानन 'सीयोदगवियरण वा शीतोदऋविक्रटन वा, नत्र विक्रटन व्यपगनजीवन अचित्तशीननंटनेत्यर्थः, 'उसिणोदगवियडेण वा उगोदऋविकटेन वा अचित्तेन उष्णनटनन्यर्थः 'उच्छोलेग्ज वा' उच्छोलयेहा एकबारम् 'पघावेज वा प्रधावा अनेकवारम् ‘उच्छोळ वा' उच्छोळ्यन्तं पक्रवारम् 'पघाएंतं.वा. प्रवावन्तं वा अनेकवारं 'साइजई' 'स्वदत अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तुन्याज्ञामङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति । अत्र यान्नो यथा-कम्यचिन पुरुषस्य नेत्ररोगो जातस्ततः स नेत्र घृष्ट्वा वृद्धा नठेन वारं वारं प्रक्षालयात तेन तस्य नेत्रं ग्रणष्टम् , एवमेवाङ्गादानस्योच्छो. छन् अघावनेन संयमः प्रणयनीति ॥ सु० ७ ॥ ___ मूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्म मेहुण वडियाए अंगादाणं णिच्छल्लेइ णिच्छल्लत वा साइज्जइ । मू०८॥ . छाया: यो भिक्षुर्मादग्रामस्य मैथुनप्रतिवया अङ्गादानं निश्छल्लयति निश्छल्लयन्तं घा-स्वदन्त ।। २.८॥
चूर्णी-'न मिक्ख माउग्रामस्स' इत्यादि । 'जे मिक्खू यः कश्चिद भिक्षुः 'माउमामम्म- मातृग्रामस्य 'मेहुणबडियाए मैथुनप्रतिज्ञया 'अंगादाण' अङ्गादानम् "णिच्छल्लेई' नियल्लयनि मन्दीरहिनं करोनि, नत्र नि मल्टनमङ्गादानस्य छन्त्याः -स्त्रचोऽपनयनं ततश्चाङ्गादानस्य
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ. ६ सू० ९-१३
मायामप्रकरणम् १६३ त्वचीऽपनयनं करोति-अङ्गादानस्य त्वम् अपनीय मंणि निष्कासयतीत्यर्थः 'णिच्छरलेंतं वा साइज्जई' निश्छल्लयन्तं वा त्वंगपनयनं कुर्वन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । अत्र दृष्टान्तों यथा-कश्चित् पुरुषः सुखसुप्तस्याऽनगरस्य मुखं फाटयति स क्रुद्धेन तेन निर्गलितों म्रियतें, एवमङ्गी दानस्य त्वगपनयनं कुर्वतः साधो चारित्रं विनश्यतीति ॥ सू० ८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाण जिग्घई जिग्छत वा साइज्जइ ॥ सू० ९॥
___ छाया-यो भिक्षुर्मातग्रामस्य मैथुनप्रतिशया अंगादानं जिघ्रति 'जिन्तं वा स्वदते ॥ सू० ९ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउंग्गामस्स' मौत, ग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'अंगादाणं' अङ्गादानम् 'जिग्घई' जिघ्रति-नासिकया आघातीत्यर्थः 'जिग्येत वा साइज्जइ' जिघन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ९॥
सूत्रम्--जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं अन्न यरंसि अचित्तंसि सोयसि अणुप्पवेसेत्ता सुकंपोग्गल निग्याएइ निग्घाएंत-वा साइज्जइ ।। सू० १०॥
_ छाया-यो भिक्षुर्मानुग्रामस्य मैथुनप्रतिशया अङ्गादानमन्यतरस्मिन् अचित्ते रोतसि अनुप्रवेश्य शुक्रपुद्गलान् निर्घातयति निर्धातयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउगामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाएं' मैथुनप्रतिज्ञयो 'अंगादाण अङ्गादानम्। स्वमेदम् 'अन्नयरंसि अन्यतरस्मिन् स्रोतस्सु बहुषु मध्ये यस्मिन् कस्मिंश्चिदपि 'अचित्तसि. सोयंसि. अचित्ते निर्जावे स्रोतसि छिद्रे 'अणुप्पवेसित्ता' अनुप्रवेश्य तत्र प्रविष्टं कृत्वा 'मुक्कपोग्गले' शुक्रपुद्गलान् वीर्यपुद्गलांन् 'निग्याएइ' निर्घातयति-पातयति णिग्याएंत वा साईज्जइ' निर्घातयन्तं वा स्वदते अनुमोदते ॥ सू० १० ॥
सूत्रम्- जे भिक्खू माडग्गामस्स मेहुणवडियाए,अवाउडिसयं कुज्जा सयं बूयां करतं वा एतं वा साइज्जई। सू०.११॥
छाया--यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिश्या अप्रावृत्तिं स्वयं कुर्यात् स्वयं ब्रूयात्, कुर्वन्तं वा ब्रुवन्तं वा स्वदंते ॥ सू० ११ ॥
छायाया
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१६४ . .
निशीथस्से .....................mummmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm . चूर्णी-'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'अवाउढि सयं कुज्जा' अप्रावृति वनाहरणं नग्नकरणबुद्धया, स्वयं स्वयमेव कुर्यात् यः श्रमणः सुप्तां त्रियं वस्त्ररहितां कुर्यादिति भावः, 'सयं ब्रूया' स्वयं ब्रूयात् नग्रार्थ स्त्रियं कथयेत् मैथुनाथ प्रार्थनां वा कुर्यात् , तथा 'सयं करेंतं वा सयं एतं वा साइज्जइ' स्वयं स्वयमेव स्त्रिया वस्त्रापहरणं कुर्वन्तं तथा प्रार्थनावचनं ब्रुवन्तं वा श्रमणं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ११ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए कलहं कुज्जा कलहं बूया कलहवडियाए बूया कलहवडियाए गच्छइ बूएतं वा गच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १२॥
' छाया-यो भिक्षर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिचया कलहं कुर्यात् कलहं ब्रूयात् कलह...प्रतिशया व्यात् कलहमतिशया गच्छति ब्रुवन्तं वा गच्छन्तं वा स्वदते ॥ स० १२ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउ{"' गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'कलहं कुज्जा' कलहं कुर्यात् मैथुना
स्वीकारे कलहं कामकलह वा कुर्यात् 'कलहं वा बूया' कलहं वा ब्रूयात् 'यदि त्वं मया सह 5. मैथुन न सेविष्यसि सदा तव दुःखमुत्पादयिष्यामि' इत्येवंप्रकारकं ल्केशकारि वचनं वदेत् 'कलह
वडियाए ब्रूया' कलहप्रतिज्ञया ब्रूयात्-क्रोधावेशेन वदेत् 'कलहवडियाए गच्छइ' कलहप्रति: ज्ञया कोमकलहेच्छया स्त्रीसमीपं गच्छति, तथा 'वएतं वा गच्छंतं वा साइज्जइ' ब्रुवन्तं वा गच्छन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते, स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० १२ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए लेहं लिहइ लेहं लिहावेइ लेहवडियाए वा गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ ।। सू० १३॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया लेख लिखति लेखयति लेखप्रतिचया वा गच्छति गच्छन्तं वा स्वदते ॥सू० १३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' 'मैथुनप्रतिज्ञया 'लेहं लिहइ' लेख-प्रेमपत्ररूपं लिखति 'लेहं लिहावेइ' लेख लेखयति अन्यद्वारा वा लेख लेखयति 'लेहवडियाए वा गच्छई' लेखप्रतिज्ञया-लेखनार्थाय वा बहिर्गच्छति यत्र स्थितेन लेखो निर्विघ्नं लिख्यते एतादृशं स्थानं गच्छति, 'गच्छंत वा साइज्जई' गच्छन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
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चूर्णिभाष्यावन्त्रिः उ.६ सू. १४-१७
मातग्रामप्रकरणम् १६५ अत्र शिष्यः पृच्छति-हे गुरो। भगवता मैथुनसेवनेच्छया साधूनां पत्रलेखनं निषिद्धं तेनाऽन्यकार्यार्थ पत्रलेखनं साधूनां कल्पते इति सिद्धम् । आचार्यः प्राह-हे शिष्य ! साधूनां कुत्रापि पत्रादिलेखनं न कल्पते शास्त्रे तस्य निषेधात् । पुनः शिष्यः पृच्छति-हे गुरो ! शास्त्रे तु मैथुनार्थमेव लेखनं प्रतिषिद्धं दृश्यते तदा कथमेवं भवान् कुत्रापि पत्रलेखनं निषेधयति ? । आचार्य प्राहहे शिष्य ! शास्त्रे मैथुनाथ यो निषेधः कृतः तस्योपलक्षणत्वात् सामान्यस्यापि निषेधः सूचितः, साधूनां नवकोटेः प्रत्याख्यानात् पत्रादिलिखने नवकोटिविराधनस्यावश्यम्भावात् ॥सू० १३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसंतं वा पिट्ठंवा सोयंतं वा भल्लायएण उप्पाएइ उप्पाएतं वा साइज्जइ ।। सू०१४॥
छाया-यो भिक्षुर्मातग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया पोपान्तं वा पृष्ठान्तं वा स्रोतोऽन्तं वा भल्लातकेन उत्पादयति उत्पादयन्तं वा स्वदते ॥सू० १४॥
चूर्णी-जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'पोसतं वा' पोषान्तं वा-सेवनाद् यः पुष्यते पुष्टो भवति स पोषः, पोषयति मैथुनार्थिनं यः स पोषः मृगीपदं योनिरित्यर्थः, तस्य अन्तम् प्रान्तभागम् 'पिटुतं वा' पृष्ठान्तं वा पृष्ठस्य अपानद्वारस्य गुदाया इत्यर्थः अन्तम् भागं 'सोयंत वा' स्रोतोऽन्तं वा तत्र स्रोतः-छिद्रविशेषः स्त्रिया नाभिकर्णादिकं मैथुनेच्छया 'भल्लायएण' भल्लातकेनभल्लातकेति औषधिविशेषः तेन औषषिविशेषेण-औषधिविशेषलेपेन सौन्दर्यसौगन्ध्यादिकं 'उप्पाएई' उत्पादयति-करोति 'उप्पाएंतं वा साइज्जइ' उत्पादयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू० १४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसतं वा पिठंतं वा सोयंतं वा भल्लायएण उप्पाएत्ता सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवि. यडेण वा उच्छोल्लेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंत वा साइ. ज्जइ ॥ सू० १५॥
छाया-यो भिक्षुर्मातग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया पोषान्तं वा पृष्ठान्तं वा स्रोतोऽन्तं वा भल्लातकेन उत्पाय शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा उच्छोलयेदा प्रशा. वेद्वा उच्छोलयन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते ॥सू० १५॥
चर्णी- जे भिक्खु माउग्गमस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए'. - मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'पोसंतं वा' पोषान्तं वा 'पिटतं वा' पृष्ठान्तं वा 'सोयतं वा' स्रोतोऽन्तं वा पूर्वनिर्दिष्टस्वरूपम् 'भल्लायएण उप्पाएता'
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-निशीथस्त्र भल्लातकेन पोषकौषधिविशेषेण सौन्दर्यादिकमुत्पाद्य पुनस्तदपनयनार्थम् 'सीमोदगवियडेण वा' शीतोदकविकटेन वा, तत्र विकटेन व्यपगतनीवेनाचित्तेनेत्यर्थः तथा च अचित्तशीतजलेन तथा 'उसिणोदगवियडेण वा' उष्णोदकविकटेन वा-अचित्तोष्णजलेनेत्यर्थः, 'उच्छोलेज्ज वा' उच्छोलयेद्वा एकवारम् पधोएज्ज वा' प्रधावेद्वा अनेकवारम्'उन्च्छोलेंतं वा पधोएंत वा साईज्जई' उच्छोलयन्त वा प्रधावन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहणवडियाए पोसतं वा पिढेंतं वा सोयंत वा उच्छोलेत्ता पधोवेत्ता अन्नयरेणं आलेवणजाएणं आलिं' पेज्ज वा विलिंपेज्ज वा आलिपंतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १६॥
छाया-यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया पोषान्तं वा पृष्ठान्तं वा स्रोतोऽन्तं वा उच्छोल्य प्रधाव्य अन्यतरेण आलेपनजातेन आलेपयेद् वा विलेपयेद् वा आलेपयन्तं वा विलेपयन्तं वा स्वदते ॥सू० १६॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । यो भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य, 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया मैथुनेच्छया 'पोसंतं वा पिटुंतं वा सोयंत वा' पोषान्तं पृष्ठान्तं स्रोतोऽन्तं वा पूर्वोक्तस्वरूपं 'उच्छोलेत्ता' उच्छोल्य 'पधोवेत्ता' प्रधान्य प्रक्षाल्य तदनन्तरं 'अन्नयरेणं. आलेवणजाएणं' अन्यतरेण केनाप्येकेन आलेपनजातेन आलेपनविशेषेण 'आलिंपेज्ज वा' आलेपयेत् एकवारम्., 'विलिंपेज्ज वा' विलेपयेद् वा वारं वारम् । एवं 'आलिंपतं वा विलिपंत वा' आलेपयन्तं 'वा' विलेपयन्तं वा 'साइज्जई' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति "सू०१६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए. पोसंतं वा पिट्ठतं वा सोयंत वा उच्छोलेत्ता पधोएत्ता आलिपेत्ता विलिंपेचा तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा.अभंगेंतं. वा मक्खेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१७॥
छाया-यो-भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया पोपान्तं वा पृष्ठान्तं वा स्रोतोऽन्तं वा उच्छोल्य प्रधाव्य आलिन्य विलिप्य तैलेन वा घृतेन वा वसया चा नवनीतेन-वा अभ्यञ्जयेत् वा प्रक्षयेत् वा अभ्यञ्जयन्तं वा प्रक्षयन्तं वा स्वदते । सू० १७॥
चूर्णी--'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे मिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भाउग्गामस्स! मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'पोसते वा पोषान्तं वा 'पिट्टत चा पृष्ठान्तं वा सोयंत वा' स्रोतोऽन्तं वा. 'उच्छोलेत्ता-पधोएत्ता' उच्छोल्या प्रघाव्य शीतोष्ण
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वृणिभाष्यावद्भिः उ०६सू०१८-२३
मातृप्रामप्रकरणम्:१६७ जलेन एकवारमनेकवारं वा प्रक्षालनं कृत्वा तदनन्तरम् 'अलिपेत्ता विलिपेत्ता' आलिप्य विलिप्य पूर्वोक्तौषधिरूपेण लेपनद्रव्येणैकवारमनेकवारं वा लेपयित्वा तदनन्तरं 'तेल्लेण वा तैलेने वा 'घएण वा' घृतेन वा 'वसाए वा' वसया वा च तिलोकप्रसिद्धया 'णवणीएण वा' नवनीतेन वा म्रक्षणेन 'मक्खन' इति प्रसिद्धेन 'अभंगेज्ज वा' अभ्यञ्जयेद्वा एकवारं वा अभ्यञ्जन कुर्यात् 'मक्खेज्ज वा' म्रक्षयेद्वा प्रतिदिनमनेकवारं वा तैलादिना अभ्यङ्गं वो कुर्यात् 'अभंगेत 'वा मक्खेत वा साइज्जई' अभ्यञ्जयन्तं वा प्रक्षयन्तं वा स्वदते । यो हि श्रमणः स्त्रियाः योन्यादिक तैलादिना अभ्यञ्जयति मैथुनेच्छया तं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभगानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनादिदोषाश्चापि भवन्ति, यस्मादेते दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् स्त्रीणामङ्गं श्रमणस्तैलादिना नाभ्यञ्जयेत् न वा तैलादिना अभ्यङ्ग कुर्वतः कथमपि अनुमोदनं कुर्यादिति ॥सू० १७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसंतंचा पिढेंतं वा सोयतं वा उच्छोलेत्ता पधोएत्ता आलिपेत्ता विलिंपेत्ता अब्भंगेत्ता मक्खेत्ता अन्नयरेण धूवणजाएण धूवेज्ज वा-पधूवेज्ज वा धूतं वा पधूवेंतं वा साइजइ ॥ सू० १०॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया पोषान्तं वा पृष्ठान्त वा स्रोतोऽन्तं घा उच्छोल्य प्रधाव्य आलेप्य विलेप्य अभ्यङ्ग्य प्रक्षयित्वा अन्यतरेण धूपनजातन'धूपयेद्वा प्रधूपयेद्वा धूपयन्तं वा प्रधूपयन्तं वा स्वदेते ॥सू० १८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'पीसतं वा' पोषान्तं वा 'पिटुंतं वा' पृष्ठान्तं वा 'सोयंत वा' स्रोतोऽन्तं वा 'उच्छोलेत्ता पधोएत्ता' उच्छोल्य प्रधाव्य एकवारमनेकवारं वा शीतोष्णजलेन प्रक्षालनं कृत्वा 'आलिपेत्ता विलिंपेत्ता' आलेप्य विलेप्यएकवारमनेकवारं वा लेपनद्रव्येण विलेपनं कृत्वा तदनन्तरम् 'अन्भंगेत्ता मक्खेत्ता अभ्यज्य प्रक्षयित्वा एकवारमनेकवारं वा तैलघृतवसानवनीतॉन्यतमेनाऽभ्यञ्जनं कृत्वा 'अन्नयरेण धृपणजाएणं' अन्यतरेण धूपनजातेन केनाप्येकेन सुगन्धिदव्यधूपेन 'धूवेज्ज वा धूपयेवा एकवारं धूपितं कुर्यात् 'पधूवेज्ज वा' प्रधूपयेद्वा अनेकवारं धूपदव्यजातेन धूपयेत् , तथा 'धृतं वा पध्वंतं वा साइज्जई'धूपयन्तं वा प्रधूपयन्तं वा स्वदते । यो हि मिक्षुः मैथुनसेवनेच्छया स्त्रिया भङ्गादिकं प्रक्षालनलेपनाभ्यञ्जनानन्तरं धूपनद्रव्येण एकवारमनेकवारं वा धूपयति सः, तं यो भिक्षुरनुमोदते सोऽपि च प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञामङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति । यस्मादेते
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निशीधरचे
F- न अमन प्रोगामहादिकं न धूपयेत् न वा धूपयन्तमन्यं कथमप्यनु
मयांदा प्रियेव सर्वदा नेन संयमाराधनाय प्रयत्नो विधेय इति ॥सू० १८॥ ___ मुत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्म मेहुणवडियाए कमिणाई वत्थाई धन्ड बग्नं वा माइजड ॥ मू० १९॥
गा- यो भिनुमानप्रामम्य मैथुनप्रनिश्या कृत्स्नानि वस्त्राणि घरति-धरन्तं वा पदने :
गनी - मिरद माउन्गामम्म' इत्यादि । 'जे मिका' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गाwer: मेहणवडियाए मैथुनप्रनिजया-मैथुनवाञ्छया 'कासिणाई वत्याई' कृस्नानि RE : 'नन 'शान' 'ताका' इति प्रसिदानि वस्त्राणि 'धरेई' घरति-अनागतकाले २ . मालिया दास्यामि' रति बुद्धचा 'वा' पा स्थापयति 'धरतं या साइज्जई' '' मी अनुमोदने म प्रायश्चिचभागी भवति ।मु० १९||
मृत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्म मेहुणवडियाए अहयाई वत्थाई घर धनं वा माइज्जइ।मृ०२०॥जे भिस्व माउग्गामस्स मेहुणवडियाए घोपाई बन्या धग्इ घग्नं वा माइज्जइ ।।१०२१|| जे भिक्खू माउग्गामस्स महटियाए चित्ताई वत्याई धरेइ धतं वा साइज्जइ खू०२२॥ जे भिनय माउग्गामम्म महणवडियाए विचित्ताई वत्थाई घरेइधरतं वा माउन्ज । २३॥
माया गाभिमांगनामम्य मैथुनपनिया पानानि यरराणि धरति परन्तं या म
यो निरमायग्रामभ्य मैनप्रनिया धौतानि धम्माणि घरति परन्तं या Pri. .यो निजामग्रमामय मेगनप्रनिया नियाणि घस्याणि घरति घन्तं
का ' ' गो निर्माणामस्य मशुननिया विचित्राणि यस्पाणि घरति भा०२३॥
भिनावारग विनित्रवारपर्यन्नानि चवारि : :: :. , APE: -नागनानि बन्नुमायादानं नानि ।। म०२०॥ धोनानि-रज":...
| परनजनानि ॥ मृ०२२॥ विनिग्रागि
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ६ सू० २४-२७
मातृप्रामप्रकरणम् १६९ । सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्ज ||सू०२४॥
छाया-यो भिक्षुर्मातग्रामस्य मैथुनप्रतिशया आत्मनः पादौ आमार्जयेद्वा प्रमार्जयेद्वा आमार्जयन्तं वा प्रेमार्जयन्तं वा स्वदते ॥सू० २४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउगामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'अप्पणो पाए' आत्मनः स्वस्य पादौ चरणौ 'आमजेज्ज वा' आमार्जयेद्वा एकवारं वस्त्रादिना 'पमजेज्ज वा प्रमार्जयेद्वा अनेकवारम् 'आमज्जतं वां पमज्जंतं वा साइज्जइ' आमार्जयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २४ ॥
सूत्रम्- एवं तइयउद्देसे जो गमो सो चेव इहंपि मेहुणवडियाए णेयवो जाव जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए गामाणुगामं दूइज्जमाणे अप्पणो सीसदुवारियं करेइ करतं वा साइज्जइ । सू०२५॥
छाया-एवं तृतीयोद्देशके यो गमः स एव इहापि मैथुनप्रतिज्ञायां शातव्यः यावत् यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया ग्रामानुग्रामं द्रवन् आत्मनः शीर्षद्वारिकां करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० २५॥
___ चूर्णी--'एवं तइयउद्देसए' इत्यादि । 'एवं तइयउद्देसए' एवं तृतीयोदेशके 'जो गमो' यो गमः सूत्रप्रकारः 'सो चेव इहंपि मेहुणवडियाए णेयव्वो' स एव गमः इहापि षष्ठोद्देशके मैथुनप्रतिज्ञायामपि ज्ञातव्यः । कियत्पर्यन्तम् ? इत्याह-'जाव' इत्यादि, इतः पादसंवाहनसूत्रादारभ्य शीर्पद्वारिकासूत्रपर्यन्तानि सूत्राणि तृतीयोदेशकोक्तसूत्रवद् अत्रापि मैथुनप्रतिज्ञया व्याख्येयानि । अत्राह भाष्यकारः
"पायप्पमज्जणाई, सीसदुवारांत जो गमो तइए।
मेहुणवडियाए पुण, छटुइसंमि सो चेव ।। छाया-पादत्रमार्जनादि, शोर्पद्वारिकान्त यो गमस्तृतीयोद्देशके ।
मैथनप्रतिज्ञया पुनः षष्ठोद्देशके स एव ॥ अवचूरिः- 'पायप्पमज्जणाई इत्यादि सुगमम् ॥ सू० २५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए खीरं वा दहिं वा णवणीयं वा सप्पिं वा गुलं वा खंडं वा सक्करं वा मच्छंडियं वा अन्नयरं वा पणीयं आहारं आहारेइ आहरंतं वा साइज्जइ ॥सू० २६॥
२२
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१७०
निशीथसूत्रे छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मथुनप्रतिक्षया क्षीरं वा दधि वा नवनीतं वा सपि र्धा गुडं वा खण्डं वा शर्करा वा मत्स्यण्डिकां वा अन्यतरं प्रणीतमाहारमाहरति आहरन्तं वा स्वदते ॥सू० २६॥
चूर्णी-जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउगामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'खीरं वा' क्षीरं वा दुग्धम् गवादीनां दुग्धम् 'दर्हि वा' दधि वा 'णवणीयं वा' नवनीतं वा 'मक्खन' इति लोकप्रसिद्धम् 'सप्पि वा' सर्पिघृतं वा 'गुलं वा' गुडं वा 'खडं वा' खण्ड वा 'खांड' 'चीनी' इति लोकप्रसिद्धम् 'सक्करं वा' शर्करां वा 'बूरा' इति प्रसिद्धाम् ‘मच्छंडियं वा' मत्स्यण्डिका वा मिसरीति लोकप्रसिद्धाम् 'अन्नयरं वा पणीयं अन्यतरं वा प्रणीतम् मरसम् 'आहार' आहारम् 'आहरेई' आहरति दुग्धादिविकृतीनां भोजनं करोति । अयं भावः-विवर्णः शरीरदुर्वलः श्रमणः दुग्धादीनां भोजनादुपचितशरीरः सुकुमारशरीरः कामिनीनां कमनीयः स्यामिति बुद्ध्या दुग्धाद्यन्यतमं विकृतीनां भोजनं करोति सः, तथा 'आहात वा साइज्जई' आहरन्तं वा स्वदते अनुमोदते यः सोऽपि प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति सू० २६॥
सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं ति ॥ सू० २७॥
छाया-तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिक परिहारस्थानमनुद्घातिकमिति ॥२७॥
चूर्णी-'त सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे तत् सेवमानः षष्ठोदेशकस्य 'जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए विण्णवेइ विण्णवेत वा साइज्जई' इति प्रथमसूत्रादारभ्य 'जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए खीरं वा' एतत्सूत्रपर्यन्तं कथितं प्रायश्चित्तस्थानं सर्व, तथा अन्यतममपि प्रायश्चित्तस्थानं सेवमानः तस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् भिक्षुः 'आवज्जइ' आपद्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासिय परिहारहाणं अणुग्याइयं' चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् गुरुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तमापद्यते इति भावः ॥ सू० २७|| इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायां पष्ठोद्देशकः समाप्तः ॥६॥
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॥ सप्तमोद्देशकः ॥
(मातृग्रामप्रकरणम् )
व्याख्यातः षष्ठोद्देशकः, सांप्रतमवसर प्राप्तः सप्तमोद्देशको व्याख्यायते, अस्य सप्तमोद्देशकीत्यादिसूत्रस्य षष्ठोदेशकान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इति चेद् अत्राह भाष्यकारः
भाष्यम् – अंतो भूसणमाहारो, बाहिं भूसा उ मालिया । इणमो चेव संबंधो, छट्ठेण सत्तमस्स उ ॥
छाया - अन्तर्भूषणमाहारो बाह्यभूषा तु मालिका । अयमेव हि सम्बन्धः षष्ठेन सप्तमस्य तु ॥
अवचूरि : - 'अंतो भूसणमाहारो' इत्यादि । ' आहारः' दुग्धदध्यादिविकृतिपदार्थाना - माहारो अन्तर्भूषणम् । मालिका - पुष्पमालादिकं तु बाह्यभूषणं साधूनां प्रतिषिद्धम्, अयमेव सम्वन्धः षष्ठेन - षष्ठान्तिमसूत्रेण सह सप्तमोद्देशकादिसूत्रस्य भवतीति । अयं भावः - षष्ठोदेशकस्योपान्त्य सूत्रे 'जे भिक्खू माउग्गामस्त मेहुणवडियाए खीरं वा' इत्यादिविकृत्याहारस्य प्रतिषेधः कृतः, अत्र तु सप्तमोद्देशकादिसूत्रे मालिकानां प्रतिपेधः क्रियते यतो मा भवतु साधोर्बाह्यभूषणम् इति बाह्याभ्यन्तरभूषणप्रतिषेघस्य समानत्वात् षष्ठोद्देशकानन्तरं सप्तमोद्देशकस्य निरूपणं क्रियते, अयं - मेव सम्बन्धः पूर्वापरसूत्रयोर्भवति । तदनेन सम्बन्धेनायातस्य सप्तमोद्देशकस्य प्रथमं सूत्रं प्रस्तूयते'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम् — जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा वेत्तमालियं वा मयणमालियं वा पिछमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालियं वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्टमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा बीयमालियं वा हरियमालियं वा करेइ करें वा साइज्जइ ॥ सू० १ ॥
छाया- यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया तृणमाणिकां वा मुञ्जमालिकां वा वेत्रमालिकां वा मदनमालिकां वा पिच्छमालिकां वा दन्तमालिकां वा शृङ्गमालिका वा शङ्खमालिकां वा अस्थिमालिकां वा काष्ठमालिकां वा पत्रमालिकां वा पुष्पमालिकां वा फलमालिकां वा बीजमालिकां वा हरितमालिकां वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० १ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुर्निरवद्यभिक्षणशीलः श्रमणः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनदाञ्छया 'तणमालियं वा' तृणमालिकां वा वीरणादितृणजनित
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निशीथयो मालां करोति, यथा मथुरायां करोति, करोतीत्यनिगेण क्रियापदेन ममम., नया 'मुंजमालियं या मुञ्जमालिकां मुंजस्य तन्नामकतृणविशेषस्य मालां करोनि यथा दिनानां गनबन्धने कियने, नया 'वेत्तमालियं वा वेत्रमालिकां वा वेत्रं लताविगंपः 'वत्र' 'नत्र' इति लोकप्रमियम , तर येयम्य मानां कटककेयूरादिरूपां करोति तथा 'मयणमालियं वा' मदनमालिकां या, नत्र मानं पुपनिशेषः, तम्य मालां करोति तथा 'पिछमालियं वा' पिनमालिका वा पगादिपीडानिवारणार्थ मयूगदिपिमालां करोति 'दंतमालियं वा' दन्दमालिकां वा-बालस्य दृष्टिदोषनिवारणार्थ दग्न्याटिदानानां मालां करोति तथा "सिंगमालियं वा शृrमालिकां वा-महिप्यादिशोण माला बगेनि गथा पागीय. जातिविशेपे 'संखमालियं वा' शामारिकां वा-बास्य गले मारणाम्य मान्द्रां फगेनि 'हड्डमालियं वा' अस्थिमालिकां वा गजादिजीवानाम् 'जय' इति प्रमिदचपदपाविशंपरय वा भस्थ्नां मालां करोति 'ऋतुमालियं वा' काष्ठमालिकां वा, नत्र काष्ठस्य सुलायाटिकाष्टम्य मालां करोति 'पत्तमालियं वा' पत्रमालिका वा पत्राणां तगरादिमगधिनपत्राणां मालां करोति 'पुप्फमालियं वा' पुष्पमालिकां वा, तत्र पुप्पाणां पादिरामगुम्नानां गानां फगेति, 'फलमालियं वा' फलमालिकां, तत्र फलानां गुजादिफलाना मानां गति 'बीगमालियं या वीजमालिकां वा, तत्र वीजानां रुद्राक्षादीनां मालां सपादयति 'हरियमालियं वा इस्तिमारिका वा, तत्र-हरितकायानां पाण्डप्रमृतिरोगगमनाय 'दूर्वापुनर्नवादीना गाला 'करंद' फगेनि स्वयं करोति 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते तृणमाटिकादिकं य. स्वयं करोति परद्वारा वा कारयति कुर्वन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चिचभागी भवति, तथा नरयाजाभाादिका दोपाश्चापि भवन्ति, यस्मादेते दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात् श्रमणो मागप्रामस्य मधुनसेवनेच्या स्वपरशरीरशोभा दृष्टिदोपरोगादिनिवारणार्थ वाऽन्यार्थ तृणादिमालां न स्वयं कुर्यान् न परद्वारा कारयेत् न वा कुर्वन्तमन्यमनुमोदयेदिति ।। मू० १ ॥
. . सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तणमालिय वा मुंज मालियं वा वेत्तमालियं वा मयणमालियं वा पिंछमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालियं संखमालिय वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुफमालियं वा फलमालिय वा वीयमालिय वा हरियमालिय वा धरेइ धरेत वा साइज्जइ॥ सू० २॥
छाया-यो भिक्षुर्मादृग्रामस्थ मैथुनप्रतिश्या तृणमालिकांचा मुजमालिकां वा वेत्रमालिकां वा मदनमालिकां वा पिच्छमालिकां वा दन्तमालिका वा शृङ्गमालिकां वा शह
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ७ सू० २-५
. मातग्रामप्रकरणम् १७३ मालिकां वा अस्थिमालिकां वा काष्ठमालिका वा पत्रमालिकां वा पुष्पमालिकां वा फलमालिकां वा वीजमालिकां वा हरितमालिकां वा धरति धरन्तं वा स्वदते ॥सू. २॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । पूर्वोक्ता मालाः 'धरेइ' धरति-पार्श्वे स्थापयति, घरन्तं वा स्वदते इति । शेषं पूर्ववत् ।। सू० २॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा वेत्तमालियं वा मयणमालियं वा पिंछमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालियं वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमा. लियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा बीयमालियं वा हरियमालियं वा पिणद्धेइ पिणखेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३ ॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया तृणमालिकां वा मुञ्जमालिकां वा वेत्र मालिकां वा मदनमालिका वा पिच्छमालिकां वा दन्तमालिकां वो शृङ्गमालिका वा शकमालिकां वा अस्थिमालिकां वा काप्टमालिका वा पत्रमालिकां वा पुष्पमालिकां वा फलमालिकां वा चीजमालिकां वा हरितमालिकां वा पिनाति पिनहन्तं वा स्वदते ॥सू० ३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । यो भिक्षुः तृणादीनां मालां पूर्वोक्तवस्तुजातनिर्मितां मालां 'पिणद्धेई' पिनाति-कण्ठे धारयति पिनान्तं का स्वदते अनुमोदते । आभिर्मालाभिर्मदीयं शरीरमलंकृतं सुन्दरं भवतु, अलकृतेन सुन्दरेण शरीरेणाहं कामिनीनां प्रियो भविष्यामि तेन सा मम मैथुनेच्छा पूरयिष्यतीति बुद्ध्या तृणादिमालाः यः कश्चिद्भिक्षुः स्वयं कण्ठे धारयति धारयन्तं चान्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, आज्ञाभङ्गादिदोषांश्च प्रामोतीति ।। सू० ३ ॥ भाष्यम्-तणमाइमालियाणं, करणं धरणं च मेहुणिच्छाए ।
कुज्जा अप्पपरहा, आणाभंगाइ पावे ॥ छाया-तृणादिमालिकानां करणं धरणं च मैथुनेच्छया ।
कुर्यातू आत्मपरार्थ, आज्ञाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरि:--'तणमाइ' इत्यादि । यो भिक्षुः 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया मैथुनेच्छया तृणादिमालिकानां करणं संपादनं धरणं स्वशरीरे धारणं च कुर्यात् स आज्ञाभङ्गादिदोषान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादिदोषान् प्राप्नोति । अयं भावः-तृणादिमालाकरणे धारणे मालया शरीरविभूपाकरणे च स्वस्य परस्य मोहोदयो जायते, तथा तृणादिमालाकरणे तद्धारणकरणे च सूत्रार्थपठनपाठनसमयस्य व्यर्थनिर्गमनेन सूत्रार्थयोर्हानिर्भवति, तीर्थकरैरनाज्ञप्त
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निशीथसूत्रे
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च । द्रव्यलोलुपैश्चारैः कदाचिद् गृहीतो भवति, मालादि दृष्ट्वा असाधुरयमितिकृत्वा कोट्टपालादिभिः गृहीतो राजदण्डभाग् भवति, कस्मैचिद वितरणे कस्मैचिद् अदाने च कदाचित् अधिकरणमपि स्यात्, तथा लोके निन्दापि स्यात्, लोका एवं वदिष्यन्ति - यत् अहो आश्चर्यमेतत् यत् जैनसाधवो निवृत्तभावसम्पन्ना अपि मालां कुर्वन्ति धारयन्ति च । केचन एवं वदिष्यन्ति यत्-एते आत्मानं निवृत्तरागद्वेपं मन्यमाना अपि मालां कुर्वन्ति धारयन्ति चेत्यादिरूपेण क्रमपरम्परया शासनस्य लोकेऽवहेलना स्यात् अतस्तृणमालादीनां करणं धारणं तदनुमोदनं च न कर्तव्यमिति भावः | ३ ||
सूत्रम् -- जे भिक्खू माउग्गामस्त मेहुणवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा वेत्तमालियं वा मयणमालियं वा पिंछमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालियं संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्टमालियं वा पत्तमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा वीयमालियं वा हरियमालियं वा परि भुंजइ परिभुजंत वा साइज्जइ ॥ सू० ४ ॥
छाया -यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया तृणमालिकां वा मुञ्जमालिकां वा वेत्रमालिकां वा मदनमालिकां वा पिच्छमालिकां वा दन्तमालिकां वा शृङ्गमालिकां वा शङ्खमालिकां वा अस्थिमालिकां वा काष्ठमालिकां वा पत्रमालिकां वा पुष्पमालिकां वा फलमालिकां वा वीजमालिकां हरितमालिकां वा परिभुक्ते परिभुञ्जानं वा स्वदते ॥ सू० ४ ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । तृणादिमालिकानां परिभोगं करोति- नानाप्रकारेण तासां स्वकार्यनिमित्तं परिभोगं करोतीति भावः ॥ सू० ४ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अयलोहाणि वा तंबलोहाणि वा तउलोहाणि वा सीसगलोहाणि वा रुप्पलोहाणि वा सुवण्णलोहाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ || सू० ५||
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिचया अयोलोहान् वा ताम्रलोहान् घा पुलोद्दान् वा सीसकलोहान् घा रूप्यलोहान् वा सुवर्णलोद्दान् वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते || सू० ५||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातूग्रामस्य ‘मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'अयलोहाणि वा' अयोलोहान् वा 'लोहाणी' - यत्र लोह - शब्दो देशीयः, तदर्थस्तु आकारविशेषस्तान्, तथा च अयसो लोहस्य आकारविशेषान् वा तथा 'तंबलोहाणि वा' ताम्रलोहान् वा ताम्रस्य धातुविशेपस्य आकारविशेपान् 'तउयलोहाणि वा '
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०७ सू०६-११
मातग्रामप्रकरणम् १७५ त्रपुलोहान् वा त्रपु 'जसद' इति लोकप्रसिद्धम् तस्याकारविशेषान् 'सीसगलोहाणि वा' सीसकलोहान् वा, तत्र सीसकं धातुविशेषः 'सीसा' इति प्रसिद्धः तस्य आकारविशेषान् 'रुप्पलोहाणि वा' रूप्यलोहान वा, तत्र रूप्यं रजतं, तस्य आकारविशेषान् 'मुवण्णलोहाणि वा' सुवर्णलोहान् वा सुवर्णस्य आकारविशेषान् वा 'करेई' करोति मातृप्रामस्य मैथुनसेवनेच्छया लौहादिधातूनामाकारविशेषान् करोति तथा 'करेंतं वा साइज्जइ' लौहादीनामाकारविशेषान् कुर्वन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, लोहादिधातुभिराकारविशेषकरणे अग्न्यारम्भोऽनिवार्यों भवति, तथा तत्र धमनं फूत्करणमप्यावश्यकं तेन षट्कायोपमर्दनं भवति, ततः संयमविराधना, वस्त्रशरीरादिदहने आत्मविराधना चावश्यम्माविनी ततो भिक्षुर्लोहादिधातूनामाकारविशेषं न स्वयं कुर्यात् नापि कुर्वन्तमन्यमनुमोदेत इति भावः ।।सू० ५।। एवं 'धरेइ' 'परिभुजई' इति सूत्रद्वयमपि व्याख्येयम् ॥ सू० ६-७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए हाराणि वा अद्धहाराणि वा एगावली वा मुत्तावली वा कणगावली वा रयणावली वा कडगाणि वा तुडियाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा पट्टाणि वा मउडाणि वा पलंबसुत्ताणि वा सुवण्णसुत्ताणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ |सू०८॥
छाया-यो भिक्षुर्मातग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया हारान् वा अर्द्धहारान् वा एकावली घा मुक्तावली धा कनकावली वा रत्नावली वा कटकान् वा त्रुटिकानि वा केयूराणि वा कुंडलानि वा पट्टानि वा मुकुटानि वा प्रलम्बसूत्राणि वा सुवर्णसूत्राणि वा करोति कुर्वन्तं षा स्वदते ॥सू० ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'हाराणि वा' हारान् वा तत्र हारा अष्टादशसरिकाः, तान् 'अद्धहाराणि वा' अर्द्धहारान् वा, तत्रार्द्धहाराः नवसरिकाः, तान् ‘एगावली वा' एकावली वा एकसरिकां मालामित्यर्थः 'कणगावली वा' कनकावली वा कनकस्य सुवर्णस्यावली माला इति ताम् 'मुत्तावली वा' मुक्तावली वा, तत्र मुक्ता गजादिमुक्ताः, तासाम् आवलीमाला ताम् 'रयणावली वा' रत्नावली वा, तत्र रत्नानां कर्केतनादीनामावली माला ताम् 'कडगाणि वा' कटकान् वा, तत्र कटकाः 'कडा' इतिलोकप्रसिद्धाः, तान् कटकान् 'तुडियाणि वा' टिकानि वा-हस्ताभरणविशेषान् वा 'केऊराणि चा' केयूराणि वा 'भुजबंध' इतिलोकप्रसिद्धानि 'कुडलाणि वा' कुण्डलानि वा, तत्र कुण्डलानि कर्णाभरणानि तानि 'पाणि वा' पट्टानि वा, तत्र पट्टानि चतुरङ्गुलसुवर्णपट्टानि तानि 'मउडाणि वा' मुकुटानि वा शिरोभूषणानि 'पलंवमुत्ताणि वा'
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१७६
निशीथसूत्रे
प्रलम्बसूत्राणि वा सुवर्णनिर्मितानि लम्बायमानानि सूत्राणि तानि 'मुवण्णसुत्ताणि वा' सुवर्णसूत्राणि वा - सुवर्णस्य सूत्र विशेषलक्षणानि 'करेड़' करोति, एतानि हारादिकानि मातृग्रामस्य मैथुनसेवनेच्छया स्वयं संपादयति परद्वारा कारयति वा तथा 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते ॥ सू० ८ ॥
एवं पूर्वोक्तवस्तुविषये 'घरेह' 'परिभुंजह' इति सूत्रद्वयमपि पूर्ववद् व्याख्येयम् ॥ सू० ९-१० ॥
मूलम् — जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आईणाणि वा आईणपाउराणि वा कंबलाणिवा कंबलप । उराणि वा कोयराणि वा कोयरपाउराणि वा गोरमियाणि वा कालमियाणि वाणील - मियाणि वा सामाणि वा महासामाणि वा उट्टाणि वा उट्टलेस्साणि वा वग्धाणि वा विवरघाणि वा पलवंगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणि वा खोमाणि वा दुगुल्लाणि वा तिरीडपट्टाणि वा पतुलाणि वा पडलाणि वा चीणाणि वा असुयाणि वा कणगकंताणिवा कणगखचियाणि वा कणगचित्ताणि वा कणगविचित्ताणि वा आभरणाणि वा आभरणचित्ताणि वा आभरणविचित्ताणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ११ ॥
छाया -यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया आजिनानि वा आजिनप्रावरणानि वा कंबलान् वा कम्बलप्रावरणानि वा कोयराणिवा कोधरप्रावरणानि गौरमृगाणि वा कालमृगाणि वा नीलमृगाणि वा श्यामानि वा महाश्यामानि वा उष्ट्राणि वा उष्ट्रलेश्यानि वा व्याघ्राणि वा विव्याघ्राणि वा प्लवङ्गानि वा श्लक्ष्णानि वा श्लक्ष्णकल्यानि वा क्षौमाणि वा दुकूलानि वा तिरीटपट्टानि वा प्रतुलानि वा पटलानि वा चीनानि वा अंशुकानि वा कनककान्तानि वा कनकखचितानि वा कनकचित्राणि वा कनकविचित्राणि वा आभरणानि वा आभरणचित्राणि वा आभरणविचित्राणि वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ११ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया - मैथुनवान्च्या 'आईणाणि वा' आजिनानि वा - मृगचर्मवस्त्राणि 'आईणपाउराणि वा' आजिनप्रावरणाणि वा, तत्राजिनं मृगचर्म तस्य प्रावरणाणि - आच्छादनानि यः करोतीत्यग्रिमेण सम्बन्धः, 'कंवलाणि वा' कम्बलान्, तत्र कम्बला ऊर्णादिनिर्मितास्तान् 'कंचलपाउराणि वा' कम्बलप्रावरणानि वा, तत्र कम्बलस्य प्रावरणानि आच्छादनानि तानि यः करोति तथा 'कोयराणि वा' कोयराणि वा, तत्र कोयराणि कोयरदेशनिष्पन्ना वस्त्र विशेषाः
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चूर्णिभाष्यावद्भिः उ०७ सू० ११-६७ ...
मातग्रामप्रकरणम् १७७ तानि यः करोति 'कोयरपाउराणि वा' कोयरप्रावरणानि वा कोयरस्य वस्त्रविशेषस्य यानि प्रावरणानि आच्छादनानि करोति 'गोरमियाणि वा' गौरमृगाणि वा श्वेतमृगचर्माणि तच्चर्मनिर्मितवस्त्राणीत्यर्थः 'कालमियाणि वा' कालमृगाणि वा-कालमृगचर्माणि, तत्र कालमृगः-कृष्णमृगः तस्य यानि चर्माणि तेषां वस्त्राणि यः करोति 'णीलमियाणि वा' नीलमृगाणि वा-नील. मृगचर्माणि 'सामाणि वा' श्यामानि वा-श्याममृगचर्माणि 'महासामाणि वा' महाश्यामानि वाअतिशयितश्याममृगचर्माणि 'उट्टाणि वा' उष्ट्राणि वा उष्ट्रस्य यानि चर्माणि तानि वस्त्ररूपाणि यः करोति 'उदृलेस्साणि वा' उष्ट्रलेश्यानि वा उष्ट्रचर्मणः प्रावरणानि, 'वाग्याणि वा' व्याघ्राणि वा-व्याघ्रसम्वन्धिचर्मवस्त्राणीत्यर्थः, 'विवग्याणि वा' विव्याघ्राणि वा-विव्याघ्रः 'चित्ता' इति प्रसिद्धः, तत्सम्बन्धिचर्माणि चर्मवस्त्राणि 'पलवंगाणि वा' प्लवङ्गानि वा तत्र प्लवङ्गः-वानरः तस्य चर्माणि 'सहिणाणि वा' सहिनानि वा--लक्ष्णानि, तत्र सहिनानि श्लक्ष्णानि श्लक्ष्णवस्त्राणि यः करोति 'सहिणकल्लाणि वा' सहिनकल्यानि तत्र सहिनानि लक्ष्णानि कल्लानि स्निग्धानि कोमलानि कोमलत्वलक्षणयुक्तानि वा वस्त्राणि करोति 'दुगुल्लाणि वा' दुकूलानि वा, तत्र दुकूलानि कार्यासिकानि वस्त्राणि 'पडलाणि वा' पटलानि वा 'चीणाणि वा' चीनानि वा चीनदेशोद्भवानि वस्त्राणि 'अंसुयाणि वा' अंशुकानि वा कीटनवस्त्राणि 'रेशम' इति प्रसिद्धवस्तुवस्त्राणि वा 'कणगकताणि वा' कनककान्तानि वा, तत्र कनकं सुवर्ण तत्सदृशकान्तियुक्तानि वस्त्राणि 'कणगखचियाणि वा' कनकखचितानि वा-कनकजटितानि वस्त्राणि 'कणगचित्ताणि वा' कनकचित्राणि वा कनकेन सुवर्णेन चित्रितानि वस्त्राणि 'कणगविचित्ताणि वा' कनकविचित्राणि कनकेन विचित्रप्रकारकाणि वस्त्राणि 'आभरणाणि वा-आभरणानि अलंकारयुक्त वस्त्राणि 'आभरणचित्ताणि वा' भाभरणैरलंकारैचित्रितानि 'आभरणविचित्ताणि वा' आभरणविचित्राणि वा विचित्रप्रकारकाभरणमण्डिताति वस्त्राणि, एतादृशानि उपयुक्तानि चर्मादीनां वस्त्राणि यो भिक्षुर्मैथुनसेवनेच्छया 'करेइ' करोति 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ११ ॥
एवम् पूर्वसूत्रोक्तवस्त्रविषये 'धरेई' 'परि जइ' इति सूत्रद्वयमपि बोध्यम् ॥१२॥ सू० १३ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए इत्थिं अक्खंसि वा उरंसि वा उयरसि वा थणसि वा गहाय संचालेइ संचालतं वा साइज्जइ ॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया स्त्रियम् अक्षे वा उरसि वा उदरे वा स्तने वा गृहीत्वा संचालयति संचालयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४ ॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'इत्थि' स्त्रियम् 'अक्खसि वा' अक्षे
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निशीथसूत्रे १७८ कस्मिंश्चिदिन्द्रियप्रदेशे वा 'उरसि वा' उरसि वा-हृदयप्रदेशे 'उयरंसि वा'-उदरे वा कुक्षिप्रदेशे 'थणंसि' वा' स्तने वा-उपलक्षणात् हस्तादिके वा 'गहाय' गृहीत्वा-स्त्रियोऽक्षादिकं गृहीत्वेत्यर्थः 'संचालेइ' संचालयति इतस्ततः चालयति 'संचालत वा साइज्जई' संचालयन्तं वा स्वदते। यो हि भिक्षुर्मैथुनसेवनेच्छया स्त्रीणामक्षादिकं गृहीत्वा चालयति चालयन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ।
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिशया अन्योन्यस्य पादौ आमार्जयेद्वा प्रमाजयेद्धा आमार्जयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १५ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य परस्परम् स्त्री साधोः, साधुश्च स्त्रियाः ‘पाए' पादौ-चरणौ 'आमज्जेज्ज वा' आमार्जयेत् वा एकवारम् 'पमज्जेज्ज वा' प्रमार्जयेद्वा अनेकवारम् 'आमज्जंतं वा आमार्जयन्तं वा 'पमज्जंतं वा' प्रमार्जयन्तं वा 'साइज्जई' स्वदतेऽनुमोदते । यो हि भिक्षुर्मैथुनसेवनेच्छया परस्परं चरणौ प्रमार्जयेत् प्रमार्जयन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १५ ॥
सूत्रम्-एवं तइयउदेसे जो गमो सोणेयवो जाव जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए गामाणुगामं दुइज्जमाणे अण्णमण्णस्स सीसदुवारियं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१६-६७॥
छाया-एवं तृतीयोद्देशके यो गमः स ज्ञातव्यो यावत् यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया ग्रामानुग्राम द्रवन् अन्योन्यस्य शीर्पद्वारिकां करोति कुवन्तं वा स्वदते इत्यादि । सू०१६-६७ ॥
चूर्णी- ‘एवं तइय' इत्यादि । ‘एवं तइयउद्देसे गमो' एवं तृतीयोद्देशके यो गमः. आलापकः स अत्रापि मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया परस्परं पादयोरामर्जनादिसूत्रेषु णेयवों ज्ञातव्यः । कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव' इत्यादि । 'जाव' यावत् यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया 'अण्णमण्णरस पाए आमज्जेज्ज वा' इत्यादि सूत्रादारभ्य 'जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए गामाणुगामं दूइज्जमाणो अण्णमण्णस्स सीसवारियं करेइ' एतत्सूत्रपर्यन्तं स गमो ज्ञातव्य इति भावः ॥ सू० १६-६७ ॥
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चूर्णिभाष्यावद्भिः उ.७ सु. ६८-७६
मातग्रामप्रकरणम् १७९ सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अणंतरहियाए पुढवीए णिसीयावेज्ज वा तुयहावेज्ज वा णिसीयावेतं वा तुयट्टावेत वा साइज्जइ सू० ६८॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अनन्तरहितायां पृथियां निषीदयेत् वा त्वग्वर्तयेद्वा निषीदयन्तं वा त्वग्वर्तयन्तं वा स्यदते ॥सू० ६८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'अणंतरहियाए पुढवीए' अनन्तरहितायां पृथिव्याम् तत्र अनन्तरहिताया शीतवातादिशस्त्रेरनुपहतायां सचित्तायाम् , पृथिव्याम् तथा चैतादृशसचित्तभूमौ यो भिक्षुर्मैथुनसेवनेच्छया अत्र 'स्त्रियं' इति गम्यते ततः लियमित्यर्थः 'णिसीयावेज्ज वा' निषीदयेद्वा उपवेशयेत् 'तुयहावेज्ज वा' त्वग्वर्तयेद्वा-पार्श्वपरिवर्तनं कारयेत् स्वापयेद् वा इत्यर्थः तथा 'णिसीयावेतं वा निषीदयन्तं वा उपवेशनं कारयन्तम् 'तुयावेत वा' त्वग्वर्तयन्तं वा पार्श्वपरिवर्तनं कारयन्तम् 'साइज्जई' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० ६८||
एवं पूर्वोक्तसूत्रक्रमेण यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनेच्छ्या स्त्रियं 'ससणिद्धाए पुढवीए' सस्निग्धायां-सचित्तजलेन ईपदार्टायां पृथिव्याम् ॥सू० ६९॥ ससरक्खाए पुढवीए' सरजस्कायां सचित्तरजोऽवगुण्ठितायां पृथिव्याम् ॥सू० ७०॥ 'मट्टियाकडाए पुढवीए' मृत्तिकाकृतायां सचित्त मृत्तिकानिर्मितायां पृथिव्याम् ॥सू० ७१॥ 'चित्तमंताए पुढवीए' चित्तवत्यां स्वभावतः-सचित्तायां खनिरूपायां पृथिव्याम् ॥सू० ७२।। 'चित्तमंताए सिलाए' चित्तवत्यां सचित्तायां खनितः सद्यो निष्कासितायां शिलायाम् ॥सू० ७३॥ 'चित्तमंताए लेलुए' चित्तवति सचित्ते लेलुके-लोष्टरूपे पृथिवीखण्डे, एतेषु पूर्वप्रदर्शितेषु स्थानेषु स्त्रियम्, 'निसीयावेज्ज वा निषीदयेत् वा उपवेशयेत् 'तुयट्टावेज्ज वा' त्वम्वर्तयेत् वा पार्श्वपरिवर्तनं कारयेत् शाययेत्- वा तत्र शयनं कारयेद्वा, एवं कारयन्तमन्यं वाऽनुमोदयेत् स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७४ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए कोलावासंसिवा दारुए वा जावपइट्ठिए, सअंडे सपाणे सबीए सहरिए सओसे सउदए सउत्तिंग-पणग-दगमट्टिय-मक्काडासंताणगंसि णिसीयावेज्जवा तुयटावेज्ज वाणिसीयावेतं वा तुयथावतं वा साइज्जइ ।। सू०७५ ॥
___छाया-यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिशा कोलावासे वा दारुके वा जीवप्रतिठिते साण्डे सप्राणे सवीजे सहरिते सावश्याये सोदके सोत्तिङ्गपनकदकमृत्तिकामर्कटसन्तानके निपीदयेत् वा त्वग्वर्तयेद्वा निषीदयन्तं वा त्वग्वर्तयन्तं वा स्वदते ॥सू०७५।।
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निशीथसूत्रे
१८०
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गास्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया मैथुनवाञ्छया 'कोलावासंसि वा' कोलावासे वा, तत्र कोला:घुणाः काष्ठगताः काष्ठक्षतिकारका जीवविशेषाः 'धुण' इति लोकप्रसिद्धाः, तेषां कोलानां य आवासः स्थानं तत्र वा 'दारुए वा जीवपइदिए' दारुके वा जीवप्रतिष्ठिते यस्मिन् काष्ठे जीवा विद्यमाना भवेयुः तादृशमत्कुणादिजीवविशिष्टपीठफलकादिके 'सअंडे' साण्डे पिपौलकाधण्डसहिते स्थाने काष्ठे वा 'सपाणे' सप्राणे क्षुद्रद्वीन्द्रियादिप्राणियुक्तस्थाने 'सवीए' सबीजे शाल्यादिसचित्तबीजयुक्तस्थाने 'सहरिए' सहरिते हरितकायसहितस्थाने 'सओसे' सावश्याये-सूक्ष्महिमकणसहितस्थाने 'सउत्तिंग' सउत्ति), उत्तिङ्गकाः-भूमौ वर्तुलविवरकारिणो गर्दभमुखाकृतयः कीटविशेषाः, यद्वा कीटिकानगरादयः, तैः सहिते स्थाने 'पणग' पनकः-अङ्करितो अनङ्कुरितो वा पञ्चवर्णानन्तकायविशेषः 'फुलण' इति भाषाप्रसिद्धः 'दगमट्टिय' उदकमृत्तिका सजलपृथिवीकायः 'मक्कडासंताणगंसि' मर्कटसन्तानकः खताजालम् , तस्मिन्, एतेषु पूर्वोक्तघुणादियुक्तस्थानेषु यः श्रमणः स्त्रियं 'णिसीयावेज्ज वा' निषीदयेत्उपवेशनं कारयेत् , 'तुयद्यावेज्ज वा त्ववर्तयेद्वा पार्श्वपरिवर्तनं कारयेसू तथा 'निसीयावेतं वा' निषीदयन्तम् उपवेशयन्तं वा 'तुयट्टावेतं वा त्वग्वर्तयन्तं वा शाययन्तं वा 'साइज्जई' स्वदतेऽनुमोदते । यो भिक्षुमातृप्रामस्य मैथुनेच्छया सूत्रोक्तस्थानेषु स्त्रियमुपवेशयति शाययति वा, उपवेशयन्तं शाययन्तं वा अनुमोदते सप्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ।।२०७५॥ ___ सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आगंतागारेसु वा आरामागरेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा णिसीयावेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा णिसीयावेतं वा तुयटूटावेतं वा साइज्जइ ॥ सू०७६॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिशया आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु घा गाथापतिकुलेपु वा परिव्राजकावसथेषु वा निषीदयेद्वा त्वग्वर्तयेद्वा निषीदयन्तं वा त्वग्वर्तयन्तं वा स्वदते ॥ सू • ७६ ॥ ।
चूर्णी-जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'आगंतागारेमु वा' आगन्त्रागारेषु वा .आगन्तॄणाम् आगन्तुकानां गमनागमनसमये विश्रामार्थकारितेषु गृहेषु धर्मशालेतिप्रसिद्धेषु वा 'आरामागारेसु वा' आरामागारेषु वा क्रीडाकरणाय उपवनगृहेषु 'गाहावइकुलेसु वा' गाथापतिकुलेपु वा- गृहस्थगृहेषु 'परियावसहेषु वा' परिव्राजकावसथेषु वो तापसनिवासस्थानेषु वा 'णिसीयावेज्ज वा' निषीदयेत् वा उववेशयेत् 'तुयट्टावेज्ज वा' त्वग्वर्तयेद्वा शाययेत् 'णिसीयात्रेते वा निपीदयन्तं वा 'तुयटात वा त्वग्वर्तयन्तं वा शयनं कारयन्तम् 'साइज्जई'
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०७ सू०७७-७९
मातृग्रामप्रकरणम् १८१ स्वदते । यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनसेवनेच्छया आगन्त्रागारादिषु स्वयमुपविशति स्त्रियं वा उपवेशयति तथा स्वयं शेते स्त्रियं वा शाययति च तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्तीति ॥ सू० ७६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा निसीयावेत्ता वा तुयट्टावेत्ता वा असणंवा पाणं वा खाइमं वा साइमं अणुग्घासेज्ज वा अणुपाएज्ज वा अणुग्घासंतं वा अणुपाएंतं वा साइज्जइ॥ सू० ७७ ॥ __ छाया-यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेपु वा परिव्राजकावसथेषु वा निषध वा त्वग्वर्तयित्वा वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाध वा अनुग्रासयेत् वा अनुपाययेत् वा अनुग्रासयन्त वा अनुपाययन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७७ ॥
चूर्थी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'आगंतागारेसु वा' आगन्त्रागारेषु वा यत्रागन्तुका गमनागमनसमये विश्राम्यंति तादृशं गृहमागन्तुकागारः धर्मशालेतिलोकप्रविद्धः, तेषु 'आरामागारेसु वा' आरामागारेषु वा क्रीडार्थमागतपुरुषविश्रामार्थोपवनस्थितगृहेषु 'गाहावइकुलेसु वा' गाथापतिकुलेषु वा गृहस्थगृहेषु 'परियावसहेसु वा' परिव्राजकावसथेषु वा तापसानामाश्रमेषु, भिक्षुरेतादृशस्थानेषु स्त्रियम् 'णिसीयावेत्ता' निषध-उपवेश्य 'तुयट्टावेत्ता वा'' त्वग्वर्तयित्वा वा 'असणं वा' अशनं वा 'पानं वा' पानं वा 'खाइमं वा' वाद्य वा 'साइमं वा' स्वाचं वा 'अणुग्घासेज्ज वा' अनुग्रासयेद्वा-अनु-पश्चात् स्वग्रासग्रहणानन्तरं स्त्रियं ग्रासयेत् तन्मुखे प्रासं दद्यात् 'अणुपाएज्ज वा' अनुपाययेद्वा स्वयं जलादिकं पीत्वा तदन्तरं स्त्रियं पाययेत् 'अणुग्घासंतं वा' अनुप्रासयन्तं वा स्वग्रासानन्तरं ग्रासं ददतं वा 'अणुपाएतं वा' अनुपाययन्तं वा स्वपानानन्तरं पाययन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते । यो भिक्षुरागन्त्रादिगृहेषु मैथुननेच्छया स्त्रियमुपवेध शाययित्वा वा स्वयमशनादिकं भुक्त्वा पानीयं वा पीत्वा भोजयन्तं वा पाययन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्तीति ॥सू० ७७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंकसि वा पलियंकंसि वा निसीयावेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा निसीयावेतं वा तुयट्टावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७८||
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૮૨
निशीथसूत्रे
-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्थ मैथुनप्रतिज्ञया अङ्के वा पर्यङ्के वा निधीदयेत्. वा
छाया
त्वग्वर्तयेत् वा निषीदयन्तं वा त्वग्वर्तयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७८ ॥
-
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'अंकंसि वा' अङ्के वा स्वकीयोत्सङ्गे 'पयिसिवा' पर्यके वा, तत्र पर्यङ्कः 'मंच' 'पलंग' इति भाषाप्रसिद्धः, तदुपरि 'णिसीया - वेज्ज वा' निषीदयेत् वा उपवेशयेत् 'तुयट्टावेज्ज वा' त्वग्वर्तयेत् वा-शयनं कारयेत् 'णिसीयावेंत वा' निपीदयन्तं वा उपवेशयन्तं वा 'तुयट्टावेतं वा' स्वग्वर्तयन्तं वा शाययन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते । यो भिक्ष मैथुनसेवनेच्छया स्त्रियं स्वाङ्के पर्यङ्के वा उपवेशयति वा शाययति वा तथा स्वाके उपवेशयन्तं वा शाययन्तं वा श्रमणमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोपा भवन्ति ॥ सू० ७९ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंकंसि वा पलियंकंसि वा णिसीयावेत्ता वा तुयट्टावेत्ता वा असणं वा पाणं वा खाइ वा साइमं वा अणुग्धासेज्ज वा अणुपाएज्ज वा अणुग्धासंतं वा अणुपाएतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७१ ॥
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया भने वा पर्यङ्के वा निषद्य त्वग्वर्तयित्वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्य वा अनुग्रासयेद्वा अनुपाययेद्वा अनुग्रासयन्तं वा अनुपाययन्तं वा स्वदते ॥सू० ७९ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिंद्र भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'अंकसि वा' अहे वा 'पलियंकंसि वा' पर्यङ्के वा 'णिसीयावेत्ता वा' निषद्य 'तुयट्टावेत्ता वा' त्वग्वर्तयित्वा वा अशनं वा पानं वा स्वाद्यं वा स्वाद्यं वा 'अणुग्घासेज्ज वा' अनुग्रासयेद्वा 'अणुपाएज्ज वा' अनुपाययेद् वा 'अणुग्धासंत वा' अनुग्रासयन्तं वा 'अणुपाएंतं वा' अनुपाययन्तं वा अन्यम् 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्व संयमवि राधनात्मविराधनादिदोषा भवन्ति ॥ सू० ७९ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णतरं तेइच्छं आउट्टइ आउट्टंतं वा साइज्जइ ॥ सू०८० ॥
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चूर्णिमाष्यावचूरिः उ० ७ सू ८०-८४ रजोहरणस्यानुचितबन्धनिषेधः १८३
छाया-यो भिक्षुर्मातग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया अन्यतमां चिकित्सां आवर्त्तयति आवत्यन्त वा स्वदते ॥सू० ८०॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'अण्णतरं तेइच्छं' अन्यतमा चिकित्सा, तत्रान्यतमा नाम-चतुर्विधासु चिकित्सासु एकां काश्चित् चिकित्साम् , ताश्चतस्रो यथावातिकी १, पैत्तिकी २, श्लैष्मिकी ३, सांनिपतिकी ४, तासु एकां काश्चित् चिकित्सां रोगोपचाररूपाम् 'आउटई' आवर्त्तयति कारयति 'आउटुंतं वा साइज्जई' आवर्तयन्तं कारयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते सा प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अमणुन्नाइं पोग्गलाई नीहरेइ नीहरेत वा साइज्जइ ॥ सू०.८१ ॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अमनोज्ञान् पुद्गलान् निर्हरति निर्हरन्तं वा स्वदते ॥सू० ८१॥ __ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया -मैथुनवाञ्छया 'अमणुन्नाई पोग्गलाई' अमनोज्ञान पुद्गलान् शरीरस्थान् अशुचिदुर्गन्धिपुद्गलान् 'नीहरेइ' निर्हरति-निष्कासयति 'नीहरेंतं वा साइज्जई' निर्हरन्तं वा शरीरादिभ्योऽमनोज्ञपुद्गलान् निष्कासयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८१॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए मणुन्नाई पोग्गलाई उवकिरइ उवकिरतं वा साइज्जइ ॥ सू०८२॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया मनोशान् पुनलान् उपकिरति उपकिरन्तं वा स्वदते ॥सू० ८२॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चित् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'मणुन्नाई पोग्गलाई मनोज्ञान पुद्गलान् मनस आल्हादजनकान् शरीरोपचयकारकान् वा पुद्गलान् शरीरे 'उवकिरई' उपकिरति प्रक्षिपति, अयं भावः-स्वशरीरे स्त्रीशरीरे वा स्वकीयवस्त्रे स्त्रीवस्ने वा स्ववसतौ श्रीवसतौ वा मनोहराणि चन्दनादिसुगन्धिद्रव्याणि प्रक्षिपति येन शरीरादिकं सुगन्धियुक्तं भवति, तथा 'उवकिरंत वा' उपकिरन्तमन्यं वा 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ८२ ॥
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नशीथसूत्रे
सूत्रम् —जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अन्नयरं पसुजायं वा पक्खिजायं वा पायंसि वा पक्खसि वा पुच्छंसि वा सीसंसि वा गहाय संचालेइ संचालेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८३ ॥
१८४
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अन्यतरं पशुजातं वा पक्षिनातं वा पादे वा पक्षे वा पुच्छे वा शीर्ष वा गृहीत्वा संचालयति संचालयन्तं वा स्वदते ॥ ८३ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए ' मैथनप्रतिज्ञया - मैथनवाञ्छया 'अन्नयरं ' अन्यतरं अनेकेषु मध्यात्
कमध्येकम् 'पजायं वा' पशुजातं वा गोमहिषादिकम् 'पक्खिजायं वा' पक्षिजातं वा मयूरादिकम् 'पायंसि वा' पादे वा - पशुपक्ष्यादीनां चरणे वा 'पक्खसि चा' पक्षे वा - 'पुच्छंसिं . वा' पुच्छे वा 'सीसंसि वा' शिरसि वा 'गहाय' गृहीत्वा 'संचालेइ' संचालयति परिभ्रामयति 'संचालतं वा साइज्जइ' संचालयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते । स्त्रिया मनोविनोदार्थमेवं करोतीति तात्पर्यम् । स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८३ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू माउग्गामस्त मेहुणवडियाए अन्नयरं पसुजायं वा पक्खिजायं वा सोयंसि कट्टं वा किलिंचं वा अंगुलियं वा सलागं वा अणुप्पवेसित्ता संचालेइ संचालेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८४ ॥
छाया -यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया पशुजातं वा पक्षिनातं वा स्रोतसिकाष्टं वा किलिंचं वा अङ्गुलिकां वा शलाकां वा अनुप्रवेश्य संचालयति संचालयन्तं वा स्वदते ॥० ८४||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथनप्रतिज्ञया - मैथनवाञ्छया 'अन्नयरं पसुजायं वा' अन्यतरं पशुजातं वा 'पक्खिजायं वा' पक्षिजातं वा मयूरहंसादिकम् 'सोयंसि' स्रोतसि छिद्रे गुप्ताङ्गे 'क वा' काष्ठं वा - काष्ठखण्डम् 'किलिंचं वा' किलिंचं वा, तत्र किलिंचो वंशकर्परी तम् अंगुलिय वा' अङ्गुलिकां वा 'सलागं वा' शलाकां वा लौहादिशलाकाम् 'अणुप्पवेसित्ता' अनुप्रवेश्य 'संचा लेइ' संचालयति 'संचालत वा साइज्जइ' संचालयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चितभागी भवति ॥ सू० ८४ ॥
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चूर्णिभाष्यावरिः उ०७ सू०८५-९०
मातृग्रामप्रकरणम् १८५ सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अन्नयरं पसुजायं वा पक्खिजायं वा 'अयमित्थि-त्ति कटु आलिंगेज्ज वा परिस्सएज्ज वा परिचुंबेज्ज वा आलिंगंत वा परिस्सयंतं वा परिचुंबतं वा साइज्जइ ८५
- छाया- यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिशया अन्यतरं पशुजातं वा पक्षिजातं वा 'इयं स्त्री-'ति कृत्वा आलिङ्गयेद्वा परिष्वजेत् वा परिचुम्बेत् वा आलिङ्गन्तं वा परिष्वनमानं परिचुम्वन्तं वा स्वदते ॥सू०८५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'अन्नयरं पसुनायं वा अन्यतरं पशुनातं वा 'पक्खिजायं वा' पक्षिजातं वा 'अयमित्थि'-त्ति कटु अयम् पशुः पक्षी वा 'त्री इति' स्त्रीबुद्धि तेषु कृत्वा 'आलिंगेज्ज वा' आलिङ्गयेद्वा-आलिङ्गनं कुर्यात् 'परिस्सएज्ज वा' परिष्वजेत वा परिष्वजनं विशेषतः आलिङ्गनम् 'परिचुंवेज्ज वा' परिचुम्वेत् वा मुखेन चुम्बनं कुर्यात् 'आलिगंतं वा' आलिङ्गन्तं वा 'परिस्सयंतं वा' परिष्वजमानं वा 'परिचुंबतं वा' परिचुम्बन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते । स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८५ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ।। सू० ८६॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिशया अशनं वा पानं वा खाद्य वा खाद्य वा ददाति ददतं वा स्वदते ॥सू० ८६॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वायं वा चतुर्विधमाहारजातं स्त्रिय 'देइ' ददाति 'देतं वा' ददतं वा 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते । यः कश्चित श्रमणो मातृग्रामस्य मैथुनसेवनेच्छया स्त्रिये अशनादिकं ददाति दापयति ददतं वा अनुमोदयति स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ।। सू० ८७॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्थ मैथुनप्रतिज्ञया अशनं वा पानं वा स्वाद्य वा वाद्य वा प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥सू० ८७॥
चूर्णी:-'जे भिक्खू' इत्यादि । यो भिक्षुमैथुनसेवनेच्छया चतुर्विधमाहारजातं प्रतीच्छति गृह्णाति प्रतीच्छन्तं वा गृह्णन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८७॥
२१
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निशीयसूत्रे
सूत्रम् - जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए वत्थं वा पडिग्गहं वा कंवलं वा पायपुंछणं वा देइ देतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८८ ॥
१८६
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतियां परस्त्र वा प्रतिग्रहं वा कम्पलं या पाद प्रछनकं वा ददाति ददतं वा स्वदते ||सृ० ८८॥
चूर्णी: - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया मैथुनवाञ्छया 'वत्थं वा' वर्ष वा 'पडिगहं वा' प्रतिग्रह वा पात्रादिकं वा 'केवलं वा' कम्बलं वा 'पायपुंछणं वा' पादप्रोञ्छनकं वा रजोहरणम् 'देह' ददाति 'देतं वा' ददतं वा 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायवित्तभागी भवति ॥ सू० ८८ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए वत्थं वा पडिग्ग
वां कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिच्छइ पडिच्छतं वा साइज्जइ || सू० ८९ ||
छाया -यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया वस्त्र वा प्रतिग्रहं वा कम्वलं वा पाद प्रोच्छनकं वा प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥०८९ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः मैथुनवाञ्छंया स्त्रीभ्यः वस्त्रादिकम् 'पडिच्छड़' प्रतीच्छति गृह्णाति 'पडिच्छंतं वा साइज्ज' प्रतीच्छतं वा गृहन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चितभागी भवति ॥ सू० ८९ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए सज्झायं वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९० ॥
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया स्वाध्यायं वाचयति वाचयन्तं वा स्वदते ॥सू० ९० ॥
'चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया मैथुनंवाञ्छया 'सज्झायं वाइ' स्वाध्यायं वाचयति, तंत्र स्वाध्यायं सूत्रमर्थं तदुभयं वाऽध्यापयति तथा 'वाएं वा साइज्जई' स्वाध्यायं वाचयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदके स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ९० ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू मांउग्गामस्स मेहुणवडियाए सज्झायं पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९९ ॥
छाया -यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया स्वाध्यायं प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं या स्वदते ॥ सू० ९९ ॥
चूर्णो - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया मैथनवाञ्छ्या 'सज्झायं पडिच्छर' स्वाध्यायं सूत्रार्थरूपं
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०७ सू०९१-९३.
मातग्रामप्रकरणम् १८७ प्रतीच्छति स्त्रीभ्यः गृह्णीयात् 'पडिच्छतं वा साइज्जई' प्रतीच्छन्तं गृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ९१ ।। '
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णयरेणं इंदिएणं आकारं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ।। सू० ९२॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिशया अन्यतरेण इन्द्रियेणाकारं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० ९२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'अण्णयरेणं इंदिएणं' अन्यतरेण केनापि इन्द्रियेण पुरुषस्य स्त्रियो वा इन्द्रियाकारेण स्तनमुखाधङ्गोपाङ्गरूपं किश्चिदपि इन्द्रियमाश्रित्येत्यर्थ , स्तनमुखादीनामिति भावः 'आकारं करेई' आकारं करोति, स्त्रियोऽने हस्तादिना चित्रकर्मणा वा एता दृशमाकारं रचयति चित्रयति वा येन स्त्रियो मनसि रागः समुत्पद्येत, शरीरं रोमाञ्चितं कम्पायमानं च भवेत् , 'मुखाद्याकारावलोकनेन द्रवीभूता सती स्त्री माममिलषिष्यति' इति बुद्ध्या स्त्रियोऽग्रे आकारं कुर्यात् चित्रयेद्वा उपलक्षणात् हस्तनेत्रभूप्रभृतिभिर्विकारजनका चेष्टां वा कुर्यात् 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तमन्यं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥१२॥
सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ।। सू० ९३ ॥
॥सत्तमो उदेसो समत्ते ॥ ७॥ . छाया-तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ॥१३॥
॥ सप्तमोद्देशकः समाप्तः ॥ ७॥ चूर्णी-तं सेवमाणे इत्यादि । 'त सेवमाणे' तत् सेवमानः तत् उद्देशकस्यादौ तृण- . मालिकादिकरणादारभ्य उद्देशकान्ते आकारपर्यन्तं यानि प्रायश्चित्तस्थानानि प्रोक्तानि तन्मध्यात् यत् किमप्येक प्रायश्चित्तस्थानं सेवमानः प्रतिसेवनं कुर्वाणः 'आवज्जई' आपद्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासिय' चातुर्मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं प्रायश्चित्तस्थानम् 'अणुग्याइयं' अनुद्घातिकं गुरुकम् । अयंभावः यः कोऽपि भिक्षुः एतेषु सप्तमोद्देशकोक्तप्रायश्चित्तस्थानेषु मध्यात् यत् किमपि एकम्-अनेक सर्व वा प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेवते स गुरुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीति भावः ॥९३॥ इति श्री-विश्वविख्यात--जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपधनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायां सप्तमोद्देशकः समाप्तः ॥७॥
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|| अष्टमोदेशकः ॥
`गतः सप्तमो देशकः, अथाष्ठमः प्रारम्यते, सप्तमोदेशकस्यान्तिमसूत्रेण सहास्याष्टमोद्देशकादिसूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इति सम्बन्धप्रतिपादनायाह भाष्यकारः -- 'पुत्रं खलु' इत्यादि । भाष्यम् – पुच्वं खलु आगारा, कहिया ते कहिं कचिहा होति । आगंतागाराइसु, विहार-सज्झाय - भिईओ ॥१॥
छाया - पूर्व खलु धाकाराः कथितास्ते कुत्र कतिविधा भवन्ति । आन्त्रागारादिषु विहार- स्वाध्याय-प्रभृतयः ॥ २ ॥
अवचूरिः -- पूर्व सप्तमोद्देशकस्यान्तिमसूत्रे आकाराः कथिताः, ते च केषु केषु स्थानेषु भवन्तीति प्रश्ने कथयति - ते आकारा आगन्त्रागारादिषु भवन्ति ते कतिविधा: । इति प्रश्ने कथयत विहार- स्वाध्याय-प्रभृतयो भवन्ति । सप्तमोद्देशकस्यान्ते आकाराः कथितास्तेषां स्थानानि तत्प्रकाराणि चास्मिन् अष्टमोदेशके प्रदर्शयिष्यन्ते एष एव सम्बन्धः सप्तमाष्टमोद्देशकगतपूर्वापरसूत्रयोरिति, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याष्टमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम् - 'जे भिक्खू आगंतागारे वा' इत्यादि ।
सूत्रम् — जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा एगो एगित्थीए सद्धि विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमंवा आहा रेह, उच्चारं वा पासवर्णं वा परिठ्ठवेइ, अण्णयरं वा अणारियं निठुरं मेहुणं अस्समणपाओग्गं कह कहे कहतं वा साइज्जइ ॥ सू० १ ॥
छाया -- यो भिक्षुरागन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा परिव्राजकावसथेषु वा एक एकया स्त्रिया सार्द्ध विहारं वा करोति, स्वाध्यायं वा करोति, अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा आहरति, उच्चारं वा प्रस्रवणं वा परिष्ठापयति, अन्यन्तर्रा वा अनार्या निष्ठुरां मैथुनीम भ्रमणप्रयोग्या कथां कथयति कययन्तं वा स्वदते ॥ ० १ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिद भिक्षुः 'आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा 'गाeाइकुलेसु वा परियावसहेसु वा एषामर्थः सप्तमोदेशके गतः । एषु स्थानेषु 'एगो एगित्थीए सद्धि' एकः स्वयमेकाकी सन् एकया स्त्रिया सार्द्धम् 'विहारं वा करेइ' विहारं वा करोति एकः साधुरेकाकिन्या स्त्रिया श्राविकया श्रमण्या वा सार्द्धम् विहारं गमनागमनं ग्रामाद् ग्रामान्तरगमनं वा करोति 'सज्झायं वा करेइ' स्वाध्यायं वा करोति, तत्र स्वाध्यायः सूत्रार्थयोरध्ययनं
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०८ सू०१-३ साधोरेकाकिन्या स्त्रिया सह विहारादिनिषेधः १८६ करोति 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशनादिचतुर्विधमाहारं 'आहारेइ' आहरति करोति'उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ' उच्चारं वा प्रसवणं वा परिष्ठापयति 'अण्णयरं वा अणारियं निठुरं' अन्यतरां वा काञ्चित् अनार्याम् आर्येण सत्पुरुषेणाचरितुमयोग्याम् निन्दितामित्यर्थः निष्ठुराम् अश्लीलाम् 'मेहुणं' मैथुनी मैथुनसम्बन्धिनीम् 'अस्समणपाओग्गं' भश्रमणप्रायोग्याम् अश्रमणानामसाधुपुरुषाणामुचितां न तु श्रमणानाम् , तादृशीं 'कह' कथां वाक्यप्रबन्धरूपां कामादिविकारोत्पादिकां कथां-राजकथा-देशकथा-भक्तकथा-स्त्रीकथारूपां चतुर्विधामपि विकथां वा 'कहेइ' कथयति 'कहेंतं वा साइज्जई' कथयन्तं वा तादृशीं कथां कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते । यो हि श्रमणः एकाकी आगन्त्रागाराद्यन्यतमस्थाने एकाकिन्या स्त्रिया सार्द्धम् विहारं स्वाध्यायमाहारं वा करोति कारयति कुर्वन्तं वाऽन्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति, तस्मात् कारणात् एकाकी श्रमणः आगन्त्रागारादिषु एकाकिन्या स्त्रिया सार्द्धम् विहारादिकं न कुर्यात् न कारयेत् न वा कुर्वन्तमनुमोदयेदिति भावः ।
अत्राह भाष्यकार:-- भाष्यम-माया भगिणी दुहिया, सद्धि एयाहि नो वसे भिक्खू ।
एगते जइ एवं, किं पुण अन्नाए इत्थीए ॥१॥ सामन्नेण निसिद्धो, थीहिं सद्धिं मुणिस्स संवासो । '' किं पुण विहारमाइस, करेज्ज जं ताहि सह वासं ॥२॥ थीम कहा पडिसिद्धा कावि य जा धम्मिया पसत्था वा। किं पुण अणारिया सा, कहिज्जए थीण मज्झम्मि ॥३॥ जो एवं आथरइ, पावइ सो आणभंगमणवत्थं । '
मिच्छत्त विराहणं च, तम्हा एए विवज्जेज्जा ॥४॥ छाया-माता भगिनी दुहिता, सार्द्धम् एताभिनों वसेद् भिक्षुः।
एकान्ते यद्येवं किं पुनरन्यया स्त्रिया ॥१॥ सामान्येन निषिद्धः स्त्रीभिः सार्द्ध मुनेः संवासः । किं पुनर्विहारादिपु कुर्याद् यत् ताभिः सह वासम् ॥२॥ स्त्रीषु कथा प्रतिषिद्धा काऽडपि च या धार्मिकी प्रशस्ता वा। किं पुनरनार्या सा कथ्यते स्त्रीणां मध्ये ॥३॥ य एवमाचरति, प्राप्नोति स आज्ञाभकमनवस्थाम् ।
मिथ्यात्वं विराधनां च तस्माद् एतान् विवर्जयेतू ॥४॥ अवचूरिः-'माया भागिणी' इत्यादि । माता जन्मदात्री, भगिनी-सहोदरा दुहिता पत्री एताभिरपि सार्द्ध भिक्षुः श्रमणः एकान्ते नो वसेत् एतामिरपि सह एकान्तवासं न कुर्यात् , ययेवं तर्हि
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१९०
निशीथ
अन्यया कयाचित् सम्बन्धवर्जितया परिचितया अपरिचितया वा सह कथं वसेत् वासं कुर्यात्, नृ कदाचिदपि वसेदिति भावः । गृहिणामप्येष निषिद्धः, उक्तञ्चान्यत्रापि
" मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा, न विविकासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियप्रामो, विद्वांसमपि कर्षति ॥ १॥ भा० गा० १ ॥
'सामने ' इत्यादि । 'मुणिस्स' मुनेः सामन्येनापि स्त्रीभिः सार्द्धं संवासो भगवता निषिद्धस्तर्हि किं पुनः 'विहार माइसु' विहारादिपु - आदिपदेन स्वाध्याये आहारे उच्चारादिपरिष्टापने विशेषतोऽनार्यनिष्ठुर मैथुनाश्रमणप्रायोग्यकथासु यत् नाभिः सह वासं कुर्यात्, भिक्षूणा कुत्रापि पुरुषसाक्षिणमन्तरेण स्त्रीभिः सह सामान्यवार्त्तापि न कल्पते इति भावः ॥ भा० गा० २ ॥
'थी कहा' इत्यादि । 'थीसु' स्त्रीषु स्त्रीणां मध्ये काऽपि या धार्मिकी प्रशस्ता वा कथा भवेत् सापि भगवता प्रतिषिद्धा तहि किं पुनर्या अनार्या अप्रशस्ता कथा भवेत् सा स्त्रीणां मध्ये कथ्यते, न काचिदपि कथ्यते इति भावः ॥ भा० गा० ३ ॥
अथैतद्विषये प्रायश्चितं प्रदर्श्यते - 'जो एवं' इत्यादि ।
"
यः कोऽपि श्रमणः एवमाचरति स्त्रोसहवासकथाकथनादिकं करोति स 'आणाभंग' आज्ञाभङ्गं तीर्थकराज्ञाभङ्गदोषम् अनवस्थादोप, मिध्यात्वं, विराधनां, संयमात्मविराधनां प्राप्नोति । तत्र सयमविराधना स्पष्टैव । स्त्रिया सह संवास विहारादिकं वा कुर्वन्तमत्रह्मसेवनशङ्कया साधुं मारयेत् राजपुरुषादिना ग्राहयेद् वा, तेनात्मविराधनाऽवश्यम्भाविनी 'तुम्हा' तस्मात् कारणात् एतान् विहारादिकान् स्त्रिया सह 'विवज्जेज्जा' विवर्जयेत्, भिक्षुर्न कुर्यादिति भावः ॥ भा०गा० ४ ||
एवं प्रथमसूत्रोक्तक्रमेणैव इतोऽये द्वितीयसूत्रादारम्य नवमसूत्रपर्यन्तमष्टावपि सूत्राणि व्याख्येयानि । तेषु विशेषपदानि व्याख्यायन्ते, तथाहि 'जे भिक्खू उज्जाणंसि वा' इत्यादि । 'उज्जाणंसि वा' उद्याने वा, तत्रोद्यानमुपवनं यत्र लोकाः क्रीडार्थ गच्छन्ति 'उज्जाणगिर्हसि वा' उद्यानगृहे वा उद्यानस्थित क्रीडाकरणाय समागतानां पुरुषाणां निवासस्थानम् 'उज्जाण सालंसि वा' उद्यानशालायां वा उपवनस्थितशालायां 'धर्मशाला' इति लोकप्रसिद्धलक्षणायाम् 'निज्जाणंसि वा' निर्याणे वा, निर्याण राज्ञां निर्गमनमार्गः येन मार्गेण राजा निर्गतो भवति, येन राजा गच्छति आगच्छति च तादृशध्यानं, तस्मिन् निर्याणे वा 'निज्जाणगिहंसि वा' निर्याणगृहे वा राजमार्गस्थितगृहे 'निज्जाणसालंसि वा' निर्याणशालायां वा राजमार्गस्थितशालायां विहारदिकं करोति ॥ सू० २ ॥
'जे भिक्खू असि वा' इत्यादि । 'अहंसि वा' अटूटे वा ग्रामादिप्राकारस्याघोभागे 'अट्टालयंसिवा' अट्टालिकायाम् नगरस्य यः प्राकारः तस्यैकदेशे या अट्टालिका तस्यां वा 'चरियंसि वा'
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०८ ० ४-१०
साधोः स्त्रीमध्ये कथाकथननिषेधः १९१ चरिकायां वा प्राकारस्याधोऽष्टहस्तपरिमितों मार्गः चरिका तस्याँ वा 'पागारंसि वा प्राकारे बा प्रकाशपरि विद्यमाने गृहे वा 'दारंसि वा' द्वारे वा- नगरद्वारे 'गोपुरंसि वा' गोपुरे वा, गोपुरं नगरद्वारस्य अग्रद्वारम् तस्मिन् वा ॥ सू० ३ ॥
'जे भिक्खू दगंसि वा' इत्यादि । 'दगंसि वा' उदके वा जलमध्ये 'दगमम्ांसि वा ' उदकमार्गे वा येन पथा जलस्य प्रवाहो वहति तस्मिन् उदकमार्गे 'दगपहंसि वा' उदकपथे वा येन पथा जलमानेतुं गच्छत्यागच्छति च जनः स उदकपथः, तस्मिन् उदकपथे वा 'दगमलंसि वा' उदकमले वा कर्दमसहितमार्गे 'दगतीरंसि वा' उदकतीरे वा उदकस्य समीपदेशे 'दगट्ठाणंसि वा' उदकस्थाने वा यत्र जलं तिष्ठति तत्र तडागादिषु ॥ सू० ४
'जे भिक्खू सुण्णगिर्हसि वा' इत्यादि । 'सुण्णगिहंसि वा' शून्यगृहे वा मनुष्यादिवासरहिते गृहे 'सुण्णसालंसिवा' शून्यशालायां मनुष्यादिरहितायां शालायाम् 'भिन्नगिहंसि वा ' भिन्नगृहे . वा त्रुटितस्फुटितगृहे 'भिन्नसालंसि वा' भिन्नशालायां वा त्रुटितस्फुटितशालायां वा 'कूडागारंसि वा' कूटागारे वा, तत्र कूटः पर्वतशिखरं तत्सदृशगृहे अधोविशालम् उपर्युपरि संकुचितं कूटागारं, तस्मिन् 'कोठागारंसि वा' कोष्ठागारे शालिगोधूमयवाद्यन्नागारे || सू० ५ ॥
'जे भिक्खू तण गिर्हसि वा' इत्यादि । 'तणगिहंसि वा' तृणगृहे वा दर्भादितृणसंपादितगृहे कुटीरे "झोपडी' इति लोकप्रसिद्धे 'तणसालंसि वा' तृणशालायां वा दर्भादितृण संपादितशालामाम् 'तुसगिर्हसि वा' तुषगृहे वा शाल्यादि तुषस्थापनगृहे 'तुससालंसि वा' तुषशालायां वा तुषस्थापनाय निर्मितायां शालायाम् 'भुसगिहंसि वा' भुसगृहे वा गोधूमयवादीनां मर्दनेन जायमानो 'भूसा' इति लोकप्रसिद्धो वस्तुविशेषः, तादृशे भूसास्थापनाय निर्मिते गृहविशेषे 'भुसालसि वा' भुसशालायां वा तादृशशालायाम् || सू० ६ ॥
'जे भिक्खू जाणसालंसि चा' इत्यादि । 'जाणसालंसि वा' यानशालायां वा यानमवादिकं तस्य शाला इति यानशाला विशालगृहं शालेत्युच्यते तस्यां यानशालायाम् ' जाणगिहंसि वा' यानगृहे वा अश्वादिगृहे वा 'जुग्गशालंसि वा' युग्यशालायां वा, तत्र युग्यं शकटरथादिकं यत्र स्थाप्यते तादृशशालायाम् 'जुग्गगिहंसि चा' युग्यगृहे वा ॥ सू० ७ ॥
'जे' भिक्खू पणियसालंसि वा' इत्यादि । 'पर्णियसालंसि वा' पण्यशालायां यंत्र विक्रेय्यं भाण्डादिकेँ 'विक्रयार्थं स्थापितं भवेत् तादृशगृहं पण्यशालोच्यते तंत्र 'पणियगिहंसि वा पण्यगृहे वा 'कुवियसाल सिवा' कुप्यशालायां वा यत्र लौहादिकं वस्तु स्थापितं भवेत् तादृशं गृहं कुप्यशाला, तत्र 'कुवियगिहंसि वा' कुप्यगृहे वा लौहादिस्थापनगृहे ॥ सू० ८ ॥
'जे भिक्खू गोणसालँसि चा' इत्यादि । 'गोणसालंसि वा' गोवृषभशालायां वा 'गोणगिहंसि वा' गबां गृहे वा 'महाकुलंसि चा' महाकुले वा तत्र महतो कुलम् महाकुलम् तस्मिन्
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निशीथसत्रे १९२ . ' 'महागिहसि वा' महागृहे वा, एतेषु अष्टसूत्रकथितेपु स्थानेषु यः कश्चिद् भिक्षुर्विहार-स्वाध्यायाssहारो-चारादिपरिष्ठापनाऽनार्यादिकथाकथनं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते स प्रायश्चिचभागी भवति ॥९॥
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम्-उज्जाणाओ समारम्भ, गोणसालंतसंठिओ।
विहाराई करे भिक्खू , आणाभंगाइ पावई ॥ छाया- उद्यानतः समारभ्य गोशालान्तसंस्थितः ।
विहारादि कुर्याद भिक्षुः आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरि:-'उज्जाणाओ' इत्यादि । उद्यानतः समारम्य उद्यानमादौ कृत्वा गोशालापर्यन्तस्थानेषु संस्थितः भिक्षुः श्रमणः एकया स्त्रिया सार्द्ध विहारादिकं विहारमाहारमुच्चारादिपरिष्ठापनमनार्यादिकथाकथनं च कुर्यात् कुर्वन्तमनुमोदयेत् वा स आज्ञाभङ्गादिकान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादिदोषान् प्राप्नोति तस्मात्कारणात् श्रमणः आगन्त्रागारादिषु एकाकिन्या स्त्रिया साई विहारादिकं न कुर्यात् ॥ सू० ९ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू राओ वा वियाले वा इत्थीमज्झगए इत्थीसंसत्ते इत्थीपखुिडे अपरिमाणयाए कहं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १०॥
छाया-यो भिक्षुः रात्रौ वा विकाले वा स्त्रीमध्यगतः स्त्रीसंसकः स्त्रीपरिवृतोऽपरिमाणतया कथां कथयति कथयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १० ॥ ___ . चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिद् भिक्षुः 'राओ वा' रात्री वा 'वियाले वा. विकाले वा, तत्र विकालः दिवसावसाने रात्रिप्रागभावे, रात्र्यवसाने दिवसप्रागभावे वर्चते, तथा च-रात्रिदिवसयोरन्तरालकालो विकालः, तस्मिन् विकाले वा 'इस्थिमज्झगए' स्त्रीमध्यगतः स्त्रीणां मध्ये स्थितः स्त्रीसमुदाये स्थितः 'इत्थिसंसत्ते' स्त्रीसंसक्तः स्त्रिया संघट्टितः स्त्रिया ऊर्वादिना संस्ष्टष्टः तत्स्पर्शयुक्तः 'इत्थिपरिवुढे' स्त्रीपरिवृतः परि सर्वतः समन्तात् स्त्रीभिः परिवृतः यस्य चतुर्दिक्षु स्त्रिय उपविष्टा भवेयुः स स्त्रीपरिवृत इति कथ्यते, इत्थंभूतः साधुः 'अपरिमाणयाए' अपरिमाणतया परिमाणमतिक्रम्य, परिमाण च, एकद्वित्रिचतुःपञ्चप्रश्नोत्तररूपं भवति तदतिक्रम्य षष्ठं प्रश्नोचरमपरिमाणं भवति, एतादृश्या अपरिमाणतया 'कह' कथां-धर्मकथाम्-प्रश्नोत्तररूपां वा कथा 'कहेई' कथयति 'कहेतं वा साइज्जई' कथयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते, स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:• भाष्यम्-राओ य वियाले वा, इत्थीमज्झगो मुणी। - पमाणमइरेगेण, कहाओ दोसमावहे ॥१॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०८ सू० ११
साधोनिग्रंन्थ्या सार्द्ध विहरादिनिषेधः १९३
RAMANA
छाया-रात्रौ च पिकाले वा स्त्रीमध्यगतो मुनिः।
प्रमाणातिरेकेण, कथातो दोषमावहेत् ॥१॥ अवचूरि:-'राओ य' इत्यादि । 'राओ य' रात्रौ च विकाले वा पूर्वप्रदर्शितरूपे दिवसावसाने रावसाने वा स्त्रीमध्यगतः स्त्रीसमुदायस्य मध्ये स्थितः एवं स्त्रीसंसक्तः स्त्रीपरिवृतो मुनिः स्त्रीभ्यः पुरुषसाक्षिणमन्तरेण केवलं स्त्रीभ्यः 'पमाणमइरेगेण' प्रमाणातिरेकेण स्त्रीणां धर्मविषयकविवादशङ्कादिप्रसंगे सति प्रमाण-एकद्वित्रिचतुःपञ्चप्रश्नोत्तररूपमतिक्रम्य षष्ठादिप्रश्नोत्तररूपां कथां कथयति, 'कहाओ' कथातः एतादृशकथाकरणतः दोषम्-आज्ञाभङ्गादिरूपं दूषणं आवहेत् प्राप्नुयात् । अत्र कश्चित् शङ्कां करोति-साधूनां मध्ये एकाकिसाधुसमीपे स्त्रीभिर्न गन्तव्यमिति दोषश्रवणात् , स्त्रीमध्ये कथाकरणस्य शास्त्रे निषेधात् स्त्रियो दिवसेऽपि न गच्छन्ति तर्हि रात्रौ विकाले वा तासा गमनं कथं संभवति कथमत्रास्य सूत्रस्यावसरः ? तत्र कथ्यते-यदि स्त्रीणां परस्परं धर्मविषये काचित् शङ्का कश्चिद् विवादो वा समुत्तिष्ठेत् तादृशप्रसङ्गे स्त्रीणां रात्रादावपि साधुसमीपे गमनसंभवः । एतादृशप्रसंगे तत्र कञ्चित् पुरुषं साक्षिणं कृत्वा दूरत एव एक-द्वित्रि-चतुः-पञ्च-समाधानस्तासां शङ्कां विवादं च निराकत्तुं कल्पते, तदधिकं तु नैव कल्पते, अत एव सूत्रे 'अपरिमाणयाए' इत्युक्तम् , अनेन एकद्वचादिपरिमाणतः कथने न कश्चिदोष इति व्यज्यते, किन्तु स्त्रीमध्यगतादिविशेषणविशिष्टो भूत्वा तु किं दिवा किं रात्रौ कि विकाले वा कि प्रमाणतः किमप्रमाणतो वा कथञ्चिदपि कथां कर्तुं साधोर्नैव कल्पते इति सूत्रनिष्कर्षः । एवं करणे स्त्रीणां पितृभ्रातृपुत्रादिस्वजनानां मनसि शङ्का समुत्पद्यते यत् निर्लज्जो लम्पटोऽसौ साधुर्दश्यते यः स्त्रीणां मध्ये स्थित्वा रात्रौ विकाले चापि अविचार्यैव चिरकालं कथां कथयति, इति कृत्वा ते कुम्येरन ततः साधु ताडयेत् राजपुरुपैाहयेद्वा तेन संयमविराधना आत्मविराधना धर्मस्यावहेलना च भवितुमर्हति । इत्यादिबहुदोषप्रसङ्गात् साधुः स्त्रीमध्यगतो रात्रौ विकाले वा प्रमाणमतिक्रम्य कथां न कुर्यात् न कारयेत् कुर्वन्तमन्यं वा नानुमोदयेदिति भाष्यगाथार्थः ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सगणिच्चियाए वा परगणिच्चियाए वा णिग्गं: थीए सद्धिं गामाणुगामं दूइज्जमाणे पुरओ गच्छमाणे पिट्ठओ रीयमाणे ओहयमणसंकप्पे चिंतासोयसागरसंपविठू करयलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए विहार वा करेइ सज्झायं वा करेइ, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ, उच्चारं वा पासवणंवा परिद्ववेइ, अण्णयरंवा अणारिय निठुरं मेहुणं असमणपाओग्गं कहं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ।।सू०११॥
२५
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१९४
निशीथसूत्र
छाया-यो भिक्षुः स्वगणीयया परगणीयया निन्ध्या साई प्रामानुग्राम दयन् पुरतो गच्छन् पृष्ठतः रीयमाणः (गच्छन्) अपहतमनासंकल्पः चिन्ताशोकमागरसंप्रविष्ट, करतलप्रन्यस्तमुखः आर्तध्यानोपगनो विदारं पा करोनि, स्वाध्यायं या करोति, राशन वा पान वा खाधवा स्वाध वा आहरनि, उच्चारं वा श्रवणं या परिष्ठापयति, अन्य. तरां वा अनार्या निष्ठुरां मैथुनीमश्रमणप्रायोग्यां फां कथयति कथयन्तं था स्वदते ॥३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'सगणिच्चाए या' म्वगणीयया-स्वगणसम्बन्धिन्या 'परगणिच्चियाए वा' परगणीयया-पग्गाछगम्बन्धिन्या वा 'णिग्गथीए सर्टि' निर्ग्रन्थ्या श्रमण्या सार्द्धम् 'गामाणुगाम दुइजमाणे' प्रामानुप्रामं द्रवन् एकरमात ग्रामात् सामान्तरं प्रति गन्छन् 'पुरओ गच्छमाणे पुरतो गन्छन्- पुरतो अमण्या असे गन्छन् 'पिट्टओ रीयमाणे' पृष्टतो रीयमाण.-पृष्टतश्चलन् तद्वियोगात् 'ओहयमणसंकप्पे' अपहतमन • सकल्पः, तत्रापहतो विनष्टो मनमः संक-पो विचारो यस्य स तथा उद्धान्तमना इत्यर्थः, 'चिंतासोयसागरसंपविटे' चिन्ताशोकसागरसंप्रविष्टः चिन्तासमुळे शोकसमुद्रे च प्रविष्टः 'करयलपल्हत्थमुहे' करतलप्रन्यरतमुखः साध्वीवियोगतः स्वहस्ततले स्थापितमुग्य इत्यर्थः, 'अहल्झाणोवगए' आर्तध्यानोपगतः-आर्तध्यानं संप्राप्त इत्यर्थः, एतादृशः सन् 'विहारं वा कोई' विहारं वा करोति अयं भावः-स्वगणसम्बन्धिन्या परगणसम्बन्धिन्या वा श्रमण्या सह मार्गे गाछन् श्रमणः यदि कदाचित् अग्रे गच्छति दूरं पश्चाद् वा श्रमणो भवति, कदाचित् श्रमणः पुरतो भवति साध्वी पश्चात् भवति, कदाचित् श्रमणः पश्चाद् भवति श्रमणी भने भवति तदा श्रमणीवियोगात श्रमणोऽपहतमन.संकल्पो भूत्वा शोकसागरे पतित इवार्तध्यानोपगतः सन् विहारं करोति, अन्यत्सर्वं पूर्ववद् व्याख्येयम् ।।२०११॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासयं वा अणुवासयं वा अंतो उवस्सयस्स अद्धं वा राई कसिणं वा राई संवसावेइ संवसावेतं वा साइज्जइ ॥सू० १२॥
छाया-यो भिक्षुर्शातकं वा अपातकं वा उपासकं वा अनुपासकं वा अन्तरुपा श्रयस्यार्द्धा वा रात्रिं कृत्स्ना वा रात्रि संवासयति संयासयन्तं वा स्वदते ॥सू०१२।।
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'णायगं वा' ज्ञातकं वा स्वजनं स्वपरिचितं वा 'अणायगं वा' अज्ञातकम्-स्वजनातिरिक्तमपरिचितं वा 'उवासयं वा उपासकम्-जिनधर्मोपासक श्रावकं वा 'अणुवासयं वा' अनुपासकं वा-मन्यमतावलम्बिन वा 'अन्तो उवस्सयस्स' अन्तर्मध्ये उपाश्रयस्य वसतेमध्ये इत्यर्थः 'अद्ध वा राई' मा वा रात्रिम्
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चूर्णिभाष्यावद्भिः उ०८ सू० १२-१४ रात्रौ शातकादीनां स्वोपाश्रये संवासननिषेधः १९५ रात्र्य यावत् 'कसिणं वा राई' कृत्स्नां संपूर्णाम् यामचतुष्टयरूपां सम्पूर्णा वा रात्रिं यावत् 'संवसावेई' संवासयति उपाश्रये वासं स्थिति कारयति, 'अत्र वसतौ संवासं कुरु हे आर्य ! इत्येवं वदति 'संवसावेंतं वा साइज्जई' संवासयन्तं वा स्वदते, यः खलु स्वजनमस्वजनं वा श्रावकमश्रावकं वा स्वेन सार्द्ध वसतिमध्ये अद्धा वा रात्रिं सम्पूर्णा वा रात्रिं यावत् संवासयति तथा संबासयन्तमन्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, उपाश्रये संवसन् स रात्रिभोजनं करोति, सचित्तनलं वा पिबति, अन्यं वा आरम्भसमारम्भं करोति, तस्मात्कारणात् ज्ञातकादिकमुपाश्रये न संवासयेत् तस्य संवासने साधोराज्ञाभङ्गादिकाश्चापि दोषाः समापतन्ति ॥ सू० १२॥
भवाह भाष्यकारःभाष्यम् - णायगमणायगं वा, सावगं वा तहेयरं ।
वसहीए वासए राओ, आणाभंगाइ पावइ ॥ छाया-ज्ञातकमज्ञातकं वा श्रावकं वा तथेतरम् ।
वसतौ वासयेद् रात्रौ, आज्ञाभङ्गादि प्राप्नुयात् ॥ अवचूरिः--यो भिक्षुः अर्द्धरात्रि वा संपूर्णरात्रि वा वसतौ उपाश्रयस्य मध्ये ज्ञातकं स्वकी यज्ञातिजनं परिचितं वा अज्ञातकं-ज्ञातिभिन्नमपरिचितं वा, तथा श्रावक-जिनधर्मोपासकं गृहस्थं वा अनुपासकम् अन्यतैर्थिक वा स्वोपाश्रये यत्र स्वयं तिष्ठति तत्र वासयति । यदि कश्चित् श्रमणस्य स्वजनोऽस्वजनः परिचितोऽपरिचितः श्रावकोऽश्रावको वा रात्रौ वस्तुं समुपस्थितो भवेत् तं श्रमणो रात्रौ तत्र वासयेत् वासयन्तं वाऽनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नुयात् ।।
अथ कारणेऽपवादमाह भाष्यकारःभाष्यम्-दिक्खट वा दयटुं वा पोसहहं समागयं ।।
कासेइ रयणिं तस्स, न दोसो किं तु संवरो ॥१॥ छाया-दीक्षार्थ वा दयार्थ वा पौषधार्थ वा समागतम् ।
वासयति रजनीं तस्य न दोषः किन्तु संवरः ॥१॥ अवचूरिः-यः कश्चित् श्रमणः दीक्षार्थ पौषधाथै पौषत्रताचरणार्थ उपलक्षणात् ग्लानादिनिमित्तं समागतं वयं श्रावकं वा यदि रात्री स्ववसती वासयति तदा तस्य रात्री वसतिवासदानेऽपि न कश्चिदोषः प्रत्युत संवर एव भवति, यतः स संवासः सकलसावधकर्मपरित्यागगर्भितो भवति तादृशवासस्य संवरसंपादकत्वात् , तस्मात् तादृशस्य वसतिवासो दातव्य एवेति भावः। तमपि स्वसमीपात् षड्हस्तं दूरे संवासयेत् येन गृहस्थस्य शरीरवस्त्रादिना स्वस्य शरीरवस्त्रादेः संधट्टनं न स्यात् । यदि षड्हस्ताभ्यन्तरे तं संवासयति तदा स साधुः प्रायश्चित्तभागी भवति ॥
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निशीथसूत्रे सूत्रम्-जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासयं वा अणुवासयं वा अंतो उवस्सयस्स अद्धं वा राई कसिणं वा राई संवसावेइ तं पडुच्च निक्खमइ वा पविसइ वा निक्खनंत वा पविसंत वा साइज्जइ ॥सू०१३॥
छाया-यो भिक्षांतकंवा अज्ञात वा उपासकं वा अनुपासकं वा अंतरूपाययस्य अर्धा रात्रि वा कृत्स्ना रात्रि वा संवासयति तं प्रतीत्य निष्कामति वा प्रविशति वा निष्क्रामन्तं वा प्रविशन्तं वा स्वदते ॥सू० १३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् मिक्षुः ज्ञातकमज्ञातकमुपासकमनुपासकं वा 'अंतो उवस्सयस्स' अन्तरुपाश्रयस्य उपाश्रयमध्ये 'अद्धं वा राई' मर्दा वा रात्रिम् 'कसिण वा राई कृत्स्ना सम्पूर्णा वा रात्रिम् 'संवसावेई' संवासयति तदनन्तरं 'तं पडुच्चनिक्खमइ वा पविसइ वा' तं प्रतीत्य तं ज्ञातकादिकमाश्रित्य 'अयमत्र स्थितोऽस्ति' इति कृत्वा उच्चारप्रसवणार्थम् निष्क्रामति निर्गच्छति ततः परावृत्य प्रविशति वा तथा 'निक्खमंत वा पविसतं वा साइज्जइ निष्क्रामन्तं वा प्रविशन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥१३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू तं न पडियाइक्खेइ न पडियाइक्खेत वा साइज्जइ ।। सू० १४॥
छाया-यो भिक्षुः तं न प्रत्याचक्षोत न प्रत्याचक्षाणं वा स्वदते ॥सू० १४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'तं न पडियाइक्खेइ' तं न प्रत्याचक्षीत तं ज्ञातकमज्ञातकमुपासक्रमनुपासकं वा वसतिमध्ये वसन्तं न प्रत्याचक्षीत न निषेधं कुर्यात् 'भो आर्य ! अत्र मा वस' इत्यादि न कथयेत् तथा 'न पडियाइक्खेत वा साइज्जई' न प्रत्याचक्षाणं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसयमविराधनादयो दोषा भवन्ति ॥ सू० १४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं समवाएसु वा पिंडनियरेसु वा इंदमहेसु वा खंदमहेसु वा रुद्दमहेसु वा मुगुंदमहेसु वा भूतमहेसु वा जक्खमहेसु वा णागमहेसु वा थूभमहेसु वा चेइयमहेसु वा रुक्खमहेसु वा गिरिमहेसु वा दरिमहेसु वा अगडमहेसु वा तडागमहेसु वा दहमहेसु वा णईमहेसु वा सरमहेसु वा सागरम हेसु वा
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चूर्णिभा० उ०८ सू०१५ समवाय पिण्ड निकरेन्द्र महादिषु राजादीनां भिक्षाग्रहणनिषेधः १९७ आगर महेसु वा अण्णयरेसु वा तहपगारेसु विरूवरूवेसु महामहेसु असणं वा पाणं वा खाइं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ १५॥
छाया -यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्द्धाभिषिक्तांनां समवायेषु वा पिण्sनिकरेषु वा इन्द्रमहेषु वा स्कन्दमहेषु वा रुद्रमहेषु वा मुकुन्दमहेषु वा भूतमहेषु वा यक्षमहेषु वा नागमहेषु वा स्तूपमहेषु वा चैत्यमहेषु वा वृक्षमहेषु वा गिरिमहेषु वा दरीमहेषु वा अगडमहेषु वा तडागमहेषु वा हृदमहेषु वा नदीमहेषु वा सरोमहेषु वा सागर महेषु वा आकरमहेषु वा अन्यतरेषु वा तथाप्रकारेषु विरूपरूपेषु महामहेषु अशनं वा पानं वा खाद्यं वा खाद्यं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृद्धन्तं वा स्वदते ॥ सू० १५||
-
चूर्णी – 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'रण्णो' राज्ञः राजसिंहासने स्थितस्य 'खत्तियागं' क्षत्रियाणां क्षत्रियत्वजातिविशिष्टानां ग्रामपतीनाम् 'मुदियाणं' मुदितानां तत्र मुदिता जात्या शुद्धाः मातापित्रादिना शुद्धवंशीया इत्यर्थः तेषाम् 'मुद्धाभिसिताणं' मूर्धाभिषिक्तानाम्, तत्र पितृपितामहादिक्रमेण राज्येऽभिषिक्ता मूर्धाभिषिक्ताः युवराजपदेऽभिषिक्ता वा, तेषां मूर्धाभिषिक्तानाम्, अनोपलक्षणात - अमात्य - पुरोहिते -श्वर - तलवर - माडम्बिककौटुम्बिके-य-श्रेष्ठि- सेनापत्या - दीनामपि ग्रहणं कर्त्तव्यम् । राजाद्यतिरिक्तानाममात्यादीनामपि वक्ष्यमाणेषु समवायादिषु इन्द्रमहादिपु च साधुररानादिकं न गृह्णीयादिति सम्बन्धः । तदेव दर्शयति- 'समवाएसु वा' इत्यादि । 'समवासु वा' समवायेषु वा समानवयस्यसंमुदायेपु, यत्रं समवयस्का मिलित्वा गोष्ठोभक्तं कुर्वन्ति तादृशेषु समवायेषु 'पिंडनियरेसु वा' पिण्डनिकरेषु वा, यत्र सपिण्डाः (एकमूलपुरुषाः ) कुटुम्बिनो मिलित्वा पितृपिण्डदानं कुर्वन्ति तत्र, अथवा - पण्डो नाम दायभक्तं यत्र दायादा मिलित्वा भुञ्जते तस्य निकरेषु दायभक्तसमूहेषु वा 'इंदमहेसु वा इन्द्रमहेषु वा, तत्र इन्द्रो देवराजस्तस्य मह उत्सवः, तथा चेन्द्रं देवराजमुद्दिश्य क्रियमाणेपूत्सवेषु कार्तिकशुल्कप्रतिपदि देवराजोद्देशन महानुत्सवो भवतीति लोकाचारः तादृशोत्सवेषु वा 'खंदमहेसु चा' स्कन्दमहेषु वा – स्कन्दः कार्तिकेयो महादेवपुत्रो देवविशेषः तदुद्देशेन क्रियमाणेषूत्सवेषु वा 'रुदमहेसु वा' रुद्रमहेषु वा - रुद्रमहोत्सवेषु वा तत्र रुद्रः शिवस्तमुद्दिश्य क्रियमाणेषूत्सवेषु 'मुकुंदमहेसु वा' मुकुन्दमहेषु वा, तत्र मुकुन्दः कृष्णः तस्योत्सवा मुकुन्दमहाः कृष्णजन्माष्टभ्या... द्युत्सवाः, तादृशमहोत्सवेषु 'भूतमहेसु वा' भूतमहेषु वा, तत्र भूतानां व्यन्तरदेवविशेषाणां महा उत्सवा भूतमहाः, यादृशोत्सवेषु भूताः पूज्यन्ते तादृशमहोत्सवेषु 'जक्खमहेषु दा' यक्ष महेषु वा तत्र यक्षो व्यन्तरदेवविशेष एव तस्य महा उत्सवविशेषाः, यत्र महोत्सवे यक्षाः पूज्यन्ते तादृशम हो. त्सवेषु 'णागमहेसु वा' नागमहेषु वा, तत्र नागाः सर्पाः, येषु महोत्सवेषु नागाः पूज्यन्ते नागपंचमीतिलोकप्रसिद्धादिमहोत्सवेषु 'धूभमहेसु वा' स्तूपमहेषु वा स्तूपानां महोत्सवाः, स्तूपः- स्मृतिस्तम्भः,
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१०८
निशीथसूत्रे कुत्रचित् स्तुपमुद्दिस्यापि लोका उत्सवं कुर्वन्ति तादृशस्तूपमहोत्सवेषु वा 'चेइयमहेनु वा' चैत्यमहोत्सवेषु वा चैत्यानि नाम मृतकदाहस्थाने क्रियमाणाश्चिह्नविशेषाः ३मशानादिपु निर्मिता भवन्ति, तेषां महोसवेषु 'रुक्खमहेसु वा वृक्षमहेषु वा कुत्रचित् वृक्षविशेष वटपिप्पलादिकमुद्दिश्य उत्सवाः क्रियन्ते तेपु 'गिरिमहेसु वा गिरिमहेषु वा, तत्र गिरयः पर्वताः, तानुद्दिश्य क्रियमाणा महोत्सवाः पर्वतादिकमुदिश्यापि यत्र महोत्सवाः क्रियन्ते तत्र 'दरिमहेसु वा' दरीमहेपुवा, तत्र दरी-गिरिकन्दरा, तदुद्देशेन क्रियमाणा महोत्सवा दरीमहाः तेषु वा 'अगडमहेसु वा' अगडमहेषु वा, यत्र कूपसमीपे पशूनां जल पानार्थ गर्तादिकं करोति तादृशगर्नविशेपा अगडाः, तेषां महोत्सवे' 'तडागमहेषु वा' तडागमहेषु वा, तत्र तडागः सामान्यजलाशयः, तदुद्देशेन क्रियमाणा उत्सवाः तडागमहाः, तेषु वा 'दहमहेसु वा' हृदमहेसु वा, तत्र हुदो नाम अगाधजलाशयः, तदुद्देशेन क्रियमाणा उत्सवा हृदमहाः, तेषु वा, 'गईमहेसु वा' नदीमहेषु वा-नदीविशेषमुदिश्य क्रियमाणेषु महोत्सवेषु 'सरमहेसु वा' सरोमहेषु वा, तत्र सरः तडागविशेषः तदुद्देशेन क्रियमाणा महोत्सवाः सरोमहाः, ते. वा 'सागरमहेसु वा' सागरमहेषु वा-समुद्रमुद्दिश्यक्रियमाणमहोत्सवेषु वा 'आगरमहेस वा' आकरमहेषु वा, तत्राकरः सुवर्णादीनामुद्गमस्थानं, तदुद्देशेन क्रियमाणा उत्सवा आकरमहाः, तेषु आकरमहेषु वा 'अण्णयरेस वा तहप्पगारेसु विख्वरूवेसु महामहेसु' अन्यतरेषु वा तथाप्रकारेषु पूर्वोक्तमहोत्सवसदृशेषु विरूपरूपे' नानाप्रकारकेपु महामहेषु अन्यजातीयकेष्वपि जन्मपरिणयनादिमहामहोत्सवेषु जायमानेषु तत्र 'असणं वा ४' अशनादिकं चतुर्विधमाहारम् उपलक्षणात् वस्त्रपात्रादिकं वा 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते । यो हि भिक्षुरुपर्युक्तेषु महोत्सवेषु गन्वा राज्ञो मू‘भिषिक्तादीनां वा अशनादिकं स्वयं गृह्णाति अन्यद्वारा ग्राहयति वा गृह्णन्तं वा अनुमोदते । एतानि महारम्भस्थानानि, अत्र षट्कायोपमर्दनं भवति, एषु स्थानेषु राजादीनां भिक्षाग्रहणे साधोः रसलोलुपता सिध्यति, पट्कायोपमदैनजन्या दोषा अपि समापधेरन् , तस्मात् कारणादत्रतो यदि यः साधुरशनादिकं गृह्णाति सोऽवश्य प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गानवस्थादिका दोषा अपि समापद्यन्ते इति भावः ॥१५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं उत्तरसालंसिवा उत्तरगिहंसि वारीयमाणाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १६॥
छाया-यो भिक्षुः राशः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिकानां उत्तरशालायां वा उत्तरगृहेषु वा रीयमाणानाम् अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥२०१६॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०८ सू०१६-१९ हया दिशालागत राजादीनां भिक्षाहप्रणनिषेधः १९९
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' राज्ञः 'खत्तियाणं' इत्यादि, क्षत्रियादीनाम् पूर्वसूत्रप्रदर्शितस्वरूघाणां 'उत्तरसालंसि वा' उत्तरशालायां वा भ्रमणार्थं निर्मापिता या निजशालातोऽन्या शाला, तस्यां 'उत्तरगिहंसि वा' उत्तरगृहे वा तादृशे गृहे वा 'रीयमाणाणं' रीयमाणानाम् तत्र चंक्रमतां भ्रमणं कुर्वताम् 'असणं वा' इत्यादि, अशनादिकं चतुर्विधधमाहारं 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति 'पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेSनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १६ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं हयसालागयाण वा गयसालागयाण वा मंतसालागयाण वा गुज्झसालागयाण वा रहस्ससालागयाण वा मेहुणसालागयाण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ सू० १७॥
छाया -यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्द्धाभिषिक्तानां हयशालागतानां वा गजशालागतानां वा मंत्रशालागतानां वा गुह्यशालागतानां वा रहस्यशालागतानां वा मैथुनशालागतानां वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते ॥सु० १७॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' इत्यादि, राज्ञः क्षत्रियाणाम् मूर्द्धाभिषिक्तानाम् पूर्वनिर्दिष्टस्वरूपाणाम् 'हयसालागयाण वा' हयशालागतानाम् वा अश्वशाला स्थितानाम् 'गयसालागयाण वा' गजशालागतानां वा हस्तिशालास्थितानाम् 'मंतसा - लागयाण वा' मन्त्रशालागतानां वा, यत्र राजादयः स्वपुरुषैः सह मन्त्रणां करोति तादृशशालास्थितानामित्यर्थः ' 'गुज्झसालागयाण वा' गुह्यशालागतानां गुप्तकार्यं यत्र शालायां करोति तादृशशालायां स्थितानाम् 'रहस्ससालागयाण वा' रहस्यशालागतानां वा रहस्यं दण्डविधानादिकार्यं तस्य शालायां स्थितानाम् 'मेहुणसालागयाण वा' मैथुनशा लागतानां वा मैथुनसेवनशालास्थितानाम्, हयादिशालास्थितानां राजादीनां पार्श्वात् 'असणं वा ४' इत्यादि, अशनादिचतुविंधमाहारनातं 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति - स्वीकरोति स्वीकारयति वा तथा 'पडिग्गात वा साइज्ज३' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ||सू० १७॥
सूत्रम् - जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं सणिसिण्णिचयाओ खीरं वा दहिं वा णवणीयं वा सप्पि वा तेल्लं वा
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२०० : , . . .
निशीथसूत्रे गुलं वा खंडं वा सक्करं वा मच्छंडियं वा भोयणजायं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेतं वा साइज्जइ ।सू० १०॥ . छाया- यो भिक्षुः गक्षः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिपिकानां सन्निधिसनिचयात् क्षीरं वा दधि वा नवनीतं वा सपिर्वा तैलं वा गुड वा लंडं वा शर्करां वा मत्स्यडिक वा अन्यतरद् वा भोजनजातं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्यन्तं वा स्वदते ॥सू० १८॥
__चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' इत्यादि-राजादीनां 'सण्णिहिसण्णिचयाओ' सन्निधिसंनिचयात् , तत्र सन्निधिर्नाम दघिदुग्धगुडखंडादिद्रव्यम् तद् द्विविध-विनाशि अवनाशि च, तत्र विनाशिम्-दधिदुग्धनवनीतप्रमृति अल्पकालेन विकृतिसंभवात् , अविनाशिद्रव्यम् घृततलगुडखण्डशर्कगमत्स्यण्डिकप्रमृति बहुकालस्थायित्वात् उक्तञ्च
'मोदणगोरसमादी, विणासिदव्वा उ सण्णिही होति, . सक्कुलितेल्लघयगुला, अविणासी संचइयदव्या ॥१॥ छाया-ओदनगोरसादीनि विनाशिद्रव्याणि तु सनिधयो भवन्ति । शएकुलितैलघृतगुडानि, अविनाशीनि संचितद्रव्याणि ॥१॥ इति । तस्य-द्विविधस्यापि संनिचय एकत्रीकृतसंचयः, तस्मात् सचितात् संचितद्रव्यमध्यात् यत् किमप्येकमनेकंवा वा 'खीरं वा' क्षीरं वा दुग्धं वा 'दर्हि वा' दधि वा 'णवणीयं वा' नवनीतं वा प्रक्षणं 'सप्पि वा' सर्पिर्वा घृतम् 'तेल्लं वा' तैलं वा 'गुलं वा'गुडं वा 'खंडं वा' खण्डं वा 'बुरा' इति लोकप्रसिद्धम् 'सक्करं वा' शर्करां वा-खण्डजातिविशेपं 'मन्छंडियं वा' मत्स्यण्डिकं वा मीसरीतियोकप्रसिद्धम् 'अण्णयरं वा भोयणजायं' अन्यतरद् वा भोजनजातम् , एतदतिरिक्तं वा भोजनजातम् 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्यन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू० १८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं उस्सदुपिंडं वा संसट्ठपिंडं वा अणाहपिंडं वा किविणपिंडं वा वणीमगपिंडं वा पठिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥सू० १९॥
छाया-यो भिक्षुः राज्ञ. क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानाम् उत्सृष्टपिण्डं वा संसृष्टपिण्डं वा अनाथपिण्डं वा कृपणपिण्डं वा वनीपकपिण्डं वा प्रतिगृहाति प्रतिगृह्यन्तं वा स्वदते ॥सू० १९॥.
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' इत्यादिराजादीनां 'उस्सट्ठपिंडं वा' उत्सृष्टपिण्डं वा काकादिभ्यः प्रक्षेपणाय स्थापित पिण्डमोदनादिकम्
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ८ सू० १९-२० राजादीनामुत्सृष्टपिण्डादिग्रहणनिषेधः २०१ उत्सृष्टपिण्डमिति कथ्यते तम् 'संसद्वपिंडं वा' संसृष्टपिण्डं वा, तत्र भुक्तावशेषमन्नमकिश्चनेभ्यो दातुं स्थापितं संसृष्टान्नम् संसृष्टपिण्डमिति, तम् 'अणाइपिंडं वा' अनाथपिण्डं वा अनाथेभ्यो दातुं स्थापितं पिण्डम् 'किविणपिंडं वा' कृपणपिण्डं वा दीनजनार्थस्थापितमोदनादिकम् 'वणीमगपिंडं वा' वनीपकपिण्डं वा याचकाएं स्थापितमोदनादिकं वनीपकपिण्डमिति कथ्यते, यद्वा वनीपंकः सिद्धान्नमात्रोपजीवी, यद्वा वनी-स्वकीयदुरवस्थाप्रदर्शनपूर्वकप्रियालापादिना लभ्यद्रव्यम् , तां वनी प्राप्नोतीति वनीपकस्तदर्थं स्थापितं पिण्डम्, एतादृशमोदनादिकं यो भिक्षुः 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिहन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते । यो हि भिक्षुः राजसम्बन्धि उसृष्टमोदनादिकं स्वयं गृह्णाति गृहन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमण उत्सृष्टपिण्डादिकं राजादीनां न गृह्णीयात् न ग्राहयेत् न वा गृह्णन्तमनुमोदयेदिति ॥सू० १९॥
सूत्रम्-- सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ॥ सू० २०॥
॥णिसीहज्झयणे अट्ठमो उद्देसो समत्तो ॥८॥ छाया-तत्सेवमान आपद्यते चातुर्मासिक परिहारस्थानं अनुदातिकम् ॥१०२०॥
॥निशीथाध्ययनेऽष्टमोद्देशकः समाप्तः ॥८॥ चूर्णी-- 'तं सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् अष्टमोद्देशकोक्तमेकमनेक वा प्रायश्चित्तस्थान सेवमानः तत्प्रतिसेवनां कुर्वन् भिक्षुः 'आवज्जइ' आपद्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासिय' चातुर्मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं प्रायश्चित्तस्थानम् 'अणुग्घाइयं' अनुद्घातिकम् न विद्यते उद्घातो लघुलक्षणो यस्य तपोविशेषस्य तत् अनुद्घातं, तत् यस्य विद्यते तत् तथाभूतं गुरुमासिकमित्यर्थः। यो भिक्षुः आगन्त्रागारादिषु एकाकिन्या स्त्रिया सार्द्ध विहारादित आरभ्य वनीपकपिण्डग्रहणपर्यन्तप्रोक्तप्रायश्चित्तस्थानमध्यात् यत् किमप्येकमनेकं वा अष्टमोदेशोक्तं सर्व वा प्रायश्चित्तस्थानं सेवते स सूत्रोक्तं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति ॥ सु० २०॥ इति श्री-विश्वविख्यात–जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
चूर्णिभाष्यावचूरिरूंपायां व्याख्यायाम् अष्टमोदेशकः समाप्तः ॥८॥
२६
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॥ नवमोद्देशकः ॥ व्यायातोऽष्टमोद्देवाकः, सम्प्रति नवमः प्रारम्यते, तत्रास्य नवमोद्देशकस्याष्टमोहेशकान्तिमसूत्रेण सह का सम्बन्धः । इति चेदत्राह भाष्यकार:भाष्यम- पिंड हिगारो गया,-इयाण वुत्तो य अहमुद्देसे ।
रायाउणो य के ते, पिंडो वा कइविहोऽत्य नवमम्मि ॥ छाया-पिण्डाधिकारो राजादिकानां प्रोक्तश्चाष्टमोद्देशे ।
राजादयश्च के ते, पिण्डो वा कतिविधोऽध नवमे ॥ अवरि.-- "पिंट हिगारी' इत्यादि । पूर्वमष्टमोद्देशकस्यान्तिमसूत्रे राजादौनां पिण्डप्रणम्याधिकार प्रोक्तः । ते च राजादयः के ? पिण्डो वा कतिविधो भवति !, एपोऽधिकारः अत्र स्वमोदेशके निरूपायप्यते, उन्येप सम्बन्धोऽष्टमनवमोद्देशकयोरिति, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य नवमो शकरयेदमादिमुत्रम्- 'जे भिक्खू रायपिंड' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिस्व गयपिंडं गिण्हइ गिण्हतं वा साइज्जइ ।। सू०१॥ डाग---यो भिक्षुः गजपिण्डं गृहाति गृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० १॥
शृणी:-''जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'रायपिंडं गिण्डइ' राजपिण्डं गृह्णाति, मत्रामायादीना पिण्डोऽपि गजपिण्टः प्रोन्यने । तन्नामानि अष्टमोदेशके प्रदर्शितानि । पिण्डशब्देमात्र अधिमानादिक दानपात्रादिकं च गृह्यने, तं गृहाति स्वीकरोति तथा 'गिण्हतं वा माना' तं वा स्वदनेऽनुमोटने स प्रायश्चित्तभागी भवति, यत उपर्युक्तवस्तुप्राप्त्यर्थ गजाताना म्याद थनिय भवेत. नथा गजप्रमृतीना महाघवस्तुप्राप्तो मोहोदयोपि अधिकाधिक प भवति, कामयानुप्राणे परिग्रहनीपो भवति, तथा तादावस्तुनः स्वसमीपे स्थापने साधु
दापि मष्टिना मान नेन मर्यादामोऽत्रावश्यम्भावी, माधोग्ममाधिरपि स्यात् , तथाऽधिकमापदाद मागायन. नागटिभयमपि स्यात् , तथा वनपात्रादीनामधिकाधिकस्य
दिप संतपणाममापि विनाम: स्यात , एवं तादृशवस्तूनां रक्षणादिकरणे 24 तस्य ययान गयोगप हान. स्यात, सयमविराधनमाविराधन च स्यात् , यस्मात् गरि योका लगा भवन्ति तस्मात्कारणात भिक्षुः कथमपि राजपिण्ड स्वयं न गायन, वा ५. माइयेन , न या गान्नमनुमोदयेदिति ॥ मू० १॥
मृत्रम्-ज भिरख गयपिंड भुजइ भुजंत वा साज्जइ ॥ सू० २॥ डामा यो गिनुः गमिदं शुर भुजानं या म्बवने ॥२० २॥
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चूर्णिभाष्यावर उ०९ सू० १-५ राजपिण्डाऽन्तपुरप्रवेशतदक्षिकानीताहारनिषेधः २०३
चूर्णीः- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रायपिंडं झुंजइ' राजपिण्डं, तत्र राज्ञामुपलक्षणादमात्यादीनां च पिण्डम् अशनादिकं चतुर्विधमाहारजातं, तथा वस्त्रपात्रादिकमष्टप्रकारकं पिण्डम् भुडक्ते राजादिपिण्डानामष्टप्रकारकाणामुपभोगं करोति कारयति .. वा तथा 'भुंजतं वा साइज्जई' भुजानं वा स्वदते । यो हि राजादीनामष्टप्रकारकाशनादिपिण्डमध्यात् यत् किमप्यन्यतरं पिण्डमुपभुक्ते तस्यानुमोदनं करोति स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्तीति ॥सू० २॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रायंतेपुरं पविसइ पविसंतं वा साइज्जइ ॥सू०३॥ छाया-यो भिक्षुः राजान्तःपुरं प्रविशति प्रविशन्तं वा स्वदते ॥सू० ३॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः ‘रायंतेपुरं पविसई' राजान्तःपुरं प्रविशति, तत्र राज्ञोऽन्तःपुरं राजान्तःपुरम् , तत् त्रिप्रकारकम्-प्राचीनान्तःपुरम्, नवान्तःपुरम्, कन्यान्तःपुरं च, तदन्तःपुरं पुनः क्षेत्रत एकैकं द्विप्रकारकं भवति-स्वस्थाने परस्थाने च, तत्र स्वस्थानं राजगृहं (राजभवन), परस्थानं वसन्तादिसमये उद्यानादिगतम्, तादृशं राजान्तःपुरमशनादिलोभेन यः येन केनापि कारणेन वा प्रविशति, तथा 'पविसंतं वा साइज्जई' प्रविशन्तं राजान्त पुरे प्रवेशं कुर्वन्तं श्रमण स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गाऽनवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादयो दोषा भवन्ति । एवं राजद्वारस्थितदण्डधरादिपुरुपकृता अवहेलनाशङ्कादयो दोषाश्च भवन्तीत्यतः कथमपि राजान्तःपुरेषु प्रवेश न कर्यात् , न वा अन्यान् श्रमणान् प्रवेशं कारयेत् , न वा अन्यं प्रवेशं कुर्वन्तमनुमोदेत ॥सू० ३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रायंतेपुरियं वएज्जा “आउसो रायतेपुरिए णो खलु अम्हं कप्पइ रायंतेपुरे णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा इमं तुमं पडिग्गहं गहाय रायंतेपुराओ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहट्ट दलयाहि" जो तं एवं वयइ वयंतं वा साइज्जइ॥सू०४॥
___ छाया-यो भिक्षुः राजान्तःपुरिकां वदेत् 'आयुष्मति ! राजान्तःपुरिके ! नों खलु मम कल्पते राजान्तःपुरे निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा इमं त्वं प्रतिग्रहं गृहीत्वा राजान्तःपुरात् अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा अभिहतमाहृत्य देहि' यः तामेव घदति वदन्तं पा स्वदते ॥सू० ॥
___ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रायंतेपुरियं वएज्जा' राजान्तःपुरिकां राजान्तःपुररक्षिका प्रति एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदेत्-कथयेत् । किं वदेत् ?
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निशीथसूत्रे तत्राह-'आउसो' इत्यादि । 'आउसो रायतेपुरिए' हे आयुष्मति | राजान्तःपुरिक ! अन्तःपुररक्षिके ! 'णो खल्ल अम्हं कप्पई' नो खलु मम कल्पते 'रायतेपुरे' राजान्तःपुरे 'णिक्खमित्तए. वा' निष्क्रमितुं वा, तत्र निष्क्रमणं गमनम्, राज्ञामन्तःपुरे गमनमस्माकं न कल्पते 'पविसित्तए वा' प्रवेष्टुं वा प्रवेशं कर्तुं नो अस्माकं कल्पते तस्मात्कारणात् 'इमं तुम पडिग्गई गहाय' इमं त्वं प्रतिग्रहं पात्रं गृहीत्वा पात्रं त्वमेव गृहीत्वा मम तत्र गच्छ, गत्वा च 'रायंतेपुराओ' राजान्तःपुरात् राज्ञोऽन्तःपुरात् 'असणं वा०' अशनादिचतुविधमाहारम् 'अभिहडं आह?' अमिहतमाहत्य अभिमुखमानीय अन्तःपुरात् इहैव मत्समीपमानीय 'दलयाहि देहि यस्मात् राजान्तःपुरे अस्माकं गमनं न कल्पते तस्मात्कारणात्वं मम पात्रं गृहीत्वा तत्र गत्वा अशनादिकं गृहीत्वा इहैव स्थिताय मह्यं समर्पयेति । 'जो तं एवं वयइ' यः खलु श्रमणः एवमुक्तेन प्रकारेण तां राजान्तःपुररक्षिकां स्त्रियं राजान्तःपुररक्षकपुरुषं द्वारपालादिकं वा प्रति बूते सः, तथा 'वयंत वा साइज्जई' एव मुपयुक्तप्रकारेण अन्तःपुरिकां प्रति वदन्तमन्यं वा श्रमणं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । मन्तः-पुरिकासमानीताहारादिग्रहणे बहवो दोषा भवन्ति, तथाहि-गच्छन्ती समागच्छन्ती वा ईर्यासमितिमनानन्ती मार्गे षट्कायविराधनां कुर्यात्, अप्रतिलेखितायां भूमौ पात्रं स्थापयेत्, मप्रतिलेखितपात्राद गृह्णीयात् , एषणादोपानभिज्ञा साऽनेषणीयमपि गृह्णीयात् , संघट्टदोषानभिज्ञा सचित्तसंघट्टितमपि गृह्णीयात्, स्खलिता वा भाजनं भिन्यात् , साधुरूपमुग्धा आहारे वशीकरणादिचूर्णमपि प्रक्षिपेत् , दध्यादिषु विरोधिद्रव्यं घृतदुग्धादिकमेकत्र गृह्णीयात् , पात्रबन्ध वा शाकादिना स्वरण्टितं कुर्यात्, इत्याद्यनेके दोषाः समापोरन्, तस्मात्कारणात् साधुरन्तःपुरिकया समानीतमाहारं नो गृह्णीयात् , नान्यं ग्राहयेत् , गृह्णन्तं वाऽन्य नानुमोदयेदिति भावः ।।सू० ४॥ . सूत्रम्-जे भिक्खूनो वएज्जा रायंतेपुरिया वएज्जा “आउसंतो समणा ! णो खलु तुझं कप्पइ रायंतेपुरे निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा आहरेयं पडिग्गहं अतो अम्हं रायंतेपुराओ असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा अभिहडं आहह दलयामि" जो तं एवं वयंति पडिसुणेइ पडिसुणेतं वा साइज्जइ ॥सू० ५॥
__छाया-यो भिक्षुनों वदेत् राजान्तःपुरिका वदेतू-"आयुष्मन् ! श्रमण ! नो खलु तव कल्पते राजान्तपुरे निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा आहरेमं प्रतिग्रहं अतोऽहं राजान्त' पुरात् अशन वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा अभिहतमाहृत्य ददामि" यस्तामेवं वदन्ती प्रतिश्पृणोति प्रतिशृण्वन्तं वा स्वदते ॥सू०५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'नो वएज्जा' नो वदेत् राज्ञोऽन्तःपुरद्वारमुपस्थितो भिक्षुरन्तःपुररक्षिकां प्रति स्वयं नो वदेत्-राजान्तःपुरात् अशना
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पूर्णिभाष्यावचूरिःउ० ९ सू० ६ राजादीनां दौवारिकभक्तादिभक्तनिषेधः २०५ दिकमानीय मह्य त्वं देहीत्येवं न वदेत् किन्तु साधूनामाचारगोचरं जानन्ती सा 'रायंतेपुरिया वएज्जा' राजान्तःपुरिका एव वदेत-कथयेत्-अशनादिकाहारजातग्रहणाय समुपस्थितोऽयं श्रमणः, अस्यान्तःपुरगमनं नं कल्पते इत्यालक्ष्यान्तःपुरिका स्वयं श्रमणमेवं कथयेत्–'आउसंतो समणा' हे आयुष्मन् ! श्रमण ! यत् ‘णो खल्ल तुज्झं कप्पइ' नो खलु तव कल्पते 'रायंतेपुरे निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा' राजान्तःपुरे प्रतिनिष्कामितुं निस्सर्तुम् प्रवेष्टुं वा प्रवेशकर्तुं वा 'आहारेय पडिग्गई' माहर देहि इमं प्रतिग्रहं भवदीयं पात्रं मह्यं समर्पय, 'अतो अम्हें रायंतेपुराओ' अतोऽहं राजान्तःपुरात् 'असणं वा' इत्यादि अशनादिचतुर्विधमाहारं 'अभिइंडं आहटु' अभिहतमाहृत्य भवतां समीपमानीय भवते 'दलयामि' ददामि 'जो तं एवं वयंति पडिसुणेई' यः कश्चित् श्रमणः श्रमणी वा तामन्तःपुरिकां एवं पूर्वोक्तप्रकारेण वदन्तीं कथयन्ती प्रतिशृणोति तस्या वचनमङ्गीकरोति तथा 'पडिसुणेतं वा साइज्जइ' प्रतिशृण्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० ५॥
सूत्रम्--जे भिक्खू रण्णा खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं दुवारियभत्तं वा पसुभत्तं वा भयगमत्तं वा बलिभत्तं वा कयगभत्तं वा हयभत्तं वा गयभत्तं वा कंतारमत्तं वा दुभिक्खभत्तं वा दुक्कालभत्तं वा दमगमत्तं वा गिलाणभत्तं वा बदलियाभत्तं वा पाहुणभत्तं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥सू० ६॥
छाया-यो भिक्षु राज्ञ. क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानां दौवारिकभक्तं वा पशुभकं वा भृतकभक्तं वा वलिभक्तं वा क्रयकभक्तं वा हयभक्तं वा गजभक्तं वा कान्तारभक्तं वा भिक्षभक्तं वा दुष्कालभक्तं वा द्रमकभकं वा ग्लानभक्तं वा बदलिकाभक्तं वा प्रावूर्णभकं वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥सू० ६॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' इत्यादि राजादीनां 'दुवारियभत्तं वा १' द्वौवारिकभक्तं वा राज्ञां द्वारपालादिकार्थं सम्पादितं यद् भक्तमोदनादिकं तत् प्रतिगृह्णातीत्यग्रिमेण सम्बन्धः 'पसुभत्तं वा २' पशुभक्तं वा राज्ञां पशूनां गवादीनां कृते सम्पादितं यत् भक्तं तत् २, 'भयगमत्तं वा ३' मृतकभक्तं वा-राजादिगृहे कर्मचारिनिमित्तं संपादितं भक्तं वा ३, 'बलिभत्तं वा ४' बलिभक्तं वावायसादिनिमित्तं निष्पादितं भक्तं वा ४, 'कयगभत्तं वा ५' क्रयकभक्तं वा-क्रीत्वा समानीतदासदास्यर्थ सम्पादितं भक्तं वा ५, 'हयभत्तं वा ६, हयभक्तं वा अश्वादिकृते सम्पादितं भक्तं वा 'गयभत्तं वा' गजभक्तं वा गजापथ संपादितं भक्तं वा ७ 'कतारभत्तं वा । कान्तारभक्तं वा' अटवीमुल्लड्ध्य समागतानामर्थाय अटवीं गमनार्थाय वा यदोदनादिक
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००६
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निशीपस्ते 2. नादि कान्तारमानम ८, 'दुभिक्खमत्तं वा ९' दुर्भिक्षभक्तं A n , अन्नादन प्राप्नुवन्ति तदर्थ गम्पादितं भक्तं वा दुर्मिक्षभक्तम् ९,
पालानं भवनं या दुष्कालाडितेभ्यः संपादितं भक्तम् । तत्र एकवार्षिकान्नाद्यन ' यो भिम. अनेकवभिन्नापनुत्तिरूप' समयो दुष्कालशब्देन-कथ्यते, इत्ये
10. 'दमागमनं बा ११ मममस्तं बा, नत्र द्रमको दरिदो भिक्षुकः. तदर्थ सम्पादितं . ना. गिगणमनं वा १२ निभानं वा, तत्र ग्लानो ज्वरादिदीर्घरोगपोडितः, तदर्थ .::
१२. 'यलियामनं वा १३' बर्दलिकाभक्तं वा, अतिवृष्टिपीडित.
नादि नलिकामाम् १३, 'पाहुणभत्तं वा १४' प्रापूर्णकभक्त वा famiri प्र कमानम् ११, एतादृशचतुर्दशप्रकारक राजभवने सम्पादितं भक्तं 'पटिमा पनि हानि स्वयं बागात. अन्यं श्रमणं स्वीकारयति वा, तथा 'पडिग्गाहेंतं वा मात वा मने म प्रायश्चित्तभागी भवनि ॥सू० ६॥
पत्रम-ज भिक्खु रगणो खनियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इमाई वोनपयाई अजाणिय अथुच्छिय अगवेसिय परं चउरायपंचरायाओ गाहाकुलं पिंडवायपडियाए निम्बाइ वा पविसइ वा निक्खमंतं वा पविनने वा माइन्जइ तंजहा-कोहागारमालाणि वा भंडागारसालाणि या पाणसालाणि वा ग्वीरमालाणि वा गंजसालाणि वा महाणससालाणि वा मृ० ७॥
पाया-niमर गम अधिगा मुदितानां मूभिगिनानामिमानि पड़ दोषa artner पियिन्या परं गतगप्रपञ्चराधात् गाथापतिकुलं पिण्डपात. Hirat मजाति या प्रवानि या निाम या प्रशिन्तं या म्यदते, तद्यथाEarrin या माशान या पानशालानि या क्षीरशालानि घा गम्जrinा मामालान या ॥ ७॥
पी .. गिर गाज भिवम्' या कन्दि भिक्षु. 'रणो' यादि राजा..'
.निमोगरया दोपपदानि दोषम्यानानि यत्र निकमगेन १६......... THER नोपान मध्यमाणानि ष्ठागागदीनि 'अजाणिय' ५. 1, ..
Remयनमनोगे या अपुन्छिय अदा नहटेषु ...... अगदमिर गया . मग गोषणं यथा-गानि वाउगननानि !, ..... . ! ननिय मानि! स्याम्पिं गपगमाया
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ९ सू० ७-८ राजादोनांदोषपदस्थानप्रवेश-तद्दर्शनार्थगमननि० २०७ 'परं चउरायपंचरायाओ' परं चतूरात्रपञ्चरात्रादनन्तरम् तदधिकं वारं वारमित्यर्थः 'गाहावइकुलं' गाथापतिकुलम् , तत्र गाथा-गृहं तस्याधिपतिः स्वामी तत्तत्स्थानाधिपतिः, तस्य कुलं गृहं तत् 'पिंडवायपडियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया पिण्डस्याशनादिचतुविधाहारस्य वस्त्रपात्रकम्बलरजोहरणादीनां वा पातः प्रातिः तस्य प्रतिज्ञया प्राप्तिवाञ्छया 'निक्खमइ वा' निष्क्रामति वा निस्सरति तथा 'पविसइ वा' प्रविशति वा गाथापतिकुले प्रवेशं करोति वा, तथा 'निक्खमंत वा' निष्कामन्तं वा निस्सरन्तमन्यं श्रमणं वा 'पविसंत वा' प्रविशन्तं वा अन्यम् 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । अथ येषां दोषपदानाम् अज्ञानात् प्रायश्चित्तं भवति तानि कानि तत्राह-'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'कोहागारसालाणि वा' कोष्ठागारशालानि वा, तत्र कोष्ठागारं तण्डुलगोधूमचणकव्रीहियवादीनां धान्यानां स्थापनाय निर्मित 'कोठार' इति भाषाप्रसिद्ध कोष्ठागारशालमिति नाम्ना कथ्यते 'शालानि' इति शालशब्दो नपुंसकलिङ्गेऽपि वर्तते तथा 'भंडागारसालाणि वा' भाण्डागारशालानि वा, तत्र भाण्डागारशालानि यत्रा करत्नस्फटिकरत्नादिषोडशविधरत्नानां हिरण्यसुवर्णादिभाजनानां वा स्थापनं करोति तानि तथा 'पाणसा. लाणि वा' पानशालानि वा, यत्र मादिरा-सीधु-खण्डमृद्वीकादीनां पानकद्रव्याणि स्थाप्यन्ते तानि तथा 'खीरसालाणि वा' क्षीरशालानि वा, दुग्धदध्यादिद्रव्यस्थापनशालानि 'गंजसालाणि वा' गञ्जशालानि वा, तत्र गञ्जम्-अनेकोपस्करणसमूहः, तत् स्थापितं भवनि यत्र तत् गजशालामिति कथ्यते, बहुत्वविवक्षायां तानि 'महाणससालाणि वा' महानसशालानि वा, यत्र राज्ञामनेकविधाशनादि पाच्यते तानि महानसशालानि वा, एतानि षड् दोषपदानि तानि अज्ञात्वा अपृष्टया अगवेषयित्वा यदि साधुः निष्कामति वा प्रविशति वा तदा प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्तीति । सूत्रे 'चतूरात्रपञ्चरात्रात्पर' इत्युक्तं तस्यायं भावः-चतुःपञ्चरात्रपर्यन्तमपरिचितत्वेन साधुप्रवेशः क्षन्तव्यो भवितुमर्हति, तदनन्तरगमने तत्तत्स्थानाधिपतयः कुपिता भवन्ति यदयं साधर्वारं वारं षट्सप्तादिरात्रमपि निष्कामति प्रविशति चेति चौर्यलोलुपतादिविषये तेषां मनसि शङ्का समुत्पद्यते अतः-चतूरात्रपञ्चरात्रात्परं इत्युक्तम् ॥सू० ७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं आगच्छमाणाण वा णिग्गच्छमाणाण वा पयमवि चक्खुदंसणपडियाए अभिसंधारेइ अमिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥सू०८॥ - छाया-यो भिक्षुः राशः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिकानामागच्छतां पा निर्गच्छतां वा पद्मपि चक्षुदर्शनप्रतिज्ञया अभिसंधारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥
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अयरिः-इर्थि' इत्यादि । ये केचित् श्रमणाः भिक्षुकाः राज्ञः प्रसंगात् क्षत्रियाणां मुदितानां मृदामिपिक्तानाम् मम्बन्धिनी स्त्रियं राजवल्लभां, कीदृशीम् ! सर्वालङ्कारविभूषितां स्वच्छगुन्दरकमनीयवाभपणसज्जितां पश्यन्ति चक्षुर्जनितज्ञानविषयतां कुर्वन्ति ते श्रमणाः अनेकदोषान् विविधतोपान आज्ञाभन्नादिकान् लभन्ते प्राप्नुवन्ति मत्रैतद्विषये न कोऽपि संशयः, अपि तु तेषां दोषा झदम्पनि, नचाहि-यस्तु मुक्तभोगी पश्चात् श्रमणः संजातः स तादृशी लियं दृष्ट्वा विचिन्तयतिमम्मपि एनादृशी वन्लभा आसीत् , एवं विचारयतस्तस्य कालक्रमेण तत्समये वा उदीरितकामन्यथा जग्निशरीर. संयमात् परिभ्रष्टो भवति । यस्तु अभुक्तभोगी स चिन्तयति-एताहकलोसेक्ने कीय गनन्दानुभवो जायेत । इत्यादिविचारेण विहलीभूतः स तादृशीं लियं दृष्ट्वा संयमात् पनितो भवनि, कामविहलशरीरो भवन् शासनस्य निन्दको वा भवेत्-किमनेन साध्वाचारेण ! गार्हरथमेय श्रेयस्करमित्यादि वदेत् , तदप्राप्तो कदाचित् मात्मघातमपि करोति, तेन शासनस्य लघुना भवति । यरमादेते टोपा भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमणः राजादीनामुपलक्षणात्साधारणजनानामति नियं द्रष्टुं विचारमपि न कुर्यात्, न वाऽन्यान् श्रमणान् स्वीदर्शनविषयकविचारमपि फारयन , न वा विचारं कुर्वन्तमन्यमनुमोदयेदिति ॥सू० ९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं मंसखायाणं वा मच्छखायाणं वा छविखायाणं वा बहिया णिग्गयाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गहेंतं वा साइ ज्जइ । मृ० १०॥
छाया यो भिक्षु रामः क्षत्रियाणां मुदितानां मू मिपितानां मांसवादकानां या मायादफानां या अधिपादकानां या बहिनिर्गनानाम् अशनं चा पानं था खाद्य वा म्याप या प्रतिक्षाति प्रनिगृमन्नं या स्यदते ॥सू० १०॥
पूर्णी--"जे भिवा' ग्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः 'रणो' इत्यादिराजादोना 'मंगायाणं वा मांसवादयानां वा-मासमक्षकाणां मांसमक्षणनिमित्त मृगयां कत्तुं बहिगिनानामिनि सर्वत्र सम्बन्ध कार्य:, गेन मांमार्थ वने मृगयाकरणाय प्रामाद बहिनिर्गतानां मांसया यो.य , एवं '
मसायाण या' मन्स्यवादकानां वा-मरस्यभक्षकाणां वा-मत्स्यHit दामादी गमनार्थ बहिनिर्गनानां वा 'छविस्खायगाणं वा' छविवादकानां सय पटपस्तामाम्-चपमहादिफरिभक्षणाय क्षेत्र गमनार्थ वा 'पहिया णिग्ग
गाज का गाना हिर्गनानां वा नामम्बन्धि 'असणं या' इत्यादि प्रशनादिचतुर्विधमाहारं 'पटिगार प्रनिहत. मयं मावः-राजादयो मांमादिभक्षगेष्ठया वनादिप्रदेशेषु समागताः
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ०९ सू०११-१२
राजादिसमासमये तत्रत्याहारग्रहणनिधः २११
भवन्ति तत्र स्थितास्ते अशनादिकं चतुर्विधमाहारजातं पाचयन्ति तादृशाशनादि तेभ्यो यो भिक्षुगृह्णाति 'पडिग्गातं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १० ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू रण्णा खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणंअण्णयरं उववूहणियं समीहियं पेहाए तीसे परिसाए अणुडियाए अभिण्णाए अवाच्छिण्णाए जा तं असणं वा ४ पडिग्गाsपग्गा वा साइज्जइ ॥ सू० ११ ॥
छाया -यो भिक्षुः राम्र. क्षत्रियाणां मुदितानां सूर्द्धाभिषिक्तानामन्यतरद् उपबृंहणीयं समीहितं प्रेक्ष्य तस्यां परिषदि अनुत्थितायां अभिन्नायां अभ्यवच्छिन्नायां यः तद्सनं वा ४ प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० ११||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'रण्णो' इत्यादि' राजादीनां 'अण्णय रं' यत् अम्यतरत् अशनादिषु मध्ये यत् किमप्येकमशनादिकम् 'उबवूहणियं' उपबृंहणीयम् शरीरपुष्टिकारकम् मेधेन्द्रियायुष्यादिबल्बर्द्धकं च, एवाशे सति पुनः 'समीहियं' समीहितम् मनोऽभिलषितम् 'पेहाए' प्रेक्ष्य दृष्ट्वा 'तीसे परिसाए' तस्यां यस्यां परिषदि सर्वक्षत्रियादिकाः संस्थिता तस्यां च परिषदि 'अणुट्टियाए' अनुत्थितायां यावत्पर्यन्तं सभा नोत्थिता तस्यां 'अभिण्णाए' अभिन्नायां यावत्पर्यन्तम् एकोऽपि जनस्ततो निर्गतो न भवति सा अभिन्ना तस्यां 'अन्वोच्छिण्णाएं' अव्यवच्छिन्नायां यदा सर्वे विनिर्गता भवन्ति तदा सा व्यवच्छिन्ना, न व्यच्छिन्ना अव्यवच्छिन्ना तस्यां 'जो तं असणं वा ४ पडिग्गाहेइ' यः तद् उपबृंहणीयादिगुणयुक्तमशनप्रानखाद्यस्वाद्यं प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति 'पडिग्गाहें तं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वते तादृशमशनादिकं यो गृह्णाति गृहन्तमनुभोदते स प्रायश्चितभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः
भाष्यम् - मेहाइदिय आऊभाईणं जं विवद्धढगं होई । उववृहणीयमसणं, रायसहाओ य नो गिरहे ॥
छाया - मेघेन्द्रियायुरादीनां यत् विवर्धकं भवति । उपबृंहणीयमशन राजसभातश्च नी गृहीयात् ॥
अवचूरि:- 'मेहा' इत्यादि । तत्र मेधा धारणावती बुद्धिः, कालान्तरे अविस्मरणं धारणा तस्याः, इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि तेषाम्, आयुश्च जीवनस्थितिरूपं तस्य, उपलक्षणाद् देहस्य च विबर्द्धकं भवति तत् उपबृंहणीयमशनं चतुर्विधं भक्तादिकम् अशनं पानं स्वाद्य स्वाद्यं साधुः राजसभातः,
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२१२
निशीथसूत्रे तस्यामनुत्थितायां तत्सकागात् 'नो गिण्हे' नो नैव गृह्णीयात्, रवीकुर्यात , न वा स्वीकुर्वन्तमन्यमनुमोदयेत्, तद्ग्रहणे आज्ञाभङ्गादि-राजपिण्डहणजन्याद्यनेकदोपमंभवादिति ।। सू० ११॥
सूत्रम्-अह पुण एवं जाणेज्जा-'इहज्ज रायखत्तिए परिखुसिए' जे. भिक्खूताए गिहाए ताए पएसाए ताए उवासंतराए विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेइ असणं वा पाणं वा, खाइमं वा साइमं वा आहारेइ, उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ, अण्णयरं वा अणारियं निटुरं अस्समणपाओग्गं कहं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ सू०१२॥
. छाया-अथ पुनरेवं जानीयात् "इहाऽद्य राजक्षत्रियः पर्युपित " यो भिक्षुः तस्मिन् गृहे तस्मिन् प्रदेशे तस्मिन् अवकाशान्तरे विहारं वा करोति स्वाध्यायं वा करोति अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वायं वा आहरति, उच्चारं वा प्रस्रवणं वा परिठापयति, अन्यतरां वा अनार्याम् निष्ठुराम् अश्रमणप्रायोग्यां कथां कथयति कथयन्तं वा स्वदते सू० १२॥
चूर्णी-'अह पुण' इत्यादि । 'अह' अथ अयेत्यय निपातः आनन्तर्यार्थकः, उतो हि राजपिण्डः, अथ तदनन्तरम् राजपिण्डकथनानन्तरम् 'पुण' पुनः ‘एवं जाणेज्जा' एव जानीयात् एवं यथावस्यमाणं जानीयात्, किं जानीयात् । तत्राह-'इहे'-त्यादि, 'इहज्ज रायखत्तिए परिसिए' इहाद्य राजक्षत्रियः क्षत्रियवंशीयो राजा पर्युपितः, तत्र इहास्मिन भूमिप्रदेशे अद्य वर्तमानदिवसे राना कुलपरम्परया प्राप्तराज्यश्रीकः क्षत्रियः उपलक्षणात्-मुदितः मूभिषिको वा पर्युषितो निवसन् अस्तीति, अथैवं ज्ञात्वाऽपि 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'ताए गिहाए' तस्मिन् गृहे यत्र राजा निवासं करोति तदासन्नगृहस्थगृहे 'ताए पएसाए' तस्मिन् प्रदेशे राजादिनिवासासन्नप्रदेशे यत्र खड्गादिशस्त्राणि स्थापितानि भवेयुस्तत्र 'ताए उवासंतराए' तस्मिन् अवकाशान्तरे तत्पार्श्वस्थशुद्धभूमौ च 'विहारं वा करेइ' विहार-विहरण वा करोति 'सज्झायंवा करेइ' स्वाध्यायं वा करोति 'असणं वा' अशनं वा इत्यादि, अशनादिचतुर्विधमाहारं 'आहारेई' आहरति-आहारं करोति 'उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ' उच्चारं वा प्रस्रवणं वा परिष्ठापयति 'अण्णयरं वा' अन्यतरां वा 'अणारिय' अनार्याम् सत्पुरुपानाचरणीयाम् 'णिट्ठरं' निष्ठुराम्-अश्लीलां 'अस्समणपाओग्ग' अश्रमणप्रायोग्याम् असाधुपुरुषयोग्यां 'कहं' कथाम् 'कहेइ' कथयति 'कहेंतं वा साइज्जइ' कथयन्तं वा स्वदते अनुमोदते ।
अत्राह भाष्यकारः-- • भाष्यम्-राया य जत्थ चिट्ठइ, तत्वत्थेसुं गिहाइठाणेमु । . भिक्खू दोसे पावइ, विहारमाइस्स करणाओ ॥
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घूर्णिभाष्यावचूरिः उ०९ सू० १३-१९ यात्रासंप्रस्थितनिवृत्तराजादीनामाहारग्रहणनि० २१३ छाया-राजा च यत्र तिष्ठति, तत्रस्थेषु गृहादिस्थानेषु ।
भिक्षुर्दोपान प्राप्नोति, विहारादेः करणात् ॥ अवचूरिः- 'राया य जन्थ चिडइ' यत्र प्रदेशविशेषे राजक्षत्रियः क्षत्रियवंशीयो राजा तिष्ठति 'तत्थत्थेसुं' तत्रस्थेषु तदासन्नस्थितेषु गृहादिस्थानेषु 'विहारमाइस्स करणाओं' विहारादेः, विहारस्य आदिशब्दात् स्वाध्यायस्य आहारस्य उच्चारादिपरिष्ठापनस्य अन्यतरदनार्यनिष्ठुराऽश्रमणप्रायोग्यकथायाश्च करणात् 'भिक्खू भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दोसे' दोषान् आज्ञाभङ्गानवस्थादिकान् 'पावई' प्रामोति । यः कोऽपि साधुः राजादिनिवासासन्नगृहादिप्रदेशे विचरेत् स्वाध्यायं कुर्यात् माहारं कुर्यात् उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयेत् शिविगल्तिां काञ्चित् कथां वा कुर्यात् , एवं कारयेत् वा, तथा कुर्वन्तमनुमोदयेत् वा स माज्ञाभङ्गमनवस्था मिथ्यात्वं संयमविराधनमात्मविराधनं च प्राप्नुयात् , एवं भद्रकाभद्रककृता अनेके दोषा अपि भवेयुरिति । यस्मात् एते पूर्वोक्ता दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमणः श्रमणी वा राजादिनिवासासन्नस्थितगृहादौ तत्समीपे वा विहारमारम्य शिष्टजनानाचरणीयकथापर्यन्तं स्वयं न कुर्यात् न वा कारयेत् न वा कुर्वन्तं कमपि अनुमोदयेदिति ॥सू० १२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं सुद्धाभिसित्ताणं बहिया जत्तासंपट्ठियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥सू०१३॥
छाया--यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानां वहिर्यात्रासंस्थितानाम् अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाय वा प्रतिगृहानि प्रतिगृह्यन्तं वा स्वदते ॥सू० १३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रणो' राज्ञः 'खत्तियाणं' क्षत्रियाणाम् 'मुदियाण' मुदितानाम् 'मुदाभिसित्ताणं' मूभिषिक्तानाम् पूर्वोक्तस्वरूपाणां 'बहिया जत्तासंपट्ठियाणं' बहिर्यात्रासंप्रस्थितानां परराजविजयार्थ प्रस्थितानाम् , यदा राजा परराजविनयार्थ गच्छति तदा मङ्गलार्थ भोजनं कृत्वा गच्छति तादृशभोजनादित्यर्थः 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाद्यं वा 'साइमं वा' स्वाधं वा 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते । यो हि विजयार्थ प्रस्थितस्य राजादेमार्गे माङ्गल्यार्थ निर्मितभोजनादिसामग्रीतोऽशनादिकं स्वीकरोति स्वीकारयति वा, तथा तादृशमश-' नादिकं स्वीकुर्वन्तमनुमोदयति स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू०१३॥
सूत्रम्--जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं बहिया जत्तापडिणियत्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहइ पडिग्गाहतं वा साइज्जइ सू० १४॥
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निशीथवे छाया-यो भिक्षुः रामः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्दाभिषिकाना बहिर्यात्राप्रति. निवृत्तानामशनं वा पानं वा साधं वा स्वाद्य वा प्रतिगृहाति प्रतिवन्तं वा स्वदते ॥सू०१४
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'यथा पूर्वसूत्रे यात्रार्थ प्रस्थितानां राजादीनामशनादिग्रहणस्य निषेधः कृतस्तथैवात्र यात्रातः प्रतिनिवृत्तानां राजादीनामशनादिप्रहणनिषेधो बक्तव्यः । सूत्रस्याक्षरगमनिका सुगमा ॥ सू० १४॥ एवम् 'नई जत्तासंपट्ठियाणं' नदीनां यात्राथं संप्रस्थितानां राजादीनामशनादिग्रहणनिषेधसूत्रम् ॥ सू० १५॥ तथा एवमेव 'नईजत्तापडि नियत्ताणं' नदीयात्रातः प्रत्यागतानां राजादीनामरानादिग्रहणनिषेधमूत्रम् ॥ सू० १६॥ एवमेव 'गिग्जितासंपट्ठियाणं' गिरियात्राथै संपस्थितानाम्, इति सूत्रम् ।। सू०१७|| तथा 'गिरिजत्तापहिनियताण' गिरियात्रातः प्रतिनिवृत्तानाम्, इति सूत्रम् । एषा सूत्रचतुष्टयी प्रयोदशस्त्रयात्रापस्थितसूत्रवदेव व्याख्येया । सू० १८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाण मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं महामिसेयंसि वट्टमाणंसि णिक्खमइ वा पविसइ वा णिक्खमंतं वा पविसंत वा साइज्जइ सू० १९॥
छाया-यो भिक्ष राक्षः क्षत्रियाणां मुदिनानां मर्दाभिपिकानां महाभिषेके वर्ग. माने निष्कामति घा प्रविशति वा निष्क्रामन्तं वा प्रविशन्तं वा स्वदते ॥ १९॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' इत्यादि राजादीनां 'महाभिसेसि' महाभिषेके तत्राभिषेकानांमध्ये महान् अभिपेको महाभिषेकः, तस्मिन् महाभिषेके 'चट्टमाणसि' वर्तमाने प्रवर्त्तमाने महाभिषेकस्य समये तत्र 'णिक्खमइ वा' निष्कामति तत्र गन्तुमुपाश्रयात् निर्गच्छति वा 'पविसइ वा' प्रविशति वा तत्र महामिपेकस्थाने प्रवेशं कुरुते वा 'णिक्खमंतं वा' निष्कामन्तं वा 'पविसंतं वा साइज्जई' प्रविशन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इमाओ दस अभिसेयाओरायहाणीओ उद्दिट्ठाओगणियाओ वंजियाओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तोवा तिक्खुत्तो वा णिक्खमइ वा पविसइ वा णिक्खमंतं वा पविसंतं वा साइज्जइ । तंजहा-चंपा १, महरा २, वाणारसी ३, सावत्थी ४,साएयं ५, कंपिल्लं ६, कोसंबी ७, मिहिला ८, हत्थिणापुरं ९, रायगिह वा १० ॥ सू० २०॥
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पूर्णिमायापरिः उ०९ २० २० चम्पादिवशाऽऽभिषेक्यराजधानीवुद्वित्रिवारगमननि० २१५
छाया-यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्दाभिषिक्तानामिमा दश आभि. क्याः राजधान्य उहिष्टा. गणिताः व्यजिता अन्तर्मासस्य द्विकृत्वो या त्रि-कृत्वो वा निष्कामति वा प्रविशति वा निष्कामन्तं वा प्रेविशन्तं वा स्वदते । तद्यथा-चम्पा १, मथुरा २, वाराणसी ३, श्रावस्ती ४,साकेतम् ५, कांपिल्यम् ६, कौशाम्बी ७, मिथिला ८, हस्तिनापुरं ९, राजगृहं वा १० ॥ सू० २०॥
___ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रणो' राज्ञः 'खत्तियाणं' क्षयित्राणाम् 'मुदियाणं' मुदितानाम् 'मुद्धाभिसित्ताणं' मूभिषिक्तानाम् 'इमाओ' इमा वक्ष्यमाणाः 'दस अभिसेयाओं दश-दशसंख्यकाः आभिषेक्याः अभिषेकयोग्याः अभिषेकार्थमुपयुज्यमानाः 'रायहाणीओ' राजधान्यः 'उदिवाओ उदिष्टाः कथिताः 'गणियाओं' गणिताः यासां महाभिषेके गणनाऽस्ति, 'बंजियाओ' व्यन्त्रिताः नाम्ना प्रसिद्धाः, तत्र 'अंतोमासस्स' अन्तर्मध्ये मासस्य मासाभ्यन्तरे इत्यर्थः, 'दुक्खुत्तो' द्विःकृत्वो द्विवारम् 'तिक्खुत्तो' त्रिःकृत्वः त्रिवारम् 'णिक्खमइ वा' निष्कामति वा उपाश्रयात् 'पविसइवा' प्रविशति वा उत्सवारम्मे प्रवर्तमाने वा महोत्सवे अन्यस्थानादागत्य तत्र प्रविशतीत्यर्थः तथा 'णिक्खमंतं वा' निष्क्रामन्तं वा 'पविसंतं वा' प्रविशन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । अभिपेकयोग्यराजधान्यामुत्सवारम्मे मासाभ्यन्तरे द्विवारं त्रिवारं वा निष्क्रमणं प्रवेशश्च निवारितः, तत्रायं भावः-यत्र उत्सवारम्भो जायते तत्र राजादयस्तत्प्रक्रियासंयोजनार्थ प्रथमं गत्वा निवसन्ति, उत्सवे प्रतिनिवृत्ते च तत्रतः प्रतिनिवर्तन्ते अतः एकवारं निष्क्रमणस्य प्रवेशस्य च निषेधो न कृतः, किन्तु द्वित्रिवारस्य निषेधः कृतः वारं वारं गमने तेषां द्वेषोत्पत्तिसंभवादिति । कास्तादृश्यो राजधान्यो यत्राऽभिषेकः क्रियते ? इति जिज्ञासायामाह-'तंजहा' इत्यादि । 'जहार तद्यथा-'चंपा' चम्पानाम्नी राजधानी प्रथमा या वासुपूज्यस्य जन्मभूमिः १, 'महरा' मथुरानाम्नी राजधानी द्वितीया यत्र हि कृष्णवासुदेवस्य जन्माऽभूत २, वाराणसी' वाराणसी तृतीया या पार्श्वनाथतीर्थकरस्य जन्मभूमिः ३ 'सावत्थी' श्रावस्तीनाम्नी राजधानी चतुर्थी या संभवतीर्थङ्करस्य जन्मभूमिः ४, 'साएयं' साकेतमयोध्या पश्चमी या ऋषभदेवस्य अनन्तनाथस्य रामचन्द्रस्य च जन्मभूमिः ५, 'कंपिल्लं' काम्पिल्यं षष्ठी राजधानी या विमलनाथतीर्थङ्करस्य जन्मभूमिः ६, 'कोसंबी' कौशाम्बीनाम्नी सप्तमी राजधानी पनप्रभोर्जन्मभूमिः ७. 'मिहिला' मिथिला अष्टमी राजधानी या मल्लिनाथस्य जन्मभूमिः ८, 'हत्थिणापुर हस्तिनापुरं नवमी राजधानी या शान्तिनाथस्य कुन्थुनाथस्य च जन्मभूमिः ९, 'रायगिह वार राजगृहं दशमी राजधानी या मुनिसुव्रतस्वामिनो जन्मभूमिः १०, ता एता दश राजधान्यो नामनिर्देशेन गणिताः कथिताः, एतदतिरिका अपि वासुदेव-बलदेव-चक्रवादीनां राजधान्यो बहजनसमाकीर्णा ग्रहीतन्याः, तास्वपि उत्सवप्रसंगे मासाभ्यन्तरे द्विवारं त्रिवारं वा गमनागमन
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निशोथसूत्रे
न कर्तव्यम् । एतासु दशसु राजधानीषु तादृशीण्वन्यासु वा मासाभ्यन्तरे यो भिक्षुर्द्विवारं त्रिवारं वा गमनागमनं करोति कारयति वा तथा गमनागमनं कुर्वन्तं वाऽन्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-चंपाइयं च एयं, पुव्वुत्तं रायहाणिदसगं जं ।
रज्जाभिसेगसमए, दुत्तियवारं न गच्छेऽत्थ ॥१॥ छाया-चस्पादिकं चैतत् पूर्वोक्तं राजधानीदशकं यत्
___राज्याभिषेकसमये, द्वित्रिवारं न गच्छेदन ॥१॥
अवचूरिः – 'चंपाइयं' इत्यादि । एतत् चम्पादिकं राजधानीदशकं दश. राजधान्य इत्यर्थः यत् पूर्योक्तम् , अत्र दशसु राजधानीषु राज्याभिषेकसमये राज्याभिषेकमहोत्सवकाले भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा न गच्छेत् । उत्सवसमये एतासु राजधानीपु एकवारादधिकं द्विवारं त्रिवारं च भिक्षार्थमन्यकाथि वा गमने साधोवंहवो दोषा भवन्ति, तथाहि-उत्सवसमये तत्र हयानां गनानां रथानां जनानां च परस्परं संघट्टनरूपः संमर्दो भवति तेन तत्रत्यो मार्गोऽवरुद्धः स्यात् ततस्तत्र गमने आत्मविराधनासंभवः, तथा तत्र भिक्षायां बहुकालक्षेपो जायते, तेन स्वाध्यायध्यानादिषु व्याघातो भवति, तत्र भिक्षार्थ भ्रमणे लोकापवादोऽप्यवश्यम्भावी-यदयं साधुराहारलोलुपः स्त्र्यादिर्शनस्पर्शनलोलुपश्च दृश्यते, इत्यादि । यस्मादेते दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमणस्तत्र निष्कमणं वा प्रवेश वा न कुर्यात् न कारयेत् कुर्वन्तं वा नानुमोदयेत् । यद्येवं कुर्यात्तदा स प्रायश्चित्तभागी भवति, आज्ञाभङ्गादिदोषांश्चापि प्राप्नोतीति भाष्यगाथाभावार्थः ॥२०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । तंजहा-खत्तियाण वा रायाण वा कुरायाण वा रायपेसियाण वा रायवंसियाण व-त्ति सू० २१॥
छाया-यो भिक्षुः राक्षः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानामशनं वा पानं घा खाद्य वा स्वाद्य वा परस्मै निहतं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते तद्यथा-क्षत्रियेभ्यः वा राजभ्यो वा कुराजेभ्यो वा राजप्रेष्येभ्यो वा राजवंश्येभ्यो वा, इति ॥सू० २१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' राज्ञः 'खत्तियाण क्षत्रियाणाम् 'मुदियाणं' मुदितानाम् 'मुद्धाभिसित्ताणं' मूर्द्धाभिषिकानाम् 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशनं पानं खाद्य स्वायं वा यत् 'परस्स नीहडं' अत्र 'परस्स'
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०९ सु० २१-२७ राजादीनां क्षत्रियादिपरार्थनिस्सारिताशनादेनि० २१७
इति चतुर्थ्या रूपम् 'चतुर्थ्याः षष्ठी' इति प्राकृतसूत्रपाठात् , प्राकृते चतुर्थीस्थाने षष्ठयेव विभक्तिः प्रयुज्यते ततः 'परस्स' 'परस्मै' इतिच्छाया भवति, एवमग्रेऽपि विज्ञेयम् । ततः परस्मै जातावेकवचनं ततः परेभ्य इत्यर्थः, परनिमित्तं'नीहडं' निर्हतम्-अन्येषां वक्ष्यमाणानां कृते बहिः निस्सारितं तत् 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । केभ्यः परेभ्य इति तानेव दर्शयति-तंजहा' इत्यादि । 'तंजहा' तद्यथा-'खत्तियाण वा क्षत्रियेभ्यो वा 'रायाण वा' राजभ्यो वा 'कुरायाण वा' कुराजेभ्यः-कुत्सिताः राजान कुराजाः, तेभ्यः प्रत्यन्तदेशाधिपत्वात् 'रायपेसियाण वा' राजप्रेष्येभ्यो वा, एतेषामेव क्षत्रियादीनां ये प्रेष्या मृत्यास्तेभ्यः 'रायवंसियाण वा' राजवंश्येभ्यो वा एतेषामेव वंशे समुत्पन्नाः पुत्रमातृभ्रातृप्रभृतयः, तेषां कृते निस्सारितं चाशनादिकं गृह्णतः श्रमणस्य पाटश्चित्तं भवति, परजन्यप्रद्वेषान्तरायादौ एतादृशान्नस्यापि राजपिण्डत्वादेव । तथा-परजन्यप्रद्वेषान्तरायादिभ्योऽन्येऽपि बहवो दोषाः संभवन्तीति ॥ सू० २१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णा खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। तंजहा-णडाण वा णट्टगाण वा कच्छ्याण वा जल्लाण वा मल्लाण वा मुट्ठियाण वा वेलंबगाण वा कहगाण वा पवगाण वा लासगाण वा खेलयाण वा छत्ताणुयाण वा॥ सू० २२॥
छाया-यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानामशन वा पानं घा खाद्य वा स्वाद्य वा परस्मै निहत प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते । तद्यथा नटेभ्यो घा नर्तकेभ्यो वा कच्छुकेभ्यो वा जल्लेभ्यो वा मल्लेभ्यो वा मौष्टिकेभ्यो वा बेलम्बकेभ्यो वा कथकेभ्यो वा प्लवकेभ्यो वा लासकेभ्यो वा खेलकेभ्यो वा छत्रानुगेभ्यो वा ॥२२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः ‘रण्णो' इत्यादि व्याख्या पूर्वसूत्रवत् कर्त्तव्या । अनागतपदानि व्याख्यायन्ते–'णडाण वा' नटेभ्यः नाटकादिकर्तृभ्योवा 'णगाण वा' नर्तकेभ्यो वा नृत्यकर्तृभ्यः, तत्र नर्तका नृत्यकर्तारः, अथवा अन्यान् ये नर्तयन्ति तेऽपि नर्तकाः तेभ्यः कच्छ्याण वा' कच्छुकानां वा, तत्र कच्छुः रज्जुस्तदुपरि नृत्यकारकाः कच्छुकाः, तेभ्यो वा 'जल्लाण चा' जल्लेभ्यो वा तत्र जल्लाः राजस्तुतिपाठकाः, अथवा वंशोपरिनर्तकाः, तेभ्यः 'मल्लाण वा' मल्लेभ्यो वा, तत्र मल्ला-मल्लयुद्धकारकाः प्रसिद्धाः, तेभ्यः 'मुट्रियाण वा मौष्ठिकेभ्यो वा मुष्टिप्रहारकाः-मुष्टियुद्धकारकाः, तेभ्यः 'बेलंवगाण वा' वेलम्बकेभ्यो वा, तत्र . २८
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पाव
गागागा गजयशोगायकान्तेभ्य. 'खेळयाण वा होईन केले. 'नाया वा त्रानुगेभ्यो वा राजादीनां छत्रं गृहीत्वाऽनुउपविजेता हयातीतेषां नादीनामुदेशेन राजभवने संपादितगाहारजातं यो गृही भवति ॥ ०२२||
सूत्रम - जे भिक्वू ग्ण्णा वत्नियाणं मुद्रियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा वामं वा खाइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेs दिग्गहनं वा साइज । तं जहा - आसपोसयाण वा हत्थिपोसयाण वा महियाणा महपोनयाण वा सीहपोसयाण वा वग्घपोसयाण वा अपाण वा मिगपोल्याण वा सुणगपोमयाण वा सूयग्पोसयाण वा पोयाण वा कुक्कुडपोमयागचा मक्कडपोसयाण वा तित्तिरपोसयाण वाणवा लावयपोमयाण वा चीरल्लपोमयाण वा हंसपोसयाण वा पाण वा सुपोमयाण चा ॥० २३||
निशोपत्रे
नेव्यवहाण ना' कथकेम्यो वा कथकाः राजमभायां ववव मर्कटादिवत कुर्यास्तेभ्य. 'लास
गया-को िगर भत्रियाणां दिनां मूभिषिकानामशनं वा पानं धा गाय व स्थापय त हिने प्रतिग्रहाति प्रतिगृहन्तं चा स्वते । नद्यथाया या महिषयेभ्यो या नृपभोगस्य या ोिपकेरा वा मृगपोषकेभ्यो या पोषकेभ्यो या या मोस्यो या तिभिरपोष केम्यो पूर्व या विषकन्यो या इसपोषकेभ्यो वा मनीषया । २|||
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सर्वेक दिनी राग व्यापयेयानि, नया 'आमद *** sube, gazura, zaznast'मावा' जनकन्य सम्मानां हनान्यग्य० इति सूत्रम् २५॥ पापानां हग्निनां
न्य स्मरान् इति २ "आम
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चूर्णिभाष्यावचूरि, उ० ९ सू० २८-२९ सचिवसन्देशकादिपरार्थनिस्सारिताशनादेनि० २१९ रोहाण वा हत्थिरोहाण वा' अश्वारोहकेभ्यो वा-अश्वानामारोहणकारकेभ्यः, हत्यारोहकेभ्यो वा हस्तिनामारोहणकारकेभ्यः० इति । एतेषां पूर्वोक्तानामश्वदमकादीनां निमित्तं बहिर्निस्सारित संपादितं वा अशनादि साधुर्न गृह्णीयात् , न ग्राहयेत् , गृह्णन्तं वा नानुमोदयेत् । एवं करणे साधुः प्रायश्चितभागी भवति, आज्ञाभङ्गानवस्थादिदोषांश्च प्राप्नोतीति ॥सू० २७॥ .
सूत्रम्-जे भिक्खू रणो खत्तियाणं सुदियाणं मुद्धाभिसित्तर्ण असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । तंजहा-सस्थाहावाण वा संवाहावयाण वा अब्भगावयाण वा उव्वद्यावयाण पा मज्जावयाण वा मंडावयाण छत्तग्गहाण वा चामरग्गहाण वा हडप्पग्गहाण वा परियदृग्गहाण वा दीवियग्गहाण वा असिग्गहाण वा धणुग्गहाण वा सत्तिग्गहाण वा कोतग्गहाण वा हत्थिपत्तग्गहाण वा ।।सू० २८॥
छाया-यो भिक्षु राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानामशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्य वा परस्मै निहतं प्रतिगृहाति प्रतिगृह्यन्तं वा स्वदते । तद्यथासावकेभ्यो वा संवाहकेभ्यो वा अभ्यञ्जकेभ्यो वा उद्वर्तकेभ्यो वा मज्जकेभ्यो वा मंडकेभ्यो वा छत्रग्रहेभ्यो वा चामरग्रहेभ्यो पा हडप्पग्रहेभ्यो वा परिवर्तनहेभ्यो वा दीपिकामहेभ्यो वा असिग्रहेभ्यो वा धनुर्घहेभ्यो वा शक्तिग्रहेभ्यो वा कुन्तग्रहेभ्यो वा हस्तिपत्रग्रहेभ्यो वा ॥ सू० २८ ।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि व्याख्या पूर्ववत् , केभ्यः परेभ्यः ! तान् प्रदर्शयति-'तं जहा' इत्यादि । 'तंजडा' तयथा-सत्थाहावाण वा' सार्थाहकेभ्यो वा राज्ञां सार्थानि सचिवादिरूपाणि आह्वयन्ति आमन्त्रयन्ति राजसंदेश वा कथयन्ति ये ते तथा, तानुद्दिश्य सम्पादितं स्थापितम् तथा 'संवाहावयाण वा' संवाहकेभ्यो वा, तत्र शयनकाले रानादीनां संवाहनं शरीरादेर्वा संवाहनं 'पगचंपी' इति प्रसिद्ध कुर्वन्ति ये ते, तेभ्यः 'अभंगावयाण वा' अभ्यञ्जकेभ्यो वा शतपाकसहस्रपाकादितैलेन राजादीनामभ्यञ्जनं 'मालिश' इति प्रसिद्धं कुर्वन्ति ये ते अभ्यलकाः तैलाभ्यङ्गकारकाः, तेभ्यः 'उव्वट्टावयाण वा' उद्वर्तकेभ्यो वा, तत्र राजादीनां शरीरे सुगन्धिद्रव्यमिश्रितपिष्टचूर्णादिना उर्तयन्ति 'उवटना' इति प्रसिद्धं कुर्वन्ति ये ते उद्धर्तकाः, तेभ्यः 'मज्जावयाण वा' मज्जकेभ्यो वा, तत्र ये राजादीनां स्नानं कारयन्ति ते मन्जकाः तेभ्यः, 'मंडावयाण वा' मंडकेभ्यो, वा तत्र मुकटादिना राजादीन् मण्डयन्ति-मण्डितं कुर्वन्ति अलड्कुर्वन्ति ये ते मण्डकाः, तेभ्यः 'छत्तग्गहाणवा' छत्रग्रहेभ्यो वा, तत्र ये राजादीनां छत्रं गृह्णन्ति धारयन्ति ये ते छत्रग्रहाः, तेभ्यः 'चामरग्गहाण
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निशीथसूत्र २२०, वा' चामरग्रहेभ्यो वा, तत्र ये चामरं गृह्णन्ति धारयन्ति ते चामरग्रहाः, तेभ्यः 'हडप्पग्गहाण वा' हडप्पग्रहेभ्यो वा, तत्र आमरणस्थापनाय यद् भाण्डं तत् हडप्पं कथ्यते तं गृह्णन्ति धाग्यन्ति ये ते हडप्पग्रहाः, तेभ्यः 'परियदृग्गहाण वा' परिवर्तनहेम्यो-परिवर्तः परिवर्तितवस्त्रादिस्थापनपात्रं मञ्जू. पादिरूपः, तं गृह्णन्ति धारयन्तेि ये ते परिवर्तग्रहाः, तेभ्यः 'दीवियग्गहाण वा' दीपिकाग्रहेभ्यो वा, तत्र राजादीनामग्रे गृहे वा दीपिका 'दीवर्ड' इति प्रसिद्ध, गृहन्ति धारयन्ति ये ते दीपिकाग्रहाः, तेभ्यः 'असिग्गहाण वा' असिग्रहेभ्यो वा, तत्रासिः स्वगः, तं राजादिखग गृहन्ति धारयन्ति ये ते मसिग्रहाः, तेभ्यः 'धणुग्गहाण वा' धनुर्घहेभ्यो वा, तत्र धनुश्चापः, तद् गृह्णन्ति ये ते धनुग्रहाः, तेभ्यः 'सत्तिग्गहाण वा' शक्तिग्रहेभ्यो वा, तत्र शक्तिः शस्त्रविशेषः, तं गृह्णन्ति ये ते शक्तिग्रहाः तेभ्यः 'कोंतग्गहाण वा' कुन्तः भल्ल: 'भाला' इति लोकप्रसिद्धः, तं गृह्णन्ति धारयन्ति ये ते कुन्तग्रहाः, तेभ्यः 'हत्थिपत्तग्गहाण वा' हस्तिपत्राहेभ्यो वा अङ्कुशधारिभ्यः, इत्यादिकार्यकारिणां प्रयोजनाय बहिनिस्सारित पाचितं स्थापितं वाऽशनादिकं यः स्वोकरोति स्वीकारयति वा स्वीकुर्वन्तं श्रमणान्तरं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० २८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेत वा साइज्जइ । तंजहा-चरिसधराण वा कंचुइज्जाण वा दोवारियाण वा दंडारक्खयाण वा ॥ सू० २९॥
छाया-यो भिक्षुः राक्ष क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानामशन वा पानं वा खाद्यं वा स्वाधं वा परस्मै निहतं प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते । तद्यथा-वधरेभ्योगिधा कञ्चुकिभ्यो वा दौवारिकेभ्यो वा दण्डारक्षकेभ्यो वा ॥सू० २९॥
चूर्णी-जे भिक्खू इत्यादि । स्पष्टम् । नवरम्-तत्र के ते परे तत्राह-'तंजहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'वरिसधराण वा' वर्षघरेभ्यो वा-वर्षघराः वर्द्धितकीकरणेन नपुंसकीकृता अन्तःपुररक्षकाः, तेभ्यः 'कंचुइज्जाण वा' कंचुकिभ्यो वा, तत्र कंचुकिनो राज्ञामन्तःपुरे निवसन्तो नपुंसका एव, तेभ्यः वर्षधरकञ्चुकिनोरयं भेदः-यत् वर्षधरः कृत्रिमनपुंसकः, कंचुकी तु जन्मजातो नपुंसक इति । 'दोवारियाण वा' दौवारिकेभ्यो वा द्वारपालेभ्यः 'दंडारक्खयाण वा' -दण्डारक्षकेभ्यो वा, दण्डेन आरक्षन्तीति दण्डारक्षकाः, तेभ्यः दण्डेन रक्षाकर्तृभ्यः । द्वारपालस्तु केवलं द्वारमेव रक्षति, दण्डारक्षकस्तु यत्र तत्र राज्ञोऽभिमतं कार्य रक्षतीत्यनयोरिपालदण्डारक्षकयोविशेषः, ततश्च राज्ञां गृहे वर्षधरादीनामुद्देशेन बहिनिस्सारितं पाचितं तदर्थ स्थापितं वाऽशनादिकं यो भिक्षुः लोभात् मोहात् स्वादवशाद् वा गृह्णाति गृह्णन्तं वाऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥स०२९॥
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पूर्णिभाष्यावरिः उ.९ सू. ३०-३१ राजादीनां कुन्जादिदासीनिमित्तनिस्सारिताशनादेनि० २२१
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । तंजहा-खुज्जाणं जाव पारसीणं । सू०३०॥
छाया--- यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मुर्दाभिषिक्तानामशनं वा पान वा खाद्य वा स्वाद्यं वा परस्मै निहतं प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते । तद्यथा-कुब्जाभ्यो यावत् पारसीभ्यः ॥३०॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । स्पष्टम् , नवरम्-अथ दासीनां निमित्तं निर्दृतमशनादिनिषेधे ताः दास्यः प्रदर्श्यन्ते–'तंजहा' इत्यादि । 'तंजहा' तद्यथा 'खुज्जाणं वा' कुब्जाभ्यो वा, तत्र कुब्जा शरीरतो वक्रा दास्यः, तासां कृते स्थापितमशनादिकमित्यन्वयः 'जाव' यावतयावत्पदेन- 'चिलाइयाणं वा वडभीणं वा बदरीणं वा वउसीणं वा जोणियाणं वा पल्हवियाणं वा ईसीणियाणं वा धोरुगिणीणं वा लासियाणं वा लकुसियाणं वा दमिलीणं वा सीहलीणं वा आरवीणं वा पुलिंदीणं वा पक्कणीणं वा वहलीणं वा मुरंडीणं वा सवरीणं वा' मासां दासीना ग्रहणं भवति, तत्र चिलाइयाणं वा' किरातिकाभ्यो वा किरातदेशोत्पन्नाभ्यः 'वामणीणं वा' वामनाभ्यो वा हस्वशरीराभ्यः 'वडमीणं वा' वडभीभ्यो वा वक्रार्धकायिकाभ्यो वा 'वन्बरीणं वा' बर्वरीभ्यो वा बर्बरदेशोत्पन्नाभ्यः 'वउसियाणं वा' बकुशिकाभ्यो बकुशदेशोत्पन्नाम्यः 'जोणियाणं वा' यावनिकाम्यो वा-यवनदेशोत्पन्नाभ्यः 'पल्हवियाणं वा पल्हविकाभ्यो वा-पल्हवदेशोत्पन्नाभ्यः 'ईसीणियाणं वा' ईसीनिकाभ्यो वा-ईसीनिकादेशोत्यन्नाभ्यो वा 'धोरुगिणीणं वा' धोरुकिनीभ्यो वा घोरुकदेशोत्पन्नाभ्यः 'लासियाणं वा' लासिकाम्यो वा लासदेशोत्पन्नाभ्यः 'लउसियाणं वा' लकुशिकाभ्यः लकुशदेशोत्पन्नाभ्यः 'दमिलियाणं वा' द्राविडिकाभ्यो वा द्रविडदेशोत्पन्नाभ्यः 'सीहलीणं वा' सिंहलीभ्यो वा सिंहलदेशोत्पन्नाभ्यः 'आरवीणं वा' आरबीभ्यो वा अरबदेशोत्पन्नाभ्यः 'पुलिंदीण वा' पुलिन्दीभ्यो वा पुलिन्ददेशोत्पन्नाभ्यः भिल्लजातीयाभ्यो वा 'पक्कणीणं वा पक्कणीभ्यो वा पक्कणदेशोत्पन्नाभ्यः 'बहलोणं वा' बहलीम्यो वा बहलदेशोत्पन्नाभ्यः 'मुरंडीणं वा' मुरण्डीभ्यो वा मुरण्डदेशोत्पन्नाभ्यः 'सवरीणं वा' शबरीभ्यो वा शबरदेशोत्पन्नाभ्यः, अथवा शबरः भिल्लविशेषः, तज्जातीयाभ्यः, 'पारसीणं वा' पारसीम्यो वा पारसदेशोत्पन्नाभ्यः, सर्वा अपि एता दास्य एव ज्ञातव्याः। तथा च राजादीनां भवने दासीभ्यः पाचितं स्थापितं च अशनादिकं यो गृह्णाति स्वयं परान् वा ग्राहयति गृहन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति ॥सू० ३०॥
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नेशीथयो
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सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ।।सू० ३१॥
| निसीहज्झयणे नवमो उद्देसो समत्तो ॥९॥ छाया-तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिक परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ।।सू० ३१॥
॥ निशीथाध्ययने नवम उद्देशः समाप्तः ॥९॥ चूर्णी-'तं सेवमाणे इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत्मेवमानः तत् नदमोद्देशकोक्तं राजपिण्डादारभ्य दासीनिमित्तनिहताशनादिग्रहणपर्यन्तं प्रायश्चित्तस्थानं सेवमानः तादृशस्थानानां मध्ये यस्य कस्याप्येकस्य अनेकस्य सर्वस्य वा प्रायश्चित्तस्थानस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् श्रमणः श्रमणी वा 'आवज्जई' आपद्यते प्रामोति 'चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् गुरुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीति |स् . ३१॥
इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक. प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त
"जैनशास्त्राचार्य-पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
भाष्यरूपायां व्याख्यायाम् नवमोदेशकः समाप्तः ॥९॥
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॥ दशमोदेशकः ॥ व्याख्यातो नवमोद्देशकः, अथ दशमोद्देशकः प्रारभ्यते, अस्य दशमोदेशकस्य नवमोदेशकेन सह कः सम्बन्ध इति चेदत्राह भाष्यकार:--'रायपिंड' इत्यादि । भाष्यम्-रायपिंडं च मा भुंजे, तहा दासीनिमिचगं ।
गिद्धो वयइ आगाढं, दसमे तन्निसेहणं ॥१॥ छाया-राजपिण्डं च मा भुक्ष तथा दासीनिमित्तकं ।
गृद्धो वदति आगाद, दशमे तन्निषेधनम् ॥१॥ अवचूरिः- पूर्व नवमोद्देशकान्तिमसूत्रे राजपिण्ड दासीनिमित्तकं पिण्डं च न भुजीत इति भगवता निषिद्धं तत आचार्यः शिष्यं कथयति-हे आर्य ! 'रायपिंड' राजपिण्ड तथा दासीनिमित्तकं पिण्डं मा भुड्ड्व, एवमुक्तः शिष्यः 'गिद्धो' गृद्धः राजपिण्डे दासीनां रूपे च मूर्छितः सन् तन्निवारणे कृते आचार्यम् आगाढं-परुषं वदतीति दशमेऽस्मिन् उद्देशके तन्निषेधनं तस्य तादृशस्यागाढवचनस्य निषेधनं निवारणं कृतम् । यस्मात् राजादौनामशनादिकं विशिष्टं भवति तत्र, तथा राजादीनां दास्यः प्रायः सौन्दर्यशालिन्यो भवन्ति आहारप्रसङ्गादासीभिः सह परिचयसंमवात्तद्रूपे च मूछितो मोहोदयात्संयमाद् भ्रष्टो भवितुमर्हति तस्मात्कारणाद् रानपिण्डादेनिपेधे शिष्यः परुपं ददेदिति तन्निषेधनमत्र प्रतिपादयिष्यते । एष एव नवमोदेशकेन सह दशमोशकस्य सम्बन्धः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य ‘दशमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम्-'जे भिक्खू भदंत' इत्यादि।
सूत्रम्-जे भिक्खू भदंतं आगाढं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥सू०१॥
छाया-यो भिक्षुर्भदन्तमागाढं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥सू०१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः 'भदंतं' भदन्तं 'भदि कल्याणे सुखे च' इति धातोः रूपम् । तेन भदन्तं कल्याणकारकम् माचार्यमुपाध्यायं पर्यायज्येष्ठं च प्रति 'आगाढं' आगाढम्, तत्र गाढं कठोरम् अत्यर्थं गाढमागाढं सरोषवचनम् 'वयई' वदति कथयति। यो भिक्षुः राजपिण्डादिपु गृद्धः आचार्यादिना निवारित आचार्यादिकं अतिशयाधिक कठोरवचनं वदति तथा 'वयंतं वा साइज्जई' वदन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुराचार्येण राजपिण्डादिषु निवारित आचार्यादिकं माशातनारूपं कठोरवचनं वदति तादृशं श्रमणान्तरं यो अनुमोदते च स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-आगाई दुविहं बुत्तं, सूयया य असूयया ।
तेसिं दोण्ह सख्वं च, गेयं सत्यानुसारओ ॥
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२२४
निशीथसूत्रे
छाया-'आगाढं द्विविधं प्रोक्तं सूचया च असूचया ।
तयोद्वयोः स्वरूपं च क्षेयं शास्त्रानुसारतः ॥ अवचूरिः-अत्र तु सूचयति परस्य दोषान् कथयतीति सूचा परदोषाविष्करणम्, असूचान सूचा परदोपाविष्करणरूपेति-असूचा । यत्र परस्य दोषाः सूच्यन्ते नात्मन-इति सूचा । यत्र परस्य दोपा न सूच्यन्ते स्वात्मनः सूच्यन्ते सा-असूचेति भावः, अत्रेदं प्रथममागाढसूत्रम् १, द्वितीयं परुपसूत्रम् २, तृतीयमागाढपरुपमुभयरूपम् ३, तत्र येनोक्तेन स्वपरशरीरे ऊष्मा समुत्पद्यते तदागाढम् १. यत् स्नेहरहितमुपेक्षावचनं तत् परुषम् २, यत्र द्वयोरागाढपरुषयोः संयोगो भवेत्तद् आगाढपरुपं कथ्यते ३, । एतत् त्रिविधमपि वचनमेकैकं सूचाऽसूचाभ्यां द्विविधं भवति । तन्त्र प्रथममागाहवचनं वित्रियते-'आगाढं दुविई' इत्यादि । तत् मागाढम्-आगाढवचनं द्विविध प्रोक्तम्-सूचया असूचया चेति । एषा सूचा असूचा च सप्तदशप्रकारके वस्तुनि भवति-जातौ १, कुले २, रूपे ३, भाषायाम् ४, धने ५, बले ६, पर्याये ७, यशसि ८, तपसि ९, लाभे-१०, सत्त्वे ११, वयसि १२, बुद्धौ १३, धारणायां १४, उपग्रहे १५, शीले १६, सामाचार्या च १७/ तत्र जातो सूचा परस्य स्फुटमेव दोपं भापते नात्मनो दोषं वदति यथा जातिविशिष्टेऽपि न त्वं जातिविशिष्टोऽसि महं पुनर्जातिमान् , इत्यादिकथनरूपा जातिविषया सूचा १, असूचा तु यथा भोः ! अहं जातिहीनोऽस्मि भवान् जातिमान् तथा च जातिमता सह जातिहीनस्य मे को विरोधः ! एपा जातिविपया असूचा, अहं भोः ! कुलवान् भवान् कुलहोन इति कुलविषया सूचा । एवम् अहं भोः ! कुलहीनः, कुलपुत्रैः सह को विरोधोऽस्माकमिति कुलविषया असूचा २, तथा अहं भोः । रूपवान् भवान् रूपहीनः कुरूपोऽस्तीति रूपविषया सूचा । एवम् अहं भोः ! रूपहीन' सुरूपदेहवता सह को विरोधः ? ३॥ एवं प्रकारेण भाषादिपु सर्वेपु स्थानेष्वपि सूचा असूचा च भणितन्या, तत्र सूचा परंगता, असूचा आत्मगता भवति । तत्र भाषा-वाणी ४, धनम्-हिरण्यसुवर्णरजतादिकम् ५, बलम मौरसः पराक्रमः ६, पर्यायः प्रव्रज्याकालः ७, यशः लोकख्यातिः ८, तपः संयमश्चतुर्थभकादिर्वा ९, लाभ:-आहारोपकरणादिलब्धिः १०, सत्त्वम्-आत्मबलम् ११, वयःभवस्था १२, बुद्धिः-औत्पत्तिक्यादिः १३, धारणा-दृढस्मृतिः १४, उपग्रहः-बहुबहुविवक्षिप्रा-- निश्रितासंदिग्धध्रुवाणामुपकारकरणम् १५, शीलम्-अक्रोधादिप्रकृतिः १६, सामाचारी-चक्रवालरूपा साधुसामाचारी १७, एतानि सर्वाणि स्थानानि समवलम्व्य सूचया वाऽथ असूचयाऽऽचार्यादिकं प्रति एकमप्यागाढवचनं न वदेत्, नाप्यन्यं वक्तुं प्रेरयेत् वदन्तं वा नानुमोदयेत् । यः कोऽप्येवं करोति स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गाऽनवस्थादयोऽनेके दोषा भवन्तीति |सू१०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू भदंतं फरुसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥सू० २॥ छाया-यो भिक्षुर्मदन्तं परुपं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥सू० २॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिःउ १० सू० १४ भदन्तं प्रति आगढादिभाषणतदाशातनानिषेधः २२५
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भदंत' भदन्तमाचार्योपाध्यायादिकं पर्यायज्येष्ठं वा 'फरुष' परुष कर्कशं कठोरवचनं स्नेहरहित रूक्षमित्यर्थः वाक्यं 'त्वं व्यवहारं न जानासि' इत्यादिकम् 'वयई' वदति भाषते 'वयंत वा साइज्जइ' वदन्तं वा स्वदते । आचार्याय कठोरवचनभाषकं श्रमणमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू० २॥
सूत्रम्-जे भिक्खू भदंतं आगाढं फरुसं वय वयंतं वा साइज्जइ॥ छाया-यो भिक्षुर्भदन्तं आगाढंपरुषं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥सू० ३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भदंता भदन्तम् आचार्योपाध्यायपर्यायज्येष्ठादिकं 'आगाई फरुसं' आगाई परुष सूचाऽसूचादिभेदभिन्न प्रथमसूत्रवर्णितमागाह्न तथा परुपं कर्कशं रूक्षं वचनम् 'वयई' वदति भापते 'वयंत वा साइज्जई' वदन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० ३॥
सूत्रम्- जे भिक्खू भदंतं अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएइ अच्चासाएतं वा साइज्जइ ॥सू० ४॥
छाया-यो भिक्षुर्भदन्तमन्यतरया अत्याशातनया अत्याशातयति अत्याशातयन्त वा स्वदते ॥सू० ४॥
चूर्णी--'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे. भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भदंत' भदन्तमाचार्यादिकं पर्यायज्येष्ठं च 'अण्णयरीए अन्यतरया दशाश्रुतस्कन्धे त्रयस्त्रिंशत्प्रकारा आशातनाः कथिताः तासां मध्यात् 'अन्यतरया यया कयाचिदेकयापि 'अच्चासायणाए' अत्याशातनया तथाऽऽचार्यादिकं प्रति विनयवैयावृत्यादिकरणेन यत् फलं प्राप्यते तत् फलं आशातयति विनाशयतीति आशातना, यद्वा ज्ञानादिगुणा आ-सामस्त्येन शात्यन्ते अपध्वस्यन्ते यया सा तया अन्यतरया आशातनया आचार्यादिकं पर्यायज्येष्ठं च 'अच्चासाएई' अत्याशातयति तेषामाशातनां करोति 'अच्चासाएंतं वा साइज्जई' अत्याशातयन्तम् आशातनां कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-आसायणा चउबिहा, दबखेत्ताइभेयभो । । एएसिं खल णाणत्त, वोच्छ सत्थानुसारओ ॥
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निशोयसो दब्वे भोयणमाइस, खेने गमणाइएस णायव्यं ।
काले विपज्जओ खलु, भावे मिच्छाइया दोसा ॥ छाया-आशातना चतुर्विधा, द्रव्यक्षेत्रादि-मेदतः ।
पतासां खलु नानात्वं, वक्ष्ये शास्त्रानुसारतः ।। द्रव्ये भोजनादिपु, क्षेत्रे गमनादिकेषु शातव्यम् ।
काले विपर्ययः खलु, भावे मिथ्यात्वादिका दोषाः ॥ अवचरिः-यास्त्रयस्त्रिंशत्प्रकारा दशाश्रुतस्कन्धोक्ता आशातनास्ता द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात प्रत्येक चतुर्विधाः चतुष्प्रकागः सन्ति, एतासां द्रव्यक्षेत्रादिमेदभिन्नानामाशातनानां नानात्वं भेदोपमेदवर्णनं स्वरूपवर्णनं च शास्त्रानुसारतो यथाशास्त्रं यथामति च वक्ये कथयिष्यामि, तत्र द्रव्ये आशातना भोजनादिषु आहारादिषु भवतीति ज्ञायताम्, यथा शैक्षको रात्निकेन सह अशनादिकमाहारजातम् आहरन् तत्र शक्षकः गुरुणा सह मुञानस्तमनापृच्छयैव भद्रं भद्रं आहरति, तथा शैक्षको गनिकेन पर्यायाधिकेन वा सह अशनादिकं प्रतिगृह्य तद् रत्नाधिकमनापृच्छयैव यस्मै इच्छति तम्मै ददाति, एवं वस्त्रपात्रादिकेप्वपि विज्ञेयम् । क्षेत्रे शास्त्रमर्यादामुल्लध्य विहारे पुरतः पार्श्वतो मार्गनो वा आमन्नतो वा गमनं करोति, एवं स्थित्युपवेशनादिकेष्वपि विज्ञेयम् २। काले विपर्यासो यथा शेक्षको रत्नाधिकस्य गत्री विकाले वा आहयतो गुरोर्वचनमप्रतिशृण्वन् इव तिष्ठति, नोत्तर ददाति ३१ भावे विपयांसः-यद् यद् गुरुः माधुसमाचारों सूत्रार्थतदुभयं वा शिक्षयति तत्तत् न शणोति, अथवा अण्वन् अपि अश्रुन इव तिष्ठति, अन्यथा वा वदति, अथवा गुरुधर्मकथायां प्रसन्नो न भवति, पर वा भापते इत्यादि ४ तथा द्रव्यत आशातनाकरणे इमे दोपाः, तथाहि-यदि गुरुमनापृच्छ्य भृत्क्ते नदा कदाचिन मचित्तं सदोषमपथ्यमपि च भुञ्जीत, अतिप्रमाणं वा भुञ्जीत तदा अजीण स्यान वमनादिक वा भवेत , इत्यादिका अनेके दोपा भवेयुरिति ११ क्षेत्रत आशातनायामिमे दोषाः, तथाहि-गुरोः पुग्नः पार्वतो मागतः आसन्नतथः गच्छतः शिष्यस्य साधुमर्यादोल्लद्विता भोत , एषा क्षेत्राशातना २ । कालत अगातना यथा ग्लानो गुरुर्विकाले रात्रौ वा शिष्यमावयति नदा नवाप्रनिशृण्वत. शिष्यस्य ग्लानविराधनादिदोपा भवन्ति, उपकरणादिविनाशो वा असंयो वा भोन . आचार्य, क्रुद्रोषि भवेत् । तथा शृण्वन् अपि अशृण्वन् इव तिष्ठति तदा अन्यः पनि मायु कषयेत किं भोः न गुणोपि किमकणों बधिरो भवान् , तदा तत्रोत्तरप्रत्युत्तरकरणे परम्प कन्दोसि ममदिति कालागातना ३ । एवं यो भावाशातनां गुरोः करोति तदा नम्यागः मियोऽपमानं फगेति. श्रुनालामश्च भवति एवं तस्य लोकेऽपि पराभवो भवति । यादगो दीपा भवन्तीनि मा
मृत्रम्-जे भिक्खू अणंतकायसंजुत्त आहारं आहारेइ आहारेतं वा साइजड |मू० ५॥
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M
बुर्णिशाध्यावरिः उ०१० २०५-६
आधाकर्माहारपरिभोगनिषेधः २२७ छाया-यो भिक्षुरनन्तकायसंयुक्तमाहारम् आहरति आहरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अणंतकायसंजुत्तं' अनन्तकायसंयुक्तम् , तत्र अनन्तकायः पनकशैवालादिः तेन संयुक्तं संमिलितम् 'आहार' आहारम् अशनादिचतुर्विधाहारम् 'आहारेइ' आहरति-पनकशैवालादिमिश्रितमाहारमुपभुडक्ते 'आहार वा साइज्जई' आहरन्तं वा स्वदते । यो हि श्रमणः श्रमणी वा अनन्तकायसंयुक्तमाहारं भुङ्क्ते तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ५॥
सूत्रम्--जे भिक्खू आहाकम्मं भुंजइ भुजंत वा साइज्जइ ॥ सू०६॥ छाया--यो भिक्षुराधाकर्म भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥सू० ६॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'आहाकम्म' आधाकर्म आधानम् आधा चेतसि साधून आधाय मनसि निधाय तन्निमित्तं षड्जीवनिकायोपमर्दनादिना कर्म-भक्तादिपाकक्रिया क्रियते तद्योगाद् भक्तावपि आधाकर्म, तादृशमाहारं 'भुजइ' भुक्ते माहरति आधाकाहारजातस्य भोजनं करोति कारयति वा तथा 'भुंजत वा साइज्जई' भुञ्जानं वा स्वदते । यो हि श्रमण आधाकाहारमुपभुक्ते तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम् -संजयं च मणे किच्चा, निप्फाए ओयणाइयं ।
छक्कायजीवमद्देणं, आहाकम्मं मुणेहि तं ॥१॥ तं च गिण्हइ जो भिक्खू , असणाइ चउन्विहं ।
दायारं णियमप्पाणं, दोसजुत्तं करेइ सो ।।२।। छाया-संयतं च मनसि कृत्वा निष्पादयेत् ओदनादिकम् ।
षट्रकायजीवमर्दैन आधाकर्म जानीहि तत् ॥१॥ तच्च गृक्षाति यो भिक्षुः अशनादि चतुर्विधम् ।
दातारं निजमात्मानं दोषयुक्तं करोति सः ॥२॥ अवचरि:-'संजयं' इत्यादि । 'संजयं' संयतं साधु च मनसि कृत्वा कमपि साधुमुद्दिश्य यत् मोदनादिकं निष्पादयेत्, तद् ओदनादिकं षट्कायजीवमर्दैन षटकायजीवविराधनया आधाकर्म जानीहि ॥१॥
तच्च तादृशमशनादि चतुर्विधमाहारं यः कोऽपि भिक्षुर्गृह्णाति स दातारम् आधाकर्माहारदायक, तथा निजमात्मानं च दोषयुक्तं करोति । तथाहि-कस्यापि श्रावकादेर्गुहे कमपि साधुमुद्दिश्य
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२२८
निशीथसूत्रे
ओदनाद्यन्नं षड्जीवनिकायोपमर्दनपूर्वकं निष्पादितम्, दाता च विचिन्तयति-दमोदनाद्यन्नं कस्मैचित् साधवे देयं, तेन दानेन महान् पुण्योदयो भवेत् इति विचिन्त्य तेनाशनादिना साधु निमन्त्र यति, साधुव तादृशमोदनाधाहारं गृह्णाति तदा गृहतः साधोराज्ञाभङ्गादिदोषा अतिक्रमादयो दोषाश्च ददतश्च दातुः सदोपाहारदानप्रभवा दोषाश्च समापतन्ति । दातारः श्रावका विविधा भवन्ति नालबद्धकाः, मध्यस्थाः, भद्रकाथ, तत्र कोपि भद्रक आधाकर्मकमन्नं सम्पाद्य उपाश्रये समागत्य साधवे कथयति--मद्गृहे आगत्याहारं गृहाण, तद्ग्रहणाय साधुः सज्जीभूतो भवतीति अतिक्रमः, श्रावकेण सह गच्छतीति व्यतिक्रमः, श्रावकगृहात् पात्रे गृहीत्वा चाहारमानीय मुग्ने प्रक्षिपति चर्वति इत्यतिचारः, तदनु गलबिलादधोऽवतारयति तदा तस्याना चारो भवति, एवं दातृविषयेऽपि आधाकर्माहारादिसंपादनेऽतिक्रमः, निमन्त्रणे व्यतिक्रभः, साधोर्गृहानयनेऽतिचारः, दाने चानाचार इति । तत् आधाकर्मकं त्रिप्रकारकं भवति- आहारे उपकरणे वसतौ च, आधाकर्मकाहारश्च चतुर्विधो भवति -अशनपानखाद्यस्वाद्यभेदात् उपधिर्द्विविधः वस्त्रपात्रभेदात्, तत्र वस्त्रे आधा कर्मकं पञ्चप्रकारकं भवति जाङ्गमिकभाङ्गिकादिमेदात्, तत्र जामिकं - जङ्गमप्राणिरोमनिष्पन्नं ऊर्णामयं वस्त्रम् १, भाङ्गिकम् अतस्यादिसूत्रनिष्पादितवस्त्रम् २, शाणकं शणनिष्पादितवस्त्रम् ३, पोतकं - कार्पासिकवस्त्रम् ४, तिरीडपट्टकम् - अर्कतूलादिनिष्पादितवस्त्रम् ५ । तस्मिन् तादृशे पञ्चविधे वस्त्रे आधाकर्मकम् । पात्रे चाघाकर्मकं त्रिविधम्- अलाबुकदारुकमृत्तिकापात्रभेदात् । वसत्याधाकर्मकं द्विविध मूलगुणे आधाकर्म, उत्तरगुणे आधाकर्म च तत्र श्रमणार्थे गृहादिनिर्माण मूलगुणे आधाकर्म । निर्मितस्यैव गृहादेः छादनोपलेपनादिकमुत्तरगुणे आधाकर्म इति ।
*
अत्र - - आधा कर्मग्रहणाद् मप्रस्था औद्देशिकादयः सर्वेऽपि उद्गमदोषाः संग्राह्याः, तत्परिभोगे साधुः प्रायश्चित्तभागी भवति । अत्रोदाहरणं यथा
पूर्वस्मिन् काले एकः समन्तभद्राचार्यः शिष्यपरिवारपरिवृतो विहरति स्म । स ग्रामानुग्रामं विहरन् कस्मिंश्चिन्नगरे चातुर्मास्यं कर्त्तुकामो मार्गस्थिते एकस्मिन् लघुग्रांमे गन्तुं प्रस्थितः, तत्रतस्तन्नगरमतिदूरं वत्र्त्तते । तन्नगर श्रावकाः, आचार्योऽत्रागमनार्थं प्रस्थित इति ज्ञात्वा चिन्तयन्तियद- आचार्यश्चातुर्मासावधि काले अत्रागन्तुमसमर्थों नात्रागमिष्यातीति कृत्वा ते श्रावका आचार्यागमनात् पूर्वमेव मध्यमार्गस्थिते तस्मिन् लघुग्रामे समागत्य निवासं कृतवन्तः । ग्रामानुग्रामपरिपाट्या विहरन् स आचार्यस्तस्मिन् लघुप्रामे संप्राप्तः । तत्रतो विहर्तु - कामाय तस्मै ते सर्वे निवेदितवन्तः - भो आचार्याः ! यस्मिन्नगरे भवन्तो गन्तुकामास्तन्न गरमतिदूरं वरीवर्त्ति चातुर्मासागमने चाऽल्पीयांस एव दिवसा इति भवद्भिश्चैव चातुर्मास्यं कर्त्तव्यम् । इति तेषां प्रार्थनां स्वीकृत्याचार्यश् चातुर्मासार्थं तत्रैव स्थितः । पूर्णे चातुर्मासेऽन्यत्र विद्वतवान् । ततो जनपदविहारं विहरन् द्वादशवर्षानन्तरं पुनस्तत्रैव लघुग्रामे संप्राप्तः पश्यति तं ग्रामं समृद्धजनरहितं
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पूर्णिभाष्यावद्भिः उ० १० सू० ७-९ अतोतवर्तमानानागतनिमित्तभाषणनिषेधः २२९ पृच्छति च तत्रत्यलोकान्-भोः ! समृद्धजनसंकुलोऽयं प्रामः पूर्वमासीत् सम्प्रति कथमेतादृशः समृद्धजनशून्यो जातः ? लोकाः कथितवन्तः-भो आचार्याः, लघुग्रामेऽत्र भवत्सेवानिमित्तमेवात्रागत्य ते समृद्धजना निवसिताः आसन्, भवद्विहारानन्तरं गतवन्तस्ते स्वस्वस्थाने । इति श्रुत्वा-आचार्यश्चिन्तयति-अहो ? अस्माभिरत्राधाकर्मादिदोषदुष्ट आहारादिरवश्यं परिभुक्तस्ततः प्रायश्चित्तस्थान प्राप्ता वयमिति तद्दोषिनिवारणार्थ प्रायश्चित्तं करणीयं स्यादिति शिष्यसहितः स शास्त्रोक्तं प्रायश्चित्तं कृतवान् । तस्मात् कारणात् दर्शनार्थमागतानामशनादि साधुभिः कदापि कथमपि न ग्रहीतव्यम्. न वाऽन्यं ग्राहयेत् , गृह्णन्तं वाऽन्यं श्रमणं नानुमोदयेदिति । सू०६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू तीतं निमित्तं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ।। सू०७॥
छाया-यो भिक्षुरतीतं निमित्तं कथयति कथयन्तं वा स्वदते ॥ सू०७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'तीतं निमित्त' अतीतम् भूतकालिकम् भूतकाले जातं सुखदुःखलाभालाभजीवनमरणभेदात् षड्विधं निमित्तम् 'कहेई' कथयति लोकानां पुरतः प्रकाशयति, अतीतकालिकं ज्योतिःशास्रोक्तग्रहादिजन्यं सामुद्रिकशास्त्रोक्तरेखादिजन्यं च निमित्तं स्वस्य सत्यनिमित्तज्ञातृत्वप्रख्यापनार्थ कथयति-यथा कोऽप्यतीतकाले केनापि स्वस्य शारीरिक-मानसिक-सुखदुःखादिविषयो लाभालामजीवनमरणादिविषयो वा प्रश्नः कृतोऽभूत् तद्विषये तं वदेत्-मया तुभ्यं यद् यत् कथितं तत्तत्सर्वं सत्यतया त्वयाऽनुभूतम् , इत्यादिरूपमतीतकालविषयकं निमित्तं प्रकाशयति । तथा 'कहेंतं वा साइज्जई' कथयन्तं वाऽन्य श्रमणं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० ७॥
सूत्रम्--जे भिक्खू पडुप्पण्णं निमित्तं वागरेइ वागरेंतं वा साइज्जइ॥
छाया–यो भिक्षुः प्रत्युत्पन्नं निमिचं व्याकरोति व्याकुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू०८॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः 'पडुप्पन्न' प्रत्युत्पन्नम् वर्तमानकालिकम् 'निमित्त निमित्तं ज्योति शास्त्रादिजन्यम् । यथा कोऽपि पृच्छेत्-विदेशस्थितोऽमुको मम स्वजनः संप्रति सुखी दुःखी वाऽस्ति ? लाभवान् अलाभवान् जीवितो मृतो वा ?, तथा' अहं संप्रति सुखी दुःखी वाऽस्मि ?, तथा मया अमुकस्य पार्श्वे मज्जनः प्रेषितः सोऽनुको जनस्तस्य मिलितो न मिलितो वा ? इत्यादिरूपं निमित्तं 'वागरेई' व्याकरोति प्रकाशयति कथयतीति यावत् 'वागरेंतं वा साइज्जइ' व्याकुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ८ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अणागयं निमित्तं वागरेइ वागरेतं वा साइज्जइ ॥ सू०९ ॥
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निशीयसूत्रे छाया-यो भिक्षुरनागतं निमित्तं व्याकरोति व्याकुर्वन्तं वा स्वदते ॥९० ९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अणागयं निमित्त वागगेइ अनागनं निमित्तं व्याकरोति, तत्र अनागतं भविष्यत्कालिकं सुखदुःखलाभालामजीवनमम्गविषय, यथा तवैताय कालानन्तरं सुम्बदुःखादिकं भविष्यति, लोके सुभिक्षं दुर्भिक्ष वा भविष्यति नयररिवर्तनं युद्धादिकं वा भविष्यति, इत्यादिरूपं निमित्त 'वागरेइ' व्याकरोति कथयति 'शगरेनं वा सारजाई' व्याकुर्वन्तं भविष्यत्कालिकलाभालाभादिकं कथयन्तं प्रकाशयन्तं वा वदनेऽनुमोदते, स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
माह भाग्यकार:भाष्यम्-लाभालाभ मुहं दुक्खं, जीवियं मरणं तहा ।
___ वागरे गिहिमाईणं, संजमत्तविराहओ ॥ छाया-लामालाभं सुलं दुःख जीवितं मरणं तथा ।
___ व्याफुर्याद् गृहादोनां संयमात्मविराधक ॥
अवचूरिः-लाभालाभौ मुखदुःखे जीवितं तथा मरणम् , एतत् षड्वस्तुजातम् अतीतानागनवर्तमानकालविषयकम् गृहिणां गृहस्थानां श्रावकाणां तथा आदिशब्दात् अन्यतीथिकानां वा गाकुर्यान् कथयेत् स माधुः संयमात्मविराधको भवति । तत्र संयमविराधना निमित्तभापणे साधुक्रिया अवच्छेदरूपा, मामचिराधना चाशुभ संपन्ने साधुताडयेत्, राजपुरुषादिना साधु ग्राहयेत् , गनादिना वा निहीतो भवेत् , इत्यादिका अनेके दोषाः, शास्त्रनिपिद्धत्वेनाज्ञाभङ्गादिका दोपाश्च भवेयुः नम्माकारणात श्रमण. त्रिकालविषयक लाभालामसुखदुःखजीवितमरणादिकं निमित्त कदाचिदपि न कश्येन स्वयम , न वा पराग प्रकाशयेत्, न वा प्रकाशयन्तमनुमोदेत । अत्रैतदुदाहरणम् -
आमीन मगधदेशे मावकों नाम तलवरः (कोट्टपालः) स कदाचित् युद्धार्थ गतवान् , ततः कदाचिन नस्य गेहे भिक्षार्थ कश्चित् माथुरागत., तत्पल्य पृष्ठः-भो साधो ! मम पतिः कदा आमियान । माधुना कथितम् ५. समागमिष्यति । ततः सा द्वितीय दिवसे कृतशृङ्गारा तदा. गमनं प्रनी माणा तिष्टनि नायन् अश्वकर्णः तस्वरः ममागत. । स कृतशृक्षारां पत्नीमपृश्यत्
नाम धिना ! तया कधिनम्-भवत भागमनसमाचारं ज्ञात्वा, तेन कथितम्-कथं
: ! नमानया कधिनम्-मासकाशात् विनाय वृतमाग स्थिताऽस्मि । तस्मिन्नेवाव. in पर मा मिनर्थ मागत , अमो नलवरम्त परीक्षार्थ तं माधु पृष्टवान् -मम वडवाया 3 km विप्नं ! मानुनि म नयनादबोचन -तस्याः गर्ने श्वेतनिलको घोटकस्लिष्टति, इति
मनुष्यान परिवानार्थ वटवां इतवान्, तादामेव गर्म दृष्ट्वा माश्चर्यों जात. । साधुश्च स्वस:
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पूर्णिमायावचूरिः उ० १० सू० १०
अन्यशैक्षवुद्धिविपरिणमननिषेधः २३१ मक्षं तादृशजीवद्वयवधं दृष्ट्वा आत्मघातं कृतवान् । तलवरपुत्रोऽपि वडवादिवर्धे दृष्ट्वा तथैवात्मघात कृतवान् , पुत्रशोकात् तलनरपत्नी अपि मृता, तदनन्तर कलत्रपुत्रशोकात् तलवरोऽपि स्वशरीरमत्यजत् । एवं निमित्तकथने महान् अनर्थो जायते, अतः साधुः कदापि निमित्तं न प्रकाशयेदिति भावः ॥सू० ९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सेहं विपरिणामेइ सेह विपरिणामेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१०॥ छाया-यो भिक्षुः शैक्षक विपरिणमयति शैक्षक विपरिणमयन्त वा स्वदते ॥ सू० १०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सेहं विप्परिणामेई' शैक्षं शिष्यं विपरिणमयति अन्यसाधुशिष्यस्य बुद्धि व्यामोहयति तस्य गुरोनिन्दाकरणेन स्वगुणोत्कीर्तनादिना च कश्चित् शैक्षकं वदेत्-ममाचार्य एव श्रेष्ठो न तु तव, इत्यादि कथयित्वाऽन्यस्य शैक्षक विविधैः प्रकारेस्तस्यात्मानं विपरिणमयति पूर्वगुरुविषये तं विगतपरिणाम करोति, अथवा वस्रपात्राहारसूत्रार्थादीनां प्रलोभनं दत्त्वा स्वकीय शिष्यं कर्तुं तन्मति व्यामोहयति तथा 'विपरिणामेंतं वा साइज्जई' विपरिणमयन्तं वा स्वदते अन्यदीयशिष्यस्य बुद्धिव्यामोह कुर्वन्तं श्रमणं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम् - दुविहो विप्परिणामो, पन्धज्जिय अप्पवज्जिए तह य ।
एक्केको पुण दुविहो, पुरिसित्थीभेयओ होई ॥ छाया-द्विविधो विपरिणामो, प्रव्रजितेऽप्रनजिते तथा च ।
एकैकः पुनद्विविधा, पुरुषस्त्रीमेदतो भवति ॥ अवचरिः-विपरिणामः द्विविधः द्विप्रकारको भवति, एको विपरिणामः प्रबजिते शैक्षे, तथा च द्वितीयः अप्रव्रजिते शैक्षे । पुनरपि एकैको विपरिणामः द्विविधः पुरुषस्त्रीभेदतो द्विविधो भवति ज्ञातव्यः । द्विविधे परिणामे प्रथमं प्रवजितशिष्यविषयं विपरिणामं दर्शयति-यथा कश्चित् साधरन्यशिष्य स्थण्डिलादिभूमिमार्गे मिलितं कथयति-तव गुरुन श्रेष्ठः, त्वां समीचीनतया न रक्षितुमर्हति, न पाठयति, न वस्त्रपात्राहारादिना त्वां तोषयति, अतस्त्वं मम समीपे मागच्छ, त्वामहं सम्यकया पठनपाठनादिना तोषयिष्यामि, इत्यादि कथनेन तन्मतिं व्यामोह्य स्वशिष्यं करोतीति प्रजितशिष्यविषयको विपरिणामः । अप्रव्रजितविषयको विपरिणामश्चेत्थम्-कश्चिदीक्षार्थी ममक स्थाचार्यस्य समीपे दीक्षा ग्रहोण्यामीति संप्रधाऱ्या गृहात् प्रस्थितः, मार्गे च कश्चित् द्वितीयः साधु
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निशीथस्त्रे
२३२
मिलितः, स साधुवेषं दृष्ट्वा वन्दनादिकं कृतवान् ,, ततः साधुराह-कुत्र गच्छसि ? स प्राह अमुकस्याचार्यस्य समीपे दीक्षा ग्रहीतुं गच्छामि, इति श्रुत्वा स साधुः तस्य दीक्षार्थिनो मति विपरिणमयति, स्वपक्षे कर्तुं भक्तादिदानधर्मकथादिप्रज्ञापनेन तस्य बुद्धेविपरिणामं करोति ।
अथ विपरिणामनप्रकारान् प्रदर्शयति भाष्यकार:- 'भाष्यम् आहिंडइ अणिसं सो, वयं तु हिंडग अहिंडगा वावि ।
अहवा एगट्टाणे, ठिओ य सो नो वयं एवं ॥, . छाया-आहिंडतेऽनिश स. वयं तु हिंडका अहिण्डका वापि ।
अथवा एकस्थाने स्थितश्च स नो वयमेवम् ॥ अवचूरिः--मार्गे मिलितः साधुरन्यशिष्यं विपरिणमयितुं प्रव्रजितं वदति-अहो श्रद्धाशील ! ममाचार्यसमीपमागच्छ, यस्य समीपे त्वं वर्तसे स तु मनिशं प्रतिदिनम् माहिण्डते इतस्ततो गमनशीलो विहारं करोति, त्वमपि तेन सहैव गच्छन् सूत्रार्थयोरभ्यासं कदा करिष्यमि गमनागमने एवं समयस्य व्ययात् ? वयं तु हिंडकाः मासकल्पविधिना विहरणशीलाः, अथवा महिण्डकाः धर्मोपकारादिगाढागाढकारणमाश्रित्य चातुर्मासकल्पमाश्रित्य च एकस्थानस्थिता अपि भवामः अतो वयं हिण्डका वा अहिण्डका वास्मः किन्तु नैकान्ततो हिण्डका महिण्डका वा । चारित्र. मर्यादया व्यवस्थितविहारकारिणो वयं क्रियोद्धारकत्वात् , अतो ममाचार्यसमोपे वसतः तव. सूत्रार्थयोरध्ययनं सम्यग्रूपेण भविष्यति, अथवा शिष्याभिप्रायं ज्ञातुं स साधुरेवं वदति-अथवा स तु नियतवासः यस्य समीपे त्वं वर्तसे स तु एकग्रामनिवासी कूपमण्डूक इव विद्यते न ग्रामान्तरं नगरं वा पश्यति, वयं पुनरनियतवासाश्चातुर्मासं वर्जयित्वा, त्वमपि अस्माभिः सह विहरन् नानाप्रकारकग्रामनगरसंनिवेशराजधानीजनपदादिकं पश्यन् अभिज्ञानकुशलो भवि प्यसि, एवमस्माभिः सह विहरतस्ते दुग्धादिकं च प्रभूतं मिलिष्यति । एवं ममाचार्याः निरतिचारा पवित्राः सुनामधेयाश्च, यस्य समीपे त्वं वर्तसे स तु भविविक्तो मूलगुणस्खलिता सारम्भः सपरिग्रहश्च । न तथा मम पुनराचार्याः, ते तु सर्वगुणसम्पन्ना वर्तन्ते । पुनश्च स तु अल्पपरिवारः क्रोधशीलः स्वल्पेप्यपराधे बहुक्रोधं करोति बहुदण्डं च ददाति । तथा ममाचार्या जातिकुलसम्पन्नाः सर्वजनस्य पूजनीया गुणगुरुकाश्च, स तु पुनर्जातिकुलहीनः । मपि च मदीयाचार्याः लब्धिसंपन्नास्तत आहारोपकरणवसत्यादिकं सुलभतया प्राप्नुवन्ति, स तु लब्धिरहितः, तस्य शिष्या नित्यमाहारोपकरणाधर्थमटन्तः सूत्रार्थहीना अगीतार्थाश्च, तत्र दीक्षितस्त्वमपि तादृश एव भविष्यसि । तथा अस्माकमाचार्या बहुश्रुता रात्रिन्दिवं वाचनां ददति, तस्य तु नमस्कारमन्त्रप्रतिक्रमणादिष्वपि सन्देह एव, अस्माकं
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पूर्णिमायावद्भिः उ. १० सू.०-११-१२ शैक्षापहरणाचार्यादिदिशविपरिणमननिषेधः .२३३ पुनराचार्या अर्थधारिणः शास्त्रार्थ शिष्येभ्यः प्रयच्छन्ति शिष्यपरिवारैर्युक्ताः, स तु पुनरगीतार्थः -तस्य समीपे एकाकिना त्वया स्थातव्यं भवेत् शिष्यादिपरिवाररहितत्वात् तस्य । अस्माकं -पुनराचार्या .राजेश्वरतलवरादिभिर्महाजनैः सर्वदैव सम्मानिता भवन्ति, तं पुनर्न कोऽपि जनो जानाति, न वा सत्करोति मायादियुतो हिण्डमानो लोकैरनादृतश्च । अस्माकमाचार्याः महाजनानां नेतारः, स तु एकाको, नास्ति तस्य कोऽपि जनो यस्य स नेता स्यात् । अस्माकं पुनराचार्या ,बालवृद्धशैक्षदुर्बलालानादीनां संग्रहोपग्रहकुशलाः, स तु पुनर्नकिञ्चिदपि जानाति । अस्माकमाचार्या धर्मकथां राजादिपर्पदायामपि कथयितुं समर्थाः, स तु पुनर्वा चनाशक्तिविकल: -परवादिपरिषदि एकमप्यक्षरमुत्तरं दातुमसमर्थः-एकमप्यक्षरं ज्ञातुमसमर्थः, एवं विविधैः प्रकारैविपरिणमयतीति ।
' अथ अप्रव्रजितविषये प्रकारान् प्रदर्शयति-अथवा कश्चित् शैक्षः प्रव्रज्याग्रहणार्थममुकम् आचार्य मनसि संप्रधार्य गच्छन् मार्गे कश्चित् माधुर्मिलितः तं पृच्छति भो आर्य ! ममामुकः प्राचार्यः -कुत्रचित् दृष्टः श्रुतो वा भवना !,स ,साधुर्वदति तावता किं प्रयोजनं ते विद्यते ? शैक्षको वदति प्रबजितुकामोऽस्मि तेषां समीपे । तदा स साधुईष्टाचार्योऽपि वदति-न मया स.आचार्यों दृष्टः, थुतोऽपि वदति न मया श्रुतः, अथवा स्वदेशस्थेऽपि आचार्ये वदतिस-तु आचार्यों विदेशं गतः । अथवा अग्लानेपि वदति स तु ग्लानः । अथवा वदति-यो हि तस्य :समीपे प्रव्रजति स अवश्यमेव ग्लानो भवति, अथवा यः तस्य समीपे , प्रव्रजति स नित्यं ग्लानवैयावृत्ये व्यापृतो भवति । अथवा एवं वदति-स तु आचार्यों , मन्दधर्मा । किं त्वमपि मन्दधर्मा भवितुमिच्छसि ? किं ते मन्दधर्मेण सह संगत्या ? । अथवा एवं वदति-स अल्पश्रुतः त्वं च ग्रहणघारणसमर्थः तस्य समीपे , गत्वा - किं करिष्यसि ?, अथवा एवं वदति-स मनोवाक्कायैर्गहीं करोति, अथवा ज्ञाने दर्शने चरणे च -गही करोति,। एवं विविधैः प्रकारैः प्रवजितुकामं तं विपरिणमयति ।
यो हि भिक्षुरुपर्युक्तप्रकारेण परशैक्षकं विपरिणामयति विपरिणमयन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तमागी भवति ॥ सू० १०॥
सूत्रम्-जेभिक्खू सेहं अवहरइ अवह रेतं वा.साइज्जइ ॥ सू०११॥ छाया-यो भिक्षु शैक्षकमपहरति अपहरन्तं वा, स्वदते ॥ सू०,११,
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः सेह' शैक्षकम्, तत्र सूत्रमर्थ साधुसमाचारी वा शिक्षयितु योग्यः शैक्षकः शिष्यः तं शैक्षकम् 'अवहरइ' अपहरति.तस्यापहारं
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निशीथसूचे करोति, अयं भावः-कोपि साधुः श्रमणान्तरशिप्यस्य वस्त्रपात्रादिलोभेन प्रकागन्तरेण वाऽपहारं करोति कारयति वा तथा 'अबहरतं वा साइज्जड' अपहरन्तं श्रमणान्तरस्य यः शिष्यः तरयापहारं कुर्वन्तं श्रमणान्तरम् मनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । कथं पुनः अक्षकस्यापहारो भवतीति चेदुच्यते-कश्चित् श्रमणः नवदीक्षितशिष्यं गृहीत्वा प्रस्थितः कुत्रापि प्रामे भिक्षाकाले संप्राप्ते तं शिष्य वसतौ स्थापयित्वा भिक्षार्थ स्वयं गतवान् तदा तत्रान्यः कोऽपि श्रमणः संज्ञादिभूमि गतस्तं दृष्ट्वा तदपहरणबुद्ध्या तत्समीपं गच्छति । ततः साधुवेपं तं दृष्ट्वा स शिष्यः तस्य वन्दनं करोति ततः स श्रमणः पृच्छति-कस्त्वम् ! कस्मात्स्थानादागतोऽसि ! कुत्र वा गन्तुमिच्छमि !, एवं साधुना पृष्टो शिष्यो वदति-अमुकेन साधुना प्रवाजितोऽस्मि मे गुरुर्भिक्षार्थ प्रामे गतः, तेनात्रस्थातुमाज्ञप्तः स्थितोऽस्मि, तदा स साधुर्वदति-किमर्थमत्र स्थितोऽसि मया साईमागच्छ अशनवनपात्रादिना त्वां तोपयिष्यामि, इत्यादि नाना विधप्रलोभनवाक्यस्तं प्रत्तार्यापहरति स्वसमीपे नयति । तदा स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ११॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दिसं विप्परिणामेइ विपरिणामेंतं साइज्जइ सू०॥ छाया-यो भिक्षु दिशं विपरिणमयति विपरिणमयन्तं पा स्वदते ॥सू० १२॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिसं विप्परिणामेइ' दिशम् दिशति उपदिशति धर्ममिति दिशः, स श्रमणानां द्विविधः आचार्य उपाध्यायश्च, श्रमणीनां च स त्रिविधः-आचार्य उपाध्यायः प्रवर्तनीचेति, तं तथाविधं दिशं द्विविधं त्रिविधं वा श्रमणः श्रमणी वा 'विप्परिणामेइ' विपरिणमयति आचार्यादेवुद्रिव्यामोहं करोति, तथाहि-कश्चित् श्रमणः स्वस्याचार्य कथयति-भो गुरो ! नायं गच्छः समीचीनः यतोऽत्राल्पाः श्रावकाः, तेऽपि दरिद्राः कृपणाश्च, नात्राहारवस्त्रपात्रादिः सुलभः, अमुको गच्छः समीचीनः, यत्र बहवः श्रावकाः, ते पुनर्धनसमृद्धा उदाराश्च तेन तत्राहारवस्त्रापात्रादिः सुलभः, इत्यादि कथयित्वाssचार्यस्य तद्गच्छसम्बन्धिपरिणामं शिथिलीकरोतीति । अथवा दिशमाचार्य विपरिणामयतीति तस्मिन् दोपविशेष समारोप्य परावर्तयति आचार्यपरिवर्तनं करोति, पूर्वाचार्य मुक्त्वाऽन्याचार्यपाचे गच्छति । कथमित्याह-नायं मादृशस्याघीतश्रुनस्यानधीतश्रुतोऽयमादित्वेन योग्यः, अथवाअयमपरिणतवयस्कः, अहं तु परिणतवयस्कः, इत्याधाक्षेपमवलम्ाचायादिकं मुक्वाऽन्यमाचार्यादिक सेवते । तथा 'दिसं विपरिणामंतं वा साइज्जई' दिशं विपरिणमयन्तं परावर्तयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:-- भाष्यम्--अन्नगच्छस्स रागेण, गुरुं विप्परिणामए ।
पुन्चगच्छस्स दोसे जो, कहित्ता दोसवं भवे ॥
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घूणिभाष्यावचूरिः उ० १० सू० १३
आचार्यादिरूपदिशापहरणनिवेधः २३५ छाया- अन्यगच्छस्य रागेण गुरुविप्परिणमयेत् ।
पूर्वगच्छस्य दोषान् यः कथयित्वा दोपवान् भवेत् ।। अवचूरि-'अन्नगच्छस्स' ' इत्यादि । यः कश्चित् श्रमणः अन्यगच्छस्य गच्छान्तरस्य रागेण तद्रागभावेन पूर्वगच्छस्य दोषान् कथयित्वा गुरुं स्वस्याचार्यादिकं विपरिणमयति-व्यामोहयति आचार्यस्य चित्तविकृतिं करोति तथाहि-भो गुरो ! नायं गच्छः समीचीनः इत्यादिचूर्णिप्रोक्तप्रकारेण कथयित्वा गुरोस्तद्गच्छसम्बन्धिपरिणाम शिथिलीकरोति स दोषवान् आज्ञाभङ्गादिदोषभागी भवतीति ।
अथवा विपरिणमयतीति आचार्य परिवर्तयति स्वाचार्य दोषान् प्रदान्यमाचार्यं करोतीत्य र्थविषयेऽप्याह भाष्यकारः-- भाष्यम्--रागेण य दोसेण य, दिसं विप्परिणामए ।
तस्स दोसे भणित्ता जो, आणाभंगाइ पावइ ॥ छाया-रागेण च द्वेपेण च दिश विपरिणमयति ।
___ तस्य दोषान् भणित्वा यः आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥
अवचूरिः-यः कश्चित् श्रमणः श्रमणी वा रागेण आचार्यान्तरानुरागेण वा द्वेषेण पूर्वाचार्यगतद्वेपेण वा तस्य पूर्वाचार्यस्य दोषान् भणित्वा कथयित्वा दिशं स्वाचार्य विपरिणमयति परिवर्तययि परावर्तनं करोति मन्याचार्यपाश्चे, गच्झतीति भावः, परावर्त्तनं कारयति वा कुर्वन्तं वा अनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिदोषं प्राप्नोति । तत्र विपरिणमनप्रकारस्तु एवम्-कोऽपि शिष्य आचार्यादिकं प्रत्येवं वदति- यस्याचार्यस्य समीपेऽहं प्रव्रजितः स तु अल्पवयस्कः अहं च वृद्धः, तस्मात् एष आचार्यशिष्यसम्बन्धो न सम्यग् घटते कथमहं पुत्रसमानस्यास्याचार्यस्य शिष्यो भूत्वा तिष्ठामि ?, कथं वा अल्पवयस आचार्यस्य विनयवैयावृत्यादिकं करोमि ! किं वा मम स्वजनादिवर्गो जानाति !, अथवा असौ आचार्यः अपरिपक्वबुद्धिस्तेन स अकर्तव्यमपि कार्य कदाचित् करिष्यति । एवं सद्भूतमसद्भूतं वा दोपं वदेत् । अथाऽयमकुलीनो मदीयो गुरुरहं च कुलीनः, मेघावी चाहं स तु: दुर्मेधाः । महं धनाढ्यः सन् प्रव्रजितः, स तु अकिंचनो दरिद्रः प्रव्रजितः, अहं बुद्धिमान् स तु अवुद्धिः, अबुद्धेः कुतो लब्धिरिति नासौ लब्धिमान् , अथवा पूर्वोक्तप्रकारेणैव स्वकीयमाचार्य निन्दति, यस्य पावें गन्तुमिच्छति तं च प्रशंसते, यथा-अयं न पूर्वोक्तगुणवान् स तु पूर्वोक्तप्रभूतगुणवान् वर्तते, इत्यादिप्रकारेण यः कश्चित् श्रमणः स्वकीयाचार्यस्य दोषान् सद्भूतानसद्भूतान् वा प्रकाशयित्वा अन्यस्याचार्यस्य च गुणान् प्रदर्य भूतपूर्वमाचार्य त्यक्वाऽन्यमाचार्य परिसेवते सप्रायश्चित्तभागी भवति । तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ॥सू० १२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दिसं अवहरइ अवहरंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१३॥
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निशीथसूत्र
Mamam
छाया-यो भिक्षुर्दिशमपहरति अपहरन्त वा' स्वदते । सू०.१३॥ चूर्णी- 'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिसं' दिशमाचार्यम् 'अवहरई' अपहरति-पूर्वस्त्रोक्तप्रकारेण नानाविधवाक्यप्रबन्धं कथयित्वाऽन्यगच्छे नयति तथाः 'अवहरंतं वा साइज्जई अपहरन्तम् अन्यगच्छे नयन्तं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-रागेण दोसेण दिसावहारं, करेइ वा कारइ जो य भिक्खू ।
आणाणवत्थाइ विराहणं च; मिच्छत्तदोसं समुवेड सोऽत्थ ॥ छाया-रागेण द्वेपेण दिशापहारं करोति वा कारयति यश्च भिक्षुः । ___आज्ञानवस्थादि विराधनं च मिथ्यात्वदोषं समुपैति सोऽत्र ॥
अवचूरिः—यः कश्चित् श्रमणः श्रमणी वा रागेण-अन्यगच्छरागेण ढेपेण-स्वगच्छे समुस्पन्नद्वेपेण वा दिशापहार-आचार्यादेरपहारम्-अन्यगच्छे नयनरूपं करोति, अथवा अन्यद्वारा कारयति तदा सोऽत्र विषये आज्ञाभङ्गानवस्थादिदोपान् संयमात्मविरांधनां मिथ्यात्वदोषं च समुपैति प्राप्नोति । शिष्य आचार्य नानाविधवाक्यैः प्रतार्यान्यगच्छे नयति तदा भूतपूर्वगच्छ आचार्यरहितो भवति तेन तद्गच्छे धर्मोपदेशकाभावात् धर्मे लोकानां ग्लानिहनिश्च भवति, गच्छस्य निराधारकरणे तीर्थकरांज्ञाभङ्गो भवेत् , तं दृष्ट्वाऽन्योऽप्येवं करोति, तं दृष्ट्वा चान्यः, एवंम वस्थादोषः समापद्यते । गच्छविराधना चं भवति धर्महान्या संयमविराधनाऽवश्यम्भाविनी, आचार्यापहारे कारणभूतं शिष्य विज्ञाय गच्छवासिनो लोकास्त ताईयेयुरपीत्यात्मविराधनासंभवः, गच्छनिन्दायां मिथ्यात्वदोषमपि स भजते, इत्यांद्यनेके दोषा संभवन्ति ततो दिर्शापहारं न कुर्यात् नापि कारयेत् कुर्वन्तं वा नानुमोदयेदिति भावः ॥१३॥
मूत्रम्-जे भिक्खू बहियावासियं आएसं परं तिरायाओ अविफालेत्ता संवसावेइ संवसावेतं वा साइज्जइ ॥ सू० १४॥
छायायो भिक्षुर्वहिर्वासिकमादेशं परं त्रिरात्रात् अविस्फाल्य संवासयति संवासयन्त वा स्वदते ॥सू०१४॥
- चूर्णीः--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः . कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रंमणी वा 'पहियावासियं' वहिर्वासिकं बहिः स्वगच्छाद् बहिर्वस्तुं शीलं यस्य स बहिर्वासी स एव बहिर्वासि कस्तम अन्यगच्छवासिन आएसं' आदेशम् आगतः सन् आदेशमाज्ञां करोति स आदेशः प्राघू. र्णकः साधुस्तमादेश 'अविफालेत्ता' अविस्फाल्य अप्रकट्य , तदागमनकारणमपृष्ट्रेत्यर्थः यथा हे भदन्त ! त्व किंनिमित्तमत्रागतोऽसि त्वमस्माकमजातोऽसि !, कीदृग्गच्छवासी त्वम् कुत आगतः?
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१० सू०१४-१५ वहिर्वासि-साधिकरणयोः रात्रिधासदाननिषेधः २३७ कुत्र गमनकामोऽसि ? इत्येवमपृष्ट्वा 'परं तिरायाओ' परं त्रिरात्रात् रात्रित्रयादनन्तरम् रात्रित्रयात् परतश्चतुर्थादिदिने 'संवसावेइ' संवासयति स्ववसतौ वासयति निवासं ददाति तथा 'संवसावेत वा साइज्जइ' संवासयन्तं वा स्वदते विस्फालनामकृत्वा रात्रित्रयात् परतश्चतुर्थादिदिनेऽपि वासं वासयन्तं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । अज्ञातकुलशील वसतिवासं ददातिं तदा कदाचित् स चौरो मुनिवेषधारी भवेत् , लम्पटो लण्टको वा भवेत् , चौयं कृत्वा राजपुरुषादिभयात् स्वात्मरक्षार्थ साधुवसतो समागतो वा भवेत् , इत्यादिसंभवादेकरात्रमपि न सवासयेता त्रिरात्रात् परमिति यत् कथितं तत्रैवं ज्ञातव्यम्-कोऽपि साधुः मार्गविस्मृत्या स्वसाधर्मिसंघात् पृथग्भूतो भवेत् , ग्लानादिवैयावृत्यार्थ गुरुणा प्रेषित एकाकी तत्र गन्तुकामो भवेत् , इत्यादिकारणवशात् समागतो भवेत् तदा तं दिवसत्रयं यावत् वासं दद्यात् । एतादृशमपि त्रिरात्रात्परं न संवासयेत् । चतुर्थादिदिने वासदानात् बहुदोपसंभवः शिप्यापहरणादिकलङ्गश्चापि समापततेति ।,
अत्राह भाष्यकारभाष्यम्-पाहूणगं ससमीवे, आगयं जो न पुच्छइ ।
तिरायाओ परं वासे, आणाभंगाइ पावई ॥
छाया-प्राघूर्णकं स्वसमीपे, आगतं जो न पृच्छति ।
त्रिरात्रात् परतः वासयेत् आक्षाभङ्गादि प्राप्नोति ॥
अवचूरिः-यः कोऽपि साधुः भन्यगच्छात् स्वसमीपे समागतं प्रापूर्णकं अन्यगच्छवासिनं साधु यो न पृच्छति यः साधुस्तस्य परिचयादिकं न पृच्छति किन्तु अपृष्ट्वैव त्रिरात्रात् परतः रात्रित्रयादनन्तरं स्ववसतो. वासयेत् तदा स श्रमणः आज्ञाभङ्गादिदोषभागी भवतीत्यर्थः । अपृष्ट्या यदि वासयति तदा इमे दोपा भवन्ति तथाहि-कदाचित् स तेन साधुवेषेण उपद्रवकारकः कश्चित समागतो भवेत् , वस्त्रादिलोभात् कश्चित् लण्टको वंचको वा समागतो भवेत् , स्वपक्षपरपक्षाद् वा चौथ कां चौरो वा समागतो भवेत् , मैथुनसेवनार्थ कश्चित् मैथुनार्थी वा समागतो भवेत् , राज्ञां वा अपकारं कृत्वा समागतो भवेत् , आचार्यस्य मारणाय केनचित् प्रेषितो घातको वा भवेत् , अतः सवै सम्यक् पृष्ट्वा यदि योग्योऽयमिति जानीयात् तदा वासो देयो नो चेत् वासो न देय इति । अपृष्टः पृष्टो वा यदि एवं वदति तदा तस्य रात्रित्रयं यावत् वासो देयः, तथाहि-भवन्तमेवोपसंपत्तुं समागतोऽस्मि, अपराधस्यालोचनां गृहीतुं समागतोऽस्मि, कुलगणसघकार्येण वा समागतोऽस्मि, अशिवादिकारणैर्वा समागतोऽस्मि, सूत्रार्थजातनिमित्तेन वा समागतोऽस्मि, एवमादिकथने वासयेत् । सकारणागमनेऽपि तद्गुरोराज्ञां विना रात्रित्रयात् परतो न सवासयेदिति भावःसू-१४॥
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२३८
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निशोथसूत्र सूत्रम्-जे भिक्खू साहिगरणं अविओसमियपाहुडं अकडपायच्छित्तं परं तिरायाओ विप्फालिय अविप्फालिय संभुंजइ सं जंतं वा सा इज्जइ ॥सू० १५॥
छाया–यो भिक्षुः साधिकरणमन्युपशामितप्राभृतमकृतप्रायश्चितं परं त्रिरात्रात् विस्फाल्य अविस्फाल्य संभुङ्क्ते संभुजानं वा स्वदते ॥सू० १५ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'साहिगरणं' अधिकरणेन-कपायभावेन सहितो युक्तः साधिकरणः, तम् साधिकरणम् 'अविओसमियपाहुडं' अव्युपशामितप्रामृतम् वि-विविधैर्मनोवाक्कायैः करणकारणानुमोदनैश्च त्रिविधमधिकरणं त्रिविधत्रिविधैः उपशामितः स्वापराधस्वीकारपूर्वकं क्षामित. प्राभृतः कलहो येन स व्युपशामितप्रामृतः, न तथेति भव्युपशामितप्राभृतः कलहव्युपशामनारहित इत्यर्थस्तम्-'अकडपायच्छित्तं' अकृतप्राश्चित्तम् अकृतं कृते च कलहे यत् प्रायश्चित्तमापद्यते तत् न कृतं न गृहीतं येन स अकृतप्रायश्चित्तस्तम् 'विप्फालिय' विस्फाल्य-पृष्ट्वा कलहकरणविषये तद्वयुपशामनायाः करणाकरणे, तत्प्रायश्चित्तस्य ग्रहणाग्रहणे च आपृच्छ्य 'अविष्फालिय' अविस्फाल्य पूर्वोक्तविषयमनापृच्छ्य वा पृच्छामन्तरेणेत्यर्थः 'परं तिरायाओ' परं त्रिरात्रात् रात्रित्रयात् परतः 'संभंजइ' तेन सह एकस्मिन् मण्डले संभुङ्क्ते चतुर्विधाहारजातस्योपभोगं करोति कारयति वा तथा 'संभुंजतं वा साइज्जई' संभुनाने वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:भाप्यम्-साहिगरणो य दुविहो, सपक्ख-परपक्ख-भेयओ होइ।
इक्किको पुण दुविहो गच्छगओ गच्छनिग्गओ वावि ॥ छाया-साधिकरणो द्विविधः, स्वपक्ष-परपक्ष-मेदतो भवति ।
एकेका पुनद्विविधः गच्छगतो गच्छनिर्गतो वापि ।। अवचूरिः-साधिकरणः अधि-अधिकं साधुमर्यादातिरिक्त करणम् अधिकरणं कलहकरणमित्यर्थः, तेन अधिकरणेन कलहेन सह वर्तते यः सः साधिकरणः कलहविशिष्टः साधुः स स्वपक्षपरपक्षमेढतो द्विविधो भवति-स्वपक्षगतः साधिकरणः, परपक्षगतः साधिकरणश्चेति । तत्र स्वपक्षगत इति स्वगच्छसाधुः परपक्षगत इति परगच्छसाधुः । अथवा स्वपक्षे साधिकरणः साधुना सह कलहकरणशीलः, परपक्षे साधिकरणः गृहस्थेन सह कलहकरणशील इति । अयमेकैको द्विविधः गच्छगतः, अथवा गच्छनिर्गतश्च । तथाहि-तदिदमधिकरणम् सचित्ताचित्तमिश्रवस्तु प्रतीत्य जायते, तथाहि-कस्यचित कोऽपि शिष्योः जात., तं दृष्ट्वा अन्यः स्वगच्छवासी साधुर्वदति-मयं मम शिष्य
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पूर्णिभाष्यावर: उ०१० सू०१६-१९ उद्घातानुदयातयोविपर्यासवादतत्कथननि० २३९ तया पूर्व प्रतिपन्नः कथं भवान् एनं शिष्यमकरोत् यदा मालवे विहरन्नासीत्तदा मया एषः प्रतिबोधितः तस्मात ममायं भावी शिष्य इति । एवं क्रमेणोभयोः कलहो जायते अयं स्वपक्षे साधिकरणः । एवंप्रकारेणाचित्ते वस्त्रपात्रकम्बलाघुपकरणविषयेऽपि अधिकरणं समुत्पद्यते । एवं सचित्ताचित्तमिश्रवस्त्रसहितशिष्यादौ कलहो जायते । एवं कोऽपि ? स्वगच्छगतः साधुः स्वाध्याय करोति तदा अपर आगत्य कथयति-कथ त्वं न्यूनमधिकं वा स्वाध्यायं करोषि उत्सूत्रं वा प्ररूपयसि ? इत्यादिक्रमेणाधिकरण समुत्पद्यते, अयमपि स्वपक्षगतः साधिकरण इति । एव परगच्छगतसाधिकरणविषयेऽपि शिष्यविषये वस्त्रपात्रादिविषये स्वाध्यायादिविषये च ज्ञातव्यम् । अयमेकैको गच्छगतो गच्छनिर्गतो वा साधिकरणो द्विविधो भवति तद्विषयेऽप्यधिकरणत्वं स्वयमूद्दनीयम् । एवं कोऽपि साधुरधिकरणमुत्पादितवान् पुनश्च तदधिकरणं न व्यवशामितं न क्षामितं किन्तु अनुपशाम्य स यधागच्छेत्तं तत्रत्यः साधुर्यदि अन्युपशामितकलहम् अकृतप्रायश्चित्तं च स्वसमीपे स्थापयति तथा तेन सह आहारं करोति कारयति कुर्वन्तं वां अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्धाइयं अणुग्घाइयं वयइ वयंत वा साइज्जइ ॥ छाया-यो भिक्षुरुद्घातिकमनुद्घातिकं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥१० १६॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उग्याइयं' उद्धातिक-लघुप्रायश्चित्तम् 'अणुग्याइयं अनुद्घातिकं गुरुप्रायश्चित्तम् 'वयई' वदतिप्ररूपयति, यस्य कस्यचित् श्रमणस्य लघुप्रायश्चित्तमायाति तस्मै गुरुकं प्रायश्चित्तं वदति प्ररूपयति, एवं लघुक प्रायश्चित्तवन्तं गुरुक प्रायश्चित्तं वदति प्ररूपयति, तथा 'वयंतं वा साइज्जई' वदन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति ॥ सू० १६॥ एवम् 'अणुग्घाइयं उग्याइयं वयई' इति सूत्रम् । गुरुप्रायश्चित्तयोग्याय श्रमणाय लघुकं प्रायश्चित्तं प्ररूपयतीति ॥सू० १७॥ अनेनैव प्रकारेण 'उग्धाइयं अणुग्धाइयं देई' लघुप्रायश्चित्तयोग्याय श्रमणाय गुरुप्रायश्चित्तं ददाति-- आरोपयतीति ॥स० १८|| तथा 'अणुग्धाइयं उग्धाइयं देइ' गुरुप्रायश्चित्तयोग्याय लघुप्रायश्चित्तं ददाति-आरोपयतीति । एवं सप्तदशसूत्रात् एकोनवितिसूत्रपर्यन्तानि त्रीणि सूत्राणि षोडशसूत्रवद् व्याख्येयानीति ॥ सू० १९॥
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम्-उग्घायमणुग्घायं, चाणुग्घायं पुणो य उग्घायं ।
एवं जो विपरीयं, वए दए पावए दोसे ॥ छाया-उद्घातमनुद्घातं चातुधातं पुनश्च उद्घातम् ।
एवं यो विप वदेवीतं दद्यात् प्राप्नुयात् दोषान् ।।
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निशीथसूत्रे
safr:- •~• घुमामिकं प्रायश्चित्तसेविनम अनुयातं गुरुमाप्राच वदेत प्रस्येव तथा दात आगेपयेत् । एवमनुद्घातं गुरुमासिकप्रायश्चित्त मानवदेन प्ररूपये तथा दधात आरोपयेत् । यो हि श्रमण एवं विपरीतं लघुसमियायप्रिनस्याधिकारी ने गुरु प्रायश्चितं वदेत प्ररूपयेत् दद्यात् आरोपयेच्च, तथा यो गुरु मानिनम्य अधिकारी तं लघुमामिकं प्रायश्चित्तं प्ररूपये आरोपयेद्वा स श्रमणः दीपन कक्षाभट्टानवस्थाभियाश्वविगधनारूपान् प्राप्नुयात् । तथाहि एवं वैपरीत्येन प्ररूपणे च मामाज्ञा करोति तथा अन्यथाप्ररूपणायामागेपणायां च कृतायामनवस्थापि स्थान तथा विपणायां कृतायां मिध्यात्वमपि स्यात् यथा एनत्, तथा अन्यदपि सर्वसरनि। पवमन्पत्रायत्रत्तस्य कथने दानेन चारित्रस्य शुद्धिर्न स्यात, अधिके च प्रायनिमा पीडा स्यात् एवं द्विविधा विराधनाऽपि स्यात् । यस्मात् एते दोपास्तस्मात् कारणात अविपरीतमेव वदेत् दद्यादपि न तु विपतं प्रायश्चितं वदेन दद्याद्वा । एवं योsप्रायनि प्राय ददानि तथा अन्पाऽपराधेऽधिकं प्रायश्चित्तं ददाति, अधिकापराधे चापं प्राय. चिनं ददानि मधुनचारित्रधर्मस्याज्ञातनां करोति तथा सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रतपो लक्षणया करोति । तत्र धर्मो हिप्रकारकः श्रुतलक्षणः चारित्रलक्षणश्च तत्र अधिकं प्रायरिसर्न प्रमपगन्, ददन श्रुनधर्म विराधयति, न्यूनं प्रायश्चित्तं च वदन आरोपयंश्च चारित्रलक्षणं धर्म विगमयति । ज्ञानदर्शननातिपक्षगः नतु प्रकारको मोक्षमार्ग: विपरीतरूपेण प्रायश्चित्तं ददता विग्निव्रत भन अत्राविक:- आनायों यदि स्वपरंपरोपदेशेन लघुकं गुरुकं, प्रायनिं वदति ददानि वा तदा स शुद्र, अन्यथा तु भशुद्र सन् प्रायनिमानी नयते । अथवा भनार्यो बहुश्रुतसेन तत्पार्थे यः कश्चित् शिष्यश्चतुर्थादित पश्चउनि निमन्त्रको भरे म प्रायनिदाने वदेत्- 'कि ममैतनाऽपेन प्रायश्चित्तेन ?' अस्यीय अतिमपि दान न तत्र दोष' । यदि प्रायश्चित्ताधिकारी शिष्य उमभवेन ता धृतिसंहननदुर्वनं झाला गुरुप्रायश्चितेऽपि लघुप्रानि भयो शति नाडी लघुप्रायचिनमपि दद्यात् । तथा धृतिमंहननयोमेसेज को भी नानुरूपं प्रायश्चितं दधात् । तथा य आचार्यादिग्ला• अन्युनतम मानु प्रायचितं दद्यात् दध--1 'वेयावच्चकराणं 'वैमायक्रोन्यो भवनि अनुदुघातेऽपि उद्यानम्, रति वचनात् ।
"
frrier पूर्वोका
एते दोमा भवन्ति तस्मात कारणान गुरुप्रति गृरुप्रायश्चितम्यानेच उघु प्रायश्चित्तं न "नेवानुदन् ॥ १९॥
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६. १
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चूणभाष्यावद्भिः उ० १० सू० २०-३१ उद्घातिकानुद्घातिकसहसंभोगनिषेधः २४१
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्घाइयं सोच्चा णच्चा संभुंजइ सं जंतं वा साइज्जइ ।। सू० २० ॥
छाया-यो भिक्षुरुद्घातिकं श्रुत्वा ज्ञात्वा च संभुङ्क्ते संभुञ्जान वा स्वदते ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उग्धाइयं उद्घातिकं लघुप्रायश्चित्तधारिणम् , तत्र उद्घातिकं नाम यत् सान्तरं वहति, अयं साधुलघुमासिकं प्रायश्चित्तं वहति इति 'सोच्चा' श्रुत्वा अन्यसकाशात् 'णच्चा' ज्ञात्वा स्वयमेव सद्यो ज्ञात्वा कारणोपपत्तितो वा ज्ञात्वा--'संभुंजइ' संभुक्ते 'अयं लघुकं प्रायश्चित्तं वहति' इति श्रुत्वा ज्ञात्वाऽपि तेन श्रमणेन सह एकत्र मण्डल्या माहारमाहरति तथा 'संभुंजतं वा साइज्जई' संमुंजानं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति ।।सू० २०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्घाइय हेउं सोच्चा णच्चा संभुंजइ संभुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २१॥
छाया- यो भिक्षुरुद्धातिकहेतुं श्रुत्वा ज्ञात्वा संभुफ्ते संभुञ्जानं वा स्वदते ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा "उग्घाइयदेउ' उद्घातिकहेतु-उद्घातिकं नाम यत् प्रायश्चित्तं सान्तरमुह्यते लघुप्रायश्चित्तमित्यर्थः, तस्य हेतुं कारणम् , अस्य साधोर्लघुप्रायश्चित्तसेवनस्य कारणं वर्त्तते, इत्येवं कारणम्, अथवा प्रायश्चित्तापन्नस्य यावत्प्रायश्चित्तमनासेवितं भवेत्तावत् हेतुरुच्यते, स द्विधा उह्यते शुद्धितपसा परिहारतपसा वा, तं तादृशं हेतुम् 'सोच्चा' श्रुत्वा अन्यसकाशात् तथा 'णच्चा' ज्ञात्वा स्वयमेव तत्कारणं विज्ञाय अयं लघुमासिकप्रायश्चित्तहेतुमानिति अन्यसाधुसकाशात् श्रुत्वा स्वयमेव वा बुद्धिद्वारा विज्ञायापि तेन सह एकत्रमण्डल्याम् 'संभुजई' संभुड्क्ते 'संभुंजतं वा साइज्जइ' सभुजानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । सू० २१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्घाइयसंकप्पं सोच्चा णच्चा संभुंजइ संभुंजतं वा साइज्जड ।। सू० २२॥
छाया-यो भिक्षुरुद्घातिकसंकल्पं श्रुत्वा ज्ञात्वा संभुङ्क्ते संभुञ्जान वा स्वदते ॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उग्याइयसंकप्पं' उद्घातिकसंकल्पम्-उद्घातिकप्रायश्चिसंकल्पवन्तं यथा-'अहमुद्घातिकप्रायश्चित्तं ग्रहीष्यामी' -ति स्वविषयकं संकल्पम्, अथवा गुरुणा कथितो भवेत् यत् तवैतत प्रायश्चित्तं दास्यामी'-ति गुरुविषयकसंकल्पम् , अयमपि द्विधा उह्यते शुद्धतपसा परिहारतपसा
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निशीथसूत्रे
वा, तं तादृशं संकल्पं 'सोच्चा नच्चा' श्रुत्वा ज्ञात्वा वा पूर्ववत् पुनरपि-'संभुंजई' संभुड्क्ते तेन सह एकमण्डल्यामाहारादिकं करोति 'सं जंतं वा साइज्जई' संभुञ्जानं वा स्वदतेऽनुमोदते, यो हि लघुमासिकप्रायश्चित्तसेवी प्रायश्चित्तं कृत्वा शुद्धो न जातः तन्मध्ये एव तेन सह भोजनादिकं करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति ॥ सू० २२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्घाइयं उग्घाइयहउँ वा उग्घाइयसंकल्पं वा सोच्चा णच्चा संभुंजइ संभुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २३॥
छाया--यो भिक्षुरुद्घातिकमुद्घातिकहेतु वा उद्घातिकसकल्पं वा श्रुत्वा शात्वा सभुक्ते सभुजानं वा स्वदते ॥ सू० २३ ।।।
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । एतत्सूत्रम् उद्घातिको-द्घातिकहेतू-द्घातिकसंकल्पेति त्रिविषयमिजं वर्तते । व्याख्या पूर्ववत् कर्तव्येति ॥सू० २३॥
एवम्-'जे भिक्खू' अणुग्घाइयं सोच्चा' ।। सू० २४॥ 'अणुग्घाइयहेउं सोचा' ॥ सू०२५॥ 'अणुग्घाइयसंकप्पं सोच्चा' |सू० २६॥ 'अणुग्घाइयं-अणुग्धाइयहे' अणुग्याइयसंकप्पं सोच्चा' इति त्रिविषयमिश्रं चेति चत्वारि सूत्राणि पूर्ववदेव व्याख्येयानीति । सू० २७॥ अनेनैव प्रकारेण-'जे भिक्खू उग्धाइयं वा अणुग्याइयं वा सोच्चा' ॥सू० २८॥ 'उग्घाइयहेउं वा अणुग्याइयह वा सोच्चा' ० ॥सू० २९॥ 'उग्याइयसंकप्पं वा अणुग्याग्याइयसंकप्पं वा सोच्चा० ॥सू० ३०॥ 'उग्धाइयं वा अणुग्धाइयं वा, उग्घाइयहेउं वा अणुघाइयहेउं वा, उग्घाइयसंकप्पं वा अणुग्घाइयसंकप्पं वा सोच्चा' एतानि चत्वारि सूत्राणि पूर्ववदेव व्याख्येयानि ॥सू० ३१॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-उग्घाइयऽणुग्याइयपयधुगं जो मुणी य अहिकिच्चा ।
तचिसयं हेउ तह, संकप्पं इय दुगं च सव्वेयं ॥१॥ सोच्चा जच्चा मुंजइ, तेणं सह एगमंडलीमज्झे ।
सो पावइ मिच्छत्तं, आणाभंगाइदोसे य ॥२॥ ' छाया-उद्घातिकानुघातिकपदद्विक यो मुनिश्र अधिकृत्य ।।
तद्विपयं हेतुं तथा संकल्पमिति द्विक च सर्वमेतत् ॥१॥ श्रुत्वा ज्ञात्वा भुज्यते, तेन सह एकमण्डलीमध्ये ।।
स प्राप्नोति मिथ्यात्वम् आशाभङ्गादिदोपांश्च ॥२॥ अवचूरिः-'उग्धाइय'० इत्यादि । यो मुनिः उद्घातिकमनुद्घातिकं चेति पदद्वयमधिकृत्य तदधिकारमाश्रित्य तद्विपयं हेतुम् उद्घातिकहेतुमनुद्घातिकहेतुं च, तथा तद्विषयं
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१० स०३२-३३ उद्गतवृत्तिकादेः सूर्यानुद्गमनादिनिश्चये भोजननि० २५३ संकल्पम्-उद्घातिकसंकल्पमनुद्घातिकसंकल्पं चेति द्विकं च, एवं द्वादशसूत्रीकथितं सर्वमेतत् श्रुत्वाऽन्यसकाशात्, स्वयं वा ज्ञात्वाऽपि तेन तादृशेन मुनिना सह मण्डलीमध्ये एकस्यां मण्डल्यां स्थित्वा भुक्ते अशनादिचतुर्विधाहारं करोति, उपलक्षणात् वस्त्रपात्रादीनामादानप्रदानं वा करोति स मिथ्यात्वमाज्ञाभङ्गादिदोषांश्च प्रामोतीति भाष्यगाथाद्वयार्थः ॥१॥
सूत्रम्--जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणथमियमणसंकप्पे संथडिए णिवितिगिच्छासमावण्णेणं अप्पाणेणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता संभुंजइ सं जंतं वा साइज्जइ, अह पुण एवं जाणेज्जा अणुग्गए सूरिए अथमिए वा से जं च मुहंसि वा जं च पाणिसि वा जं च पडिग्गहंसि वा तं च विगिंचिय विसाहिय तं परिद्वावेमाणे णाइकमइ, जो तं भुंजइ मुंजंतं वा साइज्जइ ॥सू० ३२॥
छाया यो भिक्षुरुद्गतवृत्तिकः अनस्तमितमनःसंकल्पः संस्तृतो निर्विचिकित्सासमापन्नेनात्मना अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा प्रतिगृह्य संभुङ्क्ते संभुजानं वा स्वदते, अथ पुनरेवं जानीयात्-अनुद्गतः सूर्यः अस्तमितो वा अथ यच्च मुखे वा यच्च पाणी वा यच्च प्रतिग्रहे वा तं च विविच्य विशोध्य तं परिष्ठापयन् नातिकामति, यस्तं भुयते भुज्जानं वा स्वदते ॥सू० ३२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' य. कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उग्गयवित्तिए' उद्गतवृत्तिकः उद्गते सूर्ये वृत्तिवर्त्तनं शरीरयात्रार्थ संयमयात्रार्थ च व्यवहारो यस्य स उद्गतवृत्तिकः उद्गते एव सूर्ये आहारविहारादिसकलसाधुक्रियाकारकः 'अणत्थमियमणसंकप्पे' अनस्तमितमनःसंकल्पः-अनस्तमिते अस्तं न गते सूर्ये एव मन:सकल्पः आहारविहारादिविषयको मनोविचारो यस्य स अनस्तमितमनःसंकल्पः सूर्यास्तात्पूर्वमेव सकलसाधुक्रियाकरणशीलमनोविचारवान् 'संथडिए' संस्तृतः धृतिबलसंहनादिना समर्थः अध्वप्रतिपन्नः क्षपकः ग्लानो वा न भवेदिति भावः, एतादृशो भिक्षुः 'णिनितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं' निर्विचिकित्सासमापन्नेन आत्मना, विचिकित्सा-संदेहः, न विचिकित्सा निर्विचिकित्सा-सूर्योदिता-स्तमनविषयकसन्देहराहित्यं, तां समापन्नेन प्राप्तेन सूर्यस्य अनुद्गतत्वास्तमितत्वसन्देहराहित्येन भात्मना उद्गते सूर्ये अनस्तमिते वा सूर्ये यदि 'असणंवा ४।' अशनादिचतुर्विधमाहारं 'पडिग्गाहित्ता' प्रतिगृह्य यदा 'संभुजई' संभुङ्क्ते 'संभुंजतं वा साइज्जई' संभुजानं वा स्वदते अनुमोदते तदा स भिक्षुः 'अहपुण' अथ पुनः अथ शब्दो विषयान्तरसूचकस्तेन आहारं कर्तुं प्रारब्धस्तत्समये पुनः ‘एवं जाणेज्जा' एवं जानीयात्
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निशीथसूत्रे
अन्यकथनेन स्वबुद्धया वा निश्चिनुयात् , किं जानीयादित्याह-'अणुग्गए सूरिए' अनुद्गतः सूर्यः सांप्रतं सूर्यो नोदितः 'अत्थमिए वा' अस्तमितः अस्तंगतो वा सूर्यः इति, 'से' अथ तदनन्तरं 'जं च मुहंसि वा' यच्चाशनादि मुखे क्षिप्तं वर्तते 'जं च पाणिसि वा' यच्चाशनादि पाणौ हस्ते वर्तते भोक्तुं हस्ते गृहीतं भवेत् , 'जं च पडिग्गहंसि वा' यच्चाशनादि प्रतिग्रहे पात्रे वर्तते 'ते' तत् सकलमशनादिकं 'विगिचिय' विविच्य तत्रैव विमुच्य 'विसोहिय' विशोध्य मुखं हस्तं पात्रं च निरवयवं लेपरहितं कृत्वा 'तं' तत् यत्पात्रे स्थितं तद् अशनादिकं 'परिहवेमाणे' परिष्ठापयन् भिक्षुः 'नाइक्कमई' नातिकामति तीर्थकराज्ञां नोल्लवयति, आज्ञाया आराधक एव स न तु विराधक इति भावः 'जो तं भुंजइभुजतं वा साइज्ज' यः कोपि साधुर्यदि अन्यकथनेन स्ववुद्धचा वा सूर्यस्यानुद्गमनाऽस्तमने निश्चिते सत्यपि अशनादिचतुर्विधमाहारं भुड्क्ते भोजयति भुञ्जानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति ।। सू० ३२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणथमियमणसंकप्पे संथडिए वितिगिच्छासमावण्णेणं अप्पाणेणं असणं वा ४ जाव जो तं भुंजइ मुंजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३३॥
छाया-यो भिक्षुः उद्गतवृत्तिकोऽनस्तमितमनासंकल्पो संस्तृतो विचिकित्सासमापन्नेनात्मना अशन वा ४ यावत् यस्तं भुङ्क्ते भुखानं वा स्वदते ॥ सू० ३३॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितमनःसंकल्पः पूर्वव्याख्यातस्वरूपः सः 'संथडिए' संस्तृतः धृतिबलसंहननसंपन्नः 'वितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं' विचिकित्सा सूर्यस्योद्गमनविषयकः सूर्यो नास्तंगतः इत्येवंविषयकः सदेहः अभ्रछन्नादिवशात् तां विचिकित्सां समापन्नेनात्मना 'उद्गतः सूर्यः, नास्तं गतो वा सूर्यः, इत्येवं दातृकथनेन 'असणं वा ४' अशनादिचतुर्विधमाहारं प्रतिगृह्य भुड़क्ते भुञ्जानं वा स्वदते तदा अथ पुनः आहारारम्भसमये एवं जानीयात्--निश्चिनुयात्-'नोदितः सूर्यः अस्तमितो वा सूर्यः' इति अन्यजनकथनेन स्त्रबुद्धया वा निश्चिते सत्यपि योऽशनादिकं भुक्त भोजयति हस्तपात्रमुखगतमशनादि विविच्य विशोध्य न परिष्ठापयति तदा सोऽवश्यं प्रायश्चित्तभागी भवतीति भावः । अक्षरगमनिका स्पष्टेति ॥सू. ३३॥
' पूर्वसूत्रद्वयं-'संथडिए, निबितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं' तथा-'संथडिए वितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं' इति पदद्वयमाश्रित्य प्रोक्तम् । साम्प्रतम् 'असंथडिए' इति पदेन सह 'निन्वितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं' इति, तथा 'वितिगिच्छासमावन्ने] अप्पाणेणं इति च पदद्वयं संयोज्य सूत्रद्वयं प्रोच्यते-'जे भिक्खू उग्गयवित्तिए' इत्यादि ।
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चूणिभाष्यावचूरिःउ.१० सू० ३५ उद्गतवृत्तिकादेःसूर्यानुद्गमनादिनिश्चयेभोजननिषेधः २४५
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणथमियमणसंकप्पे असंथडिए निवितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं असणं वा ४ जाव जो तं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३४॥
छाया--यो भिक्षुः उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितमनःसंकल्प' असंस्तृतः निर्विचिकित्सासमापन्नेन आत्मना असणं वा ४ यावत् यस्तं भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥सू० ३४॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणो वा उद्गतवृत्तिकादिवशेिषणविशिष्टः सः 'असंथडिए' असंस्तुनः अध्वप्रतिपन्नतपोग्लानत्वादिकारणात् धृतिबलादिरहितः 'निन्वितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं' निर्विचिकित्सा सूर्यत्योद्गमनानस्तमनशङ्काराहित्यं, तां समापन्नेन आत्मना सन्देहरहितेनात्मना अशनादिकं गृहीत्वा भुङ्क्ते किन्तु भोक्तं प्रवृत्ते सति यदि जानीयात् 'सूर्यो नोदितः, अस्तं वा गतः' इत्येवं निश्चये सत्यपि यो मुक्ते न तदशनादिकं परिष्ठापयति स प्रायश्चित्तभागी भवतीति भावः ।। सू० ३४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणथमियमणसंकप्पे असंथडिए वितिगिच्छासमावण्णेणं अप्पाणेणं असणं वा ४ जाव जो तं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ॥सू० ३५॥
छाया-यो भिक्षु. उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितमन संकल्प असंस्तृतः विचिकित्सासमापन्नेन आत्मना अशनं वा ४ यावत् यस्तं भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते सू० ३५॥
चर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । व्याख्या पूर्ववदेव, नवरम्-'असंथडिए' असंस्तृतः मसमर्थः यः कोऽपि मुनिर्दूरक्षेत्राद् विहृत्यागमनेन श्रान्तः, मासक्षपणस्य पारणकदिवसत्वेन ग्लानत्वमापन्नः, रोगादिना ग्लानत्वमापन्नो वा भवेत्, इत्यादिकारणैर्धेतिबलवर्जितः 'वितिगिच्छासमावण्णेणं अप्पाणेणं' विचिकित्सा-सूर्यस्योदयसंभवः संप्रति अभ्रच्छन्नादिकमाश्रित्यैवं दृश्यते, अथवा-अस्तं न गत इति संभवः, इत्येवरूपा, तां समापन्नेण आत्मना 'उदितः सूर्यो नास्तं गतो वा सूर्यः' इति दातृवचनेन अशनादिकं गृहीत्वा भुङ्क्ते भोक्तुं प्रारभते अथ तत्समये सूर्यस्यानुद्गमनास्तमनयोर्निश्चये सति यो भुङ्क्त न परिष्ठापयति तदा स प्रायश्चित्तभागी भवतीति भावः ॥सू० ३५॥ .
अत्र भाष्यकारो गाथात्रयमाहभाष्यम्-उग्गय वित्ती भिक्खू, होइ य जो अणथमियसंकप्पो ।
संथडिओ सो दुविहो, णिध्वितिगिच्छो य वितिगिच्छी ॥१॥
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२४६
निशीथसूत्रे एमेवाऽसंथडिओ, सो विय दुविहो भवेज्ज पुव्वंय । सो गेण्डिय असणाई, तं परिभोत्तुं समारद्धो ॥२॥ जाणिय अनुग्गमं तह, अत्यमणं चेव जइ य सूरस्स ।
भुंजइ जइ असणाई, पावेइ य आणभंगाई ॥३॥ छाया-उद्गतवृत्तिभिक्षुर्भवति च यः अनस्तमितसंकल्पः ।
संस्तृतः स द्विविधो निर्विचिकित्लश्च विचिकित्स ॥१॥ पवमेवाऽसंस्तुतः सोऽपि च द्विविधो भवेत् पूर्ववत् । स गृहीत्वाऽशनादि तत् परिभोक्तुं समारब्धः ॥२॥ ज्ञात्वाऽनुद्गमं तथा अस्तमनं चैव यदि च सूर्यस्य ।
भुङ्क्ते यदि अशनादि, प्राप्नोति च आशाभङ्गादि ॥३॥ अवचूरिः-'उग्गयवित्ती' इत्यादि । उद्गता वृत्तिः उद्गने एव सूर्य वृत्तिः वर्त्तनं प्रतिलेखनाहारविहारादीनां यस्य स तथा, एतादृशः, तथा पुनः अनस्तमितसंकल्पः सूर्यास्तापूर्वमेव साधुक्रियाकरणे एव संकल्पः मनोभावो यस्य स तथा, एतादृशो भिक्षुः, स संस्तृतासंस्तृत. भेदेन द्विविधो भवति, तत्र संस्तृत धृतिबलादिसपन्नः, असस्तृतः-धृतिबलादिरहितः । स एकैको द्विविधः-निर्विचिकित्सविचिकित्सभेदात् , तत्र निर्विचिकित्सः-सूर्यस्योद्गमे अनस्तमने च शङ्कावर्जितः, विचिकित्सः उद्गमनाऽनस्तमनविषये शङ्काशीलः, एते चत्वारोऽपि अशनादि चतुर्विधाहारं गृहीत्वा तत् परिभोक्तुं समारभन्ते तत्समये 'नोदितः सूर्यः अस्तमितो वा सूर्यः' इति निश्चये तन्न भुजानाः सन्तः आज्ञा तीर्थकराज्ञां नातिकाम्यन्ति, एते भुञ्जानास्तीर्थकराज्ञाया विराधका एव नत्वाराधका इत्यर्थ., 'सूर्य उदितः, नास्तमितो वा' इत्थादिरूपदात्रादिवचनप्रामाण्यमाश्रित्य गृहीतमशनादि भुजानानां दोपं प्रतिपादयति-'जाणिय' इत्यादि, यदि सूर्यस्यानुद्गमनमस्तमनं च ज्ञात्वा अन्यसकाशात् स्वबुद्धया वा परिज्ञाय सूर्यो नोद्गितः अस्तमितो वा इति निश्चयेन ज्ञाते सति यदि गृहीतमशनादि भुञ्जते किन्तु यदि यत् मुखे हस्ते पात्रे वा तिष्ठति तत् त्यक्त्वा मुखहस्तपात्रादिकै निरवयवं कृत्वा न परिष्ठापयन्ति तदा ते आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नुवन्ति, इति भाष्यगाथात्रयार्थः ॥१-२-३॥ सू० ३५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू राओ वा वियाले वा सपाणं सभोयणं उग्गालं आगच्छेज्जा तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा णाइकमइ तं उग्गिलित्ता पच्चोगिलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते, जो तं पच्चोगिलइ पच्चागिलंतं वा साइज्जइ ॥सू० ३६॥
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पूर्णिभाष्याघचूरिः उ० १० सू० ३६-३८ मुखागतोगारपुनर्मिलन-ग्लानागवेषणादिनि० २४७
छाया- यो भिक्षुः रात्रौ वा विकाले वा सपानः सभोजन उद्गार आगच्छेत् तं विविचन् वा विशोधयन् वा नातिकामति, तम् उद्गीर्य प्रत्यवगिलन् रात्रिभोजनप्रतिसेवनाप्राप्तः यस्तं प्रत्ववगिलति प्रत्यवगिलन्त वा स्वदते ॥ सू०३६ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'राओ वा' रात्रौ वा 'पियाले वा' विकाले वा सध्यासमये सूर्योदयात्प्राग वा तस्य श्रमणस्य 'सपाणे' सपान:-पानं जलं तेन सहितः सपानः 'सभोयणे वा' सभोजनो वा यद् भोजनं भुक्तमोदनादिकं तेन सहितः सभोजनः, उपलक्षणाद् उभयप्रकारो वा 'उग्गाले' उद्गारः 'डकार' इति लोकप्रसिद्धः स आगच्छेत् मुखमध्ये आगच्छेत् 'तं विगिंचमाणे' तं सजलं सभोजनमुद्गारम् विविचन् परित्यजन् मुखाद्-बहिर्निप्कासयन् 'विसोहेमाणे विशोधयन् मुखस्य स्वच्छता वस्त्रादिना संपादयन् श्रमणः श्रमणी वा 'नाइक्कामइ' नातिक्रामति नोल्लंधयति तीर्थकरस्याज्ञाम् 'रात्रौ न भोक्तव्यमित्याकारक यदस्ति तस्यातिक्रमणं न करोति सपानसभोजनोद्गारस्य मुखात निष्काशनात् मुखस्य विशुद्धिकरणाच्चेत्यर्थः 'त' तम् अथ यदि स श्रमणो रात्रौ विकाले वा समागतं सपानं सभोजनमुद्गारम् 'उग्गिलित्ता पच्चोगिलमाणे' उद्गीर्य्य प्रत्यवगिलन् यदि तं सपानं सभोजनमुद्गारं मुखाद्वहिर्न निःसारयति किन्तु पुनः तदुद्गारस्थं जलं भोजनं च गलादधः कुर्वन् स 'राइभोयणपडिसेवणपत्ते' रात्रिभोजनप्रतिसेवनाप्राप्तः रात्रिभोजनजनितदोषयुक्तो भवति अतो यदि 'जो तं पञ्चोगिलइ पचोगिलंतं वा साइज्जइ' यः कोऽपि श्रमणः श्रमणी वा तदुद्गारस्थं जलं भोजनं प्रत्यवगिलति गलादधः करोति तथा प्रत्यवगिलन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति ॥ स् । ३६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा णच्चा ण गवेसइ ण गवेसंतं वा साइज्जइ ।। सू०३७॥
छाया—यो भिक्षुः ग्लानं श्रुत्वा ज्ञात्वा न गवेषयति न गवेषयन्त वा स्वदते ॥सू.३७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' य, कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिलाणं ग्लानम् तत्र यस्य रोगेण आतङ्केन वा शरीरं क्षीणं भवति शरीरस्य क्षयो वा भवति स ग्लानः, तादृशं ग्लान सरोगातकम् समानसामाचारीकं स्वगच्छीयं वा श्रमणं 'सोच्चा' श्रुत्वा अन्यमुखात् 'णच्चा' ज्ञात्वा स्वयमेव वा ज्ञानविषयोकृत्य 'ण गवेसई' न गवेषयति नान्वेषयति तथा 'ण गवेसंत वा साइज्जई' न गवेषयन्तं वा स्वदते अनुमोदते । यो भिक्षुः स्वग्रामे स्वोपाश्रये परनामे परोपाश्रये वा स्वगच्छीयः परगच्छीयो वा समानसामाचारीकः अमुकः श्रमणो ग्लानो जात इति परेभ्यः श्रुत्वा स्वयमेव वा ज्ञात्वा तस्य गवेषणं तत्स्थितेर्जिज्ञासारूपं तद्वैयावृ
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निशीथस्त्र २४८ त्यरूपं वा न करोति, तथा गवेषणमकुर्वन्तं वा श्रमणमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तथा तस्याज्ञामङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति अतो ग्लानं श्रमणमवश्यमेव गवेपयेत् न तस्योपेक्षा कर्तव्येति भावः ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-सगामे परगामे वा, सोच्चा जाणिय संठियं ।
गिलाणं नो गवेसेइ, आणाभंगाइ पावइ ॥ छाया-स्वग्रामे परग्रामे वा, श्रुत्वा शात्वा संस्थितम् ।
ग्लानं नो गवेषयति, आशाभङ्गादि प्रामोति ॥ अवचूरि:-यः श्रमणः स्वग्रामे- स्ववसतौ अन्यवप्सतौ वा परग्रामे-यत्र स्वयं स्थितस्ततोऽन्यग्रामे या संस्थितं ग्लानम् समानसामाचारीकं साधु श्रुत्वा-अमुकत्र साधुः रोगातकेन दुःखी जात इति लोकेभ्यः श्रुत्वा स्वयमेव ज्ञात्वा वा तं यदि श्रमणः श्रमणी वा नो गवेपयति तस्य रोगातकादिस्थितेजिज्ञासां शुश्रूषां च न करोति स श्रमण आज्ञाभङ्गादिकान, दोषान् प्राप्नोति । यो हि श्रमणः स्वग्रामे स्ववसतौ परवसतौ वा परग्रामे वा ग्लानं श्रमणं न गवेपयति न गवेषयन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चिभागी भवति । यतो हि रोगातकादिना दुःखितो ग्लान आसन्नस्थेन साधुना अगवेपितो मनसि परितापं प्राप्नोति तज्जन्यप्रायश्चित्तस्य स भागी भवतीति भावः ।। सू० ३७॥
सूत्रम्--जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा णच्चा उम्मग्गं वा पडिपहं वा गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू०३८॥
छाया यो भिक्षुग्लानं श्रुत्वा धात्वा उन्मार्ग प्रतिपथं वा गच्छति गच्छन्तं वा स्वदते चा ॥सू० ३८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिलाणं' ग्लानं रोगातकाक्रान्तं 'सोच्चा णच्चा' श्रुत्वा अन्यसकाशात् ज्ञात्वा स्वयमेव वा यदि 'उम्मग्गं वा' उन्मार्ग वा-लानस्थानमार्गादन्यं मार्ग 'पडिपहं वा' प्रतिपथं वा गच्छति यत्र मार्गे ग्लानः स्थितस्ततो विपरीतं पन्थानं यथा स यदि पूर्वदिशायां स्थितो भवेत्तदा स्वयं पश्चिमदिशायां गच्छति रोगातकादिना ग्लायमानो यत्र वर्तते तत्र यदि गमिष्यामि तदा तस्य सेवादिकमवश्यकर्तव्यतया समापतेदितिबुद्धया यत्र स विद्यते तस्मिन् मार्गे न गच्छति किन्तु तत्प्रतिकूलमार्गेण गमनं करोति येन ग्लानस्य वैयावृत्त्यं न कर्तव्यं स्यात् , तथा 'गच्छंतं वा साइज्जइ' उन्मार्ग प्रतिपथं वा गच्छन्तं श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी
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चूर्णिभाष्यावद्रिः उ.१० २.०-३८-३९
ग्लानवैयावृत्याकरणनिषेधः २५९ भवति । यतो रोगावस्थायामुपसर्गावस्थायां चक्षुरादीन्द्रियविकलतावस्थायां ग्लानस्य साधोविनयवैयावृत्त्यादिना संरक्षणकरणमावश्यकम् , अन्यथा रुग्णः साधुर्मनसि दुःखितः सन् संयमात् परिभ्रष्टो भवेत् , तथा असंरक्षितावस्थायां तं दृष्ट्वा लोकाः शासनस्य निन्दा करिष्यन्ति तेन प्रवचनस्य लघुता स्यात् , तथा अन्यवैराग्यवतां गृहस्थानां तस्य ग्लानस्य तादृशी दुरवस्थां दृष्ट्वा मनसि वैराग्यमपि हीयेत, ते विचारयिष्यन्ति यत् किमनया प्रव्रज्यया यत्तत्रैतादृशं दुःखं भवति, न कोऽपि वैयावृत्त्यं करोतीति विनयमार्गोऽपि लुप्येत तस्मात् कारणात् श्रमणः ग्लानं साधु श्रुत्वा ज्ञात्वा कथमपि नोन्मार्ग न वा प्रतिपथं गच्छेत् , न वा.प्रतिपथं गच्छन्तमनुमोदयेत् किन्तु ग्लानस्य वैयावृत्यमवश्यमेव कर्तव्यमिति । अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-सोच्चा गिलाणं उम्मग्गं, गच्छे पडिपहं जइ ।
जो समणो पावई सो, आणाभंगाइयं तया ॥ छाया-श्रुत्वा ग्लानमुन्मार्ग गच्छेत् प्रतिपथं यदि ।
यः श्रमणः प्रामोति स आज्ञाभङ्गादिकं तदा ॥ ___ अवचूरिः-यस्तु श्रमणो भिक्षुः ग्लानं रोगातङ्केन प्रक्षीयमाणदेहम् श्रमणं श्रुत्वा उन्मार्ग प्रतिपथं वा गच्छेत् , यत्र ग्लानः साधुर्विद्यते तत्र न गच्छति किन्तु उन्मार्गेण विपरीतमार्गेण याति, तत्राटव्यादिमार्गेण गमनम् उन्मार्गगमनम् , विपरीतमार्गेण गमनं प्रतिपथगमनम् , एवं गमनं करोति, यथा येन पथा आगतः तेनैव पथा प्रतिनिवर्तते तस्माद्वा मार्गात् मार्गान्तरेण संक्रामति, एवं कुर्वन् श्रमणः प्रायश्चित्तभागी भवतीति । कथं पुनरेवं स उन्मार्गादिना गच्छति ग्लानसमीपं नागच्छति ? तत्रोच्यते-लान साधु श्रुत्वा स मनसि एवं विचारयति-यद्यहं ग्लानेन दृष्टः तदा यदि ग्लानस्य वैयावृत्यं न करिष्यामि तदा अधार्मिकोऽयमिति लोको मां गणयिष्यति, अथवा यदि तस्य ग्लानस्य वैयावृत्यं करिष्यामि तदा तत्रैव व्यापृतस्य मे सर्व स्वकीय कार्य विनष्टं भविष्यतीत्यादि कारणवशात्स तत्र न गच्छतीति । तथा ग्लानो यत् दुःखं प्राप्नोति तन्निष्पन्नमपि प्रायश्चित्तं तस्य भवति । तस्मात् श्रुत्वा ग्लानं मार्गे वा गच्छता ग्रामं वा प्रविशता भिक्षार्थ वा अटता साधुना तत्क्षणादेव त्वरितं ग्लानसमीपे गन्तव्यमिति । यथा भ्रमरः कुसुमिताम्रवणं दृष्ट्वा बनान्तरं विहाय तं प्रति शीघ्र गच्छति, एवं साधुना धर्मवृक्षाश्रयणाथै वैयावृत्यकरणाय तत्रावश्यं गन्तव्यमेव, एवं करणेन साधर्मिकवात्सल्य कृतं भवेत् , तथा स्वस्य कर्मनिर्जरा च संपधेत तस्मात् यो ग्लानसमीपे तदुपचारार्थ गच्छति स शुद्धः, यस्तु न गच्छति तस्य प्रायश्चित्तं भवति । तत्रायं पृच्छाक्रमः, तथाहि -यत्र ग्रामे उपाश्रये वा ग्लानस्तिष्ठति तत्र गत्वा प्रष्टव्यम्-कोऽत्र ग्लानमुपचरति, अथवा अस्य किमुपचरितमिति प्रष्टव्यम् । साधूनामियं मर्यादा यत् ग्लानस्यानुवर्तनं कर्तव्यमिति,
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निशीथसूत्र एवं तत्र ग्लानसमीपं गत्वा तत्रत्यो य आचार्यस्तं प्रति वदेत्-हे भदन्त ! आज्ञापय किमहं करोमि वैयावृत्ये स्वात्मानं नियोजयामि अहमनेनैवाभिप्रायेणागतोऽस्मि यद् ग्लानं परिचरिष्यामि, ग्लानस्य वैयावृत्ये ये संलग्नाः साधवस्तान् भक्तपानादिभियावृत्यं करिष्यामीति । एवं कुर्वतः श्रमणस्य तीर्थकराज्ञाया आराधना कृता भवति । एवं कथिते यदि आचार्यः कथयति-यत् अमुकं कार्य कुरु, नदा तत्रत्यं सर्व कार्यमाचार्याज्ञया कर्तव्यम् । औषधभक्तपानादिना वैयावृत्त्यं कर्तव्यं यावत् स साधुन रुजो भवेत् । तस्मात् साधुना अवश्यमेव ग्लानस्य समीपे गन्तव्यम् । यस्तु श्रमणो ग्लानं श्रुत्वा तत्र झटिति न गच्छति उन्मार्गेण प्रतिपथेन वा गच्छति स तीर्थकरस्याज्ञाया विराधको भवन् प्रायश्चित्तभागी भवतीति ॥३८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अब्भुट्ठिए गिलाणपाउग्गे दव्वजाए अलभमाणे जो तं ण पडियाइक्खइ ण पडियाइक्वंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३९॥
छाया-यो भिक्षुर्लानवैयावृत्ये अभ्युत्थिनो ग्लानप्रायोग्यं द्रव्यजातमलभानो यस्त न प्रत्याचक्षते न प्रत्याचक्षाणं वा स्वदते ॥सू० ३९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिलाणवेयावच्चे' ग्लानवैयावृत्ये, तत्र रोगानकादिना ग्लानस्य साधोः वैयावृत्यं औषधभैपज्यानपानादिना सेवाकरणे 'अमुहिए' अभ्युत्थितः समुद्यतः सेवाकरणार्थ कृतप्रयत्नो नातो यदि "गिलाणपाउग्गे' ग्लानप्रायोग्यम् ग्लानस्य प्रायोग्यमनुकूलं प्रासुकमाहारमौषधादिकं वा 'दव्यजाएं' द्रव्यजातम्-तदनुकूलवस्तुविशेषम् 'अलममाणे' अलभमानः-अप्राप्नुवन् 'जो तं ण पडियाइक्खई' यो ग्लानसेवाकारकः साधुः ग्लानसाध्वर्थमौषधमशनादिकं च आनेतुं कृतप्रयत्नोऽपि तादृशंद्रव्यजातम् अन्तरायबलादलभमानो यदि श्रमणान्तरं प्रति आचार्य प्रति वा रोगिण प्रति वा न प्रत्याचक्षते न कथयति तथा 'ण पडियाइक्खंत वा साइज्जइ' न प्रत्याचक्षाणं वा स्वदते अनुमोदते । यो हि भिक्षुर्लानस्य श्रमणस्य वैयावृत्त्ये नियुक्तो ग्लानस्य प्रायोग्य औषधभैषज्यान्नपानादिकमानेतु प्रयत्नं करोति तत्र यदि तादृशं प्रासुकमौषधांदिकं तेन न लब्धम् तदा आगत्याचार्य प्रति अन्यस्मै साघवे वा ग्लानाय वा कथयितव्यं यत् औपधादिकं लाभान्तरायकर्मणा मया न लब्धमिति । एवं न कथयति स प्रायश्चित्तभागी भर्वति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोपाश्चापि भवन्तीति ।
अत्राह भाष्यकार:' भाष्यम्-वेयावच्चे गिलाणस्स, चावडो समणो जइ ।
'दबजायं अलभतो, गुरुणो तं निवेयए ।
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१० सू०४० ग्लानोचितवस्त्वलाभेपश्चात्तापाऽकरणनिषेधः २५१ छाया- वैयावृत्ये ग्लानस्य व्यापृतः श्रमणो यदि ।
द्रव्यजातमलभमानो गुरवे तं निवेदयेत् ॥ अवचूरिः- श्रमणो भिक्षुः ग्लानस्य रोगातकादिना पीड्यमानदेहस्य वैयावृत्त्ये सेवाकमणि नियुक्तः ग्लानार्थ द्रव्यादिजातम् प्रासुकमौषधं भक्तं पानं वा अन्वेषयन् तं यदि न लभते तदा प्रत्यागत्य 'ग्लानाथें प्रासुकमौषवादिकं नाहं लब्धवा'-नित्येवंप्रकारेण गुरवे आचार्याय गच्छनायकाय ग्लानाय अन्यस्मै साधवे वा अवश्यमेव कथयेत् । यदि कदाचित् स पुनरागतो न कथयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति । तत्र द्रव्यजातपदेन प्रासुकं भकपानादिकम् , तथा रोगिणे यादृशमुपयुक्तमौषधादिकं भवति तादृशमौषधादिकम् , पथ्यं भोजनम् , संस्तारकवस्त्रादिकं च गृह्यते । यदि प्रत्यागतः साधुन कथयति तत्रेमे दोपा भवन्ति तद्यथा-अमुकेन औषधेन तस्य ग्लानस्य रोगनिवृत्तिर्भविष्यति परन्तु तेन नानीतं न वा कथितम् , यदि कथितं भवेत् तदा अन्यः कोऽपि श्रमणः तदर्थ प्रयत्नं कुर्यात् । तदकरणात् ग्लानस्यागाढपरितापो भवेत् , महदुःखं जायेत, ग्लानस्य मूर्छापि भवेत् , एवं कदाचित् प्राणवियोगोऽपि संभवेत् , यस्मादेते दोपाः संभवन्ति तस्मात् कारणात् ग्लानस्य वैयावृत्त्ये नियुक्तो भिक्षुर्यदि ग्लानार्थमोपधादिकं न प्राप्नोति तदा अवश्यमेवागत्य गुरवे श्रमणान्तराय वा निवेदनीयं, नतु तत्रालस्यं कर्तव्यमिति ॥सू० ३९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अभुट्ठिए सएण लाभेण असंथरमाणे जो तस्स न पडितप्पइन पडितप्पंत वा साइज्जइ ॥ सू०४०॥
छाया-यो भिक्षुग्लानवैयावृत्ये अभ्युत्थितः स्वकेन लाभेनासंस्तरन् या तस्य न परितप्यते न परितप्यमानं वा स्वदते ॥सू० ४०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिलाणवेयावच्चे' ग्लानवैयावृत्ये, तत्र ग्लानस्य रोगातकादिना पीडितस्य श्रमणस्य वैयावृत्ये सेवाकर्मणि 'अभुटिए' अभ्युस्थितः समुद्यतः, तेन वन्दनादिकार्यवशाद् बेलातिक्रमेऽल्पं लब्धं भवेत् , तादृशेन 'सएण लाभेण' स्वकेन स्वकृतोधमजनितेन लाभेन 'असंथरमाणे' असंस्तरन पर्याप्ततामलभमानः एतावताऽल्पेन वस्तुजातेन प्राप्तेन ग्लानस्य किं भविष्यतीत्येवं पर्याप्तमप्राप्तवन 'जो तस्स न पडितप्पई' यस्तस्य तद्विषयस्य ग्लानविषयस्य वा न परितप्यते उपसर्गबलादत्र पश्चात्तापार्थों गृह्यते, पश्चात्तापं न करोति 'ण पडितप्पंतं वा साइजई' न परितप्यमानं वा पश्चात्तापमकुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
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૨૧૨
निशीथसूत्रे ग्लानस्य वैयावृत्त्यकरणे कीदृशः साधुनियोक्तव्यः ? एवंविधे प्रश्ने भाष्यकारः प्राहभाष्यम्-खंतिखमो मद्दविओ, असढोऽचवलो य लद्धिसंपण्णो ।
दक्खो अनिद्द मुभरो, हिययग्गाही अपरितंतो ॥१॥ मुत्तत्थअपडिवद्धो, निज्जरपेही जिइंदिओ दंतो। कोऊहलविप्पमुक्को, अणाणुकारी सउच्छाहो ॥२॥ उस्सग्गववायविऊ, सदहगो एरिसो य जो होइ ।
आउरवेयावच्चे, निउंजए तं च आयरिओ ॥३॥ छाया-क्षान्तिक्षमः मार्दविकः अशठः अचपलश्च लब्धिसंपन्नः ।
दक्षः अनिद्रः सुभरः हृदयग्राही च अपरितान्तः॥१॥ सूत्रार्थाप्रतिवद्धः निर्जराप्रेक्षी जितेन्द्रियः दान्तः । कौतूहलविप्रमुक्तः अननुकारी सोत्साहः । उत्सर्गापवादवित् श्रद्धकः ईदशश्च यो भवति ।
आतुरवैयावृत्ये नियोजयेत् तं च आचार्यः ॥३॥ अवचूरिः - 'खंतिखमो' क्षान्तिक्षमः क्षान्त्या क्षमया क्षमते सहते न तु असमर्थतया यः सः क्षान्तिक्षमः, एतादृशं क्षान्तिक्षमं श्रमण ग्लानस्य वैयावृत्ये नियोजयेत् इत्यग्रेणसम्बन्धः, तथा मादेविकः, तत्र माननिग्रहकारी मार्दविकः मृदुतागुणसम्पन्नः, तथा अशठः, तत्र मायाशीलः शठः न शठोऽशठः मायानिग्रहकारी सरलचित्त इत्यर्थः, अचपल:-चाञ्चल्यरहितः, तथा लब्धिसम्पन्न:-आहारादिगवेषणे विलक्षणशक्तिसंपन्नः, लन्धिः-लभ्यवस्तुनः परिश्रममन्तरेण लाभः, तादृशशक्तिसम्पन्न इत्यर्थः, तथा दक्षः-लानस्य कार्यकरणे चतुरः, तथा अनिद्रः-आलस्यरहितः, मुभर:-सु-सुष्टुतया भरति पोषयति अल्पेन बहुकेन वा समयोचितेन आहारादिना ग्लानस्य पोषणं करोति यः स तथा, अथवा आत्मना अन्यद्वारा वा ग्लानस्य कार्यसाधकः, तथा हृदयग्राही-तत्र यः ग्लानस्य चित्तरञ्जकः, तेन सह हृदयंगमवा नुमोदनपूर्वकमपथ्यनिवारको यः स हृदयग्राही, अपरितान्त:-सुचिरकालमपि ग्लानस्य वैयावृत्त्यं कुर्वन् उद्विग्नो न भवति यः स तथा ॥१॥ तथा सूत्रार्थाऽमतिवद्धः-सूत्रार्थे प्रतिबन्धरहितः सम्यक्सूत्रार्थज्ञाता गृहीतसूत्रार्थ इत्यर्थः, तथा निर्जराप्रेक्षी-कर्मनिर्जरार्थी निर्जरार्थमेव वैयावृत्त्यकारी, जितेन्द्रियःयो हि इष्टानिष्टविषये रागद्वेपं न प्राप्नोति स जितेन्द्रियः, दान्त:-इच्छाया मनसश्च दमनकर्ता, कौतूहलविषमुक्तः- यस्मिन् कस्मिन् विषये कौतुकवर्जितः, अननुकारी-अनु-पश्चात् न कारयतीति अननुकारी 'अहमस्य वैयावृत्त्यं करोमि अतोऽयमपि अनु-पश्चात् मम वैयावृत्य करिण्यती'-ति अनुकरणवर्जितः कृतप्रतिकृतिवाञ्छारहित इत्यर्थः, तथा सोत्साहः-वैयावृत्ये उत्साहशीलः,
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धूणभाष्यावधिः उ० १० सू० ४१-४२. प्रथमप्राकालवर्षाकालविहारनिषेधः २५३ न कदापि मनोमालिन्यं करोति यः सः ॥२॥ तथा-उत्सर्गापवादवित्-यथासमयमुत्सर्गमार्गस्यापवादमार्गस्य च सम्यग् ज्ञाता, ग्लानकायें कदा कस्मिन् विषये उत्सर्गमार्गः, कदा कस्मिन् विषये चापवादमार्गः स्वीकरणीयः, इत्यस्य सम्यक्तया ज्ञानवान् , श्रद्धकः-ग्लाने श्रद्धाशीलः, एतादृशः पूर्वोक्तगुणविशिष्टो यो भवति तम् आचार्यः आतुरवैयावृत्त्ये ग्लानसेवायां नियोजयेत् स्थापयेत् ॥३॥ इति भाष्यगाथात्रयार्थः ।। सू० ४०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पढमपाउसंसि गामाणुगामं दूइज्जइ दूइज्जतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४१॥
छाया-यो भिक्षुः प्रथमप्रावृषि ग्रामानुग्राम द्रवति द्रवन्तं वा स्वदते ॥सू० १४॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पहमपाउसंसि' प्रथमप्रावृषि, तत्र प्रावृट्शब्देन आषाढ-श्रावणमासौ गृह्येते. तत्र तयो. सियोईयोर्मध्ये प्रथमः प्रावृट्काल आषाढमासः, तस्मिन् प्रथमे प्रावृट्काले आषाढमासे अयवा पण्णामपि ऋतूनां मध्ये प्रथमः प्रावृट्रकालो भवति तेन कारणेन प्रथमः प्रावृट्कालः कथ्यते, तत्र प्रथमप्रावृट्काले यः श्रमणः 'गामाणुगामं दूइज्जई' प्रामानुग्रामं द्रवति एकस्मात् ग्रामात् प्रामान्तरं प्रति गच्छति तथा 'दूइज्जत वा साइज्जइ' ग्रामानुग्रामं द्रवन्तं गच्छन्तं यथा शिशिरहेमन्तादिमध्ये प्रामानुग्राम प्रति द्रवति तथा प्रथमप्रावृट्काले यः द्रवति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० ४१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वासावासं पज्जोसवियंसि गामाणुगामं दूइज्जइ दूइज्जंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४२॥
छाया-यो भिक्षुर्वावास पर्युपिते ग्रामानुग्रामं द्रवति द्रवन्तं वा स्वदते ॥सू०४२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वासावासं पज्जोसवियंसि' वर्षावासं पर्युषिते सति वर्षावासनिवासकरणानन्तरं आषाढशुल्कपौर्णमास्याः प्रतिक्रमणे कृते सतीत्यर्थः 'गामाणुगामं दूइज्जई' प्रामानुग्रामम् एकस्मात् प्रामात् प्रामान्तरं प्रति द्रवति गच्छति विहारं करोतीत्यर्थः तथा 'दइज्जतं वा साइज्जई' द्रवन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति संयमात्मविराधनासद्भावात् । विशेषजिज्ञासुजनार्थ भाष्यकारोऽतिदेशमाहभाष्यम्-आयारस्स य वीए, सुयखंधे तस्स तइय अज्झयणे ।
तस्सवि पढमुद्दे से, तत्थ वि पुण आदिमुत्ते य ॥१॥ इरियाए जं भणियं, दसमुद्देसं मि तं निरवसेसं । वासावासविहारे, एत्थ निसीहे मुणेयव्वं ॥२॥
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૨૧૪
MINNITTIAN^nnano
छाया
निशीथसूत्रे
आचारस्य च द्वितीये श्रुतस्कन्धे तस्य तृतीयेऽध्ययने । तस्यापि प्रथमोद्देशे, तत्रापि पुनरादिसूत्रे च ॥१॥
fi (ध्ययने) यद् भणितं दशमोगे तत् निरवशेषम् । वर्षावासविहारे, अत्र निशीथे शातव्यम् ||२||
1
अवचूरि : - आचाराङ्गयूनस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे तदधिकृत्य तृतीयाध्ययनं चादितो द्वादशाध्ययने तत्रापि प्रथमोदेशके तत्रापि आदिसूत्रे ईर्यायामिति यययने यतिं नन्निरवशेष वर्षावासविषये अत्र निशीथसूत्रे दशमोदेशे ज्ञातयम् । तत्राचाराप्रकरणं यथा"अगए खलु वासावासे अभिपडे बहवे पाणा अभिसंभूया बहवे चीया भट्टणुभिण्णा, अंतरा से मग्गा बहुप्पाणा बहुबीया जाव संताणगा अण्णोक्कंना पंथा, नो विन्नाया मग्गा सेवं णच्चा णो गामाणुगामं दृउज्जेज्जा तत्र संजयामेव वामावामं उबलिएज्जा" | अभ्युपगते खलु वर्षावासे अभिप्रवृष्टे बहवः प्राणाः अभिसंभूताः बहूनि बीजानि अधुनोद्भिन्नानि, अन्तरा तस्य मार्गा बहुमाणा बहुबीजा यावत् संनानकाः अनुक्रान्ताः पन्थानः नो विज्ञाता मार्गा', तदेवं ज्ञात्वा नो ग्रामानुप्रामं द्रवेत् । ततः संयत एव वर्षावासं उपलीयेत, इति छाया । वर्षाकाले ग्रामानुप्रामविहारे संयमात्मविराधना दर्श्यते वर्षाकाले समायाते बइवो वनस्पतिकायाः प्रादुर्भवन्ति, मार्गाश्च पिच्छलाः सकर्दमा भवन्ति, तथा मार्गपरि वनस्पतीनामुपादात्तत्र मार्गा अपि सम्यग् न ज्ञायन्ते अतो वर्षाकाले साधुर्न विहारं कुर्यात् न वा कुर्वन्तमनुमोदयेत् किन्तु एकस्मिन् ग्रामे चातुर्मास्यं निवस्य श्रुतचारित्रलक्षणं धर्म समाराघयेदिति भावः । ( आचारात • श्रुत० २ ईर्याख्यमध्ययनम् ३ सूत्रम् १) संयमविराधनमात्मविराधनं च तत्र संयमविराधनमित्यम्-अक्षुण्णा अमर्दिना जलप्रवहणेन पृथिवी खण्डिता भवति ततश्च पृथिवी सविता भवति तत्र विहारं कुर्वतो वनस्पतिकायिकानां पृथिवीकायिकानां च विराधना भवति, एवं जलं द्विविधं वर्षोदकम् भूभ्युदकं च, तत्र चलन् अप्कायिकजीवानामपि विराधनं भवति । तथा वर्षाकाले कुन्थुप्रभृतिका अनेके सा जीवाः प्रादुर्भवन्ति इति वर्षाकाले विहारे कृते सति सूक्ष्मत्वादस्यमाना एते कुन्थुप्रभृतिका जीवा विराधिता भवन्ति, इत्थं तद्विराधनेन संयमोपघातो भवतीति संयमविराधनम् । आत्मविराधनं चेत्थम् - वर्षाकाले यदि विहारं करोति तदा वृष्ट्या शरीरं प्लावितं स्यात्, एवं वर्पणात् मार्गः पिच्छलो भवति तत्र चलनेन कदाचित् पतनमपि संभवेदिति ततोऽपि आत्मविराधनं भवति, तस्मात् कारणात् चातुर्मासे श्रमणो प्रामानुप्रामं न विहरेत् न वा विहरन्तमनुमोदयेत् ॥सू० ४२||
,
"
सूत्रम् — जे भिक्खू अपज्जासवणाए पज्जोसवेइ पज्जो सवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४३ ॥
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चूर्णिभाष्यावचूरि: उ. १० सू० ४३-४५
पर्युषणाव्यतिक्रमनिषेधः २५५
1
छाया- -यो भिक्षुरपर्युषणायां पर्युषति पयुषन्तं वा स्वदते । सू० ४३ ॥ | चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा ‘अपज्जोसवणाए’ अपर्युषणायाम् अपर्युषणाकाले, अत्र 'ऊष' उप' इति धातुद्वयम्, तेन 'पर्यूषणा' 'पर्युषणा' इति द्वयमपि रूपं सिद्ध्यातीति पर्युषणस्य सांवत्सरिकस्य यः कालः प्रतिनियतः चातुर्मासीप्रतिक्रमणानन्तरं पञ्चाशत्तमे दिवसे संवत्सरी प्रतिक्रमणं कर्त्तव्यम्, इत्येवंरूपः कालः, तस्य कालस्याप्राप्तावेव तदतिक्रमणे वा 'पज्जोसवेइ' पर्युपति - पर्युषणां करोति कारयति वा सांवत्स - रिकम् प्रतिक्रमणं चतुर्थभक्तक्षमापनादिकं च करोति, तथा 'पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ' पर्युषन्तं वा अप्राप्तेऽतिक्रान्ते वा पर्युषणाकाले सावत्सरिकप्रतिक्रमणं पर्युषणामूलकतपःप्रभृतिकं वा कुर्वन्तं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ॥ सू० ४३ ॥
1
सूत्रम् - जे भिक्खू पज्जोसवणार ण पज्जोसवेइ ण पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४४ ॥
छाया -यो भिक्षु. पर्युषणायां न पर्युपति, न पर्युपन्तं वा स्वदते । सू० ४४ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पज्जोसवणाए' पर्युपणायां पर्युपणकाले चातुर्मासिकप्रतिक्रमणानन्तरं पश्चाशत्तम दिवसरूपे प्राप्तेऽपि 'ण पज्जोसवेइ' न पर्युपति शास्त्रोक्तप्रकारेण पर्युषणां न करोति, न वा कारयति तथा 'ण पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ' न पर्युषन्तं वा स्वदते सांवत्सरिककाले प्राप्तेऽपि सांवत्सरिकप्रति - क्रमणं यो न करोति न कारयति वा तमनुमोदते यः स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति तस्मात् पर्युषणकाले पर्युषणकृत्यं न परित्यजेत् ।
अत्राह भाष्यकारः---
भाष्यम् – पत्ते पज्जोसणाकाले, जो न पज्जोसवे मुणी | अपत्ते वा अईए वा, कुणइ दोसभा भवे ||
छाया - प्राप्ते पर्युषणाकाले, यो न पर्युषेद् मुनिः ।
अप्राप्ते वा अतीते वा, कुरुते दोषभाग भवेत् ॥
अवचूरिः —यः श्रमणः श्रमणी वा पर्युषणाकाले प्राप्ते समुपस्थित्ते संवत्सरीकाले पर्युषणां सावत्सरिककृत्यं क्षमापनादिकं न कुरुते सांवत्सरीसमये तन्निमित्तकधर्मध्यानादिकं न करोति तथा पर्युषणाकाले अप्राप्ते अनागते अतीते व्यतीते वा चातुर्मासिकप्रतिक्रमणानन्तरं पञ्चाशत्तमदिवसरूपे समये यः सांवत्सरिकप्रयुक्तधर्मध्यानादिकं कुरुते स दोषभाग् भवेत्, तस्य गुरुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं भवति, तथा तस्य आज्ञाभङ्गानवस्थामिध्यात्वसंयम विराधनात्म
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निशीथसूत्रे
२५६
विगघनादयो दोषा भवन्ति तस्मात् श्रमणः श्रमणी वा पर्युपणाकाले पर्युपणं कुर्यात्, तथा अप्राप्ते झालं अतिकान्ते वा पर्युषणाकाले पर्युपणं न कुर्यात् न वा कारयेत् न वा कुर्वन्तं कमप्य नुमोदयेत् । उक्तं च समवायानसूत्रस्य तृतीयसमवाये - " समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसराडमासे बक्कते सत्तरिएहिं राईदिएहिं सेसेर्हि वासावासं पज्जोसवेइ" श्रमणो भगवान महावीरो वर्षाणां मविंशतिरात्रिमासे व्यतिक्रान्ते सप्तत्यां रात्रिंदिवेषु शेषेषु वर्षावासं पपति । वर्षाकालस्य विंशतिरात्रिन्दिवोत्तरे मासात्मककाले व्यतिक्रान्ते सति, तथा सप्ततिरात्रिन्दिवेषु शेषेषु पर्युषणां पर्युपास्ते सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं करोति कृतवानिति प्रकरणार्थः, एतावता ज्ञायते यत् उपर्युक्तसमये सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं कर्तव्यं न पूर्व न वा पश्चात् करणीयः, तथाकरणे सूत्रोक्तप्रायश्चित्तप्रसंगात् इति ॥ सू० ४४ ॥
1
सूत्रम् -- जे भिक्खू पज्जासवणाए गालोमाइंपि बालाई उवाइणावेड़ उवाइणावेंतं वा साज्जइ ॥सू० ४५॥
छाया -यो भिक्षुः पर्युपणायां गोलोमानपि चालान् उपाददाति उपाददतं वा स्वते ||० ४५||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पज्जोसवणाए' पर्युषणाया पर्युपणादिवसे 'गोलोमाईपि बालाई ' गोलोमानपि गोलोमप्रमितानपि चालान् यावत्प्रमाणकाणि गवां रोमाणि केशाः भवन्ति तावत्प्रमाणकान् अपि केशान् मस्तके 'उवाइणावेइ' उपाददाति स्वीकरोति धारयतीत्यर्थः तथा 'उवाइणावेंतं वा साइज्जई ' उपाददत धारयन्तं वा स्वदते अनुमोदते सांवत्सरिकप्रतिक्रमणसमये स्वशिरसि गोकेशप्रमाणानपि केशान् न धारयेत् किमुत ततो दीर्घान् केशान् किन्तु तत्समये केशलुञ्चनं कृत्वैव तत्समये प्रतिक्रमणं कर्तव्यम्, अत्र यो व्यतिक्रमं करोति केशलुञ्चनमकृत्वा सांवत्सरिकप्रति - कणं करोति कुर्वन्नं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दीपाश्चापि जायन्ते इति ।
बवाह भाय्यकारः-
भाष्यम् -- पज्जोसवणाकाले, गोलोमप्पमाणमेत्तकेसेवि । जे भिक्खु जड़ ठावइ, आणाभंगाइ पावे ||
छाया - पर्युषणाकाले गोलोमप्रमाणमात्रकेशानपि ।
यो भिक्षुर्यदि स्थापयति आवाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः - यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा पर्युपणाकाले सांवत्सरिकप्रतिक्रमणसमये मादिगवान केशान् गोलोमप्रमाणमात्रानपि गवा केशप्रमाणकानपि अपि- शब्दात् किमुत
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चूर्णिभाज्यावचूरिः उ० १० सू० ४६-४७
पर्युषणाकृत्यनिरूपणम् २५७ ततो दीर्घान् गोलोमप्रमाणमात्रादधिकान् स्थापयति मस्तकोपरि धारयति केशलुञ्चनं न करोति स भिक्षुः माज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादोपान् प्राप्नोति, तथा सकेशमस्तकोपरि कदाचित् जलादिपतने अकायिकजीवानां विराधनेन संयमविनाशः, तथा प्रवृद्वकेशेषु यूकालिक्षादयोऽपि संमूर्छिता. सन्तो विराधिता भवेयुः इति शिरसः खर्जन यूकालिक्षादीनां विनाशेन संयमविनाशः, तथा अनिशयेन कण्ड्यने कदाचिदात्मविराधनमपि संभवेत् तस्मात् कारणात् साधुः वर्षाकाले पर्युपणायामवश्यमेव केशान् लुञ्चयेत् , पर्युषणां नैवातिकामेत् । यदि तरुणो बलवान् भवेत् तदा उत्कर्पतश्चतुर्मासानन्तरमवश्यमेव केशलुञ्चनं कुर्यात् , स्थविरस्याप्येवमेव उत्कर्षतः षण्मासानन्तरमिति सू० ४५॥
सूत्रम्--जे भिक्खू पज्जासवणाए इत्तरियपि आहारमाहारेइ आहारतं वा साइज्जइ सू० ४६॥
छाया—यो भिक्षुः पर्युपणायामित्वरिकमपि आहारमाहरति आहरन्त वा स्वदते ॥
चूर्णी-जे भिक्खू इत्यादि। 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणो वा 'पज्जोसवणाए' पर्युषणायां सांवत्सरिकप्रतिक्रमणदिवसे भाद्रपदशुक्लपञ्चम्याम् 'इत्तरियंपि' इत्वरिकमपि अल्पमणि 'आहार' आहारस् अशनपानखादिमस्वादिमरूपं चतुर्विधाहारमध्यात् यत् किमप्येकमल्पप्रमाणकमपि आहारजातम सिक्थमात्रमपि, जलस्य बिन्दुमात्रमषि 'आहारेई' आहरति-आहारस्योपभोगं करोति कारयति वा तथा 'आहारतं वा साइज्जई' आहरन्तं पर्युष. णादिवसे अल्पप्रमाणमपि अशनादिकमुपभुजानं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-इत्तरियपि य असणं, पज्जोसवणाए आहरे जो उ ।
सो पावइ पच्छित्तं, आणाभंगाइदोसे य ॥ छाया-इत्वरिकमप्यशनं पर्युपणायां आहरेद् यस्तु ।
स प्राप्नोति प्रायश्चित्तमाशाभङ्गादिदोषाँच्च ॥ अवचूरिः-यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा पर्युपणायां सांवत्सरिकप्रतिक्रमणदिवसे इत्वरिकमपि, तत्र इत्वरं-स्तोकमल्पमपि अशनं चतुर्विधमाहारं आहरति स भिक्षुः प्रायश्चित्तं प्राप्नोति, तथा आज्ञाभङ्गादिदोषांश्च प्राप्नोति लभते चातुर्मासिकं गुरुप्रायश्चित्तमपि तस्य भवतीति तस्मात् कारणात् श्रमणः श्रमणी वा सांवत्सरिकप्रतिक्रमणदिवसे स्तोकमप्याहारं न स्वयमाहरेत् न वा परानाहारयेत् न वा आहरन्तमनुमोदयेत् किन्तु या सामाचारी साधूनां ताम् अवलम्व्यैव धर्मध्यानादिकं कुर्यादिति ॥सू० ४६॥
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निशीथसूत्र
२५८
सूत्रम्--जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा पज्जोसवेइ पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ ।। सू० ४७॥
छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा पर्युपयति पर्युपयन्तं वा स्वदते ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थिएण वा अन्ययूथिकेन- परतीर्थिकेन 'गारथिएण वा' गृहस्थेन वा सह स्थित्वा 'पज्जोसवेई' पर्युपयति सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं करोति कारयति 'पज्जोसवेतं वा साइज्जइ' पर्युपयन्तं वा स्वदते अन्यतीर्थिकहस्थैश्च सह पर्युषणाप्रतिक्रमणं कुर्वन्तं कारयन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू० ४७॥
सूत्रम्--जे भिक्खू पढमसमोसरणुद्देसे पत्ताई वा चीवराई वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४८॥
छाया-यो भिक्षुः प्रथमसमवसरणोद्देशे पात्राणि वा चीवणि वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥सू० ४८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पढमसमोसरणुदेसे' प्रथमसमवसरणोद्देशे प्राथमिकसमवसरणमध्ये इत्यर्थः, तत्र समवसरणं त्रिविधं वर्षाकालिकं हेमन्तकालिकं ग्रीष्मकालिकं च, तत्र वर्षाकालिकसमवसरणे चातुर्मास्ये 'पत्ताई' पात्राणि 'चीवराई' चीवराणि वस्त्राणि 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वर्षाकालिकप्रतिक्रमणानन्तरं यो भिक्षुः गृहस्थेभ्यो वस्त्रपात्रादिकं स्वीकरोति तथा स्वीकुर्वन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, परन्तु वस्त्रपात्रसहितशिष्यग्रहणं तु कल्पते एवेति स्त्रार्थः ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम् --आइंमि समोसरणे, वत्थं पायं च जो पडिग्गाहे ।
सो पावेज्जा णियय, आणा-अणवत्थ-मिच्छत्तं ॥ छाया- आये समवसरणे वस्त्रं पात्रं च यः प्रतिगृह्णीयात् ।
स प्राप्नुयान्नियतं आज्ञानवस्थामिथ्यात्वम् ।। अवचूरिः-यो भिक्षुः श्रमण श्रमणी वा आये प्रथभे समवसरणे वर्षाकालिकप्रतिक्रमणानन्तरं चातुर्मासे प्रारब्धे सति तथा चतुर्माससमाप्तेः पूर्व वस्त्रं पात्रं साधूनां योग्यम् प्रतिगृह्णीयात् स्वीकुर्यात् तथा स्वीकुर्वन्तमनुमोदते स नियतं निश्चितं आज्ञाभङ्गदोपं प्राप्नुयात् तीर्थकरस्याज्ञामतिक्रामतीत्यर्थः तथा अनवस्थादोपं मिथ्यात्वं च प्राप्नुयात् लोके मिथ्यात्वं जनयति यथा वदति तथा न करोति इति साधुत्वविराधनं संयमात्मविराधनं च प्राप्नयात ॥स०१८॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१० सू०४९
उद्देशकसमाप्तिः २५९ सूत्रम्--तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥ सू० ४९॥
॥णिसीहज्झयणे दसमो उद्देसो समत्तो ॥ १०॥ छाया-तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ।।सू०४९॥
॥ इति निशीथाध्ययने दशमोदेशकः समाप्तः ॥१०॥ चूर्णी- 'तं सेवमाणे' इत्यादि । 'त' तत् उद्देशकस्यादितः आचार्यस्याऽऽगाढवचनादारभ्य दशमोद्देशकस्य चरमभागे 'पढमसमोसरणोदेसे' इति सूत्रपर्यन्तं कथितम् वर्षाकालस्य प्रतिक्रमणानन्तरं वस्त्रपात्रादिग्रहणान्तं प्रायश्चित्तस्थानं 'सेवमाणे' सेवमानः तन्मध्याद् एकस्य सर्वस्य वा प्रायश्चित्तस्थानस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् श्रमणः श्रमणो वा 'आवज्जई' आषधते प्राप्नोति 'चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुम्याइयं' चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकं गुरुकं गुरुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं लभते इति । अयं भावः दशमोदेशकोक्तप्रायश्चित्तस्थानेषु मध्यात् यत् किमप्येकं सर्वं वा दोषस्थानमासेवमानस्य गुरुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्त भवतोति ॥सू० ४९॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक–पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् दशमोद्देशकः समाप्तः॥१०॥
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॥ एकादशादेशकः ॥ व्याख्यातो दशमोद्देशकः, अथैकादशो व्याख्यायते, तत्र-दशमोद्देशकान्तिमसूत्रस्य एकादशोद्देशकस्यादिसूत्रेण सह कः सम्बन्ध इति चेदत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-दसमांतिममुते य, निसिद्धो चीवरग्गहो ।
__ एगारसाइसुत्ते उ, पायग्गाहो पवुन्चइ ॥१॥ छाया-दशमान्तिमसूत्रो च, निपिद्ध श्चीवरग्रहः ।
एकादशादिसूठो तु पात्रग्रहः प्रोच्यते ॥१॥ अवचूरिः-दशमान्तिमसूत्रे तु दशमोदेशकस्यान्तिम चरमे सूत्रे चीवरयाचनं चीवरस्य वस्त्रस्य याचनं ग्रहणं च निपिद्धम्, अत्र तु एकादशोदेशकस्यादिसुत्रे प्रथममूत्रे पात्रस्य लोहादिपात्रस्य निषेधः प्रोच्यते-अयमेव सम्बन्धः दशमैकादशोद्देशकसूत्रयोर्भवति, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य एकादशोद्देशकीयप्रथमसूत्रस्य व्याख्यानं प्रस्तूयते-'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू अयपायाणि वा तंवपायाणि वा तउयपायाणि वा सीसगपायाणि वा कंसपायाणि वा रुप्पपायाणि वा सुवण्णपायाणि वा जायख्वपायाणि वा मणिपायाणि वा कणगपायाणि वा दंतपायाणि वा सिंगपायाणि वा चम्मपायाणि वा चेलपायाणि वा अंकपायाणि वा संखपायाणि वा वइरपायाणि वा करेइ करेतं वा साइज्जइ ॥सू० १॥
छाया—यो भिक्षुरय पात्राणि वा ताम्रपात्राणि वा अपुकपात्राणि वा शीशकपात्राणि वा कांस्यपात्राणि वा रूप्यपात्राणि वा सुवर्णपात्राणि चा जातरूपपात्राणि वा मणिपात्राणि वा कनकपात्राणि चा दन्तपात्राणि वा शृगपात्राणि वा चर्मपात्राणि वा गेलपात्राणि वा अंकपात्राणि वा शङ्खपात्राणि चा वजपात्राणि वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते । सू० १॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अयपायाणि वा' अयःपात्राणि, तत्र अयो-लोहः तस्य पात्राणि जलानयनाय भिक्षानयनाय वा एतादृशानि अयःपात्राणि करोति इत्यग्रिमेण क्रियापदेनान्वयः 'तंवपायाणि वा' ताम्रपात्राणि वा तत्र तानं प्रसिद्ध, तस्य पात्राणि वा 'तउयपायात्राणि वा' त्रपुकपात्राणि वा तत्र त्रपुः 'गंगा कलैः' इति लोकप्रसिद्धः तस्य पात्राणि वा 'सीसगपायाणि वा' शीशकपात्राणि वा शीशकं 'सीसा' इति प्रसिद्धं, तस्य पात्राणि 'कंसपायाणि वा' कांस्यपात्राणि वा, तत्र कांस्यं 'कांशा' इति लोकप्रसिद्धं, तस्य पात्राणि
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ११ स. १-७ आयसादिपाणां करण धरण-परिभोगादिनि० २६१ वा 'रुप्पपायाणि वा' रूप्यपात्राणि वा, तत्र रूप्यं रजतं तस्य पात्राणि वा 'सुवण्णपायाणि वा' सुवर्णपात्राणि वा 'जायख्वपायाणि वा' जातरूपपात्राणि वा, तत्र जातरूपं सुवर्णविशेषः, तस्य पात्राणि वा, 'मणिपायाणि वा' मणिपात्राणि वा तत्र मणिः कर्केतनादिः, तस्य पात्राणि वा 'कणग पायाणि वा' कनकपात्राणि वा सुवर्णविशेपस्यपात्राणि वा 'दंतपायाणि वा' दन्तपात्राणि वा हस्तिदन्तादिकस्य पात्राणि वा 'सिंगपायाणि वा' शृङ्गपात्राणि वा, तत्र शृङ्गं खझिमृगमहिषादीनां तस्य पात्राणि वा 'चम्मपायाणि वा' चर्मपात्राणि वा, तत्र चर्म मृगादीनां, तस्य पात्राणि वा 'चेलपायाणि वा' चैलपात्राणि वा तत्र चैल कार्पासिकं घनीभूतवस्त्रं यस्मिन् जलादिवस्तु स्थापयितुं शक्यते, तस्य पात्राणि वा 'अंकपायाणि वा' अङ्कपात्राणि वा स्फटिकपात्राणि वा 'संखपायाणि वा' शड्वपात्राणि वा तत्र शङ्खो लोकप्रसिद्धः तस्य पात्राणि वा 'वइरपायाणि वा' वज्रपात्राणि वा. तत्र वज्र -हीरकं तस्य पात्राणि उपलक्षणात् साम्प्रतकालीनप्लाष्टिकादिपात्राणि, एतेषु लोहादिषु मध्यात् अन्यतमस्यापि पात्राणि यः 'करेई' करोति स्वयमेव निर्माति सपादयति 'करत वा साइजई' एतादृशपात्राणि कुर्वन्तं श्रमणान्तर स्वदते अनुमोदते । यो हि श्रमणः श्रमणी वा लौहादीनां पात्राणि स्वयमेव करोति कुर्वन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १॥
सूत्रम्-एवं धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ॥सू० २॥ छाया-एवं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥सू० २॥
चूर्णी-एवं पूर्वोक्तप्रकारेण अयः प्रभृतिक पात्राणि यो 'धरेइ' धरति-अन्यकृतानि पार्श्वे स्थापयति 'धरेंतं वा साइज्जइ' धरन्तं वा पार्श्वे स्थापयन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० २॥
सूत्रम्-एवं परिभुजइ परिभुजंतं वा साइज्जइ ॥सू० ३॥ छाया-एवं परिभुङ्क्ते परिभुञ्जान वा स्वदते ॥सू० ३॥
चूर्णी-एवं पूर्वोक्तलोहादिपात्राणि परिभुङ्क्ते लोहादिपात्राणामुपभोगं करोति परिभुजाानं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू० ३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अयबंधाणि वा जाव वइबंधाणिवा करेइ करें। वा साइज्जइ ॥सू० ४॥
छाया-यो भिक्षुरयोवन्धानि वा यावत् वजबन्धानि पा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । अयोबन्धनादारभ्य यावत् वज्रबन्धनानि दवरकरूपाणि करोति कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते उपलक्षणात साम्प्रतकालीनप्लाष्टिकादिवन्धननिषेधोऽपि विज्ञेयः ॥सू० ४॥
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निशीथसूत्रे
१६२
सूत्रम्-एवं-धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥१० ५॥ छाया-पवं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥२० ५॥
चूर्णी---ौहबन्धनयुक्तपात्राणि वा यावत् अन्येन कृतानि लोहादिबन्धनानि वज्रबन्धनानि वज्रवन्धनयुक्तपात्राणि वा पार्वे धरति स्थापयति धरन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू० ५॥
सूत्रम्-एवं परिझुंजइ परिभुजतं वा साइज्जइ सू० ६॥ छाया-चं परिभुङ्क्ते परिभुजानं वा स्वदते ||सू० ६॥
चूर्णी--लोहादिबन्धनानां लोहादिबन्धनयुक्तपात्राणां वा उपभोग करोति कुर्वन्तं वा स्वदते तभागी भवति ॥सू० ६॥
सूत्रम्--जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ पायवडियाए गच्छा गच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७॥
छाया -यो भिक्षुः परमर्द्धयोजनमर्यादातः पात्रप्रतिक्षया गच्छति गच्छन्तं वा स्वदते ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'परं' परमधिकम् 'अद्धजोयणमेराओ' अईयोजनमर्यादातः, तत्र क्रोशचतुयस्य योजनं भवति तदर्दू क्रोशद्वयं, तस्य मर्यादा अवधिः, तथा च क्रोशद्वयप्रमाणादधिकं 'पायवडियाए' पात्रप्रतिज्ञया-पात्रग्रहणवाञ्छया उपलक्षणात् वस्त्रपीठफलकोपच्यादीनां ग्रहणवाञ्छया 'गच्छइ' गच्छति 'गच्छंत वा साइज्जइ' गच्छन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चितभागी भवति ।
अत्राह भाप्यकार:भाष्यम् -परमद्धजोयणाओ, वसमाणो चेव नवसु खेत्तेनु ।
पायं जो य गवेसेइ, आणाभंगाइ पावेइ ॥ छाया-परमर्द्धयोजनतो चसन् एघ नवसु क्षेत्रेषु ।
___पात्रं यश्च गवेषयति, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥
अवचूरिः- यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा नवसु क्षेत्रेषु ऋतुबद्धकाले अष्टसु क्षेत्रेषु तथा वर्षावासे एकस्मिन् क्षेत्रे मिलित्वा नवसु क्षेत्रेषु वसन् अर्द्धयोजनात् परंपरतः अर्द्धयोजनादने यदि पात्रादिकं गवेषयति अन्वेपयति पात्रादीनां याचनार्थ गच्छति स आजाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोति, तस्य मर्यादाभगकर्तुः श्रमणस्य श्रमण्याश्च आज्ञाभङ्गादिदोषा भवन्ति, यस्मात
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चूर्णिभाष्यावरिः उ.११ २.०-८-११ धर्माधर्मयोरवर्णवर्णवादनिषेधः २६३ कारणादेते दोषाः तस्मात् कारणात् श्रमणः श्रमणी वा अर्द्धयोजनात् परतो गत्वा पात्रादीनां याचनं न कुर्यात् न वा याचनं कारयेत् न वा याचमानं श्रमणमनुमोदेत ॥सू० ७||
सूत्रम्---जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ सपायपहंसि पायं अभिहडं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ॥
छाया--यो भिक्षु. परमर्द्धयोजनमर्यादातः सापायपथि पात्रमभिहतमाहृत्य दीयमान प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते ॥सू० ८॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणो वा 'परमद्धजोयणमेराओ' परमर्द्धयोजनमर्यादातः 'सपायपहंसि' सापायपथि सविघ्ने मार्गे सति सापाये मार्गे विद्यमाने सति इत्यर्थः तत्रापायो विघ्नः तेन सहितो मार्गः चौरश्वापदसजलमहानदी वनस्पतिरूपोऽपायस्तेन सहितः तस्मिन् तादृशे मार्गे सति कश्चित् श्रावकः 'पायं पात्र यत् 'अभिहडं आहटु दिज्जमाणं' अभिहतमाहृत्य साधुवसतो आनीय दीयमानं तत् 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति, यदि मार्गः सापायो भवेत् तत्र गत्वा साधुः पात्रादिकमानेतुं न शक्नोति तदवस्थायां यदि कोऽपि श्रावकः अामान्तरात् अर्द्धयोजनादधिकक्षेत्रत आनीय साधोरभिमुखं कश्चित् पात्रादिकं साघवे ददाति तं तादृशं पात्रादिकं साधुः प्रतिगृह्णाति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति इति । अत्र संयमात्मविराधनाऽवश्यम्भाविनी, यथा-साध्वय संमुखमानीय पात्रादिग्रहणेऽप्कायहरितकायादिसंमर्दजन्या संयमविराधना, सापायमार्गेणागच्छन् दाता श्वापदादिना घातितो मारितो वा भवेत् तेन तस्य स्वजनादिः साधु ताडयेदित्यादिनाऽऽत्मविराधना भवेदतो नैतादृशं पात्रादिकं साधुर्गृह्णीयादिति भावः ॥सू० ८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू धम्मस्स अवन्नं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ छाया–यो भिक्षुधर्मस्थावणं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥सू० ९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'धम्मस्स' धर्मस्य श्रुतचारित्रलक्षणस्य 'अवणं' अवर्णम् अवर्णवादम् , तत्र वर्णः प्रशंसनं स्तुतिरित्यर्थः न वर्णोऽवर्णः निन्दनं तम् 'चयई' वदति प्रकाशयति लोकानां पुरतः धर्मस्य निन्दा करोति तथा 'पदंत वा साइज्जई' वदन्तं वा स्वदते अनुमोदते, यो हि श्रमणः श्रमणी वा श्रुतचारित्रलक्षणधर्मस्यावर्णवादं वदति वदन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:~भाष्यम्-धम्मो य दुविहो वुत्तो, सुयचारित्तलक्षणो ।
तस्सावण्णो दुहा होइ, तं वए दोसभा भवे ॥१॥
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૨૦૦
छाया - धर्मश्च द्विविध उक्तः, श्रुतचारित्रलक्षणः |
निशीथसूत्रे
ANNININN
reersaif द्विधा भवति, तं वदेत् दोषभाय् भवेत् ॥१॥
अवचूरिः - धर्मः नरकपातादिदुर्गतिसकाशात् धारकः, म द्विविधो द्विप्रकारको भवति थुत्र चारित्रमेदात्, तत्र एकः श्रुतधर्म.. अपरः खलु चारित्रधर्मश्च तत्र श्रुतधर्मः आगमलक्षणः, स पुनर्द्विविधः सूत्रे अर्थे च। चारित्रधर्मस्तु श्रमणधर्मः, अयं च चाग्निवर्मोऽपि द्विविधो भवति, अगारधर्मः देगतश्चारित्रभावात्, अनगारधर्मश्च, पुनथायं प्रत्येकं द्विविध. - मूलगुणलक्षणः उत्तरगुणलक्षणश्च, तस्यैवंप्रकारस्य धर्मस्यावर्णवादी द्विधा द्विप्रकारको भवति देशतोऽवर्णवादः सर्वतोऽवर्णवादश्च । तं तादृशमवर्णवादं यदि श्रमणः श्रमणी वा वदेत वदन्तं वा स्वदते स दोषभाग् भवेत्, दोपाथआज्ञा भङ्गानवस्थामिथ्यात्वादिकास्तेषां स भाजनं भवतीति भावः । यस्मात् कारणात् श्रुतचारित्रलक्षणधर्मस्यावर्णवाद करणे पूर्वोक्ता दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात श्रमणः श्रमणी वा धर्मस्यावर्णं न स्वयं वदेत् न वा वादयेत् न वा धर्मस्यावर्ण वदन्त श्रमणान्तरं कथमप्यनुमोदयेत् ॥ सू० ९ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू अधम्मस्स वण्णं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ १० ॥
छाया - यो भिक्षुरधर्मस्य वर्ण वदति ददन्तं वा स्वदते ॥० १०॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अधम्णस्स' अघस्य हिंसादिलक्षणस्य 'वर्ण' वर्ण- प्रशंसनं यशः कीर्ति वा 'चय' वदतिकथयति लोकानां पुरतो हिंसादिलक्षणधर्मस्य प्रशंसां करोति तथा 'वयं वा साइज्जइ' वदन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, अधर्मस्य प्रशंसने तदनुमोदनजन्यक्रियाढोपसद्भावात् ॥ सू० १० ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खु अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जेतं वा पमज्जैतं वा साइज्जइ ॥ सू० ११|| छाया -यो भिक्षुरन्ययूथिकस्य वा गृहस्थस्य वा पादौ आमार्जयेत् वा प्रमार्जयेत् वा आमार्जयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदते ॥सू० ११||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियस्स' अन्ययूथिकस्य अन्यतीर्थिकस्य तापसादे: 'गारत्थियस्स वा' गृहस्थस्य श्रावकादेर्वा 'पाए' पादौ चरणौ 'आमज्जेज्ज वा' आमार्जयेद् वा एकवारं रजोहरणेन वस्त्रेण वा प्रमार्जनं कुर्यात् 'पमज्जेज्ज वा' प्रमार्जयेत् अनेकवारम् 'आमज्जेत वा पमज्जेत वा
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चूर्णिभाष्यावरिः उ० ११ सू० १२-६५ अन्यप्तीथिकादिपादामार्ननादिस्वपरभापननि० २६५ साइज्जइ' आमार्जयन्तमेकवारमेकदिनं वा प्रमार्जयन्तमनेकवारं प्रतिदिनं वा प्रमाजनं कुर्वन्तं श्रमणं स्वदते अनुमोदते । यो हि श्रमणः श्रमणी वा अन्ययूथिकस्य श्रावकादेर्वा चरणयोरेकवारमनेकवारं वा रजोहरणादिना प्रमार्जनं करोति तथा प्रमार्जयन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० ११ ॥
सूत्रम-एवं तइयउद्देसगमा णेयव्वो णवरं अण्णअस्थियस्स वा गारत्थियस्स वा अभिलावो जाव जे भिक्खू गामाणुगाम दूइज्जमाणे अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा सीसदुवास्यिं करेइ करतं वा साइज्जइ ॥सू० १२-६३॥
छाया-एवं तृनीयोदेशकगमो सातव्यः नवरम् अन्ययूथिकस्य वा गृहस्थस्य वा अभिलापो यावत् यो भिक्षुः प्रामानुग्राम द्रवन् अन्ययूथिकस्य वा गृहस्थस्य वा शीर्षद्वारिकां करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० १२-६३ ॥
चूर्णी-एवमुपयुक्तप्रकारेण तृतीयोदेशकस्य गमः प्रकारः स अत्रापि एकादशोदेशकेऽपि ज्ञातव्यः, नवरम्-विशेषोऽयं यदत्र 'अन्ययूथिकस्य वा गृहस्थस्य वा' इत्येवं प्रकारकः अभिलापः सूत्रोच्चारणप्रकारो वक्तव्यः, कियत्पर्यन्तं तृतीयोदेशकगमो ज्ञातव्यः ? अत्राह'जाव' इत्यादि । 'जाव' यावत्पर्यन्तं शीर्षद्वारिकासूत्रम् पादामर्जनसूत्रादारभ्य त्रिषष्टितमशीर्षदुवारिकास्त्रपर्यन्तसूत्राणि अत्रापि एकादशोद्देशके वक्तव्यानीति भावः ॥१२-६३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पाणं बीहावेइ बीहावेतं वा साइज्जइ ॥ छाया-यो भिक्षुरात्मानं भापयति भापयन्तं वा स्वदते ।।सू० ६४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अप्पाणं' स्वकमेव 'वीहावेइ' भापयति भयाः करोति 'वीहावेंतं वा साइज्जई' भापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदवते ॥१० ६४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू परं बीहावेइ बीहावेतं वा साइज्जइ ॥सू० ६५॥
छाया-यो भिक्षुः परं भापयति भापयन्तं वा स्वदते ॥सू. ६५॥ चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा
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निशीथसूत्रे
२६६
'परं' परं स्वस्मादन्यम् 'वीहावेइ' भापयति परस्मै भयं समुत्पादयति तथा चीहारतं वा साइज्जइ' भापयन्तं भयं समुत्पादयन्तमन्यं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
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अत्राह भाष्यकारः
भाष्यम् - भयं चउन्विहं वृत्तं दिव्यमाणुसतेरियं ।
आकहियं च एक्केक्कं संतासंतं पुणो दुहा ॥१॥
छाया - भयं चतुर्विध प्रोक्तं दिव्यमानुपतरश्चम् । आकस्मिकं च एकैकं सदसत् पुनर्द्विधा ॥१॥
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अवचूरिः - भयं चतुर्विधं चतुःप्रकारकं भवति तथाहि - दिव्यं - देवसम्बन्ति मानुषं मनुष्यसम्बन्धि, तैरथं तिर्यक्मम्बन्धि, तत्र पिशाचादिव्यन्तरजनितं भयं दिव्यम्, स्तेनादिभिजयमानं भयं मानुपं, तथा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पति सिंहादिभ्यो जायमानं भयं तैरश्चम्, तथा चतुर्थं भयमाकस्मिकं निर्हेतुकम् । एकैकं भयं पुनरपि द्विप्रकारकं भवति मत्विद्यमानम्, असत् - अविद्यमानं, भयं द्विविधं सद्रूपेण असद्रूपेण च तत्र पिशाचस्तेनजलादिसिंहादिकेषु समुपस्थितेषु दृष्टेषु च यद् भयं समुत्पद्यते तत्सद्रूपं भयम्, यद् एतेषु अपि भयं जायते तत् अद्रूपं भयम् । आकस्मिकम् - अकस्माद् भयम् आत्मसमुत्थं मोहनीयभयप्रकृत्युदयात् यद् अविद्यमानं सत् समुत्पद्यते तदा कस्मिकं भयम् इदं भयकारणसंकल्पिताभिप्रायोत्पन्नं भवतीति । अत्र शिष्यः प्राह - भो गुरो ! शाखे तु इहलोकादिकं सप्तविधं भयं कथितं तद्यथा - इहलोकभयम् १. परलोकभयम् २, आदानभयम् ३, आजीविकाभयम् ४, अकस्माद्भयम् ५, मरणभयम् ६, अश्लोकभयं चेति । तत्कथमत्र चतुर्विधमेव भयं प्रतिपाद्यते ? इति । एवं शिष्येण पृष्ट आचार्यः प्राह - मो. शिष्य ! यद्यपि सप्तप्रकारकं भयं तथापि सप्तानामपि चतुर्व्वेवान्तर्भावस भावादत्र चतुर्विधं प्रोक्तम्, तथाहि - इहलोकभयं मनुष्यभये समाविष्टं भवति १, परलोकभयं देवभये तिर्यग्भये च समाविशति २, आदानभयमाजीविकाभयं मरणभयम् अश्लोकभयं चेति भयचतुष्टयमपि दिव्यमानुपनैरश्वरूपे भयत्रये यथायथं समाविष्टं भवति ६, यत आदानेन हस्तस्थितेन वस्तुना भयं 'हस्तगत मे वस्तु देवमनुजनिर्यश्चो माहियेरन्' इत्येवं रूपं भयमादानभयम्, तथा आजीविका नाम वृत्ति, सा च वृत्तिर्देवमनुजतिर्यगधीना, तथा मरणं प्राणपरित्यागः, तदपि दिव्यमनुजतिर्यग्भवावस्थितस्यैव भवति, अकस्मात्कारणात् दिव्यादिभ्यस्त्रिभ्य एव मरणभयं भवति ६, अश्लोकभयमपि दिव्यमनुज तिर्यक्ष्वेव सभवति 9 तस्मात्कारणात् भयचतुष्टये सप्तानामुपि भयानां समावेशो भवति । तथा च राक्षसपिशाचादिजन्यं भयं दिव्यभयम् १, स्तेनादि - कभयं मनुजभयम् २ - उदकादिसिंहादिमयं तिर्यग्भयम् २, मोहनीयप्रकृत्युदयजन्यमात्मसमुत्थमाकस्मिकभयम् ४, अस्माच्चतुर्विधभय मध्यादन्यतमभयेन स्वात्मानं परं वा तदुभयं च भापयति
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ. ११ सू० ६६-६९
स्वपर विस्मापनविपर्यासननिषेधः २६७
प्रायश्चित्तभागी भवति । तत्रात्मानं परं च भापयन् स्वात्मानं परं च नापेक्षते विभ्यन् स्वयं परो वा क्षिप्तचित्तो भवेत् ग्लानत्वं च भवेत् भीतो वा भूतेन गृहीत इव भवेत् ग्रहगृहीतो वाऽन्यं भापयति । एवं संयमविराधनं कदाचिदात्मविराधनं चापि प्राप्नुयात् तस्मात्कारणात् न स्वात्मानं तथा परं च भापयेदिति ॥ स्र० ६५||
सूत्रम् - जे भिक्खू अप्पाणं विम्हावेइ विम्हावेंतं वा साइज्जइ ॥ ६६ ॥
छाया - यो भिक्षुरात्मानं विस्मापयति विस्मापयन्तं वा स्वदते ||सू० ६६||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अप्पा' आत्मानं - स्वात्मानम् 'विम्हावेइ' विस्मापयति, तत्र विस्मयोत्पादनं विस्मापनम् आश्चर्यसमुत्पादनमित्यर्थः, 'विम्हावेंतं वा साइज्जइ' विस्मापयन्तं वा स्वदते अनुमोदते । यो हि स्वात्मानं विस्मापयति विस्मापयन्तं वा अन्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ||सू० ६६ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू पर विम्हावेइ विम्हावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६७॥ छाया - यो भिक्षु. परं विस्मापयति विस्मापयन्तं वा स्वदते ||सु० ६७||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'परं' परं - स्वस्मादन्यम् जनम् 'विम्हावेइ' विस्मापयति तत्र विस्मापनमाश्चर्य जनयति 'विम्हावेंतं वा साइज्जई' विस्मापयन्तं वा स्वदते, यो हि अन्यननस्य आश्चर्यकारिवाक्यांदिना आश्चर्यमुत्पादयति तं यो अनुमोदने स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः
1
भाष्यम् - विम्हावणं उदुविहं, अभूयपुत्रं च भूयपु तव - इंदजाल - विज्जा - निमित्त - वयणाइहिं चेव ||
छाया - विस्मापनं तु द्विविधम् अभूतपूर्वं च भूतपूर्वं च । तप - इन्द्रजाल-विद्या-निमित्त-वचनादिभिश्चैव ॥
"
अवचूरि : - षट्षष्ठीसूत्रे सप्तघष्ठीसूत्रे च यत् विस्मापनं कथितम् तव द्विविधं द्विप्रकारक भवति एकमभूतपूर्वं, द्वित्तीयं भूतपूर्वं तत्र यादृशमाश्चर्यं पूर्वं कदाचिदपि नाभूत् तद् अभूतपूर्वम्, यत्पूर्वं कदाचिद् अभूत् तादृशं भूतपूर्वम् एतत् द्विप्रकारकमपि विस्मापनम् तप आदिना तपसा तपोलब्ध्या भवति, इन्द्रजालेन विस्मयकारिप्रयोगप्रतिपादकशास्त्रेण, विद्यया दृष्टिबन्धादिरूपया मंत्रादिविशेषेण वा विस्मापनं भवति, तथा निमित्तवचनेनापि अतीतानागतवर्तमान सम्बन्धिनिमित्त. वचनेन, आदिशब्दात् अन्तर्द्धानादिना पादलेपनादिप्रयोगेण वा, एभिः कारणैः विस्मापनं भवति,
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निशीथसूत्रे
ઘૂંટ
तत् अभूतपूर्व भूतपूर्व च विस्मापनं भवति । तत्र यद् विस्मापनं विद्यामन्त्रेन्द्रनालिकादिप्रयोगरूपम् आत्मना अकृतपूर्वम्, अन्येन वा क्रियमाणं न दृष्टं न श्रुतं वा तद् अभूतपूर्व विस्मापनं कथ्यते । एतद्विपरीतं यत् स्वयं कृतं परेण वा क्रियमाणं दृष्टं श्रुतं वा तादृशं विस्मापनं भूतपूर्व कथ्यते । एतादृशं विस्मापनं स्वस्य परस्य वा यो भिक्षुः करोति कारयति वा कुर्वन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तथा एतादृशविस्मापनेन हर्षातिरेकात् आश्चर्यातिरेकाद्वा कदाचित् स्वयमेव विक्षिप्तचित्तो भवेत् ततः स विक्षिप्तचित्तेन चान्यैः सहाधिकरणं करोति, अधिकरणे च जाते सूत्रार्थयोर्हानिः संयमात्मविराधना च स्यात्, तथा परो वा कदाचित् तादृशमाश्चर्यादिकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च विक्षिप्तचित्तो भवेत् तत्रापि एते दोषा भवेयुः । असद्भूते च विस्मापने मायाकरणं मृषावादोऽपि भवेत् । यस्मादेते दोषा विस्मापने भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमणः श्रमणी वा । कदाचिदपि स्वात्मानं वा परं वा न विस्मापयेदिति भावः ||सू० ६७॥
www.
सूत्रम् -- जे भिक्खू अप्पणं विप्पारियाes विप्परिया संतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६८॥
छाया - यो भिक्षुरात्मानं विपर्यासयति विपर्यासयन्तं वा स्वदते ॥सू० ६०॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इयादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अप्पाणं' आत्मानं स्वात्मानम् 'विप्परिया सेइ' विपर्यासयति, तत्र विपर्यासो विपर्ययकरणं, यो द्रव्यादिभावो येन प्रकारेण स्थितः तं भावम् अन्यथा प्रकारान्तरेण मनसा भणति क्रियायां वा परिणमयति; यथा जीवमजीवं प्ररूपयति, अजीवं जीवं प्ररूपयति धर्ममधर्म प्ररूपयति, अधर्म धर्ममित्यादि । अन्यस्य वा पुरतः प्ररूपयति, तथा 'विप्परिया संतं वा साइज्जइ' विपर्यासयन्तं वा स्वदते, यो हि अन्यथा स्थितस्य भावस्य प्रकारान्तरेण प्रज्ञापनादिकं करोति तं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ||सू० ६८ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू परं विपरियासेइ विपरियासंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६९ ॥
छाया - यो भिक्षुः परं विपर्यासयति विपर्यासयन्तं वा स्वदते । सू० ६९||
चूर्णी – 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'परं' परं - स्वस्मादन्यं श्रमणं श्रावकं वा 'विपरिया सेइ' विपर्यासयति अन्यथास्थितस्य द्रव्यादिभावस्य प्रकारान्तरेण प्ररूपणां करोति तथा 'विपरियासंतं वा साइज्जइ' विपर्यासयन्तं वा स्वदते । स प्रायश्चितभागी भवति ॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ. ११ सू.०-७०-७१ जिनोक्ताऽन्यप्रशंसनवैराज्यविरुद्धराज्यगमनादिनि• २६९
अत्राह भाष्यकारः
भाष्यम् – जंरुवो जो भावो भवेज्ज णियओ य अण्णा सो उ । भण्णइ किज्जइ लोए, विप्परियासो इमो होइ ॥ १ ॥
छाया - यद्रूपो यो भावो भवेत् नियतश्च अन्यथा स तु । भण्यते क्रियते लोके, विपर्यासः अयं भवति ॥ १॥
अवचूरि : - लोके यद्रूपो यादृशो भावो नियतः निश्चितो भवति स तु अन्यथा भण्यते, एतावदेव न किन्तु क्रियतेऽपि च अयं विपर्यासो भवतीति विपर्यासलक्षणम् ॥१॥ अथ विपर्यासस्य भेदान् उदाहरणांश्च दर्शयति भाष्यकारः-
भाष्यम् – दव्ये खेत्ते काले, भावे य चउन्विहो विवज्जासो । कमसो वोच्छं तेसिं, नाणतं सत्यभासाए ॥१॥ दव्वे असोोगमाई, खेत्ते गराइयं मुणेयव्वं । काले ओगाढ़ाई, भावे पुण निव्वुयाई य ॥२॥
छाया - द्रव्ये क्षेत्रे काले, भावे च चतुर्विधो विपर्यासः । क्रमशो वक्ष्ये तेषां नानात्वं शास्त्रभाषया ॥२॥ द्रव्ये अशोकादि, क्षेत्रे नगरादिकं शातव्यम् । काले आगाढादि, भावे पुनर्निर्वृतादि च ॥३॥
अवचूरिः - योऽयं सूत्रद्वये विपर्यासः कथितः स द्रव्यक्षेत्रकालभावमेदेन - चतुर्विधः चतुःप्रकारको भवति । एषां द्रव्यक्षेत्रादिमेदभिन्नानां विपर्यासानां नानात्वं क्रमशः आनुपूर्व्या शास्त्रभाषया शास्त्रोतभाषाविधिना वदये कथयिष्यामि । तत्र द्रव्ये विपर्यासो यथा - अजानता पृच्छकेन पृष्टे किमपि अशोकादिकं वृक्षं प्रति निम्बादिकथनम्, निम्बादिकं प्रति अशोकादिकथनम् १ | क्षेत्रे विपर्यासः - हस्तिशीर्षनगरस्य हस्तिनागपुरत्वेन कथनम्, अथवा तद्विपरीतकथनम् २, काले विपर्यासः–आगाढं-प्राप्तं पौरुष्यादिकालं प्रति अनागाढमप्राप्तं कालं कथयति, तद्विपरीतं वा कथयति ३, भावे विपर्यासः - स्वकमनिर्वृतं निर्वृतत्वेन दर्शयति परं निर्वृतमपि अनिर्वृतं प्रकाशयति । एवं तपस्विनमतपस्विनम्, अतपस्विनं तपस्विनं कथयतीत्यादि । एवमादिशब्दात् क्षभादिविषयेऽपि भावा ज्ञातव्याः ४, एवं यः कश्चिद् भिक्षुश्चतुर्विधेन विपर्यासेन एतादृशेन अन्येन वा केनापि विपर्यासेन आत्मानं परं वा विपर्यासयति विपर्यासयन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ६९ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू मुहवण्णं करेइ करेंतें वा साइज्जइ ॥सू० ७० ॥
छाया -यो भिक्षुर्मुखवणं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७० ॥
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निशीथसूत्र
-
N
गी--'जे भिवू न्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा दिया दिवा दिवस 'श्रमणं वा पाणं वा खाइमं साइमं वा' अशनादितुर्विधाहारम् 'पडिग्गाहना पनि दिया मुंजट दिवा भुङ्क्ते--दिवसे गृहीवा दिवसे एव कालातिक्रमेण रात्रौ
मान्य दिनादिवर्म वा मुक्ते तथा 'दिया मुंजतं वा साउज्जई' एवं प्रकारेण दिवा भुञानं 4 दाने प्रायश्चित्तमागी भवति ॥ मू० ७४॥
मृत्रम्-जे भिक्ख दिवा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइर्म वा पडिग्गाहना ति भुजई रति भुजंतं वा साइज्जइ |सू०७५॥
छाया-यो भिदिया अशनं वा पानं वा याचं वा स्वाधं वा प्रतिगृह्य रात्री गुरुगौ भुष्मानं या स्यदते ॥ स. ७५॥
पूर्णी. -'जे मिक्यू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिया रिया-दिवमे 'श्रमणं वा ४' अशनादिचतुर्विधाहारम् 'पडिग्गाहेत्ता' प्रतिगृहा 'रति भुजई' गगनगन भुटने, 'रनि भुजतं वा साइम्जई' रात्री भुजानं वा स्वदते अनुमोदते स प्राममो भवति ॥ मृ० ७५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रत्ति असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता दिया मुंजइ दिया भुतं वा साइज्जइ ।। सू०७६॥
छाया- यो भिक्षुः रात्री अशन वा पानं घामाचं वा स्वाधा प्रतिगृहा दिवागुहने दिया मुभानं या स्यदते म प्रायश्चित्तभागी ॥ सू० ७६॥
. चूर्णी-जे मिसान्त्यादि । 'जे मिक्यू' यः कश्चिद भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा रत्ति' गगयों या अमणं या 2' अशनं वा-शनादि चतुर्विधमाहारं 'पडिग्गाहिता' प्रतिगृह्य गो गोरगम अशनादि, ननुर्विधमादारजातमानाय 'दिया मुंजई' दिवा भुक्ते 'दिया अनेनं ग माइन' दिया नगन या घटने म प्रायश्चितभागी भवनि ॥ मू० ७६॥
मृत्रम-जे भिक्स गर्मि असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पडिग्गाहना नि भुज त्रिं भुजंत वा माइजड मृ०७७॥
जापा-यो मिनु गत्री अशनं या पानं या साया स्वाध या प्रतिगृह्य रात्री मो भुमधानं गा म्पदने ।। Est म जमिनमायादि । "ने भिस'ग कश्चिद मिलः अमणः श्रमणी वा 4.
"श्रम वा मग ५ 'परिग्गाहेना' प्रनिगा 'रति इंता'
देव भटो पनि भुजन ना माना' गो भृक्षानं या पदने
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चूर्णिभाष्यावरिः उ० ११ सू० ७८-८० पर्युषिताशनाधाहारनिषेधः २७३ __सूत्रम्-जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परिवासेइ परिखासेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७८॥
छाया-यो भिक्षुः अशनं पा पानं वा खाध्य वा स्वाघ वा परिवासयति परिवासयन्तं वा स्वदते ॥सू० ७८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'असणं वा४' अशनं वा ४ अशनादिचतुर्विधाहारम् 'परिवासेई' परिवासयति संस्थापयति सुन्दरमिदमशनादि मागामिदिने भोक्ष्यामीति रात्रौ स्थापयित्वा पर्युषितं करोति 'परिवासेंतं वा साइज्जइ' परिवासयन्तं वा स्वदते ।। सू० ७८||
सूत्रम्-जे भिक्खू पखिासियस्स असणस्स वा पाणस्स वा खाइमस्स वा साइमस्स वा तयप्पमाणं वा भूइप्पमाणं वा बिंदुप्पमाणं वा आहार आहारेइ आहारतें वा साइज्जइ ॥ सू०७९॥
छाया-यो भिक्षुः परिवासितस्य अशनस्य वा पानस्य वा खाद्यस्य वा स्वायस्य वा त्वचाप्रमाणं वा भूतिप्रमाणं वा बिन्दुप्रमाणं वा आहारमाहरति माहरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७९॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'परिवासियस्स' परिवासितस्य पर्युषितस्य दिवसे भुक्तावशेषरय रात्रौ स्थापितस्य 'असणरस वा' अशनस्य वा 'पाणस्स वा' पानस्य वा 'खाइमस्स वा' खाद्यस्य वा 'साइमस्स वा' स्वाधस्य वा 'तयप्पमाणं वा' त्वचाप्रमाणं वा-त्वचा तनुतरा भवतीति त्वचाप्रमाणं अल्पप्रमाणमित्यर्थः 'भूइप्पमाणं वा' भूतिप्रमाण वा भूतिः-रक्षा-भस्म तत्प्रमाणं भस्मरजःकणप्रमाणं स्वल्पमात्र मपीत्यर्थः 'विदुप्पमाणं वा' बिन्दुप्रमाणं वा जलादेविन्दुप्रमाणं वा 'आहारं आहारेइ' आहारमाहरति रात्रौ स्थापिताशनादेः स्वल्पमपि भागमाहरति भुङ्क्ते तथा 'आहारतं वा साइज्जई' आहरन्तम्-अल्पमात्रस्याप्यशनादेर्भागस्योपभोगं कुर्वन्तं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू मंसाइयं वा मच्छाइयं वा मंसखलं वा मच्छखलं वा आहेणं वा पहेणं वा संमेलं वा हिंगोलं वा अन्नयरंवा तहप्पगारं विरूंवरुवं वा हीरमाणं पेहाए ताए आसाए ताए पिवासाए तं रयणि अण्णत्थ उवाइणावेइ उवाइणावेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८०॥
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निशीथसूत्र छाया-यो भिक्षुर्मासादिकं वा मत्स्यादिकं वा मांसखलं वा मत्स्यस्खलं वा आहेणं वा प्रहेणं वा संमेलं वा हिंगोलं वा अन्यतरद् वा तथाप्रकारं विरूपरूपं हियमाणं प्रेक्ष्य तया आशया तया पिपासया तां रजनीमन्यत्र उपातिक्रामति उपातिक्रामन्तं वा स्वदते ॥सू० ८०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मसाइयं वा' मांसादिकं वा यस्मिन् भोजने आदौ मांसं ददाति पश्चात् ओदनादिकं ददाति तत् मांसादिकं कथ्यते 'मच्छाइयं वा' मत्स्यादिकं वा यस्मिन् भोजने आदौ मत्स्यं ददाति अन्ते ओदनादिकं तत् मत्स्यादिक भोजनम् 'मंसखलं वा' मांसखलं वा यत्र स्थाने मांसः शोभ्यते तत् मांसखलम् ‘मच्छखलं वा' मत्स्यखलं वा यत्र स्थाने मत्स्या शोष्यन्ते तत् मत्स्यखलं वा 'आहेणं वा पहेणं वा' आहेण वा प्रहेणं वा भोजनगृहात् यद् आनीयते तत् आहेणम् , भोजनगृहात् यद् अन्यत्र नीयते तत् प्रहेणम् , यद्वा वधूगृहात् वरगृहे यत् नीयते तत् आहेणं, यत् वरगृहात् वधूगृहे नीयते तत् प्रहेणम् 'संमेलं वा' विवाहादौ यत् भक्कादिकं निर्मीयते तत् संमेलम् 'हिंगोलं वा' यत् मृतभक्तं तत् हिंगोलम् 'अण्णयरं वा तहप्पगारं' अन्यतरद् वा तथाप्रकारम् , तत्रान्यतरत् कथितातिरिक्त तथाप्रकारं कथितसदृशम् 'विरूवरूवं' विरूपरूपमनेकप्रकारकम् 'हीरमाणं' ह्रियमाणम् गृहात् उद्यानादिषु भोजनार्थम् नीयमानम् , अथवा एकस्माद् ग्रामा प्रोमान्तरं प्रति नीयमानं मांसादियुक्तभोजनम् 'पेहाए' प्रेक्ष्य-दृष्ट्वा 'ताए आसाए' तन्मांसादिकं लप्स्य इति तल्लाभेच्छया 'ताए पिवासाए' तया पिपासया तस्य मांसादियुक्ताहारस्य पिपसिया तृष्णया अभिलाषयेत्यर्थः ओदनादीनामशितुमिच्छा आशा, द्राक्षापानकादीनां पातुमिच्छा पिपासा, तया आशया पिपासया वा 'तं रयणि अण्णत्थ उवाइणावेई तां रजनीम् अन्यत्र तद्ग्रहणेच्छाया शय्यातर वसतितोऽन्यवसतो गत्वा रात्रिम् उपातिक्रामति उल्लङ्घयति 'उवाइणावेत वा साइज्जइ' उपातिक्रामन्तं वा उल्लङ्घयन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
ननु-'एवं खलु चउहि ठाणेहि जीवा णेयरित्ताए कम्पं पकरेंति णेरइयत्ताए कर्म पकरेता णेरइएसु उवजंति, 'तं जहा'-महारंभयाए महापरिग्गहाए पंचिंदियवहेणं कुणिमाहारेण" इत्यादिना यद्यपि मांसभक्षणं मद्यपानं च सूत्रेषु सर्वथैव निषिद्धं तत् कथमत्रैवं प्रतिपाद्यते ? इति चेदाह-कश्चित् मांसभक्षककुलोत्पन्नों दीक्षितो जात इति तस्य कदाचिदेवप्रकारिकाऽमिलाषा · जातिस्वभावात् संभवेत् इति संभाव्य तस्य शास्त्रे निषेधः कृतः ॥ सू० ८०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू निवेयणपिंडं मुंजइ भुजतं वा साइज्जइ ॥८१॥ छाया-यो भिक्षुनिवेदनपिण्डं भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥स. ८१॥ .
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धूर्णिभाष्यावचूरिः उ०११ सू० ८१-८६
छन्दप्रशंसाधन प्रवाजनादिनिषेधः २७५
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णिवेयण पिंडं' निवेदनपिण्डम् देवयक्षव्यन्तरनिवेदनाय प्रस्तुतं भक्तादिकं तत् निवेदनपिण्डम् ‘भुंजइ' भुङ्क्ते देवताद्यर्थं यत् पिण्डं स्थापित तादृशं निवेदन पिण्डं यो भिक्षुरुपभुङ्क्ते तथा 'झुंजतं वा साइज्जइ' भुञ्जानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ स्० ८१ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू अहाछेद पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥ सू०८२ ॥
छाया -यो भिक्षुर्यथाछन्दं प्रशंसति प्रशंसन्तं वा स्वदते ॥सू० ८२॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्र भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अहाछंद' यथाछन्दं, तत्र छन्दोऽभिप्रायः, तेन यथा येन प्रकारेण स्वस्याभिप्रायस्तदनुसारेण प्ररूपयति करोति स यथाछन्दः प्रोच्यते, तं 'पसंसइ' प्रशंसते तस्य प्रशंसां करोति कारयति 'पसंसंतं चा' प्रशंसन्तमन्यं वा 'साइज्जइ' स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥
अत्राह भाष्यकारः
भाष्यम् – जहछंदत्तं दुविहं, परूवणे तह भवेज्ज चरणे य । पडिलेहाइसु पढमं वीर्यं पुण साहुकिरियासु ॥१॥ छाया - यथाछन्दत्वं द्विविधं प्ररूपणे तथा भवेत् चरणे च । प्रतिलेखादिषु प्रथमं द्वितीयं पुनः साधुक्रियासु ॥ १ ॥
अवचूरिः – साधोर्यथाछन्दत्वं द्विविधं भवति, तत्र एकं प्ररूपणे प्ररूपणाविषये, द्वितीयं चरणे चारित्रविषये च । तत्र प्ररूपणे यथाछन्दत्वं यथा - वस्त्रपात्रादीनां नित्यं प्रतिलेखना न कर्त्तव्या किं तत्र निरन्तरं जीवाः परिवसन्ति येन नित्यमेव प्रतिलेखना क्रियते, द्वित्रादिदिवसव्यवधानेन करणे न कोऽपि दोषः । रजोहरणदशिकाः (रजोहरण फलिकाः) ऊर्णादिकर्कशस्पर्शसूत्रैः किमर्थ क्रियन्ते, क्षौमिकादिमृदुस्पर्शसूत्रैः कि न क्रियन्ते ? कोऽत्र दोषः १, इत्यादि प्ररूपणम् १ चरणे यथाछन्दत्वं यथा-अस्मदाद्यर्थ सम्पादितमशनादि ग्रहीतव्यं येन यथारुचि भोजनं लभ्यते तेन संयमाराधनं सुकरं भवति, केऽत्राधाकर्मादिदोषाः समापतन्ति, एवं साधुनिमित्त संपादिताऽशनादिग्रहणरूपं यथाछन्दत्वम्, यथा- शय्यातरपिण्डादानम्, गृहिपात्रग्रहणं, निर्ग्रन्थ्या सह वसनम्, इत्यादिसाधुक्रियासु चरणविषयकं यथाछन्दत्वं भवति । इत्याधाचरणवन्तं 'यथाछन्दं साधुं न प्रशंसेत्, न वा प्रशंसां कुर्वन्तमन्यमनुमोदेत । यस्तस्य प्रशंसां करोति तथा प्रशंसन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ८२॥
n
सूत्रम् — जे भिक्खू आहछंदं वंदइ बंदतं वा साइज्जइ || सू० ८३॥
छाया -यो भिक्षुर्यथाछन्दं घन्दते वन्दमानं वा स्वदते ॥० ८३॥
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निशीथसूत्रे
રદ
१०. चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा ''अहाछंद' यथाछन्दम् पूर्वोक्तप्रकारकं 'बंद' वन्दते नमस्कारादिकं करोति कारयति वा 'चंदतं "वा साइजर' यथाछन्दं वन्दमानं नमस्कारादिकं तथा तदीयगुणोत्कीर्तनादिकं च कुर्वाणं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८३ ॥
1. सूत्रम् — जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगं वा अणलं पव्वावे पव्वावेंतं वा साइज्जइ || सू० ८४ ॥
छाया - यो भिक्षुशतकं वा अज्ञातकं वा उपासकं वा अनुपासकं वा अनलं प्रत्राजयति प्रवाजयन्तं वा स्वदते ॥सू० ८४ ॥
चूर्णी -- ' जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णायगं वा' ज्ञातकं वा 'अणायगं वा' अज्ञातकं वा, तत्र ज्ञातकः स्वजनः पितृपुत्रपौत्रदौहित्रभ्रातृप्रभृतिः, अज्ञातकः व्यस्वजनः स्वजनभिन्नः, अथवा ज्ञातकः प्रज्ञायमानः परिचितः संसारावस्थायाः प्रव्रज्यावस्थाया वा, अज्ञातकोऽज्ञायमानः अपरिचितः, एतादृशम् तथा 'उवासगं वा ' उपासकं श्रावकं वा 'अणुवासगं वा' अनुपासकं वा श्रावकभिन्नमन्यतीर्थिकं वा 'अणलं ' अनलं तत्रालं पर्याप्तः न अलमिति अनलम् अपर्याप्तम्- प्रवज्यायोग्यगुणरहितम् अयोग्यमित्यर्थः यः प्रत्राजनस्य योग्यो न भवति तादृशम् 'पव्वावेइ' प्रवाजयति दीक्षयति तथा 'पव्वावेंतं वा साइज्जइ' प्रवाजयन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चितभागी भवति ।। सू० ८४ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगं वा अणलं उवद्वावेइ उवट्ठावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८५॥
छाया -यो भिक्षुतकं वा अज्ञातकं वा उपासकं घा अनुपासकं वा अनलमुपस्थापयति उपस्थापयन्तं वा स्वदते ॥सू० ८५||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी - वा 'णायगं वा' ज्ञातकं परिचितं स्वजनं पुत्रभ्रातृप्रभृतिकम् 'अणायगं वा' अज्ञातकमपरिचित स्वजनभिन्नं वा तथा 'उवासगं वा' उपासकं वा श्रावकं साध्वाराधकं 'अणुवासगं वा' अनुपासकं श्रावकभिन्नमन्यतीर्थिकं वा 'अणलं ' अनळमपर्याप्तमयोग्यमित्यर्थः 'उवडावे ' उपस्थापयति - त्यक्तमहाव्रतं पुनर्महाव्रते आरोपयति छेदोपस्थापनीयचारित्रं ददाति 'उवहावेंतं वा साइज्जइ' उपस्थापयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ||सू०८५ ||
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सूत्रम् -- जे भिक्खू णायगेण वा अणायगेण उवासएण वा अणुवासएण वा अणलेण वेयावच्चं कारावेइ कारावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०८६ ॥
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चर्णिभाष्यावरिः उ० ११ सू० ८७-९१ सचेलावेलपरस्परसंहवासनिषेधः २७७
छाया--यो भिक्षुतिकेन वा अज्ञातकेन वा उपासकेन वा अनुपासकेन वा अनलेन वैयावृत्यं कारयति कारयन्तं वा स्वदते ॥सू० ८६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णायगेण वा' ज्ञातकेन वा-स्वजनेन वा 'अणायगेण वा' अज्ञातकेन अस्वजनेनाऽपरिचितेन वा तथा 'उवासगेण वा' उपासकेन श्रावकेण आराधितश्रुतचारित्रलक्षणधर्मेण इत्यर्थः 'अणुवासगेण वा' अनुपासकेन श्रावकभिन्नेन परतीथिंकेनेत्यर्थः 'अणलेण' अनलेन अयोग्येन उपलक्षणाद् योग्येनापि केनचिदपि गृहस्थेन स्वकीयम् 'वेयावच्चं' वैयावृत्त्यं सेवाशुश्रूषादिलक्षणम् 'कारावेई' कारयति 'कारावेतं वा साइज्जइ' कारयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू०८६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचेले सचेलगाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८७॥
छाया--यो भिक्षुः सचेलः सचेलिकानां मध्ये संवसति संवसन्तं वा स्वदते ॥८७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'सचेले' सचैलः, तत्र चेलं वस्त्रं तद्वान् सचेलः स्थविरकल्पीत्यर्थः 'सचेलगाणं' सचेलकानां स्थविरकल्पिकानां भिन्नसामाचारीकाणाम् 'मज्झे' मध्ये 'संवसई' संवसति निवासं करोति 'संवसंत वा साइज्जई' संवसन्तं वा स्वदते, यो हि सचेलः स्थविरकल्पी श्रमणः सचेलकानां भिन्नसामाचारीक स्थविरकल्पिसंयतानां मध्ये निवासं करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । भिन्नसामाचारीकसंयतः सह वासं कुर्वतोऽनेकप्रकारकदोषसंभवात् , मतो न तैः। सह कदाचिदपि संवासो विधेय इति ॥ सू० ८७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचेले अचेलगाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइज्जइ ॥सू० ८८॥
छाया-यो भिक्षुः सचेलोऽचेलकानां मध्ये संवसति संवसन्तं वा स्वदते ॥८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सचेले' सचेलः-स्थविरकल्पिक इत्यर्थः 'अचेलगाणं' अचेलकानां जिनकल्पिकानाम् 'मज्झे मध्ये 'संवसई' सवसति निवास करोति 'संवसंतं वा साइज्जई' संवसन्तं अचेलकानां मध्ये निवासं कुर्वन्तं सचेलं स्वदते अनुमोदते, यो हि स्थविरकल्पी जिनकल्पिकानां मध्ये निवासं करोति कुर्वन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । सू० ८८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अचेले सचेलगाणं मज्झे संवसइ संवसंत वा साइज्जइ ॥ सू०८९॥
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ANIMANN.
२७८
___निशीथसूत्रे छाया-यो भिक्षुरचेलः सचेलकानां मध्ये संवसति संघसन्तं वा स्वदते ॥८९॥
चूर्णी:-'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे मिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अचेले' अचेलो जिनकल्पी. 'सचेलगाणं मज्झे' सचेलकानां स्थविरकल्गिकानां मध्ये समुदाये 'संवसई' संवसति निवासं करोति 'संवसंतं च, साइज्जइ' संवसन्तं वा सचेलकानां समुदाये निवासं कुर्वन्तं स्वदने अनुमोदते स प्रायश्चित्तमागी भवति ॥ सू०८९॥ - सूत्रम्--जे मिक्खू अचेले अचेलगाणं मज्झे संवसइ संवसंत वा साइज्जइ ।।सू० ९०॥
छाया--प्यो मिथुरचेलोऽचेलकानां मध्ये संवसति संवसन्तं वा स्वदते ॥१० ९०॥
चूर्णी:-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' य. कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'अचेले' अचेल:-जिनकल्पिकः 'अचेलगाणं' अचेलकानां जिनकल्पिकानाम् 'मज्झे' मध्ये 'संवसई' संवसति-निवास करोति 'संवसंत वा साइज्जई' संवसन्तं निवासं कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तमागी भवति जिनकल्पिकस्य एकाकिविहारविधानात् । यतो जिनकल्पिकाः परस्य सहायतां नेच्छंति-एकान्तवासस्यैव तेषां शास्त्रसिद्धत्वात् , एतादृशस्थितौ यदि जिनकल्पिको जिनकल्पिकानां मध्ये निवसति तदा तीर्थकृतामाज्ञा विराधिता भवति, अतो जिनकल्पिकः साधुः जिनकल्पिकानां मध्ये न वसेत् न वा वसंतमनुमोदेत शास्त्रमर्यादामङ्गप्रसङ्गात् ।। सू०९०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पखिसियं पिप्पलिं वा पिप्पलिचुण्णं वा सिंगवेरं वा सिंगवेरचुण्णं वा विलं वा लोणं उभियं वा लोणं आहारेइ आहारेत वा साइज्जइ ॥सू० ९१॥
छाया—यो भिक्षुः पर्युपितां पिप्पलि धा पिप्पलिचूर्ण वा ऋङ्गवेर वा झवेरचूर्ण वा विलं चा लवगम् उद्भिदं वा लवणम् आहरति आहरन्तं वा स्वदते ॥ सू. ९१॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे मिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमी वा 'परिचसिय' पर्युपितम , तत्र 'परिवसिय' नाम रात्रौ स्थापितं यत् तत् तादृशीम् 'पिप्पलिं वा पिप्पलिं वा अचित्तपाचितपिप्पलीम् 'पिप्पलिचुण्णं वा' लघुपिप्पलीचूर्ण वा 'सिगंवेरं वा शृङ्गवेरं वा शुष्कमादकं मुंटीति लोकप्रसिद्धम् 'सिंगवेरचुण्णं वा' शृङ्गवेरचूर्ण वा सुंठीचूर्ण वा 'विलं वा लोणं' विलं वा लवणम् यत्र देशे लवणो न प्रादुर्भवति तत्रोपरमृत्तिका पाचयित्वा लवणः संपाद्यते तादृश 'लवणं 'विठलवणमिति कथ्यते "उभियं वा लोणं' उद्विदं वा लवणम् , तत्र उद्रिदलवणः स्वय जायमानो यथा सैन्धवः, यः स्वस्वमावत एव संजातस्तम् । एवमादिकं पर्युषितं
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ११ सू० ९२ गिरिपतनादिविंशतिविधमरणप्रशंसानि० २७९ पिप्पल्यादिकं यः श्रमणः श्रमणी वा 'आहारेइ' आहरति पर्युषितपिपल्यादीनाम् उपभोगं करोति तथा 'आहारेंतं वा साइज्जइ' आहरन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू९१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गिरिपडणाणि वा मरुपडणाणि वा भिगुपडणाणि वा तरुपडणाणि वा गिरिपक्वंदणाणि वा मरुपक्वंदणाणि भिगुपक्वंणाणि वा तरुपक्खंदणाणि वा जलप्पवेसाणि वा जलणपवेसाणि वा जलपक्खंदणाणि वा जलणपक्खंदणाणि वा विसभक्षणाणि वा सत्थोपाडणाणि वा वलयमरणाणि वा वसट्टाणि वा तम्भवमरणाणि वा अंतोसल्लमरणाणि वा वेहायसाणि वा गिद्धपट्ठाणि वा जाव अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि वा वालमरणाणि पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ।। सू० ९२॥
छाया--यो भिक्षुः गिरिपतनानि वा १, मरुपतनानि वा २, भृगुपतनानि वा ३, तरुपतनानि वा ४, गिरिप्रस्कन्दनानि वा ५, मरुप्रस्कन्दनानि वा ६, भृगुप्रस्कन्दनानि ७, तरुप्रस्कन्दनानि वा ८, जलप्रवेशनानि वा ९, ज्वलनप्रवेशनानि पा १०, जलप्रस्कन्दनानि वा ११, ज्वलनप्रस्कन्दनानि वा १२, विपभक्षणानि वा १३, शस्त्रोत्पातनानि वा १४, वलयमरणानि वा १५ वशार्तमरणानि वा १६, तद्भवमरणानि वा १७, अन्तःशल्यमरणानि वा १८, वैहायसानि वा १९, गृद्धस्पृष्टानि वा २० यावद् अन्यतराणि वा तथाप्रकाराणि वा वालमरणानि प्रशंसति प्रशंसन्तं वा स्वदते । सू० ९२॥
चूर्णी:-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिरिपडणाणि वा गिरिपतनानि वा-पर्वतामात् पतनानि, मरणप्रसङ्गात् गिरिपतनमरणानी त्यर्थः, एवमग्रेऽपि, 'मरुपडणाणि वा' मरुपतनानि वा मरौ ऊपरभूमौ धूलीपुजे वा पतनम् मरुपतनम् , मरो ऊपरभूमौ श्रीरपातनं, यद्वा यत्रतः पतनं दृश्यते तद् गिरिपतनम् , अदृश्यमानं पतनं मरुपतनम् , तानि, 'भिगुपडणाणि वा' मृगुपतनानि वा-नदीतटादितः गर्मोदितो वा पतनं भृगुपतनं, तानि, 'तरुपडणाणि वा' तरुपतनानि वा-तरुशाखागवलम्ब्य पतनं तरुपतनम् तानि, 'गिरिपक्खंदणाणि वा' गिरिप्रस्कन्दनानि वा-प्रस्कन्दनं-गिरित 'उल्लुप्त्य पतनं, तान, पतनप्रस्कन्दनयोरयं भेदः-पतनं सामान्यतो लुठनम् , प्रस्कन्दनमुत्प्लुपुत्य-कूर्दयित्वा पतनमिति । 'मरुपक्खंदणाणि वा' मरुप्रस्कन्दनानि वा-ऊपरभूमौ धूलिपुजे वा उत्प्लुत्य पतनानि 'भिगुपक्खंदणाणि वा' भृगुप्रस्कन्दनानि वा-नदीतटादिषु गादिषु अदृश्यमानस्थाने वा उत्प्लुत्य पतनानि, 'तरुपक्खंदणाणि वा' तरुप्रस्कन्दनानि वा वृक्षत उत्प्लुत्य पतनानि, 'जलप्पवेसणाणि वा' जलप्रवेशनानि वा नदीकूपतडागादिषु प्रवेशनानि, 'जलणप्पवेसणाणि वा' ज्वलनप्रवेशनानि वा
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___ निशीथरले - प्रवेशनानि जलपरखंदणाणि वा जन्दप्रस्कन्दनानि वा जले उत्प्लुत्य पतनानि वा मानणागि या' बन्ने पन्ही उत्स्टन्य पतनानि 'विसभक्खणाणि वा' विषभक्षणानि र 'मन्योपाटणाणि या सोसाननानि वा उच्चस्थानात शरीरे शनस्य स्वगादेः पातनानि 'पगमग्णाणि वा बलयमरणानि वा, तत्र संयमयोगेषु हीनमत्वतया वलनं वलयः संयमान्निव ..., मेन का अक्रामनया मरणानि, यद्वा वलयः वनरञ्चादिपाशेन गलस्य वेष्टनं, तेन मरणं, नानि ग ग्यादिक, बदवा मरणानि वलयमरणानि, 'वसट्टमरणाणि वा' वशार्त्तमरणानि वा इंडियदिपगेषु रूपग्मादिषु वशवचिंतया मार्तस्य दुःखितस्य मरणानि, 'तम्भवमरणाणि वा' सामग्यानि वा, तस्वमरणं नाम यस्मिन् मनुष्यादिभवे वर्तते तस्यैव भवस्य हेतुषु वर्तमानः मा कर्म बाचा पुनः नव भये उत्पत्तुकामस्य यन्मरणं तत् तद्भवमरणमिति कथ्यते तानिमानपूर्वक मग्णानोन्यर्थ. 'अंतोसल्लमरणाणि वा' अन्तःशल्यमरणानि वा, शल्यं द्विविध मयं भगवान्यं न, तत्र द्रव्यशल्यं वाणाप्रमागादिलपम् , तस्य नेहाधिकारः, भावशल्यं रोचरगुगसंलग्नदोपानालोचने पचात्तापपम् , अस्यात्राधिकारः, मायानिदानादिशल्यं वा,
अन्न.-मन्त करणे भवेत् तद् अन्तःशल्यं, तेन मरणानि, 'वेहायसाणि वा' वैहायसानि गा विशाल भाषागे भवं बहायसं वृक्षशासादिषु आत्मन उदबन्धनं, तानि मरणानि, 'गिद्धपद्वाणि या' गदस्पृष्टानि वा-गधेरामम्गमगक्षकः पक्षिविशेषः, अथवा गृद्धः मांसलब्धकैः शृगादिन पृशय विकारितस्य, अथवा करिकरभरासभादिशरीरान्तर्गतत्वेन यन्मरणं तानि गृध्रगागिटानि वा मरणानि, अथवा गृशितपृष्ठस्य यन्मरणं तद् गृध्रपृष्टमरणमिति तानि,
निर्मध्यकानि, नथा 'जाव अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि वा वालमरणाणि' यगि वा तथाप्रकाणि दा बालमरणानि 'पसंसइ' प्रशंसति तेषां प्रशंसां करोति • 'पमंगतं वा माइज' प्रशंसन्नं प्रसां कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तमना मनि ॥
मार माथ्यकार:--- भाग्यम्-पालमरणाणि वीसा, अन्नाणि य तारिसाणि मरणाणि ।
जोय पलंगड पावड, मिच्छायेग्जाइब दोसे ॥ साया मायमरणानि पिति, न्यानि ताशानि मरणानि ।
पाम प्रशंमति मामोति, मिष्याम्यांदिरातोपान् ॥ भरपूरि:- या कामिन प्रो भिक्षुफः प्रमणी वा यथा तथा येन के चित प्रकारेण
r amण का मारमरणानि गिरिपननादिकादारभ्य गटमरणपर्यन्तानि k arf नि या सादगानि मरगानि मायमरणानि नन्गस्यात् यत् किमप्येक
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ. ११ सू.० - ९३
उद्देशकसमाप्तिः २८१ मरणं प्रशंसति तेषां प्रशंसां करोति कुर्वन्तं वा अनुमोदते स परस्मिन् आत्मनि वा मिथ्यात्व - स्थिरीकरणादिबहुदोषान् प्राप्नोति, यथा लोका एवं विचारयन्ति यत् इमे साधवः सर्वथा सुस्थिता - त्मनः ते ईमे गिरिपतनादिकं मरणं प्रशंसन्ति अतो निश्चितमेतत् गिरिपतनादिकं मरणं श्रेयस्कर मतोऽवश्यमेव करणीयम् नास्ति एतादृशमरणकरणे कोपि दोषः, एवं प्रकारेण मिध्यात्वमेव स्थिरीकृतं भवति । तथा एवं कुर्वन्तो भाज्ञाभङ्गादिकाननेकान् दोषानपि लभेरन् । एवम् बालमरणस्य प्रशंसाकरणे शैक्षकः परिपहपराभूतः विंशतिमरणानां मध्यादेकतरमपि मरणं प्रतिपद्येत तदा निर्दयता समापद्यते, तेन तद्विराधनाजन्यं प्रायश्चित्तं प्राप्नुयात् तस्मात् बालमरणानि न प्रशसेत् । एषु विंशतिविधेषु मरणेषु वैहायसं गृनपृष्ठं चेति मरणद्वयमागमज्ञा - जीवदया चारित्रपतनादिकारणे समुत्पन्ने प्रशंसन्ति, तथाहि - यथा केनापि हिंसकपुरुषेण गृहीतो भवेत् स यदि तं जीवहिंसायां प्रेरयति, अथवा मैथुनार्थिन्या कामिन्या गृहीतो भवेत् सा यदि तं मैथुन सेवनार्थं प्रेरयति एतादृश्यां स्थितौ अगतिकगतिकः सन् वैहायस मरणं समाद्रियते तदा तत्तस्य मरणं प्रशंसनीयं भवेत् । तथा श्रृतिबलसंपन्नो मुनिगृभ्रपृष्टमरणं करोतीति साधोराचरणीयत्वेन गृध्रपृष्टमरणमपि - प्रशंसनीयमेव भवति तेनैतदृद्वयमपि मरणं कारणे प्रशंसायोग्यं भवति । सूत्रे यो निषेधः स दुःखाभिभूतमरणविषयको विज्ञेय इति विवेक. ॥ सू० ९२ ॥
सूत्रम् - तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धा -. इयं ॥ सू० ९३ ॥
॥ निसीहज्झयणे एगारसोद्देसो समत्तो ॥ ११॥
छाया - तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ॥ सू० ९३ ॥ ॥ इति निशीथाध्ययने एकादशोदेशकः समाप्तः ॥ ११ ॥
चूर्णी – 'तं सेचमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् सेवमान. 'अयपायाणि चा' इत्यारम्य 'बालमरणाणि पसंसद्' इति पर्यन्तप्रायश्चित्तस्थानानां मध्यादेकस्यापि कस्यचिप्रायश्चित्तस्थानस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् श्रमणः श्रमणी वा आवज्जइ' आपद्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासिय' चातुर्मासिकम् 'परिहाराणं' परिहारस्थानं प्रायश्चित्तम् 'अणुग्धाइयं' अनुद्घातिकम् गुरुकम् प्रायश्चित्तं लभते इति ॥ सू० ९३ ||
इति श्री - विश्वविख्यात - जगहल्लभ - प्रसिद्धवाचक – पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्ध गद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्री शाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य " पद भूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालमाचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालवति - विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
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चूर्णि भाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् एकादशोदेशकः समाप्तः ॥११॥
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॥ द्वादशो देशकः ॥
व्याख्यात एकादशोद्देशकः, साम्प्रतमवसरप्राप्तो द्वादशोद्देशकः व्याख्यायते, तत्र - एकादशोद्देशकस्यान्तिम सूत्रेण सह द्वादशोदेशकस्यादिसूत्रस्य कः सम्बन्ध इति चेदत्राह भाष्यकार:
भाष्यम् – मरणपसंसा नो चे, कप्पड़ भिक्खुस्स तं कई काउं । बद्धस्स होज्ज मरणं, कत्थइ तस्स य निसेोऽत्थ ॥१॥ छाया - मरणप्रशंसा नो चेत् कल्पते भिक्षोः तत् कथं कर्तुम् । बद्धस्य भवेन्मरणं, कथ्यते तस्य च निषेधोऽत्र ॥१॥
अवचूरि : - गिरिपतनादिकं बालमरणं प्राणातिपात इति कृत्वा यदि तस्य प्रशंसनं न कल्पते तदा तत् मरणं कत्तु कथं कल्पते ! तत्तु सुत्तरां नैव कल्पते, तच्च मरणं बद्धस्य भवेत् इत्यतोऽत्र द्वादशोदेशके तस्य बन्धस्य निषेधः कथ्यते, एष एव एकादशोदेशकेन सहास्य द्वादशोद्देशकस्य सम्बन्धः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य द्वादशोदेशकस्येदमादिसूत्रम् — 'जे भिक्खू कोल्लुणवडियाए' इत्यादि ।
सूत्रम् — जे भिक्खू कोलुणवडियाए अण्णयरं तसपाणजाई तण - पासएण वा मुंजपासएण वा कट्टपासएण वा चम्मपासएण वा वेत्तपासएण वा सुत्तपासएण वा रज्जुपासएण वा बंधइ बंधतं वा साइज्जइ ॥ सू० १ ॥
छाया- -यो भिक्षु कारुण्यप्रतिज्ञया अन्यतरां त्रसप्राणजातिं तृणपाशकेन वा मुजपाशकेन वा काष्ठपाशकेन वा चर्मपाशकेन वा वेत्रपाशकेन वा सूत्रपाशकेन वा रज्जुपाशकेन वा बध्नाति बध्नन्तं वा स्वदते ॥सू० १||
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चूर्णी — 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोलुणवडियाए' कारुण्यप्रतिज्ञया - करुणाबुद्धया, तत्र करुणाया भावः कारुण्यं तस्य प्रतिज्ञेति वाञ्छा कारुण्यप्रतिज्ञा, तया शय्यातरकरुणाबुद्धया यदि बुभुक्षितो वत्सः स्वेच्छया दुग्धं पास्यति तदा दोहनसमये गृहस्थस्याल्पं दुग्धं मिलिष्यति ततो गृहस्थस्याधिकं दुग्धं भवतु इति गृहस्थस्य प्रसन्न - तार्थ, तथा यदि गृहस्थः प्रसन्नो भविष्यति तदा मह्यं अन्यस्मै वा साधवे प्रभूतमशनादि वसत्या - दिकं च दास्यतीति गृहस्थानुग्रहार्थ 'अण्णयरं तसपाणजाई' अन्यतरां त्रसप्राणजाति गोमहिष्यनाप्रमृतिरूपां 'तणपासएण ' तृणपाशकेन वा तत्र तृणो दर्भादिः तस्य पाशको बन्धनम्, तेन तृणबन्धनेन बध्नातीत्यग्रेण सम्बन्धः । ' मुंजपासएण वा' सुञ्जपाशकेन वा, तत्र मुञ्जो नाम तृणविशेषः तस्य पाशकेन बन्धनेनेत्यर्थः, 'कट्टपासएण वा' काष्ठपाशकेन वा काष्ठबन्धनेनेत्यर्थः 'चम्मपासएण वा' चर्मपाशकेन वा मृगादिचर्मबन्धनेन 'वेतपासएण वा' क्षेत्रपाशकेन वा, तत्र वेत्रो
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पूर्णिमाम्यावचूरिः उ० १२ सू० १-२ प्रसप्राणजातिवन्धनमोचननिषेधः २८३ नाम लताविशेषः 'नेतर' 'बेंत' इति लोकप्रसिद्धः, तस्य बन्धनेन 'सुत्तपासएण वा' सूत्रपाशकेन वा कार्पासादिकसूत्रबन्धनेनेत्यर्थः, 'रज्जुपासएण वा' रज्जुपाशकेन वा, तत्र रज्जुः शणादिनिर्मिता तद्वन्धनेनेत्यर्थः 'वैधई' बध्नाति यः खलु श्रमणः श्रमणी वा शय्यातरप्रसन्नताबुद्धया तृणाद्यन्यतमबन्धनेन प्रसप्राणिजातं बध्नाति बन्धने क्षिपति तथा 'बंधतं वा साइज्जई' बघ्नन्तं वा स्वदते, अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, बन्धनकरणे प्राणातिपातस्य संभवात् अतो भिक्षुः कस्यापि प्राणिजातस्य शय्यातरप्रसन्नताबुद्ध्या तृणाद्यन्यतमबन्धनेन न बन्धनं कुर्यात् न वा बन्धनं कारयेत् न वा बध्नन्तमनुमोदेत ॥ सू० १॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कोलुणवडियाए अण्णयरं तसपाणजाई तणपासएण वा मुंजपासएण वा कट्टपासएण वा चम्मपासएण वा वेत्तपासएण वा सुत्तपासएण वा रज्जुपासएण वा बद्धेल्लगं मुंचइ मुंचंतं वा साइज्जइ ।।
छाया-यो भिक्षुः कारुण्यप्रतिक्षया अन्यतरां प्रसप्राणजाति तृणपाशकेन वा मुञ्जपाशकेन वा काष्ठपाशकेन वा चर्मपाशकेन वा वेत्रपासकेन वा सूत्रपाशकेन पा रज्जुपाशकेन वा बद्धं मुञ्चति मुञ्चन्तं वा स्वदते ॥सू० २॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी या 'कोलुणवडियाए' कारुण्यप्रतिजया गृहस्थानुकंपयेत्यादि सर्व पूर्ववद् व्याख्येयम् , नवरम् 'वडेल्लग' बद्धं सन्तं गोमहिष्यजादिकं शय्यातरानुपस्थितौ वनगमनवेलायां तत्प्रसन्नार्थम् 'मुंचई मुश्चति बन्धनमुक्तं करोति 'मुंचत वा साइज्जइ' मुश्चन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-सिज्जायरपसन्नटुं, बंधए मुंचए पम् ।
दोसभाई भवे भिक्खू, न दोसो अणुकंपणे ॥ छाया-शच्यातरप्रसन्नार्थ बध्नाति मुञ्चति पशून् ।
दोपभागी भवेद् भिक्षुः, न दोषोऽनुकम्पने ॥ अवचरि:-यः साधुः शय्यातरप्रसन्नार्थ शय्यातरस्य प्रसन्नतानिमित्तं 'पसू' पशून् गोवत्सादीन् 'बंधए' बध्नाति तथा 'मुंचए' मुञ्चति स भिक्षुः 'दोसभाई' दोषभागी आज्ञाभङ्गादिदोषभाग् 'भवे' भवेत् , किन्तु 'अणुकंपणे' अनुकम्पने अनुकम्पायां 'दोसो न दोषो न भवति, पशोरनुकम्पया अग्न्याधुपद्रवे तस्य बंधने मोचने वा साधुर्दोषभाग् न भवतीत्यर्थः । अत्रायं विवेकः-गृहस्थप्रसन्नार्थ बध्नाति मुञ्चति यथा-गोमहिण्यादिनात् घासं चरित्वा समा
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निशीयसूत्र गतो भवेत् तदा साधुगृहस्थस्य प्रसन्नतानिमित्तं तद्वशीकरणाथं च तं स्वाभिमुखीकरणार्थ बध्नाति,, एवं प्रातर्वनगमनवेलायां मुञ्चति च, स च विचारयति यदत्र गृहस्थोऽनुपस्थितः पशुश्च वनादागतः, एनं यदि न बध्नामि तदाऽयमन्यत्र गमिष्यति चोरो हरिष्यति तदा गृहस्थम्य महती हानिर्भविष्यतीत्यादि, तथा यदि वाटके गौमहिपी वा निबन्धना स्थास्यति तदा वत्सो दुग्धं पास्यति तेन गृहस्थात्य दुग्धमल्पं भविष्यति तेन तस्य दुग्घहानिर्भविष्यति तेन कुपितो गृहस्थो मन्यमशनादि न दास्यति वसतितो वा निष्कासयिष्यतीति बध्नाति, एवं प्रातर्वनगमनसमये गृहस्थानुपस्थिती मुञ्चति च एवं तत्करुणया तद्भयेन वा गोमहिप्यादिक बध्नाति मुञ्चति च तदा स प्रायश्चित्तमागी भवति, एतद् गृहस्थकार्यमिति संयमात्मविराधनावश्यम्भाविनी यथा-एवं करणे साधोहस्थानुचरता तल्किंकरता च भवति, तेन संयमे महान् दोष आपयेतेति संयमविराधना स्पष्टा । तथा पशोर्बन्धने यदि पशवः स्वचरणादिना साधुं हन्ति तेन पीडितो भवेत् नियेत वेति आत्मविराधनाऽवश्यम्भाविनीति सयमात्मविराधना स्पष्टा । तथा भाप्ये यत् कथितम्-'न दोसो अणुकंपणे' इति, अस्यायं विवेकः-पशुबन्धनस्थाने यदि सर्पादयो घातकपाणिनः संचरन्ति तदा तदंशनादिसंभवः, कूपे गर्तादौ वा पशुः पतेत् गृहस्थश्चानुपस्थितो वर्तते इति तद्रक्षावुद्धया परिस्थित्यनुसारेण पशोर्बन्धनं मोचनं चावश्यकं भवेत् , अथवा पशुगृहं वहनिना प्रज्वलितं प्रज्वलनशका वा तत्र भवेत् तदा गृहस्थानुपस्थितौ तद्रक्षणार्थ पशोर्वन्धनं मोचनं चावश्यकमिति तत्र पशोबन्धने मोचने च माधोर्न कोऽपि दोषः, एवमकरणे प्राणिवधजन्यपापभागी भवति "अहिंसा परमो धर्मः" इति जैनसिद्धन्तोऽपि विलीनो भवेत् , अत एतादृशावस्थायां साधुः पशोर्बन्धनं मोचनं च करोति तदा न कोऽपि दोष इति । सू० २॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अभिक्खणं अभिक्खणं पच्चक्वाणं भंजइ भंजंतं वा साइज्जइ ।। सू० ३॥
छाया-यो भिक्षुरभीक्ष्णमभीषणं प्रत्याख्यानं भनक्ति भञ्जन्तं वा स्वदते । सू० ३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः प्रमणः श्रमणी वा 'अभिक्खणं अभिक्खणं' अभीक्ष्णमभीक्ष्णं वारंवारम् 'पचक्खाणं' प्रत्यारव्यानं नमोक्कारपोरुप्यादिप्रत्याख्यानम् 'भंजइ' भनति त्रोटयति 'भजतं वा साइज्जइ' भञ्जन्तं त्रोटयन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोपा भवन्ति, अन्योऽपि दोपो भवति-यथाऽयं नमस्कारादिप्रत्याख्यानं भनक्ति तथा मूलगुणप्रत्याख्यानस्यापि भङ्गकरिष्यति, एवम् अगीतार्थानां गृहस्थानां च अविश्वासं जनयति, तथा प्रत्याख्यानमाने लोकः साधूनामवर्णवादं करिष्यति, एवं प्रत्याख्यानभङ्गकरणे प्रत्याख्यानधर्मे श्रमणधर्म वा
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चर्णिमायावरि उ०१२सु. ३-८
प्रत्याख्यानभङ्गादिनिषेधः २८५ अदृढत्वं नायेत, तथा अन्य परित्यक्ष्यति करिष्यति चान्यमिति माया स्यात् , अन्य भाषते अन्य करोतीति मृषावादोऽपि भवेत् , एवं करणे सूत्रार्थपौरुषीणां विनाशोऽपि भवेत् , इत्यादयो बहवो दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् प्रत्याख्यानस्य भङ्गं न कुर्यात् न वा प्रत्याख्यानभङ्गं कुर्वन्तमनुमोदेत ॥ सू० ३।।
सूत्रम्-जे भिक्खू परित्तकायसंजुत्तं आहारं आहारेइ आहारेतं वा साइज्जइ ॥ सू०४ ॥
छाया-यो भिक्षुः परीतकायसंयुक्तमाहारमाहरति आहरन्तं वा स्वदते ॥४॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् निर भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'परित्तकायसंजुत्तं' परीत्तकायसंयुक्तं, तत्र परीतकायः-वनस्पतिकायः साधारणप्रत्येकेतिद्विविधो वनस्पतिकायः, तेन सचित्तवनस्पतिकायेन संयुक्त संमिलितम् आहारम्-अशनपानखाद्यस्वाद्यात्मकचतुर्विधमाहारम् ‘आहारेई' आहरति भुङ्क्ते तथा 'आहारेतं वा साइजई आहरन्तम् सचित्तवनस्पतिकायसंयुक्तमशनादिकं भुञ्जानं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू० ४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सलामाइं चम्माई धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥ छाया-यो भिक्षुः सलोमानि चर्माणि धरति घरन्तं वा स्वदते ॥सू० ५॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी ना मनोमाई सलोमानि-रोमयुक्तानीत्यर्थः 'चम्माई' चर्माणि मृगादीनाम् 'घरेइ' धरति स्वसमीपे उपभोगाय स्थापयति तत्रोपविशति तत्र निषीदति तत्र वगवर्तनं च करोति, तथा 'धरेंत वा साइज्जई' धरन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति तेषां दुष्प्रतिलेल्यत्वात । देशविशेषे हिमबाहुल्यादिकारणवशाच्चर्मधारणमावश्यकं भवेत्ततस्तद्विषयकोऽयं निषेध इति विवेकः ॥ सू० ५॥ . सत्रम-जे भिक्खु तणपीढगंवापलालपीढगं छगणपीढगं वेत्तपीढगं वा परवत्थेणोच्छन्नं अहिट्ठइ अहिट्ठतं वा साइज्जइ ॥ सू०६॥
छाया-यो भिक्षुः तृणपीठकं वा पलालपीठकं वा छगण (गोमय) पीठकं वा घेत्रपीठकं वा परवस्त्रेणावच्छन्नमधितिष्ठनि अधितिष्ठन्तं वा स्वदते ।।सू० ६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'तणपीढगं वा तृणपीठकं वा, तत्र तृणो दर्भादिकः, तस्य पीठमित्यर्थः तृणमयमासनमिति यावत्
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२८६
निशीथस्त्रे 'पलालपीढगं वा' पलालपीठकं वा पलालमयं पीठकम् 'छगणपीढगं वा' छगणपीटकं गोमयपीठकं वा 'वेतपीढगं वा' वेत्रपीठकं वा, तत्र घेत्रं नाम लताविशेषः तेन संपादितं फलकादिकं वेत्रपीठकम् , एतादृशं पीठफलकादिम् 'परवत्थेणोच्छन्नं' परवस्त्रेणावश्छन्नम् , तत्र परो गृहस्थः श्रावकोऽश्रावको वा तस्य यद् वस्त्रम् तेन आच्छादितं पीठफलकादिकं यो भिक्षुः 'अहिटेइ' अधितिष्ठति तदुपर्युपविशति शेते त्वरवर्तनं वा करोति कारयति वा परम् स तथा 'अहिटेतं वा साइज्जइ' अधितिष्ठन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चिचभागी भवति गृहस्थवस्त्रोपभोगदोपप्रसङ्गात् ॥ सू० ६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णिग्गंथीणं संघाडि अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा सिव्वावेइ सिव्वावेतं वा साइज्जइ ॥ सू०७॥
छाया-यो भिक्षुनिम्रन्थीनां संघाटीम् अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा सीवयति सीवयन्तं वा स्वदते स० ७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः आचार्य उपाध्यायादिको वा 'णिग्गंथीणं' निर्ग्रन्थीनां श्रमणीनाम् 'संघार्डि' संघाटीम्-शाटिकाम् उपलक्षणत्वात् कञ्चुक्यादिकं किमपि उपकरणम् 'अण्णउत्थिएण वा अन्ययूथिकेन वा अन्यतीर्थिकेन साधुना 'गारथिएण वा' गृहस्थेन वा-श्रावकादिना 'सिव्वावेई' सीवयति-संधापयति तथा 'सिव्वावेतं वा साइज्जइ' सीवयन्तं संधापयन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति संयमविराधना आत्मविराधना च भवति । यथा-निग्रन्थी कार्यकरणेन सा प्रसन्ना मोहग्रस्ता वा साधु स्त्रीमोहे पातयतीत्यादिकारणात् संयमविराधना । मोहनस्ता सा साधोरुपरि वशीकरणचूर्णादिप्रयोगं वा करोति तेन ग्रहगृहीतो वा भवेदित्यात्मविराधना । लोके उड्डाहो वा भवेत् यदयं निर्ग्रन्थीमोहमोहितो वर्तते अवश्यमनया सहास्य कोऽपि गोप्यः संबन्धो विद्यते येन निम्रन्ध्या वनसीवनादिकं गृहस्थादिना कारयतीति साधुना निम्रन्थीसंघाट्याः सीवनं न कारयितव्यमिति भावः ॥सू० ७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पुढवीकायस्स वा आउकायस्स वा अगणिकायस्स वा वाउकायस्स वा वणस्सइकायस्स वा कलमायमवि समारभइ सभारभंतं वा साइज्जइ ॥ सू०८॥ . छाया-यो भिक्षुः पृथिवीकायस्य वा अप्कायस्य वा अग्निकायस्य वा वायुकायस्य वा वनस्पतिकायस्य वा कलायमात्रमपि समारभते समारभमाणं वा स्वदते ॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१२ सू०९-१३ वृक्षारोहण-गृहिपात्रवृस्त्रनिषद्याधिकित्सानि० २८७
चूर्णी 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पुढवीकायस्स बा' पृथिवीकायस्य वा पृथिवीकायिकजीवस्येत्यर्थः एवमप्तेजोवायुवनस्पतिकायस्य वा 'कलमायमवि' कलायमात्रमपि, तत्र कलायो वृत्तधान्यविशेषः तावन्मात्रप्रमाणकमपि स्तोकप्रमाणमपि 'समारभइ' समारभते पृथिवीकायिकादिजीवस्य अल्पमात्रमपि विराधनां करोति तथा 'समारभंतं वा साइज्जई' समारभमाणं वा पृथिवीकायिकादिजीवानाम् अल्पमात्रमपि विराधनां कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्वं दूरूहइ दूरुहंतं वा साइज्जइ ॥९॥ छाया-यो भिक्षुः सचितवृक्षं दूरोहति दूरोहन्तं वा स्वदते ॥सू० ९॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सचित्तरुक्खं' सचित्तवृक्षम् 'दुरुहई' दूरोहति सचित्तवृक्षोपरि भारोहणं करोति तथा 'दरूइंतं वा साइज्जई' दूरोहन्तं वा स्वदते, यः सचित्तवृक्षोपरि मारोहणं करोति तदुपरि चरणौ वा स्थापयति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तत्र सचित्तवृक्षाः त्रिप्रकारका भवन्ति संख्येयजीववन्तः यथा तालादिवृक्षाः, असंख्येयजीववन्तो यथा आम्रादिवृक्षाः, अनन्तजीववन्तो यथा थोहरादिकाः, एषां मध्ये कस्यापि वृक्षस्योपरि आरोहणं कुर्वतः पादं वा स्थापयत आज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ॥ सू० ९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गिहिमत्ते भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ॥ सू० १०॥ छाया—यो भिक्षुः गृहिमात्रके भुक्त भुजानं वा स्वदते ॥ सू० १०॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिहिमत्ते' गृहिमात्रके गृहस्थस्य श्रावकादेः मात्रके भाजने स्थाल्यादावित्यर्थः 'भुजइ' भुङ्क्ते अशनादिकचतुर्विधमाहारजातमुपभुक्ते उपलक्षणाद् जलादि वा स्थापयति, तथा 'मुंजत वा साइज्जई' अशनादिकचतुर्विधमाहारजातं भुञ्जानं श्रमणं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तत्र गृहस्थमात्रक द्विविधम् त्रसजीवदेहनिष्पन्नम् स्थावरजीवदेहनिष्पन्नं च, तत्र हस्तिदन्तादिनिर्मितं पात्रं त्रसजीवदेहनिर्मितमिति कथ्यते सुवर्णरजतताम्रकांस्यादिनिर्मितं पात्रं स्थावरजीवदेहनिर्मितं धातुपात्रम् । तथा भोजनस्योपलक्षणत्वात् वस्त्रादिप्रक्षालनार्थमपि गृहस्थस्य पात्रं न ग्रहीतव्यमिति । तत्र यः गृहस्थः स पूर्वमेव श्रमणार्थ पात्रं प्रक्षाल्य स्थापयेत् इति पुराकर्मदोषः, पश्चादपि श्रमणप्रतिनिवृत्तं पात्रं प्रक्षालयतीति पश्चात्कर्मदोषः । एवमादयो बहवो दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात् श्रमणः श्रमणी वा गृहस्थस्य पात्रे स्थाल्यादौ न कदाचिदपि स्वयं भुञ्जीत न वा परं भोजयेत् भुञ्जन्तं नानुमोदेत ॥सू० १०॥
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निशोथसूत्रे
सूत्रम् — जे भिक्खू गिहिवत्थं परिहेइ परिहतं वा साइज्जइ ॥ सू० ११॥ छाया - -यो भिक्षुः गृहिवस्त्रं परिदधाति परिदधन्तं वा स्वदते || ११||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिवित्थं' गृहस्थवत्र गृहस्थेन परिवृतं वस्त्रम् 'परिहेड' परिदधाति श्रावकादिवत्रस्य परिधानं करोति कारयति वा तथा 'परिहतं वा साइज्जइ' परिदयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित - भागी भवति । पात्रग्रहणे ये पुरा कर्म पश्चात्कर्मादिदोषाः कथितास्ते दोषा इहापि ज्ञातव्याः ||०११ ||
२८८
सूत्रम् — जे भिक्खू गिहिनिसेज्जं बाहेइ वाहतं वा साइज्जइ ॥ १२ ॥
छाया -यो भिक्षुर्गृहिनिषद्यां वहति वदन्तं वा स्वदते ॥ १२ ॥
चूर्णिः - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा गिडिनिसेज्जं' गृहिनिषधाम्, तत्र गृहिणी गृहस्थस्य निषद्या - आसनं पर्यङ्कादि यत्र उपविश्यते ताहशीं निषद्याम् 'वाहेइ' वहति-निषीदति गृहस्थस्य निषद्योपरि समुपविशति । 'वातं वा साइज ' वहन्तं वा स्वदते, उपविशन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । अयं भावः- भिक्षाचर्यादिप्रसंगेन गृहिगृहं गतः श्रमणः गृहस्थस्य पर्यङ्कादौ समुपदिश्य वार्तालापं कुर्यात् धर्मकथादिकं वा श्रावयेत् तढा गृहस्थप्रायोग्यासने समुपविष्टस्य ब्रह्मचर्यभङ्गप्रसङ्गः भुक्तभोगानां स्मरणसंभवात् । तथा लोकानां साधुब्रह्मचर्ये शङ्कापि प्रादुर्भवेत् कथमयं श्रमणो भूत्वापि गृहस्थासने समुपविष्टः ? एवम् अनेकेषां चित्ते अनेकप्रकारिका शङ्का प्रादुर्भूता स्यात् तस्मात्कारणात् श्रमणः श्रमणी वा गृहस्थस्यासने कदापि नोपविशेत् न वा समुपविशन्तमनुमोदेत || सू० १२॥
सूत्रम् — जे भिक्खू गिहितेइच्छं करेड़ करेंतें वा साइज्जइ ॥ सू० १३ ॥
छाया -यो भिक्षुर्गृहिचिकित्सां करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू०१३ ||
चूर्णि: - 'जे भिक्खू' इत्यादि 'जे भिक्खू' य' कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिहितेइच्छं' गृहिचिकित्सां, तत्र गृही गृहस्थः, तस्य चिकित्सा रोगप्रतीकारलक्षणा ताम 'करेइ' करोति, यो भिक्षुर्गृहस्थस्य वमनविरेचनपानादिप्रकारैः रोगस्य ज्वरादेः विपूचिकादेर्वा प्रतीकारमोषधाचुपचारं करोति तथा 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते स प्रायश्चितभागी भवति ॥ सू० १३॥
सूत्रम् — जे भिक्खू पुरेकम्मकडेण हत्थेण वा मत्तेण वा दव्वीए वा भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहे पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ सू० १४॥
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णिभाष्यावचूरिः उ०११ सू० १४-१५ पुराक मिंकजलाई हस्तादिना भिक्षाग्रहणनिनिषेधः २८९
छाया -यो भिक्षुः पुराकर्मकृतेन हस्तेन वा मात्रकेण वा दर्ष्या वा भाजनेन घा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते ||सू० १४ || चूर्णि: - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पुरेकम्मकडेण' पुराकर्मकृतेन 'हत्थेण' हस्तेन, हस्तादीनां सचित्तजलादिना दानात्पूर्वं प्रक्षालनादिकरणं पुराकर्म तादृशपुराकर्मयुक्तेन हस्तेनेत्यर्थः 'मत्तेण वा' मात्रकेण पुराकर्मकृतपात्रेणेत्यर्थः 'दवीए वा' दर्या वा पुराकर्मयुक्तया दर्या 'कडछी' इति भाषाप्रसिद्धया 'भायणेण वा' भाजनेन पुराकर्मयुक्तेन भाजनेन स्थाल्या दिनेत्यर्थः ' असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ' अशनादिचतुर्विधमाहारं 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति तथा 'पडिग्गार्हतं वा साइज ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वीकुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः
भाष्यम् - कह होइ पुरेकम्मं साहुनिमित्तं च किज्जए पुव्वं । दाणाओ पत्तहत्था, -- ईणं ज धावणप्पभिई ॥१॥
छाया - कथं भवति पुराकर्म, साधुनिमित्तं च क्रियते पूर्वम् । दानात् पात्रहस्तादीनां यत् धावनप्रभृति ॥ १ ॥
1
"
अवचूरिः — अत्र शिष्यः पृच्छति - हे गुरो ! पुराकर्म कथं भवति कीदृशं कथं च पुराकर्म भवतीति । गुरुराह- शृणु हे शिष्य ! यत् साधुनिमित्तं साधवे वस्तुदानमाश्रित्य दानात् पूर्व पात्रहस्तादीनां तत्र पात्रस्य संसृष्टस्य पिष्टादिना खरण्टितस्याशुद्धस्य वा तादृशयोर्हस्तयोर्वा आदिशब्दात् दर्व्यादीनां घावनप्रभृति धावनादिकं क्रियते तत् पुराकर्म कथ्यते । यथा गृहस्थगृहे भिक्षार्थं साधुरायातः तत्समये पात्रं दातव्यवस्तुनो विरुद्धपदार्थेन खरण्टितमा वा जलेन भवेत् अन्यद्वा पात्रं नोपस्थितं भवेत् तदवस्थायां भिक्षादानात्पूर्वं तत् पात्रं गृहस्थः सचित्तजलेन प्रक्षालयति धूलिवस्त्रादिना वाऽऽर्द्र पात्रं शुष्कं करोति, एवं हस्तविषयेऽपि करोति तदा तत् पुराकर्म भवति, सचित्तजलादिजन्यारम्भदोषसद्भावात् तादृशेन हस्तादिना दीयमानमशनादि साधुर्न गृह्णीयात् न वा तादृशंमशनादि गृह्णन्तमनुमोदेत, एवं करणे साधुः प्रायश्चित्तभागी भवति भगवदाज्ञाभङ्गादिदोपप्रसङ्गादिति ॥ सू० ४ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू गिहत्थाण वा अण्णतित्थियाण वा सीओदगपरिभोगेण हत्थेण वा मत्तेण वा दव्वीए वा भायणेण वा असणं वा पाण वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ सू०१५ ||
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२९० ..
निशीथस्त्रे '; छाया-यो भिक्षुग्रहस्थानां वा अन्यतीथिकानां वा शीतोदकपरिभोगेन हस्तेन चा मात्रकेण वा दा वा भाजनेन चा अशनं घा पानं वा साद्यं वा स्वाद्य वा प्रनिगृहाति प्रतिगृह्यन्तं वा स्वदते सू० १५॥
. चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' य. कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिहत्याण वा' गृहस्थानां वा, तत्र गृहस्थाः श्रोत्रियब्राह्मणादिकाः शुचिवादिनः तेषां गृहस्थानां श्रोत्रियब्राह्मणानां तथा 'अण्णतित्थियाण या' अन्यतीथिकानां वा, तत्रान्यतीथिकाः परिबाजकादयः, तेपामन्यतार्थिकानां परिवाजकतापसादीनां 'सीओदगपरिमोगेण' शीतोदकपरिभोगेन, ,शीतोदकस्य परिभोगः नित्यमार्द्रतारूपो यस्य स शीतोदकपरिभोगः निरन्तरशीतोदकादेतायुक्त इत्यर्थः, तेन हस्तेन 'मत्तेण वा' मात्रकेण वा पात्रविशेपेण 'दबीए वा' दा, काष्ठमय्या 'चाटु' इति प्रसिद्वया 'भायणेण वा' भाजनेन वा सचित्तशीतोदकप्रक्षालितभाजनेन वा 'असणं वा ४' अशनादिचतुर्विधमाहारं 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकगेति तथा 'पडिग्गाहेत वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । शुचिवादिश्रोत्रिया ब्राह्मणा गृहस्थाः परिव्राजकादयो वा, ते च प्रायः पात्रादि काष्ठमयमेव रक्षन्ति, निरन्तरशीतोदकार्द्रस्य अन्तो जललेपत्वेन तस्याईता न निर्गच्छति, हस्तावपि ते वारं वारं धावन्ति तत. स्तावपि प्राय आद्रौ एव लभ्येते ततस्तादशहस्तादिना यदि साधुरशनादि गृहाति तदनन्तरं ते शीतजलेन तानि हस्तपात्रादीनि अवश्यमेव प्रक्षालयिष्यन्ति ततस्तद्गतलेपस्य परिहारदुःशक्यत्वेन बहुना सचित्तजलेन वारं वारं प्रक्षालनं करिष्यन्ति, तेन साधोः पश्चात्कर्मदोषः समापयेत, तथाऽत्र पुराकर्मदोषोऽपि समापयेत यतस्ते भिक्षादानात् पूर्वमपि हस्तादि प्रक्षालयन्ति , तस्मात् पश्चाकर्मपुराकर्मेति दोषद्वयसंभवात् तादृशगृहस्थादीनां हस्तादिना साधुरशनादि चतुर्विधमाहारं न गृह्णीयात् , गृह्णन्तं चान्यं नानुमोदेतेति ॥सू० १५||
' 'सूत्रम्-जे भिक्खू कट्ठकम्माणि वा पोत्थकम्माणि वा चित्तकम्माणि वा. लेप्पकम्माणि वा दंतकम्माणि वा मणिकम्माणि वा सेलकम्माणि वा गंथिमाणि वा वेढिमाणि वा पूरिमाणि वा संघाइमाणि वा पत्तच्छेज्जाणि वा विविहाणि वा वेहिमाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेत वा साइज्जइ ।। सू० १६॥ 7. -छाया-यो भिक्षुः काष्ठफर्माणि वा पुस्तकर्माणि वा चित्रकर्माणि वा लेप्यकर्माणि वा दन्तकर्माणि वा मणिकर्माणि चा शेलकर्माणि वा ग्रन्थिमानि वा वेष्टिमाणि वा पूरिमाणि वा संघातिमानि वा पत्रच्छेद्यानि वा विविधानि वा वेधिमानि वा चक्षुर्दर्शनप्रतिक्षया अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ।। सू० १६॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १२ सू० १६-१८ काष्ठकर्मादि-चप्रादि-कच्छादिदर्शनेच्छानिषेधः ३२१
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा कष्ट । कम्माणि वा' काष्ठकर्माणि वा काष्ठनिर्मितप्रतिकृतिपुत्तलिकाविशेषलक्षणानि 'चित्तकम्माणि वी' चित्रकर्माणि वा-चित्रलिखितपुत्तलिकारूपाणि 'पोत्थकम्माणि वा' पुस्तकर्माणि वा-पुस्तकरूपाणि वनखण्डनिर्मितपुत्तलिकादिलक्षणानि वा 'लेप्पकम्माणि वा' लेप्यकर्माणि वा लेपनादिना निर्मितपुत्तलिकादिरूपाणि 'दंतकम्माणि वा' दन्तकर्माणि वा हस्तिदन्तादिनिर्मितवस्तूनि 'मणिकम्माणि वा' मणिकर्माणि वा चन्द्रकान्तमण्यादिनिर्मितानि वस्तूनि 'सेलकम्माणि वा' शैलकर्माणि' वा प्रस्तरखण्डे चित्रितानि रूपाणि गंथिमाणि वा' ग्रन्थिमानि वा ग्रन्थिनिर्मितपुत्तलिकोंदीनि 'वेढिमाणि वा' वेष्टिमानि वा वस्त्रादिभिर्वेष्टनं कृत्वा निर्मितानि वस्तूनि 'पूरिमाणि वा' पूरिमाणि वा तण्डुलादि पूयित्वा निमितानि स्वस्तिकादीनि 'संघाइमाणि वा' संघातिमानि अनेकवनखण्डान् संयोज्य कृतानि 'पत्तच्छेज्जाणि वा' पत्रछेयानि वा कदल्यादीनां पत्राणि छित्वा निर्मितानि पुत्तलिकादीनि भ्रमगदिवत् छिद्राणि कृत्वा चित्रितानि 'विविहाणि वा' विविधानि-अनेकप्रकाराणि वा 'वेहिमाणि वा' वैधिकानि वा पत्रकाष्ठादिवेधनेन निर्मितानि 'कोरणी' इति भाषा प्रसिद्धकर्मणा कृतानि, एतानि पूर्वोक्तानि सर्वाणि 'चक्खुदंसणवडियाए' चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञयां चक्षुषा दर्शनेन्छया 'अभिसंधारेइ' अभिसंधारयति चक्षुषा द्रष्टुं मनसि धारयति निश्चयं करोती. त्यर्थः 'अभिसंधारेत वा साइज्जइ' अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते अनुमोदते, यो हि श्रमणः काष्ठकर्मादीनि द्रष्टुं निश्चयं करोति तथा निश्चयं कुर्वन्तं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तंभागी. भवति ॥ सू० १६॥
सूत्रम्--जे भिक्खू वप्पाणि वा फलिहाणिवा उप्पलानि वा पल्ललाणि वा उज्झराणि वा निज्झराणि वा वावीणि वा पोक्खरिणी वा.दीहिं. याणि वा गुंजालियाणि वा सराणि वा सरपंतियाणि वा सरसरपंतियाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥सू०१७॥
छाया-यो भिक्षः वप्रान् वा परिखा वा उत्पलानि वा पल्वलानि वा उज्झरान वा निर्झरान् वा वापीर्वा पुष्करिणी दीर्घिका वा गुंजालिका वा सरांसि वा सर:पंक्ती; सरासरस्पंक्तीर्वा चक्षुदर्शनप्रतिक्षया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू, इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वप्पाणि वा' वप्रान् क्षेत्राणि वा 'फलिहाणि वा' परिखा वा-खातविशेषान् ‘उप्पलाणि वा' उत्पलानि वा-उत्पलस्थानभूतान् जलाशयविशेषान् 'पल्ललाणिव' पल्बलानि वा, तत्र पल्वलानि क्षद्रजलाशयाः । तानि 'उज्झराणि वा' उज्झरान् वा-उपरितः पतज्जलप्रवाहान् वा 'निझराणि वां' निर्झरान वां"
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निशीथसूत्रे पर्वतेषु भूमित उद्गच्छज्जलप्रवाहस्थानानि 'वाचीणि वा' वापीर्वा वाप्यः प्रसिद्धास्ताः, 'पोक्खरिणी वा' पुष्करिणीर्वा-कमलोत्पत्तिस्थानजलाशयविशेपान् लघुतडागान् वा 'दीडियाणि वा' दीर्घिका वा चतुष्कोणा वापीः 'गुंजालिया वा' गुजालिका वा वापीविशेषान् वा, 'सराणि वा' सरांसि वा-तडागाः तानि 'सरपंतियाणि वा' सरःपक्तीर्वा सरांसि तडागास्तेषां पंक्ती 'सरंसरपंतियाणि वा' सरःसरपंक्तीर्वा येषु एकस्मात् सरसः अन्यत्सरः प्रति जलं गच्छति ताः सरःसर पंक्तीः, एतानि जलस्थानानि 'चक्खुदंसणवडियाए' इत्यादिपदानां व्याख्या पूर्ववद् विज्ञेया । वप्रादीनां च दर्शने 'सम्यक् सुन्दरं चैत' दिति कथने तदनुमोदनं स्यादित्यनुमोदने तदारम्भजन्यदोपसद्भावात् प्रायश्चित्तभागी भवति । अप्रशंसने लोकानां मनसि खेदो भवति तज्जन्यप्रायश्चित्तमापयेत सयमात्मविराधनाऽपि भवति अतः पूर्वोक्तवस्तूनि द्रष्टुं न मनसि विचारयेत् , न वा पश्येत् न वा दृष्टिपथं कुर्वन्तमनुमोदेत ।। सू० १७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कच्छाणि वा गहणाणि वा शूमाणि वा वणाणि वा वणविदुग्गाणि वा पव्वयाणि वा पव्वयविदुग्गाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ सू० १८॥
छाया-यो भिक्षुः कच्छान् वा गहनानि या नूमानि वा वनानि वा बनविदुर्गाणि पा पर्वतान् वा पर्वतविदुर्गाणि वा चक्षुदर्शनप्रतिपया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥सू० १८॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कच्छाणि वा' कच्छान् वा, तत्र कच्छाः जबहुलप्रदेशाः इत्यादिवाटिका वा तान् गहणाणि वा' गहनानि अनेकवृक्षाकुलकाननानि वा 'माणि वा' नूमानि वा, तत्र 'नूमं' इति देशी शब्दः छादनार्थः, तेन नूमानि गुप्तगृहवनानि, 'वणाणि वा' वनानि वा एकजातीयवृक्षसमुदायरूपाणि, तानि 'वणविदुग्गाणि का' वनविदुर्गाणि वा, तत्र नानाजातीयवृक्षयुक्तवनसमुदायरूपाणि 'पञ्चयाणि वा' पर्वतान् वा 'पन्चयविदुग्गाणि वा' पर्वतविदुर्गाणि वा अनेकपर्वतसमुदायरूपाणि -तानि 'चक्खुदसणवडियाए' इत्यादि व्याख्या पूर्ववत् ॥ सू० १८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गामाणि वाणगराणि वा निगमाणिवा खेडाणि वा कब्बडाणि वा मडंबाणि वा दोणमुहाणि वा पट्टणाणि वा आगराणि वा संवाहाणि वा संनिवेसाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेत वा साइज्जइ ॥ सू० १९॥
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चर्णिभाष्यावचूरि: उ०१२ सू० १९-२३ ग्रामादीनां मह-वध पथ-दाह-दर्शनेच्छानिषेधः २९३
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छाया-यो भिक्षुामान् वा नगराणि वा निगमान् वा खेटानि वा कर्बटानि वा मडम्बानि वा द्रोणसुखानि वा पत्तनानि वा आकरान् वा संवाहान् वा संनिवेशान् वा चक्षुर्दर्शनप्रतिझया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १९॥
पूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गामाणि वा' प्रामान् वा, तत्र प्रामाः वृतिवेष्टिताः तान् 'णगराणि वा' नगराणि वा नगराणि यत्र अष्टादशकरादिकं न गृह्यते तादृशानि स्थानानि, तानि, 'णिगमाणि वा निगमान् वा, निगमाः प्रभूततरवणिग्जननिवासाः, तान् वा, 'खेडाणि वा' खेटानि वा, तत्र खेटानि नाम धूलिप्राकारवेष्टितानि, तानि 'कब्बडाणि वा' कर्बटानि वा, तत्र कटानि कुत्सितानि नगराणि, अल्पजननिवासस्थानानि वा 'मडवाणि वा' मड्बानि वा' मडम्बानि सार्द्धकोशद्वयाभ्यन्तरे ग्रामान्तररहितानि, तानि, 'दोणमुहाणि वा' द्रोणमुखानि वा-द्रोणमुखानि जलस्थलोपेता जननिवासाः, तानि 'पट्टणाणि वा' पत्तनानि वा, तत्र पत्तनानि समस्तवस्तुप्राप्तिस्थानानि, तानि द्विविधानि जलपत्तनानि स्थलपत्तनानि च, तत्र नौभिर्येषु गम्यते तानि जलपत्तनानि, येषु च शकटादिभिर्गम्यते तानि स्थलपत्तनानि, तानि 'आकराणि वा' आकरान् वा सुवर्णादीनामुत्पत्तिस्थानानि 'संवाहाणि वा' संबाहान् वा, तत्र संवाहा नाम अन्यत्र कृषिबलैर्धान्यरक्षार्थ निर्मितानि दुर्गमस्थानानि, तान् 'संनिवेसाणि वा' संनिवेशान् वा, तत्र संनिवेशाः-समागतसार्थवाहादिनिवासस्थानानि, तान् 'चक्खुदंसणवडियाए' इत्यादि व्याख्या पूर्ववत् ॥ सू० १९॥
सूत्रम्--जे भिक्खू गाममहाणि वा णगरमहाणि वा णिगममहाणि वा खेडमहाणि वा कब्बडमहाणि वा मडंबमहाणि वा दोणमुहमहाणि वा पट्टणमहाणि वा आगरमहाणि वा संबाहमहाणि वा संनिवेसमहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥ सू०२०॥
छाया-यो भिक्षुमिमहान् वा नगरमहान् वा निगममहान् वा कर्बटमहान् वा मडम्बमहान् वा द्रोणमुखमहान् वा पत्तनमहान् वा आकरमहान् वा संवाहमहान् वा संनिवेशमहान् वा चक्षुदर्शनप्रतिज्ञया अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥२०॥
चूर्णी- जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्ख्' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गाममहाणि वा' ग्राममहान् वा, तत्र ग्रामस्य महा उत्सवा ग्राममहाः ग्रामोत्सवा इत्यर्थः तान 'मेला' इति भाषाप्रसिद्धान् एवं नगरादिशब्दानां व्याख्या पूर्वसूत्रतो विज्ञेया, तेषां नगरादीनां पूर्वोक्तानां सर्वेषां महान् नगरायुत्सवान् 'चक्खुदंसणवडियाए चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञया इत्यादि न्याख्या पूर्ववत् ॥ सू० २०॥
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निशीथस्त्रे
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सूत्रम्--जे भिक्खू गामवहाणि वा णगरवहाणि वाणिगमवहाणि वा खेडवहाणि वा कबडवहाणि वा मडंववहाणि वा दोणमुहबहाणि वा पट्टणवहाणि वा आगरवहाणि वा संवाहवहाणि वा संनिवेसवहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ।। सू० २१॥
छाया-यो भिक्षुमवधान वा नगरवधान् वा निगमवधान् घा खेटवधान वा फटवधान् वा मडम्बवधान् वा द्रोणमुखवधान् वा पत्तनवधान् वा आकरवधान वा संवाहवधान् वा संनिवेशवधान् वा चक्षुर्दर्शनप्रतिमया अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गामवहाणि वा' ग्रामवधान् वा तत्र ग्रामस्य वधा ग्रामवधाः देवताराजाद्युपद्रवेण ग्रामघाताः ग्रामविनाशाः, तान् वधस्य नानाप्रकारकत्वादत्र बहुवचनम् । एवमग्रेऽपि विज्ञेयम् , एवं नग रादीनां पूर्वव्याख्यातानां वधान् 'चक्ख़ुदसणवडियाए' इत्यादि व्याख्या पूर्ववत् ।। सु० २१॥
सूत्रम्--जे भिक्खू गामपहाणि वा णगरपहाणि वा निगमपहाणि वा खेडपहाणि वा कव्वडपहाणि वा मडंवपहाणि वा दाणसुहपहाणि वा पट्टणपहाणि वा आगरपहाणि वा संवाहपहाणि वा संनिवेसपहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेत वा साइज्जइ ॥ सू० २२॥
छाया-यो भिक्षुग्रामपथान् वा नगरपथान् वा निगमपथान् वा खेटपथान् वा कच्यडपथान् वा द्रोणमुखपथान् वा पत्तनपथान् वा आकरपथान् वा संवाहपथान् वा संनिवेशपथान् वा चक्षुर्दर्शनप्रतिक्षया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥ सू०२२॥
चूर्णी- 'जे मिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गामपहाणि वा' ग्रामपथान् वा, तत्र ग्रामस्य पन्थानः मार्गाः ग्रामपथाः तान् , यत्र ग्रामादौ नुतनमार्गाणां दर्शनीयादिगुणविशिष्टानां निर्माणं कृतं भवेत् तादृशान् मार्गान् , एवं नगरादीनां तादृशान् मार्गान् 'चक्खुदसणवडियाए' इत्यादि पूर्ववत् स्वयं व्याख्येयम् ।। सू० २२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गामदाहाणि वा णगरदाहाणि वा निगमदा. हाणि वा खेडदाहाणि वा कब्बडदाहाणि वा मडंबदाहाणि वा दोणमुहदाहाणि वा पट्टणदाहाणि वा आगरदाहाणि वा संवाहदाहाणि वा संनिवेसदाहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ।। सू० २३॥
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पूर्णिभाष्यावरि: उ०१२ सू०२४-२७ अश्वादीनां शिक्षायुद्धादिस्थानदर्शनेच्छानिषेधः २९५
छाया-यो भिक्षुमिदाहान् वा नगरदाहान् घा निगमदाहान् वा 'खेटदाहान् कर्घटदाहान् वा मडंवदाहान् वा द्रोणमुखदाहान् वा पत्तनदाहान् वा आकरदाहान् वा संवाहदाहान् वा संनिवेशदाहान् वा चक्षुदर्शनप्रतिक्षया अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥सू० २३॥ . चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गामदाहाणि वा' प्रामदाहान् वा, तत्र ग्रामस्य दाहाः वह्निना प्रज्वलनानि, तादृशान् ग्रामदा-- हान्, एवं नगरादीनां दाहान् 'चक्खुदंसणवडियाए' इत्यादि पूर्ववत् । सू० २३। .
सूत्रम्-जे भिक्खू आसकरणाणि बा हस्थिकरणाणि वा उट्टकर. णाणि वा गोणकरणाणि वा महिसकरणाणि वा सूयरकरणाणि वा चक्खुदसणवडियए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥ सू० २४॥
छाया-यो भिक्षुरश्वकरणानि वा हस्तिकरणानि वा उष्ट्रकरणानि वा गोकरणानि वा महिपकरणानि वा शूकरकरणानि वा चक्षुदर्शनप्रतिचया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'आसकरणाणि वा' मश्वकरणानि-अश्वकरणस्थानानि, यत्राश्चानां करणानि विनयादिशिक्षणानि क्रीडनानि वा भवन्ति तानि अश्वकरणानि तादृशस्थानानि अश्वशिक्षणक्रीडनस्थानानीत्यर्थः, 'हत्थिकरणाणि वा' हस्तिकरणानि वा-हस्तिशिक्षणक्रीडनस्थानानि, एवम् 'उट्टकरणाणि वा' उष्ट्रकरणानि वा-उष्ट्राणां शिक्षणक्रीडनस्थानानि, 'गोणकरणाणि वा' गोकरणानि वा-गोत्रीणां गोपुरुषाणां वा शिक्षणक्रीडनस्थानानि, 'महिसकरणाणि वा' महिषकरणानि वा-महिषशिक्षणक्रीडनस्थानानि वा, 'सूयरकरणाणि वा' शूकरकरणानि वा-शूकरशिक्षणक्रीडनस्थानानि वा 'चक्खुदंसणवडियाए' इत्यादि पूर्ववत् ।। सू०.२४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आसजुद्धाणि वा हथिजुद्धाणि उट्टजुद्धाणि वा महिसजुद्धाणि वा सूयरजुद्धाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ।। सू० २५॥
___ छाया-यो भिक्षुरश्वयुद्धानि हययुद्धानि वा उष्ट्रयुद्धानि वा गोयुद्धानि वा महिपयुद्धानि वा शूकरयुद्धानि वा चक्षुदर्शनप्रतिश्या अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥सू. २५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'आसजुद्धाणि वा' अश्वयुद्धानि वा-अश्वयोरश्वानां वा विनोदाथ परस्परं युद्ध कार्यते स्वयं
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निशीथसूत्रे
या तानि युद्धकरणस्थानानन्यर्थ एवम् हस्यादीनां युद्धस्थानानि 'चक्खुदंसयापूर्वदन | सू० २५॥
सूत्रम् - जे भिक्खु गाउजूहियाणाणि वा हयजूहियठाणाणि वा गय. जहियाणाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइ ज्जइ ॥ ० २६ ॥
छाया -यो भिक्षु गोयूथिकस्थानानि वा हययूयिकस्थानानि या गजयूथिकस्यानानि या प्रनिनया अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥सू० २६|| चूर्णी- 'जे भिक्खु' इत्यादि । 'जे भिक्खु' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गाउजयिठाणाणि वा' गोयूधिकस्थानानि वा गोयृथानां मोसमुदायानां यानि स्थानानि नानि गोथिकस्थानानि तानि अथवा गोमिथुनस्थानानि गोयूथिकस्थानानि, एवमग्रे सर्वत्रापि - विम, 'हरियाणाणि वा हयपृथिकस्थानानि वा 'गयजहियठाणाणि वा' गजयूथिकस्थामानि वा 'चरणवडियाए' इत्यादि पूर्ववत् ॥ सु० २६ ॥
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सूत्रम् — जे भिक्खु अभिसेयाणाणि वा अक्खाइयठाणाणि वा माम्माणमाणाणाणि वा महयाहयनट्टगीयवाइयतंतातलतालतुडिय. मुगपपवाइयग्वाणाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभि. संधारतं वा माइज्जइ ॥ सृ० २७॥
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छाया -यो भिक्षुरभिषेकस्थानानि या आख्यापिकास्थानानि वा मानोन्मानमानिया महाहनृत्यगीतवादियनन्त्री तलना लघुटिन घन मृदपटुवादितरवस्थानानि या प्रतितया अभिसन्धारयति वभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥ सु० २७ ॥ पूर्वी 'जे भिम्' इत्यादि । 'जे भिक्स' यः कचिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अभियागाणि वा अभिषेrस्थानानि वा, यत्र गृर्धाभिषिकराजामभिषेकादि भवति ताहस्थानानि मिस्थानानि 'स्वागठाणाणि वा' आग्यायिकास्थानानि वा, यत्र भारसमय परिवार स्थानानि 'माणुम्माणपमाणटाणाणि वा' मानोन्मानप्रमाणस्थायमानम्, न तुत्र्या उद्त्य दीयते तद् उन्मानम्, दिन प्रमाणिकृत प्रमाणम, यौन प्रकारेण वस्तुनां क्रय विक्रयो मनि धन्यादिवस्तुवियस्थानानं यर्थः, 'महगायनहगीयवाइय नावाणापि नामदाननादिना घुटितधनमृदङ्गनृनादि भवति तत्रानिवदेन दिनानि पट्पुरुषेण
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दुनि
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १२ सू० २८-३० डिम्यादि-महोत्सवगतस्त्र्यादिर्दशन-रूपासक्तिनि२९७ प्रवादितानि यानि वादित्राणि तंत्रीतलतालत्रुटितघनमृदङ्गरूपाणि, तेषां रवः शब्दो भवति तादृशानि स्थानानि, एतानि उपर्युक्तस्थानानि 'चक्खुदंसणवडियाए' इत्यादि सुगमम् ।। सू० २७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू डिवाणि वा डमराणि वा खाराणि वा वेराणि वा महाजुद्धाणि वा महासंगामाणिवा कलहाणि वा बोलाणि वा चक्खुदंसण वडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ।। सू० २८॥
छाया-यो भिक्षुः डिम्बानि वा डमराणि वा क्षाराणि वा वैराणि वा महायुद्धानि वा महासंग्रामान् वा कलहान् वा बोलान् वा चक्षुदर्शनप्रतिशया अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥सू० २८ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'डिवाणि' डिम्बानि-राष्ट्रविप्लरूपाणि तेषां स्थानानि स्थानानीति पदं सर्वत्र योज्यम् । 'डमराणि वा' डमराणि वा, तत्र डमगणि नाम राष्ट्रस्य बाह्याभ्यन्तरजनकृतोपद्रवान्तेषां स्थानानि, 'खाराणि वा' क्षाराणि वा क्षारा नाम परस्परमन्त₹षाः तजनितोपद्रवस्थानानि, 'वेराणि वा' वैराणि वा, वैराणि नाम वंशपरम्पराऽऽगता द्वेषास्तत्समुत्पादितकलहादि स्थानानि, 'महाजुद्धाणि वा' महायुद्धानि वा, तत्र महायुद्धानि नाम अनेकेषां पुरुषाणां जायमानानि कलहादीनि, तेषां स्थानानि शस्त्रादिप्रहारस्थानानि वा 'महासंगामाणि वा' महासंग्रामान् चतुरंगिणीसेनाद्वारा जायमानशस्त्रादिप्रहारस्थानानि 'कलहाणि वा' कलहान् वा कलहस्थानानि 'वोलाणि वा' बोलानि बा, तत्र वोलाः कलकलशब्दाः, तेषां स्थानानि, एतानि पूर्वोक्तानि डिम्बादीनि यः श्रमणः श्रमणी वा 'चक्खुदसणवडियाए' इत्यादि सुगमम् ॥ स्० २८॥
सूत्रम्-जे भक्खू विरूवरूवेसु महुस्सवेसु इत्थीणि वा थेराणि वा मज्झिमाणि वा डहराणि वा अणलंकियाणि वा सुअलंकियाणि वा गायंताणि वा वायंताणि वा नच्चंताणि वा हसंताणि वा रमताणि वा मोहंताणि वा विपुलं असणं वो पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परिभायंताणि वा परिभुजंताणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥ सू० २९॥
छाया-यो भिक्षर्विरूपरूपेषु महोत्सवेषु स्त्रीर्वा पुरुषान् वा स्थविरान वा मध्यमान् वा डहरान् वा अनलकृतान् वा स्वलकृतान् वा गायतो वा
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निशीथसूत्रे वादयतो वा नृत्यतो वा हसतो वा रममाणान् वा मोहयतो वा पिपुलमशन वा पानं वा खाद्यं वा स्वाध का परिभाजयतो वा परिभुजानान् वा चक्षुर्दर्शनप्रतिक्षया अभिसंधार. यति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते । सू० २९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इस्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमण' श्रमणी वा 'विख्वरूवेसु' विरूपरूपेषु अनेकप्रकारेषु विलक्षणेषु वा 'महुस्सवेसु' वा महोत्सवेषु महान्तश्च ते उत्सवाश्चेति महोत्सवा', तेषु इन्द्रमहोत्सवादिपु, यद्वा यत्रोत्सवे अनेकप्रकारकाः धनिका आढयतमा' अकिंचनाश्चापि संमिलिता भवन्ति, यद्वा-अनेकप्रकारकाः श्रेष्ठिनो राजानो राजपुरोहिततलवगदयो मिलिता भवन्ति ताशा उत्सवा महोत्सवाः, तादृशमहोत्सवेषु 'इत्थीणि वा' स्त्रियो वा पूर्वोक्तमहोत्सवेषु संमिलिताः स्त्रिय इत्यर्थः 'पुरिसाणि वा' पुरुपान् वा साधारणतः पुरुषवर्गानित्यर्थः, 'थेराणि वा' स्थविरान् वा, तत्र स्थविराः परिपकवयसः तान् वा 'मज्झिमाणि वा' मध्यमान् वा वयसो मध्ये स्थितानित्यर्थः, 'डहाराणि वा' डहरान् वा, तत्र डहराः-अल्पवयस्काः तान् तादृशमहोत्सवे समुपस्थितान् , कीदृशान् तान् ! तत्राह-'अणलंकियाणि वा' अनलकृतान् वा कटककुण्डलाघलङ्काररहितान् वा 'मुअलंकियाणि वा' स्वलङ्कृतान् वा कटककुण्डलायङ्कारेण सुसज्जितवेषान् वा 'गायंताणि वा' गायतो वा तादृशमहोत्सवे संमिलितपुरुपेपु मध्ये केचन गानं कुर्वन्ति तान् गानं कुर्वतो वेति 'वार्यताणि वा' वादयतो वा, तलतालमृदङ्गादि वाद्य वादयतो वा 'गच्चंताणि वा' नृत्यतो वा नृत्यं कुर्वतो वा 'हसंताणि वा' हसतो वा अनेकप्रकारकहासोपहासलास्यादिकं कुर्वतो वा 'रमंताणि वा' रममाणान् वा अनेक प्रकारकक्रीडां कुर्वतो वा 'मोहंताणि वा' मोहयतो वा तादृशीं चेष्टां ये कुर्वन्ति यया परेषां मोह उत्पादितो भवेत् तादृशान् मोहोत्पादकानित्यर्थः । पुनः किं कुर्वतस्तान् । तत्राह-विउलं' इत्यादि । 'विउलं' विपुलमत्यधिकम् 'असणं वा' ४ अशनं वा ४ चतुर्विधमाहारजातम् 'परिभायंताणि वा' परिभाजयतो वा अशनादिभोज्यवस्तूनां परस्पर विभागं प्रविभव्य परस्परमादानप्रदानं कुर्वतो वा 'परिभुजंताणि वा' परिभुज्जानान् वा अशनाधाहारजातमेकत्र स्थित्वाऽऽहरतो वा' एतादृशान् पूर्ववणितप्रकारकान् स्त्रीपुरुषादीन् 'चक्खुदसणवडियाए' इत्यादि पूर्ववत् ।। सू० २९॥ . सूत्रम्-जे भिक्खू. इहलोइएसु वा रूवेसु परलोइएसु वा रूवेसु दिठेसु वा रूवेसु अदिठेसु वा रूवेसु सुएसु वा रूवेसु वा असुएसु वा रूवेसु विन्नाएसु वा रूवेसु अविन्नाएसु वा रूवेसु सज्जइ रज्जइ गिज्झइ अज्झोववेज्जइ सज्जंत वा रज्जत वा गिज्झतं वा अज्झोववज्जत वा साइज्जइ ॥ सू० ३०॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १२ सू० ३०-३३ आहारादिमर्यादाऽतिक्रमणनिषेधः २९९
छाया-या भिक्षुरैहलोकिकेपु वा रूपेषु पारलोकिकेषु वा रूपेषु दृष्टेषु वा रूपेषु अदृष्टेषु वा रूपेषु विज्ञातेपु वा रूपेषु अविज्ञातेपु वा रूपेषु स्वजति रज्यति गृध्यति अध्युपपद्यते स्वजन्तं वा रज्यन्तं वा गृध्यन्तं वा अध्युपपद्यमानं वा स्वदते ।।सू०३०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'इहलोइएसु वा स्वेसु' ऐहलोकिकेषु वा रूपेषु, तत्र ऐहलोकिकाः मनुष्यत्र्यादिपदार्थाः तत्सम्बन्धिषु रूपेषु अनुरागकारणभूतपदार्थेषु 'परलोइएसु वा रूवेसु' पारलोकिकेषु वा, तत्र पारलोकिको देवदेव्यादिहस्तितुरगादिर्वा, तत्संबन्धिपु रूपे अनुकूलवेदनीयेपु रूपादिपरार्थनातेषु 'दिउसु वा रूवेसु' दृष्टेषु वा रूपेषु पूर्व प्रत्यक्षतो दृष्टेषु रूपादिषु वस्तुजातेषु 'अदिढेसु वा रूवेसु' अदृष्टेषु वा रूपेषु, तत्रादृष्टा देवादयः तत्सबन्धिषु रूपादिपु 'सुएसु वा रूवेसु' श्रुतेषु वा रूपेषु श्रवणेन्द्रियेण साक्षात्कृतेषु श्रवणेन्द्रियजन्यज्ञानविषयतावत्सु अनुकूलवेदनीयपदार्यजातेषु 'असुएसु वा रूवेसु' मश्रुतेषु कर्णपथमनागतेषु वा रूपेषु पदार्थजातेषु 'विन्नाएसु वा रूवेमु' विज्ञातेषु वा रूपेषु वर्तमानकालिकानुभवात्मकज्ञानविषयतावत्सु पदार्थजातेषु 'अचिन्नाएसु चा रूवेम' अविज्ञातेपु वा रूपादिपु मानसिकानुभवात्मकज्ञानविषयेषु अनुकूलवेदनीयपदार्थजातेषु उपर्युक्तहलोकिकादिपदार्थजातेषु यः श्रमणः श्रमणी वा 'सज्जइ' स्वजति आसक्तिमान् भवति 'रज्जइ' रज्यति तस्मिन् रूपादिषु अनुरागवान् भवति 'गिज्झइ' गृद्धयति रूपादिपदार्थेषु गृद्धिमान् भवति तेषु गृद्धिभावं प्राप्नोति, तत्र सर्वदा समुपलभ्यमानेष्वपि अभिरमणं गृद्धिः तां प्राप्नोति 'अज्झोववज्झइ' अध्युपपद्यते अतिशयेनासक्तिमान् भवति तथा 'सज्जत' स्वजन्तम्-आसक्ति कुर्वन्तम् 'रज्जत' रज्यन्तम् रूपादिष्वनुगगं कुर्वन्तम् 'गिज्झंत' गृद्धयन्तं रूपादिषु गृद्धिभावं कुर्वन्तम् 'अज्झोववज्जतं' अध्युपपद्यमानम् अतिशयेनासक्ति कुर्वन्तम् 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तेपु सङ्गादिकरणेन चारित्रपतनसंभवादिति ॥ सू० ३०॥
सूत्रम्--जे भिक्खू पढमाए पोरिसीए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेइ उवाइणावंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३१॥
छाया-योअिक्षुः प्रथमायां पौरुण्यामशन वा पानं वा खाद्यं वा स्वाधं वा प्रतिगृह्य पश्चिमां पौरुषीमतिकामति अतिक्रामन्तं वा स्वदते ।। सू० ३१॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू य. कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पढमाए पोरिसीए' प्रथमायां पौरुष्याम् दिवसस्य प्रथमपौरुष्यामित्यर्थः 'असणं वा ।' अशनं वा १ चतुर्विधाहारजातम् 'पडिग्गाहेत्ता' प्रतिगृह्य-गृहस्थेभ्य आनीय 'पच्छिमं पोरिसिं'
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निशीथसूत्रे
३००
पश्चिमां पौरुषीं दिवसस्य चरमपौरुपी मित्यर्थः, 'उवाइणावेड' अतिक्रामति उल्क्ष्यति चरमपौरुपीपर्यन्तं स्थापयतीत्यर्थः ‘उवाइणावेंतं वा साइज्जइ' अतिकामन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति पर्युषितदोपसंभवात् ॥ सू० ३१ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ परेण असणं वा ४ उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३२ ॥
छाया - यो भिक्षुः परमर्द्धयोजनमर्यादातः परेण अशनं वा ४ अतिक्रामयति अतिक्रामयन्तं वा स्वदते || सू० ३२||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'परं अद्धजोयणमेराओ' परमर्द्धयोजनमर्यादातः - कोशद्वयमर्यादातोऽग्रे 'परेणं' परेण अन्येन श्रावकादिना श्राचकादिद्वारा समानीतमित्यर्थः ' असणं वा ४' अशनं वा चतुर्विधमाहारजातम् 'उवाइणावेइ' अतिक्रामयति-अशनादेरुल्लंघनं कारयति अर्थात् अत्र गृहीतमाहारं क्रोशद्वयादधिकमपि दूरं भोक्तुमन्यद्वारा नयति, अथवा क्रोशद्वयादपि अधिक दूरतो ऽशनादिकमाहारजातं परद्वारा आनयति आनयनं कारयति तथा 'उवाइणावेंतं वा साइज्जइ' अतिक्रामयन्तं वा स्वदते अनुमोदते, क्रोशद्वयादधिकदूरमशनादि परेण यः नर्यात आनयति वा तं तादृशं श्रमणमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू०३२॥
सूत्रम् — जे भिक्खू दिया गोमयं पडिग्गाहेत्ता दिया कार्यंसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिपेज्ज वा आलितं वा विलिपतं वा साइज्जइ ॥
छाया - यो भिक्षुर्दिवा गोमयं प्रतिगृह्य दिवा काये व्रणमालिम्पेत् वा विलिम्पेत् वा आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३३||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिया' दिवा - दिवसे 'गोमयं' गोमयं 'गोवर' इति भाषाप्रसिद्धम् 'पडिग्गाहेत्ता प्रतिगृह्य - रात्रौ स्थापयित्वा 'दिया' दिवा - द्वितीयदिवसे 'कार्यसि वर्णं' काये व्रणम् तत्र काये शरीरे जायमानं पामादिजन्यं व्रणम् 'आलिपेज्ज वा' आलिम्पेत् वा एकवारम् 'विंलिंपेज्ज वा' विलिम्पेत् वा अनेकवारम् | 'आलिंपतं वा' आलिम्पन्तं वा एकवारं लेपकुर्वन्तं 'विलिपतं वा' विलिम्पन्तं वा अनेकवारं लेषं कुर्वन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सु० ३३ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू दिया गामयं पडिग्गाहेत्ता रत्ति कार्यंसि वर्णं आलिपेज्ज वा विलिपेज्ज वा आलिंपतं वा विलितं वा साइज्जइ ॥ सू० ३४ ॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ १२ सू०३४.४२ गोमया-लेपनजातमर्यादातिक्रमो-पधिवाहननि० ३०१
छाया-यो भिक्षुर्दिवा गोमयं प्रतिगृहा रात्रौ काये व्रणम् आलिम्पेत् वा विलिम्पेतू वा आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते । सू० ३५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिया गोमयं पडिग्गाहेत्ता' दिवा दिवसे गोमयं प्रतिगृह्य 'रर्ति' रात्रौ रजन्यां 'कायंसि' काये शरीरे संजायमानम् 'वर्ण' वणं पामादिजन्यम् 'आलिंपेज्ज वा' आलिम्पेत् वा एकवारम् 'विलिंपेज्ज वा विलिम्पेत् वा भनेकवारं 'आलिंपतं वा' आलिम्पन्तं वा 'विलिपंतं वा विलिम्पन्तं वा 'साइज्जई' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । रात्री कस्यापि वस्तुनः संग्रहनिषेधात् ।। सू० ३४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रत्तिं गोमयं पडिग्गाहेत्ता दिया कायंसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिपेज्ज वा आलिपंतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ ॥३५॥
छाया-यो भिक्षुः रात्रौ गोमयं प्रतिगृह्य दिवा काये व्रणमालिम्पेत् वा विलिम्पेत् वा आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते ।। सृ० ३५।।
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'रत्ति' रात्रौ रजन्याम् 'गोमयं पडिग्गाहेत्ता' गोमयं प्रतिगृह्य गृहीत्वा 'दिया कायंसि वर्ण' दिवा दिवसे द्वितीयदिवसे काये शरीरे संजायमानं व्रणम् 'आलिंपेज्ज वा' आलिम्पेत् वा 'विलिंपेज वा' विलिम्पेत् वा आलिंपतं वा विलिपंतं वा साइज्जई' आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । रात्रौ कस्यापि वस्तुनो ग्रहणनिषेधात् , पर्युषितदोषसंभवाच्च ।। सू० ३५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रतिं गोमयं पडिग्गाहेत्ता रतिं कायंसि वणं अलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा आलिपंतं वा विलिंपंतं वा साइज्जइ ॥
छाया-यो भिक्षुः रात्रौ गोमयं प्रतिगृह्य रात्रौ काये व्रणमालिम्पेत् वा विलिम्पेत् वा आलिम्पन्त वा विलिम्पन्तं वा स्वदते ।। सू० ३६॥
चर्णी_जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'रत्ति' रात्रौ रजन्याम् ‘गोमयं पडिग्गाहेत्ता' गोमयं प्रतिगृह्य गृहीत्वा रत्ति' रात्रौ रजन्याम् तस्यामेव रजन्यां द्वितीयरनन्यां वा 'कार्थसि वर्ण' काये शरीरे संजायमानं व्रणम् 'आलि. पेज्ज वा' आलिम्पेत् वा 'विलिंपेज्ज वा' विलिम्पेत् वा 'आलिपतं वा विलिपतं वा साइज्जई' आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, रात्रौ ग्रहणस्य संग्रहस्य परिभोगस्य च दोपसद्भावेन निषिद्धत्वात् ।। सू० ३६॥
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निशीथसत्र ३०१
सूत्रम्-जे भिक्खू दिया आलेवणजायं पडिग्गाहेत्ता दिया कार्यसि वणं आलिपेज्ज वा विलिपेज्ज वा आलिंपंतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ ।। सू०३७॥
छाया-'यो भिक्षुर्दिवा आलेपनजातं प्रतिगृह्य दिवा काये व्रणमालिम्पेत् वा विलिम्पेत् वा आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते ॥सू० ३७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिया' दिवा-दिवसे 'आलेवणजाय पडिग्गाहेत्ता' आलेपनजातम् विलेपनद्रव्यं प्रतिगृह्य गृहीत्वा रात्रौ स्थापयित्वा 'दिया' दिवा-द्रितीयदिवसे 'कायंसि वर्ण' काये शरीरे शरीरावयवे वा व्रण पामाभगन्दरादिकम् आलिंपेज्ज वा' आलिम्पेत् वा 'विलिंपेज्ज वा' विलिम्पेत् वा 'आलिंपन वा विलिपंतं वा साइज्जई' आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ३७॥ एवं पूर्वोक्तसूत्रं सगृह्य चत्वारि सूत्राणि-आलपनजातविपयायपि गोमयसूत्रवदेव व्याख्येयानि ॥मू० ३८-३९-४०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा उवहिं वहावेइ वहावतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४१॥
. . छाया -यो भिक्षुरन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा उपधिं वाहयति वाहयन्तं वा स्वदते ॥सू० ४॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अन्नउस्थिएण वा अन्ययूथिकेन वा अन्यतीर्थिकेण पुरुषेण स्त्रि यावा 'गारस्थिएण वा गृहस्थेन वा गवकेण तद्भिन्नेन वा येन केनापि, श्राविकया तद्भिन्नया वा 'उवहिं वहावेइ' उपधि स्वकीयवस्नपात्रादिकम् वायति एकस्मात् स्थानात् स्थानान्तरं प्रापयति 'बहावेत वा साइज्जइ" वाहयन्तं प्रापंयन्त वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, गृहस्थादिना कस्यापि कार्यस्य कारणे साधोरविरतिदोषप्रमङ्गात् ॥ सू० ४१॥
सूत्रम्--जे भिक्खू तन्नीसाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ॥ मू० ४२॥ .
छाया--यो भिक्षुः नन्निश्रयाऽशन वा पान वा खाद्यं वा स्वाद्य वा ददाति' ददनं वा स्वद । सू० ४२॥ ।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'तन्नीसाए' तन्निश्रया-उपधिवहनादिकार्यनिश्रया उपध्यादिवाहकाय 'अयं मे उपधि वहती'-ति
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चूर्णिभाभ्यावचूरिः उ० १२ सू० ४३-४४ मासिकद्वत्रिचारगङ्गादिमहानद्युत्तरण निषेधः ३०३ कृत्वा, उपलक्षणादन्यस्मै वा कस्मैचिद् गृहस्थाय बालकादिभ्यो वा 'असणं वा ४' अशनं वा ४, चतुर्विधमाहारजातम् 'देइ' ददाति अन्यस्माद्दापयति वा 'देतं वा साइज्जई' ददतं वा स्वदते । यो हि अन्ययूथिकादिभ्यः कार्यमुपधिवाहनादिकं कारयित्वा तेभ्यः तन्मूल्यरूपेणानु - ग्रहेण वा आहारादिकं ददाति दापयति ददतमनुमोदते वा स प्रायश्चित्तभागी भवति, भिक्षिताशनादेरन्यस्मै दाने साघोरनधिकारित्वात् भगवतानिषिद्धत्वाच्च ॥ सू० ४२ ॥
S
सूत्रम् - जे भिक्खू इमाओ पंच महण्णवाओ महानईओ उद्दिट्ठाओ गणियाओ वंजियाआ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरइ वा संतरइ वा उत्तरंतं वा संतरंतं वा साइज्जइ । तं जहा- गंगा, जउणा, सरऊ, एवई, मही- ति ॥ सू० ४३ ॥
छाया - यो भिक्षुरिमाः पञ्च महार्णवा महानद्य उद्दिष्टा गणिता व्यञ्जिता अन्तर्मासस्य द्विकृत्वो वा त्रिःकृत्वो वा उत्तरति संतरति उत्तरन्तं वा सन्तरन्तं वा स्वदते तद्यथा - गङ्गा, यमुना, सरयू, ऐरावती, मही, इति ॥ सू० ४३||
चूर्णी -- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'इमाओ' इमा - वक्ष्यमाणाः 'पंच' पञ्च पञ्चसंख्याविशिष्णः 'महण्णवाओ' महार्णवाः समुद्रतुल्याः, आसां पञ्चनदीनां महार्णवतुल्यता च बहूदकत्वेन तथा आयामविस्ताराभ्यां वा यथा समुद्रो बहूद्दको दीर्घो विस्तृतश्च तथैव एता अपि बहूदकाः दीर्घा विस्तृताश्च सन्ति अत एव 'महाईओ' महानथः यत एव बहूदकादिविशिष्टा अत एव महानदीपदवाच्याः 'उद्दिट्ठाओ' उद्दिष्टाः कथिताः 'गणियाओ' गणिताः अन्यनदीषु महत्त्वेन गणनां प्राप्ताः 'पंजियाओ' व्यञ्जिताः प्रकटीकृता शास्त्रे प्रतिपादिता वा, एता महानदी 'अंतो मासस्स' अन्तर्मासस्य एकस्य मासस्यान्त'–मध्ये ' दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा' द्धिःकृत्वो वा त्रिःकृत्वो वा द्विवारं वा त्रिवारं वा 'उत्तरइ चा संतरइ वा' उत्तरति वा सतरति वा, तत्र निरन्तरं तरणम् उत्तरणं चरणाभ्यां पारकरणम्, संतरणं नावादिना पारकरणम् । गाढतरकारणाभावे नदीनामुत्तरणे संतरणे चाष्कायिकस्य विराधने संयमविराधनम्, तथा गर्त्तादौ चरणपतनात् पारकरणसमये जलपूरागमनाच्च आत्मविराधनम् । अनेन प्रकारेण मासाभ्यन्तरे यः श्रमणः श्रमणी वा द्विवारं वा त्रिवारं वा उत्तरति सन्तरति वा तथा 'उत्तरंतं वा संतरंतं वा साइज्जइ' उत्तरन्तं वा सन्तरन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः
भाष्यम् – जड़ होज्ज य थलमग्गो, जलेण गच्छेज्ज नेव पाएहिं । नेव दुरोदे णावं, तत्थावायाण संभवओ ||
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निशीयसूत्र ३०४ छाया-- यदि भवेच्च स्थलमार्ग', जलेन गच्छेत् नेव पादाभ्याम् ।
नैव दूरोहेत् नावं, तत्राऽपायानां संभवतः । अवचूरि:-यदि ग्लानस्य साधोयावृत्यादिके गाढतरे कारणे समुपस्थिते सति गमनमावश्यकं भवेत् तदा यदि तत्र गमनाथ स्थलमागों दृरतरोऽपि भवत तर्हि जलेन नद्यादिजलमार्गेण पादाभ्यां नैव गच्छेत् . नैव च नाव दूरोहेत् नौकोपरि नोपविशेत् , किमर्थमित्याह-तत्र णदाभ्यां नौकया वा गमने-अपायानां विघ्नानां वहूनां सभवात् । अपाया द्विविधाः-सयमापायाः आत्मापायाश्च । तत्र नदीजले पादाभ्यां गमने अप्कायस्य पादप्रहारेण तत्रस्थितत्रसकायानां मण्डकमत्स्यादीनां च विराधनारूपा अनेके संयमापाया भवन्ति । जले गादी पाद. पतनात् तत्समये जलपूरस्यागमनादिना चानेके आत्मापाया अपि भवन्ति, एवं नौकया गम नेऽपि विज्ञेयम् , तथाहि-नौकायाः संचरणेन जलविलोडनं भवति तेनाप्कायस्य तदधोगतानां त्रसाणां मण्डूकमत्स्यलघुजलचरादिजीवानां च विराधना भवति तेन संयमापायसंभवः, तथा नौकाया बुडनभञ्जनादिना-आत्मापायसंभवः, ततः संयमात्मविराधनादोपसद्भावात् दूरतरस्थलमार्गसंभवे साधुर्जलमार्गेण नो गच्छेदिति भावः ॥ सू० ४३॥
सूत्रम्--तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ।। सू० ४४॥
॥निसीहज्झयणे वारसमो उद्देसो समत्तो ॥१२॥ छाया--तं सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ॥४॥
॥ निशीथाध्ययने द्वादश उद्देशः समाप्तः ॥१२॥ चूर्णी-तं सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् सेवमानः, तत उद्देशकादौ कथिनप्रसपाणजातिबन्धनादारभ्योद्देशकान्ते वर्णितनदोसंतरणपर्यन्तमायश्चित्तम्थानमध्यात् एकमनेकं सर्व वा प्रायश्चित्तस्थानं 'सेवमाणे' सेवमानः समाचरन् श्रमणः श्रमणी वा 'आवज्जड' आप द्यते प्रामोति 'चाउम्मासियं' चातुर्मामिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम् प्रायश्चित्तस्थानम् 'अणुग्याइयं' अनुद्घातिकम्-लघुमासिकमित्यर्थः ॥ सू० ४४|| इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक - प्रविशुद्धगद्यपदनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् द्वादशोद्देशकः समाप्तः ॥१२॥
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त्रयोदशोद्देशकः॥ गतो द्वादशोदेशकः, सम्प्रति त्रयोदशोद्देशको व्याख्यायते, तत्र द्वादशोदेशकान्तिमसूत्रेण सहास्य त्रयोदशोद्देशकादिसूत्रस्य कः सम्बन्धः ?-इति चेदत्राह भाष्यकारभष्यम्-नावाइणा उत्तरिय, काउस्सग्गं करे मुणी ।
कत्थ कुज्जा न वा कुज्जा, संबंधो इरिओ इहं । छाया--नावादिना उत्तीर्य कायोत्सर्ग कुर्यात् मुनिः ।
कुत्र कुर्यात् न धा कुर्यात् सम्बन्ध ईरित इह ॥ अवचूरिः-'नावाइणा' इत्यादि । द्वादशोद्देशकस्यान्तिमसूत्रे गङ्गादिका पञ्च महानद्यो वर्णिताः, ता नदीः कारणवशात् मासाभ्यन्तरे द्विवारं त्रिवारं वा उत्तरति तदा तस्य प्रायश्चित्तं कथितम्, तत्र नावादिना ता महानदीः समुत्तीर्य्य पारं गत्वा ऐOपथिकः कायोत्सर्गः अवश्यमैव कर्तव्यः । स च कुत्र स्थाने कर्तव्यः कुत्र न कर्तव्यः ? इति विचारणायां सचित्तपृथिव्यां न कर्तव्यः, एतस्य निषेधस्य वर्णनाय त्रयोदशोदेशकः प्रारभ्यते, अस्मिन् उद्देशके सचित्तपृथिव्यादिषु समुपविश्यैर्यापथिकाद्यावश्यककार्यकरणे प्रायश्चित्तं कथयिष्यते, अयमेव सम्बन्धः पूर्वापरसूत्रयोर्भवति, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य त्रयोदशोदेशकस्य प्रथमसूत्रमाह
सूत्रम्-जे भिक्खू अणंतरहियाए पुढवीए ठाणं वा सेज्ज वा णिसेज्जं वा णिसीहियं वा चेएइ चेएंतं वा साइज्जइ ॥सू० १॥
छाया-यो भिक्षुरनन्तरहितायां पृथिव्यां स्थानं वा शय्यां वा निषद्या वा नषेधिकी पा चेतयते चेतयमानं वा स्वदते ॥सु०१॥
. चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अणंवरहियाए पुढवीए' अनन्तरहितायां पृथिव्याम् अनन्तेन जीवेन रहिता किन्तु असंख्येयेन जीवेन युक्तता अनन्तरहिता सचित्तेत्यर्थः यतो हि पृथिवी असंख्यातजीवात्मिका भवति न त्वनन्तजीवात्मिका, अतः अनन्तरहितेत्युक्तम् , यद्वा-न अन्तरं व्यवधानम् अनन्तरं जीवव्यवधानरहितं यथा स्यात्तथा हिताः स्थिता अनन्तरहिता व्यवधानरहितजीवयुक्ता सर्वात्मना सचित्तेत्यर्थः । तस्यां सचित्तपृथिव्युपरीत्यर्थः 'ठाणं वा स्थानं वा, तत्र स्थानं कायोत्सर्गः तत् कायोत्सर्गलक्षणं स्थानम् ऊर्ध्वत्वेनावस्थितिरूपं करोति इत्यप्रिमेण सम्बन्धः, उपलक्षणत्वात् त्वग्वर्तनादिकमपि करोति 'सज्ज वा' शय्यां वा तत्र शय्या शरीरप्रमाणा तां, शयनं वा करोति 'णिसेज वा' निषधां वा उपवेशनं वा 'निसीहियं वा' नैषेधिकी वा प्राणातिपातादिनिषेधर्वकं जायमाना क्रिया स्वाध्यायरूपा नैषेधिकी, ताम् 'चैएई' चेतयते करोति 'चेएतं वा साइज्जई' चेतयमानं वा स्वदते । यो हि श्रमणः
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निशीथसूत्रे
अशिवादिकारण विशेषमादाय नावादिना पारं गत्वा तत्र सचित्तपृथिव्यां स्थितः सन तत्रैव सचित्तभूमौ स्थानादिकं करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोपा अपि भवन्तीति ॥ सू० १॥
३०६
सूत्रम् - एवं जे भिक्खू ससणिद्धा पुढवीए० ॥ ०२ ॥ जे भिक्खू ससरक्खा पुढवीए० || सू० ३ ॥ जे भिक्खु मट्टियाकडाए पुढवीए० ॥ सू०४ ॥ जे भिक्खू चित्तमता पुढवीए० || सू० ५ || जे भिक्खू चित्तामंताए सिलाए ॥ सू० ६ ॥ जे भिक्खू चित्तमंताए लेलूए ठाणं वा सेज्जं वा निसेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ चेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७॥
छाया - एवं यो भिक्षुः सस्निग्धायां पृथिव्याम् ० ॥ ०२ ॥ यो भिक्षुः सरजस्कायां पृथिव्याम् ॥ सू० ३|| यो भिक्षुः मृत्तिकाकृतायां पृथिव्याम् || सू० ४|| यो भिक्षुः चित्तवत्यां पृथिव्याम् ॥ ०५ || यो भिक्षुः चित्तवत्यां शिलायाम् ॥ सू० ६|| यो भिक्षुः चित्तवति ले लुके स्थानं वा शय्यां वा निपद्यां वा नेपेधिकी वा चेतयते चेतयंमान वा स्वदते ॥ सू० ७ ॥
चूर्णी - ' एवं जे भिक्खू' इत्यादि । एवम् अनेनैव प्रकारेण 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ससणिद्धाएपुढ़वी, सस्निग्धायां सचित्तजलेन ईप आर्द्रायां पृथिव्याम्० || सू० २ || यो भिक्षुः 'ससरख्खाए पुढवीए' सरजस्कायां = सचित्तसूक्ष्मरेणुगुण्ठितायां पृथिव्याम् ||सू० ३|| यो भिक्षुः 'महियाकडाए पुढचीए' मृत्तिका कृतायां - मृत्तिकया कृतायां संपादितायां लिप्तायां वा सचित्तमृत्तिका - संचयेन पुष्जीभूतायां पृथिव्याम्० ॥ सू० ४ ॥ यो भिक्षुः 'चित्तमंताप पुढवीए' चित्तवत्यां चित्तं - जीवः तद् विद्यते यस्यां सा चित्तवती सूक्ष्मत्रसजीवयुक्ता तस्यां पृथिव्याम् ॥ ०५ ॥ यो भिक्षुः 'चित्तमंताए सिलाए' चित्तवत्यां जीवयुक्तायां शिलायां महापाषाणखण्डरूपायां, यस्याः सन्धिभागेऽधो वा जीवानां संभवात् तस्यां शिलायाम्० || सू० ६॥ यो भिक्षुः 'चित्तमंताए बेलुए, चित्तवति ठेलुके, ठेलुकं नाम मृत्तिकाखण्ड, तस्मिन् 'ठाणं वा' स्थानं कायोत्सर्गे वा उपलक्षणात् त्वग्वर्त्तनादिकमपि, तथा 'सेज्जं वा' शय्यां वा शरीरप्रमाणां शयनं वा, 'निसेज्जं वा' निषद्याम् उपवेशनं वा 'निसीहियं वा' नैषेधिकीं वा स्वाध्यायरूपं क्रियाविशेष वा 'चेएह' चेतयते करोति, 'चेएंतं वा साइज्जइ' चेतयमातं कुर्वन्तं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ७||
सूत्रम् — जे भिक्खू कोलावासंसि वा दारुए जीवपइट्ठिए सअंडे सपाणे सवीए सहरिए सओस्से सउदए सउत्तिगपणगदगमट्टिय
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १३ सू० १-८ सस्निग्धादिपृथिव्यादिषु स्थानादिकरणनिषेधः ३०७ मक्कडासंताणगंसि ठाणं वा सेज्ज वाणिसेज्जं वा णिसीहियं वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ।। सू० ८॥
छाया-यो भिक्षुः कोलावासे वा दारके जीवप्रतिष्ठिते साण्डे सप्राणे सबीजे सहरिते समोसे सोदके सोत्तिंगपनकोदकमृत्तिकामर्फटसंतानके स्थानं वा शम्यां वा निषधां वा नैपेधिकी वा चेतयते चेतयमानं वा स्वदते ।। सू० ८॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । जे भिक्खू' यः कचित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोलावासंसि वा कोलावासे, तत्र कोलाः घुणा तेषाम् मावासे निवासस्थाने एतादृशे 'दारुए' दारुके काप्ठे यत्र काष्ठविशेके घुणाः सन्ति तादृशकाष्ठविशेषोपरि आसनादिकं कुरुते इत्यप्रिमेण सम्बन्धः, तथा 'जीवपइहिए' जीवप्रतिष्ठिते दारुके काष्ठे-यत्र काष्ठविशेपे द्वीन्द्रियादयो जीवासन्ति तादृशजीवप्रतिष्ठितकाष्ठे 'सअंडे' साण्डे दारुके, तत्र अण्डानि गृहगोधिकादीनाम् तथा च यत्र काष्ठे गृहगोधिकादीनामण्डानि सन्ति तादृशदारुके तथा 'सपाणे' सप्राणे दारुके, तत्र प्राणः प्राणवान् जीवः द्वीन्द्वियत्रीन्द्रियादिः पीपिलिकादिः तादृशप्राणयुक्ते काष्ठे तादृशप्राणयुक्तपृथिव्याम् वा तथा 'सबीए' सबीजे दारुके पृथिव्यां वा, तत्र बीजं शाल्यादीनाम् 'सहरिए' सहरिते-अरितबीजसहिते दारुके पृथिव्यां वा तथा च हरितकायविशिष्टे दारुके पृथिव्यां वा 'सओस्से' समोसे 'ओस' इति देशी शब्दो निशाजळवाचकः, तस्मिन्, शीतकाले रात्रौ सूक्ष्मजलविन्दवो निपतन्ति पृक्षादौ संस्थितजलविन्दूनाम् 'मोस' इति नाम भवति, तथा च तादृशओसविशिष्टे दारुके पृथिव्यां बा 'सउदगे' सौदके दारुके जलसंमिश्रितदारुके पृदिव्यां वा 'सउत्तिंगपणगदगमट्टियमक्कड़ासंताणगंसि' सोत्तिंगपनकोदकमृत्तिकामर्कटसन्तानके, तत्र उत्तिंगः-भूमौ वर्तुलविवरकारिणः गर्दभमुखाकृतिकाः कीटविशेषाः, तत्समूहः कीटिकानगररूपः, तस्मिन् तत्सहिते वा स्थाने तथा पनकः पञ्चवर्णः साड्कुरोऽनङ्कुरो वा पञ्चवर्णानन्तकायविशेषः, उदकमत्तिका उदकेन सहिता मृत्तिका सकर्दमा सचित्ता मिश्रा वा मृत्तिका, यद्वा दकं जलं मृत्तिका सचित्तमृत्तिका तत्र, मर्कटसन्तानकं लूनाजालम् , एतेषु वस्तुषु यः श्रमणः श्रमणी वा 'ठाणं वा' स्थानं वा, ता स्थानमूलस्थानम् 'सेज्जं वा' शय्यां वा 'णिसेज्जं वा' निषद्यां वा 'णिसीहियं वा' नैपेधिकी वा 'चेएई' चेतयते करोति तथा 'चेएंत वा साइज्जइ' चेतयमानं वा कोलावासादिषु स्थानादिकं कुर्वन्तं श्रमणानन्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-पुढवीमाइठाणं तु, जत्तियमेत्तमुदाहियं ।
तत्थ ठाणाइयं कुज्जा, आणाभंगाइ पावई ॥
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૦૮
छाया -- पृथिव्यादिस्थानं तु यावन्मात्रमुदाहृतम् । तत्र स्थानादिकं कुर्यात् आवाभङ्गादि प्राप्नोति ॥
निशीथसं
अवचूरि : - प्रथमसूत्रादारम्याष्टमसूत्रपर्यन्तसूत्रेषु यत् यत् पृथिव्यादिकस्थानमधिकरणत्वेन उदाहृतम् कथितम् सचित्तपृथिवीत आरम्य मर्कटसन्तानकान्तस्थानं सूत्रे यावन्मात्र यावत्प्रमाणकं कथितम् तेषु सचित्तपृथिव्यादिस्थानेषु स्थानादिकं स्थानशय्यानिषधास्वाध्यायादिकं यः कुर्यात् स श्रमणः श्रमणी वा आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिध्यात्वसंयमात्मविराधनालक्षणान् दोषान् प्राप्नुयात् लभते ।
अथ पृथिव्याधेकेन्द्रियाणां संघट्टनादिकरणे यादृशी वेदना भवति तां वेदनां दृष्टान्तद्वारेण दर्शयति तथाहि-यथा कश्चित् स्वभावतो दुर्वलो जराजीर्णो रोगेणापि आक्रान्तो भवेत्, सच वृद्धो बलवता तरुणेन त्रिंशद्वर्षायुष्केन युगलपाणिना सर्ववलेनाक्रान्तो भवेत् तदनन्तरं तस्य बृद्धस्य तरुणेनाक्रान्तस्य यादृशी वेदना भवति पृथिव्याद्ये केन्द्रियजीवानामुपरि स्थानादिकरणेन ततोऽप्यधिकतरा अनन्तगुणा वेदना भवति, परन्तु अव्यक्तत्वात् चर्मचक्षुषा ज्ञातुं न शक्यते, यानि च जीवस्य चिह्नानि तानि पृथिव्याद्ये केन्द्रियजीवेषु न व्यक्तानि यथा गाढनिद्रा निद्रितपुरुषे मूर्च्छिते वा सुखदुःखचिह्नानि अव्यक्तानि एवं पृथिव्याद्ये केन्द्रियजीवेष्वपि चैतन्यं चैतन्यचिह्नं चीतीवाव्यक्तम् तेनायं जीव इति न सकलसाधारणपुरुषेण ज्ञातं भवति, परं केवलं केवलज्ञानिना एव दृश्यते, तदुपदेशात् श्रद्धालुः परोपि जानाति, अश्रद्धालवो वस्तुतत्त्वं न जानन्ति । तेषामेव ज्ञानाय पृथिव्याद्ये केन्द्रियाणामुपयोगसाधकं दृष्टान्तं दर्शयामि, तद्यथा-रूक्षे भोजने अतिशयितः सूक्ष्मः स्नेहगुणो विद्यते यतः तादृशभोजनकरणेनापि शरीरस्योपचयो भवति परन्तु अव्यक्तत्वात् सत्त्वस्नेहगुणो न लक्ष्यते, एवं पृथिव्यामपि विद्यते सूक्ष्मः स्नेहः परन्तु अतिसूक्ष्मत्वात् न दृश्यते यतः पृथिव्यादिषु स तनूत्थितोऽल्पः तेन तेषां प्रबलस्नेहकार्ये हस्तादिशरीराणां चालनादिकं कर्तुमशक्यं भवति । एकेन्द्रियजीवानां क्रोधादिकाः परिणामा अपि भवन्ति साकारोऽनाकारचोपयोगः, तथा सातादिका वेदनाः, एते सर्वेऽपि भावाः सूक्ष्मत्वात् अनतिशयस्यानुपलक्षिता भवन्ति यथा संज्ञिनां पर्याप्तानां क्रोधादयः परिणामा भवन्ति, तेन च परिणामेन संज्ञिनों जीवा आक्रोशादिकं 'कुर्वन्ति त्रिवलीचालनादिकं च कुर्वन्ति परन्तु संज्ञिजीववत् एकेन्द्रियाः प्राबल्येन तादृशकार्यकरणं प्रति समर्था न भवन्ति, एतावानेव भेदः संज्ञिजीवेभ्य एकेन्द्रियजीवानाम्, किन्तु चेतनायोगात् सर्वमेव भवति पृथिव्याद्येकेन्द्रियजीवानामपि किं बहुना यथा वयमनुभवं कुर्मः तथैव पृथिव्याद्ये केन्द्रियजीवा अपि कुर्वन्ति तेपि सुखकारणे समुपस्थिते सुखिनो भवन्ति दुःखकारणे न ते दुःखमप्यनुभवन्ति, क्रोधादिकम् आक्रोशादिकमपि कुर्वन्ति, किन्तु यथा उदुम्बरपुष्पमन
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चूर्णिभाष्यावरिः उ १३ सू० ९-११ दुर्बद्धादिविशिष्टस्थूणादिषु स्थानादिकरणनि० ३०९ भिव्यक्तं न सर्वेषां दृष्टिपथमाविर्भवति तथैव अनभिव्यक्तत्वात् एकेन्द्रियाणां क्रोधादिकं नाविर्भवति, किन्तु पृथिव्यादिषु वर्तन्ते एवैकेन्द्रियजीवाः, तदुक्तम्
क्रोधादिकपरिणामाः एकेन्द्रियादिजन्तुनाम् । प्राबल्यं तेषु कार्येषु अव्यक्तावात् न भवन्ति हि ॥१॥
यस्मात् कारणात् पृथिव्यादिका एकेन्द्रियजीवा अपि एवंविधवेदनादिकमनुभवन्ति तस्मात् कारणात् पृथिव्यायेकेन्द्रियजीवोपरि कायोत्सर्ग शयनीयमासनं स्वाध्यायादिसंपादनं च कथमपि सर्वविरतः श्रमणः श्रमणी वा स्वयं न कुर्यात् न वा परानपि तदुपरि स्थानादिकं कारयेत् , न पृथिव्यायेकेन्द्रियजीवानामुपरिस्थानादिवं कुर्वन्तमनुमोदेत किन्तु शास्त्रमर्यादामाश्रित्याचित्तभूम्यादावेव स्थानादिकं कुर्यात् कुर्वन्तमनुमोदेत ।।सू०८।।
सूत्रम्-जे भिक्खू थूणसि वा गिहेलुयंसि वा उसुयालंसिवा कामजलंसि वा दुबद्धे दुण्णिक्खित्ते अणिक्कंपे चलाचले ठाणं वा सेज्जं वा णिसेज्ज वा णिसाहियं वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९॥
छाया-यो भिक्षुः स्थूणायां वा गृहेलुके वा उसुकाले (उदूखले) वा कामजले वा (स्नानपीठे वा) दुर्बद्ध दुनिक्षिप्ते अनिष्कपे चलावले स्थानं वा शय्यां वा निषद्या बा नैवेधिकी पा चेतयते चेतयमानं वा स्वदते । सू० ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'थूणसि वा' स्थूणायां वा, तत्र स्थूणा नाम स्तंभः तस्यां स्थूणायां स्तम्मे 'गिहेलयंसि वा' गृहलके या देहल्यामित्यर्थः, 'उसुयालंसि वा' उसुकाले वा, तत्र उसुकालो नाम उदूखलम् 'ऊखल' इति लोकप्रसिद्धम् तस्मिन् 'कामजलंसि वा' कामजले वा, तत्र कामजलं नाम स्नानपीठादिकं यस्योपरि उपविश्य स्नानं करोति तादृशं साधनविशेषलक्षणं कामजलमिति तस्मिन् कामजले । कथंभूते स्थूणादौ ? इति स्थूणादिविशेषणान्याह-'दुब्बः' इत्यादि । 'दुब्बः दुर्वद्ध तत्र बन्धनं द्विविधम्-रज्जुबन्धनं, काष्ठादिषु वेधबन्धनं वा तत् बन्धनं सम्यक् न कृतं तत्, दुर्वद्धं शिथिलबन्धनमित्यर्थः तस्मिन् 'दुणिक्खित्ते' दुनिक्षिप्ते तत्र दुनिक्षिप्तं,-दुर्-असम्यक् निक्षिप्तं निहित तत्, न सम्यक् स्थापितमिति दुनिक्षिप्तम् तस्मिन् दुनिक्षिप्ते स्थूणादौ 'अणिक्कंपे' अनिष्कंपे, तत्र निष्कम्पः-कम्पनवर्जितः, न निष्कम्पः अनिष्कम्पः, तस्मिन् कम्पनविशिष्टे, यत एवम् अत एवं 'चलाचले' चलाचले अस्थिरे इत्यर्थः, एतादृशस्थूणादिषु स्थूणाघुपरि य: श्रमणः श्रमणी वा 'ठाणं वा' स्थानं वा 'सेज वा' शय्यां वा 'णिसेज्जं वा' निषद्यां वा 'निसीहियं वा', नैषेधिकी
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निशीथसूत्र वा स्वाध्यायादिकरणम् 'चेएई' चेतयते 'चेएतं वा साइज्जई' चेतयमानं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कुलियंसि वा भित्तिसिवा सिलंसि वा लेलुसि वा अंतलिक्खजायंसि वा दुबद्धे दुण्णिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले ठाणं वा सेज वा णिसेज्ज वाणिसीहियं वा चेएइ वा चेएतं वा साइज्जइ १०
छाया-यो भिक्षुः कुडये वा भित्तो वा शिलायां वा लेलुके वा अन्तरिक्षजाते वा दुर्वद्ध दुनिक्षिप्ते अनिष्कम्पे चलाचले स्थनं या शय्यां वा निपद्यां वा नेपेधिको घा चेतयते चेतयमानं वा स्वदते ॥ सू० १०॥
चूर्णी- 'जे मिक्खू' इत्यादि । 'जे मिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कुलियसि वा' कुड्ये वा तृणभित्तिरूपकुडये वा 'भित्तिसि वा' भित्तौ वा पाषाणमृत्तिकानिमितमित्तौ गिरिनदीतटरूपायां वा 'सिलंसि वा' शिलायां वा धान्यादिपेषणबृहत्पाषाणखण्टे वा 'लेलुसि वा' लेलुके वा लोष्टे वृहन्मृत्पिण्डे 'अंतलिक्खजायंसि वा' अन्तरिक्षजाते वा-आकाशभागनिर्मितमञ्चकादौ वा, कथम्भूते कुड्यादिके ? तत्राह-'दुबद्धे' इत्यादि । 'दुव्वद्धे' दुर्वद्धे सम्यग्रूपेण बन्धनरहिते कुड्यादो 'दुण्णिक्खित्ते' दुनिक्षिप्ते असम्यग्रूपेण स्थापिते 'अणिक्कपे' अनिष्कंपे-कम्पनादिधर्मविशिष्टे मत एव 'चलाचले' चलाचले-अस्थिरे कुड्यादौ यः श्रमणः श्रमणी वा 'ठाणं वा स्थानं वा 'सेज्जं वा' शय्यां या 'निसेज्ज वा' विषयां वा 'णिसीहियं वा' नैपेधिकी वा 'चेएइ' चेतयति 'चेएतं वा साइज्जइ चेतयमानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू०१०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू खंधंसि वा फलिहंसि वामंचंसि वा मंडवंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मतलंसि वा दुबद्धे दुण्णिक्खिचे अणिक्कंपे चलाचले ठाणं वा सेज्जं वा णिसेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ।। सू० ११॥
छाया-यो भिक्षुः स्कन्धे वा परिघे वा मञ्चे वा मण्डपे वा माले वा प्रासादे वा हर्म्यतले वा दुर्बद्ध दुनिक्षिप्ते अनिष्कम्पे चलाचले स्थानं वा शय्यां वा निषद्यां वा नेपेधिकी वा चेतयते चेतयमानं वा स्वदते ॥ सू० ११ ॥ - चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'खंधसि वा' स्कन्धे वा, तत्र, स्कन्धो नाम एकभूमप्रासादविशेषः, अथवा स्कन्धो नाम गृहम्
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चूर्णिभाष्यावरिः उ० १३ सू० १२ अन्यतीर्थकादीनां शिल्पादिकलाशिक्षणनिषेध : ३११
इष्टिकादारसंघातो वा तस्मिन् ‘फलिहंसि वा' परिधे वा, तत्र परिघो नाम अर्गलाकारो लम्बकाष्ठविशेषः, तस्मिन् 'मंचंसि वा' मञ्चे वा काष्ठस्तम्भोपरि निर्मिते खट्वाकारे मञ्चे 'मंडवंसि वा मण्डपे वा, तत्र मण्डपः-काष्ठनिर्मितं निर्मित्तिकं स्थानं तस्मिन् 'मालंसि त्रा' माले वा, तत्र मालं गृहोपरि द्विभूमिकादि तस्मिन् । 'पासायंसि वा' प्रासादे वा-प्रासादः-जीर्णराजगृहं तस्मिन् 'हम्मतलंसिवा' हर्म्यतले वा, हम्य जीर्णधनिकजननिवासस्थानम्, तस्मिन् , कीदृशे इत्याह'दुबद्धे' दुर्वद्धे शिथिलबन्धनयुक्ते 'दुण्णिविखत्ते' दुनिक्षिप्ते-सम्यगनवस्थापिते 'अणिक्कंपे' अनिष्कम्पे-कम्पनादिविशिष्टे अत एव चलाचले अस्थिरे, एतादृशस्कन्धादौ यो भिक्षुः 'ठाणं वा' स्थानं वा कायोत्सर्ग वा 'सेज्नं वा' शय्यां वा शयनीयम् ‘णिसेज्जं वा' निषधामासनं वा 'णिसीहियं वा' नैपेधिकी वा स्वाध्यायादिकरणम् 'चेएइ' चेतयते 'चेएत वा साइज्जइ' घेतयमानं स्कन्धादिषु अस्थिरादिषु स्थानादिकं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं यः श्रमणः श्रमणी वा स्वदते मनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-थूणा-कुलिय-क्खंधा,-इयं खुजं आहियं च मुत्तेसु ।
तेसुं ठाणाइकरणा, लम्भेज्जा आणभंगाई ॥ छाया--स्थूणा-फुडध-स्कन्धादिकं खु यत् आश्यातं च सूत्रेषु ।
तेषु स्थानादिकरणात् लभेताशाभङ्गादिकम् ॥ अवचूरिः-सूत्रेपु-नवमदशमैकादशेष स्थूणाकुड्यस्कन्धादिकं यत् यावन्मात्रमाख्यातं कथितं तेषु स्थूणादिपु स्थानेषु स्थानादिकरणात् कायोत्सर्ग-शय्या-निषद्यादि-संपादनात् श्रमणः श्रमणी वा आज्ञाभङ्गादिकान् आज्ञाभगानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनालक्षणान् दोषान् लमेत प्राप्नुयात् ॥ सू • ११ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा सिप्पं वा सिलोगं वा अट्ठावयं वा कक्कडगं वा वुग्गहं वा सलाहं वा सलाहकहत्थयं वा सिक्खावेइ सिक्खावेत वा साइज्जइ ॥ सू० १२॥
छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकं पा गार्हस्थिकं वा शिल्पं वा प्रलोकं वा अष्टापदं या कर्कटकं वा व्युग्रहं वा श्लाघं वा प्रलाधकथास्तवं वा शिक्षयति शिक्षयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियं वा अन्ययूथिकं वा परदर्शनानुयायिनं तापसादिकम् 'गारत्थिय वा गार्हस्थिक
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APPINE
निशीय वा-गृहस्थं श्रावकमश्रावकं वा 'मिष्पं वा' शिल्पं वा-शिल्पकलां वरनादिसंपादनकलामित्यर्थः 'मिलोग घा' लोक वा-संस्कृतप्रायनपद्यात्मकं वा काव्यनाटकादिकम् अहावयं या' अाटापदं वा-अष्टापदमिति घूतफलक पट्टिकारूपम् , यग्योपरिधून कादयने, उपचागसहिषयकाल घा, अथवा मष्टापदमिति 'पापा' इति प्रमिदम, तद्विपयां कलाम , यथा-वयं नो जानीयः, दं पान मुभिक्षदुर्मिक्षादिकं कथयतीत्येवंरुपां कलां वा, 'कक्कडगं वा' फर्कटकं वा कर्कटकमिति कचवरं सर्ववस्तुसंमिश्रणं, फर्फटमिव कर्कटकं सर्वमावस्य, सर्ववानुभावयमित्यर्थः, एवं कथंने उभयथाऽपि दोषापत्तिगपतेदिनि । अथवा-कटक निमिराशाग्र सामुद्रिकशास्त्रज्योतिर्वियादिमिश्रणरूपं वा, 'युग्गहं वा' व्युदग्रहम् गगनादियुगनिन जयपगजयजानरूपां कलाम् 'सलाई वा' स्टायां वा-मन्यगुणवर्णनम्पां काव्यकल वा, 'सलाहकहत्वयं घा' "काधकथास्तवं वा-छायामिका कथां स्तवं था, अथवा अपूर्वामिनवानेककाव्यवर्णनकलां वा यः श्रममः श्रमणी वा तापमादिफ श्रावकमश्रावकं वा 'सिक्सावेड' शिक्षयति-तद्विपयां शिक्षा ददाति तथा-'सिक्खावेतं वा साहज्जा' शिक्षयन्त शिल्पकलादीनां शिक्षणं ददत या श्रमणान्तरं स्वदतै अनुमोदते स प्रायश्चित्तमागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:'भाष्यम्-सिप्पसिलीगाडकलं, सिक्खावह अन्नउत्थियं गिहिणं ।
सो पावइ पच्छिस, आणामंगाइख्वं च ॥ छाया-शिल्पश्लोकादिकलां शिक्षयति अन्यनीथिकं गृहिणम् ।
स प्राप्नोति प्रायश्चित्तं पाशाभन्नादिम्पं च ॥ अवचूरि:-प्रकृतसूत्रे शिल्पालोकादिकलाम् , आदिपर्दन शेपाः एतद्भिन्नाः या अन्याः कलाः अष्टापदादिरूपाः, ताः सर्वो अपि सूचिताः भवन्ति, एताः कलाः शिल्पादिकाः कदाचिदपि श्रमणः तापसादिकं गृहस्थादिकं वा न शिक्षयेत् , यस्तु श्रमणः मोहात्कारणान्तराद वा अन्यतीथिकानां तापसादीनां गृहस्थानां श्रावकाणागन्येषां वा पूर्वोक्ताकलां शिक्षति पतन्कलाशिक्षको शवति स श्रमणः श्रगणी वा आमामलादिदीपरूपं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति स प्रायश्चित्तभागी भवतीत्यर्थः ।। सू० १२ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खु अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगादं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १३॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा फरसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ।। सू० १४॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारस्थिय वा आगाढफरसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १५॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१३ सू०१३-१६ जन्यतीर्घिकादीनामागााढादिवचनात्याशातनानि० ३१३ जे भिखू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएइ अच्चासाएंतं वा साइज्जइ ।। सू०१६॥
छाया-यो भिक्षुरन्यतीर्थिकं वा गाईस्थिकं वा आगाढं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥सू० १३।। यो भिक्षुरन्यतोर्थिकं वा गार्हस्थिकं वा परुष वदति वदन्तं वा स्वदते ॥१४॥ यो भिक्षुरन्यतीथिकं वा गार्हस्थिकं वा आगाढपरुष वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू० १५॥ यो भिक्षुरन्यतीर्थिकं वा गार्हस्थिकंवा अन्यतरया अत्याशातनया अत्याशातयति अत्याशातयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १६॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियं वा अन्ययूथिकं वा तापसादिकं 'गारत्थियंवा' गार्हस्थिकं गृहस्थं वा 'आगाई' आगाढम्-आगाढवचनं कोपयुक्तवचनमित्यर्थः 'वयइ' वदति-कथयति 'वयंतं वा साइज्जई' वदन्तमागाढवचनमन्यतीर्थिकं गृहस्थं प्रति वा वदन्तं श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति ॥ सू० १३॥ एवं 'फरुसं' परुषं कठोरवचनं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४॥ तथा 'आगाढफरुसं' आगाढपरुषंकोपयुक्तकठोरवचनं वदति वदन्तं वा स्वदते सः ॥ सू० १५॥ एवम्-अन्यतीर्थिकं गृहस्थं वा 'अण्णयरीए-अच्चासायणाए' बन्यतरया, अन्यतीथिकाशातना-अन्यतीर्थिकं प्रति 'संसारस्वरूपं ज्ञात्वापि त्वं जिनोक्तं धर्म नाचरसि, सावधक्रियामवलम्बसेऽतस्त्वां धिक्' इत्येवं कथनरूपा । गृहस्थाशातना-गृहस्थं प्रति त्वं गृहस्थः सन द्वादश व्रतानि नाचरसे, रात्रिभोजनसंरम्भसमारम्भादिकार्य कुरुषेऽतस्त्वां धिक्' इत्येवं कथनरूपा, इत्यादिस्वरूपया एकया कयाचिदाशातनयाऽपि 'अच्चासाएइ' अत्याशातयति-अन्यतीर्थिकस्य गृहस्थस्य वा आशातनां करोति 'अच्चासाएंत' अत्याशातयन्तं वा आशातनां कुर्वन्तं वा 'साइज्जई' स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥१६॥
__एतदागाढादिकं कस्मिन् विषये किमर्थं वा नो वदेत् ? इत्यत्राह भाष्यकार:-'जाइकुल' इत्यादि। भाष्यमू--जाइ-फुल-रूव-भासा,-गण-बल-परियाग-जस-तवो-लाभा।
सत्त-वय-बुद्धि-धारण,-उग्गह-सीलं-समायारो ॥१॥ एएसु विसएसु य, गारस्थिय अन्नउत्थियं वावि । आगाढं फरुसं नो, वएज्ज आसायए नो वा ॥२॥ एएहि वयणेहि, साहू कुप्पेज किं पुणो अन्नो। एवं मम्मे वयणे, दोसा मरणाइया बहलो ॥३॥
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निशीथमचे
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छाया-जाति-कुल-रूप-भाषा-धन-बल-पर्याय-यश-स्तपो-लाभाः ।
११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ सत्व-चयो-बुद्धि-धारणा-ऽवग्रह-शोलं समाचारः ॥१॥ पतेपु विषयेषु च, गाईस्थिकं अन्यतीर्थिकं वाऽपि । आगाढं परुष नो वदेत् आशातयेत् नो पा ॥२॥ पतैर्वचन. साधु: कुप्येत् किं पुनरन्यः ।। एवं मर्मणि वचने, दोषा मरणादिका बहवः ॥३॥
अवचूरिः~-जाति-कुलेति गाथात्रयम् । अत्र जात्यादयः सप्नदश प्रोक्ताः, तेऽर्थत. मुगमाः ॥१॥ द्वितीयगाथामाह-एएसु' इत्यादि, 'एएम एतेषु पूर्वोक्तेषु नात्यादिपु विषयेषु गृहस्थमन्यतीर्थिकं वा आगाई, परुपम, आगाढपरुषं च नो वदेत, तथा नो वा गृहत्थमन्यतीर्थिकं वा 'आसायए' आशातयेत्, न तयोः काञ्चिदम्याशातनां कुर्यात् ॥२॥ एवं करणे कि स्यात् ! इत्याह'एएहि' इत्यादि, 'एएहि वयणेहि' एतैः पूर्वोक्तैरागाढादिरूपैर्वचन: 'साह' साधुः क्रोधनिग्रहपरो मुनिरपि 'कुप्पेज' कुप्येत्-कोपाविष्टो भवेत् तर्हि किं पुणो अन्नो' किं पुनरन्यः नो कुप्येत् ! इति काकुपाठः, एतादृशवचनैः साधोरपि कोप: स्यात् अन्यरय तु का कथा इति भावः । अत्र के दोपाः इति तान् दर्शयति-'एवं' इत्यादि एवं' एवम् एतादृशे मर्मणि वचने मर्मवेधके वचने कथिते सति मत्र मरणादिका बहवो दोपा भवन्ति । मोद्घाटनसन्तापत ताः केचित् म्रियेरन् , साधु वा मान्तरलग्नवैरभावेन दोषारोपं कृत्वा राजद्वारे नयेयुः, इत्यादि बहुदोपसंभवात् साधुरागाढादिकं वचनं न वदेत् , नो वा वदन्त स्वदेत, नो वा अत्याशातनया तान् मायाशातयेत् परकृतामच्याशातनां नानुमोदयेत् । एवं करणे साधुराजाभङ्गादिदोषभागी भवतीति ॥३॥ नात्यादिषु मागाढा. दिवचनप्रकारः प्रदाते
महं जातिमान् तथा कुलवान् त्वं तु नीची जारजातो वेत्यादि १-२। महं रूपवान् त्वं तु कुरूपः ३ महं मधुरभाषो त्वं नैतादृशः ४ । अहं धनी सन् दीक्षितः, त्वं तु निर्धनः ५। अहं बलवान् , त्वं निर्बलः ६ | अहं पर्यायव्येष्टोऽस्मि बहु जानामि त्वं नैतादृशः ७ अहं यशस्वीत्वं लोकनिन्धोऽसि ८ । अहं तपस्वी त्व नैतादृशः ९। मम बहुलाभो भवति त्वं न किमपि लभसे १० । अहं सत्त्ववान् आन्तरवली त्वं कातरः ११। महं वयोवान् त्वमचिरजातो बालः १२। महं बुद्धिमान् त्वं नि:द्धि कः १३ । मम धारणाशक्तिस्तोत्रा वत्तते त्वं तु विस्मरणशीलः १४ । अहमवग्रहे गुर्वादिज्येष्ठाज्ञायां वर्ते, त्वमुद्धतः १५। अहं शीलवान् त्वं नैतादशः १६। समाचार इति महं साधुसामाचार्या वर्ते त्वं स्वकीयमर्यादामपि न पालयसि १७ । इत्यादि ॥ सू० १३-१६ ॥
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घृणिभाष्यावचूरिः उ १३ सू०१७-१३
अन्यस्थानां कौतुकक मैकरणादिनिषेधः ३६५
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थियाणं वा गारत्थियाण वा कोउगकम्म करेइ करेंतं वा साइज्जइ ।। सू० १७॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वागारत्थियाण वा भूइंकम्मं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १८ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पसिणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १९|| जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पसिणापसिणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २० ॥ जे भिक्ख अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पसिणं कहेई कहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २१॥ जे भिक्खू अण्णउत्यियाण वा गारत्थियाण वा पसिणापसिणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २२॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा तोयं निमित्तं कहेइ कहेंतं वी साइज्जइ । सू०२३॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पडुप्पण्णं निमित्तं कहेइ कहते वा साइज्जइ ॥ सू० २४ ॥ जे भिखू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा आगमिस्सं निमित्तं कहेइ कहेंतं वा साइजइ । सू० २५॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण गारत्थियाण वा लक्षणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ।। सू० २६॥जे भिवखू अण्णउत्थियाण चा गारत्थियाण वा वंजणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २७॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियांण वा सुमिणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जई। सू० २८॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा विज्जं पउंजइ पउज्जतं वा साइज्जइ ॥ सू० २९॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा मंतं पउंजइ पउंजंतं वा साइज्जइ ।। सू० ३०॥ जे भिवखू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा जोगं पउंजइ पउजंतं वा साइजइ॥ सू०३१॥
___ छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा कौतुककर्म करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १७॥ यो भिक्षुःअन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा भूतिकर्म करोति, कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० १८॥ यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा प्रश्नं करोति कुर्वन्त
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निशीथस्त्र पा स्वदते ॥२० १९॥ यो भिक्षुः अन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा प्रश्नाप्रश्नं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० २०॥ यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा प्रदनं कथयति कथयन्तं पा स्वदते ॥ सू० २१॥ यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां चा प्रश्नाप्रश्न कथयति कथयन्तं वा स्यदते ॥सू० २२॥ यो भिक्षुरन्यथिकानां धा गृहम्थानां या अतीतं निमित्तं कथयति कथयन्तं वा स्घटते सू० २३ । यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा प्रत्युत्पन्न निमित्तं कथयति कथयन्तं वा स्वदते ॥ सू०२४॥ यो भिक्षुरन्ययथिकानां घा गृहस्थानां या आगमिप्यत् निमित्त कथयति कथयन्तं धा स्वदते ॥ सू० २५॥ यो भिक्षुरन्ययूथिकानां पा गृहस्थानां वा लक्षणं कथयति कथयन्तं वा स्वदते ॥सू० २६॥ यो मिक्षुरम्ययूथिकानां वा गृहस्थान वा व्यजनं कथयति कथयन्त वा स्वदते ॥ स०२७॥ यो भिक्षुरन्ययूथिकानो वा गृहस्थानां वा स्वप्नं कथयति कथयन्तं या स्वदते ॥सू० २८॥ यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा विद्या प्रयुङ्क्ते प्रयुतानं वा सदते ॥सू० २९॥ यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा मन्त्रं प्रयुक्त प्रयुञ्जानं वा स्वदते ॥सू० ३०॥ यो भिक्षुरन्यथिकानां वा गृहस्थानां वा योगं प्रयुक्त प्रयुआन वा स्वदते ॥सू०३१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे मिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियाण वा' अन्ययूथिकानां वा 'गारत्थियाण वा' गृहस्थानां वा 'कोउगकम्मं करेई' कौतुककर्म करोति, तत्र कौतुकं-दृष्ट्यादिदोषनिवारणार्थ स्नानादिकमोपधादिकं वा करोति, तथा च यः श्रमणः परतीथिकानां कौतुकर्म करोति अर्थात् श्मशानचत्वरादिषु स्नानं कारयति अथवा कोऽपि तापसादिकः गृहस्थो वा ज्वरशूलादिरोगेण ग्लानो जातः तस्य ज्वरादिरोगशान्त्यर्थ सचित्तमचित्तं वा औषधादिकमानीय ददाति येन तस्य रोगः सद्य एव शान्तो भवति स नीरोगतां लभते तदेतत् श्मशानादिस्नानमौपधादिदानं च कौतुककर्म अथ्यते । अथवा कुतुकस्य भावः कौतुकं कुतूहलता गृहस्थादीनां मनोरञ्जनाय क्रियमाणं कर्म कौतुककर्म तथा 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञामङ्गादिका दोषा भवन्ति ॥ स० १७॥ एवम् 'भूइकम्म करेई' भूतिकर्म-शरीरादिरक्षार्थ भस्मपोट्टलिकाभिमन्त्रणरूपं करोति
सू० १८|| 'पसिणं करेइ' प्रश्नं करोति-अन्यतीथिकादिनिमित्तं दर्पणादी देवाचाहान कृत्वा शुभाशुभफलप्रच्छनरूपं करोति । सू० १९ ॥ 'पसिणापसिणं करेइ' प्रश्नप्रश्नं करोति-विद्या* मन्त्रिताघण्टायाः कर्णमूले वादनेन तत्र देवताऽवतीर्य पृष्टस्य प्रश्नस्य विषये सा पुनरपि प्रश्नं करोति .. यत्तव पूर्वमेवमासीत् न वा' इति एकस्मिन् प्रश्ने द्वितीयप्रश्नकरणम् , एवं प्रश्ने प्रश्नकरणरूपं प्रश्नप्रश्नमन्यतीर्थिकगृहस्थनिमित्तं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० २०॥ 'पसिणं कहेइ'. प्रश्नं कथयति अन्यतीथिंकगृहस्थेभ्यः दर्पणाद्यवतीर्णदेवताकथितशुभाशुभफलरूपमुत्तरं कथयति.
॥ सू०२१ । एवम् 'पसिणापसिणं कहेई' प्रश्न प्रश्नं कथयति प्रश्नों परिप्रश्नस्योत्तरं कथयति ॥२२॥ .. 'तीयं निमित्तं कहेइ' अतीतं निमित्तं कथयति, अन्यतीर्थिकगृहस्येभ्यः 'तवातीतकाले
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चूर्णिभाष्यावरिः उ० १३ सू०१७-३१ अन्यतीर्थिकगृहस्थानां कौतुककर्मादिकरणनि० ३१७ एतादृशं शुभमशुभं वा जातम्, अमुकप्रकारको लाभस्त्वया लब्धः, एतादृशं सुखं दुःखं वा प्राप्तम्', इत्यादिरूपं निमित्तं कथयति ॥ सू० २३॥ एवमेव 'पडप्पन्नं निमित्तं' प्रत्युत्पन्नं वर्तमानकालिकं निमित्तं कथयति ।। सू० २४॥ एवं 'आगमिस्सं निमित्तं कहेई' मागमिष्यत्कालिकं भविष्यत्कालिकं यत् 'तवाग्रे एतादृशं शुभमशुभं वा भविष्यती'त्यादिरूपं निमित्तं कथयति ॥ सू० २५॥ एवं 'लक्खणं कहेई' लक्षणं कथयति, तत्र लक्षणं द्विविधम् -बाह्यमाभ्यन्तरं च, तत्र बाह्यं-हस्वदीर्घशरीरावयवरेखादिकम्, आभ्यन्तरं-स्वभावसत्त्वादिकम् । बाह्यलक्षणं-हस्तपादादिशरीरावयवसंभवं द्वात्रिंशत्प्रमाणकं भवति यथा 'अयं द्वात्रिंशल्लक्षणः पुरुषः' इति, एतद्भिन्नान्यान्यपि लक्षणानि भवन्ति, यथा 'बलदेववासुदेवशरीरेऽष्टोत्तरशतम् , चक्रवर्तितीर्थकरशरीरेऽष्टोत्तरं सहस्रं लक्षणानां भवति तन्मध्यात्तव शरीरे इयन्ति लक्षणानि विद्यन्तेऽतस्त्वं महापुरुषो भविष्यसी'त्यादि, तथा 'तव शरीरे कानिचिदशुभलक्षणानि सन्तीत्यतोऽये त्वं दुःखी भविष्यसी'त्यादि च लक्षणं कथयति ॥२६॥ एवं 'वजणं कहेई' व्यञ्जनं कथयति, तत्र-व्यञ्जनं-मशतिलादिकं कथयति-तद्विषयकं शुभाशुभफलं प्रतिपादयति ॥ सू० २७॥ 'मुमिणं कहेइ' स्वप्नं कथयति-स्वप्नफलं प्रतिपादयति, तत्र स्वप्नो द्विविधः-मनोविषयो ज्ञानविषयश्च, तं स्वप्नं प्रायः सुप्तजागरावस्थः पश्यति, सच स्वप्नो भविष्यकालिकसुखदुःखयोनिमित्तं भवति यथा मनुष्याणां मरणकाले पूर्वमेवारिष्टदर्शनं भवति तच्च सुखदुःखनिमित्तं जायते, तदरिष्टं त्रिविधं कायिकं वाचिकं मानसं च, तत्र कायिकं रोगपीडावणाघनेकप्रकारकम् १, वाचिकं सहसावाक्प्रतिबन्धादिकमनेकविधम्२, मानसिकमप्यरिष्टमार्थिककौटुम्बिकमनोमालिन्यादिविविधप्रकारकम् ३। स्वप्नदर्शनं पच्चप्रकारकं भवति याथातथ्य-प्रतत-चिन्ता-विपरीता-व्यक्तमेदात्, तत्र सर्वपापविरताः साधवः संघृताः याथातथ्यस्वप्नदर्शकाः, इतरे गृहस्थादयः पार्श्वस्थादयश्च याथातथ्यं प्रति भजनीयाः, एषां स्वप्नं याथातथ्यं तद्विपरीतं वा भवेत् । यत् स्वप्नदर्शनं यथैव दृष्टं तथैव भवति तत् याथातथ्यं स्वप्नदर्शनम् १, प्रततस्तु स्वप्नसंतानः श्रृंखलावत् २, जागरितावस्थायां यत् चिन्तितं तदेव रात्रौ पश्यति तत् चिंतानामकं स्वप्नदर्शनम्३, विपरीतं विपरीतफलदायकं स्वप्नदर्शनं तु तत् यत् शुचिसुगन्ध्यादिके मध्ये स्वप्ने दृष्टे फलममेध्यं भवति, अमेध्ये स्वप्ने दृष्टे तत् फलं मेध्यं भवति, यथा दृष्टं तद्विपरीतं फलं यत्र भवति तद् विपरीतं स्वप्नदर्शनं चतुर्थम् ४, स्वप्नदशायां यत् दृष्टं प्रतिबुद्धोऽयं स्फुटरूपेण न संस्मरति, संस्मरन् वा यस्यार्थ सम्यग् नावगच्छति तदव्यक्तनामकं स्वप्नदर्शनं पञ्चमम् ५ । पञ्चप्रकारकोऽपि स्वप्नः पञ्चेन्द्रियविषयो भवति, सर्वेऽपि स्वप्नाः प्रायः इन्द्रियविषये एव भवन्तीति। अयं भावः-दृष्टस्य श्रुतस्य तदतिरिक्तस्य वा वस्तुनो वासनावशात् सुप्तावस्थानं मानसज्ञानं स्वप्नदर्शनम्, तत् त्रिविधं-धातुविकारजनितम् १, वासनाजनितम् २, अदृष्टजनित ३ च। तत्रादृष्टजनितं स्वप्नदर्शनं सर्वथैव शुभाशुभं फलं ददात्येव, एतदतिरिक्तं तु फलं ददाति न वा ददातीति, ।
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निशीथसूत्रे
एतादृशस्वप्नादिफलं कथयति ॥ सू० २८ ॥ एवं विद्या - मन्त्र - योग- प्रतिपादकानि त्रीणि सूत्राणि । तत्र 'विज्जं पउंजई' विद्यां प्रयुङ्क्ते, विद्या रोहिण्यादिका सधाधना वा विद्या-मारण- मोहन-शीकरणो-च्चाटनादिरूपा, तां प्रयुक्ते तस्याः प्रयोगं करोति तद्विधि प्रदर्शयति वा सू० २९॥ 'मंत परंजइ' मन्त्रं प्रयुङ्क्ते, तत्र मन्त्रम् असाधनं मन्त्रं यत् जपमात्रेण सिद्ध्यर्ति, तस्य प्रयोगं करोति, ग्रहभूतप्रेतपिशाचादिजन्यं दुःखं निवारयितुं मन्त्रप्रयोगं करोति ||मू० ३०|| 'जोगं परंजड़' योग प्रयुङ्क्ते तत्र योगः - अनेकवस्तूनां संयोगरूपः विद्वेषोत्सादनान्तर्धानादिकारकं चूर्णादिकं यस्य प्रक्षेपेण विद्वेषादिकं जायते तादृगं योगं प्रयुक्ते, योगप्रयोगं करोति । यः कोउपि श्रमणः श्रमणी वा अन्ययूथिकानां गृहस्थानां वा कौतुककर्मत आरभ्य योगप्रयोगपर्यन्तम् स्वयं करोति मन्येन वा कारयति, कुर्वन्तं वा अनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोतीति ॥
अत्राह भाष्यकारः ---
भाष्यम् - कोउयं च समारम्भ, जात्र जोगं पउंजई' | करणाणुमोयणओ, आणा मंगाइ पावई ||
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छाया कौतुकं च समारभ्य यावत् योगं प्रयुङ्क्ते । करणानुमोदनत आताभङ्गादि प्राप्नोति ॥
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अवचूरि : — सूत्रे कौतुकसूत्रादारभ्य योगसूत्रपर्यन्तसूत्रेषु यत् कथितम् तस्य कौतुकादेः स्वयं करणात् अन्येन कारणात् कुर्वतोऽनुमोदनाद्वा श्रमणः श्रमणी वा आज्ञाभङ्गादिकं प्राप्नोति तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति भावः || सू० ३१॥
सूत्रम् - जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा नट्ठाणं मूढाणं विप्परियासियाणं वां मग्गं वा पवेएइ संधि वा पवेएइ मग्गओ वा संधि पवेंएइ संधिओ वा मग्गं पवेएइ पवे एंतं वा साइज्जइ ॥ सृ० ३२||
छाया - यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा नष्टानां मूढानां विपर्यस्तानां वां मार्ग वा प्रवेदयति संधि वा प्रवेदयति मार्गात् वा संधि प्रवेदयति सन्धितो वा मार्ग प्रति प्रवेदयन्त वा स्वदते ॥सू० ३२ ॥
चूर्णी 'जे 'भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिदं भिक्षु श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियाण वा' अन्ययूथिकानों वा 'गारत्थियाण वा' गृहस्थानां वा 'पहाणं' नष्टानी मीर्गभ्रष्टानां विस्मृतमार्गाणामित्यर्थः, गन्तव्यमार्ग विस्मृत्य इतस्ततो भ्रमतामिति यावत् 'मूढणिं' मूढीनां दिङ्मोहादिना अटव्यां दिग्मागमजाननाम् 'विप्परियासियाणं' विपर्यस्तानां यत्र येन मार्गेण गन्तव्यं तं मार्ग परित्यज्य मार्गान्तरं प्रति प्रस्थितानाम् 'मगं वा पवेएइ' मार्ग पन्थानं प्र॑वे॒दय॑तिं· प्रकाशयति` कथंयतं त्यर्थः ' 'संधिं वा पवेइ' सन्धि वा प्रवेदयति, तत्र संधिः द्वयो
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १३ सू० ३२-३४ अन्यतीथिकादीनां मार्गधातुनिधिप्रवेदननिषेधः ३१९
मर्गियोः सम्बन्धस्थानम् , अथवा यत्र राजमार्गाद् अन्यो मार्गो निस्सरति तस्योपमार्गस्य नाम सन्धिरिति कथ्यते 'भग्गाओ वा संधि पवेएइ' मार्गात् मार्गेण वा सन्धिमुपमार्ग प्रवेदयति दर्शयति, यो हि राजमार्गारूढो राजमार्गात् उपमार्ग गन्तुमिच्छति तमुपमार्ग दर्शयति कथयतीत्यर्थः 'संधिो वा मग्गं पवेएई' सन्धितो वा मार्ग प्रवेदयति यो हि उपमार्गे स्थितः तं सन्धिमार्गात् मार्ग राजमार्ग प्रति गमनाय राजमार्गस्योपदेशं करोति राजमार्ग कथयतीत्यर्थः तथा 'पवेएतं वा साइज्जई' मार्गभ्रष्टानां दिङ्मूढानां विपरीतमार्ग प्रति प्रस्थितानां परतीथिकानां गृहस्थानां वा राजमार्गस्योपमार्गस्य राजमार्गात् उपमार्गमुपमार्गात् राजमार्ग कथयन्तं श्रमणान्तरं वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ।
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-गिहीणं अण्णतित्थीणं, मग्गं संधि पवेयई ।
मिच्छत्तं पावई सो उ, आणाभंगाइयं तहा॥ छाया-गृहिणामन्यतीथिनां मानं संधि प्रवेदयति ।
मिथ्यात्वं प्राप्नोति स तु आज्ञाभङ्गादिकं तथा ।। अवचूरिः-गृहिणां गृहस्थानामन्यतार्थिनां तापसादीनां मार्ग राजमार्गम् सन्धिम् यत्र मार्गद्वयं संमिलति तादृशं पन्थानं प्रवेदयति कथयति तथा उपलक्षणात्-मार्गात् राजमार्गात् सन्धि संमिलितमार्गद्वयं, तथा संधितो मार्ग गजमार्गादिकं प्रवेदयति कथयति स मिथ्यात्वम् आज्ञाभगादिदोपांश्च प्राप्नोति । अयं निषेधो हिसार्थप्रस्थितहिंसकजनविषयको जिनकल्पिकविषयको वा विज्ञेय इति ॥ सू० ३२ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा धाउं पवेएइ पवेएतं वा साइज्जइ ॥ सू०३३॥
- छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गार्ह स्थिकानां वा धातुं प्रवेदयति प्रवेदयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३३ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी ला 'अण्णउत्थियाण वा' अन्ययूथिकानां वा 'गारस्थियाण वा' गार्हस्थिकानां वा 'धाउं पवेएई' धातुं, धातुः पाषाणरसमृत्तिकाभेदेन त्रिविधः, पाषाणधातुः यस्मिन् पाषाणे धम्यमाने तस्मात्सुवर्ण पतति सः १, रसधातुः-यस्य जलेन आसिक्तं ताम्रादि सुवर्ण भवति सः २, मृत्तिकाधातुः-या मृत्तिका धम्यमाना सुवर्णं भवति सः ३, तादृशं धातुं श्रमणः श्रमणी वा प्रवेदयति कथयति तथा पिवेएतं वा साइज्जइ' धातुं प्रवेदयन्तं श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी, भवति तथा तस्याज्ञाभङ्गदिका दोषा भवन्ति ॥ सू: ३३ ॥
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निशीथसत्रे
सूत्रम् — जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा निर्हि पवेएइ पवेत वा साइज्जइ ॥ सू० ३४ ॥
छाया -यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गार्हस्थिकानां वा निधि प्रवेदयति प्रवेद यन्तं या स्वदते ॥ सू० ३४ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्, भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियाण वा' अन्ययूथिकानां वा 'गारत्थियाण वा' गार्हस्थिकानां गृहस्थानां वा 'निहि पवेए' निधिम् प्रवेदयति, तत्र निधानं निधिः निहितं स्थापितं द्रविणजातमित्यर्थः प्रवेदयति, मन्त्रादिना ज्ञात्वा भूमिनिहितं द्रव्यं कथयति प्रकाशयतीति तथा 'पवेएतं वा साइज्जर' प्रवेदयन्तं कथयन्तं श्रमणान्तरं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्तीति ।
३२०
अत्राह भाष्यकार:
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भाष्यम् – धाउं सुवण्णजणयं, निहिं वा पवेयए य जे भिक्खू । गिद्दिणण्णतित्थियाणं सो पावड़ आणभंगाई ॥
छाया - धातुं सुवर्णजनकं निधि वा प्रवेदयेत् यो भिक्षुः ।
गृहिणामन्यतीर्थिकानां स प्राप्नोति आशाभङ्गादिम् ॥
अवचूरिः - यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा धातुं यस्मिन् धम्यमाने सुवर्णादिकं पतति स धातुविशेषः, तं पूर्वसूत्रोक्तं त्रिविधमपि, तथा निधि वा, तत्र निधानं निधिः निहितं स्थापितं द्रविणजातं गृहिणां गृहस्थानामन्यतीर्थिकानां तापसादीनां प्रवेदयेत् कथयेत् स श्रमणः आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नोति, तत्र धातुखिप्रकारको भवति पाषाणरसमृत्तिकाभेदात्, तत्र यत्र पाषाणे धम्यमाने सुवर्णादिकं पतति स पाषाणघातुः १, येन धातुजलेनासितं ताम्रादिकं सुवर्णा दिकं भवति स रसधातुरिति कथ्यते २ या तु मृत्तिका योगयुक्ता ध्मायमाना वा सुवर्णादि भवति स मृत्तिकाधातुः ३ । तं धातुं, तथा निधिः स्थापितद्रव्यजातं स निधिः मनुष्यदैवतैः अधिष्ठितोऽनघिष्ठितो वा भवति, तथा निधिर्जले वा भवति, स्थळे वा भवति, तत्र यो निधिः स्थळे भवति स द्विविधः निक्षिप्तो वा अनिक्षिप्तो वा, सर्वोप्ययं निधिः स्वरूपतो द्विप्रकारको भवति कृतरूपोऽकृतरूपश्च । धातुनिधिकथने इमे दोषाः - धातूनामग्निना धमने पड़जीवनिकायबिराधना भवति । निधिदर्शने तस्य देवाधिष्ठितत्वेनानेके विघ्नाः समुद्भवन्ति । राज्ञा ज्ञाते राजदण्डमपि प्राप्नुयात् । तत्र चक्रध्वजो राजा दृष्टान्तः -
तथाहि - आसीत् मगधदेशे पुष्पपुरनगरे चक्रध्वनो राजा, तेन राज्ञा चक्राङ्किता अनेके दीनारा आनाय्य निधानत्वेन स्थापिताः निधानस्थापनानन्तरं बहुदिनानि व्यतीतानि तदनन्तरं
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १३ सू० ३५-४८ पात्रादिषु मुखदर्शनस्यवमनविरेचनयोश्चनि• ३२१ निधिज्ञः कश्चित् तापसो निधिलक्षणेन ज्ञात्वा खनित्वा निधानं निष्कास्य नीतवान् , तेन च व्यव:हारं करोति तद् हस्तात् अन्यः तदन्यो व्यवहारं करोति, एवं क्रमपरंपरया राजपुरुषेण दृष्टः । स राजपुरुषः तं राजसमीपं नीतवान् । राज्ञा पृष्टः-कस्मादिमे दीनारास्त्वया लब्धाः, तेन कथितममुकसमीपात लब्धवानस्मि । एवं परम्परया येन निधानमुत्खातितम् स राज्ञा निगृह्य दण्डितः। इत्येवं निधिदर्शनेऽनेके दोषाः समापद्यन्ते । तस्मात्कारणात् श्रमणः श्रमणी वा धातुं निधिं वा न स्वयं प्रवेदयेत् , न परद्वारा प्रवेदयेत् , न वा प्रवेदयन्तं कमप्यनुमोदयेदिति । सू९ ३४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू मत्तए अप्पाणं देहेइ देहंतं वा साइज्जड़ ॥सु० ३५ ॥ जे भिक्खू अदाए अप्पाणं देहेइ देहतं वा साइज्जइ ।। ३६॥ जे भिक्खू असीए अप्पाणं देहेइ देहतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३७|| जे भिक्खू मणिए अप्पाणं देहेइ देहंत वा साइज्जइ ॥ सू० ३८ ॥ जे भिक्खू कुंडपाणीए अप्पाणं देहेइ देहंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३९ ॥ जे भिक्खू फाणिए अप्पाणं देहेइ देहतं वा साइज्जइ ।। सू०४०॥ जे भिक्खू तेल्ले अप्पाणं देहइ देहंतं वा साइज्जइ ॥ मू०४१॥ जे भिक्खू महुए अप्पाणं देहेइ देहंत वा साइज्जइ ॥ सू० ४२॥ जे भिक्खू सप्पिए अप्पाणं देहेइ देहंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४३॥ जे भिक्खू मज्जए अप्पाणं देहेइ देहंतं वा साइज्जइ ॥सू० ४४ ॥ जे भिक्खू वसाए अप्पाणं दे हेइ देहंतं वा साइज्जइ ।। सू० ४५॥
- छाया-यो भिक्षुर्मात्रके आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥३५॥ यो भिक्षुरादर्श आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥सू० ३६॥ यो भिक्षुरस्यामात्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥सु०३७॥ यो भिक्षुर्मणौ आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥सू० ३८ायो भिक्षुः कुण्डपानीये आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ।।सू३९॥यो भिक्षुः फाणिते (तरलगुडे) आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥सू ४०॥ यो भिक्षुस्तैले आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥सु० ४१॥ यो भिक्षुर्मधुके आत्मानं पश्यनि पश्यन्तं वा स्वदते ॥ २॥ यो भिक्षुः सर्पिषि आत्मानं पश्यति पश्यन्त वा स्वदते । सू० ४३।। यो भिक्षुर्मद्ये आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥सू० ४४॥ यो भिक्षुर्वसायामात्मान पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥सु० ४५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मत्तए, मात्रके, तत्र मात्रकं नाम येन पात्रेण जलं पिबति तत् तथा च जलरितपानपात्रे 'अप्पाणं
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MARARAAR
३२२
निशीय देहेई' आत्मानं मुखादिकं पश्यति प्रेक्षते तथा 'देहंत वा साज्जई' पश्यन्तं वा जलप्रितमात्रके स्वात्मानं पश्यन्तं श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ॥सू० ३५। एवम् 'अदाए अप्पाणं देहेड' आदर्श-दर्पणे आत्मानं पश्यति ॥ सू० ३६॥ 'असीए अप्पाणं देहेई' असौ खइगे आत्मानं पश्यति ॥ सू० ३७ ॥ 'मणीए अप्पाणं देहेइ' मणौ आत्मानं पश्यति ।। सू० ३८|| 'कुंडपाणीए अप्पाणं देहेइ' कुण्डपानीये हृदादिजले आत्मानं पश्यति ॥ सू० ३९॥ 'फाणिए अप्पाणं देहेड' फाणिते इशुविकारमूते तरले गुढे आत्मानं पश्यति ।। सू०४०॥ तेल्ले अप्पाणं देहेइ' तैले आत्मानं पश्यति ।। सू० ४१॥ 'महुए अप्पाणं देहेई' मधुके–मधौ ‘सहद' इति प्रसिद्धे द्रवभूते तरले मधौ आत्मानं पश्यति ॥ सू० ४२॥ 'सप्पिए अप्पाणं देहेइ' सर्पिषि-घृते आत्मानं पश्यति ॥ स० ४३॥ 'मज्जए अप्पाणं देहेड' मद्यके-मधे मुरायामात्मानं पश्यति ॥ सू० ४४॥ 'वसाए अप्पाणं देहेई' वसायां शारीरिकधातुविशंपे 'चर्बी' इति प्रसिद्धायां आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा अनुमोदते स दोपभागी भवति ॥ सू० ४५॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-मत्तयाइवसांतेस, एरिसन्नयरेसु वा ।
अप्पाणं देहए भिक्खू, आणाभंगाइ पावई ॥ छाया-मात्रकादिवसांतेपु ईशान्यतरेषु वा ।
आत्मानं पश्यति भिक्षुः, आशाभकादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः-पञ्चत्रिंशत्तममूत्रादारभ्य पञ्चचत्वारिंशत्तमपर्यन्तसूत्रेषु मात्रकादीनि वस्तूनि कथितानि तेषु सर्वेषु, तथा तादृशेषु अन्येप्वपि वस्तुपु यो भिक्षुरात्मानं शरं रमुखादिकं पश्यति 'जत्तियमेत्ता उ आहिया ठाणा' इति वचनात् यावन्मात्राणि आख्यातानि स्थानानि-मुखादिदर्शनयोग्यानि वस्तूनि तेषु सर्वेषु य आत्मानं पश्यति स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोति ॥ . सूत्रम्-जे भिक्खू वमणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ।।सू० ४६॥
छाया-यो भिक्षर्वमनं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कचित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वमणं करेइ' वमनं करोति, तत्र वमनं सुखद्वारा अशिताशनादेहिनिष्कासनमित्यर्थः 'करेंतं वा साइज्जइ, वमनं कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ४६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू विरेयणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ।। सू० ४७॥ छाया-यो भिक्षु विरेचनं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० ४७॥
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चूर्णिभाष्यावरिः उ० १३ स० ४९-५१ आरोग्यार्थप्रतोकारपार्श्वस्थवन्दनप्रशंसननि० ३२३
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे 'भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'विरेयणं करेई' विरेचनं करोति, तत्र विरेचनं नाम अधः-स्रावणम्, संगृहीतमलस्य अपानद्वारा बहिनिस्सारण तादृशं विरेचनं करोति तथा 'करेंत वा साइजई' विरेचनं कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ।। सू० ४७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वमणविरेयणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥सू० ४८॥
छाया-यो भिक्षुर्वमनविरेचनं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४८ ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वमणविरेयणं करेइ' वमनविरचन-समकालं वमनं विरेचनं च करोति तथा 'करतं वा साइज्जइ' वमनं च विरेचनं च कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते म प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ४८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आरोग्गपडिकम्मं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू ४९॥
छाया -यो भिक्षुरारोग्यप्रतिकर्म करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४९ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा आरोग्गपाडकम्म' आरोग्यप्रतिकर्म करोति, तत्रारोग्यं नैरुज्यं तस्मिन् सत्यपि प्रतिकर्म चिकित्सा करोति अनागतरोगस्य प्रतिकर्म करोति अर्थात् यो हि रोगरहितशरीरोपि अनागतकालेऽपि मम शरीर कोपि रोगः शरीरविनाशको मा भूयात्, इति कृत्वा बलादिवृद्धयर्थ भाविरोगशमनार्थ वा मौषगदीनां सेवनलक्षणं प्रतिकर्म करोतीति तथा 'करेंतं वा साइज्जई' आरोग्यप्रतिकर्म कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ॥ सू० ४९॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्--अरोगत्ते सरीरस्स, वलबुद्दिनिमित्तगं ।
सेवए ओसह जो उ, आणाभंगाइ पावइ ॥ छाया- अरोगत्वे शरोरस्य, वलवृद्धिनिमित्तकम् ।
सेवते औषधं यस्तु आझाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः-यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा नीरोगशरीरोपि बलादिवृद्धयर्थम् उपलक्षणात् आगामिकाले मम शरीरे रोगो मा भवतु, इति बुद्धया च औषधादिकं सेवते,
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निशीथपूरे औषधादिसेवनं करोति स भिक्षुः श्रमणः शरीरप्रतिकर्म कुर्वाणः पुनराज्ञाभद्गादिकान् दोपान् प्राप्नोति ॥ सू० ४९॥
सूत्रम-जे भिक्खू पासत्थं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ।। सू० ५०॥ छाया-यो भिक्षुः पार्श्वस्थं चन्दते चन्दमान वा स्वदते ॥ सु० ५०॥
वृणि:-'जे भिक्खू' इत्यादि' 'जे भक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पासत्थं' पार्श्वस्थम्, तत्र पार्श्वे ज्ञानदर्शनचारित्रस्य समीपे तिष्ठति न तत्र उद्यमति यः सः पार्श्वस्थः, अथवा 'पाशस्थः' इतिच्छाया, तत्र पाशो नाम बन्धनम् , तत्कारणमनिरस्यादि किमपि पाशपदेन प्रोच्यते, तादृशे पाशे अविरत्यादिरूपे तिष्ठति यः स पाशस्थः, स द्विविधो द्विप्रकारकः देशतः सर्वतश्च, तत्र देशतः पार्श्वस्थः शय्यातरपिण्डभोज्यादिभेदैरनेकविधः । सर्वतस्त्रिविकल्पः ज्ञानदर्शनचारित्रभेदेन, तत्र ज्ञानविराधको दर्शनविराधकश्चारित्रविराधकश्चेति, तथाहि-ज्ञानस्य विराधकः पार्श्वस्थः १, दर्शनातिचारे वर्तते २, चारित्रे स्थितो न भवति, अतोऽतिचारजातं 'ने परित्यजति स पार्श्वस्थः ३, तादृशं पार्वस्थम् 'वंदई' वन्दते विविपूर्वकं वन्दननमस्कारादिक करोति तथा 'वंदंत वा साइज्जई' वन्दमानं स्वदते पार्श्वस्थस्य वन्दनं कुर्वन्तं श्रमणान्तरमनु. मोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति तथा तस्याज्ञाभद्गादिका दोषा अपि भवन्ति ।। सू० ५०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पासत्थं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जई। सू०१५ ' छाया-यो भिक्षुः पार्श्वस्थ प्रशंसति प्रशंसन्त वा स्वदते सं० ५१॥ । ' चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पासत्थं पार्श्वस्थम् 'पंससई' प्रशमति 'एष शुद्धचारित्राराधे कः' इत्येवंरूपां प्रशंसौ करोति तथा 'पसंसंत चा साइज्जई' प्रशंसन्तं वा स्वदते, यो हि श्रमणः पार्श्वस्थस्य प्रशंसां करोति तमनुमोदते 'स प्रायश्चित्तमांगी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ॥ सू० ५१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कुसीलं वंदइ वंदंतं वा साइज्जई। सू० ५३॥ जे भिक्खू कुसीलं पसंसइ पसंसंत वा साइज्जइ ॥ सू० ५३॥ जे भिक्खू ओसणं वंदइ वंदतं वा साइंज्जई। सू० ५४॥जे भिक्खू ओसण्णं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ।। सू० ५५|| जे भिक्खू संसत्तं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ॥ सू०५६॥ जे भिक्खू संसत्तं पसंसइ पसंसतं वा साइजइ ॥ सू० ५७ ।। जै भिक्खू अहाँछंद वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५८|| जे-भिक्खू अहाउंदं पसंसइ पसंसत वा साइजइ ॥ सू० ५९॥ जे मिक्खू नितियं
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १३ सू० ५२-६९ कुशीलादिनवानां वन्दनप्रशंसननिषेधः ३२५ वंदइ वदंतं वा साइज्जइ ॥ सू०६०॥ जे भिक्खू नितियं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जई। सू० ६१॥जे भिक्खू काहियं वंदइ वदंतं वा साइज्जइ ॥सू०६२ जे भिक्खू काहियं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥ सू०६३॥ जे भिक्खू पासणियं चंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ।। सू० ६४॥जे भिक्खू पासणियं पसंसइ पसंसंत वा साइज्जइ॥ सू०६५॥ जे भिक्खू मामगंवदइवंदंतं वा साइज्जइ ॥ सू०६६॥ जे भिक्खू मामगं पसंसइ पसंसत वा साइज्जइ ॥ सू० ६७|| जे भिक्खू संपसारियं वंदइ वंदतं वा साइज्जइ ॥सू०६८||जे भिक्खू संप सारियं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥सू० ६९॥
___ छायां-यो भिक्षुः कुशीलं वन्दते वन्दमान वा स्वदते ॥ सू० ५२॥ यो भिक्षुः कुशीलं प्रशसति प्रशंसन्तं वा स्वदतें ॥सू० ५३॥ यो भिक्षुरवसन्न वन्दते वन्दमानं पा स्वदते ॥ सू० ५४॥ यो भिक्षुरवसन्न प्रशंसति प्रशंसन्त वा स्वदते ॥स० ५५॥ यो भिक्षुः संसक्तं वन्दते वन्दमानं वा स्वदते ॥ सू० ५६॥ यो भिक्षुः संसक्तं प्रशंसति प्रशंसन्तं वा स्वर्दत ।। सू० ५७॥ यो भिक्षुर्यथाछन्द वन्दते वन्दमान वा स्वदते ॥ सू०५८॥ यो भिक्षुयथार्छन्दं प्रशंसति प्रशंसन्तं वा स्वंदते ।। सू० ५९। यो भिक्षु त्यिक वन्दते वन्दमान वा स्वदते ॥ सू० ६०॥ यो भिक्षुत्यिक प्रशंसति प्रशसन्त वा स्वदते ॥ सू० ६१॥ यो भिमुः काथिक' वन्दते वन्दमानं या स्वदते ॥सू० ६२॥ यो भिक्षुः काथिकं प्रशंसति प्रशंसन्त था स्वदते ॥ सू० ६३ ॥ यो भिक्षुः प्राश्निक वन्दते वन्दमान वा स्वदते ॥२०६४ यो भिक्षुः प्राश्निक प्रशंति प्रशसन्तं वा स्वदते ॥ सू०६५ ॥ यो भिक्षुर्मामक वन्दते बन्दमानं वा स्वदते । सू० ६६॥ यो भिक्षुर्मामक प्रशंसंति प्रशंसन्त वा स्वदते ॥ सू०६७॥ यो भिक्षुः सांप्रसारिक वन्दते वन्दमान वा स्वदते ।। सू० ६८॥ यो भिक्षुः सांप्रसारिक प्रशंसति प्रशंसंतं वा स्वदते ॥ सू० ६४॥
चूर्णी-- 'जे मिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कुसीलं कुशीलम्, तत्र कुत्सितं शीलं यस्य स कुशीलः तम् , अथवा कुत्सितेषु निन्दितेषु कर्मसु सुशील करोतोत्यतः कुशीलः, एवं वन्दनं प्रशसनं चाधिकृत्य कुशीला-वसन्न-संसक-यथाछन्द-नैत्यिक-काथिकप्राश्निक-मामक-सांप्रसारिक-पर्यन्तं सूत्रांणि पार्श्वस्थसूत्रवदेव व्याख्येयानि, तत्र कुशीलः, कुत्सितं शीलम्-आचारो यस्य स कुशीलः, अथवा कुत्सितेषु निन्दितेषु कर्मसु शीलं स्वभावो यस्य स कुशीलः कौतुककर्मत आरभ्य विधामन्त्रचूर्णपर्यन्तकरणकारणादिभिरुपजीवी तं वन्दते० ॥ सू० ५२॥ पसंसह प्रशंसति ।। सू० ५३।। 'ओसन्नं' अवसन्नम् , तत्र अवसन्नः यः समिपि सामा चर्चारी वितथां करोति सः, तं वन्दते ॥ सू० ५४॥ प्रशंसति सं० ५५।। 'संसत्तं' संसक्तं , तत्र संसकः
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निशोथसूत्रे चारित्रविराधकदोपेषु संसक्तः आसक्तः चारित्रविराधकदोषयुक्त इत्यर्थः, यथा गवादिमृतशरीरं कथितं सदनेकप्रकारककृमिनालाकीण भवति तथैव संसक्तोऽप्यनेकदोपाकीणों भवति, स बहुरूपिपुरुपवत् अनेकरूपधारी भवति, नटवत् मनेकरूपाणि करोति, वस्त्रवत् यथा हरिद्वारागरकं प्रक्षाल्य गेरुकादिरागरक्तं करोति, एवं संसक्तोऽपि नानाप्रकारको भवति, यथा पार्श्वस्येपु तिष्ठन् पार्श्वस्थो भवति, कुशीलेषु तिष्ठन् कुशीलो भवति, एवमवसन्नादिविषयेऽपि विज्ञेयम् । एवमन्येप्वपि यथाविधेषु तिष्ठन् यथाविध एव जायते । एतादृशं संसक्तं वन्दते ।। मू० ५६॥ प्रशंसति ।। सू० ५७|| 'अहाच्छंद' यथाच्छन्दम् , यथाच्छन्दः यथा यत्प्रकारकः छन्दः अभिप्राय उत्पद्यते तदनुसारं वर्त्तते यः स यथाच्छन्दः यथेच्छकार्यकारी मागमनिरपेक्षचारीत्यर्थः, तं वन्दते ॥ सू० ५८॥ प्रशंसति ।। सू० ५९॥ 'नितियं' नैत्यिकम् , नैस्यिका-नित्यपिण्डभोजी यः प्रतिदिनमेकस्मादेव गृहात् नियमत आहारादिकं गृह्णाति सः तादृशं वन्दते ॥ सू० ६०॥ प्रशंसति ।। सू० ६१॥ 'काहिय' काथिकम्, काथिकः कथाकारकः, योऽशनाचथै यशःकातिप्राप्त्यर्थं च धर्मादिकथां कथयति यः सः, तं वन्दते ॥ सू० ६२॥ प्रशंसति ।। सू० ६३॥ 'पासणियं' प्राग्निकम् , प्राश्निकः यः सावधप्रश्नं करोति, सावपमपि प्रश्नस्योत्तरं ददाति भूतभविष्यत्कालिकं शुभाशुभं प्रश्नस्योत्तरं ददाति सः, तं वन्दते ।। सू० ६४॥ प्रशंसति ॥ सू० ६५॥ 'मामगं' मामकम् , मामका-यः उपधिवस्त्रपात्रवसत्यादौ मम ममेति ममकारकरणात् मामकः प्रोच्यते, एते उपध्यादयो मम सन्ति न कोऽप्यन्यः एपामुपभोगं करोतु, इत्येवं कथनशीलो मामकः, यथा-मदीयो देशः सुन्दरः, वृक्षवापीसरस्तडागादिशोभितः नैतादृशोऽपरो देशः, सुविहारो मम देशः, यत्र सुलभवसतिभक्तोपकरणादयो वयो गुणाः सन्ति, यत्र शालिगोधूमादीनि अनेकप्रकारकाणि वस्तूनि निष्पद्यन्ते, यत्र गोमहिण्यादीना प्रभूतत्वेन दुग्धदधिनवनीतवृतादीनि प्रचुराणि भवन्ति, यत्र वस्त्रा. लकारादिभिरुपशोभितः स्त्रीपुरुषादिवर्तते, तत्र साधुसाध्वीनामुपद्रवकारको जनो न कोऽपि वर्तते, एतादृशो देशो मम, इत्यादिरूपेण सर्वत्र ममकारको मामकः प्रोच्यते तं वन्दते ॥ सू०६६॥ प्रशंसति ॥ सू० ६७॥ 'संपसारियं' साम्प्रसारिकम् , साम्प्रसारिक:-गृहस्थानां कार्यपु गुरुलाघवं संप्रसारयितुं विस्तारयितुं विस्तरेण तद्विस्तरेण तद्विषये संमति दातुं शीलं यस्य स संप्रसारी, स एव साम्प्रसारिकः गृहस्थानां व्यापारादिषु कौटुम्बिकोचितानुचितकार्येषु मार्गप्रदर्शकः, तं यो वन्दते ।। सू०६८॥ प्रशंसति प्रशंसन्तं वाऽन्यं स्वदते अनुमोदते सः आज्ञामङ्गादिदोषान् प्राप्नोतीति ।
मत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-पासत्थं च समारभ, संपसारियमंतगं ।
वंदइ पसंसई चेव, आणाभंगाइ पावई ।।
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चूर्णिभाष्यावद्रिः उ० १३ सू० ७०-८३ धात्रीदत्यादिपिण्डपरिभोगनिषेधः ३२७ छाया-पार्श्वस्थं च समारभ्य, सांप्रसारिकान्तम् ।
वन्दते प्रशंसति चैव, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः-- 'जे भिक्खू' इति । यो भिक्क्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पासत्यं' पार्श्वस्थमारभ्य साम्प्रसारिकान्तं साम्प्रसारिकपर्यन्तं शिथिनाचारं मुनिवेषधरं वन्दते वन्दनां करोति प्रशंसति प्रशंसां करोति च स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोतीत्यत तेषां वन्दनां प्रशंसां च न कुर्यात् तत्करणात् मित्थ्यात्वादिदोष आपयेत ॥ सू० ६९ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खूधाईपिंडं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥ सू०७०॥ छाया- यो भिक्षुर्धात्रीपिण्ड भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥ ०७०॥
चूर्णि:-जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षु 'धाईपिंडं झुंजइ' धात्रीपिण्डं भुङ्क्ते, तत्र धात्रीकर्मकरणेन यत् पिण्डादिकं भवति तत् धात्रीपिण्डम् गृहस्थबालकादेः क्रीडनं कारयित्वा ततो गृह्यमाणः पिण्डः स धात्रीपिण्डः, तम् धात्रीपिण्डम् तादृशधात्रीपिण्डस्योपभोगं करोति तथा 'भुजतं वा साइज्जई' भुखानं वा स्वदते । यो हि भिक्षुर्धात्रीपिण्डस्योपभोगं करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० ७०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दुईपिंडं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ॥सू० ७१।। जे भिक्खू णिमित्तपिडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू०७२॥ जे भिक्खू आजीवियपिंडं भुंजड भुंजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७३।। जे भिक्खू वणीमगपिडं भूजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ।। सू०७४|| जे भिक्खू तिगिच्छपिंडं मुंजइ भुजंतं वा साइ जइ ॥ सू० ७५॥ से भिवखू कोहपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७६।। जे भिक्खू माणपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७७॥ जे भिक्खू मायापिण्डं भुंजइ भजंतं वा साइज्जइ ॥सु० ७८॥ जे भिक्खू लोभापडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥सू० ७९॥ जे भिक्खू विज्जापिडं भुंजइ जंतं वा साइज्जइ ।। सू०८०॥ जे भिक्खू मंतपिंडं भुंजइ भुजंत वा साइज्जइ ॥ सू० ८१॥ जे भिक्खू जोगपिडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८२॥ जे भिक्खू चुण्णपिंडं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥सू० ८३॥
छाया-यो भिक्षुतीपिण्डं भुङ्क्त भुञ्जानं वा स्वदते ॥ सू०७१॥ यो भिक्षुनिमितपिण्ड भुङक्त भुजानं वा स्वदते ॥ सू० ७२॥ यो भिक्षुः आजीविकापिण्डं मुफ्तेभुजानं
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निशीथसूत्रे वा स्वदते ॥ सू०७३॥ यो भिक्षुर्वनीपकपिण्डं भुपते भुजान वा स्वदते ॥ सू०७४॥ यो भिक्षुः चिकित्सापिण्ड भुपते भुजानं वा स्वदते । सू० ७५॥ यो भिक्षुः क्रोधपिण्डं भुङ्यते भुजानं वा स्वदते ॥ सू०७६|| यो मिक्षुर्मानपिण्ड भुपते भुञ्जान वा स्वदते ।। सू०७॥ यो भिक्षुर्मायापिण्डं भुते भुञ्जानं वा स्वदते ॥सू० ७८।। यो भिक्षुर्लोभण्डिं भुपते भुजान वा स्वदते ॥ सू०७९॥ यो भिक्षुर्विद्यापिण्डं भुयते भुञ्जानं वा स्वदते। सू० ८०॥ यो भिक्षुर्मन्त्रपिण्ड भुङ्क्ते भुञ्जान वा स्वदते ॥ सू० ८१॥ यो भिक्षुर्योगपिण्ड भुक्कते भुजान वा स्वदते ॥सू० ८२।। यो भिक्षु चूर्णपिण्डं भुपते भुजान वा स्वदते । सू०८३॥
___ चूर्णी-एवम्-दूतीपिण्डादारभ्य चूर्णपिण्डपर्यन्तानि त्रयोदश सूत्राणि व्याख्येयानि, तत्र'दुईपिंडं भुंजई' दूतीपिण्डं भुड्क्ते, तत्र यो गृहस्थस्य सन्देशं ग्रामाद् अमान्तराद्वा ग्राम प्रामान्तरम् मानयति नयति स दूतः, एतत्कार्ये स्त्रिया मुख्यत्वमिति दूतीशब्दोऽत्र प्रयुक्तः, तद्योग्यकार्यं कृत्वा आहारादिपिण्डो गृह्यते स दूतीपिण्ड' तं भुक्ते ।। सू० ७१।। 'निमित्तपिंडं भुंजइ' निमित्तपिण्डः अतीतानागतवर्तमानकालिकं शुभाशुभं कथयित्वा पिण्डप्रहणं निनित्तपिण्डस्तं भुङ्क्ते ॥सू० ७२॥ 'आजीवियपिंड भुंजई' आजीविकापिण्डम्, माजीविकापिण्डः स य आजीविकाथै जीवननिर्वाहार्थम् 'अहं भोगवशीयः, उग्रवंशीयः' इति स्वस्य जातिकुलादिकं प्रदर्य गृह्यते, तं भुङ्क्त ।। सू० ७३॥ 'वणीमगपिंडं' वनीपकपिण्डम्, वनीपकपिण्ड. स यः-'अहं साधुरस्मि, यदि भवान् मह्यं भिक्षा न दास्यति तदा को दास्यति । इत्येवं दीनशब्दमुच्चार्य पिण्डो गृह्यते तं भुक्ते ॥७४॥ 'तिगिच्छपिंड' चिकित्सापिण्डम्, चिकित्सापिण्डः स यः गृहस्थानां रोगादौ
औपधदानादिरूपां चिकित्सां कृत्वा गृह्यते, तं भुक्ते ।। सू० ५। 'कोहपिंड' क्रोधपिण्डम्, क्रोधपिण्डः सः यः क्रोधपूवर्क गृह्यते स तं भुक्ते ।। सू०७६॥ 'माणपिंड' मानपिण्डम्, मानपिण्डः सः योऽभिमानपूर्वकं गृह्यते, यथा 'इदमाहारजातं मह्यं देहि नान्यत् ग्रहीप्यामि किमहं साधारणोऽस्मि यदेतादृशमाहारजातं गृह्णामि' इत्यादिरूपाभिमानपूर्वकं गृह्यते स तं भुङ्क्ते ।। सू०७४।। 'मायापिंड' मायापिण्डम्, मायापिण्डः सः यः मायया कपटेनालीकादिभाषणं कृत्वा गृह्यते तं भुङ्क्ते ॥सू० ७८॥'लोभपिंड' लोभपिण्डम् , लोभप्रिण्डः सः यः लोभवशात् प्रणीतरसयुक्तो गृह्यते, तं मुक्त ॥सू० ७९॥ 'विज्जापिंडं' विद्यापिण्डम्, विद्यापिण्ड. सः, यो रोहिणीप्रभृतिस्त्रादेव ताधिष्ठिता ससाधना वा विद्या, तत्प्रयोगं कृत्वा गृह्यते, तं भुते ।। सू० ८०॥ 'मंतपिडं' मन्त्र. पिण्डम्, मन्त्रपिण्डः सः, यः मन्त्रः पुरुपदेवताधिष्ठितो मारणमोहनवशीकरणोच्चाटनादिरूपः तत्प्रयोगेण गृह्यते, तं भुक्ते ।। सू० ८१।। 'जोगपिंड' योगपिण्डम्, योगपिण्डः सः यः गर्भाधानकरणगर्भस्थिरीकरण-वशीकरणादियोगं कृत्वा गृह्यते तं भुक्ते ।।८२।। 'चुण्णपिंड' चूर्णपिण्डम्, चूर्णपिण्डः चूर्णम्-कुट्टितानेकवस्तुसंमिश्रणरूपम्, यत्प्रयोगेण प्रक्षेपणपानादिरूपेण वशीकरण गर्मस्थिरीकरणादिकं जायते तत्प्रयोगकरणपूर्वकं गृह्यते त भुक्ते, भुजानं वा अनुमोदते स आज्ञाभङ्गाद्रिदोषभागी भवति ॥ सू० ८३॥
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धूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १४ सू० १
अत्राह भाष्यकार ः—
भाष्यम् - धाईपिंडं समारब्भ, चुण्णपिंडगमंतगं । भुंजे अह अणुमो य, आणाभंगाइ पावइ ॥
प्रतिग्रहस्य क्रयणकापणादिना ग्रहणनिषेध. ३२९
छाया - धात्रीपिण्डं समारभ्य चूर्णपिण्डान्तकम् । भुञ्जीताथानुमोदेत व आवाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः - 'घाईपिंडं' इत्यादि । घाश्रीपिण्डादारम्य चूर्णपिण्डपर्यन्तं यो भुञ्जीत अहरेत्, अथ अनुमोदेत च स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोति ॥ सू० ८३ ||
अथोपसंहारमाह-- 'तं ठाण इत्यादि ।
सूत्रम् — तं ठाणं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥ सू० ८४॥
॥ निसीहज्झयणे तेरसमो उद्देसो समत्तो ॥ १३ ॥
छाया— तत्स्थांनं सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमुद्धातिकम् ॥८४॥ ॥ निशीथाध्ययने त्रयोदशोदेशकः समाप्तः ॥ १३॥
चूर्णी - 'तं ठाणं सेत्रमाणे' तत्स्थानं पृथिवीकायिकादिषु स्थानकरणादित आरभ्य चूर्ण पिण्डग्रहणपर्यन्तं प्रायश्चित्तस्थानं सेवमानः, तस्य स्थानस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् भिक्षुः एषु स्थानेषु मध्यात् यत् किमप्येकमनेक सर्वं वा प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेवमानः 'आवज्जइ' आप प्राप्नोति 'चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उग्धाइयं' चातुर्मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकं लघुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति ॥ सू० ८४||
इति श्री-विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषाकलितललित कलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकप्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्री शाहू छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त“जैनशास्त्राचार्य " - पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य —जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री- घासीलालवति - विरचितायां "निशीथसूत्रस्य" चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् त्रयोदशोदेशकः समाप्तः ॥१३॥
४२
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॥ चतुर्दशोदेशकः॥ अथ त्रयोदशोदेशक व्याख्यायावसरप्राप्तं चतुर्दशोदेश व्याप्यातुमाह, तत्र त्रयोदशोदेशकान्तिमसूत्रेण मह चतुर्दशोदेशकादिसूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्यत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-पडिसेहो च पुमि, पिंडाइस्स पदसिओ ।
सो चेव पडिसेहो उ, पत्ताइस्स कहिज्जइ ॥ छाया-प्रतिषेधश्च पूर्वस्मिन् पिण्डादेः प्रदर्शितः ।
स पव प्रतिपेधस्तु पात्रादे. कथ्यते ॥ अवचूरिः- त्रयोदशोदेशकस्य अन्तिमे पिण्डादेरविहितधात्र्यादिपिण्डस्य प्रतिषेधः धात्रीपिण्डप्रभृतिपिण्डग्रहणस्य निषेधः प्रदर्शितः कथितः, तादृशपिण्डस्य संयमोपघातकत्वात् । स एव प्रतिषेधोऽत्र चतुर्दशोदेशके पात्राघुपधेः कथ्यते, तत्राविहितपिण्डग्रहणस्य तदुपभोगस्य च निषेधः कृतोऽत्राविहितपात्रस्योपलक्षणादुपधेः निषेधो वर्ण्यते इति उभयत्रापि प्रतिषेध एव, ततश्च यथा अविशुद्धपिण्डग्रहण न कर्तव्यं तथैव-अविशुद्धपात्रादिकमपि वर्जनीयमेव, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य चतुर्दशोद्देशकीयप्रथमसूत्रस्य व्याख्यानं प्रस्तूयते-'जे भिक्खू इत्यादि ।
सूत्रम्--जे भिक्खू पडिग्गहं किणइ किणावेइ कीयमाहटुदिज्जमाणं पंडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १॥
छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहं क्रीणानि कापयति फ्रीतमाहत्य दीयमान प्रतिगृशति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० १॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जेमिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिग्गह' प्रतिग्रहं गात्रं 'किणइ' क्रीणानि, द्रव्यादिकं दत्त्वा स्वयमेव पात्रस्य क्रयणं करोति तथा 'किणावेई' क्रापयति, परद्वारा द्रव्यादिकं दापयित्वा पात्रं क्राणाति तथा 'कीयमाहहु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ' क्रीतमात्यदीयमानं गृह्णाति, अन्यः कोपि श्रद्धालुर्गृहस्थः मूल्यं दत्त्वा पात्रं क्रीतवान्, क्रीत्वा प्रदीयते तादृशं क्रीतमाहृतमभिमुखमानीय नीयमानं पात्रादिकं प्रतिगृहाति स्वीकरोति स्वीकारयति वा तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृहन्तं वा स्वरते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनादयो दोषा भवन्तीति ।। सू० १॥
अत्राह भाष्यकार: भाष्यम्-कीय किणावियं वावि, अणुमोइयमेव वा ।
एक्कक्कं दुविहं बुत्तं, दव्यभावप्पमेयओ ॥ छाया-क्रीत क्रापित वापि, अनुमोदितमेव वा ।
एकैकं द्विविध प्रोक्तं द्रव्यभावग्रमेदतः ॥
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पणिभाष्यावरिः उ० १५१०२
प्रतिग्रहस्य प्रामित्यादिना ग्रहणनिषेधः ३३१
अवचूरि:-यत् क्रीत स्वयमेव मूल्यं समर्प्य यस्य क्रयणं कृतं तत्, यद्वा क्रापित अन्य द्वारा क्रयणं कारितम् अन्येन क्रीत्वा अभिमुखमानीय समर्पितं तत् तादृशम् अनुमोदित वा, एतत् त्रिविधमपि पात्रमेकैकं द्विविधं द्विप्रकारकं कथितं द्रव्यभावभेदात् , तत्र द्रव्यतो गन्धगुटिकावखादिंदानेन, भावतः धर्मकथादिकथनेंन जातिकुलगणादिदर्शनेन, शिल्पादिशिक्षणेन भवति । तथा पुनरपि क्रीतादिकं द्विविधं भवति आत्मपरभेदात् , तदपि पुनर्द्विविधं द्रव्यभावभेदात् , तत्र मत् परक्रीतं गृहस्थेन स्वर्य क्रीतं तत् त्रिविधं भवति सचित्तक्रीतम् , अचित्तंक्रीतं, मिश्रक्रीतम् , तंत्र सचित्तक्रीत-मचित्तेन द्विपदचतुष्पदादिना क्रीणाति, अचित्तक्रीतम्-अचित्तेन हिरण्यादिना क्रीणाति, मिश्रीत मिश्रितेन वंत्राभूषणसहितदासीदासादिना क्रीणाति तत् मिश्रक्रीतम् | द्रव्यत
आत्मक्रीतं चेत्थम्-यो भिक्षुः पात्रार्थ स्वस्य वस्त्रं दत्त्वा पात्रं गृह्णाति, भावत आत्मक्रीतं धर्मकथादिना यंत् गृह्यते । परक्रीतं तु इत्थम्-गृहस्थः स्वयमेव क्रीणाति तत् परक्रीतम् । एतेषां स्वक्रीत-परक्रीत-द्रव्यकीत-भावक्रीताभिमुखानीतपात्रादिकमध्यात् अन्यतरेमपि पात्रादि उपभोगाय गृह्णाति तो गृहीत्वा उपभोगं कुर्वाणं समनुमोदते म प्रायश्चित्तभांगी भवति ॥ सू० १ ॥ ___ सूत्रम्-जे भिक्खू पडिग्गहं पामिच्चेइ पामिच्चावेइ पामिच्चियमाहंटु दिज्जमाण पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २||
__छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहं प्रामित्यति प्रामित्ययति पासित्यम् आहृत्य दीयमानं प्रतिगृह्वाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥सू० २॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'पडिग्गई' प्रतिग्रह पात्रम् 'पामिच्चेइ' प्रामित्यति प्रमितिः प्रमाणं, तस्माद् आगतं प्रामित्यम् , प्रमाणं कृत्वा प्रति प्रदानप्रतिज्ञया यद् ग्रहणं तत् प्रामित्यम् । तत्करोतोति प्रामित्यति, यथा यस्य वस्तुनः ग्रहणकाले कथयति 'यदिदानीमिदं वस्तु त्वं मम देहि कालान्तरे एतस्य मूल्यं तदेव वस्तु वा प्रतिदास्यामि' इति कृत्वा ऋणरूपेणानीयते तत् प्रामित्यम् 'उधार' इति लोकप्रसिद्धम् , तत्करोतीति, तथा 'पामिच्चावेइ' प्रामित्ययति , अन्यद्वारा ऋणरूपेण आनाययति 'पामिच्चियमाहटूटु दिज्जमाण प्रामित्यितम्-प्रामित्येन गृहीतम् आहृत्य दीयमानम् उद्धारं कृत्वा पात्रं क्रीतवान् , तादृशपात्रमभिमुखमानीय दीयमानम् यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति प्रातिप्राहयति स्वीकारयति वा तथा 'पडिग्गाहेंत' वा साइज्जई' प्रतिगृहन्तं वा स्वदतेऽनुमोदतें स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:' भाष्यम्-पामिच्चाइयपायं तु, दुविई परिकिट्टियं ।
लोउत्तरं लौइयं च, तग्गहणे दोसभा जई ॥
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चूर्णिभाष्यावरिः उ० १४ सू०३ प्रतिग्रहस्य परिवर्तनादिना ग्रहणनिषेधः ३३३ हे दयालो ! कुत्र भवान् निवासं करोति ? साधुरुवाच अमुकोपाश्रये सम्प्रति वसामि । ततो द्वितीयद्विवसे स गृहस्वामी गृहकार्य सर्व कृत्वा तस्मिन् उपाश्रये साधोदर्शनार्थ गतवान् । ततः स गृहस्वामी साधोर्वन्दननमस्कारादिकं विधाय समुपविष्टः, ततः स साधुस्तस्मै धर्मकथा कथितवान्-हे श्रावक ! सर्वो जीवः स्वस्वकर्मपराधीनः सर्वमपि कार्य करोति तत्र दयादिधर्मः सम्यक् पालनीयो येन इहलोके परलोके उभयत्रापि सुखं भवेत् , आरम्भसमारम्भादिकं जीवानां नरकपातायैव केवलं भवति । एवं कमेण वृहती धर्मकथां कथितवान् । ततः साधुमुखात् संसारस्य नश्वरभावं मोक्षस्य च शाश्वतभावं निरतिशयसुखरूपं च ज्ञात्वा संसारात् जातवैराग्योऽभवत् । तदीयस्वजनादयोपि नानाविधम भिग्रहं गृहीतवन्तः । सम्यक्त्वं प्रतिपन्नः सन् अणुव्रतानि गृहीत्वा द्वादशवतधारो जातः । ज्ञातदासोवृत्तान्तो दासी मुक्तवान् । लोकोत्तरं प्रामित्यं साधुः साधुतः प्रामित्यं करोति, तत्रापि पुनरदाने परस्परं कलहवैमनस्यादयो बहवो दोषाः समापद्यन्ते, तस्मात् प्रामित्यपात्रादिग्रहणं न कार्यम् । उपलक्षणत्वात् वनाहारादिकं किमपि न ग्राह्यम् ॥ सू० २ ।
सूत्रम्--जे भिक्खू पडिग्गहं परियट्टेइ परियडावेइ परियट्टियमाहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहतं वा साइज्जइ॥ सू० ३॥
छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहं परिवर्तते परिवर्तयति परिवर्तितमाहत्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ २० ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'पडिग्गह' प्रतिग्रह पांत्रम् 'परियटेइ' परिवर्तते स्वयं परिवर्तनं करोति स्वकीयं पात्रम् अन्यस्मै ददाति अन्यस्य च पात्रं स्वयं गृह्णाति तथा 'परियहावेइ' परिवर्तयति अन्यद्वारा पात्रं परिवर्तयति 'परियहियमाडल दिज्जमाण' परिवर्तितमाहृत्य दीयमानं परिवर्तितं पात्रं अभिमुखमागत्य ददतम् 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्--परिवटियं च दुविहं, लोइय लोगुत्तरं समासेण ।
एक्केक्कंपि य दुविहं, तद्दब्वे अण्णव्वे य ॥ छाया-परिवर्तितं च द्विविधं लौकिकं लोकोत्तर समासेन ।
पकैकमपि द्विविध' तद्रव्ये अन्यद्रव्ये च ॥ अवचूरिः-स्त्रे परिवर्तितपात्रादेप्रेहणे तदुपगोगे च निषेधः कथितः, तत् परिवर्तित पात्रादिकं द्विविधं द्विप्रकारकं भवति-एकं लौकिकमपर लोकोत्तरं च, तत्र लौकिकं गृहस्थानां
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निशोथसूत्रे
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लोकोत्तरं साधूनाम् । पुनरपि एकैकं द्विविधं सिकारकं भवति तद्रव्ये तथा अन्यद्रव्ये च । तद्द्रव्ये परिवर्तन या पात्रं पात्रेण परिवर्तयति । मन्यदध्ये परिवर्तनं यथा पात्रं वत्रेण परिवर्तयति, वां वा पारेणान्येन वा येन केनचित् वस्तुना परिवर्तयति । तत्र गृहस्थः संयताय दातुशमः पात्रादिकम् अन्यस्तै गृहस्थाय परिवर्तयितुं ददाति एतत् परिवर्तन लौकिकम् ।
त्थाहि-- कस्मिथित् ग्रामे द्वौ भावको भास्ताम् तयोरेकैका भगिनी अपि आसीत्, तनकस्य भगिनी नपरेण परिणोता. अपरस्य भगिनी परेण परिणीता, परस्परं तयोः भगिनीपतित्वेन सम्बन्ध जातः । ततः कालान्तरे तयोरेक्स्यान्यो साता संसारस्यासारतां ज्ञात्वा प्रवजितो जातः । स सूत्रे सम्यगवीत्याचार्याज्ञण स्वजनवर्गाय दर्शनं दातुं सांसारिकामे गतवान् परन्तु तस्य भगी दरिद्राभासोत् कोद्रवान्नेन जीवनं यापयति परन्तु मणाय सात्रे भिक्षार्थ कोद्रवं नीला मातृगृहात् शात्यन्नमानीतवती एवंप्रकारेण साध्वर्धमोदनं परिवर्तितं कृतम्, ततो यदा तथा स्वामिने भोजनकाले कोरवी दत्तस्तदा पृथ्वान् कस्मात् शेवः समागतः । किन्तु सा नोकवती किमपि । ततः क्रोधात् गृहपतिना गृहात् सा निष्कासिता । तच्छ्रुत्वा अन्योपि मिनी विकसितवान् एवं क्रमेण तयोः परस्परं कल्हो जातः ततः स साधुः तयोः कल्डं ज्ञादा सम्यक्त्वधनोपदेशेन क्रोधफलं त्रावितवान् । ततः साधोरुपरामवचनं श्रुद्धा कलहान्निवृत्ता जाताः । यस्मादेते कहादिदोषाः संभवन्ति तस्मात्कारणात् पात्रपिण्डादीनां परिवर्तन न कर्तव्यम् । एवं साबुन परस्परं परिवर्तन पात्रादीनां करोति तद् लोकोत्तरं परिवर्तनम्, एवं साधुभिरपि परस्परं परिवर्तनं न कर्तव्यम् ॥ सू० ३ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू पडिग्गहं अच्छिज्जं अणिसिद्धं अभिहड माहदिज्जमाणं पडिग्गा हेइ पडिग्गाहतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४ ॥
छाया -यो भिक्षुः प्रतिग्रहमाच्छेय' भनिसृष्टमभिहृतमाहत्य दीयमानं प्रतिगृद्धाति प्रतिहन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४.
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चूणी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'पडिग्गहं' प्रतिमहं पात्रम् 'अच्छि' माच्छेषस् मन्यत्वादिकं पानं साध्वर्थे बलात् गृहीत्वा दीयते तत् माच्छेयम्, सन्यस्वामिकवस्तु बलात्कारपूवर्क गृहीत्वा दीयमानं तथा स्वकीयमपि वस्तु दासादिहस्ते स्थितं तर वस्तु तदस्तादान्हिथ साधने यह दीयमानं तदपि नान्यमुच्यते 'अणिसिदूं' भनिसृष्टम् - यशस्तु अनेस्त्वामिकं तत् सर्वेषामाज्ञां विना ग्रहणम् नन्दिष्टमित्यर्थः, 'अभिहडं आहह्ह दिज्जमाणं' अभिमुखमाहृत्य दीयमानं साध्वर्थमभिसुखमागस्य यत् दीयते तादृशम् पात्रादिकस् 'पडिगाई' प्रतिगृहाति स्वीकरोति तथा 'पडिम्गार्हतं वा साइज्जइ' प्रतिगृहन्तं वा स्वदनुभोदते स प्रावधितभागी भवति ।
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चूर्णिभाष्यावद्भिः उ० १४ सू० ४-५
आच्छेद्यपात्रग्रहणानाशावितरणनिषेधः ३३५
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अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-अच्छिज्ज तिविहं वुत्तं, पहु सामि य तेणए ।
एहिं छिज्जं च पत्ताइ, साहूणं णेव कप्पइ ॥ छाया---आच्छेद्य विविध प्रोक्त, प्रभु स्वामि च स्तेनकम् ।
पतैश्छेद्य च पात्रादि साधूनां नैव कल्पते । अवचूरिः-सूत्र यत् बलात्कारादिना पात्रादीनामाछेद्यत्वं कथितं तत् आछेचं त्रिविधं त्रिप्रकारकं भवति, प्रभ्वाछेद्य, स्वाम्याछेद्य स्तेनाय च । तत्र एतैः प्रभुप्रभृतिभिराछेद्य बलास्कारादिना गृहीतं पात्रादिकं पिण्डवस्त्रपात्राघुपधिः श्रमणानां श्रमणीनां च नैव कल्पते उपभोगाय तथा च प्रभ्वाच्छेचे उदाहरणम्--
कस्मिंश्चित् प्रामे एको गोप आसीत् , स च पयोविभागेन गाः रक्षति, गवां यत् दुग्धं भवति तत्रैकं भागं स्वयं गृह्णाति भागत्रयं च गोस्वामिने ददाति । अथवा दिनत्रयं सर्व दुग्धं गोस्वामिने ददाति चतुर्थे दिने यत् यत् दुग्धं तत्सर्वं स्वयं गृह्णाति, एतदेव गोपस्य वेतनम् । एवंप्रकारेण गोपालनं कुर्वन् गाः रक्षति । एकदा कदाचित् गोपालस्य पयोग्रहणदिवसे कश्चित् श्रमणः समागतः तदा गोस्वामी गवां पयो गृहीत्वा श्रमणाय दत्तवान् , यद्यपि गोपस्येदृशं कार्य नाभिमतं तेन तस्य मनसि अप्रियमभूत् तथापि तूष्णीमेव स्थितः मौनमेव स्थितः न्यूनमेव दुग्धं पयोभाजने गृहीत्वा स्वगृहं गतवान् । तदनन्तरं तत्पल्या गोपिकया पयोमाजनमभृतं दृष्टम् , तद्दृष्ट्वा सा प्रोवाच गोपं प्रति-कथमच पयोभाजने न्यूनमेव दुग्धं घिद्यते । गोपोऽवदत् हे गोपिके ! किं कथयामि मम दौर्भाग्यात् तत्रैको दुर्वर्णः श्रमणः समागतः तस्मै मम दुग्धं बलात् गृहीत्वा गोस्वामिना दत्तं ततो रिक्तं प्योभाजनं विद्यते, तदा सा गोपं प्रनि क्रुद्धा दुर्वाक्यं कथितवती । ततः स साधु मारयितुं समागतः, प्रयत्नेन मोचितः साधुरिति । तस्मादाच्छिय दीयमानमन्नादिकं न प्राह्यमिति । एवं स्वाम्याच्छेचमनेकस्वामिकं वस्तु एकस्यैवाज्ञया ग्रहणे स्वामिनां परस्परं कलहादिकं जायते अतस्तदपि त्याज्यम् । एवं स्तेनाच्छेद्यं चौरेण यच्चौर्यकर्मणाऽऽनीतं तत् भयप्रदर्शनपूर्वकं तद्धस्तादाच्छिद्य दीयमानं भवति, एतादृशवस्तुग्रहणे तदीयसंतत्यादिना श्रावकस्य प्राणभयादिसंभावना, ततस्तथा न कार्यम् ।। सू० ४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अतिरेगपडिग्गहं गणि, उद्देसिय गणि समुद्देसिय तं गणिं अणापुच्छिय अणामंतिय अण्णमण्णस्स वियरइ वियरंत वा साइज्जइ ॥ सू० ५॥
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निशीथसूत्रे
छाया - यो भिक्षुरतिरेकप्रतिग्रहं गणिमुद्दिश्य गणि समुद्दिश्य तं गणिमनापृear अनामन्त्र्य अन्योन्यस्मै वितरति वितरंतं वा स्वदते ॥ सू० ५ ॥
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चूर्णी. 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'अइरेगपडिग्गई' अतिरेक प्रतिग्रहम् - प्रमाणादधिकं पात्रं यावत्प्रमाणकं पात्रादिकं श्रमणार्थ शास्त्रे कथितं ततोऽधिकम्, अयं भावः-उत्कृष्टेन एकस्य साधोः कृते पात्रत्रयं चतुर्थमुन्दकं तीर्थकरेणानुज्ञातं, ततोऽधिकं पात्रम् अतिरेकमिति कथ्यते । अथवा - यावत्संख्यक पात्रग्रहणं कथितं तदपेक्षया यदि बहुतरं गृह्णाति ततोऽतिरेकमिति कथ्यते । अथवा अनेन प्रकारेणातिरेको भवेत् यथा कोपि साधुः पात्रयाचनार्थे प्रस्थितः तत आचार्यः पृच्छति क गच्छसि तदा स वदति पात्रमानेतुम्, पात्रेषु छिद्राणि जातानि । तदा आचार्यः कथयति - सर्वसाध्वर्थं पात्राणि आनयतु । तदा स निर्गत पात्रमानेतुम् मार्गे गच्छन् संभोगिसाधुना स दृष्टः, संभोगी साधुर्वदति-क्व गच्छसि ? स प्रोवाच आचार्येण सर्वेषां पात्रग्रहणाय प्रस्थापितोऽस्मि । तदा सांभोगिकः साधुर्वदति-भो श्रमण ! यावन्ति पात्राणि गुरुणा ते ग्रहीतुं संदिष्टानि तावत्सु पात्रेषु गृहीतेषु यदि तदतिरिक्तं पात्रं लब्धं भवेत् तदा ग्रहीतव्यं गृहीत्वा च मह्यं ममर्पणीयम्, अहह्माचार्यं विज्ञापयिष्यामि । ततः पात्रान्वेषकः साधुर्वदति - एवं करिष्या - मीति । ततः स गतः पात्रमानेतुम् तनो लब्धं तावत्प्रमाकं पात्रं यावन्मात्रं गुरुणा संदिष्टं ततोऽधिकमपि पात्रं लब्धं गृहीतं च । एवं प्रकारेणातिरेकपरिग्रहो भवति । अथवा यदीदं पात्रं त्रुटितं स्फुटितं स्फटितं वा स्यात् तदा ग्रहीतव्यं भवेत्, संप्रति प्रायोग्यं च लभ्यते, इति कृत्वा आत्मछन्दसा अनिर्दिष्टान्यपि पात्राणि गृहीतानि इत्यतिरेकपरिग्रहो भवतीति । "गणि उद्देसिय गणि समुद्देसिय” यं गणिमुद्दिश्य यं गणि समुद्दिश्य व्यतिरेकपात्रं गृहीतम् तत्र विशेषित उद्देशो यथागृहीतमतिरेकपात्रादिकं साधर्मिकाय दास्यामीति, तथा विशेषितः समुद्देशः यथा सति साधर्मिके साधर्मिकाय दाम्यानि, अथवा उद्देशः -गणिनो दास्यामि वाचकाय वा दास्यामि, समुद्देशो यथा अमुकगणिने दास्यामि अमुखवाचकाय वा दस्यामीति । तत्र सामान्यतोऽवधारणमुद्देशो विशेषतो निर्धारणं समुद्देश इति निष्कर्षः । "तं गणि अणापुच्छिय भणामंतिय" तं गणिनं यदर्थमतिरेकषात्रस्य ग्रहणं कृतवान् तम् अनापृच्छय पृच्छामकृत्वैव अनामन्त्रय आमंत्रणमकृत्वैव, यमुद्दिश्य अतिरेकपात्रादिकं गृहीतवान् तं दृष्ट्वा गिमन्त्रणं, यथा-इदं त्वदीयं पात्रादिकं स्वेच्छया गृहाण, अथ यदर्थमानीतवान् स प्रत्यक्षतो न मिलति तदा अन्यं पृच्छति कुत्र गतवान् स साधुरमुको वाचको गणी वा इति प्रच्छनम्, दृष्टे आमन्त्रणमदृष्टे पृच्छेनि विवेकः । " अणमण्णस्स वियरइ" अन्योन्यस्मै वितरति यं समुद्दिश्याऽऽनीतवान् तमनापृच्च्य अनामन्त्र्यान्यस्मै खेच्छया वितरति ददाति तथा 'चियरंतं वा साइज' वितरन्तं ददतं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ॥ सू० ५ ॥
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चूर्णिभाष्यावरिः उ०४१ सु०६-८ अतिरेकप्रतिग्रहस्य समर्थासमर्थाय दानादाननि० ३३७
सूत्रम्-जे भिक्खू अइरेगं पडिग्गहं खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा थेरस्स वा थेरियाए वा अहत्थच्छिन्नस्स अपायछिण्णस्स अनासाछिण्णस्स अकण्णछिण्णस्स अणोद्दछिण्णस्स सक्कस्स देइ देंतं वा साइज्जइ ।। सू०६॥
छाया-यो भिक्षुरतिरेकप्रतिग्रहं क्षुल्लकाय वा क्षुल्लिकायै वा स्थविराय वा स्थविराय वा अहस्तछिन्नाय अपादछिन्नाय अनासाछिन्नाय अकर्णछिन्नाय अनोष्ठछिन्नाय शकाय ददाति ददतं वा स्वदते ॥ सू० ६ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अइरेगं पडिग्गह' अतिरेकं प्रतिग्रहं प्रमाणादधिकं प्रतिग्रहं पात्रं यस्य पात्रस्य यावत् प्रमाणं शास्ने कथितं तदपेक्षया अधिकं पात्रमतिरेकमिति कथ्यते, तादृशपात्रम् 'खुड्डगस्स' क्षुल्लकायानतिक्रान्तवालवयस्काय वालकायेत्यर्थः, 'खुड्डियाए वा' क्षुल्लिकायै वा वालिकायै 'थेरगस्स वा' स्थविरायवृद्धाय वा 'थेरियाए वा' स्थविराय वा वृद्धायै इत्यर्थः, कथंभूतेभ्य-क्षुल्लकादिभ्यः ? तत्राह'अहत्थच्छिण्णस्स' अहस्तच्छिन्नाय न हस्तौ छिन्नौ भग्नौ यस्य स अहस्तछिन्नः हस्ताधवयवसंपन्नः, तस्मै महस्तछिन्नाय तथा 'अपायच्छिण्णस्स' अपादछिन्नाय न पादौ चरणौ छिन्नौ विभग्नौ यस्य स अपादछिन्नः पादावयवसम्पन्नः; तस्मै अपादच्छिन्नाय तथा 'अणासाच्छिण्णस्स' अनासाछिन्नाय न छिन्ने कर्तिते नासिके यस्य स अनासाछिन्नः तस्मै भनासाछिन्नाय नासिकावयवसम्पन्नाय 'अकण्णछिण्णस्स' अकर्णछिन्नाय-अच्छिन्नकर्णाय कर्णसंपन्नायेत्यर्थः 'अणोद्दछिण्णस्स' अनोष्ठछिन्नाय. न छिन्नौ ओष्ठौ पूर्वापरौ यस्य स तथाविधः तस्मै अनोष्ठछिन्नाय ओष्ठावयवसम्पन्नाय, एतावता सर्वावयवसम्पन्नत्वं प्रदर्शितम् अत एव 'सक्करस' शक्ताय समर्थाय, तत्र शारीरिकमानसिकादिवलयुक्तः समर्थः तादृशाय शक्तिसम्पन्नाय 'देई' ददाति सर्वाङ्गोपाङ्गयुक्तबलवीर्यादिसम्पन्नाय यो भिक्षुरातरेकपात्रं समर्पयति तथा 'देंतं वा साइज्जइ' ददतं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-वालस्स य वुड्डस्स य, साहुस्स साहुणिस्स वा।
सक्कस्साणंगछिन्नस्स, देज्ज पत्ताइ दोसभा ॥ छाया--वालाय च वृद्धाय च साधवे साध्यै वा ।
शक्तायाऽनङ्गछिन्नाय दद्यात् पात्रादि दोषभाक् ॥ अवचूरि:-बालाय बाल्यावस्थासम्पन्नाय, वृद्धाय स्थविराय वा साधवे तथा एता'श्यै साध्यै वा, कोशाय ? शक्ताय शक्तिसम्पन्नाय गमनागमनसमर्थाय तथा अनङ्गछिन्नाय
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निशीथरले हस्तपादादिपरिपूर्णाङ्गाय साधवे साच्चै वा यदि कोपि मुनिः यत् पात्रादि वस्त्रपात्राधुपकरणजातं सातिरेकं साधुकल्पादधिकं तत् दद्यात् स दोपभाग् भवति-आज्ञाभङ्गादिदोपान् प्राप्नोतीति भावः ॥ सू० ६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अइरेगं पडिग्गहं खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा थेरगस्स वा थेरियाए वा हत्थछिण्णस्स पायच्छिण्णस्स नासाछिण्णस्स कण्णछिण्णस्स ओट्ठछिण्णस्स असकस्स न देइ न देंतं वा साइज्जइ ॥
__ छाया-“यो भिक्षुरतिरेकं प्रतिग्रह क्षुल्लकाय वा क्षुल्लिकार्य या स्थविराय वा स्थविरायै वा हलछिन्नाय पादछिन्नाय नासाछिन्नाय कर्णछिन्नाय ओष्टछिन्नाय मशक्ताय न ददाति न ददतं वा स्वदते ॥ सू० ७ ॥
चूर्णी--सूत्रोक्तहस्तछिन्नादिविशेषणविशिष्टेभ्यः, साधुसाध्वीभ्यः अतिरेकं पात्रं न ददाति न ददतमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ७॥
सूत्रम-जे भिक्खू पडिग्ग अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं घरेइ धरतं वा साइज्जइ ।। सू०८॥
छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहमनलमस्थिरमध्रुवमधारणीयं धरति घरन्तं वा स्वदते ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् मिक्षुः 'पडिग्गई' प्रतिग्रह पात्रम् 'अणल' अनलम्-अपर्याप्तम् , नत्र अलं शब्दः पर्याप्त्यर्थकः न अलमनलम् अपर्याप्तम् असंपूर्ण खण्डितावयवमित्यर्थः 'अथिर' अस्थिरम् अदृढम् 'अधुवं' मध्रुवम् , तत्र ध्रुवं दीर्घकालभावि तथा च दीर्घकालभावि यत् न भवति तत् अध्रुवम् 'अधारणिज्ज' अधारणीयम् न धारयितुं योग्यं यत् तत् अवारणीयम् अलक्षणसम्पन्नमित्यर्थः यादृशं लक्षणं पात्रस्य कथितं तादृशलक्षणविहीनं यत् पात्रं तत अधारणीयमिति कथ्यते, एतादृशमनलमस्थिरमध्रुवमधारणीयपात्रम् यो भिक्षुः 'धरेइ' धरति, स्वममीपे स्थापयति तथा 'धरेंत' वा साइज्जई' धरन्तं वा स्वदते, यो हि अनलादिकपात्रस्य धारण करोति कारयति तस्यानुमोदनं वा करोति स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू पडिग्गहं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं न धरेइ न धरत वा साइज्जइ ।। सू० ९॥
छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहं अलं स्थिरं ध्रुवं धारणीयं न, धरति न धरन्तं वा स्वदते ।। सू० ९॥
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चूर्णिभाष्यावद्भिः ३० १४ सू० ९-३१ प्रतिग्रहस्य वर्णादिविपर्ययकरणनिषेधः ३३९
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'पडिग्गई प्रतिग्रहं पात्रम् 'अलं' मलं पर्याप्तम् 'थिर स्थिरं दृढम् 'धुवं' ध्रुवं चिरकालपर्यन्तमपि स्थायि 'धारणिज्ज' धारणीयं धतु योग्यं पात्रस्य यत् लक्षणं प्रदर्शितम् तादृशलक्षणयुक्तम् 'न घरेइ न धरति यत् पात्रं कार्यकरणसमर्थ दृढं चिरकालस्थायि सर्वलक्षणलक्षितं न धरति न स्वकीयपार्श्वेऽवस्थापयति तथा 'न धरत वा साइज्जई' न धरन्तं वा स्वदते, यो हि भिक्षुः सर्वथालक्षणादिसम्पन्नमपि पात्रादिकं न धरति तस्यानुमोदनं करोति स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू०९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वण्णमंतं पडिग्गहं विवणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १०॥
छाया-यो भिक्षुर्वर्णवन्तं प्रतिग्रहं विवर्ण करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १०॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'वण्णमंतं पडिग्गह' वर्णवन्तं प्रतिग्रहं शोभायुक्तम् 'विवण्णं करेइ' दिवर्ण करोति, तत्र कुत्सितो वर्णो नीलादिकः यस्य दर्शनेन मनसि अप्रीति यते तादृशेन कुत्सितवर्णेन युक्तं करोति 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० १०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू विवणं पडिग्गहं वण्णमंतं करेइ करेंत वा साइज्जइ ॥सू० ११॥
छाया-यो भिक्षुर्विवर्ण प्रतिग्रहं वर्णवत् करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ११॥
चूर्णी-जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'विवण्णं पडिग्गह' विवणे प्रतिग्रह पात्रम् विगतवर्ण क्षारतितोष्णजलादिना विगतवर्णे प्रतिग्रहं पात्रादिकं पुनरपि 'वणमंतं करेइ' वर्णवत् करोति शोभनवर्णयुक्तं करोति 'करेंतं पा साइज्जई' कुर्वन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ११॥
सूत्रम्-जे भिक्खू नवए मे पडिग्गहे लद्धे ति हुट्ट तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा मिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा भिलिगेंतं वा साइज्जइ ।। सू० १२॥
छाया-यो भिक्षुर्नवो मया प्रतिग्रहो लब्ध इति कृत्वा तैलेन वा घृतेन वा नवनीतेन वा वसया चा म्रक्षयेत् वा अभ्यङ्गयेत् वा म्रक्षयन्तं वा अभ्यङ्गयन्तं वा स्वदत्ते ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इन्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चित् भिक्षुः 'नवए मे पडिग्गहे लद्धे' नवो मया प्रतिग्रहो लब्धः प्रतिग्रहः पात्रं लब्धम् 'त्ति कटु' इति कृत्वा लव्धस्य प्रति
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निशीथसूत्रे
ग्रहस्य सौन्दर्य प्रसाधनाय ' तेल्लेण वा' 'तैलेन वा अतस्यादितैलेन 'घरण वा' घृतेन वा 'णवणीपण चा' नवनीतेन वा 'वसाए वा' वसया वा चर्बीति लोकप्रसिद्धया तत् पात्रम् 'मक्खेज्जवा' प्रक्षयेत् वा एकवारं लेपं कुर्यात् 'भिलिंगेज वा' अभ्यङ्गयेत् वा अनेकवारं वा प्रक्षणं कुर्यात् कारयेत् वा तथा 'मक्खतें वा' प्रक्षयन्तं वा 'भिलिंगत वा' अभ्यङ्गयन्तं वा 'साइजर' स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १२ ॥
एवम् अनेन नूतनपात्रविषयक तैलाद्यालापकप्रकारेण लोधादिना १३, शीतोदकविकृता दिना १४, एव बहुदैर्वासकेन तैलादिना १५, लोधादिना १६, शीतोदकविकृतादिना १७. एवं तैलादितः शीतोदकविकृतादिपर्यन्तानि सर्वाणि षट् सूत्राणि, नूतनपात्रविषयाणि १७, तथा सुरभिगन्धपात्रस्य दुरभिगन्धकरणविषयं १८, दुरभिगन्धस्य सुरभिगन्धकरणविषयमिति द्वे सूत्रे १९ । सुरभिगन्धपात्रस्य तैलादिविषयं २० लोघ्रादिविषयं २१, शीतोदकविकृतादिविषयं चेति त्रीणि सूत्राणि २२, एवं सुरभिगन्धपात्रस्य बहुदै वसिक - तैल - लोध्र - शीतोदकविकृतादिना त्रीणि सूत्राणि, एवं षट् सूत्राणि २५ । अनेनैव प्रकारेण तैलादिना लोघ्रादिना शीतोदकविकृतादिना, एवं बहुदैवसिक-तैल- लोध - शीतोदकविकृतादिना दुरभिगन्धविषयाणि षडपि सूत्राणि बोध्यानि ३१ । एतानि द्वादशसूत्रत आरम्यैकत्रिंशत्सूत्रपर्यन्तानि विंशतिसूत्राणि यथायोगं परिभाव्य व्याख्येयानि सूत्रालापका चेत्थम्—
"जे भिक्खु णवए मे पडिग्गहे लद्वेत्ति कट्टु लोद्वेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज्न वा उघटूटेज वा उल्लोलत वा उव्वर्हतं वा साइज्जइ ॥ सू० १३ ॥ जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहे लद्धे-ति कट्टु सोओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा० ॥ सु० १४ ॥ जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहे लद्वे-त्ति कट्टु बहुदेव सिएण तेल्लेण वा ० || सू० १५ || बहुदेवसिएण लोद्वेण वा० ॥ सू० १६ ॥ बहुदेवसिएण सीओदग. वियडेण वा० ॥ सू०१७ || जे भिक्खू सुभिगंधे पडिग्गहे लद्धे-त्ति कट्टु दुब्भिगंघे करेइ || १८ || जे, भिक्खू दुब्भिगंथे पडिग्गहे द्वे त्ति कट्टु सुन्भिगंधेकरेइ ॥ सू० १९ ॥ जे भिक्खु सुभिगंधे पढिग्गहे लद्वे-त्ति कट्टु तेल्लेण वा० ॥ सू० २० || लोद्वेण वा० ॥ सू० २१ ॥ सीओदगवियडेण वा० ॥ सू० २२ ॥ एवं बहुदेवसिएण तेल्लेण वा० ॥ सू० २३ ॥ बहुदेसिएण लोद्रेण वा० ॥ सू० २४ ॥ बहुदेवसिएण सीओदगवियडेण वा० ॥ सू० २५ ॥ जे - भिक्खू दुब्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे-त्ति कट्टु तेल्लेण वा० ॥ स्० २६ ॥ लोद्वेण वा० ॥ सू०२७ सीमोदगवियडेण वा० ॥ सू० २८ || एवम् बहुदेवसिएण तेल्लेण वा० । सू० २९ ॥ बहुदेवसिएण लोद्वेण वा० || मू० ३० ॥ बहुदेवसिएण सीओदगवियडेण वा० ॥ सू० ३१ ॥" इत्येवं सूत्रालापका बोध्याः ।
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १४ २० ३२-५४ पात्रस्यातापनतद्गतपृथिवीकायादिनिस्सारणनि०३४१
मत्राह भाष्यकारःभाष्यम् -- घसणे खालणे लेवकरणे पायगस्स हि।
____ पावई वहुणो दोसा, भिक्खू एत्थ न संसओ ॥ छाया-धर्पणे क्षालने लेपकरणे पात्रकस्य हि।
प्राप्नोति बहून् दोषान् भिक्षुरत न संशयः ॥ अवचूरि-नवं मया पात्रं लब्धमिति कृत्वा यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा घर्षणमेकवारमनेकवारं वा करोति तथा नवीनपात्रस्य नवाकारमेव पात्रं सर्वथा तिष्ठतु इति बुद्धया तैलादिना घर्षणं मर्दनं करोति कारयति वा कुर्वन्तं वा अनुमोदते, तथा क्षालनं पात्रस्य सुगन्धिकरणाय दुरभिगन्धनिवृत्तये, नवस्य नवाकारमेव सर्वथा तिष्ठतु इति बुद्धया अचित्तशीतोष्णजन करोति परद्वारा वा कारयति तथा कुर्वन्तमनुमोदते, तथा लेपने नवप्राप्तस्य पात्रस्यः नवत्वदृढतायै सुरभिगन्धपात्रस्य सुरभिगन्धस्थापनाय दुरभिगन्धपात्रस्य दुर्गन्धनिवृत्त्यर्थ लोध्रादिद्रव्येण लेपनं करोति कारयति तथा कुर्वन्तमनुमोदते । एवं बहुदैवसिकसूत्रेष्वपि, तैलवृतनवनीतादिना-सकृत् असकृद्वा मर्दनम् , अचित्तशीतोष्णजलेन प्रक्षालनं करोति कारयति कुर्वन्तमनुमोदते स भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा बहन् आज्ञामद्गादिकान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनारूपान् दोषान् प्राप्नोति, अत्रेतस्मिन् न कोपि संशयः, एते दोषा भवन्त्येव तेषामिति भावः । इमे चान्येपि दोषा भवन्ति तथाहि-तैलादिना पात्रत्य घर्षणे कृते हस्ताबङ्गानामुपघातो भवति, तथा नवनीतादिषु विद्यमानजीवानामप्युपघातो भवति, तथा पात्रस्य दुर्गन्धनिवारणाय आतापस्थाने धूप-, नादिकरणे सम्पातिकजीवानां विराधनमपि जायते, तथा उत्पीडने च भूमिगता जीवा अपि विराधिता भवन्ति, यस्मात् तैलादिना घर्षणादिकरणे एते पूर्वोक्ता दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमणः श्रमणी वा अपरिकर्मितं यदृच्छया प्राप्तमेव पात्रादिकं धारयेत् , तथा तादृशस्यैवोपभोगमपि कुर्यात् । न तु कदाचिदपि सुगन्धितलब्धपात्रादीनां सुगन्धितां दृढयितुं दुरभिसंप्राप्तपात्रस्थ दुर्गन्धस्यापनयनाय तेलादिना बहुदैवसिकतैलादिना मर्दनलेपनशीतोष्णान्यतराचित्तजलेन प्रक्षालनादिकं स्वयं न कुर्यात् न वा परद्वारा कारयेत् न वा तैलादिना मदनादिकं कर्वन्त श्रमणान्तरं कथमपि कदाचिदप्यनुमोदयेदिति, किन्तु शास्त्रसंमतपद्धतिमाश्रित्यैव संयमाराधनं कर्तव्यं कारयितव्यं कुर्वन्तं वा अनुमोदनीयम् न तु कदाचिदपि स्वमनीषया किमपि तत्र न्यूनाधिकभावः करणीयः, सर्वज्ञभापितपरमसूक्ष्मविषये स्वमनीषया विचारस्यायोग्यत्वात् ॥ सू०३१॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अणंतरहियाए पुढवीए पडिग्गहं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा, आयातं वा पयावेतं वा साइज्जइ ॥ सु० ३२॥..
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निशोथसूत्रे
छाया - यो भिक्षुः अनन्तरहितायां पृथिव्यां प्रतिग्रहं आत्तापयेद् वा प्रतापयेद् वा, आतापयन्तं वा प्रतापयन्तं वा स्वदते || सू० ३२ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अनंतरहियाए' अनन्तरहितायाम् अनन्तरहिता नाम रचित्ता तस्यां सचित्तायाम् ' पुढवीए' पृथिव्यां पूर्वोक्तरुपायाः पृविव्या उपरीत्यर्थः 'पडिग्गह' प्रतिग्रहं पात्रम् ' आयावेज्ज वा' आतापयेद वा एकवारम् 'पया वेज्ज वा' प्रतापयेद् वा अनेकवारम् एवम्, 'आयावेतं वा' आतापयन्तं वा 'पयातं चा' प्रतापयन्तं वाऽन्यम् 'साइज्जड़' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ ३२ ॥ एवं 'ससणिद्धार पुढवीए' त्रयत्रिंशत्तममूत्रादारम्य द्विचत्वारिंशत्तमसूत्रपर्यन्तदशसूत्राणा त्रयोदशोदेशको क्तद्वितीय सूत्रादारम्यैकादशपर्यन्त मूत्रव्याख्यावदवसेया, विशेषस्त्वेतावानेव यत्-तत्र सचितपृथिव्यादौ स्थानशय्यानिपधानैपेधिकीनां प्रतिपेधः कृतः, अत्र तु प्रतिग्रहस्यातापनप्रतापनविषयः प्रतिषेधः प्रोक्त इति ॥ सू० ३३-४२ ॥
व्याख्या
३४२ .
सूत्रम् — जे भिक्खु पडिग्गहाआ पुढवीकार्यं नीहरेइ नीहरावेs नोहरियं आहदटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गर्हितं वा साइज्जइ ॥ ४३ ॥ एवं आउकार्यं ॥ सू० ४४ ॥ तेउकायं ॥ सू० ४५ ॥
छाया - यो भिक्षुः प्रतिग्रहात् पृथिवीकायं निर्हरति निर्धारयति निहतं महत्यदीयमानं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४३ ॥ एवं अकायम् ॥ सू० ४४ ॥ तेजस्काम् || सू० ४५ ॥
चूर्णि: - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः गृहस्थगृहे पात्रग्रहणसमये यदि 'पडिग्गढाओ' प्रतिग्रहात् पात्रात् 'पुढवीकार्य' सचित्तपृथिवीकायं लवणगैरिकादिकं यदि पतेत् तत् 'नीहरेइ' निर्हरति निष्क्रासयति स्वयमेव तथा 'नोहरावेई' निर्धारयति अन्येन गृहस्थेन वा 'नीहरियं आहट्टु दिज्जमाणं' निर्हृतं निष्कासितं सदपि आहत्य अभिमुखमानीय दीयमानं पात्रम् 'पडिग्गा हेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति स्वीकारयति वा 'पडिग्गार्हतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायवित्तभागी भवति ॥ सू० ४३ ॥
'एवं आउकायं ते कार्यं' इति, अनेनैव प्रकारेण अकायतेजस्काययोरपि निर्हरणविषयं सूत्रद्वयं व्याख्येयम् | अग्निकायनिहरणमेवं भवति पात्रे केनापि कारणेन अकस्माद्वा अग्निकणः पतितो भवेत् तं निष्कास्य ददाति इति ॥ ४४-४५॥
एवमेव कस्द-मूल-पत्र - पुष्प-फल- चीज - हरितविषयकाणि सप्त सूत्राणि ॥ सू० ५२ ॥ एवम् औषधिर्व, जविषयकं सूत्रम्, तत्र- - औषधिः यः शाल्याद्यन्नं तस्य बीजानीति कणान् निर्हरति, इत्यादि
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चूमिभाग्यावचूरिः उ. १४ सू०५५-५७ पात्रस्य कोरण-मार्गसभागतज्ञातकादियाचननि० ३४३ त्रसप्राणजातं कुन्थुपिपीलिकादिकं तद्विषयकमपि सूत्रं विज्ञेयं
सूत्रम् ॥ सू० ५३ | एवं व्याख्येयं च ॥ सू० ५४ ॥
सूत्रम् - भिक्खू पडिग्गहं कोरेइ कोरावेइ कोरियं आहट - दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५५ ॥
छाया -यो भिक्षुः प्रतिग्रहं कोरयति कोरावयति कोरितमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५५ ॥
चूर्णिः - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिग्गहं' प्रतिग्रहं पात्रम् 'कोरेइ' कोइ इति देशीशब्दोऽयम् तदर्थस्तु सूक्ष्मच्छिदैचित्रयति अर्थात् यो भिक्षुः पात्रस्य मुखादिकं विच्छित्य स्वयं सम्पादयति चित्रादिकं च पात्रे स्वयं करोति 'कोरावे ' कोरावयति चित्रयति अन्यद्वारा पात्रस्य मुखादिकं चित्रादिकं च कारयति 'कोरियं आहट्ट - दिज्जमाणं' कोरितमाहृत्य दीयमानं चित्रितं पात्रं परद्वारा सम्मुखमागत्य दीयमानम् 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति स्वीकारयति वा 'पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ५५ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासंगं वा अणुवासगं वा गामंतरंसि वा गामपहंतरंसि वा पडिग्गहं ओभासिय आभासिय जाया जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५६ ॥
छाया - यो भिक्षुर्ज्ञातिकं वा अचातकं वा उपासकं वा अनुपासकं ग्रामान्तरे वा मामपथान्तरे वा प्रतिग्रहमव भाष्यावभाष्य याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० ५६ ॥
चूर्णि - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'णायगं वा' ज्ञातकं वा स्वजनं वा तत्र स्वजनः पूर्वसंस्तुतः पश्चात् संस्तुतश्च तत्र पूर्वसंस्तुतः पूर्वपरिचितो मातापितृभ्रातृप्रभृतिकः, पश्चात्संस्तुतः श्वशुरश्वश्रूश्यालकादिः 'अंणायगं वा' अज्ञातकम् अस्वजनं स्वजनभिन्नो वा पूर्वपरिचितः ग्रामवासी देशवाशी वा तम् 'उवासगं वा' उपासकं जिनधर्मानुयायिनं श्रावकं श्राधिकां वा 'अणुवासरां चा' अनुपासकं श्रावकभिन्नं यं कमपि वा 'गामंतरंसि वा ' ग्रामान्तरे वा-द्वयोर्ग्रामयोर्मध्यभागे 'गामपहंतरसि वा' ग्रामपथान्तरे वा ग्रामस्य मार्गद्वयमध्ये 'ओभासि ओभासिय' अवभाष्यावभाष्य उच्चैःशब्देन कथयित्वा कथयित्वा 'पडिग्गहूं' प्रतिग्रहं पात्रादिकम् 'जायइ' याचते पात्रयाचनां करोति 'जायंतं वा साइज्जइ' याचमानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागू भवति ।
अत्राह भाष्यकारः
'
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निशीथसूत्रे भाष्यम्-अणायगं णायगं वा, गामे मग्गेऽहवा जई।
ओभास्स जायई पत्तं, आणाभंगाइ पावई ॥ छाया-अज्ञातकं हातकं वा ग्रामे मार्गेऽथवा यतिः ।
अवभाष्य याचते पात्रमाशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अचचूरिः-- यो यतिः श्रमणः श्रमणी वा प्राममध्ये प्राममार्गे ग्राममध्यवर्तिमार्ग वा ग्रामद्वयमध्यवर्तिमार्गमध्ये इत्यर्थः अज्ञातकम् ज्ञातकं श्रावकमश्रावकं वा अवभाष्य उच्चैः स्वग्ण कथयित्वा कथयित्वा याचते स यतिः श्रमणः श्रमणी वा आज्ञाभङ्गादिकान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादोषान् प्राप्नुयात् तस्मात्कारणात् श्रमणः श्रमणी वा ग्रामस्य मार्गमध्ये अन्यत्र वा मार्गमध्ये स्वजनास्वजनादिकं श्रावकमश्रावकं वा अवमाण्य पात्रादिकं न याचेत न वा याचमानं श्रमणान्तरं कथमपि कदाचिदप्यनुमोदयेत् इति ।। सू० ५६॥
सूत्रम्--जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासंग वा परिसामज्झओ उट्ठवेत्ता पडिग्गहं ओभासिय ओभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५७॥
छाया-यो भिक्षुर्शातक वा अज्ञातकं वा उपासक वा अनुपासकं वा परिपन्मध्यात् उत्थाप्य प्रतिग्रहमवभाष्यावभाष्य याचते याचमान वा स्वदते ॥ सू० ५७ ॥
___चूर्णि:--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'णायगं वा' ज्ञातकं वा 'अणायगं वा' अज्ञातकं वा 'उचासगं वा' उपासकं श्रावकं वा 'अणुवासगं वा' अनुपासकं श्रावकभिन्न वा य कमपि व्यक्तिविशेषम् 'परिसामझो उद्ववेत्ता' परिषन्मध्यात् उत्थाप्य, तत्र परिपत् सभा, तन्मध्यात् उत्थाप्य 'पडिग्गहे' प्रतिग्रहं पात्रम् ओभासिय 'ओभासिय' अवभाथ्यावभाष्य मिष्टमनोज्ञादिवचनं वा कथयित्वा कथयित्वा 'जायइ' याचते 'जायंत वा साइज्ज' याचमानं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-णायगाई सभाममा, उहाविय जई जइ ।
जायई पत्तवत्थाई, आणाभंगाइ पावई ॥ छाया-बातकादिकं सभामभ्यादुत्थाप्य यतिर्यदि।।
याचते वसपात्रादीन् आशाभकादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः-यदि कदाचित् सभा परिषत् तन्मध्यात् उत्थाप्य ज्ञातकादिकं स्वजनमस्वजनं वा श्रवकमश्रावकं वा पात्रवस्त्रादीन् याचते प्रार्थयते तदा भाज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नुयात् तस्मात् तथा न कुर्यात् , न वा तथाकुर्वन्तमनुमोदयेदिति । सभात उत्थाप्य स्वजनादिना वार्तालापकरणे
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घृणिभाष्यावचूरिः उ० १४ सू० ५८-६० प्रतिग्रहनिश्रया ऋतुवद्धादिकालनिवासनिषेधः३४५ ऽन्येपि दोषा भवन्ति तथाहि-सभामध्ये धर्मकथां श्रोतुमनेके ज्ञातका अज्ञातका वा श्रावका अश्रावका वा समागता भवन्ति तत्र तन्मध्यात् यं कमपि समुत्थाप्य पात्रादियाचनं करोति श्रमणः तदा तस्य तत्र कश्चित् शत्रुरपि धर्मकथां शृण्वन् आसीत्, तच्छत्रोभिन्ना अपि आसन् , तदिवसे तत्काले वा तच्छत्रोः चतुष्पदमश्वादिकं कोपि चौर्येणाहरत् स्वयं वा विनष्टो जातः, तदीयस्वजनो वा उपद्रावितः केनापि भवेत् तदा शत्रोर्मनसि एवं शङ्का भविष्यति यद् चतुष्यदादिमम नष्टस्तदिवसे अभुकः श्रावकः सभामध्यादुत्थाय बहिर्गत इति मया दृष्टः प्रायस्तेनैवापहरणं कृतं भवेत् , एवंप्रकारेण श्रावकोपरि श्रमणोपरि वा शङ्का करिष्यति, अथवा साधुरेवापहरणं कृतवानित्यपि शङ्केत, रुष्टा वा ते संतापनादिकं कुर्युरिति तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तं श्रमणस्य भवेत् तस्मात्कारणात् श्रमणः सभात स्वजनादिकमुत्थाप्य पात्रादियाचनां न कुर्यात् न वा कुर्वन्तमनुमोदेतेति ॥ सू० ५७ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पडिग्गहनीसाए उडुबद्धं वसइ, वसंतं वा साइज्जइ ।। सू० ५८॥
छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहनिश्रया ऋतुबद्धं वसति वसन्त वा स्वदते ॥ २० ५८॥
चूर्णी-जे 'भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'पडिग्गहनीसाए' प्रतिग्रहनिश्रया पात्रादिलाभेच्छया अन्यं मासकल्पयोग्यं क्षेत्रं परित्यज्य अत्र क्षेत्रे पात्रादिकं लप्स्ये इति लोभेन यः श्रमणः श्रमणी वा ऋतुबद्धे काले मासकल्पस्याप्रायोग्येपि ग्रामादौ 'वसई' वसति निवासं करोति 'वसंतं वा साइज्जई' वसन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभार भवति ॥सू० ५८॥
सूत्रम-जे भिक्खू पडिग्गहनीसाए वासावासं वसइ वसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५९॥
छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहनिश्रया वर्षावासं वसति वसन्तं वा स्वदते ॥सू० ५९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चित् भिक्षुः ‘पडिग्गहनीसाए' प्रति प्रहनिश्रया अर्थात् अमुकक्षेत्रे निवासकरणे प्रचुरं पात्रादिकं मे मिलिण्यतीति विचार्य योग्ये अयोग्ये वा क्षेत्रे 'वासावासं' वर्षावासं वर्षाकालनिवासं चातुर्मास्यमित्यर्थः 'वसई' वसति निवासं करोति तथा 'वसंत वा साइज्जइ वसन्तं वा स्वदते, यो हि श्रमणः श्रमणी वा पात्रादिलोभेन वर्षाकालिकनिवासाय योग्येऽयोग्ये वा क्षेत्रे वर्षाकालिकनिवासं करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति ।
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निशी
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-उडुवढे मासं वा, चाउम्मासं तदेव य ।
पडिग्गहत्य जे भिक्खू, वसइ दोसमा भवे ॥ छाया- ऋतुबद्ध मार्स वा चातुर्मास तथैव च।
प्रतिग्रहाथै यो भिक्षुर्वसति दोषमार भवेत् ॥ अवचूरिः- यो भिक्षुः प्रतिग्रहाशया ऋतुबद्धे काले हेमन्तग्रीष्मादिसमये मासे मासकल्पं वसति निवासं करोति तथैव तेनैव प्रकारेण चतुर्मासं वसति निवासं करोति प्रतिग्रहाशया तदा तादृश निवासं कुर्वन् भिक्षुः दोषभाग आज्ञाभङ्गादिदोषभाग् भवति ॥ सू० ५९॥ सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्घाइयं ॥
।। णिसीइज्झयणे चउद्दसमो उद्देसो समत्तो ॥१४॥ छाया-तत्सेत्रमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकम् ।। २० ॥
॥ निशीथाध्ययने चतुर्दश उद्देशकः समाप्तः ॥ १४ ॥ चूर्णी-'तं सेवमाणे' इत्यादि । 'त सेवमाणे' तत् 'पडिग्गई किणई' इत्यारम्य 'पडिग्गाइनीसाए वासावासं' इति पर्यन्तं स्थान प्रतिसेवमानः प्रनिसेवनां कुर्वाणः श्रमणः श्रमणी वा 'आवजई' आपद्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम् 'उग्याइयं उद्घातिकं लघुकम् लघुचातुर्मासिकं प्राप्नोति ॥ मू० ६०॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकअविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य" चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् चतुर्दशोद्देशकः समाप्तः ॥१४॥
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॥ पञ्चदशोद्देशकः ॥ गतश्चतुर्दशोदेशकः, सम्प्रति अवसरप्राप्तः पञ्चदशोदेशकः प्रारभ्यते । तत्र पूर्वोक्तचतुईशोदेशकेन सहास्य पञ्चदशोद्देशकस्य सम्बन्धः प्रदर्श्यते--चतुर्दशोद्देशकस्यान्तिमसूत्रे प्रोक्तम् साधुःप्रतिग्रहनिश्रया वर्षावासं न वसेत् , इति, एवं प्रतिग्रहनिश्रया वसन्तं साधुं यदि कोऽन्यः साधु रेवं करणे प्रतिषेधयेत् तदा तं प्रति स क्रोधावेशेन परुपं वदिष्यतीत्यत्र पञ्चदशोद्देशके परुषमापाया निषेधः करिष्यते, इति सम्बन्धेनाह भाष्यकार:--'ण मे गिरहगो' इत्यादि । भाष्यम्-ण मे णिरहगो वासो, वल्ली रूढफलाहुणा ।
एवं वयंतं समणं, अज्जो ! मेवं वयाहि भो ॥१॥ छाया--न मे निरर्थको वासो वल्ली रूढफलाऽधुना ।
___एवं पदन्तं श्रमणं आर्य ! मैवं वद भोः ॥६॥
अवचूरिः-कश्चित् श्रमणश्चतुर्मासकरणार्थ कुत्रचित् क्षेत्रे वर्षावासनिवासं कृतवान्, तत्र पात्रार्थ वमन्' एकां तुम्बिकालतां पश्यन्, एवं वदति-अहो अत्र क्षेत्रे मम वासो न निरर्थको जातः, किन्तु सफल एव, यस्मात्कारणात् एषा पुरतो दृश्यमाना तुम्बिकावल्ली समुत्पन्ना न केवलं समुत्पन्नैव किन्तु क्रमशो वृद्धिंगता सती भित्त्यादौ आश्रये प्रसरति, पत्रादिकमपि अस्यां वल्ल्यां पर्याप्त जातम् , न केवलं पत्राणामेवाऽऽधिक्यम् किन्तु पुष्पप्राचुर्यमपि जातम् , न केवलं पुष्पाणामेव प्राचुर्यम् अपि तु फलान्यपि अनेकानि जातानि, न केवलं फलान्येव संजातानि, किन्तु कतिपयफलानि पकानि संजातानि, अतः परं तुम्बिकायाः फलानि मे पात्राणि भविष्यन्ति पदर्थ ममात्र वासो जातस्तत्कार्य में विनैव परिश्रमं भविष्यति, अनुकूलं मदीयभाग्यम् , एवंपकारेण हर्षातिरेकाद् वदन्तं श्रमण दृष्ट्वा कोऽपि तत्समीपवर्ती श्रमणः तं श्रमणं प्रति वदति-हे' आर्य ! श्रमणा ! मैवं वं वद, एवं वदतस्ते महान् कर्मबन्धो भविष्यति, ततः स श्रमणः प्रतिषेधेनारुष्टोऽसौ तं प्रति कठोरवचनं वदेत् , तादृशकठोरवचनस्य प्रतिषेधाय पञ्चदशोद्देशकसूत्रमिदमारभ्यते, अयमेव सम्बन्धः पूर्वापरसूत्रयोर्भवति, तदनेन सम्बन्धेन आयातस्यास्य पञ्चदशोदेशीयप्रथमसूत्रस्य व्याख्यान' प्रस्तूयते-'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू भिक्खूणं आगाढं वयइ वयंतं वा साइज्जइ॥सू०१॥
छाया-यो भिक्षुर्भिक्षणाम् आगाढं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सु० १ ॥
चूर्णी—'जे भिक्खू इत्यादि । जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भिक्खूणं' भिक्षूणां-प्रेरकभिक्षूणां 'आगाढं वयइ' आगाढू वदति-तत्र मत्यर्थं गाढम् आगाढम्-उच्चैर्वचनम् उच्चैराक्रोशव
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३४८
निशीथसूत्र चनमित्यर्थः एवंभूतं वचनं भापते, तथा 'वयंतं वा साइज्जइ' वदन्तं वा श्रमणमाक्रोशवचनं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । एतत्सूत्रस्य विशेषतो व्याख्यानमत्रैव दशमोद्देशके द्रष्टव्यम्, एताकान् विशेषः-यत् दशमोद्देशके आचार्य पर्यायज्येष्टं वा प्रति आक्रोशवचनस्य प्रतिषेधः कृतः, अत्र तु भिक्षुकमात्रं प्रति आक्रोशवचनस्य निषेधः क्रियते ॥ सू० १ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू भिक्खूणं फरुसं वयइ वयंत वा साइज्जइ॥सू० २।। छाया--यो भिक्षुभिषणां परुपं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू० २ ॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भिक्खूर्ण भिक्षूणाम् 'फरुसं नयई' गपं वदति, तत्र परुपं-कठोरं वाक्यं भापते तथा 'वयंतं वा साइज्जइ' वदन्तम् कठोरवाक्यं भाषमाणं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २।।
सूत्रम्--जे भिक्खू भिक्खूणं आगाढफरुसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३॥
छाया-यो भिक्षुर्भिक्षणाम् आगाढपरुपं वदति बदन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३ ॥ __ चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे मिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भिक्खूणं' भिक्षूणाम् 'आगाढफरुसं वयई' आगाढपरुपं वदति, तत्र आगाढम्-आक्रोशवचन-मर्मोद्घाटनपूर्वकमुच्चैः सक्रोधं परुपं वाक्यं वदति-आक्षेपं करोति, तथा 'वयंत वा साइजई' वदन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । दशमोद्देशस्यादौ एव अस्य व्याख्यानं कृतं तत एव द्रष्टव्यमिति ॥ सू० ३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू भिक्खूणं अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएइ, अच्चासाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४॥
छाया-यो भिक्षुर्भिक्षूणाम् अन्यतरया अत्याशातनया अत्याशातयति अत्याशातयन्तं वा स्वदते ॥ सु०४॥
. चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भिक्खू णं' भिक्षूणाम् 'अण्णयरीए' अन्यतरया-अनेकप्रकारकाशातनामध्याद् एकया -क्रयाचित् 'अच्चासायणाए' मत्याशातनया 'अच्चासाएइ' अत्याशातयति-माज्ञातनां करोति, तथा 'अच्चासाएंतं वा साइज्जई' अत्यागातयन्तम्-आशातनां कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तमागी भवति ॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-आगाढं फरुसं वक्कं, दसमे खलु वन्नियं । . ., .
वं चेवेत्थवि णायचं, नवरं भिक्खुयं पइ ॥ .
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पूर्णिभाष्यावद्भिः उ० १५ सू० १-१२ आगाढादिवचन सचित्ताम्रपरिभोगनिषेधः ३४९ छाया-आगाढं परुषं वाक्यं दशमे खलु वर्णितम् ।
तदेवात्रापि शातव्यं नवरं भिक्षुकं प्रति ॥ अवचूरिः-आगाई परुषं वाक्यम् , आगाढपरुषतदुभयाऽऽशातनादीनां स्वरूपम् यदेव दशमोदेशके वर्णितम् तदेव अत्रापि ज्ञातव्यम् यत् पूर्वमुक्तं तदेव पुनरत्र प्रदर्शितम् किन्तु 'नवरं' इत्यादि, नवरम् एतावान् मेदः दशमपञ्चदशोदेशकयोर्भवति यत्-दशमोदेशके आचार्यपर्यायज्येष्टं प्रति आगाढवचनादेः प्रयोगकरणनिषेधो दर्शितः, अत्र पश्चदशोदेशके तु भिक्षुक-सामान्यश्रमणं प्रति आगाढादीनां निषेधो दर्शितः, तादृशप्रयोगकरणे च प्रायश्चित्तादिकं कथितमित्यय भेदः ॥ सू० ४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तं अंब भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥ सू०५॥ छाया-यो भिक्षु. सचित्तम् आनं भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥ सू० ५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'सचित्तं अंव' सचित्तमात्रम् तत्र चित्तं-जीवः तेन जीवेन सह वर्तते इति सचित्तं-सजीवम् आम्रफलम् 'भुंजई' भुङ्क्ते-अभ्यवहरति तथा 'भुंजत वा साइज्जई' भुञ्जानं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तं अंबं विडंसइ विडंसंतं वा साइज्जइ ॥सू०६॥ छाया -यो भिक्षुः सचित्तमानं विदशति विदशन्तं वा स्वदते ॥सू० ६॥
चूर्णी -'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'सचित्तं अंब' सचित्तं सजीवमानम् 'विडंसई' विदशति-चूषति भक्षयति वा 'विडंसंत वा साइज्जइ' विदशन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ६॥ . सूत्रम्--जे भिक्खू सचित्तं अंबं वा अंबपेसियं वा अंबभित्तं वा अंवसालगं वा अवचोयगं वा भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥ सू०७॥ .
छाया-यो भिक्षः सचित्तमानं वा आम्रपेशिकां वा आनभित्तं वा आम्रसाल घा आम्रचोयगं वा भुङ्क्ते भुज्जान वा स्वदते ॥सू.७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'सचित्तं अवं वा' सचित्तमानं वा सजीवमाम्रफलमित्यर्थः 'अंवपेसियं वा' आम्रपेशिकां वा सचित्तामाम्रपेशीम् , तत्र पेशी दीर्घाकाराम्रफलस्यावयवलक्षणा तादृशीम् आम्रफलपेशोम्, 'अंबभित्तं वा' आम्रभित्तं वा तत्र भित्तम्-खण्डः आम्रफलस्यार्द्धभाग इत्यर्थः तत् 'अंबसालगं का' आम्रसालकं वा, तत्र-बाह्या छल्ली सालमिति कथ्यते 'अंबचोयगं वा' आम्रचोयगं वा तत्र-चोयगम् - आन्तरत्वचा तत् 'भुंजई' भुक्ते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७॥
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निशीथसूत्रे
सूत्रम् — जे भिक्खू सचित्तं अं वा अंबपेसियं वा अंबभित्तं वा अंबसालगं वा अंबचोयगं वा विडंसइ विडंसं वा साइज्जइ ॥ सू० ८ ॥
३५०
छाया - यो भिक्षुः सवितमात्र वा आम्रपेशिकां घा आम्रभित्तं वा आम्रसालकं वा आम्रचोयगं वा विदशति विदशन्तं वा स्वदते ॥ सू० ८||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्विद् मिक्षुः 'सवित्तं अवं वा' सचित्तमाम्र वा 'अचपेसियं वा' आम्रपेशिकां वा 'अंबभित्तं वा' आम्रभित्तं वा 'अवसालगं चा' आम्रसालकं वा 'अंबचोयगं वा' आम्रचोयगं वा 'विडंसई' विदशति चूषति तथा 'विडंसंतं वा साइज्जर' विदशन्तं वा स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू. ८॥
सूत्रम् — जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं अंवं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९ ॥ जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं अंब विडंसइ विडंसंत वा साइ ज्जइ ॥ सू० १० ॥
छाया - यो भिक्षुः सचित्तप्रतिष्ठितमात्रं भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥ सू० ९ ॥ यो भिक्षुः सचिचप्रतिष्ठितमान विदशति विदशन्तं वा स्वदते ॥ सू० १० ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'सचित्तपइट्ठियं' सचित्तप्रतिष्ठितम् सचित्ते - सचित्तजलहरित कायाद्युपरि प्रतिष्ठितं विद्यमानम् आम्रं भुङ्क्ते. विदशति चूषति । शेष सूत्रद्वयगतं सर्वं सुगमम् ॥ सू०९ - १०॥
सूत्रम् - जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं अंब वा अबपेसियं वा अंबभित्त वा अंबसालगं वा अंबचोयगं वा भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ || सू० ११ ॥ छाया - यो भिक्षुः सचित्तप्रतिष्ठितमात्रं वा आम्रपेशिका वा आम्रभितं वा आम्रसालकं वा आम्रचोयगं वा भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥ सू० ११॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । सचित्तप्रतिष्ठितम् सचित्ते - सचित्तजलापरि विद्यमानं तत् सचित प्रतिष्ठितम् शेषम् सुगमम् ॥ सू० ११ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं अंब वा अंबपेसियं वा अंबभित्तं वा अंबसालगं वा अंबचोयगं वा विडंसइ विडंसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १२॥
"
छाया -यो भिक्षुः सचित्तप्रतिष्ठितमात्रं वा आम्रपेशिकां वा आम्रभितं वा आम्रसालकंघा आम्रचोयग वा विदशति विदशन्तं वा स्वदते ॥ सू० १२२ ॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ. १५ सू १३-६८ अन्यतोर्थिकादित पादामार्जनादिनिषेधः ३५१
___ चूर्णी--'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सचित्तपइडियं' मचित्तप्रतिष्ठितम्, इतिविशेषणविशिष्टमाम्रादिक विदशति-चूषति शेषं सुगमम् । मत्राह भाष्यकार:--
सचित्वं तहा पेसि, तं सचित्तपइडियं ।
जो भुंजेज्ज विडंसेज्ज, आणाभंगाइ पावइ ॥११॥ छाया-सचितानं तथा पेशी, तत्सचित्तप्रतिष्ठितम् ।
यो भुक्के विदशति, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥१॥ अवचूरिः-यः कश्चिद् भिक्षुः-श्रमणः उपलक्षणात् श्रमणी वा स सचित्ताम्रम्-संचित्ताम्रफलम् तथा पेशीम्-आम्रचारिकाम् उपलक्षणाद्-आत्रभित्तं आम्रसालकम् आम्रचोयगं वा, आम्रफलस्य कोऽपि प्रकारो भवेत् तं सचित्त यदि भुङ्क्ते विदशति वा तदा स श्रमणः आज्ञाभङ्गादिदोपान् प्राप्नोतीति । सू० १२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणापाए आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा आमज्जातं वा पमज्जातं वा साइज्जइ ॥ सू० १३॥
छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकेन वा गाईस्थिकेन वा आत्मनः पादौ आमार्जयेद् वा प्रमार्जयेद् वा आमार्जयन्त वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदते ॥ सू. १३ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः-श्रमणः श्रमणी वा 'भण्णउत्थिएण वा' अन्ययूथिकेन-अन्यमतानुयायिना तापसादिनेत्यर्थः गारथिएण वा' गार्हस्थिकेन गृहस्थेन श्रावकेण तद्भिन्नेन वा 'अप्पणो पाए' आत्मनः स्वस्य पादौ-चरणौ 'आमज्जावेज्ज वा' आमार्जयेद्वा-एकवारं वा मार्जनं कारयेद्वा 'पमज्जावेज्ज चा' प्रमार्जयेद्वा अनेकवारं वा प्रमार्जनं कारयेद्वा, तथा 'आमज्जावेंतं वा' आमार्जयन्तं वा-एकवारं चरणप्रमार्जनं कारयन्तं वा 'पमज्जातं वा' प्रमार्जयन्तं वा-प्रतिदिनमनेकवारं वा पादयोः प्रमार्जनं कारयन्तं श्रमणान्तरम् 'साइज्जई' स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ।। सू १३ ॥
सूत्रम्-एवं तइयउद्देसगमओ णेयव्वो जाव गामाणुगामं दइज्जमाणे अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो सीसदुवारियं करावेइ करावंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १४-६८॥
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निशोथसूत्रे
छाया - एवं तृतयोद्देशगमको नेतव्यः यावत् ग्रामानुग्रामं द्रवन् अन्यतीर्थिकेन वा गार्हस्थिकेन वा आत्मनः शीर्पद्वारिकां कारयति कारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४-६८ ॥
३५२
चूर्णी - ' एवं ' इत्यादि । ' एवं तइयउद्देसगमओ णेयब्वो' एवं तृतीयोदेशगमको नेतव्यः, एवम् अनेनैव प्रकारेण तृतीयोद्देशगमकः - अस्यैव तृतीयोदेशकगतो गमः सर्वोऽपि नेतव्य:ज्ञातव्यः 'जाव' यावत्, अत्र यावत्पदेन 'जे भिक्खू अप्पणो पाए संवाहेन चा' इत्यादिसप्तदशसूत्रादारम्य 'जे भिक्खू गामाणुगामं दूइज्जमाणे० ' इत्येकसप्ततितमसूत्रपर्यन्तं पञ्चपश्चाशत्संख्यकसूत्राणि तदर्थश्चेति सर्वं तत्रत एव द्रष्टव्यम् । अत्र तु (१४) चतुर्दशसूत्रादारभ्य अष्टषष्टि (६८) तमसूत्रपर्यन्तं तृतीयोद्देशगमचद् व्याख्येयम् । केवलं भेद एतावनेव यत्-तत्र तृतीयोदेश के प्रमार्जनादीनां स्वयं करणविषयको निषेधः कृतः, अत्र तु अन्यतीर्थिकादिभिः प्रमानादीनां कारणाऽनुमोदनविषयको निषेधो वर्तते इति ॥
अत्राह भाष्यकारः ---
पायप्पमज्जणारव्भ, अंते सीस दुवारियं ।
गिद्दिहिं अन्नतित्थीहिं, करावे दोसभा भवे ॥१॥
छाया - पादप्रमार्जनादारभ्य, अन्ते शीर्षदौवारिकाम् । गृहिभिः अन्यतीथिभिः कारयेत् दोषभाय् भवेत् ॥१॥
अवचूरिः – यो यतिः पादप्रमार्जनादारम्य अन्ते शीर्षदौवारिकाम् गृहिभिः–गृहस्थैः, अन्यतीर्थिकैः तापसादिभिः कारयति तथा कारयन्तं श्रमणान्तरम् अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति, तथा तस्याज्ञा भङ्गादिका दोपा अपि भवन्ति गृहस्थादिकृत सेवाशुश्रूषादिकार्यस्य भगवता निषिद्धत्वात् ।
अथ परतीर्थिकादिभिः पादप्रमार्जनादिकं कारयतः को दोषः ? इति चेदाह - ते अन्यतीर्थिका गृहस्था वा यदि प्रमार्जनादिकं करिष्यन्ति तदा ते पादप्रमार्जनादिकरणानन्तरम् पश्चात् हस्तधावनादि कर्म करिष्यन्ति प्रस्वेदमलादिकं साधोः शरीरेऽवस्थितं दृष्ट्वा घ्रात्वा अशुचय इमे इति कृत्वा अवर्णवादं वदिष्यन्ति, अयतनया वा पादप्रमार्जनादिकं कुर्वन्तः सांपातिकान् जीवान् हन्युः, अथवा बहुना द्रव्येणायतनया प्रक्षालयन्तः उच्छोलणादोषं कुर्युः, भूमिष्ठान् जीवान् विराधयेयुरिति तस्मात् कारणात् तापसादिभिर्गृहस्थैश्च पादप्रमार्जनादिकं न कारयेदिति ॥ सू० ६८ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहा - वइकुलेसु वा परियावसहेसु वा उच्चारपासवणं परिट्ठवे परिवा साइज्जइ ॥ सू०६९ ॥
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पूर्णिमाम्यावचूरिः उ १५ सू० ६९-७२ आगन्त्रागारादिषु-उच्चारादिपरिष्ठापननि० ३५३
छाया यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेषु वा उच्चारप्रस्रवण परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६९ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रभणी वा 'आगंतागारेसु वा' आगन्त्रागारेषु, यत्र स्थाने आगन्तारो गन्तारश्च विश्रामाय निवसन्ति सः आगन्त्रागार:-. धर्मशालेति लोकप्रसिद्धः तेषु-आगन्तुकनिवासस्थानेषु तथा-'आरामागारेसु वा ' आरामागारेषु, तत्रारामः-उपवनम् तत्र विद्यमानः अगारो गृहं यत्र क्रीडार्थमागता' पुरुषाः विश्रामार्थ निवसन्ति तादृशस्थानेषु 'गाहावइकुलेसु वा' गाथापतिकुलेषु, तत्र गाथापतिर्गृहस्थः, तस्य कुलेषु गृहेषु गृहस्वामिनां ग्रामान्तरगमनेन शून्यप्रायेषु गृहेष्वित्यर्थ. 'परियावसहेसु वा' पर्यावसथेषु वा तापसानां निवासस्थानेषु इत्यर्थः, एतेषु स्थानेषु 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणं मूत्रपुरीषादिकम् उपलक्षणत्वात् ठीवनादिकमपि गृह्यते 'परिहवेई' परिष्टापयति तत्र व्युत्सृजतीत्यर्थः तथा 'परिहवेंतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा मूत्रपुरीषादीनां व्युत्सर्जन कुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति, तथा ये एतादृशस्थानेषु उच्चारप्रस्रवणादिकं व्यत्सृजन्ति तेषामण्यशो भवति-'एते साधवः अशुचिसमाचाराः योगाचारवाह्या मलमूत्रपरायणाः दुर्वृत्ता भोगोपभोगस्थानानि अपवित्राणि कुर्वन्तो विहरन्ती,-त्येवमाद्यपयशो भवति, लोकापवादाच्च न कोऽपि दीक्षां ग्रहीष्यतीत्यतः प्रवचनस्य हानिहींलना च भवति एवं कोट्टपालादिना निवारिता ग्रामादौ प्रवेशमपि नो लभेरन् ॥ सू० ६९ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उज्जाणंसि वा उज्जाणगिहंसि वा उज्जाणसालंसि वा निज्जाणंसि वा निज्जाणगिहंसि वा निज्जाणसालंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिट्ठवेंतं वा साइज्जड || सू० ७० ॥
छाया-यो भिक्षुरुद्याने वा उद्यानगृहे वा उद्यानशालायां वा निर्याणे वा निर्याणगृहे वा निर्याणशालायां वा उच्चारप्रेस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥सू० ७०॥
___ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षु. श्रमणः श्रमणी वा 'उज्जाणंसि वा' उद्याने वा, तत्रोधानं नाम एकजातीयवृक्षाणां • समुदायलक्षणम्, तादृशे उद्याने 'उज्जाणगिहंसि वा' उद्यानगृहे वा उद्यानस्थिते गृहे विश्रामस्थाने 'उज्जाणसालसि वा' उद्यानशालायाम् उद्याने स्थिता या शाला तस्याम् 'निज्जाणसि वा निर्याणे वा लोकानां गमनागमनमार्गे 'निज्जाणगिहंसि वा' निर्याणगृहे वा गमनागमनमार्गस्थितगृहे वा 'निज्जाणसालंसि वा' निर्याणशालायां वा तादृशेषु स्थानेषु श्रमणः श्रमणी वा 'उच्चारपासवण' उच्चारप्रस्रवणं 'परिहवेइ' परिष्ठापयति मूत्रपुरीषयोयुत्सर्जनं करोति 'परिहवेंतं वा ' परिष्ठापयन्तं वा 'साइज्जई' स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ७० ॥
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निशीथस्त्रे सूत्रम्-जे भिक्खू अटेंसि वा अट्टालियंसि वा चरियंसि वा पागारंसि वा दारंसि वा गोपुरंसि वा उच्चारपासवणं परिद्ववेइ परिदुवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७१ ॥
छायायो भिक्षुः अट्टे वा अट्टालिकायां या चरिकायां वा प्राकारे वा द्वारे वा गोपुरे वा उच्चारप्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७१ ।।
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'असि वा' अट्टे वा-कोट इति लोकप्रसिद्धे 'अट्टालियंसि वा' अट्टालिकायाम् अट्टोपरिविद्यमानस्थाने इत्यर्थः 'चरियंसि वा' चरिकायां वा अट्टालिकाया उपरितनं स्थानं चरिका-तादृशस्थानविशेषे इत्यर्थः, 'पागारंसि वा प्राकारे वा 'दारंसि वा' द्वारे वा गृहस्यद्वारभागे इत्यर्थः, 'गोपुरंसि वा' गोपुरे वा-द्वारारद्वारे, एतेषु स्थानेषु 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिहवेइ' प्रतिष्ठापयति, तथा 'परिठवतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू० ७१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दगंसि वा दगमग्गंसि वा दगपहंसि वा दगतीरंसि वा दगट्ठाणंसि वा उच्चारपासवणं परिट्ठवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७२॥
छाया--यो भिक्षुरुदके वा उदकमार्गे वा उदकपथे वा उदकतीरे वा उदकस्थाने घा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७२ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः यः कश्चित् श्रमणः श्रमणी वा 'दगंसिवा' उदके–जले जलाशये सरित्तडागादौ जलाशयमर्यादितस्थाने इत्यर्थः 'दगमगंसिवा' उदकमार्गे-जल मार्गे येन मार्गेण जलं प्रवति यद्वोदकमिश्रितमार्गे, 'दगपहंसि वा' उदकपथे वा जलानयनमार्गे वा 'दगतीरंसि वा' उदकतीरे-जलतटे जलासन्नवत्तिस्थाने इत्यर्थः 'दगठागंसि वा' उदकस्थाने वा यत्र स्थाने उदकं संगृह्य सस्थाप्यते तादृशस्थाने, एतेपु-उपपयुजल स्थानेषु 'उच्चारपासवण' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिद्ववेइ' परिष्ठापयति-व्युत्सृजति तथा 'परिहवेतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते-अनुमोदते-स प्रायश्चित्तभागी भवति-॥ सू० ७२ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सुन्नगिहंसि वा सुन्नसालंसि वा भिन्नगिर्हसि वा भिन्नसालंसि वा कूडागारंसि वा काट्ठागारंसि वा उच्चारपासवणं परिवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ।। सू० ७३ ।।
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १५ सू० ७३-७७ शून्यगृहादिषु-उच्चारादिपरिष्ठापननि० ३५५ . छाया-यो भिक्षुः शून्यगृहे वा शून्यशालायां वा भिन्नगृहे वा भिन्नशालायां वा कुटागारे वा कोष्ठागारे वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥७३॥
___ चूणिः- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'सुन्नगिर्हसि वा' , शून्यगृहे वा यत्र गृहे न कोऽपि वसति तादृशगृहे 'सुन्नसालंसि वा' शून्यशालायाम् यत्र शालायां
न.कोऽपि वसति तस्याम् 'भिन्नगिहंसि वा' भिन्नगृहे वा-भम्नगृहे इत्यर्थः 'भिन्नसालंसि वा' भिन्नशालायां वा भग्नशालायाम् 'कूडागारंमि वा' कूटागारे वा-कूटाकारगृहे 'कोट्ठागारंसिवा' कोष्ठागारे वा या दशस्थाने धान्यादिकं स्थापयति तस्य कोष्ठागार इति नाम भवति तस्मिन् कोष्ठागारगृहे कोष्ठागारशालायां च 'उच्चारपासवर्ण परिहवेइ' उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति 'परिहवेतं वा साइज्जइ परिष्ठापयन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागू भवति ॥ सू०७३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू तणगिहंसि वा तणसालंसि वा तुसगिहंसि वा तुससालंसि वा भुसगिहंसि वा भुससालंसि वा उच्चारपासवणं परिट्ठवेइ -परिठवतं वा साइज्जइ ॥ सू०७४॥
___ छाया-यो भिक्षुः तृणगृहे वा तृणशालायां वा तुषगदे वा तुषशालायां वा भुसगृहे वा भुसशालायां वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥७४॥
__चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'तणगिहंसि वा' तृणगृहे वा-तृणस्थापनगृहे अथवा तृणनिर्मिते गृहे 'तणसालंसि वा तृणशालायां वा तृणभृतशालायाम् 'तुसगिहंसि वा' तुषगृहे 'तुससालंसि वा' तुषशालायां वा 'भुसगिर्हसि वा' भुसगृहे वा, तत्र गोधूमादीनां स्तम्बः, तस्य चूर्णीकृतोऽवयवः 'भूमा' इतिलोकप्रसिद्धः तस्य संस्थापनस्थानं भुसगृहमिति तस्मिन् भुसगृहे 'भुससालंसि वा' भुसशालायं वा, एतादशस्थानेषु यो भिक्षुः 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिहवेइ' परिष्ठापयति 'परिहवेतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते–अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ७४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू जाणगिहंसि वा जाणसालंसि वा जुग्गगिहंसि वा जुग्गसालंसि वा उच्चारपासवणं परिट्ठवेइ परिठवेंतं वा साइज्जइ ।। सू०७५॥
छाया-यो भिक्षुर्यानगृहे वा यानशालायां वा युग्यगृहे वा युग्यशालायां वा उच्चारप्र वर्ण परिष्ठापर्यात परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७५ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'जाणगिहंसि वा' यानगृहे-रथादिस्थापनगृहे वा 'जाणसालंसि वा' यानशालायां वा 'जुग्गगिहंसि ' युग्यगृहे वा,
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निशीथसूत्रे
तत्र युग्य-शिविकादिकम् , तस्य स्थापनार्थ गृहं तस्मिन् , 'जुग्गसालंसि वा युग्यशालायां वा 'उच्चारपासवर्ण' उच्चारप्रस्रवणम् , 'परिहवेई' परिष्ठापयति तथा 'परिहवेतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७५॥ . सूत्रम्-जे भिक्खू पणियगिहंसि वा पणियसालंसि वा कुवियगिहंसि वा कुवियसालंसि वा उच्चारपासवणं परिद्ववेइ परिवेंतं वा साइज्जइ ।। सू० ७६॥
छाया-यो भिक्षुः पण्यगृहे वा पण्यशालायां वा कुप्यगृहे वा कुप्यशालायां वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्टापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । जे भिक्खू' यः कश्चिद्विक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पणियगिहंसि वा' पण्यगृहे वा-क्रयविक्रयस्थाने धा 'पणियसलिंसिं वा' पण्यशालायां वा 'कुवियगिहंसि वा' कुप्यगृहे वा, तत्र -कुप्यं सुवर्णरजतभिन्नं लौष्टादिपात्रं तस्य गृहे 'कुवियसालंसि वा' कुप्यशालायां वा 'उच्चारपासवर्ण' उच्चारप्रस्रवणम् , 'परिट्टवेई परिष्ठपयति तथा 'परिद्ववेतं वा साइज्जइ परिष्ठापयन्तं-श्रमणान्तरम् स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ७६ ।।
. सूत्रम्--जे भिक्खू गोणगिहंसि वा गोणसालंसि वा महा. कुंलंसि वा महागिहंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिहतं वा साइ. ज्जइ ॥ सू०७७॥
छाया-यो भिक्षुर्गोणगृहे वा गोणशालायां वा महाकुले वा महागूह वा उच्चारः प्रस्रवणं परिष्ठापयति, परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ।। स०७७॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गोणगिहंसि वा' गोणगृहे वा, तत्र गोणगृहं-गकां गृहम् यत्र गावो बध्यन्ते गोशालेति प्रसिद्धम् तस्मिन् . 'गोणसालंसि वा' गोशालायां वा 'महाकुलंसि वा' महाकुले वा-डादिकुले 'महागिहंसि वा' महागृहे वा बृहत्परिवारयुक्त बृहदाकारयुक्त वा गृहे 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्त्रवणम् 'परिवेइ' परिष्ठापयति 'परिहवेतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते -अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । मत्राह भाष्यकार:
आगंतुगाइठाणेसु, उच्चारं पस्सवं तहा। ..
परिहवेइ जो भिक्खु , आणाभंगाइ पावई ।। . . छाया-आगन्तुकादिस्थानेषु उच्चारं प्रसवं तथा।
परिष्ठापयति यो भिक्षुराशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ -
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पूर्णि० उ०१५ सू० ७८-१०३ गृहस्थपार्श्वस्थादेरशनादिदानाऽऽदाननि० ३५७ • अवचूरिः-आगन्तुकादिस्थानेषु आगन्त्रागारेषु इत्यारम्य 'महागिहंसि' एतत्सूत्रपर्यन्तकथितस्यानेषु उच्चारप्रस्रवणं यो यतिः परिष्ठपयति परिष्ठापयन्तं वा अनुमोदते स भिक्षुः आज्ञाभङ्गादिकं दोषजातं प्राप्नोति, तथा--महदयशोऽपि जायते 'अशुच्याचारा एते साधवो हि शुचीनि भोगोपभोगस्थानानि अशुचीनि कुर्वाणा विहरन्ति, ततश्च लोकापवादेन प्रवचनहानिरपि स्यात् , तस्मात् आगन्तुकागारादिषु उच्चारप्रस्रवणयोः परिष्ठापनं न कुर्यात् न वा कारयेत् न वा कुर्वन्तमनुमोदयेदिति ।। सू० ७७ ॥ . सूत्रम्--जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ॥ सू०७८॥
छाया-यो भिक्षुः अन्ययूथिकाय वा गृहस्थाय वा अशन वा पानं वा खाद्य वा स्वाधं वा ददाति ददतं वा स्वदते ॥सु०७०॥
चूर्णी-'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियस्स' अन्यूथिकाय तापसाय वा 'गारत्थियस्स वा' गृहस्थाय वा अशनादिकं ददाति ददतं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति ॥सू० ७८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थियस्त वा गारत्थियस्स वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं चा देइ देंतं वा साइज्जइ॥
छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकाय वा गार्हस्थिकाय वा वनं वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोन्छनं वा ददाति ददतं वा स्वदते ॥स्० ७९॥
चूर्णी-'ज भिक्खू' इत्यादि । 'जे मिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियस्सा वा' अन्ययूथिकाय वा तापसपरिव्राजकायेत्यर्थः 'गारस्थियस्स वा' गार्हस्थिकाय गृहस्थाय वा 'वत्थं वा' वस्त्रं वा-चोलपट्टकमुत्तरीयवस्त्रादिकं अन्यदपि वनजातं वा 'पडिग्गह वा' प्रतिग्रहं पात्रमलावुकं मृत्तिकापात्रं वा 'कंबलं वा' कम्बलपूर्णावत्रादिकं वा 'पायपुछणं वा' पादप्रोञ्छनं रनोहरणं वा 'देइ' ददाति 'देतं वा साइज्जई' ददतम् वस्त्रपात्रादिकं प्रयच्छन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७९||
सूत्रम्-जे भिक्खू पासत्थस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८०.॥ • छाया-यो भिक्षुः पार्श्व स्थाय अशनं वा पान वा खाद्य वा स्वाद्य वा ददाति ददतं वा स्वदते ॥ सू० ८०॥ '
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निशीथसूत्रे
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणो वा श्रमणी वा 'पासत्थस्स' पार्श्वस्थाय-पार्श्वे सयमस्य समीपे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः न तु संयमस्थः, तस्मै 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वायं वा 'देह' ददाति 'देतं वा ' ददतं वा 'साइज्जइ' स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ||सू० ८० ॥ एवमेव पार्श्वस्थाय अशनादिकं 'पडिच्छन्' प्रतीच्छति तत्पार्श्वात् गृह्णाति ॥ | सू० ८१ ॥ एवं पार्श्वस्थाय 'वत्थं वा' वस्त्रं वा चोलपट्टादिकम् 'पडिग्गहं वा' प्रतिग्रहं वा पात्र' वा 'कंवलं वा' कम्बलं वा ऊर्णामयं, 'पायपुंछणं वा ' पादप्रोञ्छनं वा पादप्रमार्जन वस्त्रखण्डं वा ददाति० ॥सू० ८२ ॥ एवं प्रतीच्छति गृह्णाति || सू० ८३ || एवं अशनादेर्दान - ग्रहणरूपं सूत्रद्वयम् तथा वस्त्रादेर्दानग्रहणरूपं च सूत्रद्व यमिति सूत्रचतुष्टयम् अवसन्नविपयकम् ॥ सू० ८७|| कुशीलविषयकम् ॥ सू० ९९ ॥ यथाच्छन्दविषयकम् ॥ सू० ९५|| संसक्तविषयकम् ॥ सु० ९९ || एवं नैत्यिकविषयकमपि सूत्र चतुष्टयम् ॥ सू० १०३ ॥ एतानि चतुर्विंशतिसूत्राणि त्रयोदशोदेशकोक्तसूत्रव्याख्यां नवद् व्याख्येयानि, विशेषस्त्वेताचानेव यत्-तत्र वन्दन - प्रशंसनविषयाणि सूत्राणि सन्ति, अत्र तु अशनादीनां वस्त्रादीनां च दान- ग्रहणविषयाणि वाघ्यानीति ॥
३५८
अत्राह भाष्यकारः
पासत्याओ समारम्भ, णितियंतस्स साहुणो । देतो जो पड़िगिण्हतोऽसणाई दोसभा भवे ॥ छाया - पार्श्वस्थात् समारभ्य नैत्यिकान्ताय साधवे ।
ददन् 'य. प्रतिगृह्णन्, अशनादि दोषभा भवेत् ॥
अवचूरिः - यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा पार्श्वस्यात् समारम्य नैत्यिकान्ताय साधवे पार्श्वस्थावसन्न-कुशील-यथाछन्द-ससक्त - नैत्यिकेभ्य इत्यर्थः योऽशनादिकम् - अशनपानादिकं ददन् प्रतिगृह्णन् वा, तथा पार्श्वस्थादिम्योऽशनादिकं ददतः स्वीकुर्वतश्चानुमोदकः स यतिः दोषभाग् भवेत् ॥ सू० १०३ ॥
सूत्रम् - - जे भिक्खू जायणावत्थं वा निमंतणावत्थं वा अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय पडिग्गाइ | पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ । से य वत्थे चउण्हण्णय रे सिया तंजहा - णिच्चनिवसणिए १ मज्जणिए २ छणूसविए ३ रायदुवारिए ४ ॥ सू० १०४ ॥
छाया - यो भिक्षुर्याचनावत्र वा निमन्त्रणावस्त्र वा अज्ञात्वा अपृष्ट्वा अगवेपयित्वा प्रतिगृद्धाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते । तच्च वस्त्र चतुर्णामन्यतमं स्यात् तद्यथानित्यनिवसनिकम् १ मज्जनिकम् २ क्षणौत्सविकम् ३ राजदौवारिकम् ४ ॥ सू० १०४ ॥
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धूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १५० १०४ - १६१षिभूषाबुद्धद्या पादप्रमार्जनादिवस्त्रादिधारणनि० ३५९
चूर्णो – 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'जायणावत्थं वा' याचनावस्त्रं वा यद् याचनेन प्राप्यते तत् तथा 'निमंतणावत्थं वा' निमन्त्रणा वस्त्रं वा यत् निमन्त्रणापूर्वकं प्राप्यते तत् एतद् द्विविधमपि वत्रं भिक्षु' 'अजाणिय' अज्ञात्वा कुत्रत आनीतम्, इत्यादि वस्त्रोत्पत्तिकारणम् अज्ञात्वा, तथा - ' अपुच्छिय' अपृष्ट्वा - तद्विषये पृच्छामकृत्वा कस्येदम्, कथं वेदं वस्त्रमासीत्, इत्यादिक्रमेण पृच्छामकृत्वा, 'अगवे सिय' अगवेषयित्वा मदर्थमेवेदं वस्त्रमनेनानीतम् अन्यार्थे वाssनीतम्, कया बुद्धया मह्यं ददातीत्यादि - क्रमेण गवेषणामकृत्वैव याचनावस्त्र निमन्त्रणावत्रमिति द्विविधमपि वस्त्रं साधुः 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति - स्वीकरोति 'पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा अज्ञात्वा अपृष्ट्वा अगवेषयित्वा याचनानिमन्त्रणावस्त्रं प्रतिगृह्णन्तं श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । 'से यवत्थे' तच्च द्विविधमपि वस्त्रम् 'चउण्हमण्णय रे सिया' चतुर्णामन्यतमं स्यात् वक्ष्यमाणानां चतुर्णां वस्त्राणां मध्ये अन्यतमम् एकं स्यात्, 'तं जहा ' तद्यथा - ' णिच्चणिवसणिए १, मज्जपिए २, छणूसविए ३, रायदुवारिए ४, तत्र 'णिच्चणिवसणिए' नित्य निवसनिकम्-यत् नित्यं परिधीयते तत् १, 'मज्जणिए' मज्जनिकं - यत् स्नानावसरे परिधीयते तत् २, 'छणूसविए' क्षणौत्सविकम् - यत् विवाहाद्युत्सवे परिधीयते तत् २, 'रायदुवारिए' राजदौवारिकम् - यत् राजद्वारे सभादौ वा गमनसमये परिधीयते तत् ४, एवं चतुर्विघं वस्त्रं भवति, एष्वन्यतमं याचनावस्त्रं निमन्त्रणावस्त्रं च अज्ञानाऽपृच्छनाऽगवेषणापूर्वकं यो भिक्षुः प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते स आज्ञाभङ्गादिदोषभाग् भवतीति ॥ सू० १०४ ॥
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सूत्रम् — जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जेत वा साइज्जइ ॥ सू० १०५ ॥
छाया -यो भिक्षुर्विभूषाप्रत्ययेन आत्मनः पादौ आमार्जयेद्वा, प्रमार्जयेद्वा आमाजयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १०५ ॥
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चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'विभूसावडियाए, विभूषाप्रत्ययेन - विभूषानिमित्तेन सुकुमालतादिसंपादना बुद्धचेत्यर्थः, 'अप्पणो पाए' आत्मनः स्वस्य पादौ चरणौ 'आमज्जेज्ज वा' आमार्जयेद्वा - तत्रामार्जनं धूल्यादीनाम् पृथक्करणम्, तत् कुर्याद्वा तथा - 'पमज्जेज्ज वा' प्रमार्जयेद्वा प्रतिदिनमनेकवारं चरणयोः प्रमार्जनं कुर्यात् कारयेद्वा । तथा - 'आमज्जंतं वा' आमार्जयन्तं वा - एकवारमामार्जनं कुर्वन्तं कारयन्तं वा 'पमज्जतं वा ' प्रमार्जयन्तं वा-प्रतिदिनमनेकवारं प्रमार्जनं कुर्वन्तं कारयन्तं वा श्रमणान्तरम् ' साइज्जइ' स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० १०५ ॥
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निशीथसूत्रे सूत्रम्-एवं तइयउद्दे सगमओजा व-जे भिक्खू गामाणुगामं दूइज्जमाणे विभूसावडियाए अप्पणो सीसदुवारियं करेइ करतं वा साइज्जइ ॥ सू० १०६-१६०॥
छाया-एवं तृतीयोहेशगमको यावद् यो भिक्षुः प्रामानुग्राम द्रवन् विभूपाप्रत्य. येन आत्मनः शोपंदौवारिकं करोति, कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १०६-१६०॥ ।
चूर्णी-'एवं तइय उद्देसगमओ' इत्यादि । एवम्-अनेनैव प्रकारेण 'तदयउद्देसगमओ' ततीयोदेशगमकः-तृतीयोद्देशकगतषट्पञ्चाशत्सूत्रात्मकसन्दर्भकथितानि पादामार्जनस्त्रात् पोडशरूपादारभ्य 'जाव' यावत् 'जे भिक्खू गामाणुगाम' इत्येकसप्ततिसूत्रपर्यन्तसूत्राणि अग्रे सग्राह्याणि, तत्रत्यान्तिमसूत्रमेवं पठनीयम् , तथाहि-'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गामाणुगाम' प्रामानुग्रामम् एकस्माद् ग्रामाद् अनुपदं द्वितीयं ग्रामम् 'दुइज्जमाणे द्रवन् विहरन् 'विभूसावडियाए' विभूषाप्रत्ययेन विभूषानिमित्तं शोमार्थ तत्संपादनबुद्धयेत्यर्थः 'अप्पणो' आत्मनः स्वस्य उपरि 'सीसदुवारिय' शीर्षदोवारिका शीर्यावरण छत्राकारेण शीर्षस्थगनम् 'करेइ करेंत वा साइज्जइ' करोति कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स दोपभाग भवति । एषां व्याख्याऽपि विभूषाप्रत्ययपदं संयोज्य तत्रैव द्रष्टव्या । विशेषः केवलमयम्-यन् तत्र पादादीनां सामान्यतया प्रमार्जनादिकं कथितम् , अत्र तु विभूषानिमित्तं प्रमार्जनादिकं वक्तव्यम् ।। सू०१०६-१६०।
सूत्रम्-जे भिक्खू विभूसावडियाए वत्थं वा पडिग्गहं वा कंवलं वा पायपुच्छणं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥
छाया-यो भिक्षुः विभूपाप्रत्ययेन वस्न वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छनं वा अन्यतमं वा उपकरणजातं धरति घरन्तं वा स्वदते ॥ सू० १६१ ॥
. चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'विभूसावडियाए विभूषाप्रत्ययेन-विभूषानिमित्तेन सौन्दर्यमाश्रित्य शोभार्थमित्यर्थः, 'वत्थं वा' वस्त्रं वा 'पडिग्गहं वा' प्रतिग्रह-पात्रं वा 'कंबलं वा' कम्बलमूर्णावस्त्रं वा 'पायपुच्छणं वा' पादप्रोञ्छनं वा-पादरजःशोधकं वस्त्रखण्डं रजोहरण वा 'अण्णयरं वा उबगरणजायं' एतदतिरिक्तं यत्किञ्चिदन्यतममुपकरणजातम् 'धरेइ धरंतं वा साइज्जई' धरति-गृह्णाति धरन्तं वा स्वदते वस्नपात्रादिकमिदं सुन्दरमिदमसुन्दरमिति कृत्वा स्वशोभावृद्विबुद्ध्या सुन्दरं सुन्दरवस्त्रपात्रादिकं घरति धरन्तं वाऽन्यमुनिमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति ।। सू० १६१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू विभूसावडियाए वत्थं वा जाव पायपुंछणं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं धोवेइधोवंतं वा साइज्जइ ।। सू० १६२॥ ..
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चूणिभाष्यावचूरिः उ० १५ सू० - १६३
उद्देशकपरिसमाप्तिः ३६१
छाया - यो भिक्षुर्विभूषाप्रत्ययेन वस्त्रं वा यावत् पादप्रोञ्छनकं वा अन्यतमं वा उपकरणजातं धावति धावन्तं वा स्वदते ॥ सु० १६२ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः - श्रमणः श्रमणी वा वस्त्रादिकमन्यतमं वा उपकरणजातम् 'विभूसावडियाए' विभूषाप्रत्ययेन शोभानिमित्तं धावति - प्रक्षालयति, धावन्तमन्यमुनिं वा स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १६२ ॥
किं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीत्याह - ' तं सेवमाणे ' इत्यादि ।
सूत्रम् - तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घा - इयं ॥ सू० १६३ ॥
॥ णिसीहझयणे पणरसमो उद्देसो समत्तो ॥ १५ ॥
छाया - तत्सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् उद्घातिकम् ॥ सू० १६३॥ || निशीथाध्ययने पञ्चदशोदेशकः समाप्तः ॥ १५ ॥
चूर्णी - 'तं सेवमाणे ' इत्यादि । 'तं' तत् उद्देशकादित आरभ्य शोभार्थवस्त्रधावनपर्यन्तपापस्थानमध्यात् यत् किमपि एकमनेकं वा पापस्थानम् 'सेवमाणे' सेवमानः - प्रतिसेवनां कुर्वन् श्रमणः श्रमणी वा 'आचज्जइ' आपद्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासिय' चातुर्मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम् प्रायश्चित्तम् ' उग्घाइयं' उद्घातिकम् - लघुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं तस्य भवतीति ॥ सू० १६३॥
इति श्री—विश्वविख्यात—जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकप्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्री शाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त“जैनशास्त्राचार्य” - पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य -- जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालवति - विरचितायां “निशीथसूत्रस्य" चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् पञ्चदशोद्देशकः समाप्तः ॥ १५ ॥
४६
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॥ षोडशोद्देशकः ॥ व्याख्यातः पञ्चदशोद्देशकः, साम्प्रतमवसरप्राप्तः षोडशोदशको व्याख्यायते, तत्र पोडशोदेशकादिसूत्रस्य पञ्चदशोद्देशकान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्ध इति चेत् अत्राह भाष्यकार:--
पुव्वंतमि विभूसाए, पडिसेहो य वन्निओ ।
चरित्ते दोसभावाभो, एत्थ सेज्जा णिसिज्झइ ॥ छाया-पूर्वान्ते विभूषायाः प्रतिषेधश्च वर्णितः ।
चारित्रे हि दोषभावादत्र शय्या निषिद्धयते ॥ अवचूरिः-पूर्वान्ते-पूर्वस्य-एतदपेक्षया पूर्वस्य प्राक्कथितस्य पञ्चदशोदेशकस्यान्ते-चरमसूत्रे विभूषानिमित्तं-शोभार्थ पादादिप्रमार्जनादीनाम् तथा विभूषार्थ च उज्ज्वलोपधिधारणस्य प्रतिषेधः वर्णितः कथितः । कथं विभूषादीनां प्रतिषेधः कृतस्तत्राह-'चरित्ते' इत्यादि, चारित्रे दोषभावात् दोषोत्पादकत्वात् उज्ज्वलोपधिधारणं शरीरविभूषादिकं च साक्षात् परम्परया वा चारित्रस्य विराधनकारणं तस्मात् कारणातू तस्य प्रतिषेधः कृतः, तत्सम्बन्धादत्र षोडशोद्देशकेऽपि सागारिकशय्यायाः सागारिकवसतेः प्रतिषेध एवं क्रियते सागारिकशय्याया अपि संयमविराधकत्वात् इति संयमविराधकत्वस्य उभयत्रापि समानत्वेन अयमेव सम्बन्धः पूर्वापरसूत्रयोः ।
पूर्वस्मिन् उद्देशके लघुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं कथितम्, अत्रापि तदेव कथयिष्यते इति । तदनेन सम्बन्धेन आयातस्यास्य पोडशोदेशकस्येदमादिसूत्रम्
सूत्रम-जे भिक्खू सागारियसेज्जं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १॥
छाया-यो भिक्षुः सागारिकशय्यामनुप्रविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥ सू०१॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सागारियसेज्ज' सागारिकशय्याम्, तत्र सागारिकः गृहस्थः तस्य शय्या वसतिरिति सागारिकशय्या, शेते यस्यां सा शय्या-वसतिनिवासस्थानम् यत्रावस्त्रानेन मैथुनभाव उद्भवति सा, सागारिके-येषा सामयिकी संज्ञा तेन सागारिकशय्येति दम्पत्योः शयनस्थानमित्यर्थः एतादृशं स्थानं यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अणुप्पविसई' अनुप्रविशति ओदनादिग्रहणार्थं प्रवेश करोति कारयति वा तथा-'अणुप्पविसंत वा साइज्जई' अनुप्रविशन्तं वा स्त्रीपुरुषयोः शयनस्थाने प्रवेशं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स दोषभागी भवति, एतादृशस्थाने शृङ्गारसामग्रीबाहुल्येन मनोविकृतेः संभवादिति ॥ सू० १ ।।
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ• १६ सू० १-३ सागारिक-सोदक-साग्निकशय्याप्रवेशनिषेधः ३६३
अत्राह भाष्यकार:
सेज्जा दुविहा एत्थ य, दव्वे भावे तहा मुणेयब्वा । जं सहाणं दव्वे विसरिसरुवं तु भावम्मि ॥ छाया-शय्या द्विविधा अत्र च, द्रव्ये भावे तथा ज्ञातव्या ।
यत् स्वस्थान द्रव्ये विसहशरूपं तु भावे ॥ अवद्रिः-शय्या-सागारिकशय्या दम्पत्योर्निवासरूपा, सा अत्र च द्विविधा-द्विप्रकारिका द्रव्ये तथा भावे द्रव्यभावभेदात् ज्ञातव्या, सागारिकं द्विविधम् , तत्र यत् स्वस्थानं स्वसदृशरूपं तत् द्रव्येद्रव्यतः, यत् विसशरूपं स्वसादृश्यभिन्नं तद् भावे भावतो भवति । तत्र स्वसादृश्ये सागारिके मनोविकारा-संभवाद् द्रव्यत्वम्, विसदृशरूपे सागारिके मनोविकारबाहुल्याद् भावत्वमिति विवेकः । तथाहिद्रव्यभावसागारिक रूपे आभरणविधौ वस्त्रालङ्कारभोजनगन्धेषु तथा आतोचनृत्यनाट्यगीतशयनादिद्रव्येषु च भवति, तत्र रूपं नाम यत् काष्ठचित्रलेप्यकर्मणि पुरुषरूपं कृतं तत्, अथवा जीवरहितं पुरुषशरीरं तत् श्रमणानां कृते पुरुषरूपं स्वस्थानत्वात् द्रव्यसागारिकम् । एतादृशमेव पुरुषरूपं विसदृशत्वात् श्रमणीनां भावसागारिकं भवति । एवमेतेष्वेव काष्ठकर्मादिषु यत्र स्त्रीणां शरीरं तत् श्रमणीनां कृते द्रव्यसागारिकं साधूनां कृते तदेव शरीरं भावसागारिकम् । एवमाभरणं पुरुषोपभोग्यं तत् पुरुषाणां द्रव्यसागारिक स्रोणां कृते भावसागारिकम्, तथा-स्त्रीणामुपभोग्यं यत्
आभरणादिक तत्त्रीणां कृते द्रव्यसागारिकं, पुरुषाणां कृते भावसागारिकम् । एवं वस्त्रालंकारादिकं चतुःप्रकारकम् तत्पुरुषयोग्यं पुरुषाणां द्रव्यसागारिकं त्रीणां भावसागारिकम् । यत्पुन
बालङ्कारादिकं स्त्रोणां योग्यं तत् स्त्रीणां द्रव्यसागारिकं पुरुषाणां कृते तदेव भावसागारिकम् । एवं भोजनम्, अशनपानखाद्यस्वाधभेदेन चतुर्विधम्, तदपि पुरुषोपभोगयोग्यं पुरुषाणां द्रव्यसागारिक, स्त्रीणां कृते भावसागारिकम्, यत् पुनः स्त्रीणामुपभोगयोग्यम् अशनादिकं तत्स्त्रीणां कृते द्रव्यसागारिकं तदेव पुरुषाणां कृते भावसागारिकम् । एवं गन्धेऽपि, तत्र गन्धः-कोष्ठपुटकादिः, तत्र यो गन्धः पुरुषोपभोगयोग्यः स श्रमणानां द्रव्यसागारिकम्, स एव गन्धः श्रमणीनां भावसागारिकम्, यश्च गन्धः स्त्रीणामुपभोगयोग्यः स स्त्रीणां द्रव्यसागारिकं, श्रमणानां स एव भावसागारिकम् । एवमातोये, तत्रातोचं चतुर्विधम्, ततम् १, विततम् २, धनम् ३, शुषिरं च ४, तत्र यत् मातो! पुरुषसाध्यं पुरुषयोग्य तत् श्रमणानां द्रव्यसागरिकं, श्रमणीनां भावसागारिकम्, यत् पुनरातोघं स्त्रीसाध्यं स्त्रीयोग्यम् तत् श्रमणीनां द्रव्यसागारिकं श्रमणानां भावसागारिकम् । एवं नृत्येऽपि, तत्र नृत्यं चतुर्विधम्-मञ्चितम् १, रिभितम् २, आरभटम् ३, भसोलं च ४, तत्र यत् नृत्यं पुरुषसंपादनीयं तत् श्रमणानां द्रव्यसागारिकं श्रमणीनां भावसागारिकम्, यत् पुनत्यं स्त्रीभिः सम्पादनीयम् तत् श्रमणीनां द्रव्यसागारिकं श्रमणानां भावसागारिकम् , इति ।
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निशीथसूत्रे
एवं नाट्येऽपि, तत्र नृत्यनाटकयोरयं भेदः यत् गीतरहितं तत् नृत्यं तत्र केवलं गात्रसञ्चालनमेव, नाटकं तु गीतसमन्वितम्, यत्र गीतमपि गायति गात्रसञ्चालनमपि करोति इति, तत्र नाटकेऽपि स्त्रीपुरुपयोविभागेन द्रव्यभावभेदो ज्ञातव्य इति । एवं गीतेऽपि, तत्र गीत-स्वरसाम्येन गानं, तच्चतुर्विधं भवति, तन्त्रीसमम् १, तालसमम् २, ग्रहसमम् ३, लयसमं च ४, तत्र यत् गीतं पुरुपैर्गातुं योग्यं तत् श्रमणानां द्रव्यसागारिकं श्रमणीनां तदेव भावसागारिकम्, यत् पुनः स्त्रीमिर्गातुं योग्यं तत् श्रमणीनां द्रव्यसागारिकं श्रमणानां भावसागारिकम् । एवं शयनीयेऽपि, तत्र शयनीयं पर्यङ्कायनेकप्रकारकम् , तत्र यत् शयनीयं पुरुपैरधिष्ठातुं योग्यं तत् श्रमणानां द्रव्यसागारिक तदेव शयनीयं श्रमणीनां भावसागाकिरम्, यत्पुनः स्त्रीभिरधिष्ठातुं योग्यं तत् शयनीय श्रमणीनां द्रव्यसागारिकं श्रमणानां तु भावसागारिकम् | इत्यादिभेदभिन्नां सागारिकशय्यां यः कश्चिद्भिक्षुरनुप्रविशति स दोषभागी भवतीति ॥ सू० १ ॥
मूत्रम्-जे भिक्खू सोदगं सेज्ज अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २॥
छाया--यो भिक्षुः सोदकां शय्यामनुप्रविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥सू०२ ॥ चूर्णि:-'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सोदकं सेज्ज' सोदकां शय्याम् सचित्तजलसहितां जलस्थानरूपां सागारिकवसतिं गृहस्थानां जलस्थानं प्रपा. दिकम् यत्रोदकं विद्यते तादृशस्थानं यस्य वा समीपे उदकं विद्यते तादृशं स्थानं सोदकशय्येति पदेन कथ्यते इति तादृशीं सोदकां वसतिं यः श्रमणः श्रमणी वा 'अणुप्पविसई' अनुप्रविशति तत्र प्रवेशं करोति, कारयति वा 'अणुप्पविसंत वा साइजई' अनुप्रविशन्तं वा सोदकशय्यायां वासं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तमागी भवति ।। सू० २ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सागणियं सेज्जं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३॥
छाया-यो भिक्षु साग्निकां शय्यामनुप्रविशति अनुपविशन्तं वा स्वदते ॥सू० ३॥
चूर्णी-'जे भक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः प्रमणः श्रमणी वा 'सागणियं सेज' साग्निकां शय्याम् , तत्र अमिना सहिता-संयुक्ता अग्निसमीपस्था वा शय्या वसतिः-स्थानं सा साग्निकशय्या तां साग्निकशय्यां पाकस्थानं महानसादिकम् , कुम्भकारस्य भाण्ड. पचनस्थानं वा यत्राग्निर्भवेत् तत्र, अथवा अग्निसमीपवर्तिस्थानं वा 'अणुप्पविसइ' अनुप्रविशति अग्निशालादिपु प्रवेश करोति कारयति वा तथा 'अणुप्पविसंत वा साइज्जई' अनुप्रविशन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १६ सू ४-१३ सचित्तेवारण्यगभिक्षावसुराजिकविपर्ययनि० ३६५ अत्राह भाष्यकार:
सोदगागणियं सेज्जं, खणिगं सव्वकालियं ।
पविसे तत्थ जो भिक्खू, आणाभंगाइ पावइ ॥१॥ छाया-सोदकाग्निकां शय्यां, क्षणिकां सर्वकालिकाम् ।
प्रविशेत् तत्र यो भिक्षुः, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥१॥ अवचूरिः-'सोदगागणियं' सोदकाग्निकाम्-सोदकां साग्निकां वा उदकसहितामग्निसहितां वा 'सेज्ज' शय्याम् , सा द्विविधा-क्षणिका-अल्पकालभाविनी, सर्वकालिका-सर्वकालभाविनी जलाशयरूपा इष्टिकापाकादिरूपा च, तां द्विविधामपि शय्याम्-वसतिं प्रविशेत् यो भिक्षुः तिप्ठेत् स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोतीति । सू० ३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तं उच्छंभुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू०४॥ छाया—यो भिक्षुः सचित्तमिर्धा भुङ्क्ते भुञ्जान वा स्वदते ॥ सू० ४ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्ख्' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सचित्तं उच्र्छ' सचित्तमिक्षुम् ‘भुंजई भुक्ते तथा 'भुजंतं वा साइज्जइ' भुञ्जानं वा स्वदते-सचित्तेक्षुदण्डस्योपभोगं कुर्वाणं श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू०४॥
सूत्रम्-एवं पण्णरसमे उद्देसे अंबस्स जहा गमो सो चेव इहंपि णेयवो ॥ सू० ५-९॥
छाया-पवं पञ्चदशे उद्देशे आम्रस्य यथा गमः स एव इहापिसातव्यः ।सू०५-९॥
चूर्णी-एवं-अनेनैव प्रकारेण यथा पञ्चदशोद्देशके सचित्ताम्रफलभक्षणे गमः कथितः स एव गमो निरवशेषोऽत्रापि ज्ञातव्यः केवलाम्रफलस्थाने सचित्तमिक्षुमितिपदं निवेशनीयमिति । नवरम 'अंतरुच्छयं' इति अन्तरिक्षुकम्-इक्षोरन्तर्भागव्यवस्थितमवयवविशेषम् । शेषं सूत्रपञ्चकं पञ्चदशो. देशकगताम्रसूत्रवद् व्याख्येयम् ॥ सू० ५-९ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू आरण्णगाणं वणवयाणं अडविजत्तासंपट्टियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंत वा साइज्जइ ॥ सू० १०॥
छाया-यो भिक्षुरारण्यगानां वनवजानाम् अठवीयात्रासंप्रस्थितानाम् अशनं वा पान वा खाद्य वा स्वाद्य वा प्रतिगृह्णाति, प्रतिगृह्यन्तं पा स्वदते ॥ सू० १० ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्दि भिक्षुः 'आरणगाणं' आरण्यगाणाम् , अरण्यम्-एकजातीयवृक्षसमूहात्मकं तदेव आरण्यम् तत्र गच्छन्तीति आरण्यगाः, तेषामारण्यगा
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निशीथसूत्रे नाम्-अरण्यगामिनाम् 'वणवयाण' वनव्रजानाम्, तत्र वनं प्रति, व्रजन्ति-वने गच्छन्ति ये ते वनवजाः, तेषां वनगामिनाम् आजीविकार्थम् अरण्ये वने वा गच्छतामित्यर्थः, 'अडविजत्तासंपष्टियाण' अटवीयात्रासंप्रस्थितानाम्-वनयात्राथै निर्गतानाम् , तत्र वनवृक्षाकुलं निर्जनं भयङ्करं वनमटवी कथ्यते, तत्सम्बन्धिनी यात्रा-गमनरूपा तदर्थ संप्रस्थितानां काष्ठादिहरणार्थ निर्गतानां तथा वनोपजीविना काष्टहारेकाणां संबन्धि यो भिक्षुः 'असणं वा' अशनं वा-पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाद्यं वा 'साइमं वा' स्वाद्यं वा 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति स्वीकारयति वा तथा 'पडिग्गाहेत वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा श्रमणान्तरम् स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति यतो यो वनं गच्छति स तु परिमितमेवाशनादिकं स्वस्याभोक्तुं गृह्णातिद् यदि साधुम्रहीष्यति तदा स पुरुषः स्वकीयोदरपणे कष्टमनुभविष्यति तस्मादरण्यादौ गच्छतां वनोपजीविनां. सम्बन्धि यदशनादिकं तत् न गृह्णीयात् न वा ग्राहयेत् न वा गृहन्तमनुमोदयेदिति ॥ सू० १० ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू वसुराइयं अवसुराइयं वयइ वयंतं वा साइ. ज्जइ ।। सू० ११॥
छाया-यो भिक्षुर्वसुराजिकमवसुराजिकं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू० ११ ॥ ___ चूर्णी-'जे मिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वसुराइयं' वसुराजिकम्-विशुद्धज्ञानदर्शनचारित्राराधकं दमितेन्द्रियं जैनदीपकस्वरूपम् , तत्र वसूनि रत्नानि पञ्चमहाव्रतरूपाणि ज्ञानदर्शनचारित्रतपांसि वा भावरत्नानि तैः राजते-शोभते यः सं वसुराजिक तथा चैतादृशं वसुराजिकं मुनि 'अवमुराइयं' अवसुराजिकम्-ज्ञानदर्शनचारित्रतपोभावरत्नरहितं-'वयई' वदति-कथयति अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्राराधकं मुनिवर्यम् 'नायं वसुराजिकः अपितु धूत्तों वञ्चको विराधितसंयममार्गः' इत्यादिक्रमेण निन्दा करोति, तथा 'वयंत वा साइज्जई' वदन्तं वा तादृशश्रमणान्तरं यः कश्चित् स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्तीति ॥ सू० ११ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अवसुराइयं वसुराइयं वयइ वयं वा साइज्जइ ॥सू०१२॥
छाया-यो भिक्षुरवसुराजिकं वसुराजिकं वदति वदन्तं वा म्बदते ॥ सू०१२ ।।
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अवसुराइयं' अवसुरानिकम् यः खल ज्ञानदर्शनचारित्राणामनागधकः श्रमणभिन्नः श्रमणसदशश्च केवलं वेषमात्रेण साधुसमानः ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकरन्नरहितत्वात्, तमवसुराजिकं पार्श्वस्थादिकम् 'वसुराइयं'
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चूर्णि भाष्यावधूरिः उ०१६ सु०१४- १८ व्युप्रहव्युत्क्रान्तानामशनादिदानाऽऽदाननिषेधः ३६७ वसुराजिकम् - ज्ञानदर्शनचारित्राणामाराधकं 'वयई' वदति - कथयति स्नेहात् मोहाद्वा पोर्श्वस्थादिकमसाधुमपि अयं साधुरिति कथयति तथा 'वयंतं वा साइज्जइ' वदन्तमन्यं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्य आज्ञाभङ्गादिदोषा अपि भवन्ति ॥ सू० १२ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू वसुराइयगणाओ अवसुराइयगणं संकमइ संक मंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १३ ॥
छाया - यो भिक्षुः वसुराजिकगणात् अवसुराजिकगणं संक्रामति संक्रामन्तं वा स्वदते ॥ सू० १३ ॥
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चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' य कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वसुराइयगणाओ' वसुराजिकगणात् - ज्ञानदर्शनचारित्रतपः समाराधकाः वसुराजिकास्तेषां गणः- समुदाय - स्तस्मात् तादशसमुदायमध्यात् 'अवसुराइयगणं संकमइ' अवसुराजिकगणं संक्रामति - गच्छति - वसुराजिकानां गणम्-समुदायं परित्यज्य यः खल्ल मन्दभाग्यः अषसुराजिकानां गणं प्रति गच्छति तथा 'संकतं वा साइज्ज३' ज्ञानदर्शनचारित्राराधकानां गणं परित्यज्य ज्ञानाद्यनाराघकपार्श्व - स्थादिगणे सक्रामन्तं-गच्छन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १३
सूत्रम् — जे भिक्खू वुग्गहवुक्कंताणं असणं वा पाणं वा खाइस वा साइमं वा देइ देतं वा साइज्जइ ॥ सू० १४ ॥
छाया - यो भिक्षुर्युद्द्महव्युत्क्रान्तानामशन वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा ददाति ददतं वा स्वदते ॥ सू० १४ ॥
चूर्णी --- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'बुग्गहबु क्कंताणं' ॰मुद्ग्रहव्युत्क्रान्तानाम्, तत्र व्युद्ग्रहोऽधिकरणं कलहः, तं कलहंकृत्वा ये व्युत्क्रान्ताःनिष्क्रान्तास्ते व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्ताः तेषां श्रमणानाम् व्युद्हव्युत्क्रान्तेभ्यः श्रमणेभ्यः इत्यर्थः 'असणं' वा ' अशनं वा पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाद्यं वा 'साइमं वा' स्वाद्यं वा 'देइ' ददाति - समर्पयति यो हि श्रमणः श्रमणी वा कलहं कृत्वा स्वगणादवक्रान्तस्तस्मै चतुर्विधमाहारजातं समर्पयति तथा 'देतं वा साइज्जइ' ददतं वा कलहकारिणे अशनादिकं समर्पयन्तं श्रमणान्तरं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १४ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खु वुग्गहवुक्कंताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १५ ॥
छाया - यो भिक्षुर्व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानाम् अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू० १५ ॥
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निशीथसूत्र चूर्णी- 'जे भिक्खू इत्यादि । यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'चुग्गहवुक्कंताणं' व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानां पूर्वोक्तस्वरूपाणां श्रमणानां श्रमणीनां वा संबन्धि तेभ्य इत्यर्थ 'असणं वा पाण वा खाइमं वा साइम वा' अशनादिकं चतुर्विधम् 'पडिच्छई' .प्रतीच्छति-स्वीकरोति तथा 'पडिच्छंतं वा साइज्जई' प्रतीच्छन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी ववति ॥ सु० १५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वुग्गहवुक्कंताणं वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपोंछणगं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१६॥
छाया- यो भिक्षुयुद्ग्रहव्युत्कान्तानां वस्त्रं वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छ. नकं वा ददाति ददतं वा स्वदते ॥सू० १६ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्विक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'बुग्गहचु. कंताणं' व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानाम्-श्रमणानां श्रमणीनां वा 'वर्थ वा' वनं वा-चोलपट्टप्रावरणादिकम् 'पडिग्गहं वा' प्रतिग्रहं वा-पात्रादिकम् 'कंवलं वा' कम्बलं वा-ऊर्णामयम् 'पायपोंछणगं वा' पादप्रोञ्छनकं वा रनोहरणम् 'देई' ददाति-समर्पयति तथा 'देतं वा साइज्जई' ददतं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू बुग्गहवुक्कंताणं वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणगं वा पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ।। सू० १७॥
छाया-यो भिक्षुर्युग्रहव्युत्कान्तानां वस्त्रं वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छनकं वा प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ ९० १७ ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'बुग्गहचुकंताणं' व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानाम् साधूनाम् सकाशात् 'वत्थं वा वस्त्रं वा-चोलपट्टादिकम् 'पडिग्गरं वा' प्रतिग्रहं वा-पात्रादिकम् 'कंबलं वा' कम्बलं वा 'पायपोंछणगं वा' पादप्रोञ्छनक वा-एतानि वस्त्रादीनि यः 'पडिच्छइ' प्रसीच्छति स्वीकरोति तथा 'पडिच्छंतं वा साइज्जई' प्रतीच्छन्तं वा-स्वीकुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ स० १७ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वुग्गहवुक्कंताणं वसहिं देइ देंतं वा साइज्जइ ।। सू०१८॥
छाया--यो भिक्षुव्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानां वसति ददाति-ददतं वा स्वदते ॥ सू० १८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'बुग्गहबुक्कंताण' व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानाम् 'वसहि देई' वसतिम्-उपाश्रये आश्रयं ददाति तथा देंत वा साइज्जई' ददतं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १८ ॥
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पूर्णि० उ०१६ सू०-१९-२३ व्युगहव्युत्क्रान्तानां वसतिस्वाध्यायदानाऽऽदाननि० ३६९
सूत्रम्-जे भिक्खू बुग्गहवुक्कंताणं वसहि पडिच्छइ पडिच्छन्तं वा साइज्जइ ॥ सू० १९॥
छाया-यो भिक्षुर्युद्ग्रहन्युत्क्रान्तां वसति प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'बुग्गहबुक्कंताणं' व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानाम् सम्बन्धिकां तदाश्रयभूतामित्यर्थः । 'वसहि' वसतिम्स्थानम् 'पडिच्छइ' प्रतीच्छति-स्वीकरोति तथा 'पडिच्छंतं वा साइज्जई' प्रतीच्छन्तं-स्वीकुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १९॥ .
सूत्रम्-जे भिक्खू बुग्गहवुक्कंताणं वसहि अणुप्पविसइ अणुप्पविसंत वा साइज्जइ ।। सू० २०॥
छाया-यो भिक्षुर्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानां वसतिमनुप्रविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ।। स० २० ॥
____ चर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रभणी वा 'बुग्गहवुक्कंताणं' व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानां संबन्धिनी 'वसहि' वसतिम्-उपाश्रयम् अणुप्पविसई' 'अनुप्रविशति तेषामुपाश्रये प्रवेशं करोति । तथा 'अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ' अनुप्रविशन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू बुग्गहवुक्कंताणं सज्झायं देइ देंतं वा साइ' ज्जइ ॥ सू० २१ ॥ ___ छाया यो भिक्षुर्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानां स्वाध्यायं ददाति ददतं वा स्वदते ॥२१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'बुग्गहवुक्कंताणं' व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानाम् 'सज्झायं' स्वाध्यायम्-स्वाध्यायपदवाच्यानां सूत्रार्थानां सूत्रार्थविषयकं ज्ञानं सूत्रार्थयोरध्ययनमित्यर्थः 'देइ' ददाति-सूत्रमर्थ तदुभयं वा अध्यापयतीत्यर्थः, तथा-'देत वा साइज्जइ' ददतं वा श्रमणान्तरं स्वदते–अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू बुग्गहवुक्कंताणं सज्झायं पडिच्छइ पडिच्छंत वा साइज्जइ ।। सू० २२॥
___ छाया - यो भिक्षुर्युद्ग्रहव्युत्कान्तानां स्वाध्यायं प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू० २२ ॥
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३७०
निशीथस्त्र
चूर्णी- 'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'बुग्गहबुक्कंताणं' व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानाम् व्युद्ग्रहव्युत्क्रन्तेभ्य इत्यर्थः सज्झायं' स्वाध्यायम्सूत्रार्थतदुभयरूपम् 'पडिच्छइ' प्रतीच्छति 'पडिच्छंतं वा साइज्जई' प्रतीच्छन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:'बुग्गहत्रुक्कंताणं, असणा आरम्भ जो य सज्झायं ।
देइ पडिच्छइ भिक्खू, आणाभंगाइ पावे ॥ छाया-व्युद्ग्रह व्युत्क्रान्तानां (व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तेभ्यः) अशनादारभ्य यश्च स्वाध्यायम् ।
ददाति प्रतीच्छति भिक्षुः, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ।। अवचूरिः-यश्च भिक्षुः व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानां अशनादारभ्य स्वाध्यायम्-अशनादिकं वस्त्रादिकं वसतिं ददाति प्रतीच्छति तत्र प्रविशति वा, तथा स्वाध्यायं च ददाति, तेषां सकाशात् स्वाध्यायं स्वीकरोति वा स आज्ञाभङ्गादिकं प्राप्नोतीति ।। सू० २२ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू विहं अणेगाहगमणिज्जं संति लाढे विहाराए संथरमाणेसु जणवएसु विहारखडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइ. ज्जइ ॥ सू० २३ ॥ . छाया--यो भिक्षुर्वीथिमनेकाहगमनीयां सति लाढे विहाराय संस्त्रियमाणेषु जनपदेषु विहारप्रतिज्ञया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २३ ॥
__ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'विहं' वीथिम् कथंभूतां वीथिम् । तत्राह-'अणेगाह०' इत्यादि, 'अणेगाहगमणिज्ज' अनेकाहगमनीयाम् अनैकैरहोभिः-दिवसैः गमनीयाम्-गन्तुयोग्यामटवीरूपां विहारप्रतिज्ञया गन्तुमभिसेधारयति इत्यग्रेण सम्बन्धः । कथमित्याह-'संति लाढे' सति लाढे विद्यमानेऽन्यस्मिन् देशे यत्र 'विहाराए' विहाराय विहारनिमित्तम् तपोनियमसंयमस्वाध्यायाद्यर्थम् 'संथरमाणेसु' संस्त्रियमाणेषु-आहारोपधिवसत्यादिना सुलभेषु निर्वाहयोग्येषु 'जणवएसु' जनपदेषु सत्सु 'विहारवडियाए' विहारप्रतिज्ञयाविचरणभावनया 'अभिसंधारेइ' अभिसंधारयति-गन्तुं मनसि विचारयति, 'अभिसंधारें।' अनेकदिवसगमनीयामटवीं विहारविचारणां कुर्वन्तम् श्रमणान्तरम् 'साइज्जई' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवतीति । अयं भाव'-कथमनेकदिवसगमनीयमार्गे गमननिषेधः कृतस्तत्राहयत्र देशे गम्यमाने संयमात्मविराधनादयोऽनेके दोषाः प्रसज्येयुः, तपोनियमस्वाध्यायाधभावरूपा संयमविराधना, श्वापदादिहिंसकप्राणिभिरात्मविराधना च सम्भवतीत्यतोऽनेकदिवसगमनीयमार्गे गमनाय मुनिः मनस्यपि विचार न कुर्यादिति ।। सू० २३ ।।
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १६ सू० २४-२९
जुगुप्सिकुलाशनादिग्रहणनिषेधः ३७१
सूत्रम् — जे भिक्खू विरूवरूवाई दस्सुयाययणाई अणारियाई मिल. क्खुईं पच्चंतियाई संति लाढे विहाराए संथरमाणेसु जणवसु विहाखडि. याए अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २४ ॥
छाया - -यो भिक्षुः विरूपरूपाणि दस्युकायतनानि अनार्याणि म्लेच्छानि प्रात्यन्तिकानि सति लाढे विहाराय संस्त्रियमाणेषु जनपदेषु विहारप्रतिज्ञया अभिसंधारयति अभिसंघारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४ ॥
चूर्णी -- 'जे भिक्खू' इत्यादि । यः किश्चिद्विक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'विरूवरूबाई' विरूपरूपाणि शकयवनाद्यन्यान्यवेषभूषादिनाऽनेकप्रकारकाणि 'दस्तुयाययणाइ' दस्युकायतनानि दस्युकाः - चौरास्तेषामायतनानि - स्थानानि कीदृशानीत्याह - 'अणारियाइँ' अनार्याणि - अनार्यैः-आर्यभिन्नैः परिसेन्यमामानि 'मिलक्खुइँ' म्लेच्छानि - म्लेच्छैः परिसेव्यमानानि, तत्र म्लेच्छास्ते ये अव्यक्तभाषिणः यदा रुष्टास्तदा दुःखमुत्पादयन्ति धर्मे दुष्प्रबोधाः सर्वादरेण भोजनशीलाः अकालपरिभोगिनो रात्रावेव जागरणशीलाः धर्ममधर्मे मन्यमाना इत्थंभूता म्लेच्छास्तेषां स्थानानि, पुन. 'पच्चंतियाई' प्रात्यन्तिकानि प्रत्यन्तानि अनार्याणि तैः सेवितानि 'संति सादें" सति लाढे सत्यन्यस्मिन् देशे 'विहाराए' विहाराय ' संस्थरमाणेसु' संस्त्रियमाणेषु 'जणवएसु' जनपदेषु व्याख्या पूर्ववत् 'विहारवडियाए' विहारप्रतिज्ञया यो भिक्षुर्दस्युकानार्थम्लेच्छदेशेषु गमनाय विहार भावनया 'अभिसंधारेइ' अभिसंधारयति - विचारं करोति कारयति वा तथा 'अभिसंधारेंत वा' साइज्जइ' अभिसंधारयन्तं तत्र गमनाय विचारं कुर्वन्तं कारयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति | सू० २४ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइयं वा पडिग्गा हेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ सू० २५ ॥
छाया -यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृहाति प्रतिगृह्वन्तं वा स्वदते ।। सू० २५ ॥
चूर्णी – 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुर्गुंछियकुळेसु' जुगुप्सितकुलेषु - निन्दित कुलेषु, तच्च चर्मकार मद्यविक्रयि मद्यपायि- भिल्ल- धीवरादिकुलम्, यद्वा यद् हि यत्र देशें निन्दितत्वेन प्रसिद्धम् तेषु तथाविधेषु कुलेषु असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा ' पानं वा 'खाइमं वा' खाद्यं वा 'साइम' वा' स्वाद्यं वा 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति — स्वीकरोति 'पडिग्गार्हतं वा साइज्जर' प्रतिगृह्णन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २५ ॥
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३७२
निशीथस्त्रे . . सूत्रम्-जे भिक्खू दुगुछियकुलेसु वत्थं वा पडिग्गहं वा कंवलं वा पायपुंछणगं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥सू० २६॥
छाया-यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु वस्त्रं वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोम्छ. नकं वा प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० २६ ।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिदभिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुगुंछियकुलेसु' जुगुप्सितकुलेषु 'वत्थं वा' वस्त्रं वा 'पडिग्गरं वा' प्रतिमहं वा पात्रं वा 'कंवलं वा' कम्बलं वा 'पायपुंछणगं वा' पादप्रोञ्छनकं वा रजोहरणमित्यर्थः 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइजई' प्रतिगृहन्तम्-स्वीकुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तमाग् भवति ।। सू० २२ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु वसहिं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहतं वा साइज्जइ ॥सू० २७॥
छाया-यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु वसति प्रगृिहाति प्रतिगृहन्तं पा स्वदते ॥ २७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुगुंछियकुलेस' जुगुप्सितकुलेषु 'वसहि' वसतिम्-निवासस्थानम् 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृहाति 'पडिग्गाहेत वा साइज्जइ' प्रतिगृहन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० २७|| ... सूत्रम्-जे भिक्खू दुगुछियकुलेसु सज्झायं करेइ करेंत वा साइज्जइ ।। सू० २८ ॥
. छाया-यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु स्वाध्याय करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० २८॥ - चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुगुंछियकुलेमु' जुगुप्सितकुलेषु 'सज्झायं' स्वाध्याय सूत्रार्थयोरध्ययनम् 'करेई' करोति 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते -अनुमोदते स दोपभाग् भवति ॥ सू० २८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं उदिसइ उदिसतं वा साइज्जइ ॥ सू० २९ ॥ __ छाया--यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु स्वाध्यायमुदिशति उदिशन्तं वा स्वदते ॥ २९ ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुर्गछियकुलेमु' जुगुप्सितकुलेषु 'सज्झायं उदिसइ' स्वाध्यायमुद्दिशनि-सूत्रमथै तदुभय वा एकवारमध्यापयति पाठयति तथा 'उदिसंतं वा साइज्जई' उद्दिशन्तम्-स्वाध्यायमध्यापयन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २९।।
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ० १६ सू० ३०-३६ नुगुप्सितकुलस्वाध्यायाद्यशनादिपरिष्ठापननि० ३७३
सूत्रम् — जे भिक्खू दुगुछियकुलेसु सज्झायं समुद्दिसइ समुद्दिसंत वा साइज्जइ ॥ सू० ३० ॥
छाया - यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु स्वाध्यायं समुद्दिशति समुद्दिशन्तं वा स्वदते ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कचिदभिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुर्गुछियकुलेमु' जुगुप्सितकुलेषु 'सज्झायं समुद्दिसई' स्वाध्यायं समुद्दिशति - सूत्रमर्थ तदुभयं वा अनेकवारमध्यापयति तथा 'समुद्दिसंतं वा साइज्जइ' समुद्दिशन्तं श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ३० ॥
सुत्रम् -- जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं अणुजाणइ अणुजाणतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३१ ॥
छाया -यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु स्वाध्याय मनुजानाति अनुजानन्तं वा स्वदते ॥
'चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुछियकुलेस' जुगुप्सितकुलेषु समुपविश्य श्रमणं यं कमपि वा 'सज्झायं' स्वाध्यायम् - सूत्रार्थतदुभयात्मकं द्वादशाङ्गीलक्षणम् 'अणुजाणई' अनुजानाति - प्रशंसति तथा 'अणुजाणंतं वा साइज्जइ' मनुजानन्तं वा स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चिद्धभागी भवति ॥ मू० ३१ ॥
सूत्रम् —— जे भिक्खू दुर्गुछियकुलेसु सज्झायं वाएइ वायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३२ ॥
छाया -यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु स्वाध्यायं वाचयति वाचयन्तं वा स्वदते ॥३२॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुगुंछियकुलेसु' जुगुप्सितकुलेपु 'सज्झायं वाएइ' स्वाध्यायं वाचयति - - शास्त्रस्य वाचनां ददाति 'वार्यतं वा साइज्जइ' वाचयन्तम् वाचनां ददतं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ३२ ॥
श्रमणान्तरं
सूत्रम् -- जे भिक्खू दुछियकुलेसु सज्झायं पडिच्छइ पडिच्छंत वा साइज्जइ || सू० ३३ ॥
छाया -- यो भिक्षु जुगुप्सितकुलेषु स्वाध्यायं प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ ३३ ॥
·
चूर्णी – 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुगुछियकुळेसु' जुगुप्सितकुलेषु 'सज्झायं' स्वाध्यायं सूत्रमर्थं च 'पडिच्छन्' प्रतीच्छति - स्वीक
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निशीथसूत्रे
३७४
NAARI AAAAAAAAAAAK
रोति तथा 'पडिच्छंतं वा साइज्जइ' प्रतीच्छन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायचित्तभागी भवति ॥ सू० ३३ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं परियट्टेइ परियहतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३४॥
छाया - -यो भिक्षुः जुगुप्सित कुलेषु स्वाध्यायं परिवर्तयति परिवर्तयन्तं वा स्वदते ३४
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चि दुर्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुर्गाछियकुले' जुगुप्सितकुलेषु 'सज्झायं' स्वाध्यायम् सूत्रमर्थ वा 'परियदृइ' परिवर्तयतिसूत्रार्थतदुभयस्य पुनरावर्तनं करोति करयति वा तथा 'परियहृतं वा साइज्जइ' परिवर्तयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागो भवति ॥ सू० ३४ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुढवीए णिक्खिवs निक्खिवतं वा साइज्जइ ॥ ३५ ॥
छाया -- यो भिक्षुः अशनं वा पानं वा खाद्यं स्वाद्यं वा पृथिव्यां निक्षिपति निक्षिपन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३५ ॥
चूर्णी -- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कचिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाद्यं वा 'साइमं वा' स्वाद्यं वा 'पुटवीए' पृथिव्याम् 'णिक्खिव' निक्षिपति- आहारावशिष्टमशनादिकं पृथिव्यां स्थापयतीत्यर्थः तथा 'णिक्खितं वा साइज्जर' निक्षिपन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति पिपीलिकादिप्राण्युपमर्दनसंभवात् ॥ ३१ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा संथारए णिक्खिवs णिक्खिवंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३६ ॥
छाया - यो भिक्षुरशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्य वा संस्तारके निक्षिपति निक्षिपन्तं वा स्वदते ॥ सु० ३६ ॥
14
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'असणं वा' अशनं' वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खायं वा 'साइमं वा' स्वायं वा 'संथारए' संस्तारके - आसने यत्र स्वपिति उपविशति वा तत्रैव आसने तमशनादिचतुर्विधमाहारजातं दर्भादितृणसंस्तारके वस्त्रसंस्तारके काष्ठपट्टकादी वा 'णिक्खिवइ' निक्षिपति -संस्थापयति तथा 'णिक्खिवतं वा साइज्जई' निक्षिपन्तं - स्थापयन्तं वा - श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ३६ ॥
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पूर्णिमा यावद्भिः उ० १६ सू० ३७-३९ अन्यतीर्थिकादिसहभोजननिषेधः ३७५
सूत्रम्--जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वेहासे णिक्खिवइ णिक्विवंतं वा साइज्जइ ॥सू०३७॥
छाया-यो भिक्षुरशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाघ वा विहायसि निक्षिपति निक्षिपन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३० ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'साइमं वा' खाद्य वा 'साइमं वा स्वायं चा 'वेहासे' विहायमि-आकाशे नागदन्ते सिक्कादौ पृथिव्यसंबद्धप्रदेशादौ 'णिक्खिवई' निक्षिपति-व्यवस्थापयति नागदन्तादौ आलम्ब्यान्यवेलायां भोजनार्थमाहारजातं व्यवस्थापयतीत्यर्थः, तथा 'णिक्खिवंतं वा साइज्जई' निक्षिपन्तं चा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनादयो दोषा भवन्ति, तत्र संयमविराधनेत्थम्-यदि पृथिव्यादौ साधुरशनादीनि निक्षेप्स्यति तदा तत्र घृतगुडादीनां गन्धमाघ्राय पिपीलिकादिलघुजन्तवः समागमिष्यन्ति, तेषां विराधनारूपा संयमविराधना भवति, तल्लवुजन्तुभक्षणार्थ तत्र गृहगोधिका मूषको वा समागमिष्यति । तद्भक्षणार्थ मार्जारो धाविष्यति, तं धावन्तं दृष्ट्वा कुक्कुरः समागमिष्यति, इत्येवं प्रकारेणापरापरजन्तूनां समागमनात् प्राणातिपातः स्यात्, एवं नागदन्तादौ स्थापने पात्रादिक पृथिव्यां पतिष्यति पतनाच्च भाजनभेदः षट्कायविराधनं च स्यात्, एवं प्रकारेणापि संयमविराधना प्रसज्येत । भात्मविराधनेत्थम् भूम्यादौ निक्षिप्तमशनादिकं गृहगोधिकया सर्पण वा आघातं भक्षितं वा स्यात् तस्याघ्राणनेनाऽशनादौ तन्मुखलालासंस्पृष्टं विषमपि संचरिष्यति, वृश्चिकादयो वा तत्र पतिष्यन्ति ततश्च तादृशविषसंस्पृष्टाऽशनादिभक्षणे कृते साधूनां मरणमपि स्यात् । यदि कदाचित् तादृशमशनादिकं पृथिव्यां परिष्ठापयिष्यति तदा तत्राहारलीभात् समागतकुक्कुरैः साधुर्दष्टोऽपि भवेत् तेन तत्रापि आत्मविराधना स्यात्, एवंप्रकारेणाऽऽऽमविराधना प्रसज्येत तस्मात् कारणात् श्रमणः श्रमणी वा पृथिवीसंस्तारकनागदन्तादौ अशनादिकमाहारजातं
न स्थापयेत् न वा परद्वारा तस्य स्थापनं कारयेत्, न वा पृथिव्यादिस्थाने संस्थापयन्तं श्रमणान्तरमनुमोदयेदिति ॥ स्० ३७ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अण्णउत्थिएहिं वा गारथिएहि वा सद्धिं भुजा भुंजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३८॥
छाया-भिक्षुरन्ययूथिकैर्वा गृहस्थैर्वा सार्द्धम् भुङ्क्ते भुन्जानं वा स्वदते ॥ सू० ३५॥
चूर्णी---'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिवखू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थिएहिं वा' अन्ययूथिकैर्वा, तत्रान्ययूथिका दर्शनान्तरीयाः पार्श्वस्थादयस्तापसादयश्च, तैरन्ययूथिकैः
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३७६
निशीथसूत्र 'गारस्थिएहिं वा सर्टि' गृहस्थैर्वा सार्द्धम् एकस्मिन् भाजने एकपड्क्तौ वा समुपविश्याशनादिचतुर्विधमाहारजातम् 'भुंजई' मुक्ते-हरति आहारयति वा तथा 'भुंजतं वा साइज्जई' भुञ्जानं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥३८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थिएहिं वा गारथिएहिं वा सद्धिं आवेढिय परिवेढिय भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३९॥ ___छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकैर्वा गृहस्थैर्वा सार्द्धमावेष्टय परिवेष्टय भुङ्के भुञ्जान वा स्वदते ॥सू० ३९ ।।
चूर्णी-जे भिक्खू इत्यादि । जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउथिएहि वा अन्यतीर्थिकैर्वा तापसादिभिः 'गारथिएहि वा सद्धि' गृहस्थैर्वा सार्द्धम् 'आवेदिय'
आवेष्ट्य तत्र आवेष्टनमेकद्वित्रिदिशासु परतीथिकादिभिरावेष्टितो भूत्वा तथा-'परिवेढिय' परिवेष्टय, तत्र परिवेष्टनं सर्वदिसंबंधि दिशासु विदिसासु वा स्थितैः परतीर्थिकादिभिः परिवेष्टितो मूल्वा अशनपानादिकम् 'भुंजई भुक्ते भोजनं करोति कारयति वा तथा 'भुंजत वा साइज्जइ' भुञ्जानं वा अन्यतीथिंकैरावेष्टितः परिवेष्टितो भूत्वा अशनादिकं भुञ्जानं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति अन्यतीर्थिकादीनां समक्षमाहारकरणस्य निषिद्धत्वात् ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्- अण्णतिथिगिहत्थेहि, सद्धिं संपरिवेढिओ ।
__ आहारं भुंजई जो उ, आणाभंगाइ पावइ । छाया-अन्यतीर्थिगृहस्थैः, साई परिवेष्टितः ।
आहारं भुक्ते यस्तु, आशाभकादि प्राप्नोति ॥ अवचूरि:-यो हि श्रमणः श्रमणी वा अन्यतीथिकैः तापसादिभिः गृहस्थैः पूर्वपरिचितैरपरिचितै. र्वा, पूर्वसस्तुतैः पश्चात्संस्तुतैर्वा, तत्र पूर्वसंस्तुता मातापितृभगिनीभ्रात्रादयः, गृहस्थावस्थापरिचिता अन्ये वा, पश्चातसंस्तुताः श्वशुरश्वत्रश्यालकादयः साध्वस्थापरिचिता वा, तैः सार्द्धम् संपरिवेष्टितः आवेष्टितः परिवेष्टितो वा. भूत्वा यः कश्चित् श्रमणो मोहादिवशात् अशनादिकं भुक्ते तथा भुञ्जानं श्रणान्तरमनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नोति तस्मात् पभिः सह न भोक्तव्यम्, न वा भुञ्जानमनुमोदयेत् प्रवचनहीलनासंभवादिति ॥ सू० ३९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आयरिय उवज्झायाणं सेज्जासंथारगं पारणं संघट्टित्ता हत्थेणं अणणुण्णइत्ता पधारेमाणे गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ। सू०४०॥
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पूर्णिभाष्यावरिः उ०१६ सू० ४०-४१
आचार्याधविनयप्रमाणाधिकोपधिनिषेधः ३७७
छाया-यो भिक्षुराचार्योपाध्यायानां शय्यासस्तारकं पादेन संघट्य हस्तेन अननुशाप्य प्रधारयन् गच्छति गच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४०॥
चूर्णी 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'आयरियउवज्झायाणं' आचार्योपाध्यायानाम्, तत्र आचार्यों-गच्छनायकः, उपाध्यायः, सूत्रार्थयोरध्यापकः, तेषामाचार्योपाध्यायानगम् उपलक्षणात् पर्यायज्येष्ठानां च साधूनाम् 'सेज्जासंथारग' शय्यासंस्तारकम्,तत्र शय्या-शरीरप्रमाणा संस्तारकम्-सार्द्धद्वयहस्तप्रमाणकम् उपलक्षणात् आहारोपधिदेहपीठफलकादिकं च पाएणं संघहेत्ता' पादेन-चरणेन संघटय शय्यासंस्तारकादीन् प्रमादवशात् पादेन संस्पृश्य, यदा गमनागमनसमयेऽनाभोगवशात् आचार्योपाध्यायादीनां शय्यासंस्तारकादीनि चरणेन सस्पृष्टानि भवन्ति तदा 'हत्येणं अणणुण्णइत्ता' हस्तेन अननुज्ञाप्य-हस्तेन तत् स्पृष्ट्वा स्वदोषप्रकटनरूपामाज्ञामगृहीत्वा उपलक्षणात शल्यसंस्तारकमप्रमाय वन्दनामकृत्वा मिथ्यादुष्कृतं चादत्वा 'पधारेमाणे गच्छइ' प्रधारयन् प्रस्थानं कुर्वन् गच्छति-चलन्नेव चलति, अयं भावः-यदि आचार्यादीनामासनादिपु अनुपयोगात् पादस्पर्शो भवेत्तदा तद् हस्तेन स्पृष्टा मस्तकं स्पृशन् वदेच्च'हे गुरो ! मयाऽपराधः कृत इति क्षमस्व, न पुनरेवमनुपयोगेन चलिष्यामि' इत्यादिरूपेण क्षमायाचनं कर्तव्यमेवेति । तथा-'गच्छंतं वा साइज्जई' आचार्यादीनामासनं चरणेन संस्पृश्य क्षमायाचनमकृत्वा मिध्यादुष्कृतमदत्त्वा च गच्छन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्- 'सेज्जासथारदेहाई, संघट्टे गुरुणो पया।
खमावणमकाऊण, गच्छंतो दोसभा भवे ॥ छाया- शय्यासंस्तारदेहादि संघट्टेत गुरोः पदात् ।
क्षमापनमकृत्वा गच्छन् दोषभाग् भवेत् ॥ अवचूरिः- गुरोः-आचार्योपाध्ययपर्यायज्जेष्ठरूपस्य शय्यासंस्तारकदेहादि, तत्र शय्या-शरीरप्रमाणा, संस्तारकं सार्द्धद्वयहस्तपमाणम्, देहं करचरणादिकम् आदित-आहारोपध्यादींश्च प्रमादवशेन पदात् यदि संघटेत चरणेन स्पृशेत् यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा तदा-गिथ्यादुष्कृतमदत्त्वा क्षमापनमकृन्वैव गच्छेत् तथा एवं गच्छन्तं श्रमणान्तरं योऽनुमोदते स दोषभाग् भवेत् प्रायश्चित्तभागी भवेदित्यर्थः । अथ आचार्योपाध्यायादिसम्बन्धिनां शय्यासंस्ता कादीनां कथं संघट्टन भवति ? तत्रोच्यते-पाश्रये प्रविशतो निष्कामतो मार्गे चलतो वा, उपविशतो गुरोः पादसंबाहनादिकं कुर्वाणस्य वा पादेन संघट्टनं संभवति, एवं शयनसमये पादप्रसारणादिकरणे च संघट्टनस्य संभवो भवति तत्र यदि आचार्योपाध्यायादिसम्बन्धिशय्यासंस्तारकदेहादीनां पादेन शरारेण च संघट्टन
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३७८
निशीथसूत्रे कदाचित् भ्रमात् प्रमादाद्वा जायेत तदा अवश्यमेव क्षमापनादिकं कुर्यात, अकरणे च साधुः प्रायश्चित्तभाग् भवेदिति ॥ सू० ४० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पमाणाइरित्तं वा गणणाइरित्तं वा उवहिं धरेइ धरंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४१ ॥
छाया-यो भिक्षुः प्रमाणातिरिक्तं वा गणनातिरिक्तं वा उपधि धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४१ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पमाणाइरित्तं वा प्रमाणातिरिक्तं वा यस्य यादृशं प्रमाणम् एकद्वयादिस्तत् प्रमाणं यद्भगपताऽऽज्ञप्तं ततोऽतिरिक्तम् , तथा 'गणणाइरित्तं वा' गणनातिरिक्तं वा गणनया-संख्ययाऽघिकम् । तत्र प्रमाणातिरिक्तं वस्त्रम्-यस्य वस्त्रस्य यावकं प्रमाणं हस्तादिमापनरूपं शास्ने प्रतिपादितं तस्मादधिक प्रमाणातिरिक्त वस्त्र कथ्यते तथाहि--"कप्पइ निग्गंथाणं तओ संघाडीओ धरित्तए वा परितरित्तए वा । कप्पइ निग्गंधीणं चत्तारि संघाडीओ धरित्तए वा परिहरितए वा। कप्पइ निग्गंथाणं बावत्तरिहत्थपरिमियं वत्थं धरित्तए वा परिहरित्तए वा। कप्पइ निग्गंथीणं छण्णउहत्थपरिमियं वत्थं धरित्तए वा परिहरित्तए वा"- कल्पते निम्रन्थानां तिस्रः संघाटीः धतु वा परिहत्तं वा । कल्पते निम्रन्थीनां चतस्रः संघाटीः धतुं वा परिहतु वा ? कल्पते निर्ग्रन्थानां द्वासप्ततिहस्तपरिमितं.वस्त्रं धतुं वा परिहर्तुं वा । कल्पते निर्ग्रन्थीनां षण्णवतिहस्तपरिमितं वस्त्रं धत्तुं वा परिहत्तु वा, इति च्छाया । एवं गणनातिरिक्तम् , गणना वस्त्रविषया पात्रविषयेति द्विविधा भवति, तत्र वस्त्र विषया गणना पूर्वमुक्तव, पाविषया गणना प्रोच्यते, सा च गणना एकद्वयादिसंख्या पात्राणामेकद्वयादिरूपेण वा संख्या शास्त्रे प्रतिपादिता तदतिरिक्त गणनातिरिक्तं कथ्यने, तथाहि-"कप्पड निगंयाण तिन्नि पायई चउत्थं उंदगं धारित्तए । कप्पइ निग्गयोणं चत्तारि पायाई पचमं उंदगं धारित्तए ॥” इति शास्त्रोक्तगणनातोऽधिकम् ‘उवर्हि' उपधिम्-वस्त्रपात्रादिकं यो भिक्षुः 'घरेइ' स्वयं धर्रात परद्वारा वा धारयति तथा -'धरतंवा साइज्जई' धरन्तं प्रमाणगणनातिरिक्तमुपधि धारयन्तं वा श्रमणान्तरं यः स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चि त्तभागी भवति ।। सू० ४१ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू अणंतरहियाए पुढवीए जीवपइट्ठिए सअंडे सपाणे सवीए सहरिए सओसे सउदए सउत्तिंगपणगदगमट्टियमक्कडासंताणगंसि दुब्बद्धे दुण्णिक्खित्ते अणिक्कंपे चलाचले उच्चारपासवणं परिहुवेइ परिहवेतं वा साइज्जइ ।। सू० ४२॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १६ सू० ४२-५३ सचित्तपृथिव्यादिपूच्चारादिपरिष्ठापननिषेधः३७९
_ छाया -यो भिक्षुरनन्तरहितायां पृथिव्यां जीवप्रतिष्ठिते साण्डे सप्राणे सवीजे सहरिते सओसे सोदके सोत्तिकपनकदकमृत्तिकामर्कटसंतानके दुर्वद्धे दुनिक्षिप्ते अनि कम्पे चलाचले उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४२ ॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जेभिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अणंतरहियाए पुढवीए' अनन्तरहितायां पृथिव्याम् , तत्र-अन्तरहिता-अन्तरं-व्यवधानं तेन हिता स्थिता अन्तरहिता-व्यवधानयुक्ता न अन्तरहिता अनन्तरहिता मचित्तताव्यवधानवर्जिता, चतुरड्गुलपर्यन्तसचित्ततासम्बन्धयुक्ता सचित्तेत्यर्थः तस्यामनन्तरहितायां सचित्तायां पृथिव्याम् 'जीवपइटिए' इत्यादिविशेषणानि स्थानसामान्यस्य बोध्यानि ततश्च जीवप्रतिष्ठिते-द्वीन्द्रियादिजीवविशिष्टे-दारुकादौ 'सअंडे' साण्डे, तत्र अण्डेन सहितं साण्डं स्थानं तस्मिन्-अण्डविशिष्टस्थाने 'सहरिए' सहरिते-हरितविशिष्टे स्थाने 'सओसे' सओसे, तत्र ओस इति निशाजलं तेन सहिते स्थाने 'सउदए' सोदके-सचित्तोदकसहिते स्थाने 'सउत्र्तिगपणगदगमट्टियमक्कडासंताणगंसि' सोत्तिङ्ग-पनक-दकमृतिका-मर्कटसन्तानके, तत्र उत्तिङ्गो जीवविशेषो गर्दभाकृतिभूमौवर्तुलछिद्रकारकः, तद्विशिष्टे भूभागे, पनकः-'लीलनफुलन-काई' इति लोकप्रसिद्धस्तत्सहिते भागे, दकमृत्तिका-उदकमिश्रितमृत्तिका, तद्विशिष्टे भूभागे-सामृत्तिकायुक्त स्थाने, तथा-मर्कटसन्तानके लूता(मकडी)जालप्रतिष्ठितस्थाने, पुनः कथंभूते 'दुबद्धे'दुर्बद्धे-सम्यग्बन्धनरहिते 'दुण्णिक्खित्ते' दुनिक्षिप्ते-असम्यग्रूपेण स्थापिते दारुकादौ 'अनिक्कंपे' अनिष्कंपे-कम्पनसहिते 'चलाचले' चलाचले-अस्थिरे स्थाने यः श्रमणः श्रमणी वा 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिहवेई' परिष्ठापयति-व्युत्सृजति तथा 'परिहवेतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । ।। सू०४२ ॥ 'जे भिक्खू ससणिद्धाए पुढवीए' इति सूत्रादारभ्य -'जे भिक्खू खंधसि वा' इति सूत्रपर्यन्तानि दश सूत्राणि, तच्छाया, तद्व्याख्या तद्भाष्यं चेति सर्व त्रयोदशोदेशके विलोकनीयम् । विशेषस्तु एतावानेव यत्-तत्र 'ठाणं वा संज्जं वा' इत्युक्तम् , अत्र तु 'उच्चारपासवर्ण परिहवेइ इति वाच्यम् ॥ सू० ४२-१०-५२ ॥
सूत्रम्--तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्घाइयं ।। सू० ५३॥
॥निसीहज्झयणे सोलसमो उद्देसो समाप्तः ॥१६॥ छाया-तत्सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकम् ॥ सू०५३ ॥
॥ निशीथाध्ययने षोडशोद्देशकः समाप्तः ॥ १६ ॥
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३८०
निशोथसूत्रे
चूर्णी-'त सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत्-सागारिकशय्यात आरभ्य उद्देशकपरिसमातिपर्यन्तं प्रायश्चित्तस्थान सेवमानः तस्य प्रतिसेवनां कुर्वन्-श्रमणः श्रमणी वा 'आवज्जई' आपद्यते-प्राप्नोति 'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम्-- प्रायश्चित्तम् 'उग्घाइयं' उद्घातिकम्-सागारिकशय्यादिप्रवेशादारभ्य उद्देशकपरिसमाप्तिगतोच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापनसूत्रपर्यन्तं यानि यानि प्रायश्चित्तस्थानानि दर्शितानि तेषु मध्यात् एकमनेकं सर्व वा पापस्थानं प्रतिसेवमानस्य लघु चातुर्मासिवं प्रायश्चित्तं भवति, तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ॥ सू० ५३ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य" चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् षोडशोदेशकः समाप्तः ॥१६॥
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॥ सप्तदशोद्देशकः॥ व्याख्यातः षोडशोदेशकः, सम्प्रति सप्तदशोदेशको व्याख्यायते, तत्रास्य सप्तदशोद्देशका. दिस्त्रस्य पोहशोद्देशकान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्ध ! इति चेदत्राह भाष्यकार:
उसंते समक्खायं, संजमत्तविराहणं । तं चेव सत्तदसगे, क य विराहणं ॥ छाया-उद्देशान्ते समाण्यातं, संयमात्मविराधनम् ।
तदेव सप्तदशको कथ्यते च विराधनम् ॥ अवचूरिः--उद्देशान्ते पोडशोद्देशकस्यान्ते स्कन्धादौ उच्चारप्रनवणं परिष्ठापनं कुर्वतः स्कन्धादित. पततश्च संयमविराधनमात्मविराधनं च भवति, इति कथितम् , तदेव संयमविराधनमात्मविगधनं च कौतूहलप्रतिज्ञया त्रसप्राणादेवन्धनेऽपि भवतीति सप्तदशोदेशके कथ्यते, तदेवमुभयत्रापि विराधनमेव प्रतिपादितं भवतीति अयमेव सम्बन्धः पूर्वापरसूत्रयोर्भवति, तदनेन संबन्धेन भायातस्यास्य सप्तदशोद्देशकस्येदं प्रथमं सूत्रम् ---
सूत्रम्--जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए अण्णयरं तसपाणजायं तणपासएण वा मुंजपासएणवा, कट्टपासएण वा, चम्मपासएण वा, वेत्तपासएण वा रज्जुपासएण वा सुत्तपासएण वा बंधइ बंधतं वा साइज्जइ ॥
छाया -यो भिक्षुः कौतूहलप्रतिक्षया अन्यतमं प्रसप्राणजातं तृणपाशकेन वा मुजपाशकेन घा, काष्ठपाशकेन वा, चर्मपाशकेन वा, वेत्रपाशकेन वा, रज्जुपाशकेन वा सूत्रपाशकेन वा, वध्नाति वनन्तं वा स्वदते ॥ सू० १ ॥
__ चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोडहल्लबडियाए' कौतूहलप्रतिज़या-कौतूहलवृत्तितया वा, तत्र कौतूहलं हास्यविनोदादिलक्षणम् , तस्य कौतूहलस्य प्रतिज्ञया अभिलापया वृत्तितया वा 'अण्णयरं तसपाणजायं' अन्यतमं किञ्चिदेकं त्रसप्राणजातम् , तत्र त्रसन्ति एकस्मात्स्थानात् स्थानान्तरं प्रति गच्छन्तीति त्रसाः-गवादय
चतुष्पदाः, पक्षिणश्च, एतदन्येऽपि स्थलचरखेचरादयो गृहीता भवन्ति, एतेषु अन्यतमं त्रसप्रणजातम् 'तणपासएण वा' तृणपाशकेन वा, तत्र तृणो-दर्भादिकस्तस्य पाशकेन दर्भादितृणविनिर्मितदवरिकया पाशशब्दस्य दवरिकावाचकत्वात् 'मुंजपासपण वा' मुजपाशकेन वा, तत्र मुञ्जो नाम तृणविशेषः, तन्निर्मितः पाशो दवरिका तेन मुजपाशकेन 'कट्ठपासएण वा' काष्ठपाशकेन वा 'चम्मपासएण वा' चर्मपाशकेन-पश्वादिचर्मनिर्मितेन पाशकेन 'वेत्तपासएण वा' वेत्रपाशकेन
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निशीथसूत्रे
૩૮૨
वा, तत्र वेत्रं नाम लताविशेषः 'वेंत' इति लोकप्रसिद्धः तेन वेत्रेण निर्मितः पाशको दवरिका तेन त्रपाशकेन 'रज्जुपासएण वा रज्जुपाशकेन वा तत्र राणादिना निर्मिता या रच्जुः तस्याः पात्रको दवरिका तेन रज्जुपाशकेन 'सुत्तपासएण वा' सूत्रपाशकेन वा तत्र सूत्र - कार्पासिकादिकं तेन निर्मितः पाशको दवरिका तेन सूत्रपाशकेन, एतेपां तृणादिपाशकानामन्यतमेन पाशकेन कौतूहलप्रतिज्ञया अन्यतमं त्रसप्राणजातं यः श्रमणः श्रमणी वा 'वध' बध्नाति त्रसप्राणजातस्य वन्धनं करोति कारयति वा तथा 'बंधतं वा साइज्जइ' बध्नन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए अण्णयरं तसपाणजायं तण - पासएण वा, मुंजपासएण वा, कट्ठपासएण वा, चम्मपासएण वा, वेत्तपासएण वा, रज्जुपासएण वा सुत्तपासएण वा, बंधेल्लगं मुयइ मुयंत वा साइज्जइ ॥ सू० २ ॥
छाया -यो भिक्षुः कौतूहलप्रतिज्ञया अन्यतमं त्रसप्राणजातं तृणपाशकेन वा मुखपाकेन वा काष्ठपाशकेन वा चर्मपाशकेन वा वेत्रपाशकेन वा रज्जुपाशकेन वा सूत्रपाशकेन वा वद्ध मुञ्चति, मुञ्चन्तं वा स्वदते ॥ सू० २ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कद्विक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोउइल्लवडियाएं' कौतूहलप्रतिज्ञया - हास्यविनोदाद्यभिलाषेण 'अण्णयरं तसपाणजायं' अन्यतमं त्रसप्राणजातम् तृणादिपाशकेन 'बंधेगं' बद्धं 'मुंबई' मुञ्चति - बन्धनविमुक्तं करोति, तथा 'मुतं वा साइज्जई' मुञ्चन्तं चा स्वदते-बन्धनबद्ध प्राणिजातं बन्धनात् विमोचयन्तं श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति । अत्र कुतूहलादिना त्रसप्राणिनां बन्धने मोचने च तेषामबोधत्वेन जलाग्निगर्तपातादिना मरणसंभवात्तन्निषेधः कृतः किन्तु अग्निना ज्वलतां जलेन प्लावयमानानां हिंस्रैर्हन्यमानानां सर्पादिभिर्दश्यमानानां तु दयावुद्ध्या बन्धनं मोचनं च कर्तव्यमेव, न तन्निषेधः । सूत्रे तु कौतूहलप्रतिज्ञया बन्धनविमोचनस्यैव निषेधो न तु दयाबुद्धयेति तत्त्वम् ||
अत्राह भाष्यकार:
तणाईपासजाएणं, तसाणं बंधमोयणं । कोऊहल्लेण नो कुज्जा, दयहं ण णिसिज्झई ॥ छाया - तृणादिपाशजावेन त्रसाणां वन्धमोचनम् । कौतूहलेन नो कुर्यात्, दयार्थे न निषिध्यते ॥
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पूर्णिभाष्यावरिः उ० १७ सू० १-४ तृणादिमालिकाकरणधरणपरिभोगनिषेधः ३८३ ____ अवचूरिः-तृणादिपाशजातेन- तृणमुजादिना निर्मितेन पाशजातेन केनापि प्रकारेण पाशेन दवरिकया त्रसाणां बन्धमोचनं वन्धनं मोचनं च कौतूहलेन कुतूहलबुद्ध्या विनोदहास्याद्यर्थ नो कुर्यात् , किन्तु दयाथ दयानिमित्तं बन्धनं मोचनं च न निषिध्यते जलाग्न्यादितो रक्षणार्थ बन्धनस्य मोचनस्य च निषेधो भगवता न कृतः, अतएव 'कोऊहलबडियाए' इति सूत्रे कथितम् ।सू०२।
सूत्रम्-जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा भिंडमालियं वा मयणमालियं वा पिच्छमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालियं वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं ना पत्तमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा बीयमालियं वा हरियमालियं वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३॥
छाया-यो भिक्षुः कौतूहलप्रतिक्षया तृणमालिका वा मुञ्जमालिकां वा भिण्डमालिकां वा मदनमालिकां वा पिच्छमालिकां वा दन्तमालिका वा शृङ्गमालिकां वा शामालिकां वा अस्थिमालिकां वा काष्ठमालिका वा पत्रमालिका वा पुष्पमालिकां वा फलमालिकां वा वीजमालिकां वा हरितमालिकां वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३॥
चूणी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणीवा 'कोउहल्लबडियाए' कौतूहलप्रतिज्ञया-आत्मनो विनोदाभिप्रायेण 'तणमालियं वा' तृणमालिकां वा, तत्र तृणानां-दर्भादितृणविशेषाणां मालिकां मालां करोति-तृणादिना मालां निर्माति 'मुंजमालियं वा' मुञ्जमालिकां वा-तृणविशेषरूपमुखस्य मालिका निर्माति 'भिंडमालियं वा' भिण्डमालिका वा, भिण्डः-वनस्पतिविशेषः तस्य मालाम् 'मयणमालियं वा' मदनमालिकां वा-मदनस्य 'मोम' इति लोकप्रसिद्धस्य मालाम् 'पिच्छमालियं वा' पिच्छमालिकां चा-मयूरादिपिच्छानां मालाम् 'दंतमालिय वा' दन्तमालिकां वा-गजादिदन्तानां मालाम् "सिंगमालियं वा' शृङ्गमालिकां वा-हरिणमहिषादिशृङ्गाणा मालाम् 'संखमालियं वा' शङ्खमालिकां वा-शद्धानां मालाम् 'हड्डमालियं वा' अस्थिमालिकां वा-महिण्याद्यस्यां मालाम्, 'कट्ठमालियं वा' काष्ठमालिका वा-तुलस्यादिकाष्ठानां मालाम् 'पत्तमालियं वा' पत्रमालिकां वा-तुलस्यादिपत्रनिर्मिता मालाम् 'पुप्फमालियं वा' पुष्पमालिकां वा-चम्पादिपुष्पाणां मालाम् ‘फलमालियं वा' फलमालिकां वा-अनेकप्रकारकफलानां मालाम् 'वीयमालियं वा' बीजमालिकां वा-रुद्राक्षादिबीजानां मालाम् 'हरियमालियं वा' हरितमालिकां वा-हरितकायवनस्पतीनां सम्बन्धिनी मालाम्, 'करेई' करोति-संपादयति, तथा 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं-तृणादिविविधवस्तूनां माला कुर्वन्तं संपादयन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गरदिका दोषा अपि भवन्ति ॥ सू. ३॥ ।
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निशीथसूत्रे सूत्रम्-जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा भिंडमालियंवा मयणमालियं वा पिच्छमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालिय वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा बीयमालिय वा हरियमालियं वा घरेइ धरतं वा साइज्जइ ।। सू०४॥
छाया--यो भिक्षुः कौतूहलपतिशया तृणमालिकां वा मुखमालिकां वा भिण्डमा लिकां वा मदनमालिकां वा पिच्छमालिकां वा दन्तमालिकां वा शृङ्गमालिका वा शडामालिकां वा अस्थिमालिकां वा पत्रमालिकां वा पुष्पमालिकां वा फलमालिकां वा वीजमालिकां वा हरितमालिकां वा धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू०४॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोउइल्लपडियाए' कौतूहलप्रतिज्ञया तृणादिसम्पादितां मालां धरति-हस्तादौ स्थापयति धरन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ४ ॥
एवं परिभुजई' इत्यपि सूत्रम्-'परिमुंजई' परिभुङ्क्ते-तृणादिमालायाः सुगन्धस्पर्शादिना उपभोगं करोति कण्ठे धारयति वा । तृणादिमालाविषयककरण-धरण-परिभोगप्रदर्शकानां त्रयाणां सूत्राणां व्याख्या सप्तमोद्देशके द्रष्टव्या । विशेषस्तु एतावानेव यत्तत्र 'मैथुनप्रतिज्ञया' इति पदेन कथितम् , अत्र तु 'कौतुहलप्रतिज्ञया' इति पदेन वाच्यम्, एवमग्रेऽपि ॥
अत्राह भाष्यकार:कोऊहल्लेण अन्नेण, केणावि कारणेण जो । तणाइमालियं कुज्जा, घरेज्जा परिभुंजए ॥१॥ आणाभंगाइदोसाई, पावई सो अणेगहा । तम्हा भिक्खू विवज्जेज्जा, मालियाकरणाइयं ॥२॥ छाया-कौतृहलेन अन्येन केनापि कारणेन यः।
तृणादिमालिकां कुर्यात् धरेत् परिभुञ्जीत ॥१॥ आशामादिदोषान् , प्राप्नोति स. अनेकधा ।
तस्माद् भिक्षुर्विवर्जयेत् , मालिकाकरणादिकम् ॥ २॥ अवरिः—यः कोऽपि निम्रन्थः निम्रन्थी वा कुतूहलेन हास्यविनोदादिना तथा अन्येन वा केनाऽपि कारणेन रागद्वेषमोहादिना तृणादिमालिकां कुर्यात् धरेत् परिभुञ्जीत वा स आज्ञाभङ्गादिदोपान् अनेकप्रकारकान् प्राप्नोति तस्मात् कारणात् भिक्षुः मालिकाकरणादिकं, मालि
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चूर्णिभाष्यावधूरिः उ० १७ सू०५-१४ कुतूहलवाञ्छ्याऽयोलोहादिहारादिकरणादिनि० ३८५ कायाः करण धरणं परिभोगं च विवर्जयेत् दूरतः परिवर्जयेत् साध्वाचारविरुद्धत्वेन भगवदननुमतत्वादिति ॥ १-२ ॥ सू० ५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए अयलोहाणि वा तंबलोहाणि वा तउयलोहाणि वा सीसलोहाणि वा रुप्पलोहाणि वा सुवण्णलोहाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६॥ एवं धरेइ ॥ सू० ७॥ परिभुंजइ ।। सू० ८॥
छाया- यो भिक्षुः कौतूहलप्रतिक्षया अयोलोहान् वा अपुलोहान् वा सीसकलोहान् वा रूप्यलोहान् वा सुवर्णलोहान् वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू०६॥ एवं धरति ॥ सू० ७ ॥ परिभुङ्क्ते ॥ सु०८॥
चर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोउहल्लवडियाए' कौतूहलप्रतिज्ञया-आत्मनोविनोदाभिप्रायेण उपलक्षणाद् अन्येनापि केनचित्कारणेन 'अयलोहाणि वा' अयोलोहान् वा, तत्रायसो लोहस्य लोहान् सूत्रशालाकादिरूपेणाऽऽकृतिविशेपान् 'तंवलोहाणि वा' ताबलोहान् वा-ताम्रस्याऽऽकृतिविशेषान् वा 'तउयलोहाणि वा' त्रपुलोहान् वा, तत्र पोः-धातुविशेषस्य 'जस्ता' इति लोकप्रसिद्धस्य लोहान्-आकृतिविशेषात् 'सीसलोहाणि वा' सीसकलोहान् वा, तत्र सीसकं 'सीसा' इति लोकप्रसिद्धम् तस्याऽऽकृतिविशेषान् रुप्पलोहाणि वा रूप्यलोहान् वा, तत्र सूप्यं रजतम् तस्याऽऽकृतिविशेषान् 'सुवण्णओहाणि वा' सुवर्णलोहान् वा सुवर्णस्य कटककुण्डलाद्याकृतिविशेषान् 'करेइ' करोति-अयःप्रभृतीनामाकृतिविशेषान् मनोरञ्जनाथै यो भिक्षुः स्वयं करोति-सम्पादयति, तथा 'करेंत वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ६ ॥ एवं 'धरेइ परिभुजई' इति सूत्रद्वयमपि स्वयमूहनीयम् करण-धरण-परिभोगविषयकसूत्रत्रयस्य विशेषव्याख्या सप्तमोदेशके द्रष्टव्या ।। सू० ७-८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए हाराणि वा अद्धहाराणि वा एगावलिं वा मुत्तावलिं वा कणगावलिं वा रयणावलिं वा कडगाणि वा तुडियाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा पट्टाणि वा मउडाणि वा पलं. बसुत्ताणि वा सुवण्णसुत्ताणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ।। सू० ९॥ एवं घरेइ० ॥ सू० १०॥ परिभुजइ ॥ सू० ११॥
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३८६
निशीथर
छाया--यो भिक्षु. कौतूहलप्रतिशया हाराणि चा अर्द्धहाराणि चा एकावली या मुक्तावली चा कनकावली वा रत्नावली चा कटकानि वा घुटितानि वा केयूरापि वा कुण्डलानि वा पट्टानि वा मुकुटानि वा प्रलम्बसूत्राणि वा सुवर्णसूत्राणि वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू. ९॥ एवं धरतिः ॥ सू० १०॥ परिभुङ्क्ते ॥ सू० ११॥
चर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा मोहनीयकर्मोदयात् 'कोउहल्लवडियाए' कौतूहलप्रतिज्ञया-स्वात्मविनोदेच्छया अन्येनापि कारणेन वा 'हाराणि वा हारान् वा अष्टादशसरिकान् 'अद्धहाराणि वा अद्धहारान् वा नवसरिकान् अर्द्धहारान् , 'एगावलिं वा' एकावली वा-एकसरिकाम् 'मुक्तावलिं वा' मुक्तावली वा, तत्र मुक्तानां मौक्तिकानामावली-पंक्तियत्र सा, तां मुक्तावलीम् 'कणगावलि वा' कनकावली वा, तत्र कनकानां सुवर्णमणकानामावली यत्रेति कनकावली ताम् , 'रयणावलि वा' रत्नावली वा, तत्र रत्नानां माणिक्यप्रमृतीनामावली-पंक्तिर्यत्र तां रत्नावलीम् , 'कडगाणि वा कटकानि वा कङ्कणानि-सुवर्णवलयान् वा 'तुरियाणि वा' त्रुटितानि वा बाहाभरणानि 'केजराणि वा' केयूराणि वा 'भुजबन्ध' इति प्रसिद्धानि भुजाभरणानि 'कुण्डलाणि वा' कुण्डलानि वा-कर्णाभरणानि 'पाणि वा' पट्टानि वा कटिपट्टानि कट्याभरणानि 'मउडाणि वा' मुटुटानि वा-शिरोभूषणानि 'पलवसुत्ताणि वा' प्रलम्बसूत्राणि वा कण्ठादौ प्रलम्बमानाभरणानि 'सुवण्णमुत्ताणि वा' सुवर्णसूत्राणि वा-कण्ठे धार्यमाणानि सुवर्णसूत्रग्रथितान्याभरणानि, एतानि हारादीनि यः श्रमणः श्रमणी वा स्वात्मविनोदाभिप्रायेण अन्येन वा केनापि कारणेन 'करेई' करोति-स्वयं सम्पादयति तथा 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा-संपादयन्तं वा स्वदते–अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ९॥ एवम्-हारादीनां विषये 'धरेइ परिभुंजइ इति सूत्रद्वयमपि स्वयमूहनीयम् , करण-धरण-परिभोगविषयाणां सूत्राणां व्याख्या सप्तमोदेशके द्रष्टव्या । सू० १०-११॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए आईणाणि वा आईणपाउरणाणि वा कंवलाणि वा कंबलपाउरणाणि वा कोयराणि वा कोयर पाउरणाणि वा गोरमियाणि वा कालमियाणि वा नीलमियाणि वा सामाणि वा महासामाणि वा उद्याणि पा उट्टलेस्साणि वा वग्घाणि वा विवग्घाणि वा पवंगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणि वाखोमाणि वा दुगुल्लाणि वा तिरीडपट्टाणि वा पतुलाणि वा पणलाणि वा आवरंताणि वा चीणाणि वा अंसुयाणि वा कणगकताणि वा कणगखचियाणि वा कणगविचित्ताणि वा आभरणविचित्ताणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१२॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १७ सू०-१५-२३८ अन्ययूथिकादिकारितगदामार्जनादिनि० ३८७
छोया-यो भिक्षुः कौतूहलप्रतिक्षया आजिनानि वा आजिनप्रावराणानि वा कम्बलानि वा कम्बलप्रावरणानि वा कोतराणि वा कोतरप्रावरणानि वा गौरमृगाणि वी कृष्णमृगाणि वा नीलमृगाणि वा श्यामानि वा महाश्यामानि वा उण्ट्राणि वा उष्ट्रलेश्यानि वा व्याघ्राणि वा विव्याघ्राणि वा प्लवङ्गानि वा प्रलक्ष्णानि लक्ष्णकल्पानि वा क्षौमाणि वा दुकूलांनि वां तिरीटपट्टाणि वा प्रतुलानि वा पणलानि वा अवरत्राणि वा चीनानि वा अंशुकानि वा कनककान्तानि वा कनकखचितानि वा कनकचित्राणि वा कनकविचिपाणि वा आभरणविचित्रांणि वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ।। सू० १२॥ _ 'चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए आईणाणि वा' यो भिक्षुः कौतूहलप्रतिज्ञया आजिनानि वा, तत्र अजिन-मृगचर्म तेन निर्मितानि आदिनानि-मृगचर्मवस्त्राणि । इत्यारभ्य 'आभरणविचित्ताणि वा' आभरणविचित्राणि-आभूपणमण्डितानि वा, इति पर्यन्तानि वस्त्राणि 'करेइ धरेइ, परिभुजई' करोति १२ , धरति १३, परिभुक्ते १४, इतिसूत्रत्रयं सप्तमोदेशकसूत्रवद् व्याख्येयम् । सू०१२-१३-१४॥
सूत्रम्-जे निग्गंथे णिग्गंथस्स पाए अण्णउत्थिएण वागारत्थिएण वा आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा आमज्जातं वा पमज्जातं वा साइज्जइ ।। सू०१५॥
छाया-यो निर्ग्रन्यः निर्ग्रन्थस्य पादौ अन्ययूथिकेन वा गाईस्थिकेन वा आमार्जयेद् वा प्रमार्जयेद् वा आमाजयन्तं वा प्रमार्जयन्त वा स्वदते ॥ सू०१५॥
चूर्णी--'जे निग्गंथेइत्यादि । 'जे निग्गंथे' यः कश्चित् निग्रन्थः श्रमणः निग्गंथस्स' निर्ग्रन्थस्य स्वात्मभिन्नस्य 'पाएं' पादौ-चरणी 'अण्णउत्थिएणं वा अन्ययूकिन अन्यतीर्थिकेन वा 'गारंथिएण ची' गाहस्थिकेन गृहस्थेनं वा आमज्जावेज वा' आमर्जियेदं वा एकवारम् 'पमज्जावेज्ज वा' प्रमार्जयेद् वा अनेकवारम् 'आमज्जातं वो मार्जेयन्तं वा. 'पमज्जावेंतें वा' प्रमार्जयन्तं वा श्रमणान्तरं 'साइज्जइ' स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १५ ॥
सूत्रम्-एवं तइयउद्देसगमो भाणिय वो जाव जे निग्गंथे निग्गंथस्स गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सीसदुवारिस्य कारावेइ कारावेत वा साइज्जइ ॥ (५५) ॥ सू० १६-७०॥
एवं जे निग्गंथे निग्गंथीए० (५६) ॥ सूं० ७१-१२६॥ एवं जा निग्गंथी निग्गंथी निग्गंथस्स० (५६) ॥ सू० १२७-१८२ ॥ एवं ' जा निग्गंथी निंग्गंथीए (५६) ॥ सू० १८३-२३८॥
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निशीथसूत्रे
छाया - एवम् - तृतीयोदेशकगमो भणितव्यः यावत् यो निर्ग्रन्यः निर्ग्रन्थस्य ग्रामानुग्रामं द्रवतः अन्ययूथिकेत गार्हस्थेिकेन वा शीर्षदीवारिकां कारयति कारयन्तं वा स्वदते (५५) ॥ सु० १६ - ७० ॥
३८८
एवम् यो निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थ्याः ० (५६) ॥ सू० ७१ - १२६ ।। एवम् या निर्ग्रन्थी निर्यन्थस्य० (५६) ।। सू० १२७ -१८२ ।। एवम् - या निर्ग्रन्थी निर्मन्थ्याः ० (५६) ॥सू०१८३-२३८॥
चूर्णी - ' एवं ' इत्यादि । एवम् अनेन क्रमेण 'तइयउद्देसगमो भाणियन्चो' तृतीयो - देशकगमो मणितव्यः कथयितव्यः कियत्पर्यन्तमित्याह - 'जाव' इत्यादि । 'जाव' यावत्तृतीयोद्देशकगत सप्तदशसूत्रादारम्य एकसप्ततितमसूत्रपर्यन्तं पञ्चपञ्चाशत्सूत्र कदम्बकमत्र वाच्यम्, तदन्तिमसूत्रमाह- 'जे निग्गंथे' इत्यादि । 'जे निग्गंथे' यः कश्चित् निर्ग्रन्थः 'निग्गंथस्स' निर्ग्रन्थस्य- स्वात्मभिन्नान्यश्रमणस्य 'गामाणुगामं दुइज्जमाणस्स' प्रमानुप्रामं प्रामाद् ग्रामान्तरं विहरतः 'अन्नउत्थिषण वा अन्ययूथिकेन अन्यदार्शनिकेन 'गारस्थिपण वा' गार्हस्थिकेन गृहस्थेन वा 'सीसदुवारियं' शीर्पदौवारिकां शिरसि छत्राकाराच्छादनरूपां 'कारावेइ' कारयति ‘कारावेंतं वा साइज्जइ' कारयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ( ५५ ) ॥ सू० १६-७० ॥
एवम् -'जे निग्गंथे-निगंथीए०' अत्रापि पादामार्जनादारभ्य श्रीर्पदौवारिकापर्यन्तानि पट्पञ्चाशत्सूत्राणि वाच्यानि ( ५६ ) ॥ सू० ७१–१२६ ॥
एवम्- 'जा निग्गंधी निग्गंथस्त०' अत्रापि पट्पञ्चाशत्सूत्राणि वाघ्यानि (५६) ॥ सू० १२७–१८२) एवम् 'जा निग्गंथी निग्गंथीए०' अत्रापि षट्पञ्चाशत् सूत्राणि बोध्यानि (५६) । सू०१८३-२३८॥
एतानि सर्वाणि सूत्राणि तृतीयोदेशक सूत्रकदम्बकवद, व्याख्येयानि, भेदस्ताप देतावानेव - यत् तत्र पादामार्जनादः स्वयं करणं कथितम्, अत्र तु परेण कारणमिति । पट्पञ्चाशत्सूत्राणि यथापरसूत्राणि पादविषयकाणि ६, एवं पट् कायस्य १२, पड् व्रणस्य १८, पड् गण्डविषयस्य २४, पायुकृमि - दोर्पनखशिखांत द्वयम् २६, अष्ट, रोमविषयाणि ३४, त्रीणि दन्तानाम् ३७, पड् ओष्ठस्य ४३, एकमुत्तरोष्ठस्य ४४, एकगक्षिपत्रविपयकम् ४५, पड़ अक्ष्णोः ५१, भ्ररोम- पार्श्व रोमविषयकं द्विकम् ५३, अस्यादिमलविषयकमेकम् ५४, कायस्वेदविषयकमेकम् ५५, एकं च शीर्षद्वारिका विषयकम् ५६, इति पट्ट्पञ्चाशत् सूत्राणि ५६ । एवमेतानि पट्पञ्चाशत्सूत्राणि 'ज निग्गंथे निग्गंथीए पाए' इत्यादिनिर्ग्रन्थकारित निर्ग्रन्थीपाद प्रमार्जनाद्यारम्य शीर्षद्वारिकापर्यन्तानि वाघ्यानि ५६ । एवमेत्र 'जा निग्गंथी निगंथस्स पाए' इत्यादिनिर्मन्थाकारितनिर्मन्थपादप्रमार्जनादीनि शीर्षद्वारिका-
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पूर्णिभाष्यावद्रिः उ० १७ सू० २३९-२४२ माल विकृताधर नादनिषेधः ३८९ पर्यन्तानि षट्पञ्चाशत्सूत्राणि पठितव्यानि ५६ । एवमेव 'जा निग्गंथी निग्गंथीए पाए' इत्यादि, निम्रन्थीकारितनिर्ग्रन्थीपादप्रमार्जनादीनि शीर्षद्वारिकापर्यन्तानि षट्पञ्चाशत्सूत्राणि वक्तव्यानि ५६ । एतानि सर्वाणि पञ्चदशसूत्रादारभ्य-अष्टत्रिशदधिकद्विशत(२३८) सूत्रपये नि चतुर्विशत्यधिकद्विशत(२२४) संख्यकसूत्राणि तृतीयोद्देशकगतषोडशसूत्रादारभ्य एकसप्तति सूत्रपर्यन्तोक्तगमानधिकृत्य षट्पञ्चाशत्सूत्राणि 'जे निग्गंथे निग्गंथस्स' इत्यादिषु चतुर्वपि प्रत्येकं पठितव्यानि, तदर्थोऽपि तदनुसारेणैव ज्ञातव्यः ।। सू० १५-२३८ ॥
जे णिग्गंथे णिग्गंथस्स सरिसगस्स अंते ओवासे संते ओवासं न देइ न देंतं वा साइज्जइ ।। सू० २३९।।
छाया--यो गिर्ग्रन्थो निर्ग्रन्थाय सदृशकायाऽन्तरवकाशे सति अवकाशं न ददाति न ददतं वा स्वदते ॥ सू० २३९ ॥
चूर्णी - 'जे णिग्गंथे' इत्यादि । 'जे णिग्गथे' यः कश्चिद् निर्ग्रन्थः श्रमणः 'णिगंथस्स सरिसगम्स' निर्ग्रन्थाय सदृशकाय-यो यस्य समानसामाचारीकः स तस्य सदृशः कथ्यते, एतादृशाय समागताय श्रमणाय 'अंते ओवासे संते' अन्तः-स्ववसतिमध्ये अवकाशे निवासस्थाने सति-विद्यमानेऽपि 'ओवास' अवकाश-निवासस्थानम् 'न देइ' न ददाति-न समर्पयति तथा 'न देंतं वा साइज्जई' विद्यमानमपि अवकाशं न ददतं श्रमणान्तरं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ॥ सू० २३९ ॥
सूत्रम्--जा णिग्गथी णिग्गंथीए सरिसियाए अंते ओवासे संते ओवासं न देइ न देंतं वा साइज्जइ ।। सू० २४०॥
छाया- या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थ्यै सदृशकाये अन्तरवकाशे सति अवकाशं न ददाति न ददर्ती वा स्वदते ॥ सू०२४० ॥
चूर्णी---'जा णिग्गंथी इत्यादि 'जा णिग्गंथी' या काचित् निर्ग्रन्थी-श्रमणी णिग्गं. थीए सरिसिया निन्थ्ये-श्रमण्यै सदृशकायै समानकल्पस्थित्यादिमत्यै 'अंतेओवासे संते' अन्तमध्ये सति अवकाशे -निवासस्थाने स्ववसतौ 'ओवासं न देइ' अवकाश-निवासस्थानं न ददाति न प्रयच्छति, काचित् श्रमणी परग्रामादिस्थानान्तरात् समागच्छेत् तस्यै यदि इयं श्रमणी . मत्समानधर्मिणी' इति ज्ञात्वाऽपि स्ववसतौ निवासं न ददाति तथा 'न देंतं वा. साइज्जइ' न ददप्ती वा तां या स्वदने अनुमोदते सा प्रायश्चित्तभागिनी भवति, तथा तस्याः आज्ञाभङ्गादिका अपि दोषा भवन्ति ।
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निशीथसूत्र
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अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-निग्गंथो तह निग्गंथी, सस्स सस्स परोप्परं ।
संतावासं न जं. देई, आणाभंगाइ पावई ॥१॥ छाया निम्रन्थस्तथा निम्रन्थी स्वस्य स्वस्व परस्परम् ।
सन्तमावासं न यत् ददांति, आज्ञाभङ्गादि प्रामोति ॥१॥ अवचूरिः-- निर्ग्रन्थः साधुः तथा निम्रन्थी साध्वी स्वस्य स्वस्य परस्परं साधुः समानसामाचारीकाय सायवे, साध्वी समानसामाचारीकायै माध्यै सन्तं विद्यमानं स्वस्थितोपाश्रये आवासं सदपि निवासस्थानं यत्- यदि न ददाति तदा सः साधुः साध्वी वा आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोतीति ॥ सू० २४० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू मालोहडं असणं वा पाणं वा खाइमं वा खाइमं वा दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।। सू० २४१ ॥
__ छाँया-यो भिक्षुर्मालावहृतम् अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वायं वा दीयमानं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्यन्तं वा स्वदते ॥ २० २४१॥
__चूणिः- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मालोहडं' मालाऽवहृतम्, तत्र मालावहृतम्-मालः स्थानविशेषः तस्माद् अवहृतम्-अपेकृष्टं मालावहृतम्-तत् त्रिविधम्-ऊर्ध्वाधस्तिर्यगभेदात्, तत्र ऊर्ध्वमालावहृतम्-उच्चप्रदेशात् निश्रेण्या: दिनाऽवतारितम् १ अधोमालावहतम्-भूमिगृहादित आनीतम् २, तिर्यड्मालावहृतम्-मञ्चादितो' ऽवतारितम् ३ । एतादृशम्, 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाचं वा 'खाइमं वा' स्वाद्यं वा चतुर्विधमाहारजातम् 'दिज्जमाणं' दीयमानम्, यो भिक्षुः "पडिग्गा- . हेई' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति तथा 'पंडिग्गाहेंत वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वां श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २४१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कोहाउत्तं असणं वा पाणं वा खाईमं वा साइमं वा उक्कुज्जिय णिक्कुज्जिय दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।। सू० २४२ ॥
छाया-यो भिक्षुः कोष्ठायुक्तम् अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वायं वा उत्कुज्य निष्कुज्य दीयमानं प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ २४२॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्विक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोहाउत्तं' कोष्ठायुक्तम् , तत्र कोष्ठं नाम-मृत्तिकादिनिर्मितपुरुषैकप्रमाणं ततो हीनमधिकं वा 'कोठा' इति लोकप्रसिद्ध तादृशकोष्ठादौ स्थितम् 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा
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अर्णिभाष्यावचूरिःउ०१७ २०२४३-२४८ मृत्तिकालिप्तसचित्तपृथिव्यादिस्थिताशनादिनि० ३९१ 'खाइमं वा' खाद्यं वा 'साइमं वा' स्वायं वा चतुर्विधमाहारजातम् 'उकुन्जिय णिक्कुज्जिय उत्कुत्र्य निष्कुळ्य--उच्चैः कुब्जीभ्य नीचैः कुब्जीभूय च-कायमुन्नम्य अवनम्य 'दिजमाणं' दीयमानं तादृशमाहारजातं यः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृहन्तं वा स्वदते-अनुमोदते प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू०२४२ ।
सत्रम्-जे भिक्खू मट्टिओलित्त असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उभिदिय निभिदिय दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २४३॥
छाया--यो भिक्षुः मृत्तिकोपलिप्रमशनं वा पानं वा स्वाद्य वा स्वाद्य वा उद्भिद्य निर्भिद्य दीयमानं प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४३ ॥
__ चूर्णिः-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिभिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'महिमओलित' मृत्तिकोपलिप्तम्-मृत्तिकया उपलित-मुदितम् 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खायं वा 'साइमं वा' स्वाचं वा 'उभिदिय निभिदिय' उद्भिय निर्भिध-यद्वस्तु घृतगुडादिकं पात्रविशेषे स्थापयित्वा मृत्तिकया लिप्तं तत् उद्भिद्य-उत्कृष्टं बलपूर्वकं भित्वा त्रोटयित्वा निभिंद्य-नितरां बारं बारं भित्वा 'दिज्जमाणं' दीयमानम् 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति 'पडिग्गाहेंतं' तादृशमशनादिकं प्रतिगृह्णन्तं श्रमणान्तरम् 'साइज्जई' स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ॥ सू० २४३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुढवीपइट्ठियं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।। सू० २४४॥ एवं आउपइट्ठियं ।। सू० २४५॥ तेउपइट्ठियं ।। सू० २४५ ॥ वणप्फइकायपइट्ठियं ॥ सू० २४७॥
छाया--यो भिक्षुरशनं वा पान वा खाद्यं वा स्वाद्य वा पृथिवोप्रतिष्ठितं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्त वा स्वदते ॥ सू० २४४॥ एवम् अप्प्रतिष्ठितम् ॥ सू० २४५ ॥ तेजःप्रतिष्ठितम् ।। सू० २४६॥ वनस्पतिकायप्रतिष्ठितम् ॥ सू० २४७ ॥
____ चूर्णि:-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिवखू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी बा 'असणं' वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाद्य वा 'साइमं वा' स्वाचं वा 'पुढवीषइद्वियं' पृथिवीप्रतिष्ठितं, पृथिव्याम्-यत् सचित्तपृथिवीकाये-सचित्तमृत्तिकालवणगैरिकारूपे प्रतिष्ठितम्-अनन्तरपरम्पररूपेण साक्षात् परस्परया वा स्थापितं भवेत् तद् अशनादिकं दीयमानं यः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई
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निशीथसत्रे प्रतिगृह्णन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० २४४ ॥ एवं 'आउपइडियं अप्कायप्रतिष्ठितं-सचित्तमिश्राप्कायोपरिस्थितमशनादिकम् ।। सू० २४५ ॥ 'तेउपइटियं' तेजःप्रतिष्ठितं तेजस्कायोपरि स्थितमशनादिकम् ।। सू० २४६ ॥ 'वणप्फइकायपइट्टियं' वनस्पतिकायप्रतिष्ठितं हरितकायोपरिस्थितम् उपलक्षणाद् व्रीह्यादिबीजधान्यादिप्रतिष्ठितं वा ऽशनादिकं यो भिक्षुः प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । अत्र शिष्यः पृच्छति-हे गुरो ! यदि पृथिव्यादिप्रतिष्ठितमशनादिकं गृह्णाति तदा को दोपः, न स्पर्शमात्रेण कस्यापि जीवस्य पीडा सभवति । इति, आचार्चः प्राह-हे शिष्य ! भवत्येव तज्जीवानां पीडा, यत् श्रमणाथै श्रावकः पात्रादिकमवतारयति इति भवत्यवतारणादिसमये संघट्टनं, संघट्टनमात्रेणैव ते एकेन्द्रिया महती वेदनामनुभवन्ति, यथा कश्चित् जराजीर्णदेहो वृद्धो बलवता तरुणयमलपाणिना शिरसि ताडयते तत्र यादृशी वेदनामनुभवति वृद्धस्ततोऽप्यधिकतरां वेदना संघट्टनमात्रेणैव एकेन्द्रियजीवा अनुभवन्ति तस्मात् कारणात् एकेन्द्रियजीवानां संघटनं येन भवेत् तथा न कर्तव्यमित्यतः सूत्रे तन्निपेधः कृत इति । एवं यो हि दोपः पृथिव्यादिप्रतिष्ठिताऽशनादिग्रहणे भवति स एव दोषो नियमतः सचित्तपृथिव्यादिप्रतिष्ठितवनपात्रादिग्रहणेऽपि ज्ञातव्यः ।। सू० २४७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अच्चुसिणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा मुहेण वा सुप्पेण वा विहुणणेण वा तालियंटेण वा-पत्तेण वा पत्तभंगेण वा साहाए वा साहामंगेण वा पेहुणेण वा पेहुणहत्थेण वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा फुमित्ता वीइत्ता आहट्ट दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥सू० २४८॥
छाया-यो भिक्षुरत्युष्णमशनं वा पानं वा स्वाधं वां स्वाधं वा मुखेन वा सूर्पण पा विधुननेन वा तालवृन्तेन वा पत्रेण वा पत्रभनेन वा शाखया वा शाखाभतेन वा पेहुणेन वा पेहुणहस्तेन वा चैलेन चेलकर्णेन वा हस्तेन वा फूत्कृत्य वीजयित्वा आहृत्य दीयमान प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सु० २४८ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अच्चुसिणं' अत्युष्णम्-अतिशयोष्णम् 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाचं वा 'साइम' स्वाचं वा 'मुहेण वा' मुखेन वा मुखवायुनेत्यर्थः 'मुप्पेण वा' सूर्पण वा सूर्पवायुना इत्यर्थः, 'विहुणणेण वा' विधुननेन वा-व्यजनेन 'पंखा' इति लोकप्रसिद्धेन तदीयवायुनेत्यर्थः 'वालियंटेण वा तालवृन्तेन वा तालव्यननेन तदीयवायुनेत्यर्थः, 'पत्तण वा' पण वा
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पूणिभाष्यावरिः उ० १७ सू० २४८-२५१ फूत्कृतसचित्ताशनादिग्रहणनिषेधः ३९३ 'पत्तभंगेण वा' पत्रभङ्गेन वा-पत्रखण्डेन इत्यर्थः 'साहाए वा शाखया वा-वृक्षावयवरूपया 'साहामंगेण वा शाखाभङ्गेन-शाखाखण्डेनेत्यर्थः, 'पेहुणेण वा' मयूरपिच्छेन वा 'पेहुणहत्थेण वा मयूरपिच्छपुजेन वा 'चेलेण वा' चेलेन वा-वस्त्रेण वा 'वेलकण्णेण वा चेलकर्णेन वा वस्त्रावयवेन वस्त्रखण्डेनेत्यर्थः, हत्थेण वा' हस्तेण वा-हस्तसञ्चालितवायुना 'फुमित्ता' फूत्कृत्य मुखेन फूत्कारं कृत्वा 'वीइत्ता' वीजयित्वा-व्यजनादिना शीतलीकृत्य 'आहट्ट' आहत्य-आनीय हस्ते गृहीत्वेत्यर्थः 'दिज्जमाणं' दीयमानम् 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा-चूल्ह्यादितोऽवतारितमन्युष्णमशनादिकं मुखादिवायुना बीजयित्वा-शीतलीकृन्य दीयमानमशनादिकं गृहन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ।। सू० २४८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अच्चुसिणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।। सू० २४९॥
छाया --यो भिक्षुरशनं वा, पानं घा, खाद्य घा स्वाधं अत्युष्णं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४९ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा पानं वा 'खाइमं वा' खाचं वा 'साइमं वा' स्वाचं वा 'अच्चुसिणं' अत्युष्णम अत्यन्तोष्णं येन हस्तादि दह्यने तादृशमशनादिकं 'पहिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहें तं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते य प्रायश्चित्तमागी भवति । यतः-अत्युप्णग्रहणे वायुकायसंपातिमद्वीन्द्रियादीनां हिंसासद्भावात् संयमविराधना, · हस्तादिदहनसद्भावादात्मविराधना च भवतीति तादृशाशनादिकं न ग्राह्यम् । सू० २४॥
सूत्रम्--जे भिक्खू उस्सेइमं वा संसेइमं वा चाउलोदगं वा वारोदगं वा तिलोदगं वा तुसोदगं वा जवोदगं वा आयामं वा सोवीरं वाअंबकंजियं वा सुद्धवियडं वा अहुणाधोयं अणंबिलं अपरिणयं अवुक्कंतजीवं अविद्धत्थं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २५०॥
छाया-यो भिक्षुः उत्सेकिम वा संकिम वा तण्डलोदकं वा वारोदकं वा तिलोदकं वा तुषोदकं वा यवोदकं वा आचामं वा सौवीरं वा आम्रकाग्जिकं वा शुद्धविकटं वा अधुनाधौतम् अनाम्लम् अपरिणतम् अव्युत्क्रान्तजीवम् अविध्वस्तं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते ॥ सू० २५० ॥
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३९४
निशीथचे
चूर्णी --'जे भिक्खु इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उस्सेइम वी' उत्सेकिमं वा-वाष्पितगोधूमपिष्टतिलादि येन जलेन सिच्यते-धाव्यते तज्जलम्, अथवा-येन जलेन पिष्टकाटिसंश्लिष्टं पात्रम् 'कठौती' तिलोकप्रसिद्ध प्रक्षाल्यते तज्जल वा 'संसेइमं वा' संसेकिम वा वाष्पितवास्तुकतन्दुलीयकादिपत्रशाकं संसिच्यते तज्जलम् । 'चाउ लोदगं वा तण्डुलोदकं वा तण्डुलधावनजलं येन जलेन तण्डुला धाव्यन्ते पाकात्पूर्व तादृशं जलम् 'चारोदगं वा' वारोदकं वा-वारः घटः येन जलेन गुडादिघटः प्रक्षाल्यते तादृशं जलं वारोदकमिति कथ्यते 'तिलोदगं वा' तिलोदकं वा-तिलधावनजलम् 'तुसोदगं वा' तुषोदकं वा-तुपधावनजलम् ब्रोह्यादिप्रक्षालितजलमित्यर्थः 'जवोदगं वा' यवघावननलं येन जलेन यवाः प्रक्षाल्यन्ते तादृश जलमित्यर्थः, 'आयाम चा' आचामं वा अवनावणं सिद्धतण्डुलनलम्, अथवा उष्णलौहं यस्मिन् जले शीतलीक्रियते तादृशं जलमाचाममिति कथ्यते 'सोवीरं वा' सौवीर वा काजिकजलमित्यर्थः 'अंबकंजिय वा' आम्रकाजिकं 'मुद्धवियडं वा' शुद्धविकटं वा शुद्धम् उष्णं जलम्, एतादृशं सर्वं पानकजातम् यदि 'अहुणाधोयं अधुनाधौत-तत्कालधौतम् 'अणंविलं' अनाम्लम् यस्य रसम् आम्लं न जातं भवेत् 'अपरिणयं' अपरिणतम् --शस्त्रापरिहतम् 'अवुकंतजीव' अत्युत्क्रान्तजीवम्-अव्युत्क्रान्ता अनपगताः जीवा यस्मात् तत् तथा, जीवेनाविप्रमुक्तं सचेतनं मिश्रं वेत्यर्थः अविद्धत्थं' अविध्वस्तम् यत् वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शन विध्वस्तम्-वर्णादिभ्यो न चलितं तत् स्वभावावस्थमित्यर्थः, एतादृशं पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टं जलं भवेत्तज्जलं यः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति-दीयमानं स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वीकुर्वन्तं श्रमणान्तरं यः स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २५० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो आयरियत्ताए लक्खणाई वागरेइ वागरेतं वा साइज्जइ ।। सू० २५१ ॥
छाया-यो भिक्षुरात्मन आचार्यतायै लक्षणानि व्याकरोति व्याकुर्वन्तं वा स्वदते
चूर्णी- जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अप्पणो आत्मन. स्वस्य 'लक्खणाई' लक्षणानि-करचरणस्थानि चक्राकुशादीनि, तथा स्वदेहस्य मानोन्मान-प्रमाण-संस्थान-सहननादीनि वा 'आयरियताए' आचार्यतायै-स्वस्याचार्यपदप्राप्त्यर्थम् 'वागरेइ' व्याकरोति-अन्यस्मै कथयति, चक्राङ्कशतिलमशादिविपये एवं कथयति-यानि आचार्यस्य लत्रणानि भवन्ति तानि मम शरीरेऽपि लभ्यन्ते तेनाहमाचार्यों भविष्यामीति । कथनप्रकारो यथा
"अमुगायरियसरिच्छाई लक्खणाई णं पासह महंपि । एरिसलक्खणजुत्तो, य होइ अचिरेण आयरिओ" ॥१॥
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पूर्णिमायावचूरिः उ०१७ सू० २५२-२५३ गायनादिकरण भेर्यादिशब्दश्रवणेच्छानिषेधः ३९५ छाया-अमुकाचार्यसदृशानि लक्षणानि खलु पश्य ममापि ।
ईशलक्षणयुक्तश्व, भवति अचिरेण आचार्यः ॥१॥ ___ इत्यादि स्वस्य विषये व्याकरोति तथा 'बागरेंतं वा साइज्जइ व्याकुर्वन्तं वा स्वशरीरस्थ लक्षणानि प्रकाशयन्तं श्रमणान्तरं यः स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २५१॥
सूत्रम्--जे भिक्खू गाएज्ज वा हसेज्ज वा वाएज्ज वा णच्चेज्ज वा अभिणएज्ज वा हयहेसियं, हथिगुलगुलाइयं उक्किट्ठसीहनायं वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २५२ ॥
छाया-यो भिक्षुः गायेत् वा हसेद्वा वादयेहा नृत्येद्वा अभिनयेद्वा हयहेषितं हस्तिगुलगुलायिनम् उत्कृष्टसिंहनाद वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ।। सू० २५२ ।।
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गाएज्ज वा' गायेद्वा-गानं कुर्यात्, तत्र स्वरकरणं स्वरसञ्चारो वा गानं तत्कुर्यात् 'हसेज्ज वा' हसेद्वा- मुखं विस्फाल्य सविकारकहकहकरणरूपं हसनं कुर्यात् 'वाएज्ज वा' वादयेत्-शवीणामृदद्गादिकं वादयेत् 'नच्चेज्ज वा' नृत्येदा-पादजधोरुकट्युदरबाहङ्गुलिवदन नयनभ्रमुखादीनां विकारकरणं गात्रसञ्चालनापरपर्यायं नृत्यं कुर्यात् , 'अभिणएज्ज वा' अभिनयेद्रा-अभिनयं दृश्यश्रन्यादिनाटकाङ्गरूपं कुर्यात् 'हयहेसियं वा' हयहेषितं वा-अश्ववत् हेषाशब्दं कुर्यात् 'हत्यिगुलगुलाइयं वा' हस्तिगुलगु अयितं वा हस्तिशब्दवत् शब्दं करोति 'उक्किट्ठसीहनायं वा उत्कृष्टसिंहनादं वा' सिंहो यथा विलक्षण हुङ्कारशब्दं करोति तथैव सिंहशब्दानुकारिशब्दम् 'करेइ' करोति स्वयमेव, परद्वारा वा कारयति तथा 'करेंतं वा साइजई' कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह-भाष्यकारः
गाएज्ज अहवा णच्चे. इसेज्ज जइ मोहमओ । पावइ आणाभंगाई, मिच्छत्तं च विराहणं ।। छाया-गायेद्वा अथवा नृत्येत् हसेद्वा यदि मोहतः।
प्राप्नोत्याशाभङ्गादि मिथ्यात्वं च विराधनम् ।। अवचूरिः-यदि मोहतः-मोहवशात् कारणादकारणाद्वा श्रमणः श्रमणी वा गायेत्गान कुर्यात्, अथवा हसेत्-कहकह-शब्दं कुर्यात् उपलक्षणत्वात् वादयेत् अभिनयेत्-अश्वगजादिशब्दं वा कुर्यात् तदा स आज्ञाभङ्गादिकं मिथ्यात्वं विराधनं च प्राध्नोति ॥ सू० २५२ ॥
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३९६
निशीथसूत्रे
सूत्रम्-जे भिक्खू भेरीसदाणि वा पडहसदाणि वा मुरयसदाणि वा मुइंगसहाणि वा नंदिसहाणि वा झल्लरिसदाणि वा वल्लरिसदाणि वा डमरुगसदाणि वा मदलसदाणि वा सदुयसदाणि वा पएससदाणि वा गोलंकि सदाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि वितताणि सदाणि कण्णसोयपडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥ सू० २५३ ॥
छाया-यो भिक्षः मेरीशब्दान् वा पटहशब्दान् वा मुरजशब्दान् वा मृदाशच्दान् वा नन्दिशब्दान् वा झल्लरीशब्दान् वा वल्लरीशब्दान् वा डमरुकशब्दान् वा मर्दल शब्दान् वा सदुकशब्दान् वा प्रदेशशब्दान् वा गोलुकीशब्दान् वा अन्यतरान् वा तथाप्रकारान् विततान् शब्दान् कर्णथोतःप्रतिश्या अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'भेरीसहाणि वा. मेरीशब्दान् वा दुन्दुभिशब्दान् वा 'पडहसदाणि का पटहशब्दान् वा 'ढोल' इति लोकप्रसिद्धशब्दान् 'मुरयसहाणि वा मुरजशब्दान् वा-पटहविशेषशब्दान् वा 'मइंगसहाणि वा मृदगशब्दान् वा 'नंदिसहाणि वा. नन्दिशब्दान वा-यत्र द्वादश वाद्यानि सहैव वाद्यन्ते तादृशो वाद्यविशेषो नन्दिरिति कथ्यते, तत्सम्बन्धिशब्दान् वा 'झल्लरीसदाणि वा' झल्लरीशब्दान् वा, तत्र 'झल्लरी'-'झालर' इति लोकप्रसिद्धा तस्याः शब्दान् 'वल्लरि सहाणि वा वल्लरीशब्दान् वा 'डमरुगसदाणि वा. डमरुकशब्दान् वा-'डमरु' इति लोकप्रसिद्धशब्दान् 'महलसहाणि वा. मर्दलशब्दान् वा-मर्दलः-तन्नामको वाधविशेषः, तच्छब्दान् 'सदयसदाणि वा सदुकशब्दान् वा - वाचविशेषशब्दान् वा 'पएससदाणि वा' प्रदेशशब्दान् वा 'गोलंकिसहाणि वा' गोलकीशब्दान् वा-गोलुड्कीनामको वाद्यविशेषस्तच्छब्दान् वा तथा 'अन्नयराणि वा' अन्यतरान् अन्यान् वा 'तहप्पगाराणि वा' तथाप्रकारान्-पूर्वोक्तप्रदर्शितशब्दसदृशान् मन्यानपि अनेकप्रकारान् ‘वितताणि सदाणि' विततान् शब्दान्-विततजातीयवादित्रसमुत्थान् शब्दान् 'कण्णसोयपडियाए कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया-कर्णेन्द्रियेण श्रवणप्रतिज्ञया - कर्णाभ्यां श्रवणेच्छया 'अभिसंधारेइ अभिसंधारयति-श्रोतुं मनसि निश्चिनोति तथा 'अभिसंधारेत वा साइज्जइ' अभिसंधारयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते सा प्रायश्चित्तभागी भवति ॥२५३।।
सूत्रम्-जे भिक्खू तालसदाणि वा, कंसतालसदाणि वा लित्तियसदाणि वा गोहियसदाणि वा मकरियसदाणि वा कच्छमीसदाणि वा महइसदाणि वा सणालियासदाणि वा वलियासदाणि वा अन्नयराणि वा
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पूर्णिभाष्यावन्त्रिः३०१७ सू० २५४-२५६ तालांदिवीणादिशङ्खादिशब्दश्रवणेच्छानिषेधः ३९७ तहप्पगाराणि घणाणि सदाणि वा कण्णसोयपडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइज्जइ ।। सू० २५४ ॥
छाया-यो भिक्षुस्तालशब्दान् वा कांस्यतालशब्दान् वा लित्तिकाशब्दान् वा गोघिकाशन्दान् वा मकरिकाशन्दान् वा कच्छपीशध्दान् वा महतिशब्दान् वा सणालिकाशब्दान् वा पलिकाशन्दान् वा अन्यतरान् वा तथाप्रकारान् धनान् शब्दान् वा कर्णभोतःप्रतिबया अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥ ९० २५४ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'तालसदाणि वा' तालशब्दान् वा-संयोगाभिघातजन्यतासम्बन्धेन जायमानान् शब्दान् 'कंसतालसदाणि वा' कांस्यतालशब्दान् वा, तत्र कांस्य-धातुविशेषस्तस्य तालो-वादित्रविशेषः तत्संयोगेन जायमानान् शब्दान् कांस्यतालशब्दान् 'लित्तियसपाणि वा' लित्तिकाशब्दान् वा, तत्र लित्तिका वादिनविशेष तस्याः शब्दान् 'गोहियसहाणि वा' गोधिकाशब्दान् वा-गोधिकाऽऽकृतिको वाद्यविशे. पस्तच्छन्दान् 'मकरियसहाणि वा' मकरिकाशब्दान् वा-मकराकृतिको वाद्यविशेषस्तस्य शब्दान् 'कच्छभीसहाणि वा' कच्छपीशब्दान् वा कच्छपाकृतिवाथविशेषशब्दान् वा 'महियसदाणि वा' महतिका शब्दान् वा 'सणालियासदाणि वा' सनालिकाशब्दान् वा, अत्र तालादिकं सर्वमपि वाचविशेषलक्षणमेव, तेषां विशेषतो नामानि लोकतो देशतश्च ज्ञातव्यानि, अत्र तु सामान्यरूपेणैव अर्थाः प्रतिपादिताः । 'अन्नयराणि वा' मन्यतरान् वा 'तहप्पगाराणि वा' तथाप्रकारान् अन्यानपि तत्सदृशान् 'घणाणि सद्दीणि' घनान्-जनजातीयवादिनसमुत्थान् शब्दान् 'कण्णसोयपडियाए' कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया-कर्णाभ्यां श्रोतुमिच्छया 'अभिसंधारेइ' अभिसंधारयति मनसा श्रवणार्थ निश्चयं करोति तथा 'अभिसंधारेतं वा साइज्जइ' अभिसंधारयन्तं कर्णसुखावहान् तालादिशब्दान् श्रोतुं मनसा निश्चयं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं यः स्वदते–अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ स० २५४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वीणासदाणि वा विवंचीसदाणि वा तुण्णसदाणि बव्वीसहाणि वा वीणाइयसदाणि वा तुंबवीणासदाणि वा संकोडयसदाणि वा रुरुयसदाणि वा ढेकुणसदाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि तताणि सद्दाणि कण्णसोयवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ॥२५५
छाया-यो भिक्षुः वोणाशब्दात् वा विपञ्चीशब्दान् वा तूणशब्दान् वा वव्वीसशब्दान् वा वीणातिकशब्दान् वा तुम्ववीणाशब्दान् वा संकोटकशब्दान् वा रुरुकशब्दान् वा
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निशीथसूत्र ३९८ ढंकुणशब्दान् वा अन्यतरान् वा तथाप्रकारान् ततान् शब्दान् कर्णश्रोतःप्रतिक्षया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्त वा स्वदते ॥ सू० २५५।।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वीणासदाणि वा वीणाशब्दान् वा इति वीणादीनां सूत्रोक्तानां शब्दान् , मन्यतरान् वा तथाप्रकारान् तत्तज्जातीयवादित्रसमुत्थान् शब्दान् वा 'कण्णसोयवडियाए' कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया 'अभिसधारेइ' अभिसंधारयति 'अभिसंधारेतं वा साइज्जइ' अभिसंधारयन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २५५ ।।
सूत्रम्-जे भिस्खू संखसहाणि वा वंससदाणिवा वेणुसदाणिवा खरमुहासदाणि वा परिलीसदाणि वा चेचासदाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि झुसिराणि सदाणि कण्णसोयपडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ।। सू० २५६॥
छाया - यो भिक्षु. शवशन्दान् वा वंशशब्दान् चा वेणुशब्दान् वा खरमुखीशब्दान् वा परिलीशदान वा चेचाशब्दान् वा अन्यतरान् वा तथाप्रकारान् शुपिरान् शब्दान् कर्णयोतःप्रतिक्षया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ।। सू० २५६ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि। जेभिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः अदणः श्रमणी वा 'संखसदाणि वा' शङ्खशब्दान् वा 'वंससदाणि वा' वंशशब्दान् वा वंशेन जायमानान् शब्दान् वा 'वेणुसपाणि वा वेणुशब्दान् वा, तत्र वेणुरिति सशुपिरो वंशस्यैव जातिविशेषः यो मुखादिवायुना परितः शब्द करीति, येन निष्पादितवादित्रम् 'वांसुरी' इति लोकप्रसिद्धं तस्य शब्दान् वा 'खरमुहीसहाणि वा' खरमुखीशब्दान् वा, तत्र खरो-गर्दभः तस्य मुखमिव मुखं वस्याः सा खरमुखी-वादिनविशेषः तस्या. शब्दान् परिलीसहाणि चा' परिलीशब्दान् वा वाद्यविशेषस्य शब्दान् 'चेचासद्दाणि वा' चेचाशब्दान् वा 'चेचा' इति वाद्यविशेषस्य शब्दान् वा 'अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि' अन्यतरान् वा तथाग्रकारान्-शङ्खवंशवेणुप्रभृतिशब्दसदृशशब्दान् 'झुसिराणि सदाणि' शुषिरान्शुपिग्जातीयवादित्रजन्यान् शब्दान् 'कण्णसोयवडियाए' कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया-कर्णाभ्यां श्रवणेच्छया 'अभिसंधारेई' अभिसंधारयति-मनसि निश्चयं करोति तथा 'अभिसंधारेंतं वा साइज्जई' अभिसंधारयन्त वा श्रमणान्तरं स्वंदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति । सू० २५६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वप्पाणि वा फलिहाणि वा जाव इहलोइएसु वा स्वेसु परलोइएसु वा रूवेसु जाव अज्झोववज्जतं वा साइज्जइ ।। सू२७०
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पूर्णिभाष्यावरिः उ० १७ सू० २७०-२७१ चमादीनां प्रशंसानिन्दादिश्रवणेच्छानिषेधः ३९९
छाया-यो भिक्षुः वप्रान् वा परिरवा वा यावत् ऐहलोकिकेपु वा रूपेषु पारलोकिकेपु वा रूपेषु यावत् अध्युपपद्यमानं वा स्वदते ॥ सू० २७० ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वप्पाणि वा' वप्रान् वा 'वप्र' इति केदारः, दुर्ग., प्राकारः क्षेत्रम्, उन्नतभूभागो बा प्रोच्यते, तान् तादृशान्. वा स्थानविशेपान् , 'फलिहाणि वा' परिखा वा या ग्रामादेः समन्तात् परिवृता गर्तरूपा याः 'खाइ' इति प्रसिद्धास्ताः, 'जाव' यावत् , याक्पदेन इत आरभ्य 'इहलोइएस वा स्वेसु' इति सूत्रपर्यन्तानि द्वादशोद्देशकोकानि चतुर्दश सूत्राणि संग्राह्याणि, तत्र वप्रादीनां प्रशंसानिन्दात्मकानि वार्तादीनि कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया अभिसंधारयति, अभिसंधारयन्तं वा स्वदते,॥ सू०२६९॥ तथा 'इहलो इएसु' ऐहलोकिकेपु ऐहलोकिकशब्देन मनुष्या गृह्यन्ते तेन ऐहलोकिकेषु मनुष्यसम्बन्धिपु 'रूवेमु' स्वेषु तथा 'परलइएमु रूवेन्स' अत्र पारलोकिकशब्देन तिर्यञ्चो गृह्यन्ते, तेन पारलोकिकेषु हयगोगजादितिर्यक्षु दृष्टादृष्टादिभेदभिन्नेषु रूपेषु 'जाव' यावत्-यावत्पदेन 'सज्जइ रज्जा गिज्मइ अझोववज्जह सज्जतं रज्जतं गिझंत' आसक्तिं करोति, राां करोति, गृद्धिं करोति, अध्युपपत्तिं करोति, तथा-पूर्वोक्तं कुर्वन्तम् तथा 'अझोववज्जतं' अध्युपपद्यमानम्-अध्युपपत्तिं कुर्वन्तम श्रमणान्तरम् 'साइज्जड' स्वदते--अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीत्यन्तिमसूत्रार्थः । अत्र प्रथमयाक्पदेन-'जेभिक्खू क्प्पाणि वा फलिहाणि वा० १ एवं वणाणि वा गहणाणि वा २, गामाणि वा गराणि वा०३, गाममहाणि वा णगरमहाणि वा०४, गामवहाणि वा णगरवहाणि वा० ५, गामपहाणि वा णगरपहाणि वा ६, आसकरणाणि वा हत्यिकरणाणि वा० ७, आसजुद्धाणि वा हस्थिजुद्धाजि वा० ८, हयठाणाणि वा इयजूडियठाणाणि वा० ९ अभिसेयठाणाणि वा अक्खाइयठासुणाणि वा १०, कट्टकम्माणि वा चित्तकम्माणि० वा ११, डिवाणि वा डमराणि वा० १२, विरूवरूवेसु महुस्सवेसु इत्थीणि वा पुरिसाणि वा० १३ इहलोडएसु वा रूवेसु० - १४, इति चतुर्दश सूत्राणि द्वादशोदेशकेऽवलोकनीयानि, अर्थोऽपि तत्रैव द्रष्टव्य इति । विशेषस्त्वयम्-यत्तत्र 'चक्खदंसणवडियाए' इत्युक्तम् , अत्र तु 'कण्णसोयवडियाए' इति वाच्यम् । पुनश्च तत्र वप्रादीनां चक्षुषा दर्शनविषयको निपेधः प्रतिपादितः, अत्र तु वप्रादीनां प्रशंसानिन्दात्मकवायाः कर्णाभ्यां श्रवणविषयको निधो ज्ञातव्य इति । तस्मात् कारणात् श्रमणः श्रमणी वा वप्रादीनां प्रशंसानिन्दा. मकवार्तादिश्रवणेच्छया विचारं न कुर्यात् नापि विचारं तत्कुर्वन्तमनुमोदयेत्, तथा पारलोकिकदृष्टा. दृष्टज्ञाताज्ञातश्रुताश्रुतरूपरसगन्धस्पर्शेषु कदाचिदपि आसक्तिरागादिकं न कुर्यात् न वा कारयेत् तथा तादृशरूपादिपु आसक्तयादि कुर्वाणं श्रमणान्तरं कथमपि कदाचिदपि नानुमोदयेत् ।।
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૪૦૦
अत्राह भाष्यकारः
भाष्यम् – 'बप्पाsयं तदा ख्वा, - इयं सोयपडिम्नया । अभिसंधारए सज्जे आणाभंगाइ पात्रइ ||
छाया - वप्रादिकं तथा रूपादिकम् श्रोत्रप्रतिज्ञया । अभिसंधारयेत् सज्जेत आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥
"
अवचूरिः - यो भिक्षुः चप्रादिकं तथा रूपादिकम् ऐहलौकिकपारलो क्रिकेति मनुष्यतिर्यक्सम्बन्धिरूपादिकं तद्वार्त्तादिकं श्रोतः प्रतिज्ञया श्रवणेच्या मनसि अभिसंधारयेत् श्रोतुं मनसि निश्वयं कुर्यात् सज्जेत वा तत्र आसक्तो वा बवेत् तदा स भिक्षुः आज्ञाभङ्गादिकं प्राप्नोति ॥२७० ॥ सूत्रम् — तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घा - इयं ॥ सू० २७९ ॥
॥ निसीहझयणे सत्तरसमो उदेसो समत्तो ॥ १७ ॥
-तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् उद्घातिकम् ॥ सू० २७१ ॥ || निशीथाध्ययने सप्तदशोदेशकः समाप्तः ॥ १७॥
चूर्णी - 'त' तत् उद्देश् कादित आरभ्यादशकान्त पर्यन्तकथितप्रायश्चित्तस्थानानि 'सेवमाणे' सेवमानः- प्रतिसेवनां कुर्वन् 'आवज्जई' आपद्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासिय' चातुर्मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम् अर्थात् प्रायश्चित्तं कीदृशम् ! 'उग्धाइयं उद्वातिकम् लघुकमिति ॥३३॥ इति श्री - विश्वविख्यात - जगहल्लम- प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकप्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त“जैनशास्त्राचार्य” – पद भूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनघर्मंदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालवति-विरचितायां “निशीथसूत्रस्य" चूर्णिभाध्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् सप्तदशोद्देशकः समाप्तः ॥ १७॥
छाया
निशीथसूत्रे
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॥ अष्टादशोदेशकः॥ सप्तदशोहेशकं व्याख्याय तदनु अवसरप्राप्तोऽष्टादशोदेशकः प्रारभ्यते, अथास्याष्टादशोद्देशकादिसूत्रस्य सप्तदशोदेशकान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्धः १ इति चेदत्राह भाष्यकारःभाप्यम्-- सहस्स सवणहाए, गमणं दुविहं भवे ।
____जलेण थलमग्गेण जलेणेत्थ निसिज्झइ ॥ छाया- शब्दस्य श्रवणार्थाय गमनं द्विविधं भवेत् ।
जलेन स्थलमार्गेण जलेनात्र निषिध्यते ॥ अवचूरिः- सप्तदशोद्देशके शब्दस्य श्रवणार्थाय ततविततशुषिरादिवादित्राणां तथा अनेकेषां दिविधशब्दानां श्रवणाय, तत्र स्थलविशेषे 'ततविततशुषिरादिवादित्राणां मनोहरशब्दोऽवश्यमेव श्रोतव्यः' इत्येवं प्रकारेण मनसा निश्चयं करोति, तच्छवणं च शब्दस्थानमगत्वां असंभवि इति मत्वा अवश्यमेव गमनं करिष्यति, तद् गमनं द्विविधं-द्विप्रकारकं भवेत् एकं गमनं जलेन-जलमार्गेण द्वितीयं च गमनं स्थलमार्गेण । तत्र पूर्व शब्दश्रवणार्थ स्थलमार्गस्य निषेधः कृतः । जलमार्गेण गमनं तु नावमाश्रित्य भवतीति नौकाविषयको निपेघोऽत्रास्मिन् उद्देशके करिष्यते, अयमेव सम्बन्धः पूर्वापरोदेशकसूत्रयोर्भवतीति, तदनेन संबन्धेन आयातस्यास्याष्टादशोद्देशकस्येदं प्रथमं सूत्रम्
सूत्रम्-जे भिक्खू अणट्ठाए णावं दूरूहइ दूरुहंतं वा साइज्जइ,॥ छाया-यो भिक्षुः अनर्थाय नावं दृरोहति दूरोहन्तं वा स्वदते ॥ सू. १ ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अणंद्वार' मनाय तत्र न अर्थाय इति अनर्थाय अत्रार्थशब्दः प्रयोजनार्थद्योतकस्तथा च प्रयोजन मन्तरेणैव इत्यर्थः । अथवा-अनर्थाय--स्वेष्टसिद्धेविघातकाय साधूनामिष्टं मोक्षप्राप्तये संयमाराधनम्, नहि संयमाराधनमकृत्वा कोऽपि मोक्षभागी संभवति 'ज्ञानदर्शनचारित्रतपांसि मोक्षमार्गः' इति नियमात् नावादिना जलसतरणेऽवश्यं षट्कायजीदानामतिपातो भवेत् ततश्च संयमो विराधितो भवति ततः 'अणद्वाए' अनर्थाय येन सयमविराधना सपचते सोऽनर्थस्तस्मै, अथवा न - शब्दोऽत्र अल्पार्थकस्तेन अनर्थाय अल्पप्रयोजनाय संयमसम्बन्धिगाढाऽऽगाढकारणमन्तरेण सांधो वारोहणं शास्त्रे निषिद्वम्, ततो यो गाढागाढकारणमन्तरेण 'णावं' नावं नौका नद्यादिजलाशयरय पारगमनाय 'दूरुहइ' दृरोहति नौकायामधिरोहणं करोति तथा 'दुल्हतं वा
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निशीथसने થ૦૨ साइज्जइ' दूरोहन्तं वा स्वदते, यो हि श्रमणः जलाशयपारगमनाय नौकामधिरोहति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्--'णावारोहण साहुस्स अणहाए असेयसे ।
कोउहल्लेण नारोहे, नन्नत्यागाढकारणा ॥१॥ छाया-नौकाधिरोहणं साधोरनीय अश्रेयसे ।
कौतूहलेन नारोहेत, अन्यत्रागाढकारणात् ॥१॥ अवचूरि:-'साहुस्स' साधोः नावारोहण मनाय-अश्रेयसे अकल्याणाय च भवति तत्र षट्कायविराधनाया अवश्यम्मावात् , अथवा अनर्थाय-अप्रयोजनाय प्रयोजनं विना साधोन वारोहणम् अश्रेयसे-अमोक्षाय संसाराय भवत्येव अतः कौतूहलेन शब्दश्रवणादिकुतूहलमाश्रित्य साधुः कदापि नावं नारोहेत्, कदेव्याह-आगाहकारणादन्यत्र-गादागाढकरणं विना नारोहेत् । तत्र गाढागाढकारणं च गुरुसेवाग्लानवैयावृत्त्यादिकम् ।। सू० १ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णावं किणइ किणावेइ कीयं आहहु दिज्जमाणं दुरूहइ दुरुहंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २ ॥
छाया-यो भिक्षुः नौकां फ्रीणाति-झापयति क्रोतमाहत्य दीयमानं दूरोहति दूरोहन्तं वा स्वदते ॥सू०२॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णावंकिणई' नौकां क्रीणाति-मूल्यं दत्वा स्वीकरोति 'किणावेई' क्रापयति-मूल्यं दत्वा अन्यद्वारा नौकायाः क्रयणं कारयति, तथा 'कीयं आहटु दिज्जमाणं' क्रीतमाहृत्य दीयमानम् अन्यः कोऽपि मूल्यं दत्वा नौकां क्रोणाति, स च क्रीत्वा अभिमुखम् आहृत्य श्रमणाय ददाति तत् क्रोतमाहृत्य दीयमानमिति कथ्यते, क्रयक्रीतामभिमुमानीय दीयमानां नौकां श्रमणः श्रमणी वा 'दुहई' दूरोहति-तदधिरोहणं करोति, तथा 'दुरुहंतं वा साइज्जई' दूरोहन्तं वा-नौकाया अपरि अधिरोहणं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू० २॥
सूत्रम्-एवं जा चउद्दसमे उद्देसे पडिग्गहगमो सो णेयव्वो जाव अच्छेज्जं अणिसिढे अभिहडमाहटु दिज्जमाणं दूरूहइ दूरुहंतं वा साइज्जइ ॥ सू०३-५॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१८ सू०-१-९
नौकाया आरोहणक्रयणादिनिषेधः ४०३
छाया - एवं यः चतुर्दशे उद्देशे प्रतिग्रहगमः स ज्ञातव्यः यावद् आछेद्यम् अनिसृष्टम् अभिहृतम् माहृत्य दीयमानं द्ररोहति दोहन्तं वा स्वदते ॥सू० ३॥
चूर्णी - ' एवं ' इत्यादि । ' एवं ' एवम् अनेन प्रकारेण नौक्रीणनरीत्या 'जो चउद्दसमे उसे पडिग्गहगमों' यश्चतुर्दशे उद्देशे प्रतिप्रहगमः पात्रग्रहणगमकः प्रोक्तः 'सेणेयन्त्रो' सोऽत्र नौका विषये ज्ञातव्यः - वक्तव्यः कियत्पर्यन्तमित्याह - ' जाव' यावत् 'अच्छेज्जं' माच्छेषां कस्यापि हस्तादाच्छिय स्थापितां 'अणिसिहूं' अनिसृष्टां नौकां स्वामिनाऽदत्तां तत्स्वामिन अज्ञामन्तरेण गृहीताम् 'अभिहडं' अभिहृतां - स्थानान्तरात् आनीताम् 'आदड दिज्जमाणं' आद्वत्य - संमुखमानीय दीयमानां नावम् ' दुरूहइ' दूरोहति - आरोहति 'दुरुहंत वा साइज्जड़' दूरोहन्तं - नावमधिरोहन्तं श्रमणान्तरं स्वदते स प्रायवित्तभागी भवति । भत्र सूत्रे 'जाव' इति यावत्पदेन "जे भिक्खू' नावं पामिच्चेइ नावं परियई' इति सूत्रद्वयं संप्रायम् मर्थस्तत्रैव चतुर्दशोद्दे के द्रष्टव्य इति । विशेषस्तावदेतावानेव यत्- चतुर्दशो देशके प्रतिग्रहशब्दः प्रोक्तः, अत्र तु 'नौ' शब्दं प्रयोज्य आलापका विधातव्या इति ॥
अत्राह भाष्यकारः -
भाष्यम् – 'जो कीणइ सयं णावं, पामिच्चाइयमारुहे । आणाभंगाइ पावेर, मिच्छत्तं च विराहणं ॥
छाया -- यः क्रोणाति स्वयं नौकां प्रामित्यादिकामारोहेत् । आशाभङ्गादि प्राप्नोति मिध्यात्वं च विराधनम् ॥
अवचूरिः--यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा स्वयमेव नौकां क्रीणाति-मूल्यसमर्पणेन स्वात्माघीनां करोति अन्यद्वारा वा नौकायाः क्रयणं कारयति तथा प्रामित्यादिदोषदुष्टां नावमारोहेत् पूर्वोक्तप्रकारां नौकामधिरोहति, आरोहन्तं नौकायामधिरोहणं कुर्वन्तं श्रनणान्तरमनुमोदते, स माज्ञाभङ्गमनवस्थां मिध्यात्वं संयमविराधनमात्मविराधनं च प्राप्नोतीति भाष्यार्थः ॥ सू० ३-५ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू थलाओ नावं जले ओक्कसावेइ ओक्कसावेत वा साइज्जइ ॥ सू० ६ ॥
छाया - यो भिक्षुः स्थलात् नावं जले अवकर्षयति अवकर्षयन्तं वा स्वदते ॥० ६ ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'थलाओ' स्थलात्जलपार्श्वस्थभूमिभागात् तटादित्यर्थः ' णावं' नावम् - नौकाम् 'जले ओक्कसावेइ' जले - नद्यादि - जलप्रवाहे अवकर्षयति- अवतारयति स्थले विद्यमानां नौकां जले करोति - कारयति वा तथा
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४
निशीथस्त्र 'योक्कसावेतं वा साइन्जई अवक्रर्पयन्तं स्थलात् जलं नौकामवतारयन्तं श्रमणान्तरं स्वदतेअनुमोदते म प्रायश्चित्तमागी भवति ॥ मृ० ६॥
- सूत्रम्-जे भिक्ख जलाओ नावं थले उक्कसावेइ उक्कसावेतं वा माइज्जइ ॥ सू० ७॥
छाया-यो भिक्षुः जलात् नाचं स्थले उत्कर्ष यति उत्कयंयन्त वा स्वदते॥०७॥
चूर्णी-'ने भिक्ख' इत्यादि । जे भिक्ख' यः ऋश्चिद्भिक्षुः 'जलाओ नावं यले उक्कसावई' जयात्-नद्यादिनलमत्र्यात् नौनां स्थळे उपयति-जलम्था स्थल कगेति पहारा वा कारयति जल संतान्ती नौकां जलात् निष्कास्य भूमिमागे स्थापयतीत्यर्थः, तया-'उकसावेत वा.साहजई' उत्कर्ष यन्तं-जलात् नौकां स्थल कुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदत-अनुमोदते स प्रायश्चित्तमागी भवति ॥ ९० ७ ॥
मुत्रम्-जे मिश्भ पुण्ण णावं उस्मिथइ उसिसचंतं वा साइज्जइ ॥ छाया-यो भिक्षुः पूणी नावमुसिञ्चति उत्सिञ्चन्तं वा स्वदते ॥सू० ८॥
चूर्णी- 'ले भिकाबू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिशिक्षुः 'पुण्णं नावं पूणों नटपूर्णा नौकाम् सच्छिद्रत्वाचन परिपूर्णी नावं यः श्रमणः श्रमणी का 'उस्सिंबई उरिसञ्चति नौकायां स्थित जलम् अनन्यादिना अन्येन केनापि मायनेन वहिनिष्कासयति नया 'उस्सिंचं वा साइज्जई' उन्सिञ्चन्तं वा त्वदत-अनुमोदत स प्रायश्चित्तमागी भवति ॥ सू० ८॥ . मृत्रम्-जे भिर विखुणं णाचं उप्पिलावेइ उप्पिलावेतं वा सांइज्जइ ॥ सू० ९ ॥
छाया यो भिक्षुर्विक्षुण्णां नावम् उत्प्लावयति उत्प्लावयन्तं वा स्वदते ।। सू० ७ ॥ .. चूणी-जे मिक्खू इन्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः शृमणी वा 'विखुण्णं' विक्षुण्याम्-जल पडू वा मग्नाम् नोकाम् 'उप्पिलावेई' उल्लावति नौका जलात् पड्वाहा उपरि स्थापयनि स्वयं परद्वारा वा तथा-'उप्पिलावे वा साइजइ' उच्छावयन्तं वा स्वदते म प्रायश्चित्तमागी भवति ॥ सू० ९॥
मूत्रम्-जे भिवम्बू पडिणावियं कटु णावाए दूसहइ दूरुहंतं वा माइजइ ॥ सू० १० ॥
' छाया -यो भिक्षुः प्रतिनाविकं कृत्वा नौकायां दूरोहति दूरोहन्तं स्यदते ॥ २०१० ।।
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चूर्णि० उ० १८ सू०१०-१४ ऊर्ध्वगामिन्यादिनौकाया आरोहणाऽऽकर्षणादिनिषेधः ४०५
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिणाविर्य' प्रतिनाविकम् एकं नाविकं प्रति अन्यो नाविकः प्रतिनाविकस्तम् । अयं भावः-अस्मिन् तटे स्थितः सन् साधुः कश्चिन्नाविकं वदति यत् नद्यादेरर्धभागेऽन्यो नाविक आगत्य मां नेष्यति मतो नद्यादेरर्धगागपर्यन्तं मां त्वं नय, इत्युत्वा नाविको निर्णीयते स प्रतिनाविकः कथ्यते, एतादृशं प्रतिनाविकम् 'कट्ट' कृत्वा 'नावाए' नावि -नौकायाम् 'दुरूहइ' दूरोहति-अधिरोहति, अन्यं वा दूरोहयति तथा 'दुरूहंत दरोहन्तम्-अधिरोहन्तं श्रमणान्तरं 'साइज्जइ' स्वदते-अनुमोदते स पायश्चित्तभागो भवति ॥ सू० १० ॥
सूत्रस-भिकर उड्डगामिर्णि वा णावं अहोगामिणि वा णावं दूरूहइ दूरुहंतं वा साइजइ ॥ सू० ११ ॥
__छाया-यो भिक्षुरूर्ध्वगामिनी वा नावमधोगामिनी वा नावं दृरोहति दूरो. हन्तं वा स्वदते ।। सू० १६ ॥
चर्णी-'जे मिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उडढगामिणि वा नावं' ऊर्ध्वगामिनी वा नावम् स्रोतसः संमुखं गच्छती नौकां या खलु नद्यादौ वर्तमाना नौका प्रतिस्रोतः स्रोतोऽभिमुखं प्रयाति यस्मात प्रदेशात् नदी आगच्छति तमेव प्रदेश प्रति या गच्छति सा ऊर्ध्वगामिनी नौका कथ्यते, तां तादृशीं नौकाम् तथा 'अहोगामिणि वा णावं दुरूहइ' अधोगामिनी वा नावं दूरोहति, या जलप्रवाहेण सह जलप्रवाहानुसारेण गच्छति साऽधोगामिनी नौका कथ्यते, तामधोगामिनी जलस्रोतोऽनुगामिन्नी नौकां दूरोहति; तादृश्या नौकाया उपरि अधिरोहणं करोति कारयति वा तथा 'दुरूहतं वा साइज्जइ' दूरोहन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ११॥.
सूत्रम्-जे भिक्खू जोयणवेलागामिणि वा अद्धजोयणवेलागामिणि वा णावं दूरुहइ दुरूहतं वा साइज्जइ ॥ सू० १२ ॥
छाया-यो भिक्षुः योजनवेलागामिनी वा अर्द्धयोजनवेलागामिनी वा नावं दूरोहति, दुरोहन्तं वा स्वदते ॥ सू० १२ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'जोयणवेलागामिणि वा णावं योजनवेलागामिनी वा नावम् योजनप्रमाणां वेलां तटं गन्तुं शीलं यस्याः सा योजनवेलागामिनी योजनपरिमितजलमर्यादोल्लविनीत्यर्थः, तां योजनवेलागामिनी नौकाम् 'अद्धयोजणवेलागामिण वा णावं' अर्द्धयोजनवेलागामिनी वा नौकाम् अर्द्धयोजनपरिमित
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निशीथयो जलमर्यादायां गमनशीलाम् नावम् नौकाम् 'दुरूहई' दुरोहति ताशनौकायामधिरोहणं करोति कारयति वा तथा 'दुरूईतं वा साइज्जई' दूरोहन्तं वा नौकामधिरोहन्तम् अधिरोहणं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णावं आकसावेइ खेवावेइ रज्जुणा कटेणं वा कड्ढावेइ आकसावंतं वा खेवावंतं वा कड्डावंतं वा साइज्जइ ।। सू०१३ ॥
छाया-यो भिक्षुः नावमाकर्पयति क्षेपयति रज्ज्या काष्ठेन वा कर्पयति, आकर्षयन्तं वा क्षेपयन्तं पा कर्पयन्तं वा स्वदते ॥ सू. १३ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णावं' नावं नौकां जले संतरन्तीं जले निमजन्ती वा 'आकसावेई' थाकर्षयति-समीपे मानयितुं प्रेरयति 'खेवावेई' क्षेपयति चालनकाप्टेन अन्यद्वारा चालयति, तथा 'रज्जुणा' रज्ज्वा 'कडेण वा' काष्ठेन वा यष्टयादिना 'कहढावेई' कर्षयति-जलाद्वहिनिष्कासयति, एवम् आकप्रयन्त क्षेपयन्तं रज्ज्वा काष्ठेन वा नावं कर्षयन्तं श्रमणान्तरम् 'साइज्जई' स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० १३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णावं अलित्तएण वा दंडेण वा पफिडिएण वा वंसेण वा वलेण वा वाहेइ वाहेंतं वा साइज्जइ ।। सू० १४॥
__ छाया-यो भिक्षुः अरित्रकेण वा दण्टेन वा पफिडिपण वा वंशेन वा वलेन वा चाहयति वाहयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४ ॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णावं' नावम्-नौकाम् 'अलित्तएण वा' अरित्रकेण वा-नौचालकदण्डविशेषेण 'दंडेण वा' दण्डेन वा सामान्यदण्डविशेषेण 'पप्फिडिएण वा' 'पप्फिडिय' इति नौचालकोपकरणवाचको देशी शब्दः तेन वा 'वंसेण वा' वंशेन वा-वंशयष्ट्या वा 'वलेन वा' वला इति प्रसिद्धन पृथुलकाष्ठेन वा, एतैरुपर्युकनौकाचालकसाधनैः यः श्रमणः श्रमणी वा नौकाम् 'वाहेइ' वाहयति-चालयति स्वयं परद्वारा वा चालयति तथा 'वाहेंतं वा साइज्जई' वाहयन्तं वा नौकां चालयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स 'प्रायश्चितभागी' भवतीति ।। सू० १४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णावाउदगमायणेण वा पडिग्गहेण वा मत्तएण वा णावाउसिचणेण वा णावं उस्सिचइ उम्सिचंतं वा साइज्जइ ॥
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बर्णिभाष्यावचूरिस्उ०१८ सू० १५-३२ नौछिद्रपिधान-तगतदातुरशनादिग्रहणनि० ४०७
___ छाया-यो भिक्षुः नाबुदकभाजनेन वा प्रतिग्रहेण वा मात्रकेण वा नावृत्सिञ्चनकेन वा नावम् उत्सिऽमति-उत्सिउचन्तं वा स्वदते ॥ सू० १५॥
___ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिभिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णावाउदगमायणेण वा' नावुदकभाजनेन-नौकोदकभाजनेन, नौकासंबन्धिनोदकपात्रेण जलनिःसारकपात्रेण 'पडिग्गहेण वा' प्रतिग्रहेण-स्वकीयाहारपात्रेण वा 'मत्तएण वा' मात्रकेन-स्वकीयलघुपात्रेण वा 'णावाउस्सिंचणेण वा' नावुसिञ्चनकेन वा-नौकोसिश्चनकेन वा येन पात्रेण नौकास्थितं जलं बहिनिष्कास्यते तादृशपात्रेण 'णावं' नावं नाकाम् 'उस्सिचइ उसिञ्चति-नौकास्थं जलं नौकातो बहिनिष्कासयति तथा 'उस्सिंचतं वा उसिञ्चन्तं वा श्रमणान्तरम् 'साइजई' स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तमागी भवति ॥ सू० १५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू नावंउत्तिंगेण उदगं आसवमाणं उवरुवरि च कज्जलावेमाणं पेहाए हत्थेण वा पाएण वा आसस्थपत्तेण वा कुसपत्तेण वा मट्टियाए वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा पडिपिहेइ पडिपिहेंतं वा साइज्जइ ॥सू० १६॥
छाया-यो भिक्षु वुत्तिोन उदकमात्रवन्तम् उपर्युपरि च कज्जलावमानां प्रेक्ष्य हस्तेन वा पादेन वा अश्वत्थपत्रेण वा मृतिकया था वेलेन वा चेलकणेण वा परिपिदधाति प्रतिपिदधन्तं वा स्वदते ॥ सू० १६ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' य. कश्चिद् भिक्षुः-श्रमणः श्रमणी वा 'णावं उत्तिगेण नावृत्तिङ्गेन नौविलेन नौछिद्रेणेत्यर्थः 'उदगं आसवमाणं' उदकम् आस्रवन्तम् छिद्रेण नौकायां जलं प्रविशन्तं 'उवरुवरि च कज्जलावेमाणं' उपर्युपरीति वेगपूर्वकं कज्जलावमानां बुडन्ती प्लाव्यमानामित्यर्थः 'ब्रुडः कज्जलाव' इति वचनात् 'पेहाए' प्रेक्ष्य-दृष्ट्वा तन्निरोधार्थम् 'हत्थेण वा हस्तेन वा 'पाएण वा' पादेन वा 'आसत्थपत्तण वा' अश्वत्थपत्रेण वा पिप्पल. पत्रेण वा 'कुसपत्तेण वा कुशपत्रेण वा दर्भसमूहेन वा 'मट्टिहयाए वा मृत्तिकया वा 'चेलेण वा चेलेन वस्त्रेण वा 'चेलकण्णेण वा' चेलकर्णेन वा वस्त्रखण्डेन वस्त्रान्ति मभागेन वा 'पडिपिहेइ' प्रतिपिदधाति-छिद्रस्य मुखं निरुणद्धि अन्येन वा छिद्रनिरोधं कारयति 'पडिपितं वा साइज्जई' परिपिदधतं वा छिद्रेण- नौकायां प्रविशतो जलस्य हस्तादिना निरोध कुर्वन्तं श्रमणान्तरं यः स्वदते--अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० १६ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू णावागओ णावागयस्स असणं वा पाणंवा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेत वा साइज्जइ ॥ सू०१७॥
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निशीथसूत्रे
छाया - यो भिक्षुनौं गतो नौगतस्याशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा प्रति. गृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते ॥ सू० १७ ॥
'चूर्णी -- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' य' कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णाबागओ' स्वयं नौकास्थितः सन् 'णावागयस्स नौगतस्य नौकायामेव स्थितस्य दातुः 'असणं चा अशनं वा 'पाणं वा पानं वा 'खाइमं वा खाद्यं वा 'साइमं वा स्वाद्य वा' चतुर्विधमाहारजातम् 'पडिग्गाइ प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति, अयं भाव - नौकायामेव साधुर्भवेत् तथा नौकायामेवोपविष्टः श्रावकोऽपि भवेत् तत्र नौकास्थितः भ्रमणः श्रमणी वा नौकामध्यस्थितदातुः संबन्धि अशनादिकं स्वीकरोतीति, तथा 'पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ' प्रतिगृहन्तं श्रमणान्तरं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १७॥
४०८
An
०
सूत्रम् - एव एएणं गमेणं णावागओ जलगयस्स० || सू० १८॥ गावागओ पंकग यस्स ● ॥ सू० १९ ॥ णावागओ थलगयस्स० || सू० २०|| एवं जलगएणवि चत्तारि ॥ सू० २४ || पंकगएणवि चत्तारि ॥ सू० २८ ॥ थलगएणवि चत्तारि ॥ सू० ३२ ॥
छाया - पवम् अनेन गमेन नौगतो जलगतस्य० || सू० १८ || नौगतः पङ्कगतस्य ॥ सू० १९ ॥ नौगतः स्थलगतस्य० ॥ सू० २० ॥ एवं जलगतेनापि चत्वारि० ॥ सू० २४ ॥ पङ्कगतेनापि चत्वारि० ॥ सू० २८ ॥ स्थलगतेनापि चत्वारि० ॥ सू० ३२ ॥
चूर्णि - ' एवं एएणं गंमेणं' एवम् अनेनैव प्रकारेण - अनयैव रीत्या एतेन गमेन अनेनैव मालापकप्रकारेण 'णावागओ जलगयस्स० ॥ सू० १|| णावागभी पंकगयत्स ||० २ || णावागओ थलगयस्स० || सू० ३|| इत्यादीनि त्रीणि सूत्राणि, एकं च पूर्वोक्तम् 'णावागओ णावागयस्स' इत्यधिकम्-एवं चत्वारि सूत्राणि नौकागतसम्बन्धीनि वाच्यानि । ०२०। एवम् अनेनैव प्रकारेण 'जलगएणवि चत्तारि' जलगतेनापि चत्वारि, चत्वारि सूत्राणि तथाहि - 'जलगओ नावागयस्स' | सू० १ ॥ 'जलाओ जलगेयस्स०॥सू० २ || 'जलगओ पंकगयस्स' || सू० ३ || 'जलगओ थलगयस्स ०' ॥ सू० ४ ॥ इत्यादीनि चत्वारि सूत्राणि ४ पंकगएण वि चत्तारि' पङ्कगतेनापि चत्वारि सूत्राणि
तथाहि - 'पंकगओ नावागयस्स० ' ॥ सू० १॥ 'पंकगओ जलगयस्स ० '
॥ सू० २|| 'पंकगओ पंकगयस्स० ' ॥ सू० ३ ॥ 'पंकगओ थलगयस्स० ' ॥ ० ४ ॥ इत्यादीनि चत्वारि सूत्राणि 8 । 'थलगंएणं वि चत्तारि' स्थलगतेनापि चत्वारि सूत्राणि, तथाहि - 'थलगओ नावागयस्स ०' ।। सू० १ ॥ 'थलगओ जलगयस्त०' || सू० २ || 'थलगओ पंकगयस्त०' ॥ सू० ३ || 'थलगओ थलग यस्स ०' इत्यादीनि चत्वारि सूत्राणि -
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पणिमायावरिः उ० १८ सू० ३३-९०
वस्त्रस्य क्रयणकापणादिनिषेधः १०९
४, एवम् ‘णावगो जलगयस्स इत्यारभ्य 'थलगओ थलगयस्स इति पर्यन्तानि पञ्चदशसूत्राणि 'णावागओ णावागयस्त इनिसूत्रवद् व्याख्येयानि भेदस्तावदेतावानेव, यत् स्वस्वस्थानविपर्ययो यथायोगं कर्त्तव्य इति ॥३२॥
॥ नौका-जल-पङ्क-स्थलेति चतुर आश्रित्यात्र
षोडश भङ्गा भवन्ति, तत्प्रदर्शककोष्ठकमिदम् ॥ भङ्गाः श्रमणः
दाता श्रावकादिः १-नौकास्थितः साधुः
नौकास्थितस्य दातुः २-नौकास्थितः साधुः
जले स्थितस्य दातुः ३-नौकास्थितः साधुः
पङ्के स्थितस्य दातुः ४-नौकास्थितः साधुः
स्थले स्थितस्य दातुः ५-जले स्थितः साधुः
नौकास्थितस्य दातुः ६-जले स्थितः साधुः
जले स्थितस्य दातुः ७-जले स्थितः साधुः
पङ्के स्थितस्य दातुः ८-जले स्थितः साधुः
स्थले स्थितस्य दातुः ९-पद्धे स्थितः साधुः
नौकास्थितस्य दातुः १०-पके स्थितः साधुः
जले स्थितस्य दातुः ११-पके स्थितः साधुः
पङ्के स्थितस्य दातुः १२-पर्छ स्थितः साधुः
स्थले स्थितस्य दातुः १३-स्थले स्थितः साधुः
नौकास्थितस्य दातुः १४-स्थले स्थितः साधुः
जले स्थितस्य दातुः १५-स्थले स्थितः साधुः
पङ्के स्थितस्य दातुः १६-स्थले स्थितः साधुः
स्थले स्थितस्य दातुः अत्राह भाष्यकारःसोलसाणं च भंगाणं, जम्हा कम्हा य गिहए ।
असणाई च जो भिक्खू, आणाभंगाइ पावइ ॥ छाया-पोडशानां च भङ्गानां यस्मात् कस्माच्च गृहीयात् ।
अशनादि च यो भिक्षुः, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥
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४१०
निशीयसूत्रे । अवचूरिः- य. कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा पोडशानां च मङ्गानां मध्ये "जे भिक्खू णावागओ णावागयस्स असणं ४ पडिग्गाहेड पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' इत्यारभ्य 'जे भिक्खू थलग थलगयस्स असणं ४ पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' एतत्पर्यन्तपोडशसूत्रप्रतिपादितपोडशमङ्गमध्यात् यस्मात् कस्माञ्चिदपि भङ्गात् यस्मात्कस्माच्च कारणात् अशनादिक चतुर्विधमाहारजातं गृह्णाति गृह्णन्तं वा अनुमोदते स ज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसयमात्मविराधनादिदोषान् प्राप्नोति, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीत्यर्थः ॥ सू० ३२ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थं किणइ किणावेइ कीयमाहट्ट दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०३३॥
छाया-यो भिक्षुर्ववं क्रीणाति कापयति फ्रीतमाहत्य दीयमान प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३३ ।।
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वत्थं' वस्त्रम् चोलपट्टकादिकं च किणई' क्रीणाति-मूल्यं दत्त्वा दापयित्वा वा स्वबुद्ध्या विविच्याऽऽपणादितः क्रयणं करोति 'किणावेइ' क्रापयति स्वयमेव मूल्यं दत्वा परेण वा मूल्यं दापयित्वा परद्वारा वस्त्रस्य क्रयण कारयति, तथा, 'कीयमाटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेई' क्रीतमाहत्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति, कोऽपि दाता वस्त्रं क्रीत्वा अभिमुखमागत्य श्रमणाय श्रमण्यै वा तादृशवस्त्रं ददाति, तच्च वस्त्रं साधुः स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृहन्तं वा क्रयणं कुर्वन्तं कापयन्त क्रीतमभिमुखमागत्य दीयथानं स्वीकुर्वन्तं श्रमणान्तरं यः स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोपा अपि भवन्ति ।। सू० ३३ ॥
सूत्रम्-एवं चउद्दसमे उद्देसए पडिग्गहे जो गमो भणिओ सो चेव, इहंपि वत्थेण णेयब्बो जाव जे भिक्खू वत्थनीसाए वासावासं. वसई वसंत वा साइज्जइ, णवरं कोरणं णत्थि ॥ सू०३४-९०॥
छाया एवं चतुर्दशे उद्देशके प्रतिग्रहे यो गमो भणितः स एव इहापि वस्त्रेण ज्ञातव्यः । यावद् यो भिक्षुः वस्त्रनिश्रया वर्षावास वसति वसन्तं वा स्वदते, नवरं कोरणं नास्ति ॥ सू० ३४-१०॥
__चूर्णी-'ए' इत्यादि । ‘एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण यथा-'चउइसमे उद्देसए 'चतुर्दशे उद्देशके 'जो गमो भणिओ' यो गमः-प्रतिग्रहविषयको एकोनपष्टि(५९)संख्यकसूत्रात्मको भणित:-कथितः 'सो चेव' स एव-तादृश एव गमः 'इपि' इहापि 'वत्थेण' वस्त्रेण सह
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निमायावरि: उ० १८.सू० ३४-९१
उद्देशकपरिसमाप्तिः ४११ 'णेयचो' ज्ञातव्यः-वस्त्रविषयको गमः सर्वोऽपि प्रतिग्रहगमवदेवात्र वक्तव्यः । कियत्पर्यन्तमित्याह'जाव' इत्यादि । 'जाव' यावत् 'जे भिक्खू वत्थनीसाए वासावासं वसई' यो भिक्षुः वस्त्रनिश्रया वर्षावासं वसति, 'वसंतं वा साइज्जइ' वसन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति । प्रतिग्रहगमापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदाह-'णवरं इत्यादि । 'णवरं' नवरं केवलं विशेष एतावानेव यत् प्रतिग्रहगमे पात्रस्य कोरणं तीक्ष्णलोहादिशलाकया आकृतिविशेषविलिखन तिद्वषयकमेकं पञ्चपञ्चाशत्तम सूत्रं प्रोक्तम् , वस्त्रगमे 'कोरणं नस्थि' कोरणं नास्ति एक पञ्चपञ्चाशत्तम कोरणमूत्रं न वक्तव्यमिति भावः वस्त्रे कोरणासंभवादिति । अत्र चतुर्दशोहेशकप्रथममूत्रादारभ्य एकोनपष्टिमूत्रपर्यन्तानि कोरणसूत्रमन्तरेण अष्टपञ्चाशसंख्यकानिः सूत्राणि अत्राष्टादशोदेशके पठितव्यानीति भावः ॥ सू० ३४-१०
अत्राह भाष्यकारः--
जो उ चउद्दसोदेसे, गमो वुत्तो पडिग्गहे । कोरणेण विणा सव्वो. वत्थेऽद्वारसमे मओ ॥ छाया-यस्तु चतुर्दशोहेशे गमः प्रोक्तः प्रतिग्रहे ।
कोरणेन विना सर्वो वस्त्रेऽष्टादशके मतः ॥ अवचूरिः- एतस्यैव निशीथसूत्रस्य चतुर्दशोदेशके प्रतिग्रहे पात्रं दारुपात्रमधिकृत्य यो गमः कृतः स एव सर्वः संपूर्णोऽपि कोरणसूत्रं परित्यज्य भष्टपञ्चाशत्सूत्रात्मकोऽत्र अष्टादशोदेशके वस्त्रे वस्त्रमधिकृत्य मतो ज्ञातव्यः । अयं भावः-'जे भिक्खू वत्थं किणइ किणावेइ कीयं आहहु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' इत्यारभ्य 'जे भिक्खू वत्थनीसाए वासावासं वसइ वसंतं वा साइज्जई' इतिपर्यन्तानि अष्टादशोदेशकसूत्राणि चतुर्दशोदेशके यथा व्याख्यातानि ते व प्रकारेण अत्रापि तेषां सूत्राणां व्याख्यानं कर्त्तव्यम् , उभयत्रैतावानेव मेदो यत् चतुर्दशोदेशके पात्रं दारुकाघधिकृत्य सूत्रप्रणयनं तद्व्याख्यानं च कृतम् , अत्र अष्टादशोद्देशके तु पात्रस्थाने वस्त्रं निवेशयित्वा सूत्राणां प्रणयनं तथा तद्वयानं च कर्त्तव्यम्, विशेषजिघृक्षभिश्चतुर्दशोद्देशकस्यैव अवलोकन कर्त्तव्यमिति ॥ सू० ३४-९० ।।
सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्घाइयं ॥ सू० ९१॥
॥ निसीहज्झयणे अट्ठारसमो उद्देसो समत्तो ॥ १८ ॥ छाया--तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिक परिहारस्थानमुद्घातिकम् ॥१८॥
॥ निशीथाध्ययने अष्टादशोद्देशकः समाप्तः ॥१८॥
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निशीथसूत्रे
चूर्णी - 'तं सेवमाणे" इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् अष्टादशोदेशकोक्तं प्रायश्चितस्थानम् 'सेवमाणे' सेवमान:- तादृशप्रायश्चित्तस्थानस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् श्रमणः श्रमणी वा 'आवज्जइ आपद्यते - प्राप्नोति- 'चाउम्मासिय' चातुर्मासिकम् 'परिहारद्वाणं' परिहारस्थानं - प्रायश्चितम् 'उम्घाइयं' उद्घातिकं लघुकम्, नौकारोहणत आरम्य वस्त्रनिश्रया वर्षावासनिवासपर्यन्तोतेषु अकृत्यस्थानेषु मध्यात् एकं द्विकम् अनेकं सर्व वा पापस्थानं सेवमानः श्रमणः श्रमणी वा लघुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति ॥ सू० ९१ ॥
इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषाकलित ललित कलापालापकप्रविशुद्ध गद्यपद्यनैकप्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्री शाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य " - पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालवति - विरचितायां "निशीथसूत्रस्य" चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् अष्टादशोदेशकः समाप्तः ॥ १८॥
४१२
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॥ एकोनविंशतितमोद्देशकः ॥ अष्टादशोदेशकं व्याख्याय भवसरप्राप्त एकोनविंशतितमोदेशको व्याख्यायते । तत्र एकोनविशतितमोद्देशकादिसूत्रस्य अष्टादशोदेशकान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ! इत्यत्राह भाष्यकार:भाष्यम् -अट्ठारसे निसिद्धं जं, तं चेवेत्थ निसिज्मइ ।
पुन्चपच्छिममुत्ताणं, संबंधो इणमो इहं ॥१॥ छाया-अण्टादशे निपिद्धं यत् तदेवात्र निषिध्यते ।
पूर्वपश्चिमसूत्रयोः सम्बन्धोऽयमिह ॥१॥ । अवचूरिः-अष्टादशे उद्देशके यद् वस्तु निषिद्धं यस्य वस्तुनो निषेधः कृतः तदेव वस्तु अत्र एकोनविंशतितमे उद्देशके निषिध्यते, अयं भावः-यः श्रमणः श्रमणी वा ऋतुबद्धे वर्षावासे वा काले वस्त्रादिलाभभावनया निवास करोति स श्रमणः श्रमणी वा यतनायुक्तोऽपि प्रमादं लभते, एवं प्रकारेण अष्टादशोद्देशकस्यान्तिमभागे प्रमाद एव प्रदर्शितः, अत्रापि एकोनविंशतितमो देशकस्यादिसूत्रे प्रमाद एव प्रदश्यते, अयमेव-एककार्यकारित्वरूप एव सम्बन्धः पूर्वपश्चिमसूत्रयोः अष्टादशोदेशकान्तिमसूत्रकोनविंशतितमोद्देशकादिसूत्रयोः सम्बन्धो भवति, तदनेन सम्बन्धेन आयातस्य प्रकृतो देशकप्रथमसूत्रस्य व्याख्यानं प्रस्तूयते । तत्र यद्यपि क्रयक्रीतादिवस्तुनो निराकरणं पूर्व कृतमेव तथापि बहुमूल्यवस्तु साधोरकल्पनीयं भवतीति तद्ग्रहणे महान् दोष आषधते इति ज्ञापनाय पुनरप्याह
सूत्रम्-जे भिक्खू वियर्ड किणइ किणावेइ कीयं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेतं वा साइज्जइ ।। सू० १॥
छाया-यो भिक्षुर्विकृतं क्रोणाति क्रापयति क्रीतमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० १॥
घूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वियई किणई' विकृतं क्रीणाति, तत्र विकृतं विकृत्या संपाद्यमानं व्यपगतजीवमचित्तं प्रपाणकादिकं वस्तु यत् साधूनां साध्वीनां वा ग्रहीतुं कल्पते तादृशमचित्तमपि प्रपाणकादि वस्तु बहुमूल्यं क्रीणातिमूल्यं दत्वा स्वयमेव क्रयणं करोति मूल्यं दत्वा स्वीकरोतीत्यर्थः 'किणावेई' कापयति, अचित्तबहुमूल्यप्रपाणकादि वस्तुनः परद्वारा मूल्यं दापयित्वा क्रयणं कारयति तथा 'कीयमाहटु दिज्जमाणं' क्रीतमाहृत्य दीयमानम् अन्यः कोऽपि श्रमणार्थं मूल्यं दत्त्वा प्रपाणकादि क्रीणाति तद्वस्तु अभिमुख
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निशोथस्त्रे मागत्य श्रमणाय समर्पयति तादृशं दीयमानं वस्तु यः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिग्गाहेड' प्रतिगृह्णातिस्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृहन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वियडं पामिच्चेइ पामिच्चावेइ पामिच्चं आहट दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा । सू० २॥
छाया- यो भिक्षु. विकृतं प्रामित्यति प्रामित्ययनि प्रामित्यमाहत्य दीयमानं प्रतिगृह्याति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० २ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षु. श्रमणः श्रमणी वा 'वियर्ड' विकृत-बहुमूल्यमचित्तं श्रमणानां श्रमणानां वा कल्पनीयं प्रपाणकादिकं 'पामिच्चेइ':प्रामित्यति प्रतिप्रदानप्रतिज्ञया ग्रहणं करोति उद्धाररूपेण गृहातीत्यर्थः 'पामिच्चावेई' प्रामित्ययति-उद्धाररूपेण परद्वारा ग्रहणं कारयति तथा 'पामिच्चं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेई' प्रामित्यमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति तथा 'पडिग्गात वा साइज्जई' प्रतिगृहन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० २ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू वियर्ड परियट्टेइ परियड्रावेइ परियट्टियं आहट्ट दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ स०३॥
छाया-यो भिक्षुः विकृतं परिवर्त्तते परिवर्तयति परिवर्तितमाहत्य दीयमानं प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ।। सू० ३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वियर्ड' विकृतमचित्तं व्यपगतजीवम् द्राक्षासवादिप्रपाणकं बहुमूल्यम् 'परियटेइ' परिवर्तते, तत्र परिवर्तनं पसवर्तनम् स्वकीयाशनवत्रादेरन्यस्मै समर्पणम् अन्यस्य प्रपाणकादिकस्य स्वयं ग्रहणम्, स्वकीयमशनवस्त्रादिकमन्यस्मै ददाति अन्यस्य प्रपाणकादि द्रवद्रव्यं स्वयं गृहाति एवं परिवर्तनं करोति 'परियटावेई' परिवर्तयति परद्वारा परावर्तनं कारयति तथा परियट्टियं आहटुदिज्जमाणं पडिग्गाहेइ' परिवर्तितमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति, अन्यः कोऽपि समीचीनाशनक्लादीनां परावर्तनं कृत्वा तादृशं प्रपाणकादिवस्तुनातं गृहीत्वा श्रमणाय ददाति तादृशं दीयमानं तत् प्रपाणकादिकं यः श्रमणः श्रमणी वा प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति स्वीकारयति वा तथा 'पडिम्गाहें वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा परावर्तिताचित्तबहुमूल्यद्रवपदार्थस्य ग्रहणं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं यः स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागो भवति ॥ सु० ३ ।।
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वर्णिभाष्यावचूरिः उ०१९ सू०१-५ विकृतस्य क्रयणकापणादिनिषेधः ४१५
सूत्रम्--जे भिक्खू अच्छेज्जं अणिसिट्ठ अभिहडं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ॥ सू०४॥
छाया-यो भिक्षुराच्छद्यमनिसृष्टमभिहतमात्य दीयमान प्रतिगृह्णाति, प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥सू०४॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अच्छेज्ज' आच्छेद्यं बलात्कारपूर्वकं गृहीतम् १, 'अणिसि?' अनिसृष्टम् वस्तुस्वामिन मननुज्ञाप्य गृहीतं यत् तत् अनिसृष्टम् २, 'अभिहडं आह?' अभिहृतम्-अन्यप्रदेशादानीतं संमुखमागत्य 'दिज्जमाणं' दीयमानम् 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति-परेण वा प्रतिप्रायति 'पडिग्गाहेंतं वा साइजइ प्रतिगृहन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।
अत्राह भाष्यकार:वियर्ड बहुमुल्लं जं, कीयाइभेयगं जई।
गिण्हेइ मोहओ जो उ, आणाभंगाइ पावई ॥१॥ छाया-विकृतं बहुमूल्यं यत् फ्रीतादिभेदकं यतिः ।
- गृहाति मोहतो यस्तु आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥१॥
अवचूरिः- यः कश्चित् यतिः श्रमणः श्रमणो वा मोहतो-मोहनीयकर्मोदयात् विकृतं बहुमूल्यं क्रीतादिभेद भिन्नम् आदिशब्देन प्रामित्यमाच्छेद्यमनिसृष्टमभिहतमित्येवंभेदयुक्तं गृहाति, तादृशस्य ग्रहणं स्वयं कुर्यात् कारयेद्वा तत् क्रीतादिकमभिमुखमानीय दीयमानं स्वीकर्यात स्वीकुर्वन्तमनुमोदते तथा अशनवखादिना परिवर्तनं करोति कारयति वा तथा परेण दीयमानं परिवर्तितद्रव्यग्रहणं कुर्वाणं श्रमणान्तर स्वदते-अनुमोदते म आज्ञाभङ्गादिकं मिथ्यावं संयमविराधनमात्मविराधनं च प्राप्नोति तस्मात् क्रीतादिभेदयुक्तस्य द्रव्यस्य ग्रहणं स्वयं न कुर्यात् न वा कारयेत् न वा कुर्वन्तं श्रमणान्तरं कमपि अनुमोदयेदिति ॥ सू० ४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गिलाणस्स अट्ठाए परं तिण्हं वियडदत्तीणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०५॥
छाया--यो भिक्षुर्लानस्यार्थाय परं तिसृणां विकृतदत्तीनां प्रतिगृहाति प्रतिगृह न्तं पा स्वदते ।।सू०५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'श्रमणः श्रमणी वा 'गिलाणस्स अट्ठाए' ग्लानस्यार्थाय, तत्र ग्लानः-सघोघातिकुक्षिशूलादिरोगातकैः परिपीडितः,
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निशीथसूत्रे
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तस्य तादृशस्य ग्लानस्य अर्थाय प्रयोजनाय गाढागाढकारणमाश्रित्येत्यर्थः यदि विकृतदत्ते हणावश्यकता लक्ष्येत तदा एकद्वित्रिदत्तीर्यहीतुं कल्पते नाधिकमित्याह - ' परं ति०हूं' परं तिसृणाम् 'वियडदत्तीणं' विकृतदत्तीनाम् तत्र विकृतं - द्राक्षादिविकृत्या संपाद्यमानं निकृतिको रकत्वाद विकृतं तस्य विकृतस्य तिसृभ्यो दत्तिभ्योऽधिकम्, तत्र दत्तिरिति अविच्छिन्नं पतन्तो द्रवद्रव्यधारागृहाते, तथा च विकृतानामचितबहुमूल्यप्रपाणकद्राक्षासवकुमार्यासवादीनाम् अन्येषां वा तथाविध द्रवपदार्थानां दत्तित्रयादधिकम् 'पडिग्गा हे' प्रतिगृह्णाति ग्लानप्रयोजनमासाद्य दत्तित्रयादधिकं विकृतं स्वीकरोति, तथा - 'पडिग्गाहतं वा साइज्जइ' प्रतिगृहन्तं वा ग्लानप्रयोजनेनापि दत्तिश्रयादधिकं गृह्णन्तं श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
नात्र विकृतशब्दस्य मद्याद्यर्थः किन्तु विकृतस्य मद्याद्यर्थो निशीथचूण्या लम्यते, तद्ग्रहणविधिश्च तथाहि तत्र भाष्ये यदुक्तम्- "वितियपदं गेलण्णे, विज्जुवपसे तहेव सिक्खाए । एतेहि कारणेहिं, जयणाए कप्पती चेत्तुं || ६०३ ४ | (१० २२० सन्मतिज्ञानपीठ मागरामुद्रित) तच्चूर्णिर्यथा: - ' वेज्जोए सेणगिलाणट्टा घेप्पेज्ज कस्सति कोति चाही तेणेव उपसमति तिण दोसो | गिलाणहा वा वेज्जो आणितो तस्सहा वा धिप्पेज्जा । पकप्पं वा सिक्खतो गहणं करेज्जा ||६०३४ ||
छाया - द्वितीयपदम्--ग्लाने वैद्योपदेशे तथैव शिक्षायाम् । एतैः कारणैः वतनया कल्पते ग्रहीतुम् ||६०३४॥
वैद्योपदेशेन ग्लानार्थ गृह्णीयात् कस्यापि कोऽपि व्याधिस्तेनैव उपशाम्पति इति न दोषः । ग्लानार्थ वा वैध आनीतः तस्यार्थ वा गृह्णीयात् प्रकल्पं वा शिक्षन् ग्रहणं कुर्यात् ||६०३४॥ इति तन्मोहविजृम्भितम् | साधूनां तस्य सर्वथा निषिद्धत्वात् ।
"
अत्राह भाष्यकारः---
भाष्यम् - जो य भिक्खू गिलाणट्ठा, तिन्हं दत्तीण जं परं । गिण्हेज्जा गाहएज्जा वा आणाभंगाइ पावइ ॥ १ ॥
छाया - यश्च भिक्षुग्लनार्थं तिसृणां दत्तीनां यत् परम् । गृहीयाद् ग्राहयेद वा आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥
अचचूरिः - यश्च कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा ग्लानार्थं कुक्षिशूलादिरोगवतः श्रमणस्य प्रयोजनाय यदि ग्रहणीयमापयेत तदा विसृणां विकृतदत्तीनाम् अचित्तद्रवसम्बन्धिनीनां परं त्रयादधिकं गृह्णीयात् स्वीकुर्यात् ग्राहयेद् वाऽन्यद्वारा स श्रमणः श्रमणी वा आज्ञा भङ्गादिकं मिध्यात्वं संयम विराधनामात्मविराधनां च प्राप्नोति तथा दत्तित्रयादधिकग्रहणे लोकानां तदुपरि अविश्वासः
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पर्णिभाष्यावचूरिःउ• १९ सू० ५-८ विकृतग्रहणगालन-चतुःसन्ध्यास्वाध्यायनिषेधः ४१७ स्यात् यथाऽयं प्रबजितो भूत्वाऽपि शास्त्राज्ञारहितदत्तित्रयादधिकं स्वीकरोतीति, तथा साधोलाभदशाऽपि प्रकटा भवति, तथा-ग्लानस्यातिमात्राग्रहणेनाऽसह्यतया शरीरऽन्यो रोगः समुत्पद्यते तेना
ज्मविराधना, शरीरे विषयविकारोऽपि समुत्पद्यते तेन संयमविराधनाऽवश्यम्भाविनी, लोके च तद्विषये शङ्का जायते यदयमेतादृशवस्तुजातमधिकं विना कारणं शरीरपुष्ट्यर्थ भुते तेन ज्ञायतेऽयं कामी कामविषयमपि सेवते इति प्रतिभाति, तथाऽयं दरिद्रकुलोत्पन्नोऽस्ति येनाऽयं पूर्व स्वगृहे नेतादृशं वस्तु दृष्टवान् अतोऽधिकाहारलोलपोऽस्तीत्येवं लोके निन्दा प्रवचनहोलना चापि भवति, इत्यादिकारणात् ग्लानार्थमपि दत्तित्रयादधिकं किमपि एतादृशद्रववस्तु न स्वयं गृह्णीयात्, वा परान् ग्राहयेत् न, वा गृहन्तं श्रमणान्तरमनुमोदयेदिति ।। सू० ५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वियडं गहाय गामाणुगामं दूइज्जइ दूइज्जतं वा साइज्जइ ॥ सू०६॥
छाया-यो भिक्षुर्विकृतं गृहीत्वा प्रामानुग्राम द्रवति द्रवन्तं वा स्वदते ॥० ६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वियर्ड गहाय' विकृतम्-अचित्तमपि प्रपाणकादिकम् एकस्मिन् ग्रामे गृहीत्वा अग्रे पानार्थं 'गामाणुगामं
दुइज्जई' ग्रामानुग्रामं द्रवति-एकस्माद्ग्रामात् क्रोशद्वयादूर्ध्व प्रामान्तरं गच्छति तथा 'दुइज्ज • माणं वा साइज्जई' द्रवन्तं-गच्छन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।
अत्राह-माष्यकार:भाष्यम्-कारणाकारणेहिं जो, गहाय वियर्ड जइ ।
गामाणुगाम दुइज्जा, आणाभंगाइ पावइ ॥१॥ छाया-कारणाकारणाभ्यां यः गृहीत्वा विकृतं यतिः ।।
ग्रामानुग्राम द्रवेत् आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥१॥ अवचूरिः-कारणाकारणाभ्यां-कारणतोऽकारणतो वा यो यतिः-साधुः अचित्तं विकृतं दवनातं प्रपाणकादिकं गृहीत्वा यत्र ऋतुबद्धं वसति वर्षावासं वा वसति तस्मिन् ग्रामे एवमसति .लामे अचित्तं प्रपाणकादिकं गृहीत्वा यदि यः श्रमणः श्रमणी वा प्रामानुग्रामं द्रवेत्-क्रोशद्वयादूर्ध्व गच्छेत्-स श्रमणः श्रमणी वा आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोति ॥ सू० ६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वियडंगालेइ गालावेइ गालियं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं.वा साइज्जइ ।। सू०७॥
छाया-यो भिक्षुर्विकृतं गलति गालयति गालितमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७ ॥
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निशीथस्त्र चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्विक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'विथड' विकृतम् अचित्तं गुडशर्करादिजलम् 'गालेइ' स्वयं गलति-वस्त्रेण निस्तारयति, वस्त्रपूतं करोतीत्यर्थः । यद्वा-विकृतम् अचित्तं गुडशर्करादिकं गलति-जले निक्षिप्य द्रवीकरोति गुडादिकं जलमिश्रितं करोतीत्यर्थः 'गालावेई' गालयति परद्वारा तथाभूतं कारयति तथा- 'गालियं. आहटु दिज्जमाणं' गालितमाहृत्य गलितं सत् संमुखमागत्य दीयमानम् 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंत वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ॥ सू० ७ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू चउहि संझाहिं सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ। तं जहा-पुवाए संझाए, पच्छिमाए संझाए, अवरण्हे , अद्धरत्ते ॥ सू० ८॥
छाया-यो भिक्षुश्चतसृषु संध्यासु स्वाध्यायं करोति कुर्वन्तं पा स्वदते । तद्यथापूर्वस्यां सन्ध्यायां, पश्चिमायाम् सन्ध्यायाम्, अपराण्हे, अर्द्धरात्रे ।। सू० ८ ॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जेभिक्खूयः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणो वा 'चउहि संझाहि' चतसूपु संध्यासु 'सज्झाय स्वाध्यायं सूत्रार्थतदुभयानां पठनं, पठितानां च परिवर्तनम् 'करेइ' करोति तथा 'करेंत वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते । अथ कास्ताचतस्रः सन्ध्याः ! इत्याह-'तंजहा' इत्यादि । 'तंजहा' तद्यथा-'पुच्चाए संभाए' पूर्वस्या सन्ध्यायाम्-पूर्वकालिकसंध्यायां सूर्योदयसमये-सूर्योदयात्पूर्व मुहर्तार्द्धादारभ्य सूर्योदयानन्तरं मुहूर्ताद्धं यावत् अस्वाध्यायकालः तस्मिन् अस्वाध्यायकाले, तथा 'पच्छिमाए संझाए' पश्चिमायां संध्यायां सूर्यारतकाले एवं सूर्यास्तात्पूर्व मुहर्तार्द्धादारभ्य सूर्यास्तानन्तरं मुहूर्ताच यावत् पश्चिमसन्ध्या, स च कालः अस्वाध्यायकालः तस्मिन् मुहूतेककाले 'अवरण्हे' अपराण्हे. मध्याहस्यार्धा मुहूर्तपूर्वापरकाले इत्यर्थः 'अद्धरत्ते' मर्द्धरात्रे निशीथे तत्राऽपि-अर्द्धमुहूर्तपूर्वापरकाले, एताश्चत्स्रः सन्ध्याः अस्वाध्यायकालः, एतासु अस्वाध्यायकालरूपासु चसृषु सन्ध्यासु यः श्रमणः श्रमणी वा सूत्रार्थतदुभयानां परिवर्तनलक्षणं स्वाध्यायं करोति तथा-कुर्वन्तं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ८ ॥
सूत्रम्-जे सिक्खू कालियसुयस्स परंतिण्हं पुच्छाणं पुच्छइ पुच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९॥
___ छाया-यो भिक्षुः कालिकश्रुतस्य परं तिसृणां पृच्छानां पृच्छति पृच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू० ९॥
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ० १९ सू० ९-१२ कालिकयुताद्यतिपृच्छा महामहादिस्वाध्यायनि० ४१९
चूर्णी - 'जे भिक्खु' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्विक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कालिय सुयस्स' कालिकश्रुतस्य यत् श्रुतं काले नियतकाले एवाधीयते तत् कालिकश्रुतम्, यस्य श्रुतस्याध्ययनम् दिवसस्य रात्रेर्वा प्रत्येकं प्रथमान्तिमप्रहरे अस्वाध्यायकालं वर्जयित्वाऽध्यययनं क्रियते तत्कालिकश्रुतम् आचाराङ्गादिकम् तस्य, कालिकश्रुतस्य 'परं तिन्हं पुच्छाणं' परं तिसृणां पृच्छानाम् पृच्छात्रयादधिकम्, तत्र एकस्यां पृच्छायां सूत्रत्रयं भवति ततः पृच्छात्रये नव सूत्राणि भवन्ति ततश्च कालिकश्रुतस्य अकाले यत्र काले सूत्र नाघीयते सोऽकालः, तस्मिन् नवसूत्रादधिकम् 'पुच्छर' पृच्छति - पृच्छां करोति 'पुच्छंतं वा साइज्जइ' पृच्छन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-- अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ९ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू दिट्टिवायरस परं सत्तण्हं पुच्छाणं पुच्छइ पुच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १० ॥
छाया -यो भिक्षुर्हष्टिवादस्य परं सप्तानां पृच्छानां पृच्छति पृच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू० १० ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्विक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिट्ठिवायस्स' दृष्टिवादस्य द्वादशमङ्गं दृष्टिवादस्तस्य ' परं सत्तण्हं पुच्छाणं पुच्छर' परम्अधिकं सप्तानां पृच्छानाम्– सप्तपृच्छातोऽधिकम् तत्र - कालिकश्रुते एकस्यां पृच्छायां सूत्रत्रयं भवति, पृच्छात्रये च नव सूत्राणि भवन्ति, दृष्टिवादेऽपि एकस्यां पृच्छायाम् सूत्रत्रयं भवति सप्त पृच्छायां एकविंशतिः सूत्राणि भवन्ति ततश्च यथोक्तपृच्छातोऽधिकं यः श्रमणः श्रमणी वा आचार्यम् 'पुच्छर' पृच्छति तथा 'पुच्छंतं वा साइज्ज' पृच्छन्तं वा श्रमणान्तरं यः स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १० ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खूचउसु महामहेसु सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ । तं जहा - इंदमहे, खंदमहे, जक्खमहे, भूयमहे ॥ सू० ११ ॥
छाया - यो भिक्षुचतुर्षु महामहेषु स्वाध्यायं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते । तद्यथाइन्द्रमहे, स्कन्दमहे, यक्षमहे, भूतमहे । सू० ११ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'चउसुमहामहेसु' चतुर्षु चतु संख्यकेषु वक्ष्यमाणेषु महामहेषु - महामहोत्सवेषु, तत्र रन्धन - पचन-पाचनखाटन-पान-नृत्य-गीत- प्रमोदादिरूपेषु ये महता समारोहेण महोत्सवाः ते महामहाः, तेषु महोत्सवेषु तादृशमहोत्सवसमये तत्स्थाने यः श्रमणः श्रमणी वा 'सज्झायं' स्वाध्यायम् सूत्रार्थतदुमयपठनरूपम् 'करेइ' करोति तथा 'करेंतं वा 'साइज्जइ' कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते
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निशीथसूत्रे
४२०
स प्रायश्चित्तभागी भवति । तानेव महामहान् प्रदर्शयति- 'तं जहा ' इत्यादि । 'तं जहा ' तद्यथा'ईंदमहे' इन्द्रनामंकदेवस्य महोत्सवे चैत्री पूर्णिमायां जायमाने 'खंदमहे' स्कन्दम हे स्कन्दः कार्ति - केयः, तस्य महोत्सवे आषाढी पूर्णिमायां जायमाने 'जक्खमहे' यक्षमहे - यक्षमहोत्सवे - आश्विनीपूर्णिमायां जायमाने 'भूयमहे' भूतमहे - व्यन्तरदेवमधिकृत्य जायमाने महोत्सवे - कार्तिकी पूर्णिमायां जायमाने, उपर्युक्तमहोत्सवचतुष्टयसमये यावत् महोत्सवस्यान्तिमः समयो भवति तावदित्यर्थः तत्स्थाने च यः श्रमणः श्रमणी वा स्वाध्यायं समाचरति तथा समाचरन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ११॥
सूत्रम् - जे भिक्खू चउसु महापविएस सज्झायं करेइ करेंत वा साइज्जइ । तं जहा - सुगिम्हियपाडिवए, आसाढीपाडवए, आसोईपाडिव, कत्तियपाडिव || सू० १२ ॥
छाया -यो भिक्षुश्चतसृपु महामतिपत्सु स्वाध्यायं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते तद्यथा - सुग्रीष्मिक प्रतिपदि, आषाढीप्रतिपदि, आश्विनीप्रतिपद, कार्त्तिकी प्रतिपदि ॥सु० १२ 'चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जेभिक्खू' यः कश्विद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'चउसु महापडिवएस चतसृषु महाप्रतिपत्सु पूर्वीक चतुर्महोत्वानामनन्तरं जायमानासु बहुलप्रतिपत्सु 'सज्झायं करेs' स्वाध्याय - सूत्रार्थतदुभयस्य अध्ययनं करोति तथा 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायवित्तभागी भवति, तत्र काः ताः महाप्रतिपदः यासु स्वाध्यायस्य प्रतिषेधः क्रियते ? तत्राह - 'तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा ' तद्यथा - 'सुगिम्हिय पाडिवए' सुग्रीष्मकप्रतिपदि चैत्रशुक्लपूर्णिमाया अनन्तरं जायमानायां वैशाख कृष्णप्रतिपदि, 'आसाढीपाडवए' आषाढीप्रतिपदि आषाढसम्बन्धिप्रतिपदि आपाढशुक्लपूर्णिमाया अनन्तरं जायमानायां श्रावणकृष्णप्रतिपदि एवम् 'आसोईपाडिवए' आश्विनीप्रतिपदि - आश्विनपूर्णिमाया अनन्तरं जायमानायां कार्त्तिक कृष्णप्रतिपदि 'कत्तियपाडिवर ' कात्तिको प्रतिपदि कार्त्तिकपूर्णिमाया अनन्तरं जायमानायां मार्गशीर्पकृष्णप्रतिपदि । एतासु पूर्वीकासु चतसृषु प्रतिपत्सु देवा गमनागमनं कुर्वन्ति शास्त्र- ' 'स्य देवानां च भाषा एकैवेति यदि एतासु तिथिषु अध्ययनं करिष्यन्ति तदा यदि तत्राशुद्धमुच्चारणं स्यात् तदा रुष्टास्ते देवा विघ्नं करिष्यन्तीति कृत्वा एत्तासु तिथिषु स्वाध्यायस्य निषेधः कृतो भवति ||सू० १२॥
सूत्रम् -- जे भिक्खु पोरिसिं सज्झायं उवाइणावेइ उवाइणावतं वा साइज्जइ ॥ सू० १३ ॥
छाया - यो भिक्षुः पौरुपीं स्वाध्यायीमतिक्रामति अतिक्रामन्तं वा स्वदते ॥ सू० १३ ॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १९ सू० १३-१६ कालानपेक्षस्वाध्यायकरणाकरणनिषेधः ४२१
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पोरिसिं' पौरुषीम् अहोरात्रयोः प्रथमचरमकालभावित्वेन चतुर्विधां पौरुषीम्, कथम्भूताम् ? 'सज्झायं' स्वाध्यायी-स्वाध्याययोग्यां, यत. कालिकश्रुतस्य अहोरात्राभ्यन्तरे चतुःपौरुपीरूपाश्चत्वारः स्वाध्यायकाला भवन्ति तादृशीः स्वायाययोग्याश्चतस्रः पौरुपीः चतुःसख्यकाः पौरुषोरित्यर्थः, 'उबाइणावेई' अतिक्रामति पौरुषीकाले स्वाध्यायं न करोति. तथा 'उबाइणावेतं वा साइज्जइ' पौरुषीकालिकस्वाध्यायमतिकामन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तदेव विशपते-दिवसस्य प्रथमचरमकालभाविन्यौ । पौरुष्यो, एवं रात्रेः प्रथमचरमकालभाविन्यौ द्वे पौरुण्यो, एवमहोरात्रमध्ये चतन्नः पौरुथ्यो भवन्ति, एतासु चतसृष्वेव पौरुपीपु कालिकश्रुतस्य स्वाध्यायो गुणनं वा भवितुमर्हति, अन्यासु. अहोरात्रसम्बधिद्वितीयतृतीयरूपासु चतस्पु पौरुषीषु एवं क्रमः-दिवसस्य द्वितीयपौरुष्यामुत्कालिकथुतस्य ग्रहणं ध्यानं वा कुर्यात्, अर्थ वा शृणुयात् । ततीयपौरुप्यां भिक्षार्थहिण्डनं, तदभावे उत्कालिकश्रुतस्य पठनं पूर्वगृहीतस्य गुणनं तदर्थश्रवण वा कुर्यात् । एवं सद्वितीयोरुप्यामुत्कालिकश्रुतस्य ग्रहणं ध्यानमर्थश्रवणं वा कुर्यात्, वतीयपौरुण्यां निद्रां तन्मोक्षं च कुर्यात् , अथवोत्कालिकस्य ग्रहणं गुणनं या कुर्यात् ।
उकंच शास्त्रे.-"पढमे पोरिसी सज्झायं, बीए झाणं झियायइ ।
तइयाए भिक्खायरियं, चउत्थीए गुणोवि सज्झायं ॥१॥ पढमे पोरिसी सज्झाय वीए झाणं झियायइ । तइयाए निदमोक्खं च, चउत्थीए पुणोवि सज्झायं ॥२॥" इति । छाया-प्रथमायां पौरुभ्यां स्वाध्याय, द्वितीयायां ध्यानं ध्यायति ।
तृतीयायां भिक्षाचर्या, चतुर्थी पुनरपि स्वाध्यायम् ॥शा दिवसे । प्रथमायां पोरुप्या स्वाध्याय, द्वितीयायां ध्यान ध्यायति ।
तृतीयायां निद्रां तन्मोक्षं च (कुर्यात्) चतुर्थी पुनरपि स्वाध्यायम् ॥रात्रो॥ सूत्रम्-जे भिक्खू चउक्कालं सज्झायं न करेइ न करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १४ ॥
छाया-यो भिक्षुश्वातुष्काल स्वाध्याय न करोति न कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४ा
ची---'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'चउकालं' चातुष्कालम्-कालचतुष्टयसंबन्धिनं स्वाध्याय दिवसस्य प्रथमप्रहरे चरमप्रहरे च तथा रागः प्रथमप्रहरे चरमप्रहरे चेति अहोरात्रस्य कालचतुष्टये इत्यर्थः 'सज्झायं न करेई' स्वाध्यायं म करोति तथा ' न करेतं वा साइज्जइ' न कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥१४॥
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निशीथसूत्रे કરશે
सूत्रम्--जे भिक्खू असल्झाइए सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ छाया -यो भिक्षुरस्वाध्यायिक स्वाध्यायं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते । सू० १५॥
चूर्णी. -'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'असज्झाइए' भस्वाध्यायिके काले-सूर्योदयादनन्तरमर्द्धमुहूर्तसमये सूर्यास्तसमयात्पूर्व अर्द्धमुहूर्तसमये तथा रात्रावपि सूर्यास्तसमयादनन्तरममुहूर्तसमये, निशावसानेऽपि सूर्योदयात्पूर्वमर्द्धमुहूर्तसमये, एवं दिवा रात्री च चतुर्यु भस्वाध्यायकालेषु 'समायं स्वाध्यायं सूत्रार्थयोर्वाचनालक्षणम् 'फरेइ' करोति तथा 'करेंत' वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ।।सू० १५॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अप्पणो असज्झाइए सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १६||
छाया-यो भिक्षुरात्मनोऽस्वाध्यायिले स्वाध्यायं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥
चूर्गी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अप्पणो असज्झाइए' आत्मनः स्वकीयशरीरसंबन्धिनि अस्वाभ्यायिके काले, सत्र स श्रमणस्यैकविधः-त्रणाशोंभगन्दरादिरूपः, श्रमण्या द्विविधः व्रणादिसमुत्थः १ ऋतुसमुत्थच २, तस्मिन् एतादृशे आत्मनः स्वशरीरस्य सम्बन्धिनि अस्वाध्यायिके काले 'सज्शायं' स्वाध्यायं करोति तथा 'करेंतं वा साइज्जई' आत्मनोऽस्वाध्यायिके काले स्वाध्यायं कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू हेठिल्लाइं समोसरणाई अवाएत्ता उवरिल्लाई समोसरणाई वाएइ वाएतं वा साइज्जइ ।। मू० १७॥
छाया--यो भिक्षुरधस्तनानि समवसरणानि यवाचयित्वा उपरितनानि समवसर णानि वाचयति वाचयन्तं वा स्वदते ॥सू० १७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'हेठिल्लाई समोसरणाई' अधस्तनानि आधानि समवसरणानि, तत्र समवसरणमिति मेलनं संमिश्रणं वा, अत्र समवसरणं सूत्रार्थयोः जीवाजीवादिनवपदार्थानां वा संमेलनम् , ततः समवसरणानि समिलितसूत्रार्थरूपाणि 'अवाएत्ता' अवाचयित्वा पूर्वसूत्रविषयिणी वाचनामदत्वा पूर्वसूत्रमनधीत्येत्यर्थः 'उपरिल्लाइं समोसरणाई' उपरितनानि-उत्तरकालिकानि समवसरणानि सूत्रार्थरूपाणि 'वाएई' वाचयति-परेभ्यो वाचनां ददाति एवं 'वाएंतं वा साइज्जई' वाचयन्तमन्यं वा श्रमणान्तरं स्वदते. अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तत्र यत् यस्यादिमं सूत्रम् तत् तस्याधस्तनमिति कथ्यते,
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बुर्णिमा यावचूरिः उ०१९ सू०१७-२० सूत्रवाचनोत्क्रमापात्रपात्रवाचनाऽधाचननि० ४२३ तथा यत् सूत्रं यस्य सूत्रत्याग्रेतनं तत् तस्य उपरितनं सूत्रं कथ्यते, यथा दशवैकालिकसूत्रस्यावश्यकसूत्रम् अघस्तनमिति भवति, एवमुत्तराध्ययनसूत्रस्य दशवैकालिकसूत्रमधस्तनं भवति, अथवाद्रव्यक्षेत्रकालभावाः एते सर्वे यत्र समवगाढाः भवन्तीत्युच्यते तत् समवसरणम् । तत् समयसरणं, पुनः किस्वरूपकम् ! तत्रोच्यते-अङ्गम् , श्रुतस्कन्धः, अध्ययनम्, उद्देशकश्व, तत्राङ्गं यथा आचाराङ्गादिकम् तथा च सूत्रकृताङ्गादाचाराङ्गमधस्तनमिति, आ बारागसूत्रमवाचयित्वा यदि सूत्रकृताङ्गसूत्रं वाचयति तदा सूत्रोको दोषो भवति । श्रुतस्कन्धो यथा आवश्यकसूत्रम् , तथावश्यकसूत्रमवाचयित्वा दशवैकालिकसूत्रं वाचयति तदा श्रुतस्कन्धोतो दोषो भवति । अध्ययनं यथा-सामायिकमयाचयित्वा चतुर्विंशतिस्तवं वाचयति तदा अध्ययनोक्तो दोषः, अथवा-शस्त्र परिज्ञाध्ययनमवाचयित्वा लोकविनयनामकमध्ययनं वाचयति तस्य तदा भध्ययनोक्तो दोषो भवति । उद्देशकेषु यथा-शत्रपरिज्ञाध्ययने प्रथमं श्रामण्योद्देशकमवाचयित्वा द्वितीयं पृथिवीकायिकोद्देशकं वाचयति । एवमाचाराङ्गादिसुत्रेष्वपि पूर्वापरातिक्रमणे दोषो ज्ञातव्यः । एवं व्युत्क्रमेण सूत्रार्थवाचना न कर्त्तव्येति ।।सू०१७॥
सूत्रम्--जे भिक्खू णवयंभचेराई अवाएत्ता उवरिमसुयं वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ॥ सू० १०॥
छाया-यो भिक्षुर्नवब्रह्मचर्याणि अवाचयित्वा उपरिमसूत्र वाचयति वाचयन्तं वा स्वदते ॥सू० १८ ॥ ___चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिवखू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णववंभचेराई' नवब्रह्मचर्याणि-आचारागस्घ्रस्य प्रथमश्रुतस्कन्धगतानि शस्त्रपरिज्ञादीनि महापरिज्ञापर्यन्तानि नवाध्ययनानि, अत्र नवब्रह्मचर्यग्रहणेन सर्वोऽपि आचारो गृहीतो भवति, अथवा सर्वोऽपि चरणानुयोगो गृहीतो भवति, एतादृशानि नवब्रह्मचर्याणि 'अवाएत्ता' अवाचयित्वा 'उवरिमसुर्य' उपरिमश्रुतम् छेदसूत्रम् 'वाएइ' वाचयति-अध्यापयति-अधीते वा ब्रह्मचर्याद्याचाराङ्ग प्रथमतोऽवाचयित्वा यः श्रमणः श्रमणी वा धर्मानुयोगम् समुस्थानसूत्रादि वा वाचयति, यद्वा सूर्यप्रज्ञप्त्यादिकं गणितानुयोग वाचयति, अथवा दृष्टिवादं द्रव्यानुयोग वाचयति, अथवा यदा चरणानुयोगो वाचितो भवेत्तदा धर्मानुयोगमवाचयित्वा गणितानुयोगं वाचयति । एवम् 'वाएंतं वा साइज्जई' वाचयन्तं वा श्रमणान्तरं यः स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १८ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अपत्तं वाएइ वाएतं वा साइज्जइ सू०१९॥ छाया-यो भिक्षुः अपात्र वाचति वाचयन्तं वा स्वदते ॥१९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अपत्तं' अपात्रम्-अनधिकारिणम् , यो हि शालवाचनाग्रहणस्य नाधिकारी तादृशमपात्रम् श्रमणं तद्भिन्नं वा
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___ . निशीथसत्रे 'वाइए' वाचयति-वाचनां ददाति. तत्र कोयमपात्रको यस्मै वाचनां न दद्यात् । तत्रोच्यते-अपात्रको नाम क्रमानधीतश्रुतकः यथाक्रम श्रुतं यो नाधीतवान् सोऽपात्रकः अयोग्य इति, तस्मै-ताहशाय अपात्राय वाचनां ददाति, तथा 'वाएंतं वा साइज्जई' वाचयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, यतो हि अपात्राय वाचनादाने स तदत्तां वाचनां वैपरीत्येन परिणमयति तदा तद्वाचनादाता तदोषभाग भवति, उक्तं चात्र
"आमे घडे निहितं, जहा जलं तं घडं विणासेइ । इय सिद्धतरहरसं, अप्पाहारं विणासेइ ॥१॥” इति । छाया-आमे (अपक्वे) घटे निहितं यथा जलं घटं विनाशयति ।
इति सिद्धान्तरहस्यं अल्पाधारं विनाशर्यात ॥१९॥ इति सू० १९ । जे भिक्खू पत्तं ण वाएइ ण वाएतं वा साइज्जइ ॥सू० २०॥ छाया-यो भिक्षुः पात्र न वाचयति न वाचयन्तं वा स्वदते । सू० २०॥ चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी' वा '
पण वाएइ' पात्रं न वाचयति, तत्र-अपात्रप्रतिपक्षभूतं पानं वाचनाग्रहणयोग्यम् अवस्थाविनयादिभियोग्यं क्रमाधीतश्रुतं वा श्रमणं वाचनां न ददाति तथा 'ण वाएंतं वा साइज्जई' न वाचयन्तं वा, न वाचयन्तमिति-अवाचयन्त-पात्राय वाचनामददतं श्रमणान्तरं यः स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ .
अथ कोदशोऽपात्रको यस्मै वाचना न देया, तथा कीद्दशश्च पात्रको यस्मै वाचनाऽदाने दोषस्तत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-तितिणिए चलचित्ते, गाणंगणिए य दुब्बलचरित्ते ।
आयरियप्पडिभासी, वामावडे य पिसुणे य ॥१॥ एयं जो वाएई, विवरीयं नो य वायए जो उ ।
आणाभंगप्पभिई दोसे पावेइ सो नियमा ॥२॥ छाया-तितिणिकचलचित्तः गाणंगणिकश्च दुर्वलचरित्रः । ।
•आचार्यप्रतीभाषी वामावतप्रचपिशुनश्च ॥१॥ पतं यो चाचयति, विपरीतं नो च वाचयेद् यस्तु ।
आक्षाभनप्रभृतीन् दोपान प्राप्नोति स नियमात् ॥२॥ अवचूरि:-तत्र तितिणिकः बडवडेंति भाषकः रूक्षस्वभावकः १, चलचित्तः-अस्थिरचित्तः २, गाणंगणिकः स यः खलु कारणं विनैव एकस्मात् गणात् गणान्तरे गच्छति ३, दुर्वलचरित्रः स यः खल मूलगुणोत्तरगुणविराधनायाः प्रतिसेवनां करोति तथा धृतिवलपरिहीनः ४, आचार्यप्रतिभाषी सः
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १९ सू० २१ - २३ अव्यक्तव्यक्तादीनां वाचनादानादाननिषेधः ४२५ यः खलु आचार्यै प्रति असबद्धप्रलापी, वामावर्त्तस्तु स यः खलु आचार्यस्य प्रतिकूलं कार्यं करोति, पिशुनः स यः परोक्षनिन्दकः ( चुगलखोर) इति भाषाप्रसिद्धः, एत्ते अपात्राः प्रवचन वाचनानधिकारिणः, एतेभ्यो यः प्रवचनस्य वाचनां ददाति स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
यः खलु आचार्यः श्रमणः श्रमणी वा विपरीतम् - एतद्भिन्नं पात्रं वाचनाधिकारिणं न वाचयति स आज्ञा भङ्गादिदोषान् मिथ्यात्वं च प्राप्नोति, तस्येमे दोषा भवन्ति, तथाहि--यदि पात्रमपि न वाचयति तदा लोके महती अपकीर्त्तिर्भवति यदयं योग्यमपि न वाचयति, एवं प्रवचनस्य हानिरपि भवति एवं पात्रं यदि न वाचयति तदा क्रमशः सूत्रार्थयोरुच्छेदोऽपि स्यात्, तस्मात् पात्रं तु अवश्यमेव वाचयेत् ततश्च यः श्रमणः श्रमणी वा मपात्रं वाचयति तथा पात्रं न वाचयति स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति तस्मादपात्रं न वाचयेत्, पात्रं तु देशकालादिकमाश्रित्य अवश्यमेव वाचयेदिति ॥ सू० २० ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू अव्वत्तं वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २१ ॥
छाया -- यो भिक्षुरव्यक्तं वाचयति वाचयन्तं वा स्वदते ॥२१॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अव्वत्तं चाएइ 'अव्यक्तं वाचयति, तत्र अव्यक्तः यावत्पर्यन्तं कक्षादिषु रोमाणि न भवन्ति तावत् सोऽव्यक्तः, अथवा यावत्पर्यन्तं पोडशवर्ष परिमितो न भवति तावदव्यक्तः, एतादृशमव्यक्तं यः श्रमणः श्रमणी वा वाचयति दृष्टिवादादिशास्त्रवाचनां दादाति तथा 'वाएंतं वा साइज्जइ' वाचयन्तं श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २१||
सूत्रम् -- जे भिक्खू वत्तं ण वाएइ ण वाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २२॥
छाया -- यो भिक्षुव्यक्तं न वाचयति न वाचयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २२ ||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वत्तं ण वाएइ' व्यक्तं न वाचयति, तत्र कक्षादिषु जातरोमा व्यक्तः, अथवा परिसमाप्तषोडशवर्षो व्यक्तः, एतादृशं व्यक्तं यः श्रमणो वाचनां न ददाति तथा 'ण वाएंतं वा साइज्जइ' नं वाचयन्तं - व्यक्ताय वाचनामददतं श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २२॥
सूत्रम् — जे भिक्खू दोन्हं सरिसगाणं एवं सिक्खावेइ एक न सिक्खावे, एकं वाएइ एक्कं न वाएइ, एक्कं सिक्खावेंतें एक्कं न सिक्खातं वा, एक्कं वाएं एक्कं ण वाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २३ ॥ छाया - यो भिक्षु द्वयो. सदृशयोरेकं शिक्षयति पकं न शिक्षयति एकं वाचयति एकं न वाचयति, पकं शिक्षयन्तं एकं न शिक्षयन्तं वा, एकं वाचयन्तं पक्कं न वॉच यन्तं वा स्वदते ॥ सू० २३ ॥
५४
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४२६ , .
निशीथसूत्र चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्याद । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्विक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दोण्हं सरिसगाण' द्वयोः सदृशयोः विनयबुद्धिम्यां तुल्ययोः द्वयोः, सादृदयं च संविग्नत्वेन समनुज्ञातत्वेन परिणामकत्वेन च, तथा च द्वयोः सविग्नयोर्मध्यात् 'एक्कं सिक्खावेड' एक संविग्नं शिक्षयति-सम्यग् चरणादिसम्बन्धिनी शिक्षा ददाति 'एक्कं न सिक्खावेड' एक संविग्नं न शिक्षयति-चरणादिसंबन्धिनी शिक्षा सम्यक् न ददाति 'एक्कं वाएई' एकं वाचयति-गास्त्रवाचना ददाति 'एक न वाएइ' एकं संविग्नं न वाचयति-वाचनां न ददाति तथा 'एक्कं सिक्खावेत' एक शिक्षयन्तं 'एक्कं न सिक्खातं वा' द्वयोः सदृशयोः संविग्नयोर्मध्यादेकं सविग्नं न संशिक्षयन्तं श्रमणान्तरम् तथा- 'एक्कं वाएंत' एकं वाचयन्तं 'एक्कं न वाएंत' एक द्वयोः सदृशयोः संविग्नयोर्मध्यादेकं संविग्नं न वाचयन्तं श्रमणान्तरं यः स्वदते-अनुमोदते स प्राय. श्चित्तभागी भवति । तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोपा अपि भवन्ति । अथ यदि द्वयोः सदृशयोमध्यादेकं शिक्षयति वाचयति च, एकं न शिक्षयति तथैकं न वाचयति तदा को दोषः : इति चेत् अत्राह-तुल्ययोर्द्वयोर्मध्यात् यदि एक शिक्षयेत् एकं वाचयेत् तदा तदुपरि रागः प्रकटितः स्यात् , अथ यं नाध्यापयिष्यति तदुपरि द्वेषः प्रख्यापितो भवेत् , तेन स बहिर्भाव गच्छेत् , तत्प्रत्ययां कर्मनिर्जरां न प्राप्नोति अन्य प्रति स प्रद्वेपं च गच्छेत् , प्रविष्टश्च यत् करिष्यति तन्निमित्तं प्रायश्चित्तं प्रसज्येत । एमिः कारणैः सदृशद्वयोर्मध्यात् एकं शिक्षयेत् अपरं न शिक्षयेत् , एकं वाचयेत् अपरं न वाचयेत् , इत्येवं न कुर्यात् न वा एवं कुर्वन्तमनुमोदयेत् इति, किन्तु यदि शिक्षयेत्तदा द्वावपि शिक्षयेत् यदि न शिक्षयेत् तदा दावपि न शिक्षयेत् मेदबुद्धि न कुर्यादिति भावः ॥ सू० २३॥ .: सूत्रम्--जे, भिक्खू आयरियउवज्झाएहिं अविदिण्णं गिरं आइयइ आइयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २४ ॥
छाया-यो भिक्षुगचार्योपाध्यायैरविदत्तां गिरमाददाति आदतं वा स्वदते ॥२४॥ - चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'आयरियउवज्झाएहि' आचार्योपाध्यायैः आचार्येन उपाध्ययेन उपलक्षणात् रत्नाधिकः 'अविदिणं गिरं' अविदत्तां गिरम् शास्त्रवाणीम् अविदत्ताम्-अनध्यापितां गिरं-सुत्रार्थरूपाम् 'आइयइ' आददाति-स्वीकरोति अधीते इत्यर्थः, यं सूत्रमर्थ वा आचार्य उपाध्यायो वा नाध्यापयति तमपि स्वयमेवाधीते-तदध्ययनं करोति 'अहं बहुश्रुतः सर्वरनिकः' इति कृत्वा गर्वेण आचार्यादिकमनादृत्य स्वयमेव तदध्ययनं करोति तथा 'आइयंतं वा साइज्जई' आददतं वा-आचार्याधनध्यापितं स्वयमेवाधीयानं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । आचार्यादिमिरदत्ताम्-अनध्यापितां शास्त्रवाचनां यः स्वयं वाचयति तदा तस्य अपूर्णज्ञानत्वेन तदुक्तमादिक भ्रमबुद्ध्या वैपरीत्येन परिणमते, तेन स जिनवचनाशातनां मिथ्यात्वं च प्राप्नोति ॥ सू० २४॥
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चूर्णि० उ० १९ सू० २५-३७ अन्यतीथिकादिपार्श्वस्थादीनां वाचनादानाऽऽदाननि० ४२७
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २५ ॥
छाया- यो भिक्षुरन्ययूथिकं वा गृहस्थं वा चाचयति वाचयन्तं वा स्वदते ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियं वा' अन्ययुथिकं - अन्यतीर्थिकं तापसपरिव्राजकादिकम् 'गारस्थियं, गृहस्थ वा 'वाएइ' वाचयति-मूत्रवाचनां ददाति सूत्रमध्यापयति तथा 'वाएंतं वा साइज्जई' वाचयन्तम्एवं वाचनां ददतं श्रमणान्तरं यः श्रमणः श्रमणी वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥२५॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ।। सू० २६॥ ___छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकस्य पा गृहस्थस्य वा प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥स. २६ ।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियस्स वा' अन्ययूथिकस्य वा तापसपरिव्राजकादिकस्य 'गारस्थियस्स वा गृहस्थस्य वा सकाशात् 'पडिच्छइ' प्रतीच्छति-वाचनां स्वीकरोति, तापसादितो गृहस्थाद् वा सूत्रमर्थ वा अधीते तथा 'पडिच्छंतं वा साइज्जइ' प्रतीच्छन्तं वा तापसादितः सुत्रमर्थ वा अघीयान' श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥२६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पासत्थं वाएइ वाएंतं वा सइज्जइ ।। सू० २७॥ छाया-यो भिक्षुः पार्श्वस्थं वाचयति वाचयन्तं वा स्वदते ॥२७॥
ची—'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षु श्रमणः श्रमणी वा 'पासत्थं' पार्श्वस्थम्-ज्ञानदर्शनचारित्रस्य पार्श्वे-समीपे तिष्ठति यः स पार्श्वस्थः ज्ञानादिसमीपे स्थितः किन्तु न तदाराधकः, स द्रव्येण श्रमणः न तु भावेन, तादृशं पार्श्वस्थं यः श्रमणः श्रमणी वा 'चाएइ' वाचयति-सूत्रार्थयोर्वाचनां ददाति तथा 'वाएतं वा साइज्जई' वाचयन्तं-पार्श्वस्थ सूत्रार्थयोः वाचनां ददतं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू०२७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पासत्थस्स पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥ छाया-यो भिक्षुः पार्श्वस्थस्य प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू० २२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पासत्थस्स' पार्श्वस्थस्य-यथोक्तलक्षणस्य सकाशात् 'पडिच्छइ' प्रतीच्छति-पार्श्वस्थात् सूत्रार्थयोरध्ययन
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निशीथसूत्र • करोति तथा 'पडिच्छंतं वा साइज्जई' प्रतीच्छन्तं वा-सूत्रार्थयोरध्ययनं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमणः श्रमणी वा पार्श्वस्थ सकाशात् अध्ययनं न कुर्यात् न कुर्वन्तमनुमोदयेदिति ।।सू० २८॥
एवमवसन्नादीनाम् अष्टौ सूत्राणि वाच्यानि तथाहि
सूत्रम्--जे भिक्खू ओसन्नं वाएइ० ॥ सू० २९॥ ओसन्नस्स पडिच्छइ ।। सू०३०॥ कुसीलं वाएइ०॥ सू० ३१॥ कुसीलस्स पडिच्छइ० ॥ सू०३२॥ णितियं वाएइ० ॥ सु० ३३ ॥ णितियस्स पडिच्छइ० ॥ सू०३४ ॥ संसत्तं वाएइ० ॥ सू० ३५॥ जे भिक्खू संसत्तस्स पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २९-३६॥
छाया-यो भिक्षुरवसन्न घाचयति०॥ सू०२९॥ अवसन्नस्य प्रतीच्छति० स्०३०॥ कुशीलं वाचयति० ॥ खू० ३१ ॥ कुशीलस्य प्रतीच्छति ॥ ३२॥ नैत्यिकं वाचयति ॥ सू०३३।। नैत्यिकस्य प्रतीच्छति ॥ सू० ३४|| संसकं वाचयति० ॥ सू० ३५॥ यो भिक्षुः संसकस्य प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३६ ॥
चूर्णी-एपां व्याख्या पार्श्वस्थसूत्रस्येव कर्तव्येति ।। सू० २९-३६ ॥ । सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥सू० ३७॥
। निसीहज्झयणे एगूणवीसइमो उद्देसो समत्तो ॥१९॥ छाया-तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिक परिहारस्थानमुद्घातिकम् ॥सू०३७।।
॥निशीथाध्ययने एकोनविंशतितमोद्देशकः समाप्तः ॥१९॥ चूर्णी-'त' इत्यादि । 'त' तत्-विकृतं-क्रीणातीत्यारभ्य संसक्तस्य प्रतीच्छतीति पर्यन्तम् एकोनविंशत्युदेशकोक्तं प्रायश्चित्तस्थानम् 'सेवमाणे' सेवमानः तस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् एकं द्विकमनेक सर्व वा प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेवमानः 'आवज्जइ' आपद्यते-प्राप्नोति 'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकम् 'परिहारद्वाणं' परिहारस्थानं प्रायश्चित्तम् 'उग्याइयं उद्घातिक लघुकमित्यर्थः लघुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीत्यर्थः ।। सू० ३७॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगहल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापन - प्रविशुद्धगद्यपधनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथमूत्रस्य" । चूर्णिमाध्यावरिरूपायां व्याख्यायाम् एकोनविंशतितमोदेशकः समाप्तः ॥१९॥
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॥ विंशतितमोद्देशकः व्याख्यात एकोनविंशतितमोदेशकः साम्प्रतमवसरप्राप्तो विशतितमोद्देशको व्याख्यायते, अथात्र विंशतितमोद्देशकस्य पूर्वोक्तोद्देशकैः सह कः संबन्धः ? इति चेदत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-हत्थकम्मं समारम्भ, वायणंतमुदाहियं ।
एत्थ तस्स विसुद्धहा, पायच्छित्तं निगज्जइ ॥१॥ छाया-हस्तकर्म समारभ्य, वाचनान्तमुदाहृतम् ।
___ अत्र तस्य विशुद्धयर्य प्रायश्चित्तं निगद्यते ॥१॥
अवचूरिः- हस्तकर्म समारभ्य पार्श्वस्थादीनां वाचनादान-ग्रहणपर्यन्तं कुत्सितकर्मप्रकरणं प्रथमोहेशकादारभ्य एकोनविंशतितमोद्देशकपर्यन्तोदेशकेषु बृहत्कल्पादौ च उदाहृतं कथितम् , तादृशप्रायश्चित्तस्थानानां विशुद्धये विशेषतो न किमपि प्रायश्चित्तं प्रतिपादितमित्त्यत्र विंशतितमे उद्देशके तेषां हस्तकर्मादिवाचनादानग्रहणपर्यन्तचरणविराधकप्रायश्चित्तस्थानानां विशुद्धयंथ प्रायश्चितं तथा प्रायश्चित्तप्रकारश्च निगद्यत्ते-प्रतिपाद्यते, अयमेव सम्बन्धः पूर्वोद्देशकैः सह अस्योद्देशकस्य भवति, तदनेन सम्बन्धेन आयातस्यास्य विंशतितमोदेशकस्य प्रथमं सूत्रं व्याख्यायते
सूत्रम्--जे भिक्खू मासिय परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं, पलिउंचियं आलोएमाणस्स दोमासियं ।। सू०१॥
छाया-यो भिक्षुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अप्रतिकुच्याऽऽलोचयतो मासिकं प्रतिकुच्याऽऽलोचयतो द्वैमासिकम् ।।सू० ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्ख्' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मासियं' मासिकम्, तत्र मासेन निवृत्त मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम् , तत्र परिहारः- वर्जनम् यद्वा परिहारो वहनं, प्रायश्चित्तस्य, यद्वा परिहियते-परित्यज्यते यो गुरुसान्निध्यात् स परिहारः पापम् , तथा तिष्ठन्ति प्राणिनः कर्मकलुपिता अस्मिन् इति स्थानम्, परिहारश्च स्थानं चेति परिहारस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य-प्रकर्षण तत्सेवनं कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत् गुरुसमीपे स्वकृतं पापस्थानं प्रकाशयेत् 'जह वालो जपंतो' इत्यादिरूपेण आलोचयेत् यथा स्वभावतो विशुद्धो बालकः स्वचरितमकपटभावेन पित्रोः पुरतः प्रकाशयति तथैव गुरुसमीपे सर्व प्रकाशयेदित्यर्थः, तत्र आलोचना नाम यथा आत्मना जानाति तथैव गुरोः समीपे प्रकाशनम्. तत्र अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं' अपरिकुच्य आलोचयतो मासिकम् , तत्र परिकुश्चनम्-माया कपटम्, न परिकुच्य इति अपरिकुच्य मायामकृत्वेत्यर्थः, तथा च मायामकृत्वा आलोचयत आलोचनां
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४३०
निशीथसूत्र स्वपापप्रकाशनरूपां-कुर्वतः श्रमणस्य श्रमण्या वा मासिकं गुरुकं लघुकं वा प्रतिसेवनाsनुसारि प्रायश्चित्तं भवति, पापस्थानस्य प्रतिसेवनां कृत्वा कपटरहितभावेन उपागताय शिष्याय प्रतिसेवनानुसारि लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं गुरुर्दधात् इत्यर्थः । 'पलिडंचिय आलोएमाणस्स दोमासिय' परिकुच्य आलोचयतो द्वैमासिकम् परिकुच्य द्वैमासकपटम् आलोचयत आलोचनां कुर्वतः शिप्यस्य सिकं लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं गुरुर्दद्यादिति । यदत्र मासिकं प्रायश्चित्तं कथितं तत्र मासः पञ्चप्रकारको भवति तद्यथा-नक्षत्रमासश्चन्द्रमास ऋतुमास आदित्यमासोऽभिवद्धितमासश्च, तत्र नक्षत्रमासः सप्तविंशत्यहोरात्रप्रमाणः तथा एकस्याहोरात्रस्य च एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाश्च (२७ एष लक्षणतः परिमाणतश्च नक्षत्रमासः। चन्द्रमास एकोनत्रिंशदहोरात्रप्रमाणः तथा एकस्याहोरात्र दिनस्य च द्वात्रिंशद् द्वाप. ष्टिभागाश्च (२९-१०।। ऋतुमासः त्रिंशदहोरात्रप्रमाण. (३०) आदित्यमासः सार्द्धत्रिंशदिनप्रमाणः (३०)। अभिवर्द्धितमासस्तु एकत्रिशदिनानि, एकस्य च दिनस्य चतुर्विशत्यधिकशतखण्डितस्य एकविंशत्यधिक भागशतम् (३१९२९) । उक्तञ्च
एक्कत्तीसं च दिणा, दिणभागसयं तहेक्कवीसं च ।
अभिवढिओ उ मासो, चउवीससएण छेदेण ॥ छाया-पत्रिंशच्च दिनानि दिनभागशतं तथैकविंशतिश्च ।
अभिद्धितस्तु मासः, चतुर्वि शशतेन छेदेन ॥ इति। अत्र तेषां पञ्चानामपि नासानां मध्ये कर्ममासेनाऽधिकारः, तत्र कर्ममासः ऋतुमासः त्रिंशदिनात्मकः, तपश्चर्यादिकं प्रायश्चित्तं च ऋतुमासेनैव भवति । प्रायश्चित्तदाने ऋतुमासस्यैवाधिकारादिति । अथ यदत्र सूत्रे प्रतिसेवनमशुभकर्मणां कथितं तत् प्रतिसेवनं द्विविधं मूलगुणप्रतिसेवनमुत्तरगुणप्रतिसेवनं च, तत्र पुनर्मूलगुणप्रतिसेवनं पञ्चविधं पञ्चमहावतात्मकम् , उत्तरगुणप्रतिसेवन दशविधम् मालोचनाह१-प्रतिक्रमणाहर-तदुभयाई३-विवेकाह४-व्युत्सर्गार्ह ५-तपोऽह६-छेदाह - मूलाही ८-नवस्थाप्याई९-पाराञ्चिक१०-भेदात् । पुनरपि एकैकं द्विविधं द्रव्येण कल्पेन च, इदं प्रति सेवन कर्मोदयेन भवति, कर्म च प्रतिसेवनया भवति वीजाकुरवत् अनयोः परस्परापेक्षत्वम्, एतादृशप्रतिसेवनस्याऽऽलोचनं द्विप्रकारेण भवति शुद्ध मावेन कपटभावेच, तत्र शुद्धभावेन आलोचयतः शुद्धिर्भवति, कपटभावेन आलोचयतस्तु शुद्धिर्न भवति । तत्र दृष्टान्तो यथा-आसीत् कश्चित् नर्मदातटे निवसन् बुभुक्षया खिन्नः तापसः फलमूलादिकमानेतुं वनं गतवान्, तत्र इस्तत परिभ्रमन् नर्मदातटे कुत्रचित् मृतमत्स्यकलेवरं प्राप्तवान्, प्राप्य तमेवानीय भक्षयित्वा बुभुक्षामपनीतवान् परन्तु मत्स्य
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णिभाष्यावत्रिः उ०२० सू०१-३ मासिकादिपापस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रकारः ४३१
भक्षणेन तस्योदरे विकृति ता अजीर्णरोगश्च प्रादुरभूत् , ततः स तापसस्तं रोगमपाकर्तु कगपि वैद्य पृष्टवान्-हे वैद्य ! मदुदरे रोगो जातः, वैयः प्राह-त्वया किं भक्षितम् ? तापसेन कथितम्-फलादिभक्षणं कृतम्, ततो वैद्यः तदनुकूलमौषधं दत्तवान् परन्तु तादृशौषधेन तस्य रोगो न शान्तः । पुनरपि तापसो वैद्यान्तिकं गत्वा प्रोवाच-मदुदराद् रोगो न गतः, ततो वैधः प्राह-भो तापस ! सत्यं वद किं त्वया भक्षितम् , ततः स तापसः कपटरहितः सन् सत्यमेव कथितवान् यन्मया मत्स्यभक्षणं कृतमिति, ततो वैयो वमनविरेचनतः रोगस्य निवारणं कृतवान्, तापसः स्वस्थः सबल चापि अभूत् । एवमेव पापस्थानं प्रतिसेव्य यः श्रमण. श्रमणी वा सकपटमालोचयति तस्य शुद्धिर्न भवति क्रयासिद्धिरपि न भवति । अथ यदि मायारहितः मालोचयति तदा स शुध्यति; यथा वैद्यस्त तापसं शुद्धं कृतवान् तथैव वैद्यरूप आचार्यः तापसतुल्यं श्रमणं श्रमणी वा प्रायश्चित्तलक्षणवमनविरेचनादिना शोधयति । अथ च शुद्धः श्रमणः श्रमणी वा जन्मजरामरणरोगरहितोऽनन्तसुखभागी भवतीति ॥१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दामासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आल एमाणस्स दोमासियं, पलिउंचिय आलोए माणस्स तेमासियं ।। सू० २॥
छाया-यो भिक्षुः द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अपरिकुच्य आलोचयतो द्वैमासिकं, परिकुच्य आलोचयतलैमासिकम् ॥ सू. २॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दोमासियं' द्वैमासिकम् द्वाभ्यां मासाभ्यां निष्पन्नं मासद्वयेन निर्वर्तनयोग्यम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं पापं पापजनकसावधकर्मानुष्ठानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य- कुत्सितकर्मणः प्रतिसेवनां कृत्वेत्यर्थः 'आलोएज्जा' आलोचयेत् - आलोचनां कुर्यात् तत्र 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अपरिकुच्य आलोचयतः, तत्रापरिकुच्य-मायामन्तरेणैव शुद्धान्तःकरणेन आलोचयत आलोचनां कुर्वतः गुरुसमीपे प्रायश्चित्तस्थानं प्रकाशयतः श्रमणादेः 'दोमासियं' द्वैमासिकं-लघुकं गुरुक वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारि गुरुर्दद्यात् , 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' परिकुष्य आलोचयतः, तत्र परिकुष्य सकपटमालोचयतः आलोचनां प्रायश्चित्तं कुर्वतः श्रमणादेः 'तेमासिय' त्रैमासिक प्रायश्चित्तं दद्यात् गुरुः, प्रतिकुञ्चनानिष्पन्नस्य गुरुमासस्याधिकस्य प्रक्षेपात् । अयं भावः-यदि कोऽपि श्रमणः श्रमणी वा द्वैमासिकं प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेव्य शुद्धभावेन गुरुसमीपे प्रायश्चित्तमभिलषति तदा गुरुः तादृशशिष्याय द्वैमासिक लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं दद्यात् , अथ यदि सकपटमालोचयति तदा त्रमासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं दद्यात्-मायाप्रयुक्तमासाधिकस्याऽऽवश्यकत्वात् । उदाहरणादिकं पूर्वसूत्रवदेव बोद्धव्यमिति ॥ सू० २ ॥
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निशीथसूत्र सूत्रम्--जे भिक्खू तेमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं, पलिांचिय, आलो एमाणस्स चाउम्मासियं ॥ सू० ३ ॥
छाया- यो भिक्षुः त्रैमासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अपरिकुच्य आलोचयतः त्रैमासिकम् परिकुच्य आलोचयतश्चातुर्मासिकम् ।। सू० ३ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्विक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'तेमासियं त्रैमासिकम्-मासत्रयेण निर्वर्तनयोग्यम् मासत्रयसंपायमित्यर्थः 'परिहारहाण परिहारस्थानम्-पापं पापजनकं वा सावधकर्मानुष्ठानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य-प्रकर्षण सेवनां कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत्-स्वकृतसावधकर्मणो गुरुसमीपे आलोचनां दद्यात् , तत्र च 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अपरिकुच्य-आलोचयतः-मायामकृत्वा शुद्वभावेन गुरुसमीपे स्वकीयं पापं निवेदयित्वा पापस्थानमालोचयतः 'तेमासियं' त्रैमासिकं प्रायश्चित्तं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि गुरुर्दधादिति । 'पलिउंचिय' परिकुच्य-मायापूर्वकम् 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः श्रमणादेः 'चाउम्मासिय' चातुर्मासिकम्-मासचतुष्टयेन निर्वर्तनयोग्यं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं गुरुर्दद्यात् , इति । अयं भावः-मासिकपापस्थानस्य प्रतिसेवनां कृत्वा यदि कश्चित् श्रमणः श्रमणी वा स्वकीयपापनिवारणाय गुरुसमीपे शुद्धमनोभावेन प्रायश्चित्तमिच्छेत् तदा गुरुस्तादृशशिष्याय त्रैमासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारि दद्यात् । अथ यदि कदाचित् मायापूर्वकमालोचयितुमिच्छेत्तदा गुरुः प्रतिसेवनानुसारि चातुर्भासिक लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं दद्यात्-मायादण्डरूपेण मासाधिक्यं वदेत् । अत्रायं दृष्टान्तः-अस्तिकस्यचिद्राज्ञोऽतीव वल्लभः एकः सेनापतिः, स च सड्ग्रामे विविधशस्त्रेणाहतः तच्छरीरे अनेकानि शल्यानि प्रविष्टानि तेन दुर्बलः स वैद्यमाहूतवान् , आहूय च स्वस्यास्वास्थ्यकारणं प्रोवाच, ततो वैद्यो निर्दिष्टस्थानात् शल्योद्धरणं कृतवान् परन्तु स स्वस्थो नाभूतु प्रतिदिनं दुर्वल एव भवति, शल्यनिष्कासनसमये शल्यपीडया पीडितः एक शल्यस्थानं न दर्शितवान् तेन स्वस्थो नाभूत शल्यस्य शरीरे विद्यमानत्वात् , तच्छल्यं शरीरान्तर्विद्यमानं तस्य स्वस्थतायां प्रतिबन्धकम् अत एव स दुर्बल एव भवति, पुनरपि वैद्यमाहूतवान् , आहुय च अवशिष्टशल्यस्थानं दर्शितवान, ततो वैद्यः शल्यं निष्कासितवान् तेन योधः स्वस्थो जातः । एवं वैद्यस्थानीय आचार्यः योधस्थानीयश्रमणादेः पापरूपं शल्यं प्रायश्चित्तद्वारा निष्कास्य ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षण बलं संपादयति तस्मात् शुद्धभावेनाऽऽलोचनां कुर्यात् न तु कपटपूर्वकमालोचयेत् , यदि कपटभावेनालोचयेत् तदा कपटापराधनिमित्तक मासाधिक्यं प्रायश्चित्तं गुरुदैद्यादिति ॥ सू० ३ ॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०२० सू०४-६ मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवनप्रायश्चित्तविधि ४३३
सूत्रम्--जे भिक्खू चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं ॥ सू० ४॥
छाया-यो भिक्षुश्चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रतिव्य आलोचयेत्-अपरिकुच्यालोचयतः चातुर्मासिकं परिकुच्य आलोचयतः पाञ्चमासिकम् ॥ सू० ४ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकम्-चातुर्मासेन चतुर्भिः मासैः निर्वर्तनयोग्यम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम्पापस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य-प्रतिसेवनां कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत्-आलोचनाकर्तुमभिलपेत् 'अपलिउंचिया अपरिकुच्य-मायामकृत्वा 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः-आलोचनां कुर्वतः श्रमणादेः 'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकम्-चतुर्भिर्मासैः संपादनयोग्यम् लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारेण दद्यात् 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं' परिकुच्यालोचयतः पाञ्चमासिकम् , तत्र परिकुच्य मायापूर्वकमालोचनां कुर्वतः पाञ्चमासिकम्-मासपञ्चकेन निवर्तनयोग्यं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं गुरुर्दद्यादिति । अयं भावः-यत्रैवापराधे मायारहितस्य शिष्यस्य श्रमणस्यान्यस्य वा चातुर्मासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायचित्तं भवति तत्रैवापराधे मायासहितस्य पाञ्चमासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं दद्यात्, मासाधिक्यस्य मायाप्रयोज्यत्वात् । अत्र मालाकारयोर्दृष्टान्तः-एकस्मिन्नगरे द्वौ मालाकारौ निवसतः । तत्रैकेन वसन्तसमये बहूनि पुप्पाणि आनीय विधिना स्थापितानि, तानि दृष्ट्वा क्रयका उपतिष्ठन्ति । उपस्थितेषु तेपु क्रयकेपुमाला निर्मिता । तैत्विा मालाक्रेतृभिः तस्मै बहु मूल्यं दत्तं पुष्कलो लाभो जातः । अपरेण न पुष्पाणि आनीतानि, नैव च माला निर्मिता अतस्तत्समीपे न कोऽपि क्रेता आगतः, न तेन कोऽपि लाभो लब्धः । एवं यो मूलगुणोत्तरगुणापराधान् न प्रकटयति स शुद्धिं निर्वाणलामं च न लभते इति ।। सू० ४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पंचमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचगासियं पलिउंचिय आलोएमाणस्स छम्मासियं ॥ सू० ५॥
छाया-यो भिक्षुः पाञ्चमासिक परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अपरिकुच्यालोचयतः पाञ्चमासिकं परिकुच्य आलोचयतः पाण्मासिकम् ॥ सू० ५ ॥
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निशीथसूत्रे
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्विक्षुः निरवद्यभिक्षणशीलः अष्टविधकर्मक्षपको वा 'पंचमासिय' पाञ्चमासिकम् - पञ्चभिर्मासैर्निवर्त्तनयोग्यम् ' परिहारद्वाणं' परिहारस्थानम् - पापस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य तत्प्रतिसेवनां कृत्वा 'आलोएज्जा' खालोचयेत् आलोचनां कुर्यात् तत्र 'अपलिउंचिय' अपरिकुध्य- मायामकृत्वा 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः 'पंचमा सियं' पाञ्च मासिक - लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारि गुरुर्दधात् । 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' परिकुच्य - मायां कृत्वा आलोचनां कुर्वतः श्रमणादेः 'छम्मासिय' पाण्मासिकम् - लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनाऽनुसारि प्रायश्चित्तं गुरुभिर्दातत्र्यमिति । पाण्मासिकप्रायश्चित्तविषये परिकुञ्चके मेघदृष्टान्तः - यथा शरत्कालिको मेघो गर्जनं कृत्वा नो वर्पति, एवं हे शिष्य ! वमपि आलोचयामीत्येवं प्रकारण प्रतिज्ञां कृत्वा आलोचयितुं नाख्धवानसि तत्र यदि मायां करिष्यसि तदा प्रतिज्ञाभ्रष्टो भविष्यसि अतः सम्यगालोचय इति । तत्र द्वैमासिकादिपरिहारस्थानेषु मायापूर्वकालोचके यथाक्रममिमे दृष्टान्ताः संभवन्ति तद्यथा द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य प्रतिकुञ्चकस्य दृष्टान्तः तापसः १, त्रैमासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य योधो दृष्टान्तः २, चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य मालाकारो दृष्टान्तः ४, पाचमासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य मेघो दृष्टान्तः ५ । तत्र प्रतिकुच्चनायां कृतायाम् 'सम्यगालोचय मा प्रतिकुचनां कुरु' एवम्पलब्धो यदि वदेत् भगवन् ! नो कुप्यतु सम्यगालोचयामि । ततः स श्रुतव्यवहारी गुरु वारत्रयमालोचनां शृणुयात् । तत्र त्रिभिर्वारैर्यदि सदृशमालोचयति तदा ज्ञातव्यं यदयं सम्यक् प्रतिक्रान्त इति तदनन्तरं यद्देयं प्रायश्चित्तं तद्दातव्यमिति । अथ यदि विमदृशमालोचयति तदा यथायोग्यमधिकाधिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् यावत् पाण्मासिकमिति । सू० ५ ॥
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सूत्रम् — तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा || सू० ६॥
छाया - ततः परं परिकुञ्चिते वा अपरिकुञ्चिते वा ते पत्र पण्मासाः ॥ सू० ६||
चूर्णी - पाञ्चमासिकपरिहारस्थानसूत्राणि कथयित्वा पाण्मासिकपरिहारस्थानविषये प्राह'तेण परं' इत्यादि । ' तेण परं' ततः परम् ततोऽनन्तरम् पाश्र्वमासिकात् परिहारस्थानात् परम् - आलोचनाकाले 'पलिउंचिए वा' परिकुश्चिते वा - मायासहिते वा 'अपिलउंचिए वा' अपरिकुञ्चिते वा मायारहिते वा मायापूर्वकममायापूर्वकं वा आलोचिते इत्यर्थः ' ते चेत्र छम्मासा' ते एव - पण्मासाः व एव प्रतिसेवनानिष्पन्ना एव पण्मासाः पडेव मासा नाधिकं प्रतिकुश्वनानिमित्तमारोपणं वर्त्तते तदधिकप्रायश्चित्तस्य अभावादिति ॥ सू० ६ ॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २००७-१४ मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवनप्रायश्चित्तविधिः४३५
सूत्रम्--जे भिक्खू बहुसोवि मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं पलिउंचिंय आलोएमाणस्स दोमासियं ॥ सू० ७॥
छायायो भिक्षुः बहुशोऽपि मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अपरिकुच्य आलोचयतो मासिकं परिकुच्य आलोचयतो द्वैमासिकम् ॥ सू०७ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'बहुसोचि बहशोऽपि, अत्र बहुत्वं त्रिभृतिक विज्ञेयम् । ततः त्रिप्रभृति वारत्रयमपि मासिकं परिहारस्थानं सेवित्वा ऋजुभावेन आलोचयतो मासिकमेव, कपटभावेन आलोचयतस्तु द्वैमासिकमिति । सू० ७॥
एवमग्रे 'बहुसोवि दोमासियं' ॥ सू०८ ॥ 'बहुसोवि तेमासिय० ॥ सू०९ ॥ 'बहुसोवि चाउम्मासियं० ॥सू० १०॥ 'बहुसोवि पंचमासियं' ।। सू०११ ॥ इति चत्वारि सूत्राणि वाच्यानि । एषां चतुर्णामपि सूत्राणामनयैव रीत्या यथायोगं व्याख्याऽपि कर्तव्या ॥ सू०८-११॥
सूत्रम्-तेण परंपलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥ छाया -ततः परं परिकुञ्चिते वा अपरिकुञ्चिते वा ते एव षण्मासाः ।। सू० १२॥ चूर्णी-- 'तेण परं' इत्यादि । 'तेण परं' ततोऽनन्तरं पाण्मासिके परिहारस्थाने प्रतिसेविते आलोचनाकाले 'पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा परिकुञ्चिते वा अपरिकुञ्चिते वा परिकुञ्चनया वा अपरिकुञ्चनया वा आलोचिते इत्यर्थः 'ते चेव' ते एव प्रतिसेवनानिष्पन्नाः स्थिताः 'छम्मासा' षण्मासाः नाधिकमप्रतिकुञ्चनाप्रतिकुञ्चनानिमित्तमारोपणमिति ॥ सू० १२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा चाउमासियं वा पंचमासियं वा एएसिं परिहारट्ठाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा छम्मासियं वा तेण परंपलिउंचिए वा अपलिचिए वा ते चेव छम्मासा
छाया-यो भिक्षुर्मासिकं वा द्वैमासिकं वा त्रैमासिकं वा चातुर्मासिकंवा पाञ्चमासिकं वा एतेषां परिहारस्थानानामन्यतम परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अपरिकुच्य आलोचयतः मासिकं वा द्वैमासिक वा त्रैमासिक वा चातुर्मासिकंवा पाञ्चमासिक चा परिकुच्य आलोचयतः द्वैमासिकं वा त्रैमासिक वा चातुर्मासिक वा पाञ्चमासिक वा पाण्मासिक वा तत. पर परिकुञ्चिते वा अपरिकुञ्चिते वा ते एव षण्मासाः ॥ सु० १३ ॥
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निशीथसूत्र
छाया - यो भिक्षुटुशोऽपि मासिकं चा बहुशोऽपि सातिरेकमासिकं या बहुशोऽपि द्वैमासिकं वा यशोऽपि लातिरेकडैमासिकं वा बहुशोऽपि त्रैमासिक चा पाहुशोऽपि सातिरेकत्रैमासिक वा बहुशोऽपि चातुमासिक वा बहुमोऽपि सातिरेकचात. मासिक वा बहुशोऽपि पाञ्चमासिक चा बटुगोऽपि सातिनेकपाञ्चगानिक घा पोषां परिहारस्थानानामन्यतमं परिहास्थानं प्रतिसेव्य आलाचयेत् अपग्कुिच्य आलोचयतः वहशोपि मासिकं वा बहुशोणि सातिरेकमासिक वा बहशोऽपि मासिक वा बाशोऽपि सातिरेकडैमासिक वा बहुशोऽपि चैमासिका बहुशोऽपि सातिरकत्रैमासि वा वहुशोऽपि चातुर्मासिक वा बहुशोऽपि सातिरेकचातुर्मासिक वा माशोऽपि पाचमासिक वा बहुशोऽपि सातिरेकपाञ्चमासिक वा परिकुच्य आलोचयतः गुशोऽपि मासिक वा बहुशोऽपि सातिरेकडैमासिकं वा यशोऽपि त्रैमालिक या बमोऽपि सातिरेकत्रैमासिक वा बहुशोधि चातुर्मासिकं वा बहुगोप सातिरेकातुमालिक वा बहशोऽपि पाञ्चमासिक वा यहुशोऽपि सातिरेकपाश्चमासिक वा वधुशोऽपि पाण्मासिक वा ततः परं परिकुञ्चिते वा अपरिकुञ्चिते वा ते एव पण्मासाः ॥ सू०१६॥
चूर्णी -- 'जे भिक्खू' इत्यादि । व्याख्या स्पष्टा, नवरम्-बहुम इति त्र्यादिग्रमृत्यनेकवारमिति वाच्यम् । अत्र शिष्य प्रश्नयति-सूत्रे यदुक्तम्-पाण्मासिकप्रायश्चित्तादुपरि '....ते चव छम्मासा' ते एव पणमासाः नाधिकमिति, तत् कुतो नाधिक प्रायश्चित्तं वति यथा मासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवनानिमित्तकप्रायश्चित्तावसरे सकपटस्य द्वैमासिकप्रायश्चित्तविधानं कृतम् , तथा पण्मामप्रायश्चित्तावसरे सकपटस्य सप्तमासादिकं वक्तव्यम् किन्तु तथा न कृत्वा पण्मासावधिकमेव प्रायश्चित्तं प्रतिकुञ्चनाया अपतिकुञ्चनायाश्च विहिनम् । एवमेव 'बहुसोवि मासियं' इत्यादिसूत्रेष्वपि षण्मासावधिकमेव प्रायश्चित्तदानं विहितं तदत्र किं कारणम् ! इति चत् अत्रोच्यतेसत्यम् , पण्मासादधिकं प्रायश्चित्तं प्रतिकुञ्चिताय वक्तव्यम् किन्तु इह जीतकल्पोऽयम् । अयं भावः-यस्य तीर्थकरस्य ऋषभादेः यावत्प्रमाणकम् उत्कृष्टं तपःकरणम् , तस्य तीर्थकरस्य शासनेऽन्यसाधूनामुत्कृष्टं प्रायश्चित्तदानं तावत्प्रमाणकमेव, न ततोऽधिकं कदाचिदपि दातव्यं भवेत, ततोऽन्तिमतीर्थकरस्य भगवतो महावीरस्वामिन उत्कृष्टं तपः पाण्मासिकम् , ततो महावीरस्वामिनः शासने सर्वोत्कृष्टं प्रायश्चित्तदानं पाण्मासिकमेवेति बोध्यम् ।
तीर्थकर ऋषभदेलस्वामिनः शासने द्वादशमासिकं प्रायश्चित्तमासीत् भगवता आदिनाथेन द्वादशमासिकतपमः समाचरितत्वात् । मध्यमानां द्वाविंशतितीर्थक्राणां शासने तु अष्टमासिकमेव प्रायश्चितम् , तत्र तपःकरणस्य तथाप्रमाणत्वात् , इति । अत्र महावीरशासने तु पाण्मासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवनयाऽपि आलोचनां दुर्वतो नाधिकमारोपणम् , अतस्तदेव-पाण्मासिकमेव प्रायश्चित्तं नाधिकमिति, अत्राइ भाष्यकार:
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २० सू०१७ मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवनप्रायश्चित्तविधिः ४३९ भाष्यम्- एसा रीई आरिय, गणहरमाइहि भासिया सुत्ते ।
पंच गमा णायब्वा, बहुसोवि य सेवणाविसए ॥ छाया--पपा रीतिः आर्यगणधरादिभि पिता सूत्रे ।
पञ्च गमा ज्ञातव्याः, बहुशोऽपि च सेवनाविषये ॥ अवचूरिः -- 'एसा' एषा-पूर्वोक्तसूत्रप्रोक्ता 'रीई' रीतिः प्रकारः 'आरियगणहरमाइहि' आर्यगणधरादिभिः तीर्थकरगणधरादिभिः 'सुत्ते' सूत्रे-आगमे 'भासिया' भाषिताप्ररूपिता, कुत्र विषये ? इत्याह-'बहुसोवि य सेवणाविसए' बहुशोऽपि- बहुवारानपि सेवनाविषयेसेव्यमानपापस्थानविषये 'पंच गमा' पञ्च गमाः-सूत्रप्रकाराः 'णायच्या' ज्ञातव्या इति । अयं भाव:प्रायश्चित्तदानं च द्रव्यक्षेत्रकालभावायाश्रित्य सेवितुः परिणामविशेषं च विचिन्त्यैव भवति, यथा- , अनेन द्रव्यक्षेत्रादिविषये कीदृशं कारणविशेषमाश्रित्य पापस्थानं सेवितमित्यादि, तथा-पापस्थानसेवनसमयेऽस्य कीदृश आत्मपरिणाम आसीदित्यादि, तथा प्रतिसेवकस्य-ऋजुजड-वक्रजडादित्वमपि विचारणीयं भवेत् , गीतार्थागीतार्थत्वादिकम् माभोगानाभोगादिकं च भावनीयं भवेत् , इत्याधनेककारणानि विभाव्यैव तीर्थकरगणघरादिभिरेपा रीतिः प्ररूपितेति नात्र किमपि शङ्कास्थानं तेषामनन्तज्ञानित्वादिति ॥ सू०१६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू मासियं वा साइरेगमासियं वा दोमासिय वा साइरेगदोमासियं वा तेमासियं वा साइरेगतेमासियं वा चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासिय वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा एएसि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं गविए वि पडिसेवित्ता से विकसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया पुग्विं पडिसेवियं पुब्बिं आलोइयं १ पुब्बिं पडिसेवियं पच्छा आलो इयं २ पच्छापडिसेवियं पुब्बिं आलोइयं ३ पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४, अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४, अपलिउचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जं एयाए पट्ठवणाए पट्टविए निविसमाणे पडिसेवेइ से विकसिणे तत्थेव आरुहियत्वे सिया ॥१७॥
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निशीथसो छाया-यो भिक्षुर्मासिकं वा सातिरेकमासिकं वा द्वैमासिकं चा सातिरेकडैमासिकं वा त्रैमासिकं वा सातिरेकत्रैमासिकं वा चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिक वा पाञ्चमासिकं वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा एतेषां परिहारस्थानानामन्यतमं परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अपरिफुच्य आलोचयतः स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्त्यं स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोपयितव्यं स्यात् , पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् १, पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् २, पश्चात्प्रतिसवितं पूर्वमालोचितम् ३, पश्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् ४, अपरिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितम् १, अपरिकुञ्चिते परिकुञ्चितम् २, परिकुञ्चिते अपरिकुञ्चिनम् ३, परिकुञ्चिते परिकुञ्चितम् ४, अपरिकुञ्चिते अपरिचितमालोचयतः सर्वमेतत् स्वकृत संहत्य यत् पतया प्रस्थापनया प्रस्थापितो निर्विशमानः सन् प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोपयितव्यं स्थात् ।। सू० १७ ॥
चूर्णीयः खलु प्रायश्चित्तकरणसमये पुनरपि पापस्थानं प्रतिसेवते तमधिकृत्य सूत्रमिदं प्रवर्तते-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मासियं वा मासिकं धा 'साइरेगमासियं वा सातिरेकमासिकं वा किञ्चिदधिकैकमासेन संपादितम् , एवं द्वैमासिकं वा सातिरेकद्वैमासिकं वा, त्रैमासिकं वा सातिरेकत्रैमासिकं वा, चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिकं वा अतिरेकेणाऽधिकेन पञ्चदिनाधिकेन सहितं चातुर्मासिमिति सातिरेकचातुर्मासिकम् , एवम् 'पंचमासियं पा' पाञ्चमासिकं वा 'साइरेगपंचमासियं वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा मासपञ्चकात् किञ्चिदधिक परिहारस्थानम् 'एएर्सि' एतेपां पूर्वोक्तानाम् 'परिहारद्वाणाणं' परिहारस्थानानां मध्यात् 'अन्नयरं' अन्यतमं यत् किमपि अन्यतममेकं 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम् प्रायश्चित्तस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य उपयुक्तपापस्थानमध्यात् यस्य कस्याप्येकस्य परिहारस्थानस्य प्रतिसेवनां कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत् ताशपापस्थानं प्रकटीकुर्यात् , तत्र 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अपरिकुच्य मायामकृत्वाssलोचयतः आलोचनां कुर्वतः श्रमणादेः । इदं खलु सूत्रं परिहारनामकप्रायश्चित्ततपसः प्रतिपादकम् अतस्तस्य पस्हिारनामकतपसो विधिमाह-'ठवणिज्ज' इत्यादि, 'ठवणिज्ज ठावइत्ता' स्थापनीय स्थापयित्वा, तत्र अपरिकुच्यालोचयतः परिहारतपसो दानसमये आचार्यः तस्मै तादृशं विधिमुपदर्शयति-यः खलु प्रतिसेवकः परिहारतपसः प्रायश्चित्तस्थान प्राप्तवान् स परिहारनामकतया ग्रहणाय सर्वेषां श्रमणश्रमणोजनानां परिज्ञानाय सकलगच्छसमक्षं निरुपसर्गनिमितकं कायोत्सर्ग पूर्व करोति तस्य प्रतिसेवकस्य कायोत्सर्गकरणानन्तरम् आचार्यः प्रतिसेवकं प्रति कथयति त्वं परिहारी, अहं कल्पस्थितोऽतो यावत्तव तपः पूर्ण भविष्यति तावदहं वाचनादिरूपं साहाय्यं करिष्यामीति, अन्यो वाऽनुपारिहारिकस्तव वाचनादिसाहाय्यं करिष्यति, मन्यो वाऽनुपारिहारिकस्तव वैयावृत्य करिष्यति, इत्येवंरूपेण 'ठवणिज्ज' स्थापनीयम्-साहाय्याद्यर्थस्थाप
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २० सू०१७ मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवनप्रायश्चित्तविधिः ४४१ नयोग्यम्-अनुपारिहारिकं पारिहारिकानुकूलवत्तिनं कञ्चित्साधुम् 'ठवइत्ता' स्थापयित्वा-नियतं कृत्वा अनुपारिहारिकेण वैयावृत्त्यकारेण च 'करणिज्ज वेयावडियं करणीयं वैयावृत्त्यम्, अस्य परिहारतपसि वर्तमानस्य यथायोग्यमनुशिष्टयपालम्भोपग्रहलक्षणं वैयावृत्यं करणीयम् । 'ठाविएवि पडिसेबित्ता' स्थापितेऽपि-अनुशिष्टयुपालम्भादिभिः क्रियमाणेऽपि वैयावृत्ये प्रतिसेविता कदाचित् किमपि अपराधस्थानं प्रतिसेवको भवेत् पापस्थान सेवेत कथयेच्च हे भगवन् ! अहममुकं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः, ततस्तस्य 'सेवि' तदपि तत्संबन्ध्यपि प्रायश्चित्तम् 'कसिणे' कृत्स्नम् सर्व पूर्वसेवितं सम्प्रति सेवितं चेति द्वयमपि 'तत्थेव' तत्रैव परिहारतपस्येव 'आरुहियन्वे सिया' आरोपयितव्यं स्यात् सर्व संमेलनीयमित्यर्थः, मत्र पापस्थानस्य पूर्वपश्चात्सेवनाविषयां चतुभङ्गी दर्शयितुमाह-'पुब्धि' इत्यादि, 'पुचि पडिसेवियं पुचि आलोइयं पूर्व प्रतिसेवितंपूर्वमालोचितम् १, अत्र पूर्वमित्यत्र पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पूर्वानुपूर्ध्या इति ज्ञातव्यम् , ततश्चायमर्थः-गुरुलघुपर्यालोचनया पूर्वानुपा लघुपञ्चकादिक्रमेण यत् प्रतिसेवितम् तत् पूर्व पूर्वानुपर्ध्या प्रतिसेवनानुक्रमेण आलोचितमिति प्रथमो भङ्गः १ । द्वितीयभङ्गमाह-'पुब्बिं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम्-पूर्व गुरुलघुपालोचनया पूर्वानुपूर्त्या मास. लघुकादि प्रतिसेवितम् तदनन्तरं च तथाविधाल्पप्रयोजनोत्पत्तो प्रमादादिना गुरुलघुपर्यालोचनयैव लघुपञ्चकादि प्रतिसेवितम् आलोचनासमये च पश्चात्-पश्चानुपूर्व्या आलोचितम्-यथापूर्व लघुपञ्चकाद्यालोचितम् पश्चात् लधुमासिकादिकमालोचितमिति द्वितीयो भङ्गः २ । अथ तृतीयभग दर्शयितुमाह-'पच्छा पडिसेवियं इत्यादि 'पच्छा पडिसेवियं पुन्धि आलोइयं पश्चाप्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् , तत्र पश्चानुपूर्व्या प्रतिसेवितं गुरुलघुपर्यालोचनामन्तरेण पूर्व गुरुमासादिकं प्रतिसेवितम् पश्चात् लघुपञ्चकादीति आलोचनासमये आनुपूर्व्या नालोचितम् पूर्व लघुपञ्चकाद्यालोचितम् पश्चात् तदनन्तरं गुरुमासादिकमालोचितमिति तृतीयो भङ्गः ३ । अथ चतुर्थभङ्गमाह-'पच्छा पडिसेवियं' इत्यादि । 'पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं पश्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् , तत्र पश्चानुपूर्ध्या प्रतिसेवितं गुरुलघुपर्यालोचनादिविरहितं यथाकथंचन प्रतिसेवितमिति पश्चात् पश्चानुपूर्व्या आलोचितं प्रतिसेवनानुक्रमेणैव आलोचितम् , अथवा स्मृत्वा स्मृत्वा यथाकथंचनापि आलोचितमिति चतुर्थो भङ्गः ४ । अत्र प्रथमचतुर्थभनौ अप्रतिकुञ्चनायाम् , द्वितीयतृतीयभगौ तु प्रतिकुश्चनायामिति अप्रतिकुश्चित -प्रतिकुञ्चिताभ्यामियं चतुझी कृतेति । तामेव अप्रतिकुश्चिते अप्रतिकुञ्चितम् , इत्येतद्विषयां चतुर्भङ्गी दर्शयितुमाह-'अपलिउंचिए अपलिउंचियं' इत्यादि, 'अपलिउंचिए अपलिउंचियं अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम, यदा खल अतिचारान् प्राप्तवान् आलोचनाकाले मालोचनाभिमुखो भवेत्तदा स एवं संकल्पयति यथा ये केचन मयि अतिचाराः जातास्ते सर्वेऽपि अतिचारा मया आलोचनीयाः न कोऽपि गोप
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निशीथसूत्र
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नीयः, एवं पूर्वसंकल्पकाले अप्रतिकुचिते आलोचनासगये अप्रतिकुंचितमेव आलोचयतीनि प्रथमो भङ्गः १, अथ द्वितीयभङ्गमाह-'अपलिउंचिए पलिउंचियं' नि, 'अपन्निचिए पलिउंचि' अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् यथा-पूर्व संकल्पकाले आलोचनाविचारकाले पनि कुञ्जिनम--निका. टभावेन समुपस्थितः आलोचनासमये तु प्रतिकुञ्चिन कपटभानेन आगनयनानि हिमायो भारः २, अथ तृतीयभगमाह . 'पलिउंचिए अपलिउंचि' प्रनिश्चिते अप्रतिकुन्नितम पूर्वसंगापकाले प्रतिकुञ्चितम् यथा मया न सर्वे अति चारा आलोचनीयाः प्रकारण पूर्वसंकायका प्रतिकुञ्चिते आलोचनासमये अन्तःकरणस्य परावर्तनात मप्रतिकुंजिनम- कपटरहितं यथा स्यात तथा आलोचयतीति तृतीयो भगः ३ । अथ चतुर्थभनमाह-'पलिउचिए पलिउंचियं' प्रनिश्चित प्रतिकुञ्चितम्, पूर्वसंकल्पकाले पापस्थानप्रतिसेवकेन प्रनिकुञ्चितं यथा मया न सर्वे अपराधा मालो. चनीयाः, तत एवंप्रकारेण संकल्पकाले प्रतिकुंचिने ततः मालोचनाकरणसमयेऽपि प्रतिश्चित सकपटमेव आलोचयतीत्येप चतुर्थो भगः ४ । एषु चतुर्पु भन्ने पु मध्ये यत् 'अपनिउचिए अपलिउंचियं' अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुचितम् पूर्व संकल्पकाले निष्कपटेन संकल्पितम् आलोचनाग्रहणकालेऽपि निष्कपटपूर्वकम् 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः, ततश्चायमर्थः--गावन्तोऽतिचाराः प्रतिसेविताः तान् सर्वानेव निरवशेषमालोचयतः श्रमणादेः 'सबमेयं सर्वमेनत यत् यदा यत्तदपराधजातम् , यदि वा कथमपि प्रतिकुञ्चना कृता स्यात् ततः प्रतिकुञ्चनानिप्पन्नं, यध गुरुणा सहालोचनाकाले उच्चासनतुल्यासनोपवेशनादिजनितं तथा या च आलोचनासमये अममा चारी सेविता तन्निष्पन्नं च सकलमेतत् अपराधकारिणा प्रायश्चित्त प्रतिसेवन श्रमणादिना 'सकयं' स्वकृतम्-स्वयमेव आत्मना प्रतिसेवितम् मात्गनैव कृतम् 'साहणिय' सात्य-एकत्र मील यित्वा, तथा पुनश्च 'जं एयाए' यत् एतया अनन्तरपूर्वकथिनया पानामिक्या पकमासिकादिकया वा 'पटवणाए' प्रस्थापनया पूर्वकाले कृतस्यातिचारस्य विषये या प्रस्थापना प्रायश्चित्तदानरूपा तया प्रस्थापनया 'पट्टविए' प्रस्थापित.-प्रायश्चित्त करणे नियोजित 'निन्चिममाणे' निर्विशमानः तपसो निस्सरन् प्रायश्चित्तस्य चरमं तप. सेवमानः तपः समाप्य ततो निवर्तय. नित्यर्थः यत् पुनः प्रमादतो विषयकपायादिभिर्वा 'पडिसेवई' प्रतिसेवने-पापस्यानस्य प्रतिसेवनां करोति तस्यां प्रतिसेवनायां यत् प्रायश्चित्तं प्राप्यतं 'सेवि कपिणे' नदपि कृत्स्नम्तदपि सर्व प्राश्चित्तम् 'तत्थेव' तत्रैव-पूर्वप्रस्थापिते एवं प्रायश्चित्ते 'आरुहिये सिया' आरोपयितव्यं स्यात् सर्वमेकत्र संमेलनीयमित्यर्थः ।। सू० १७ ॥ , सूत्रम्--जे भिक्खू बहसोवि मासियं वा, वहसोवि साइरेगमासियं वा बहुसोवि दोमासियं वा बहुसोचि साइरेगदोमासियं वा
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चूर्णिभाष्यावचूरि: उ० २० सू० १८-२० मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवनप्रायश्चित्तविधिः ४४३
बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि साइरेगतेमासियं वा बहुसोवि चाउम्पासिय वा बहुसोचि साइरेगचाउम्मासियं वा वहुसोवि पचंमा सियं वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारठ्ठाणाणं अण्णयरं परिहारठ्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलि उंचिय आलोएमाणस्स ठवणि ज्जं ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ठाविए वि पडिसेवित्ता से विकसि तत्थेव आरुहियव्वे सिया, पुव्वं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं १, पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४ | अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिअचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलि उंचियं ४ | अपलिउंचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्ट्वणाए पट्ठविए निव्विसमाणे पडिसेवेइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया || सू० १८ ॥
जे भिक्खु मासियं वा साइरेगमासि वा दोमासियं वा साइरेगदोमासियं वा तेमासियं वा साइरेगतेमासियं वा चाउम्मांसियं वा साइरेगचाउम्मासयं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारट्ठाणाणं अण्णयः परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा पलिउंचिय आलोएमा णस्स वणिज्जं ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ठाविए वि पडिसेवित्ता से विकसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया, पुर्व्वि पडिसेवियं पुवि आलोइयं १, पुर्व्वि पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छापडिसेवियं पुर्वि आलोइयं ३, पच्छापडिसेवियं पच्छाआलोइयं ४, अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४, पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्टवणाए पट्टविए णिव्विसमाणे पडिसेवइ से विकसि तत्थेव आरुहियव्वे सिया || सू० १९ ॥
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निशीथयो ___ जे भिक्खू बहुसोवि मासियं वा बहुसोवि साइरेगमासियं वा बहुसावि दोमासियं वा बहुसोवि साइरेगदोमासियं वा बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि साइरेगतेमासियं वा बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासिय वा बहसोवि साइरेगपंचमासियं वा एएसिं परिहारहाणाणं अण्णय परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा पलिउंचिय आलाएमाणस्त ठवणिज्ज ठावइत्ता कर्रागज्ज वेयावडियं ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कमिणे तस्येव आरुहियत्वे सिया पुचि पडिसेवियं पुल्विं आलोइयं १, पुब्बि पडिसेवियं पच्छा आलाइयं २, पच्छा पहिसेवियं पुचि आलाइयं ३, पच्छापडिसेवियं पच्छा आलाइयं ४ अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिंउचिए पलिउंचियं २, पलिउचिए अपलिउंचिंय ३, पलिउच्चिए पलिउचियं ४ । पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स सबमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्ठवणाए पट्टविए निविसमाणे पडिसेवेइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वेसिया॥ सू० २०॥
छाया-यो भिक्षुहुशोऽपि मासिकं या बहुशोऽपि सातिरेकमासिकं या, बटु. शोऽपि डैमासिकं वा यहुशोऽपि सातिरेकद्वैमासिक वा, पदुशोऽपि त्रैमासिक वा बहुः शोऽपि सातिरेकत्रैमासिकं वा बहुशोऽपि चातुर्मासिकं वा वहुशोऽपि सातिरेकचातुसिकं वा वहुशोऽपि पाञ्चमासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकपाश्चमासिकं वा, पतेषां परिहारस्थानानाम् अन्यतमं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अप्रतिकुच्य आलोचयत स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्त्यम्, स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोहयितव्यं स्यात्, पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् १, पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् २, पश्चात् प्रतिसेवितं पूर्वमालोचिनम् ३, पश्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् ४। अपरिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितम् १, अपरिकुञ्चिते परिकुञ्चितम् २ परिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितम् ३, परिकुञ्चिते परिकुञ्चितम् ४ । अपरिकुञ्चिते, अपरिकुञ्चितम् आलोचयनः सर्वमेतत् स्वकृतं संहत्य य पतया प्रस्थापनया प्रस्थापितो निर्विशमानः प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोहयिनव्यं स्यात् ॥ सू० १८ ॥
यो भिक्षुर्मासिक वा सातिरेकमासिकं वा डैमासिकं वा सातिरेकं ढमासिकं वा त्रैमासिकं चा सातिरेकत्रैमासिक वा चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिक वा पाचमासिकं वासतिरे
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २० २०२१ परिहारस्थानप्रस्थापितस्याऽऽरोपणाविधि. ४४५ कपाञ्चमासिकं वा एतेषां परिहारस्थानानाम् अन्यतम परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् परिकुच्य आलोचयतः स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्यं, स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोहयितव्यं स्यात्,पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम्, पूर्व प्रतिसेतितं पश्चादा. लोचितम् २, पश्चात्प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् ३ पश्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् ४। अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम् १, अतिकुञ्चिते प्रतिकुन्वितम् २, प्रतिकुञ्चिते मप्रतिकुञ्चितम् ३, प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् ४। प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितमालोचयत. सर्वमेतत् स्वकृतं संहृत्य य पतया प्रस्थापनया प्रस्थापितो निर्विशमानः प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोहयितव्यं स्यात् ॥ सू० १९॥
यो भिक्षुर्वहुशोऽपि मासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकमासिकं वा बहुशोऽपि द्वैमासिक वा बहुशोऽपि सातिरेकद्वैमासिकं वा बहुशोऽपि त्रैमासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकत्रैमासिकं वा बहुशोऽपि चातुर्मासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकचातुर्मासिकं वा बहुशोऽपि पाञ्चमासिकं वा यहुशोऽपि सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, पतेषां परिहारस्थानानामन्यतमम् परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् प्रतिकुच्य आलोचयतः स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्यं स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोहयितव्यं स्यात्, पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् १, पूर्व प्रतिसेवितं पञ्चादालोचितम् २, पञ्चात्प्रति सेवितं पूर्वमालोचितम् ३, पञ्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् ४ । अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम् १, अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् २, प्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुश्चितम् 3, प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् ४ । प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितमालोचयतः सर्वमेतत् स्वकृतं संहत्य य एतया प्रस्थापनया प्रस्थापितो निर्विशमानः प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोहयितव्यं स्यात् ॥सू० २०॥
चूर्णी-इदं सूत्रत्रयं ( १८-१९-२० ) बहुशः सातिरेकेति संयोगरूपं प्रायश्चित्तारोपणाविषयकं बहुशः सातिरेकेति संयोगमधिकृत्य पूर्ववदेव व्याख्येयम् ।
पूर्वोक्तानां सर्वेषा परिहारस्थानसेवनविषयकप्रायश्चित्तसूत्राणामुपसंहारं वक्तुकामों भाष्यकारः पूर्वसूत्रातिदेशेन प्राह
मुत्तविभासा जा उ, हिटिममुत्तेस सोलसेसु य ।
सा चेव इहं णेया, ठवणा-परिहार-णाणत्तं ॥१॥ छाया--सूत्रविभाषा या तु अधस्तनसूत्रेषु षोडशसु च ।
सैव इह ज्ञातव्या, स्थापना-परिहार-नानात्वम् ॥१॥ अवचूरि:- या तु सूत्रविभाषा 'जे भिक्खू' इत्यादि सूत्रावयवव्याख्या एकद्विकत्रिकादिसंयोगप्रदर्शनस्वरूपा अधस्तनसूत्रेषु-आद्यसूत्रेषु षोडशसंख्यकेषु वर्णिता सा एव विभाषा इह उपरितनेषु सप्तदशादारभ्य 'बहुसोवि साइरेग' इति सयोगसूत्रपर्यन्तेष्वपि सूत्रेषु ज्ञातव्या वक्तव्येत्यर्थः । अथ यदि सैव वक्तव्यता इहापि तदा पूर्वसूत्रेभ्य एतेषां सूत्राणां को विशेषस्तत्राह
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निशीथसूत्रे
'ठवणा' इत्यादि, स्थपनापरिहारनानात्वं-स्थापनापरिहारविषये भेदो ज्ञातव्यः, अयं भावःअधस्तनपूर्वसूत्रेपु आदितः षोडशसूत्रपर्यन्तसूत्रेषु परिहारतपो न कथितम् , इह तु सप्तदशसूत्रादनन्तरसूत्रेषु परिहारतपसः प्रतिपादनं कृतम् , इत्येतावानेव विशेष इति । सू० १८-२० ॥
इदानी मासादौ प्रस्थापिते अन्तरा यदन्यदिनमासादिपापस्थानं प्रतिसेवते तत्र यस्मिन् पापस्थाने दिवसग्रहणप्रमाणं प्रस्थापितं स्थापनारूपं भव्यते तदेव दर्शयति-'छम्मासियं इत्यादि ।
सूत्रम-छम्मासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहे सकारणं अहीणमइरितं तेण परं सवीसइराइया दो मासा ।। सू० २१॥
छाया पाण्मासिकं परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारः अन्तरा द्वमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विंशतिरात्रिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनातिरिक्तं तेन परं सविंशतिरात्रौ द्वौ मासौ ॥ सू० २१॥
चूर्णी- 'छम्मासियं' इत्यादि । 'छम्मासियं' पाण्मासिकम् तत्र पडिति संख्याविशेषलक्षणं मासिकम्, तत्र मानानि समयावलिकादीनि असतीति मासः, मासो मासान्तक. कालः परिमाणमस्येति मासिकम्, षभिर्मास निष्पन्नं यत् तत् पाण्मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम्-परिहारस्य स्थान परिहारस्थानम्-सावद्यकर्मणामनुष्ठानलक्षणम् तत्प्रति 'पट्टविए' प्रस्थापितः अशुभकर्मणां क्षयाथ स्थापितः प्रायश्चित्तं वहमान इत्यर्थः 'अणगारे' अनगार:-श्रमणः श्रमणी वा 'अंतरा दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता' अन्तरा द्वैमासिक परिहारस्थानं प्रतिसेव्य तत्र अन्तरा मध्ये समारब्धप्रायश्चित्तस्य मध्ये इत्यर्थः द्वैमासिकम्-मासद्वयेन संपादनयोग्यं परिहारस्थानं पापस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य-प्रायश्चित्तकरणसमयेऽपि द्वैमासिकप्रायश्चित्तस्थानस्य प्रतिसेवनं कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत् कृतपापकर्मण आलोचना गुरवे दर्शयेत् । तत्र मायारहितभावेन पालोचनां कुर्वतः 'अहावरा वीसइराइया आरोवणा' अथापरा विंशतिरात्रिको आरोपणा, तत्र अथेत्ययमानन्तर्यार्थको निपातः, अपरा-मासद्वयादन्या, यदि अयं पाण्मासिकं तपो वहन् मध्ये द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेवते प्रतिसेव्य मायारहितमालोचयेत् तदा गुरुः तस्मै प्रतिसेवितमासद्वयोपरिविंशतिरात्रिकी आरोपणा कर्तव्या विंशतिरात्रिसम्पादनीयप्रायश्चित्तं वर्धयेदिति भावः । पण्णां मासानां त्रिभागं कृत्वा तत्र भागद्वयं परित्यजेत् , एक भाग मासद्वयप्रमाणं प्रायश्चित्तं पुनरपरं दद्यात् तदेवं मासदयसम्पाचं प्रायश्चित्तं समीलयित्वा विंशतिरात्रिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् ।
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चूर्णिभाप्यावरि: उ० २० सू० २२-२६ परिहारस्थानप्रस्थापितस्यारोपणाविधिः ४४७ तत्र रात्रिग्रहणमहोरात्रस्योपलक्षणम् रात्रावेव अहोरात्रस्य परिसमाप्तेः तदयं निष्कर्षार्थः प्रचलितपाण्मासिकप्रायश्चित्ते एव पुनरपि द्वैमासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवकाय विंशत्यहोरात्रप्रमाणकं पुनरपि प्रायश्चित्तं दद्यात्-पण्मासस्य द्वौ द्वौ भागौ परित्याज्यौ एकैको भागो ग्रहीतव्यः, तावता मासद्वययुक्तविंशत्यहोरात्रप्रमाणकमेव प्रायश्चित्तमापन्नं भवति । षण्मासभागत्रयं विशदयतिपण्मासस्य द्विद्विभागरूपेषु त्रिपु भागेपु 'आइमज्झावसाणे' आदिमध्यावसाने पण्मासस्य आदौ मध्ये अवसाने च द्विभागरूपे 'सअर्ड्स' सार्थम्-तत्र अर्थः प्रयोजनम् येन प्रयोजनेन प्रयुक्तः सन् तदाचरितम् तेन प्रयोजनेन सहितम् 'सहेर्ड' सहेतुम् , तत्र हेतुः सामान्यकारणम् , येन हेतुना प्रयुक्तः सन तदाचरितं तत्सहितम् 'सकारणं' सकारणम्, विशेषार्थहेतुकारणैः प्रयुक्तः सन् तदाचरितं मासद्वयात्मकं परिहारस्थानम् तत्सर्वं सपूर्ण पाण्मासिकसम्बन्धिद्विमासम् विंशत्यहोरात्राणां त्रिवारकरणात् , तच्च 'अहीणमइरित्तं' महीनमतिरिक्तम् न हीन न्यूनं नातिरिक्तं नाधिकम् एकढिदिनादिनापि न न्य्नं नाप्यधिक संपूर्णमेव । अयं भावः-यदि प्रचलितषाण्मासिकप्रायश्चित्तकरणावसरे केनापि कारणादिना पुनरपि मासद्वयात्मकपरिहारस्थानस्य प्रतिसेवनं करोति कृत्वा चाकपटमालोचयेत् तदा विंशत्यहोरात्रंद्विमामादपरम् प्रायश्चित्तं दधात् विंशत्यहोरात्राधिकं संपूर्णमासद्वयं प्रायश्चित्तं दद्यादिति, अतएव 'तेण परं सवीसइराइया दो मासा' तेन परं तस्मायण्मासादुपरीत्यर्थः सविंशतिरात्रिको द्वौ मासौ प्रायश्चित्तत्वेन भवतः तत्र न किञ्चिदपि हातव्यमिति भावः ।। सू० २१ ॥
सूत्रम्-पंचमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमामासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअठं सहेउं सकारणं अहीणमतिरित्तं तेण परं सवीसराइया दा मासा ॥ सू० २२॥
चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं सवीसइराइया दो मासा ॥ सू० २३ ॥
तेमासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरो
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निशीथसूत्रे ४४८ वणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं सवीसइराइया दामासा ।। सू०२४ ॥
दोमासियं परिहारहाण पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं सवीसइराइया दो मासा ॥ सू० २५॥ ।
मासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसडराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहे सकारणं अहीणमइरितं तेण परं सवीसइराइया दोमासा ।। सू० २६ ॥
छाया- पाञ्चमासिकं परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारः अन्तरा द्वैमासिकं परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचययेत् अथापरा विंशतिरात्रिकी आरोपणा आदिमध्याव-साने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तं तेन पर सविंशतिरात्रिको हौ मासौ ॥ सू० २२॥
चातुर्मासिक परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारः अन्तरा द्वमासिकंपरिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विशतिरात्रिकीआरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहोनमतिरिक्तं तेन परं सर्विशतिरात्रिको हौ मासौ ॥ सू० २३॥
त्रैमासिक परिहारस्थान प्रस्थपितोऽनगारः अंतरा द्वैमासिकं परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विशतिरात्रिकी आरोपणा आदिमध्यावरूाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्तम् तेन परं सविंशतिरात्रिको द्वौ मासौ ॥ सू० २४॥
द्वैमासिक परिहारस्थानप्रस्थापितोऽनगारः मासिक परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विंशतिरात्रिकी आरोपणा सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परं सविंशतिरात्रिको द्वौ मासौ ॥ सू०२५ ॥
मासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा द्वैमासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विशतिरात्रिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तम् तेन परं मचिंशतिरात्रिको द्वौ मासौ २६ ॥ सू० २२-२६ ॥
चूर्णी-एतानि पाञ्चमासिकपरिहारस्थानप्रस्थापितानगारस्य द्वैमासिकपरिहारस्थानसेवनसूत्रादारभ्य चातुर्मासिक त्रैमासिकद्वैमासिक मासिकपरिहारस्थानप्रस्थापितानगारस्य द्वैमासिकपरिहारस्थानसेवनसूत्रपर्यन्तानि पञ्च सूत्राणि पाण्मासिकसूत्रवदेव पाश्चमासिकादियथा
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चूणिभाष्यावचूरिः उ० २० सू० २७-२९ परिहारस्थानप्रस्थापितस्याऽऽरोपणाविधिः ५४९
योग व्यत्ययेन व्याख्येयानि । विशेषस्त्वयम्-यत् आदिमध्यावसाने पञ्चादिमासानां यथायोगं त्रयो भागाः करणीया इति ॥ सू० २२-२६ ॥
पूर्व पाण्मासिकादिमासिकपर्यन्तपरिहारस्थानप्रस्थापिताऽनगारस्य द्वैमासिकपरिहारस्थानसेवने सविंशतिरात्रिकद्विमासप्रायश्चित्तदानस्वरूपं प्रदर्शितम्, अथ सविंशतिरात्रिकद्विमासप्रायश्चित्तसेवनासमये तत्रापि यः कश्चित् साधुः पुनरपि द्वैमासिकपरिहारस्थानं सेवते तस्य प्रायश्चित्त विधिं दर्शयति- 'सवीसइराइयं' इत्यादि ।
सूत्रम्--सवीसइराइयं दामासियं परिहारहाणं पठविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअठं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं सदसराया तिण्णि मासा ।। सू० २७||
छाया-सविंशतिरात्रिकं द्वैमासिकं परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा द्वैमा. सिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विंशतिरात्रिकी मारोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तं तेन परं सदशरात्रास्त्रयो मालाः॥सू०२७॥
चूर्णी-'सवीसइराइयं' इत्यादि । 'सवीसइराइयं दोमासियं' सविंशतिरात्रिकं द्वैमा. सिकम् , तत्र विंशतिरात्रिभिः सहितमिति सविंशतिरात्रिकम्-विंशतिरात्यधिक द्वैमासिकं मासद्वयसंपादनयोग्यम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम्-सावधकर्भानुष्ठानम् , एतादृशकर्मणां निराकरणाय तदनुकूलपरिहारतपसि 'पट्ठविए' प्रस्थापित आरोपितः 'अणगारे' अनगार-भिक्षुक:-श्रमणः श्रमणी वा 'अंतरा' अन्तरा-तन्मध्येऽपि 'दोमासियं परिहारद्वाण पडिसेवित्ता' द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य द्वैमासिकपापस्थानप्रतिसेवनं कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत्-स्वकृतकर्मणः प्रकाशनं कुर्यात् तदा 'अहावरा वीसइराइया आरोवणा' अथापरा-ततोऽन्या पूर्व सेव्यमानद्विमासादन्या विंशतिरात्रिकी आरोपणा, तत्र तादृशमपरं वैमासिकं परिहारस्थानमासेव्य यदि अकपटमालोचयति तदा विंशत्यहोरात्रस्य प्रायश्चित्तं भवति । तच्च 'आइमज्झावसाणे' आदिमध्यावसाने विंशतिदिवसात्मके प्रतिभागे 'सअट्ट सहेउं सकारणं अहीणमइरित्त' सार्थ सहेतुकं सकारण-महीनमतिरिक्तम् अन्यूनानधिकम् यत् यत् प्रतिसेवितं तत्सर्वमेव दातव्यं प्रायश्चित्तरूपेण । 'तेण परं' तेन ततः परं प्रस्थापितद्वैमासिकप्रायश्चित्तस्य विंशतिरात्रिकारोपणासहितसविशतिरात्रिकं सर्वसंकलितं प्रायश्चित्तम् 'सदसराया तिणि मासा' सदशरात्रास्त्रयो मासाःदशाहोरात्रसहितास्त्रयो मासाः प्रायश्चित्तस्य भवन्तीति ॥ सू० २७ ॥
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निशीथसूत्रे
सूत्रम् -- सदसराइयं तेमासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअहं सहेउं सकारण अहीणमइरित्तं तेण परं चत्तारि मासा || सू० २८||
४५०
छाया सदशरात्रिकं त्रैमासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारः अन्तरा द्वैमासिकम् परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विंशतिरात्रिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने साथै सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तं तेन परं चत्वारो मासाः ॥ सु० २८ ॥
चूर्णी - 'सदसराइयं' इत्यादि । 'सदसराइयं तेमासियं' सदशरात्रिकं त्रैमासिकम् - दशाहोरात्रसहितं त्रैमासिकं पूर्वसूत्रोक्तम् 'परिहारद्वाणं' परिहारस्थानं सावधकर्मणामनुष्ठानलक्षणम्, तस्मिन् सदशरात्रिकत्रैमासिकपापनाशनाय परिहारतपसि 'पद्य विए अणगारे' प्रस्थापितोऽनगारः प्रायश्चित्तकरणाय नियुक्तो भिक्षुकः यदि 'अंतरा' अन्तरा - मध्ये 'दोमासियं परिहारठ्ठाणं' द्वैमासिकम् मासद्वयसंपादनीयं परिहारस्थानम् 'पडिसेवित्ता आलोएज्जा' प्रतिसेव्य प्रतिसेवनां कृत्वा आलोचयेत् - गुरुसमीपे आलोचनां कुर्यात् तदा 'अहावरा वीसइराइया आरोवणा' अथापरा विंशतिरात्रिको आरोपणा कर्त्तव्या प्रकृतप्रायश्चित्तादतिरिक्ता विशतिरात्रिप्रमाणा दातव्या । कथमित्याह - 'आइमज्झावसाणे' आदिमध्यावसाने प्रत्येकभागे 'सअहं सहेउं सकारण अहीणमइरित्तं' साथै सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तं सर्व संपूर्ण प्रायश्चित्तं दातव्यम् 'तेण परं चत्तारि मासा' तेन परम् - ततः पूर्वसूत्रो तात्परं सदशरात्रिकमासद्वयविंशतिरात्रिकारोपणसंमेलनात्परं चत्वारो मासाः प्रायश्चित्तरूपेण भवन्ति ॥ सू० २८ ॥
-
सूत्रम् - चाउम्मासि परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा दोमा - सियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअहं सहेलं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं सवीसइराइया चत्तारि मासा ॥ सू० २९ ॥
छाया - चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विंशतिरात्रिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने साथै सहेतुं सकारण महीनमतिरिक्तं तेन परं सविंशतिरात्रिकाश्चत्वारो मासाः ॥ सू० २९ ॥ चूर्णी - 'चाउम्मासियं' इत्यादि । ' चाउम्मासियं परिहारठ्ठाणं चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् - मासचतुष्टयेन संपादनीयं पूर्वसूत्रोक्तं परिहारस्थानं प्रति 'पट्टविए' प्रस्थापितः तस्मिन् चातुर्मासिकपरिहारस्थाने समुपस्थापितः 'अणगारे ' अनगारः, शेषं सर्व पूर्वसूत्रवदेव व्याख्येयम्,
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चर्णिभाष्यावचूरि. उ० २०सू३०-३३ परिहारस्थानप्रस्थापितस्याऽऽरोपणाविधिः ४५१ विशेषस्त्वयम्-अन सूत्रे सर्व प्रायश्चित्तमारोपणासहितम् 'सबीसइराइया चत्तारि मासा' सविंशतिरत्रिका विंशत्यहोरात्रसहिताश्चत्वारो मासाः प्रायश्चित्तरूपेण भवन्तीति, शेषं पूर्ववदिति ।। सू०२९॥
सूत्रम्-सवीसइराइयं चाउम्मासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सह सकारणं अहीणमइरित्त तेण परं सदसराइया पंच मासा ॥ सू० ३०॥
छापा-सविंशतिरात्रिक चातुर्मासिकं परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विशतिरात्रिकी आरोपणा आदि. मध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तं तेन परं सदशरात्रिका पञ्च मासाः ॥३०॥ ____ चूर्णी-'सवीसइराइयं' इत्यादि । सबीसइराइयं चाउम्मासियं' सविंशतिरात्रिक चातुर्मासिकम् विंशतिरात्रिसहितमासचतुष्टयसंपादनयोग्यम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम् , अत्र विंशत्यहोरात्रसहितेषु चतुर्पु मासेषु विंशत्यहोरात्रिकारोपणासंमेलने सर्वे 'सदसराइया पंच मासा' इति दशाहोरात्रसहिताः पञ्च मासाः प्रायश्चित्तत्वेन भवन्ति, शेषं सर्व पूर्ववदेव व्याख्येयमिति ।। सू०३०॥
सूत्रम्-सदसराइयं पचमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअट्ठ सहेउं सकारण अहीणमइरितं तेण परं छम्मासा ।। सू० ३१॥
छाया-सदशरात्रिनं पाञ्चमासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विशतिरात्रिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने साथै सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तं तेन परं पण्मासाः ॥३१
चूर्णी-'सदसराइयं' इत्यादि । 'सदसराइयं पंचमासिकं' सदशरात्रिकं पाञ्चमासिकम्, पूर्वसूत्रसंप्राप्तं दशाहोरात्रसहितं पाञ्चमासिकम्, शेष सर्व पूर्ववद् व्याख्येयम् , विशेषस्त्वयम्-अत्र दशाहोरात्रिक पाञ्चमासिकप्रायश्चित्ते विंशतिरात्रिकी आरोपणा भवति 'तेण परं छम्मासा' ततः सर्वसंकलिताः षड् पासा भवन्ति, न षण्मासादधिकं प्रायश्चित्तं भवतीति ।। सू० ३१ ॥
अथ पाण्मासिकादिपरिहारस्थानप्रस्थापनायां मासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवनायां पाक्षिकारोपणाविषयं प्रायश्चित्तविधि प्रदर्शयति-'छम्मासियं' इत्यादि ।
सूत्रम्-छम्मासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा
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निशीथस्
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आइमज्झावसाणे असढ सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं दिवड्डो मासो ॥ सू० ३२॥
छाया-पाण्मासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिकं परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परं यं? मासः । सू० ३२॥
चूर्णी-'छम्मासिय' इत्यादि । 'छम्मासियं परिहारहाणं' पाण्मासिकं परिहारस्थानम्-मासपट्कन संपादनयोग्यं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य तत् पापनिराकरणाय पाण्मासिकपरिहारतपसि 'पट्टविए अणगारे' प्रस्थापितोऽनगारः तादृशप्रायश्चित्तकरणाय तत्र नियोजितो भिक्षः यदि 'अंतरा' अन्तरा-तन्मध्ये तादृशप्रायश्चित्तकरणावसरे प्रमाढतो मोहनीयकर्मोदयाद्वा 'मासियं परिहारहाणं' मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेवते 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्यमासिकपरिहारस्थानस्य प्रतिसेवनां कृत्वा तादृशकर्मणां विनाशाय 'आलोएज्जा' आलोचयेत्स्वकृतपापस्य गुरुसमीपे प्रकाशनं कुर्यात् । तत्राकपटभावेन आलोचनां कुर्वतः श्रमणादेः 'अहावरा पक्खिया आरोवणा' अथापरा पाक्षिकी मारोपणा, अर्थात्-प्रायश्चित्तमध्ये पुनः प्रतिसेवितपरिहारस्थानस्यापनोदनाय मासमध्ये पञ्चदशदिवसस्यैव प्रायश्चित्तं दातव्यम् , कथमित्याह'आइमज्झाक्साणे सअर्ट सहेउं सकारणं अहीणमइरित्त' आदिमध्यावसाने सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तम्-न न्यूनं नाधिकं परिपूर्ण प्रायश्चित्तं दातव्यम् न किञ्चिदपि परित्यक्तव्यम् । 'तेण परं दिवड्ढो मासो' तेन परं द्वयों मासः पञ्चदशदिवसाधिक एको मासः प्रायश्चित्तरूपेण भवति, मत्र पाक्षिकारोपणायाः सद्भावादिइति ॥ सू० ३२॥
सूत्रम्--पंचमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं दिवड्डो मासो ॥ सू० ३३॥
छाया--पाञ्चमासिकं परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने साथै सहेतु सकारणमहीनमतिरिकं तेन परं व्यों मासः ।।सू० ३३॥
सूत्रम्--चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहे सकारणं अहीणमइरितं तेण परं दिवड्डो मासो ।। सू० ३४॥
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चूर्णिभाप्यावधिः उ० २० सू० ३५ ३९ परिहारस्थानप्रस्थापितस्याऽऽरोपणाविधिः ४५३
छाया-चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिकं परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्तं तेण परं द्वयों मासः ॥ सू० ३४॥
सूत्रम्-तेमासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाण पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअट्ठं सहे सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं दिवड्ढो मासो॥ सू० ३५॥
छाया- त्रैमासिकं परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिकं परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्तं तेन पर द्वयों मासः ॥ सू० ३५॥
सूत्रम्-दोमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाण पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअहें सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं दिवड्ढो मासो ॥ सू० ३६॥
छाया-द्वैमासिक परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिकं परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सका. रणम् अहीनमतिरिक्त तेन परं द्वयों मासः ॥ स०३६॥
सूत्रम्-मासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअहें सहे सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं दिवड्डो मासो ॥ मू० ३७॥
छाया-मासिकं परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परं द्वयों मासः॥ सू० ३७॥
चू- पूर्व पाण्मासिकपरिहारस्थाने प्रस्थापितस्य तन्मध्ये मासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवनायां पाक्षिकी आरोपणा तेन द्वयों मासः प्रायश्चित्तत्वेन भवतीत्युक्तं तथैव पाञ्चमासिकचातुर्मासिक-त्रैमासिक-द्वैमासिक-मासिक-परिहारस्थानप्रस्थापितानगारस्यापि तन्मध्ये मासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवनायां पाक्षिकी भारोपणा भवति तेन परं द्वय| मासः प्रायश्चित्तस्य भवतीति
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निशोथसूत्रे
पाञ्चमासिकादित आरभ्य मासिकपर्यन्तानि पञ्चापि सूत्राणि व्याख्येयानीति विरम्यते ॥ सू० ३७|| तदेवं पूर्वोक्तेषु पाण्मासिकादिपु षट्सु सूत्रेषु द्वयर्धो मासः प्रायश्चित्तत्वेन प्रतिपादितः । Err यो दूर्ध मासिकपरिहारस्थानप्रस्थापितः सन् तन्मध्ये यदि मासिकपरिहारस्थानं प्रतिसेवते तद्विपयकं प्रायश्चित्तविधिमाह - 'दिवड्ढमासि' इत्यादि ।
सूत्रम् -- दिवड्ढमासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअहं सहेडं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं दो मासा ॥ सू० ३८ ॥
छाया - द्वर्धमासिक परिहारस्थान' प्रस्थापितोऽनगोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा सार्थं सहेतु सकारणमहोनमतिरिक्त तेन पर द्वौ मासौ ॥ सू० ३८ ।
चूर्णी - 'दिवड्ढमा सि' इत्यादि । 'दिवड्ढमासि' द्वयर्धमासिकम् द्वितीयोऽध यत्र स द्वयर्धः स मासो यत्र तद् द्वयर्थमासिकम् ' परिहारहाणं' परिहारस्थानं पापप्रयोजकं कर्मानुष्ठानं तत्प्रति 'पडविए प्रस्थापितः तादृशकर्मविनाशाय तादृशप्रायश्चित्तकरणाय नियोजितः 'अणगारे ' अनगारो - भिक्षुकः 'अंतरा' अन्तरा- मध्ये 'मासियं परिहारहाणं' मासिकं परिहारस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य - परिहारस्थानप्रतिसेवनां कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत् तस्य ' अहावरा पक्खिया आरोवणा' अथापरा पाक्षिकी पञ्चदशदिवसप्रमाणात्मिका आरोपणा प्रायश्चित्तदानरूपा प्रस्तुततपःस्थापितप्रायश्चित्तादधिकं पाक्षिकं प्रायश्चित्तं दातव्यम् । तच्च 'आइमज्झावसाणे' आदिमध्यावसाने 'सअहं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं' साथै सहेतुकं सकारण महीनमतिरिक्तम् प्रतिसेवितानुसारं सर्वे प्रायश्चित्तरूपेण दातव्यं न किमपि त्यक्तव्यम् 'तेण पर दो मासा' तेन परं द्वौ मासौ ततः परं सर्वं द्वौ मासौ प्रायश्चित्तरूपेण भवतः । चर्धमासिकप्रायश्चित्ते आरोपणायाः पक्षः समेल्यते तदा परिपूर्णौ द्वौ मासौ जायेते इति भावः ॥
सूत्रम् - दोमासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअ सहेडं सकारण अहीणमइरितं तेण परं अड्डा इज्जा मासा || सू० ३९ ॥
छाया - द्वैमासिक परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणम् अहीनमतिरिक्त तेन परम् साधतृतीयौ मासौ ॥ सु० ३९॥
४५४
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २० सू० ४०-४३ परिहारस्थानप्रस्थापितस्याऽऽरोपणाविधिः ४५५
चूर्णी-'दोमासियं' इत्यादि । 'दोमासियं परिहारहाणं' द्वैमासिकं पूर्वसूत्रसंप्राप्त परिहारस्थानम् 'पविए अणगारे' प्रस्थापितोऽनगार; इत्यादि व्याख्या स्पष्टा । अत्र विशेषस्त्वयम् यदा द्वैमासिकपरिहारस्थानसेवनायां पाक्षिको आरोपणा संमेल्यते तदा 'अड्डाइज्जा दोमासा' अर्धतृतीयौ द्वौ मासो प्रायश्चित्तरूपेण भवतः इति ॥ सू० ३९ ॥
सूत्रम्-अड्डाइज्जमासियं परिहारट्ठाणं पठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं,तेण परं तिण्णि मासा ॥ सू०४०॥
छाया-सार्धद्वैमासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिकं तेन पर त्रयो मासा ॥सू० ४०॥
चूर्णी- 'अलाइज्जमासिय' इत्यादि । 'अडूढाइज्जमासियं अर्धतृतीयमासिकम् साधमासदयं पूर्वसूत्रसंप्राप्तम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं प्रति 'पट्टविए' प्रस्थापितोऽनगारः, इत्यादि व्याख्या प्राग्वत्, अत्र सार्धद्वैमासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवनायां पाक्षिकी मारोपणा समेल्यते तदा 'तिणि मासा' त्रयो मासाः प्रायश्चित्तरूपेण भवन्तीति ॥ सू० ४० ॥
सूत्रम्-तेमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअष्टुं सह सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं अछुट्टा मासा ।। सू० ४१॥
छाया-त्रैमासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परम् अर्धचतुर्था मासाः ॥ सु. ४॥
- चूर्णी-'तेमासियं' इत्यादि । 'तेमासियं परिहारहाणं पट्टविए' त्रैमासिकं पूर्वसूत्रसंप्राप्त परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारः, शेषं पूर्ववत्, अत्र सर्व प्रायश्चित्तम् 'अधुद्वामासा' इति अर्धचतुर्थाः, चतुर्थः | यत्र ते अर्धचतुर्थाः-सार्धास्त्रयो मासा भवन्ति, यदा त्रिषु मासेषु पाक्षिकी आरोपणा संमेल्यते तदा सार्धास्त्रयो मासाः प्रायश्चित्तरूपेण भवन्तीति भावः ॥ सू० ४१ ॥
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४५६
निशीथसूत्रे सूत्रम्-अट्ठमासियं परिहारहाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसे वित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरो, वणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं, चत्तारि मासा ॥ सू० ४२ ॥
छाया-अर्धचतुर्थमासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी अरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परं चत्वारो मासाः ॥ सू०४२।।
चूर्णी--अस्याप्यर्थः पूर्वसूत्रवदेव ज्ञातव्यः, विशेषस्त्वयम्-'अर्धमासियं' अर्धचतुर्थमासिकम्-सार्धत्रैमासिक-यत् पूर्वसूत्रे संप्राप्तं तत् प्रति तत्र प्रस्थापितोऽनगारः, इत्यादि पूर्ववद् व्याख्येयम्, 'तेण परं' तदनन्तरं सर्व प्रायश्चित्तं 'चत्तारि मासा' चत्वारो मासा भवन्ति । यदा सार्थेषु त्रिपु मासेषु पाक्षिको आरोपणा संमेल्यते तदा परिपूर्णाश्चत्वारो मासाः प्रायश्चित्तरूपेण भवन्तीति भावः ।। सू० ४२ ॥
सूत्रम्-चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरामासिय परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण पर अड्डपंचमा मासा ।। सू०४३॥
छाया-चातुर्मासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थानम् प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्तं तेन परम् अर्द्ध पञ्चमा मासा. ॥सू० ४३॥
चूर्णी-'चाउम्मासियं' इत्यादि । 'चाउम्मासियं परिहारहाण पट्टविए अणगारे चातुर्मासिकं पूर्वसूत्रसंप्राप्तं परिहारस्थानम् 'पविए' प्रस्थापितः-ताशप्रायश्चित्ते नियोजितः 'अणगारे' अनगारो भिक्षुकः, शेषं पूर्ववद् व्याख्येयम् , अत्र सर्व प्रायश्चित्तम्-चतुषु मासेषु पाक्षिकी आरोपणायाः संमेलनेन 'अड्ढपंचमा मासा' इति अर्द्धः पञ्चमो यत्र ते अर्द्धपञ्चमाः,' एतादृशा मासाः सार्धाश्चत्वारो मासा भवन्तीति भावः ॥ सू० ४३॥
सूत्रम्--अड्डपंचममासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसेबित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेणपरं पंच मासा ॥ सू०४४॥
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बर्षिभाष्यावरिः उ०२० सू०४४-४६ परिहारस्थानप्रस्थापितस्याऽऽरोपणाविधि. ४५७
छाया- अर्द्ध पञ्चममासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् भथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं एकारणमहीनमतिरिकं तेन परं पञ्च मासाः ॥ सू० ४४॥
चूर्णी--'अड्ढपंचममासियं' इत्यादि । 'अड्ढपंचममासियं' अर्द्ध पञ्चममासिकम् चत्वारो मासाः संपूर्णाः पश्चममासस्याओं भाग इति अर्द्धपञ्चममासिकं यत् पूर्वसूत्रे संप्राप्तं तत् इत्यादि व्याख्यानं पूर्ववत् कर्तव्यम्, केवलं तेन परम्-ततः पश्चात्-अत्रापि अर्धपञ्चममासेषु इति सार्धेषु चतुर्यु मासेपु यदि पाक्षिकी मारोपणा संमेल्यते तदा परिपूर्णाः पञ्च मासा प्रायश्चित्तरूपेण भवन्तीति भावः ॥ सू० ४४ ॥
सूत्रम्-पंचमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहे सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं अड्डछट्ठा मासा ॥ सू०४५॥
छाया-पाञ्चमासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारः अन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्त तेन् परमर्द्धपष्ठा मासाः ॥ सू० ४५॥
चूर्णी--'पंचमासियं' इत्यादि | "पंचमासियं परिहारद्वाणं' पाञ्चमासिकं यत्पूर्वसूत्रसंप्राप्तं तत् परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारः, इत्यादि सर्वं पूर्ववदेव व्याख्येयम् । अत्र पञ्चसु मासेषु पाक्षिकी आरोपणा संमेल्यते तदा 'अड्ढछट्ठा मासा' इति अर्द्धषष्ठा मासाः-सार्धाः पञ्चमासाः प्रायश्चित्तरूपेण भवन्तीति भावः ॥ सू० ४५॥
सूत्रम्-अद्धछट्ठमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं छम्मासा ।। सू०४६॥
॥ निशीहज्झयणे वीसइमो उद्देसो समत्तो ॥२०॥ छाया-अर्द्ध षष्ठमासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परं षण्मासाः ॥सू० ४६॥
___निशीथाध्ययने विंशतितमोद्देशकः समाप्तः ॥२०॥
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निशीथम
चूर्णी-'अद्धछट्टमासियं' इत्यादि । 'अद्धछट्ठमासिय अर्धपष्ठमासिकम्, पञ्च मासाः संपूर्णाः षष्ठमासस्य अझै भागः, इत्येवमधिकं पाञ्चमासिकं परिहारस्थानमित्येवं क्रमेण प्रकृतसूत्रस्य व्याख्यानं कर्तव्यं केवलं ततः परमिति ततः पञ्चात् अर्द्धपष्ठमासेषु-साधेषु' पञ्चमु मासेषु पाक्षिकी आरोपणा संमेल्यते तदा परिपूर्णाः षड् मासाः प्रायश्चित्तरूपेण भवन्ति, नास्ति षण्मासा नन्तरं प्रायश्चित्तमिति भावः ।। सू० ४६ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक . प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुररानप्रदत्त- , "जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालव्रति-विरचितायां "निशीयमत्रस्य" चर्णिमाम्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् विंशतितमोदेशकः समाप्तः ॥२०॥
AKRAMMERO ॐ ॥ समाप्तं निशीथाध्ययनम् ॥ REMERPREMARK
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निशीथसूत्रस्य किञ्चित् शुद्धिपत्रम् पृष्ट पंक्ति उ.१ अशुद्धिः
शुद्धिः २ ८ ....प्रतिपादिकानि
प्रतिपादकानि ९ १५-१६ सुत्तरज्जुवक्केहिं च, दंडकडगेहिं तहा, सुत्तरज्जुवकलेहिं, दंडकडगेहिं तहा,
चिलिमिली खुपंचहा, भिक्खुहिं चिलिमिली पंचहा खु कायधाकरणिज्जा नो॥
भिक्खुहि न सा॥ ९ १७-१८ सूत्ररज्जुवल्कलैश्व, दण्ड- सूत्ररज्जुवल्कलैः, दण्डकटकैस्तथा ।
कटकाभ्यां तथा । चिलिमिली खल पंचदा, भिक्षुभिः क्रिय चिलिमिली पञ्चधा खलु कर्तव्याभिक्षुमाणा नो॥
मिन सा ॥ ९ २४ वंशो दंडादिः, कटकमयी जवनिका, वंशो दण्डादिः, कटकं वंशवक, ताभ्यां वंशकटकादिभ्यां
ताभ्यां वंशकटकाभ्यां १२८ १७ उ.४....१३३
....१३६ गमत्रिपञ्चाशत्सूत्रात्मकः
गमः षट्पश्चाशत्सूत्रात्मकः । त्रयविंशदधिकशततम
पत्रिंशदधिकशततम त्रिपश्चाशत्सूत्रसमुदायोऽन षट्पञ्चाशत्सूत्रसमुदायोऽत्र ॥ सू० १३३॥
॥ सू० १३६॥ ॥ सू० १३३॥
॥ सु० १३६॥ १२-६३
१२-६६ पादामार्जनसूत्रादारभ्य पादामा नषोडशतमसूत्रादारम्य एकसप्ततित्रिषष्टितमशीपंदौवारिकासूत्रपर्यन्त- तमशीर्षदौवारिकासूत्रपर्यन्तषट्पश्चाशत् सूत्राणि
सूत्राणि २६५ १६ १२-६३
१२-६६ । मागे उद्देशसमाप्तितक
तीन तीन संख्या बढ़ाते नामो । २६५ १६ ॥ सू० ५-९॥
॥ सू० ५-११॥ २६५ २० सूत्रपश्चकं
* * * * * ง
१५
सूत्रसप्तकं
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. ...... .. श्रीवीतरागाय नमः।
॥निशीथसूत्रस्य मूलपाठः॥
॥ प्रथमोद्देशकः ॥ . जे मिक्खू हत्थकम्मं करेइ करतं वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू अंगादाणं कटेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा संचालेइ संचालत वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू अंगादाणं संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवाहतं वा पलिमहंत वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्ख अंदादाणं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा, अभंगेंतं वा मक्खेत वा साइज्जइ ॥४॥
जे भिक्खू अंगादाणं कक्केण वा लोरेण वा पउमचुण्णेण वा हाणेण वा सिणाणेण वा चुण्णेहि वा उबटेइ परिवठूइ उन्वस॒तं वा परिवस॒तं वा साइज्जइ ॥५॥
जे भिक्खू अंगादाणं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ ॥६॥
जे मिक्खू अंगादाणं णिच्छलेइ णिच्छलंतं वा साइज्जइ ॥७॥ जे भिक्खू अंगादाणं जिग्घइ जिग्धंत वा साइज्जइ ॥८॥
जे भिक्खू अंगादाण अण्णयरंसि अचित्तंसि सोयंसि अणुप्पवेसित्ता मुक्कपोग्गले णिग्याएइ णिग्यायंतं वा साइज्जइ ॥९॥ . जे भिक्खू सचित्तं गंधं जिग्घइ, जिग्धंतं वा साइज्जइ ॥१०॥ .
जे भिक्खू सचित्तपइट्टियं गं, जिग्घइ जिग्यंत वा साइज्जइ ॥११॥ ... । जे भिक्खू पदमाग: वा संकर्म वा अवलंबणं चा अण्णउत्थिएण वा- गारस्थिएण वा कारेइ कारंतं वा साइज्जइ ॥१२॥
जे भिक्खू दगवीणियं वा अण्णउत्थिएहिं वा गारथिएहिं वा कारेइ कारेंतं वा साइज्जइ ॥१३॥ - जे भिक्खू सिक्कगं वा सिक्कगणंतगं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेइ कारेंत वा साइज्जइ ॥१४॥
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जे भिक्खू सोत्तियं वा रज्जुयं वा चिलमिलिं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेइ कारेंतं वा साइज्जइ ॥१५॥
जे भिक्खू सूचीए उत्तरकरणं अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेइ कारें वा साइज्जइ ॥१६॥
जे भिक्खू पिप्पलगस्स उत्तरकरण अन्नउस्थिएण वा गारथिएण वा कारेइ कारें वा साइज्जइ ॥१७॥
जे भिक्खू नइच्छेयणगस्स उत्तरकरणं अन्नउत्थिएण वा गारस्थिएण वा कारेह कारतं वा साइज्जइ ॥१८॥
जे भिक्खू कण्णसोहणगस्स उत्तरकरणं अन्नउस्थिएण वा गारथिएण वा काई, कारेंतं वा सांइज्जइ ॥१९॥
जे भिक्खू अणट्टयाए सूई जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥२०॥ ' 'जे भिक्खू अणयाएं पिप्पलगं जायइ, जायंतं वा साइजइ ॥२१॥ जे 'भिक्खू' अणट्टयाएँ कण्णसोहणगं जायई, जायंत वां सॉइज्जइं ॥२२॥ जे भिक्खू अणट्टयाए णहच्छेयणगं जायइ, जायंतं वा सांइज्जइ ॥२३॥ जे भिक्खू अविहीए सई जायइ, जायंतं वा साइज्जेइ ॥२४॥ - जे भिक्खू, अविहीए पिप्पलगं जायइ, जायंत वा साइज्जइ ॥२५॥ जे भिक्खू अविहीए नहच्छेयणगं जायइ, जायंत वा साइज्जइ ॥२६॥ जे भिक्खू अविहीए कणसोहणगं. जायइ, जायतं वा साइज्जई ॥२७॥
जे भिक्खू अप्पणो एगस्स अट्ठाए सई जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पएई, अणुप्पयंत वा साइज्जइ ॥२८॥
जे भिक्खू अप्पणो ऍगस्स' अट्टाए पिप्पलगं जाइत्ता अण्णमणस्सं अणुप्पएइ अणुप्पयंत वा साइज्जइ ॥२९॥
जेभिक्खू एगस्स अट्टाए नहच्छेयणगं जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पएंइ अणुप्पयंतं वा साइज्जइ ॥३०॥
जै भिक्खू अप्पणो एगस्स अट्ठाए कण्णसोहणगं जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पएइ अणुप्पयंतं वा साइज्जइ ॥३१॥
जे भिक्खू पाडिहारियं मुई जाइत्ता वत्थं सीविस्सामि-त्ति पायं सिव्वइ सिव्वंतं वा साइज्जइ ॥३२॥
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जे भिक्खू पाडिहारियं पिप्पलग जाइत्ता वत्थं छिंदिस्सामि-त्ति पाय छिंदइ, छिदंतं वा साइज्जइ ॥३३॥
जे भिक्खू पाडिहारियं नहच्छेयणगं जाइत्ता नहं छिदिस्सामि-त्ति सल्लुद्धरणं करेइ, करतं वा साइज्जई ॥३४॥
जे भिक्खू पाडिहारियं कण्णसोहणगं जाइत्ता कण्णमलं णीहरिस्सामि-त्ति दंत___ मल वा नहमलं वा णीहरेइ णीहरंतं वा साइज्जइ ॥३५॥
जे भिक्खू अविहीए सूई पच्चप्पिणई पच्चप्पिणंतं वा साइज्जइ ॥३६॥..
जे भिक्खू लाउपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिघट्टावेइ वा संठवेइ वा जमावेइ वा अलमप्पणो करणयाए मुहुममवि नो कप्पइ जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स वियरइ वियरंतं वा साइज्जइ ॥४०॥
जे भिक्ख दंडयं वा लट्ठियंवा अवलेहणियं वा वेणुसूइयं वा अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा परिघट्टावेइ वा संठवेइ वा जमावेइ वा अलमप्पणो करणयाए सहम मवि नो कप्पइ जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स वियरइ पियरंतं वा साइज्जइ ॥४१॥
जे भिक्खू पायस्स एगं तुडियं तुडेइ तुडतं वा साइज्जइ ॥४२॥ जे भिक्खू पायस्स परं तिण्हं तुडियाणं तुडेइ तुडंत वा साइज्जइ ॥४३॥ जे भिक्खू पायं अविहीए तुडेइ तुडतं वा साइज्जइ ॥४४॥ जे भिक्खू पायं अविहीए बंधइ बंधतं वा साइज्जइ ॥४५॥ जे भिक्खू पायं एगेण वंधेण बंधइ, वंधतं वा साइज्जइ ॥४६॥ जे भिक्खू पायं परं तिण्डं बंधाणं बंधइ, वंधतं वा साइज्जइ ॥४७॥ जे भिक्खू अइरेगवंधणं पायं दिवड्ढाओ मासाओ परेण धरइ धरतं वा साइज्जइ ॥ जे भिक्खू वत्थस्स एग पडियाणियं देइ, देयंत वा साइज्जइ ॥ सू० ४९॥ जे भिक्खू वत्थस्स परं तिहं पडियाणियाणं देइ देयंतं वा साइज्जइ ॥५०॥ जे भिक्खू अविहीए वत्थं सिव्वइ सिव्वंतं वा साइज्जइ ॥५१॥ जे भिक्खू वत्थस्स एग फलियं गंठियं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥५२॥
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जे भिक्खू पत्थस्स परं तिण्डं फलियगंठियाणं करेइ करेंत वा साइज्जइ ॥५३॥ जे भिक्खू वत्थस्स एगं विफलियगंठियं देइ देयंतं वा साइज्जइ ॥५४॥. ' जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्डं विफलियगंठियाणं देइ देयंत वा साइजइ ५५॥ जे भिक्खू वत्थं अविहीए गंठइ गंठतं वा साइज्जइ ॥५६॥ : . जे भिक्खू वत्थं अतज्जाएणं गंठेइ गंठेत वा साइज्जइ ॥५७॥ जे भिक्खू अइरेगगहियं वत्थं परं दिवढाओ मासाओ धरेइ. धरेंतं वा साइज्जइ।
जे भिक्खू गिहधूम अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा. परिसाडावेइ परिसाडावेतं वा साइज्जइ ॥१९॥
जे भिक्खू पूइकम्म भुंजइ झुंजतं वा साइज्जइ ॥६०॥ । तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥६॥
॥ निसीहज्झयणे पढमो उद्देसो समत्तो ॥१॥''
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॥ द्वितीयोदेशकः॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं करेइ करेंतं वा साइज्जई ॥१॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं गेण्हइ गेण्हतं वा साइज्जइ ॥२॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥३॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं वियरइ वियरंतं वा साइज्जई ॥४॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं परिभाएइ परिभाएंतं वा साइज्जइ ॥५॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं परिभुजइ परिभुंजतं वा साइज्जइ ॥६॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं पर दिवढाओ मासाओ धरेइ धरेत वा साइज्जइ। जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुछणं विसुयायेइ विसुयावेतं वा साइज्जइ ॥८॥ जे भिक्खू अचित्तपइट्ठियं गंध जिग्घइ जिग्छतं वा साइज्जइ ॥९॥ जे भिक्खू पदमग्गं वा संकम वा आलंवणं वा सयमेव करेइ करेंतं वा साइज्जइ । जे भिक्खू दगवीणियं सयमेव करेइ करेतं वा साइज्जइ ॥११॥ जे भिक्खू सिकगं वा सिक्कगणंतगं वा सयमेव करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥१२॥ जे भिक्खू सोत्तियं वा रज्जुयं वा चिलमिलि सयमेव करेइ करेंतं वा साइज्जइ । जे भिक्खू सईए उत्तरकरणं सयमेव करेइ करतं वा साइज्जइ ॥१४॥ एवं पिप्पलगस्स उत्तरकरणम् ॥१५॥ णहच्छेयणगस्स उत्तरकरणम् ॥१६॥ कण्णसोहणगस्स उत्तरकरणम् ॥१७॥ जे भिक्खू लहुस्सगं फरसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥१८॥ जे भिक्खू लहुस्सगं मुसं वयइ वयं वा साइज्जइ ॥१९॥ जे भिक्खू लहुस्सगं अदत्तमादियइ आदियंतं वा साइज्जइ ॥२०॥
जे भिक्खू लहुस्सएण सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा हत्थाणि वा पायाणि वा कण्णाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा नहाणि वा मुहं वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधो-तं वा साइज्जइ ॥२१॥
जे भिक्खू कसिणाणि चम्माइं धरेइ धरत वा साइज्जइ ॥२२॥ जे भिक्खू कसिणागि वत्थाई धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥२३॥ जे भिक्खू अभिण्णाई वत्थाई धरेइ धतं वा साइज्जइ ॥२४॥
जे भिक्खू लाउपायं वा दारुपायं वा महियापायं वा सयमेव परिघट्टेइ वा संठवेइ वा जमावेइ वा परिघटेंतं वा संठवेंतं वा जमातं वा साइज्जइ ॥२५॥ . .
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जे भिक्खू दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणुसूइयं वा सयमेव परिघट्टेइ वा संठवेइ वा जमावेइ वा परिघटेंतं वा संठवेतं वा जमातं वा साइज्जइ ॥२६||
जे भिक्खू णियगगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ॥२७॥ जे भिक्खू परगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरत वा साइज्जइ ॥२८॥ जे भिक्खू वरगवेसियं पडिग्गहें घरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥२९॥ जे भिक्खू वलगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥३०॥ जे भिक्खू लवगवेसियं पडिग्गहं घरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥३१॥ जे भिक्खू णितियं अग्गपिंडं भुंजइ झुंजतं वा साइज्जइ ॥३२॥ जे भिक्खू णितियं पिंडं भुंजइ झुंजतं वा साइज्जइ ॥३३॥ जे भिक्खू णितिय अवडूढभागं झुंजइ झुंजतं वा साइज्जइ ॥३४॥ जे भिक्खू णितियं भागं झुंजइ झुंजतं वा साइज्जइ ॥३५॥ जे भिक्खू णितियं ऊणहभागं झुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥३६॥ जे भिक्खू णितियं वासं वसइ वसंतं वा साइज्जइ ॥३७॥ जे भिक्खू पुरेसंथवं वा पच्छासंथवं वा करेइ करेंतं वा साइज़्जइ ॥३८॥
जे भिक्खू समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगाम दुइज्जमाणे वा पुरेसंथुयाणि वा पज्छासंथुयाणि वा कुलाई पुच्चामेव अणुप्पविसित्ता पच्छा भिक्खायरियाए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥३९॥
जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा पारिहारिओ वा अपारिहारिएण सद्धिं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए णिक्खमइ वा अणुप्पविसई वा, णिकखमंतं वा अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥४०॥
जे भिक्खू अण्णउस्थिएण वा गारस्थिएण वा पारिहारिओ वा अपारिहारिएण सद्धिं वहिया वियारभूमि वा. विहारभूमि वा णिक्खमइ वा पविसइ वा, णिक्खमंत वा पविसंतं वा साइज्जइ ॥४१॥
जे भिक्खू अण्णउस्थिएण वा गारथिएण वा पारिहारिओ वा अपारिहारिएण सद्धिं गामाणुगामं दूइज्जइ दूइज्जतं वा साइज्जइ ॥४२॥
जे भिक्खू अन्नयरं भोयणजायं पडिग्गाहित्ता सुम्भिर भुंजइ दुम्भिर परिहवेइ, परिहवें तं वा साइज्जइ ॥४॥
जे भिक्खू अन्नयरं पाणगजायं पडिग्गाहिता पुप्फगं-पुप्फगं आवियइ कसायंकसायं परिहवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥४४॥
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७
जं भिक्खू मणुण्णं भोयणजायं पडिग्गाहेत्ता बहुपरियावन्नं सिया अदूरे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुन्ना अपारिहारिया संता परिवसति ते अणापुच्छिय अणिमंतिय परिवे परिहवें तं वा साइज्जइ ||४५||
जे भिक्खू सागारियर्पिडं गिव्हर, गिण्हतं वा साइज्जइ ॥४६॥ जे भिक्खू सागारियपिंड भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ॥४७॥
जे भिक्खू सागरियकुलं अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय पुव्वामेव पिंडवायपरिया अणुविस अणुष्पविसंतं वा साइज्जइ ॥४८॥
जे भिक्खू सागारियणीसाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वा ओभासिय शोभासिय जाया जायेतं वा साइज्जइ ॥ ४९ ॥
जे क्खुि उउवद्धियं सेज्जासंथारगं परं पज्जोवसणाओ उवाणांवेइ उवाइणातं वा साइज्जइ ॥ ५०॥
जे भिक्खू वासावासियं सेज्जासंथास्यं परं दसरायकप्पा उवाइणावेइ उवाइणातं वा साइज्जइ ॥५१॥
जे भिक्खू उउवद्धियं वा वासावासियं वा सेज्जासंथारंग उन्चरिसिज्जमाणं पेहाए न ओसारेइ न ओसारेतं वा साइज्जइ ||५२ ||
जे भिक्खू पाडिहारियं सेज्जासंथारगं दोच्चंपि अणणुण्णवेत्ता वाहिं णीणेइ णीतं वा साइज्जइ ॥५३॥
जे भिक्खू सागारियसंतियं सेज्जासंथारंगं दोच्चपि भ्रणणुण्णवेत्ता वाहिं णीणेइ गीर्णेत वा साइज्जइ ॥ ० ५४ ॥
जे भिक्खू पाडिहारियं सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं दोच्चपि अणणुण्णवेत्ता वाहि णी णीतं वा साइज्जइ ॥ ५५ ॥
जे भिक्खु पाडिहारियं सेज्जासंथारयं आदाए अपडिहदड संपव्वंयह संपन्नयत वा साइज्जइ ॥ ५६ ॥
जे भिक्खू सागारियसंतियं सेज्जासंथारयं आयाए अविगरणं कट्टु अणप्पिणित्तासंपव्यय संपव्ययंतं वा साइज्जइ ॥५७॥
जे भिक्खू पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं विप्पणटुं न गवे - सइ न गवेसंतं वा साइज्जइ ॥५८॥
.t
जे भिक्खू इत्तरियंपि उचहिं ण पडिलेहह ण पडिलेहंतं वा साइज्जइ ॥ ५९ ॥ तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्टाणं उग्घाइयं ॥ ६० ॥
7.
॥ निसीइज्झयणे वीओ उद्देसो समत्तो ॥ २ ॥
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॥ तृतीयोदेशकः॥ ने भिक्खू आगंतागारेसु वा, आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेस वा अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वामओभासियओभासिय जायइ, जायतं वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेमु वा गाहावइकुटेसु वा, परियावसहेसु वा अण्णउत्थियाओ वा गारत्थियाओ वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओमासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेनु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउस्थिणि वा गारथिणि वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासियओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ।।३।।
. जे मिक्खू आगंतागारेमु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिणीओ वा गारस्थिणीओ वा असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ॥४॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा, आरामागारेनु वा गाहावइकुलेस वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थियं वा, गारत्थियं वा, कोउहलवडियाए पडियागयं समाणं असणवा पाणं चा, खाइम वा साइम वा ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ॥५॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा कोऊहलवडियाए पडियागया समाणा अण्णउत्थिया वा गारत्थिया वा असणं चा, पाणं वा, खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेस वा कोऊहलवडियाए पडियागयं समाण अण्णउत्थिणि वा गारस्थिणि वा असणं चा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेनु वा परियावसहेसु वा कोहलवडियाए पडियागया समाणा अण्णउत्थिणीओ वा गारत्थिणीओ वा असणं वा पाणं वा खाइम वा साइम वा ओभासिय-ओभासिय जायइ, जायंत वा साइज्जइ ।। सू०८॥
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जे भिक्खू आगतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहटु दिज्जमाणं पडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय-अणुवत्तिय परिवेहिय-परिवेढिय परिजविय-परिजविय ओभासिय-भोभासिय जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥९॥
जे भिक्खू आगंतागारेमु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिएहिं वा गारथिएहि वा, असणं वा पाणवा खाइमं वा साइमं वा अमिहर्ड आहटु दिज्जमाण पडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय-अणुवत्तिय, परिवेढिय-- परिवेढिय, परिजविय-परिजविय; ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ।।
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिणीए वा गारस्थिणीए वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिडं आहटु दिज्जमाण पडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय-अणुवत्तिय परिवेढिय-परिवेढिय परिजविय-परिजविय ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ॥११॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियाबसहेस वा अण्णउस्थिणीहि वा गारस्थिणीहि वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आइटु दिज्जमाणं पडिसेहेत्ता ताओ अणुवत्तिय-अणुवत्तिय परिवेढिय-परिवेढिय परिजविय-परिजविय ओभासिय-आसासिय जायइ जायनं वा साइज्जइ ॥१२॥
जे भिक्खू गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविढे पडियाइक्खिए समाणे दोच्चंपि तमेव कुलं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥१३॥
जे भिक्खू संखडिपलोयणाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१४ ॥
जे भिक्खू गाहावइकुलं पिंडबायपडियाए अणुप्पविठे समाणे परं तिघरंतराओ असणं बा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडू आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१५॥
जे भिक्खू अप्पणो पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥१६॥
जे भिक्खू अप्पणो पाए संवाहेज्ज वा पलिमहेज्ज वा संवाहेंतं वा पलिम वा साइज्जइ ॥१७॥
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-जे भिक्खू अप्पणो पाए तेल्लेण वा घएण वा णवणीपण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेत वा भिलिंगेंतं वा साइज्जइ ॥१८॥
जे भिक्खू अप्पणो पाए लोरेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा पउमचुण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा उध्वट्टेज्ज वा, उल्लोलंतं वा उबट्टतं वा साइज्जइ ॥१९॥
जे भिक्खू अप्पणो पाए सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियटेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ॥२०॥
जे भिक्खू अप्पणो पाए फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमेतं वा रएतं वा साइज्जइ ॥२१॥
जे भिक्खू अप्पणो कार्य आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइजइ ॥२२॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्य संवाहेज्ज वा पलिमहेज वा संवाहेंतं वा पलिम तं वा साइज्जइ ॥२३॥ जे भिक्खु अप्पणो कार्य तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा मक्खेज वा मिलिंगेज्ज वा मक्खेतं वा मिलिंगेंतं साइजइ ॥२४॥ जे भिक्खू अप्पणो कायं लोरेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा पउमचुण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा उच्चट्टेज्ज वा उल्लोलेंतं वा उव्वटेतं वा साइज्जइ ॥२५॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्य सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलतं वा पधोतं वा साइज्जइ ॥२६॥ जे भिक्खू अप्पणो कायं फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुमत वा रएतं वा साइज्जइ ॥२७॥
जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जतं वा साइज्जइ ॥२८॥ जे भिक्खू अप्पणो कायंसि वणं संवाहेज्ज वा पलिमदेज्ज वा, संवाहेत वा पलिमदतं वा साइज्जइ ॥२९।। जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं तेल्लेण वा घएण वा नवणीएण वा वसाए वा मक्खेज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा मिलिगेंतं वा साइज्जइ ॥३०॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं लोद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा पउमचुण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वदृज्ज वा उल्लोलेंतं वा उचढेंतं वा साइज्जइ ॥३१॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंत वा पधोतं वा साइज्जइ ॥३२॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुतं वा, रएंतं वा साइज्जइ ॥३३॥
जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा, अन्नयरेण तिक्खेण सत्थजाएण आच्छिदेज्ज ग विच्छिदेज्ज वा, आच्छिदंतं वा विच्छिदंत वा साइज्जइ ॥३४॥
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जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असिय भगंदल वा अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता-विच्छिदित्ता, पूर्व वा सोणियं वा, णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णीहरतं वा विसोहेंतं वा साइज्जइ ॥३५॥
जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असिय वा भगंदलं वा अन्नयरेण तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता पूर्व वा सोणिय वा नीहरित्ता विसोहित्ता सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ॥३६॥
जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंड वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खणं सत्यनाएणं आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता णीहरेत्ता विसोहेत्ता उच्छोलित्ता पधोवित्ता अन्नयरेणं आलेवणजाएणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा, आलिंपतं चा विलितं वा साइज्जड ॥३७॥
जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता णीहरित्ता विसोहेत्ता उच्छोलित्ता पधोइत्ता आलिंपित्ता विलिपित्ता तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज वा अभंगतं वा मक्खेंतं वा साइज्जइ ॥३८॥
जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलग वा अरइयं वा असियं वा भगदलं वा, अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता नीहरित्ता विसोहिता उच्छोलित्ता पधोइत्ता आलिंपित्ता विलिंपित्ता अभंगेत्ता मंखेत्ता, अण्णयरेणं धृवजाएण धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा, धूतं वा पधूत वा साइज्जइ ॥३९॥
जे भिक्खु अप्पणो पाउकिमियं वा कुच्छिकिमियं वा अंगुलीए निवेसिय निवेसिय णीहरइ, णीहरंत वा साइज्जइ ॥४०॥
जे भिक्खू अप्पणो दीहाओ णहसीहाओ कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्पत वा संठवतं वा साइज्जइ ॥४१॥ __ एवं-दीहाई वत्थिरोमाई०॥४२॥ दीहाई चक्खुरोमाइं० ॥४३॥ दीहाई जंघरोमाई. ॥४४॥ दीहाई कक्खरोमाइं ॥४५॥ दीहाई मंसुरोमाइं० ॥४६॥ दीहाई केसाई० ॥४७॥ दीहाई कण्णरोमाई० ॥४८॥ एवं दीहाइं नासारोमाई० ॥४९॥
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- जे भिक्खू अपणो दंते आघंसेज्ज चा पघंसेज्ज वा आघसंत वा पसंतं चा साइज्जइ ॥५०॥
जे भिक्खु अप्पणो दंते सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ॥५१॥
जे भिक्खू अप्पणो दंते फुमेज्ज वा रएज्ज वा में रएतं वा साइज्जइ ॥५२॥
जे भिक्खू अप्पणो ओहे आमज्जेज वा पमज्जेज वा आमजंतं वा पमज्जंत वा साइज्जइ ॥५३॥ ___ एवं ओढे पायगमओ भाणियच्चो जाव फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमैतं वा रएंत वा साइज्जइ ॥५४-५८॥
जे भिक्खू अप्पणो दीहाई उत्तरोद्वरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्त वा संठवेंतं वा साइज्जइ ॥५९॥ एवं दीहाई अच्छिपत्ताई० ॥६०॥
जे मिक्खू अप्पणो अच्छीणि आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जत वा पमज्जतं वा साइज्जइ ॥६१।। एवमच्छिमु पायगमो भाणियन्बो, जाव फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुतं वा रएतं वा साइज्जइ ॥६६॥
जे मिक्खू अप्पणो दीहाई भमुहरोमाइं कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्पेत वा संठवेत वा साइज्जह ॥६॥
जे भिक्खू अप्पणो दीहाई पासरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्त वा संठवेंतं वा साइज्जइ ॥६८॥
जे भिक्खू अपणो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा णहमलं वा णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णीहरेंतं वा विसोहेंतं वा साइज्जइ ॥६९॥
जे भिक्खू अप्पणो कायाओ सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मलं वाणीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा नीहरत वा विसोहेंतं वा साइज्जइ ॥७॥
जे भिक्खू गामाणुगामं दूइज्जमाणे अप्पणो सीसवारियं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥७१॥
जे भिक्खू सणकप्पासाओ वा उण्णकप्पासाओ वा वोडकप्पासाओ वा अमिलकप्पासाओ वा वसीकरणमुत्ताई करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥७२॥
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जे भिक्खू गिहंसि वा गिहमुहंसि वा गिहदुवारंसि वा गिहपडिदुवारंसि वा गिहेलयंसि वा गिहंगणंसि वा गिहवच्चसि वा उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ परिहतं वा साइज्जइ ॥७३॥
जे भिक्खू मडगगिहंसि वा मडगछारियसि वा मडगधूभियंसि वा मडगआसयसि वा मडगलेणंसि वा मडगथंडिलंसि वा मडगवच्चंसि वा उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥७४।।
जे भिक्खू इंगालदाहंसि वा खारदाहंसि वा गायदाहंसि वा तुसदाहंसि वा भुसदाहंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिद्ववेतं वा साइज्जई ॥७५॥
जे भिक्खू सेयाययणंसि वा पंकसि वा पणगंसि वा उच्चारपासवणं परिद्ववेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥७६॥ ।
जे भिक्खू अहिणवियासु गोलेहणियासु वा अहिणवियासु मट्टियाखाणीस वा परि जमाणियानु वा अपरि जमाणियाम् वा उच्चारपासवणं परिठवेइ परिवत वा साइज्जइ ॥७७॥
जे भिक्खू उंबरवच्चंसि वा नग्गोहवच्चंसि वा आसत्यवच्चंसि वा उच्चारपासवणं परिट्ठवेइ परिदठवेंतं वा साइज्जइ ॥७८॥
जे भिक्खू इक्खुवणंसि वा सालिवणंसि वा कुसुंभवणंसि वा कप्पासवणंसि वा उच्चारपासवणं परिदठवें। परिदृठवेत वा साइज्जइ ॥७९॥
जे भिक्खू डागवच्चंसि वा सागवच्चंसि वा मूलगवच्चंसि वा कोत्थंभरिवच्चंसि वा खारवच्चंसि वा जीरयवच्चंसि वा दमणयवच्चंसि वा मरुयवच्चंसि वा उच्चारपासवर्ण परिवेइ परिद्रठवेतं वा साइज्जइ ॥८॥
जे भिक्खू असोगवणंसि वा सत्तवण्णवर्णसि वा चंपगवणंसि वा चूयवर्णसि वा अण्णयरेसु वा तहप्पगारेग्नु पत्तोवेएसु पुप्फोवेएम फलोवेएमु छाओवेएसु उच्चारपासवणं परिठवेइ परिहवेतं वा साइज्जइ ॥८१॥
जे भिक्खू सपायंसि वा परपायसि वा दिया वा राओ वा वियाले वा उव्वाहिज्जमाणे सपायं गहाय, परपायं वा जाइत्ता उच्चारपासवणं परिद्ववेत्ता अणुग्गए सरिए एडइ एडतं वा साइज्जइ ॥२॥ तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारहाणं उग्घाइयं ॥३॥
॥ निसीहज्झयणे तइओ उद्दसोसमतो ॥३॥
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चतुर्थोदेशकः॥ जे मिक्खू राय अत्तीकरेइ अत्तीकरेंतं वा साइज्जइ ॥१॥ जे भिक्खू रायं अच्चीकरेइ अच्चीकरेंत वा साइज्जइ ॥२॥ जे भिक्खू रायं अच्छीकरेइ अच्छीकरेंतं वा साइज्जइ ॥३॥ जे भिक्खू रायं अस्थीकरेइ अस्थीकरेंतं वा साइज्जइ ॥४॥ जे भिक्खू कसिणाओ ओसहीओ आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ ।।२१।। जे भिक्खू आयरियउवज्झाएहिं अदत्तं आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ । २२॥
जे भिक्खू आयरियउवज्झाएहि अविदिणं विगई आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ ॥२३॥
जे भिक्खू ठवणकुलाई अजाणिय, अपुच्छिय,, अगवेसिय पुन्चामेव पिंडवायपडियाए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥२४॥
जे भिक्खू णिग्गंधीणं उवस्सयंसि अविहीए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जड ॥२५॥
जे भिक्खू णिग्गंथीणं आगमणपहंसि दंडगं वा लठियं वा रयहरणं वा मुहपत्तियं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं ठवेइ ठवेंतं वा साइज्जइ ॥२६॥
जे भिक्खू णवाई अणुप्पण्णाई अहिगरणाई उप्पाएइ उप्पाएंतं वा साइज्जइ ॥
जे भिक्खू पोराणाई अहिगरणाई खामिय-विओस मियाई पुणो उदीरेइ उदीरेतं वा साइजइ ॥२८॥
जे भिक्खु मुई विप्फालिय विप्फालिय हसइ इसंत वा साइज्जइ ॥२९॥ जे भिक्खू पासस्थस्स संघाडयं देइ देंतं वा साइज्जइ ॥३०॥
जे भिक्खू पासत्यस्स संघाडयं पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥३१॥ एवं-'ओसत्तस्स संघाडयं देह० पडिच्छइ० ॥३२-३३॥
कुसीलम्स संघाडयं देइ० पडिच्छद० ॥३४-३५॥ णितियस्स संघाडयं देह० पडिच्छइ० ॥३६-३७॥ संसत्तम्म मंघाडयं देद० पडिच्छद० ॥३८-३९॥
जे भिवम्बू उदउल्लेण इत्येण वा मत्तेण वा दबीए वा भायणेण वा असणं वा ४ पडिग्गाहेर पटिग्गाड्ने वा साइजह ॥४०॥
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एवं ससणिदेण० २ ॥४१॥ ससरक्खेण. ३ ॥४२॥ मट्टियासंसटेण० ४ ॥४३॥ ओसा० ५ ॥४४॥ लोण० ६ ॥४५॥ हरियाल० ७ ॥४६॥ मणोसिला० ८॥४७॥ वण्णिय० ९ ॥४८॥ गेरुय० १० ॥४९॥ सेढिय० ११ ॥५०॥ हिंगुलुय० १२ ॥५१॥ अंजण० १३ ॥५२॥ लोद्ध० १४ ॥५३॥ कुक्कुस० १५ ॥५४॥ पिठ. १६ ॥५५॥ कंद० १७ ॥५६॥ मूल० १८ ॥५७॥ सिंगवेर० १९ ॥५८॥ पुष्फग० २० ॥५९॥ कुट्ठगसंसदठेण वा २१, एगवीसभेएण हत्थेण वा मत्तेण वा दवीए वा भायणेण वा असणं वा ४ पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥६०॥
जे भिक्खू गामारक्खयं अतीकरेइ अत्तीकरेंतं वा साइज्जइ ॥६१॥ एवं सो चेव रायगमओ भाणियन्चो ॥६२-६४॥
एवं देसरक्खयं० ४ ॥६८॥ एवं सीमारक्खयं०४ ॥७२॥ एवं रन्नारक्खयं०४ ॥७६॥ एवं सन्चारक्खयं० ४ ॥८॥
जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं ना पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥८॥
एवं तइयउद्देसगमो भाणियन्चो (८२ से १३५ जाव
जे भिक्खू गामाणुगाम दुइज्जमाणे अण्णमण्णस्स सीसदुवारियं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥१३६॥
जे भिक्खू साणुपाए उच्चारपासवणभूमि ण पडिलेहेइ, ण पडिलेहेत वा साइज्जइ ॥१३७॥
जे भिक्खू तो उच्चारपासवणभूमीओ ण पडिलेहेइ ण पडिलेहेंतं वा साइ. ज्जइ ॥१३८॥
जे भिक्खू खुड्डागसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं परिहवेइ, परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥१३९॥
जे भिक्खू उच्चारपासवणं अविहीए परिहवेइ, परिहवेतं वा साइज्जइ ॥१४०॥ जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिहवेत्ता न पुंछइ, न पुंछत वा साइज्जइ ॥१४॥
जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिहवेत्ता कटेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा पुंछइ पुछतं वा साइज्जइ ॥१४२॥
जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिहवेत्ता णायमइ, णायमंतं वा साइज्जइ ॥१४३॥
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जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिहवेत्ता तत्थेव आयमइ, आयमंतं वा साइज्जइ ।। जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिहवेत्ता अइदरे आयमइ आयमंतं वा साइज्जइ ।। •जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिद्ववेत्ता परं तिण्डं नावापूराणं आयमइ आयमत वा साइज्जइ ॥१४॥
जे भिक्खू अपारिहारिए णं पारिहारियं वएज्जा-एहि अज्जो ! तुमं च अहं च एगो असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता, तो पच्छा पत्तेय पत्तेयं भोक्खामो वा पाहामो वा, जो तं एवं वयइ, वयंत वा साइजइ ॥१४॥ तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं ॥१४५।।
। निसीहज्झयणे चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥४॥ ,
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॥ पञ्चमोदेशकः॥ जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा ठाणं वा सेज वा निसीहियं वा तुयदृणं वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा आलोएज्ज वा पलोएज्ज वा आलोएतं वा पलोएतं वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा उच्चारपासवर्ण परिहवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥४॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥५॥ जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलसि ठिच्चा सज्झायं उद्दिसइ उदिसतं वा साइज्जइ ॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खम्लंसि ठिच्चा सज्झायं समुहिसइ समुद्दिसतं वा साइज्जइ ॥७॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खम्लंसि ठिच्चा सज्झाय अणुमाणइ अनुजाणंत वा साइज्जइ ॥८॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खम्लसि ठिच्चा सज्झायं वाएइ वाएतं वा साइज्जइ ॥९॥ जे भिक्खू सचित्तरुक्खम्लंसि ठिच्चा सज्झायं पडिच्छइ पिडच्छंत वा साइज्जइ । जे भिक्खू सचित्तरुक्खम्लंसि ठिच्चा सज्झायं परियइ परियदृत वा साइज्जइ ॥
जे भिक्खू अप्पणो संघाडियं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सागारिएण वा सिव्वावेइ वा सिब्बा वा साइज्जइ ॥१२॥ "जे भिक्खू अप्पणो संघाडीए दीहमुत्ताई करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥१३॥
जे भिक्खू पिउमंदपलासयं वा पडोलपलासयं वा विल्लपलासयं वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा संफाणिय-सफाणिय आहारेइ आहारेंतं वा साइज्जइ ॥१४॥
जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुंछणं जाइत्ता 'तमेव रयणि पच्चप्पिणिस्सामि'त्ति सुए पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणंत वा साइज्जइ ॥१५॥
जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुंठणं जाइत्ता 'सुए पच्चप्पिणिस्सामि'-त्ति तमेव रयणि पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणंतं वा साइज्जइ ॥१६॥
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जे भिक्खू सागारियसंतियं पायपुंछण जाइत्ता 'तमेव रयणि पच्चप्पिणिस्सामि'त्ति मुए पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणंतं वा साइज्जइ ।।१७।
जे भिक्खू सागारियसंतियं पायपुंछण जाइत्ता 'गुए पच्चप्पिणिस्सामि'-त्ति तमेव रयणि पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणतं वा सादज्जइ ॥१८॥
जे भिक्खू पाडिहारियं दंडय वा लद्वियं वा अवलेहणियं वा वेणुमूई वा जाइत्ता एवं एएहिं दोहिं वि चेव पाडिहारिय-सागारियगमएहिं दो दो आलायगा णेयचा ॥१९॥ ॥२०॥२१॥२२॥
जे भित्रख पाडिहारियं वा सेज्जासंथारंग पच्चप्पिणित्ता दोच्चपि अणणुनविय अहिद्वेइ अहिलेंतं वा साइज्जइ ॥२३॥
जे भिक्खू सागारियसंतियं सेज्जासंधारगं पच्चप्पिणित्ता दोच्चपि अणणुन्नविय अहिलेइ अहिटेतं वा साइज्जइ ॥२४॥
जे भिक्खू सणकप्पासाओ वा उण्णकप्पासाओ वा पौड-कप्पासाओ वा अमिलकप्पासाओ वा दीहमुताई करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥२५॥
जे भिक्खू सचित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा करेड़ करेंतं वा साइज्जइ ॥२६॥ एवं-धरेइ ॥२७॥ परिभुजइ ॥२८॥
जे भिक्खू चित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा करेइ करें। वा साइज्जइ ॥२९॥ एवं धरेइ ॥३०॥ परिभुजइ ॥३१॥
जे भिक्खू विचित्ताणि दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तंदडाणि वा करेइ करते वा साइज्जइ ॥३२॥ एवं धरेइ ॥३३॥ परिभुंनइ ॥३४॥
जे भिक्खू नवणिवेसंसि गामंसि वा जाव संनिवेसंसि वा अणुप्पविसित्ता असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं साइज्जइ ॥३५॥
जे भिक्खू नवणिवेससि अयागरंसि वा तंबागरंसि वा तउआगरंसि वा सीसागरंसि वा हिरण्णागरंसि वा सुचण्णागरंसि वा स्यणागरंसि वा वइरागरंसि वा अणुप्पविसित्ता असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेत वा साइज्जई॥
जे भिक्खू मुहवीणियं करेइ करतं वा साइज्जइ ॥३७॥ जे मिक्खू दंतवीणियं करेइ०॥३८॥ एवम् उठविणियं०॥३९॥ नासावीणियं० ॥४०॥ कक्खवीणियं ॥४१॥ इत्थवीणियं० ॥४२॥ नहवीणियं० ॥४३॥ पत्त वाणियं० ॥४४॥ पुष्फीणिय० ॥४५॥ फलचीणियं० ॥४६।। वीयत्रीणियं० ॥४७॥ हरियवीणियं० ॥४८॥
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जे भिक्खू मुहबी णियं वाएइ वाएतं वा साइज्जइ ॥४९॥ जे भिक्खू दंतवीणियं वाएइ ॥५०॥ औढवीणियं वाएइ ॥५१॥ नासावीणियं वाएइं ॥५२॥ कक्खवीणियं वाएइ ॥५३॥ हत्थवीणियं वाएइ १५४॥ नहवीणियं वाएइ ॥५५॥ पत्तवीणियं वाएड ॥५६|| पुप्फवीणियं वाइए ॥५७॥ फलवीणियंवाइए ॥५८॥ वीयवीणियं वाएड ॥५९॥ हरियवीणिय वाएइ ॥६०॥
जे भिक्खू एवं अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि वा अणुदिन्नाइ सहाई उदीरेइ उदीरेंतं वा साइज्जइ ॥६१॥
जे भिक्खू उद्वेसियं सेज्जं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥६२॥ । जे भिक्खू सपाहुडियं सेज्ज अणुप्पविसइ अणुप्पविसंत वा साइज्जइ ॥६॥ जे भिक्खू सपरिकम्म सेज्ज अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥६४॥ जे भिक्खु 'णत्थि संभोगवत्तिया किरिय'-त्ति वयइ वयंत वा साइज्जइ ॥६५॥
जे भिक्खू वत्थं वा पडिग्गई वा कंवलं वा पायपुंछणं वा अलं थिरं धुवं धार णिज्ज पलिच्छिदिय पलिच्छिदिय परिहवेइ परिहवेत वा साइज्जइ ॥६६॥
जे भिक्खू लाउयपाय वा दारुपायं वा मटियापायं वा अलं थिरं धुवं धारणिज्ज पलिभिदिय पलिभिदिय परिहवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥६७॥
जे भिक्खू दंडगं वा लट्टियं वा अवलेहणियं वा वेणसूइयं वा पलिभंजिय पलिभंजिय परिहवेइ परिद्ववेतं वा साइज्जई ॥६८॥
जे भिक्खू अइरेगपमाणं रयहरणं धरेइ धरनं वा साइज्जइ ॥६९।। जे भिक्खू सुहमाई रयहरणसीसाई करेइ करतं वा साइज्जइ ॥७०॥ जे भिक्खू स्यहरणस्स एकं बंधं देइ देंतं वा साइज्जइ ॥७॥ जे भिक्खू रयहरणस्य परं तिण्हं बंधाणं देइ देंतं वा साइज्जइ ॥७२॥ जे भिक्खू रयहरण अविहीए बंधक बंधतं वा साइज्जइ ॥७३॥ जे भिक्खू रयहरणं कंड्सगवंधेणं बंधइ बंधतं वा साइज्जइ॥७४। जे भिक्खू रयहरणं वोसर्ट धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥७५॥ जे भिक्खू रयहरणं अणिसिटुं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥७६।। जे भिक्खू स्यहरणं अहिटेइ अहिहंत वा साइज्जइ ॥७॥ जे भिक्खू रयहरणं उस्सीसमूले ठवेइ ठवेंतं वा साइज्जइ ॥७८॥ जे भिक्खू रयहरणं तुयट्टेइ तुयāतं वा साइज्जइ ॥७९।। तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारद्वाणं उग्धाइयं ॥८॥
॥ निसीहज्झयणे पंचमो उद्देसो समत्तो ॥
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॥ पोद्देशकः ।।
गाम मोटियाए विग्णवेड विणवतं वा साइजइ ॥१॥ भिमाउगामाम मरणय दियाए इत्यकम्मं करेंड करतं वा साइज्जह ॥२॥
म माउगामम्ग मंडणवडियाए अंगादाणं कटेण या किलिंचेण या अंगुरियार मगाए या गंगालेर मनाले वा साउज्जइ ॥३॥
मि, माउन्गामग्म मेगवाडियाए अंगादाणं संवाहेज वा पलिमदेज या
परिमान शमाहना ॥॥
f: माजगामम्म मेगाडिगाए अंगादागं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा बाती xvi वा मागंज बा अभंगनं वा मावनं वा माइज्जइ ॥५॥
भागामम्म मेगवटियाए अंगादाणं करण वा लादेण वा पउमम मिजाज या हाण या गुणहिं वा व िया उबट्टेद वा परिवइ का उन्नयना परियोन का गाना ॥६॥
निर मागासम्म मेडियाए अंगादाणं सीओदगवियढेण वा उसिणा
उनीमा पचीज या उन्होनं या पधोयेंतं वा साइज्जह ॥७॥ जना मारग्गामन्य मापादियाए अंगादाणं पिछलेड णिच्छलेतं वा
पु
far माम मेगवटिया भंगादाणं निम्बा जिग्नं वा साइज्जड ।
६ : मायामम्ग मेजवदियाए अंगादाणं अन्नयरंमि अचिनंसि सोयंसि S, Tami निगाएर नियापन वा माइनर ॥१०॥
मागमम मटिगाए भाटि गयं कुम्जा संयं या करतं या EEP
farmen जारिगाए फलाहाना फल, या मध्यडियाए Prof.
या गगन या मारना ॥१२॥ . : MEER गाए , लिहा . बिहार दरमडियाय ' '' . मा
aniनिवार पोगन वा पिटनंगा गोयनं या भल्यायपण
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२१
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसंतं वा पिट्ठतं वा सोयंत वा भल्लापण उप्पारत्ता सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोल्लेज्ज वा पधोएज्ञ वा उच्छोलेंतं वा पोएं वा साइज्जइ ||१५||
जे भिक्खू माउग्गामस्त मेहुणवडियाए पोसंतं वा पिट्ठतं वा सोयतं वा उच्छोलेत्ता पधोवेत्ता अन्नयरेणं आलेवणजाएणं आलिंपेज्ज वा विलिपेज्ज वा आलिपंत वा विलिपंत चा साइज्जइ ॥ १६ ॥
जे भिक्खू मागामस्त मेहुणवडियाए पोसत वा पिट्ठत वा सोयंत वा उच्छोलेत्ता पधोएत्ता आलिपेत्ता विलिपेत्ता तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीपण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा अभंगतं वा मक्तं वा साइज्जइ ॥ १७॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणचडियाए पोसतं वा पिट्ठतं वा सोयंतं वा उच्छोलेत्ता पधोएत्ता आलिपेत्ता विलिपेत्ता अभंगेत्ता मक्खेत्ता अन्नयरेण धूवणजाएण धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा धूर्वेतं वा पधूवेंतं वा साइज्जइ ||१८||
जे भिक्खू माउग्गामस्त मेहुणवडियाए कसिणारं वत्थाई धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ।
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अहयाई वत्थाई घरेइ धरेतं वा साइज्जह ||२०|| जे भिक्खू माउग्गामस्त मेहुणवडियाए धोवाइ वत्थाई धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ||२१|| जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए चित्ताई चत्थाई धरे धरेंत वा साइज्जइ ||२२|| जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए विचित्तारं वत्थाई घरे धरतं वा साइज्जइ ||२३||
जे भिक्खु माउग्गामम्स मेहुणवडियाए अप्पणो पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जतं वा साइज्जइ ||२४||
एवं तइयउद्दे से जो गमो सो चेव इहंपि मेहुणवडियाए णेयव्वो जाव जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए गामाणुगामं दुइज्जमाणे अप्पणो सीसदुवारियं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ||२५||
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए खीरं वा दहिं वा णवणीयं वा सपि वा गुलं वा खंड वा सक्करं वा मच्छंडियं वा अन्नयरं वा पणीयं आहारं आहारेइ आहतं वा साइज्जइ ||२६||
तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुग्धाइयंति ||२७| ॥ निसीहज्झयणे छट्ठो उद्देसो समत्तो ॥
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॥ सप्तमोदेशकः ॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा वेत्तमालियं वा मयणमालिय वा पिंछमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालियं वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा वीयमालियं वा हरियमालियं वा करेइ करेंत वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा वेत्तमालियं वा मयणमालियं वा पिछमालियं वा दंतमालिय वा सिंगमालिय संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमालिय वा पुप्फमालियं वा फलमालिय वा वीय. मालियं वा हरियमालियं वा धरेइ धरेत वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू माउग्गामरस मेहुणवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा वेत्तमालिय वा मयणमालियं वा पिछमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालिय वा संखमालियं वा हइडमालिय वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालिय वा वीयमालियं वा हरियमालियं वा पिणद्धेइ पिणदेंतं वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा वेत्तमालियं वा मयणमालियं वा पिंछमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालिय वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा वीयमालियं वा हरियमालियं वा परिझुंजई परिभुजंतं वा साइज्जइ ॥४॥
जे भिक्खू माउन्गामस्स मेहुणवडियाए अयलोहाणि वा तंबलोहाणि वा तउलोहाणि वा सीसगलोहाणि वा रुप्पलोहाणि चा सुवण्णलोहाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ||५| एवं 'धरेइ' 'परिभुजइ ॥ ७॥
जे भिक्खू माउग्गामम्स मेहुणवडियाए हाराणि वा अद्धहाराणि वा एगावली वा मुत्तावली वा कणगावली वा रयणावली वा कडगाणि वा तुडियाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा पट्टाणि वा मउडाणि वा पलंचसुत्ताणि वा सुवण्णमुत्ताणि वा करेइ करें। वा साइज्जइ ॥८॥ एवं 'धरेई' 'परिशुंजई' ॥९-१०॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आईणाणि वा आईणपाउराणि वा कंवलाणि वा कंवलपाउराणि वा कोयराणि वा कोयरपाउराणि या गोरमियाणि वा कालमियाणि वा णीलमियाणि वा सामाणि वा महासामाणि वा उट्टाणि वाउट्ट लेस्साणि वा वग्याणि वा विवग्याणि वा पलवंगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणि वा खोमाणि वा दुगुल्लाणि वा तिरीडपाणि वा पतुलाणि वा पडलाणि वा चीणाणि
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वा असुयाणि वा कणगकंताणि वा कणगखचियाणि वा कणगचित्ताणि वा कणगविचित्ताणि वा आभरणाणि वा आभरणचित्ताणि वा आभरणविचित्ताणि वा करेइ वा करेतं वा साइज्जड़ || ११|| 'धरेड' 'परिभुंजड' ॥१२- १३ ॥
जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए इत्थि अक्खसि वा उरंसि वा उयरंसि वासि वा गहाय संचालेइ संचालन वा साइज्जइ ॥ १४ ॥
जे भिक्खू माउग्गामस्त मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जेत वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ||१५||
एवं उसे जो गमो सो णेयच्चो जाव जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवाडियार गामाणुगामं दुइज्जमाणे अण्णमण्णस्स सीसदुवारियं करेड करेंतं वा साइज्जइ ॥१६-६७॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अनंतरहियाए पुढवीए णिसीयावेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा णिसीयावेत तुयट्टानेंतं वा साइज्जइ ॥ ६८ ॥
'समिद्धा पुढवीए ॥ ६९ ॥ 'समरक्खाए पुठवीए ॥ ७० ॥ 'महियाकडाए पुठवीए' ॥ ७१ ॥ 'चित्तमंताए पुठवीए' ॥ ७२ ॥ 'चित्तमंताए सिलाए' ॥ ७३ ॥ 'चित्तमंताए टेलुए' 'निसीयावेज्ज' वा 'तुयट्टावेज्जा वा' ॥ ७४ ॥
जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए कोलावासंसि वा दारु वा जावप - ट्ठिए, सढे सपाणे सवीए सहरिए सओसे सउदए सउत्तिंग - पणग-दगमट्टिय-मक्काडासंताणगंसि णिसीयावेज वा तुयट्टावेज्ज वा णिसीयावेंतं वा तुयट्टावेंतं वा साइज्जइ ॥७५॥
जे भिक्खू माउग्गामस्त मेहुणवडियाए आगंतागारेसु वा आरामागारे वा गाहाइकुले वा परियावसहेसु वा णिसीयावेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा णिसीयावेंतं वा तुट्टातं वा साइज्जइ ॥ ७६ ॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आगंतागारेसु वा आरामागारे वा गाहाइकुले वा परियावसहेसु वा निसीयावेत्ता वा तुयट्टावेत्ता वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं अणुग्धासेज्ज वा अणुपाएज्ज वा अणुग्घा संत वा अणुपाएंत वा साइज्जइ ||७७||
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंकंसि वा पलियंसि वा निसीयावेज्ज वा तुयट्टावेज वा निसीयावेंत वा तुयट्टावेतं वा साइज्जइ ॥ ७८ ॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंकंसि वा पलियंकंसि वा णिसीयावेत्ता वा तुट्टावेत्ता वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अणुग्यासेज्ज वा
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अणुपाएज्ज वा अणुग्घासतं वा अणुपाएतं वा साइज्जइ ॥७९॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णतरं तेइच्छं आउदटइ आउदृतं वा साइज्जइ ॥८॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अमणुन्नाई पोग्गलाई नीहरेइ नीहरतं चा साइज्जइ ॥८॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए मणुन्नाई पोग्गलाई उवकिरइ उवकिरंतं वा साइज्जइ ॥८॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अन्नयरं पसुनायं वा पक्खिजायं वा पायंसि वा पक्खंसि वा पुच्छंसि वा सीसंसि वा गहाय संचालेइ संचालत वा साइ. ज्जइ ॥८३॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अन्नयरं पसुजायं वा पक्खिजायं वा सोयंसि कटं वा किलिंचं वा अंगुलियं वा सलागं वा अणुप्पवेसित्ता संचालेइ संचालेतं वा साइज्जइ ।।८४॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अन्नयरं पसुजाय वा पक्खिजाय वा 'अयमिस्थि'-त्ति कटु आलिंगेज्ज वा परिस्सएज्ज वा परिचुंबेज्ज वा आलिंगंतं वा परिस्सयंत वा परिचुंवतं वा साइज्जइ ॥८५॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंते वा साइज्जइ ॥८६॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥८७॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए वत्थं वा पडिग्गहं वा कंवलं वा पायपुंछणं वा वा देइ देंतं वा साइज्जइ ॥८८॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए वत्थं वा पडिग्गहं वा कंवलं वा पायपुंछणं वा पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥८९॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए सज्झायं वाएइ वाएंत वा साइज्जइ ॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए सज्झायं पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥११॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णयरेणं इंदिएणं आकारं करेइ करतं वा साइज्जइ ॥१२॥ तं सेवमाणे आवज्जड चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ॥९॥
। निसीहज्झयणे सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥७॥
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॥ अष्टमोद्देशकः॥ जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा एगो एगित्थीए सद्धि विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ, उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ, अण्णयरं वा अणारियं निहुरं मेहुणं अस्समणपाओग्गं कहं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू उज्जाणंसि वा० ॥२॥ जे भिक्खू अट्टसिवा० ॥ ३ ॥ जे भिक्खू दगंसि वा० ॥ ४ ॥ जे भिक्खू सुण्णगिहंसि वा० ॥ ५॥ जे भिक्खू तणगिहंसि वा० ॥ ६ ॥ जे भिक्खू जाणसालंसि वा० ।। ७ ॥ जे भिक्खू पणियसालंसि वा० ॥ ८॥ जे भिक्खू गोणसालंसि वा० ॥९॥
जे भिक्खू राओ वा बियाले वा इत्थीमज्झगए इत्थीसंसत्ते इत्थीपरिबुडे अपरिमाणयाए कहं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥१०॥
जे भिक्खू सगणिच्चियाए वा परगणिच्चियाए वा णिग्गंथीए सद्धिं गामाणुगामं दृइज्जमाणे पुरओ गच्छमाणे पिट्टओ रीयमाणे ओहयमणसंकप्पे चिंतासोयसागरसंपविढे करयलपल्हत्यमुहे अज्झाणोवगए विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेइ, असणं या पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ, उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ, अण्णयरं वा अणारियं निहुरं मेहुणं असमणपाओग्गं कह कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥११॥
जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासयं वा अणुवासयं वा अंतो उवस्सयस्स अद्ध वा राई कसिणं वा राई संवसावेइ संवसावेंतं वा साइज्जइ ॥१२॥
जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासयं वा अणुवासयं वा अंतो उवस्सयस्स अद्धं वा राई कसिणं चा राई संघासावेइ तं पडुच्च निवखमइ चा पविसइ वा निक्खमंतं वा पविसंतं वा साइज्जइ ॥१३॥ __ जे भिक्खू तं न पडियाइक्खेइ न पडियाइक्वेतं वा साइज्जइ ॥१४॥
जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं समवाएसु वा पिंड नियरेसु वा इंदमहेसु वा खंदमहेसु वा रुद्दमहेसु वा मुगुंदमहेसु वा भूयमहेसु वा जक्खमहेसु वा णागमहेसु वा थूभमहेसु वा चेइयमहेसु वा रुक्खमहेसु वा गिरिमहेसु वा दरिमहेसु वा अगडमहेस वा तडागमहेसु वा दहमहेसु वा गईमहेसु वा सरमहेसु वा सागरमहेसु वा आगरमहेसु वा अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु विरूवरूवेसु महामहेस असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१५॥
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जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं उत्तरसालंसि वा उत्तरगिहंसि वा रीयमाणाणं वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहते वा साइज्जइ ॥१६॥
जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं हयसालागयाण वा गयसालागयाण वा मंतसालागयाण वा गुज्झसालागयाण वा रहस्ससालागयाण वा मेहुणसालागयाण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१७॥
जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं सण्णिहिसण्णिचयाओ खीरं वा दहिं वा णवणीयं वा सप्पिं वा तेल्लं वा गुलं वा खंडं वा सक्करं वा मच्छंडियं वा भोयणजायं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१८॥
जे भिक्खु रण्णो खत्तियाणं मुदियाण मुद्धाभिसित्ताणं उस्सपिंड वा संसपिंडं वा अणाइपिंडं वा किविणपिंडं वा वणीमगपिंडं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ॥२०॥
॥ णिसीहज्झयणे अट्ठमो उद्देसो समत्तो ॥८॥
॥नवमोद्देशकः॥ जे भिक्खू रायपिंडं गिण्हइ गिण्हतं वा साइज्जइ ॥१॥ जे भिक्खू रायपिंडं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥२॥ जे भिक्खू रायंतेपुरं पविसइ पविसंत वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्खू रायतेपुरियं वएज्जा “आउसो रायतेपुरिए णो खलु अम्हं कप्पइ रायंतेपुरे णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा इमं तुमं पडिग्गहं गहाय रायतेपुराओ असणं वा पाण वा खाइम वा साइम वा अभिहडं आहदटु दलयाहि" जो तं एवं वयइ वयंत वा साइज्जइ ॥४॥
जे भिक्खू नो वएज्जा रायंतेपुरिया वएज्जा "आउसंतो समणा ! णो खलु तुझं कप्पइ रायंतेपुरे निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा आहरेयं पडिग्गहं अतो अम्हं रायंतेपुराओ असण वा पाणचा खाइमं वा साइम वा अभिहडं आहटु दलयामि" जो तं एवं वयंतिं पडिमुणेइ पडिसुणेतं वा साइज्जइ ॥५॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं दुवारियभत्तं वा पसुभत्तं वा भयगभत्तं वा वलिभत्तं वा कयगभत्तं वा हयभत्तं वा गयभत्तं वा कंतारभत्तं वा दुन्भि
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क्खभत्तं वा दुकालभत्तं वा दुमगमत्तं वा गिलाणभत्तं वा वदलियाभत्तं वा पाहुणभत्तं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।६।।
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इमाई छद्दोसपयाई अजाणिय अच्छिय अगवेसिय परं चउरायपंचरायाओ गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए निक्खमह वा पविसइ वा निक्खमंतं वा पविसंतं वा साइज्जइ तंजहा-कोडागारसालाणि वा भंडागारसालाणि वा पाणसालाणि या खीरसालाणि वा गंजसालाणि चा महाणससालाणि वा॥७॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियायं मुदाभिसित्ताणं आगच्छमाणाण वा णिग्गच्छमाणाण वा पयमवि चक्खुदंसणपडियाप अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइज्जइ ।।
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इत्थीओ सव्वालंकारविभूसियाओ पयमवि चक्खुदसणपडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेत वा साइज्जइ ॥९॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताण मंसखायाणं वा मच्छखायाणं वा छविखायाणं वा बहिया णिग्गयाणं असणं वा पाणवा खाइम वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गहेंतं वा साइजह ॥१०॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं अण्णयरं उबवूहणिज्ज समीहियं पेहाए तीसे परिसाए अणुट्टियाए अभिण्णाए अवोच्छिण्णाए जोतं असणं वा ४ पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥११॥ ____ अह पुण एवं जाणेज्जा-'इहज्ज रायखत्तिए परिवुसिए' जे भिक्खू ताए गिहाए ताए परसाए ताए उवासंतराए विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेइ असणवा पाणवा खाइमं वा साइम वा आहारेड, उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ, अण्णयरं वा अणारियं निठुरं अस्समणपाओग्गं कहं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥१२॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाण मुदियाण मुद्धाभिसित्ताणं वहिया जत्तासंपडियाणं असणं वा पाण वा खाइम वा साइम वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१३॥
जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं चहिया जत्तापडिणियत्ताण असणवा पाणं वा खाइम वा साइम चा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ॥
एवं-'नईजत्तासंपष्टियाण' ॥१५।। 'नईजत्तापडि नियत्ताणं' ॥१६॥ 'गिरिजत्तासंपट्ठियाणं' ॥१७॥ गिरिजत्तापडिनियत्ताणं' ॥१८॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाण मुद्धाभिसित्ताण महाभिसेयंसि वद्यमाणंसि णिक्खमइ वा पविसइ वा णिक्खमंत वा पविसंतं वा साइज्जइ ॥१९॥
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जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इमाओ दस अभिसेयाओ रायहाणीओ उठ्ठिाओ गणियाओ चंजियाओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो चा तिक्खुत्तो वा णिक्खमइ वा पविसइ वा णिक्खमंतं वा पविसंत वा साइज्जई । तंजहा-चंपा १, महुरा २, २, चाणारसी ३, सावत्थी ४, सायं ५, कंपिल्लं ६, कोसंबी ७, मिहिला ८, हस्थिणापुरं ९, रायगिह वा १० ॥२०॥
जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्म नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । तंजहा-खत्तियाण वा रायाण वा कुरायाण वा रायपेसियाण वा रायवंसियाण व-त्ति ॥२१॥
जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहई पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । तंजहा-गडाण वा णगाण चा कच्छुयाण वा जल्लाण वा मल्लाण चा मुट्ठियाण वा वेलंवगाण वा कहगाण वा पचगाण वा लासगाण वा खेलयाण वा छत्ताणुयाण वा ॥२२॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । तंजहा-आसपोसयाण वा हत्थिपोसयाण वा महिसपोसयाण वा वसहपोसयाण वा सीहपोसयाण वा वग्धपोसयाण वा अयपोसयाण वा मिगपोसयाण वा सुणगपोसयाण वा सूयरपोसयाण वा मेंढपोसयाण वा कुक्कुडपोसयाण वा मक्कडपोसयाण वा तित्तिरपोसयाण वा वट्टयपोसयाण वा लावयपोसयाण वा चीरल्लपोसयाण चा हंसपोसयाण वा मयूरपोसयाण वा मुयपोसयाण वा ॥
एवं-'आसदमगाण वा हस्थिदमगाण वा'०॥२४॥-आसमद्दगाण वा हत्थिमद्दगाण वा० ॥२५॥ 'आसमट्ठाण वा हत्थिमट्ठाण वा' ०॥२६॥ 'आसरोहाण वा हत्थिरोहाण वा०॥२७॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । तंजहा-सस्थाहावाण वा संवाहावयाण वा अभंगावयाण वा उव्वट्टावयाणपा मज्जावयाण वा मंडावयाण वा छत्तग्गहाण वा चामरग्गहाण वा हडप्पग्गहाण वा परियट्टग्गहाणं वा दीवियग्गहाण वा असिग्गहाण वा धणुग्गहाण वा सत्तिग्गहाण वा कोंतग्गहाण वा हत्थिपत्तगहाण वा ॥२८॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्म नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । तंजहा-घरिसधराण वा कंचुइज्जाण वा दोवारियाण वा दंडारक्खयाण वा ॥२९॥
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जे भिक्खू रणो सत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइम वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । तंजहा-खुज्जाणं जाव पारसीणं ॥३०॥ तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं ॥३१॥
| निसीहज्झयणे नवमो उद्देसो समत्तो ॥९॥
|| दशमोदेशकः॥ जे भिक्खू भदंतं आगाहं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥१॥ जे भिक्खू भदंतं फरुसं वयई वयं वा साइज्जइ ॥२॥ जे भिक्खू भदंतं आगाढफरुसं क्या वयंतं वा साइज्जइ ॥ ३ ॥
जे भिक्खू भदंतं अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएइ अच्चासाएंत वा साइज्जइ ॥४॥
जे भिक्खू अणंतकायसंजुतं आहारं आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ ॥ ५ ॥ जे भिक्खू आहाफम्मं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ ६॥ जे भिक्खू तीतं निमित्तं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ ७ ॥ जे भिक्खू पइप्पण्णं निमित्तं वागरेइ वागरेंतं वा साइज्जइ ॥ ८॥ जे भिक्खू अणागयं निमित्तं वागरेइ वागरेंनं वा साइज्जइ ॥ ९॥ ने भिक्खू सेई विपरिणामेइ सेहं विपरिणामतं वा साइज्जइ ॥ १० ॥ जे भिक्खू सेहं अवहरइ अवहरेंतं वा साइज्जइ ॥ ११॥ ने भिक्खू दिसं विपरिणामेइ विपरिणामेंतं साइज्जई ॥ १२ ।। जे भिक्खू दिसं अवहरइ अवहरंतं वा साइज्जइ ॥ १३ ॥
जे भिक्खू बहियावासियं आएसं परं तिरायाओ अविफालेत्ता संवसावेइ संवसावेतं वा साइज्जइ ॥ १४ ॥
जे भिक्खू साहिगरणं अविओसमियपाहुडं अकडपायच्छित्तं परं तिरायाओ विष्फालिय अविष्फालिय संभुजइ संभुंजतं वा साइज्जइ ॥१५॥
जे भिक्खू उग्याइयं अणुग्धाइयं वयई वयं वा साइज्जइ ॥१६॥ एवं- 'अणुग्घाइयं उग्घाइयं वयई' ॥१७॥ 'उग्याइयं अणुग्धाइयं देइ' ॥१८॥ 'अणुग्घाइयं उग्याइयं दे ॥१९॥
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जे भिक्खू उग्धाइयं सोच्चा णच्चा संभुंजइ संझुंजतं वा साइज्जइ ॥ २० ॥ जे भिक्खू उग्घाइयदेउं सोच्चा गच्चा संभुजइ संझुंजत वा साइज्जइ ॥२१॥ जे भिक्खू उग्घाइसंकप्पं सोच्चा णच्चा संभुंजइ संभुजत वा साइजह ॥२२||
जे भिक्खू उग्धाइयं उग्धाइयदेउं वा उग्याइयसंकल्पं वा सोच्चा गच्चा से - जइ संभुंजतं वा साइज्जइ ॥२३॥
'अणुग्याइयं सोच्चा'० ॥२४॥ 'अणुग्याइयहे सोच्चा'० ॥२५॥ 'अणुग्याइयसंकप्प सोच्चा'० ॥२६॥ 'अणुग्घाइयं-अणुग्घाइयहेउं अणुग्याइसंकप्पं सोच्चा'० ॥२७॥ 'जे भिक्खू उग्घाइयं वा अणुग्धाइयं वा सोच्चा० ॥२८॥ 'उग्धाइयां वा अणुग्याइय हे वा सोच्चा० ॥२९॥ उग्घाइयसंकप्पं वा अणुग्याइयसंकप्पं वा सोच्चा० ॥३१॥ 'उग्याहयं वा अणुग्धाइयं वा उग्घाइयहेउं वा अणुग्याइयहेउं वा उग्याइयसंकप्पं वा अणुग्धाइयसंकप्पं वा सोच्चा० ॥३१॥
जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणत्यमियमणसंकप्पे संथडिए णिचितिगिच्छासमावण्णेणं अप्पाणेणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता संभुंजइ संभुंजतं वा साइज्जइ, अह पुण एवं जाणेज्जा अणुग्गए सरिए अत्थमिए वा से जं च मुहंसि वा जं च पाणिसि वा जच पडिग्गइंसि वा तं विनिचिय विसोहिय तं परिहावेमाणे णाइक्कमइ, जो तं भुंजइ मुंजतं वा साइज्जइ ॥ ३२ ॥
जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणस्थमियमणसंकप्पे संथडिए वितिगिच्छासमावणेणं अप्पाणेणं असणं वा ४ जाव जो तं भुंजइ भुंजतं वा साईज्जई ॥३३॥
जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणत्यमियमणसंकप्पे असंथडिए निन्चितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं असण वा ४ जाव जो तं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जह ॥३४॥
जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणथमियमणसंकप्पे असंथडिए वितिगिच्छासमावण्णेणं अप्पाणेणं असणं वा ४ जाव जो तं भुजइ भुंजतं वा साईज्जइ ॥ ३५ ॥
जे भिक्खू राओ वा चियाले वा सपाणं सभोयणं उग्गालं आगच्छेज्जा तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा णाइक्कमइ तं उग्गिलित्ता पच्चोगिलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते, जो तं पच्चोगिलइ पच्चोगिलत वा साइज्जइ ॥ ३६॥
जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा णच्चा ण गवेसइ ण गवसंतं वा साइज्जइ ॥३७॥
जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा णच्चा उम्मग्गं वा पडिपहं वा गच्छइ गच्छंत वा साइज्जइ ॥ ३८॥
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जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अभुटिए गिलाणपाउग्गे दध्वजाए अलभमाणे जो तं ण पडियाइक्खइ ण पडियाइक्वंतं वा साइज्जइ ॥ ३९ ॥
जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अब्भुटिए सएण लाभेण असंथरमाणे जो तस्स न पडितप्पई न पडितप्पंतं वा साइज्जइ ॥ ४० ॥
जे भिक्खू पहमपाउसंसि गामाणुगाम दुइज्जइ दुइज्जतं वा साइज्जइ ॥४१॥
जे भिक्खू वासावासं पज्जोसवियंसि गामाणुगाम दुइज्जइ दुइज्जतं वा साइज्जइ ॥४२॥
जे भिक्खू अपज्जोसवणाए पज्जोसवेइ पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ ॥ ४३ ॥ जे भिक्खू पज्जोसवणाए ण पज्जोसवेइ ण पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ ॥४४॥
जे भिक्खू पज्जोसवणाए गोलोमाईपि वालाई उवाइणावेद उवाइणात वा साइजह ॥४५॥
जे भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तरियपि आहारमाहारेइ आहारेंतं वा साइज्जह ॥४६॥
जे भिक्खू अण्णउत्थिरण वा गारथिएण वा पज्जोसवेइ पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ ।। ४७॥
जे भिक्खू पढमसमोसरणुद्देसे पत्ताई वा चीवराई वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥४८॥ तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं ॥ ४९ ॥
॥ निसीहजप्रयणे दसमो उद्देसो समत्तो ॥१०॥
॥ एकादशोदेशकः ॥ जे भिक्खू अयपायाणि वा तंवपायाणि वा तउपायाणि वा सीसगपायाणि वा कंसपायाणि वा रुप्पायाणि वा सुवणपायाणि वा जायख्वपायाणि वा मणिपायाणि वा कणगपायाणि वा दंतपायाणि वा सिंगपायाणि वा चम्मपायाणि वा चेलपायाणि वा अंकपायाणि वा संखपायाणि वा वइरपायाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ १ ॥
एवं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥ २॥ एवं परिभुंजइ परिभुजंतं वा साइज्जइ ॥३॥ जे भिक्खू अयवंधाणि वा जाव वइरवंधाणि वा करेइ करेंतं वा साइइज्जइ ॥ ४॥ एवं-धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥ ५॥ एवं परिभुंजइ परिभुंजतं वा साइज्जइ ॥ ६॥ जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ पायवड़ियाए गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ ।।
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बिपद्धजीयनमेगमी गपारपहमि पायं अभिडं बाहट्ट दिज्जमाणं मिडिगानं ना माजा ॥८॥ भिमाम प्रपन्नं चयः वयं वा माजा ॥९॥
म धाम्मम्ममा वयः वयंन चा मारग्जड ॥ १०॥
भिनन्गिगम्ग ना गारन्धियम्स या पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज या आमनागापमान या माजा ॥ ११ ॥
गायगामी यम्यो पयरं अणन्धियम्स वा गारत्थियस्स वा अभिलायो Bf मामा जपणे निरस वारलियन्स का सीसवारियो ने या मारजा ॥१२-६३।।
या वीराने बोटानं वा साइजह ॥ मिल परं बहायर नीहानं या माइस्जद ॥६५|| *नि अपाणं विम्हावर बिम्हावेत या मारज्जड ॥६६॥ मिर पर विहार विहानं या माउन ॥६७|| मिला पाणं निपग्गिाम: विपरियामंतं वा साइजह ॥६६॥ मिण र विपरियागंट विपरियागत या माउज्जड ॥६॥ 'मा मुख्य का कोनं वा माइजा ॥७॥ मि गाजविरामि मनो गमण सज्जो आगमणं मन्नो गमणा
सा माना ||१| दिगोगाम्म भय अगर वयं वा साइजः ॥७२॥
मोपणमा नरः अयंत वा साजा ॥७३॥ im दिया गया पाया पाश्म या माटम या पटिग्गाहेत्ता दिया EिRE IS
मा माग कामाम या माध्म वा पटिग्गाहेला रनि भुजर for : RE
या ना मारम चा माइमं चा पटिग्गाडेगा दिया tir TIERSE11 Trim
का गाम का परिणामा नि झुंजर
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जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परिवासेई परिवासेंतं वा साइज्जइ ॥७८॥
जे भिक्खू परिवासियस्त असणस्स वा पाणस्स वा खाइमस्स वा साइमस्स वा तयप्पमाणं वा भूइप्पमाणं वा विदुप्पमाणं वा आहारं आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ ॥
जे भिक्खू मंसाइयं वा मच्छाइयं वा मंसखलं वा मच्छखलं वा आहेणं वा पहेणं वा संमेलं वा हिंगोलं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं विख्वरूवं वा हीरमाणं पेहाए ताए आसाए ताए पिवासाए तं रयणि अण्णत्थ उवाइणावेइ उचाइणात वा साइज्जइ ।८।
जे भिक्खू निवेयणपिंडं भुंजइ झुंजतं वा साइज्जइ ॥८॥ जे भिक्खू अहाछंदं पसंसइ पसंसतं वा साइज्जइ ॥८२॥ जे भिक्खू अहाछंदं वंदइ बंदंतं वा साइज्जइ ॥८॥
जे भिक्खु णायगं वा अणायगं वा उवासंग वा अणुवासगं वा अणलं पवावेइ पवावेत वा साइज्जइ ॥८४॥
जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगं वा अणलं उवहावेइ उवट्ठावेंतं वा साइज्जइ ॥८५||
जे भिक्खू णायगेण वा मणायगेण उवासएण वा अणुवासरण वा अणलेण वेयावच्चं कारावेइ कारावेतं वा साइज्जइ ।।८।।
जे भिक्खू सचेले सचेलगाणं मज्झे संवसइ संवसंत वा साइज्जइ ॥८॥ जे भिक्खू सचेले अचेलगाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइज्जइ ॥८८॥ जे भिक्खू अचेले सचलगाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइज्जइ ॥८९॥ जे भिक्खू अचेले अचेलगाणं मज्झे संवसइ संवसंत वा साइज्जइ ॥१०॥
जे भिक्खू परिवसियं पिप्पलिं वा पिप्पलिचुण्णं वा सिंगवेरं वा सिंगवेरचुण्णं वा विलं वा लोण उभियं वा लोण आहारेइ आहारत वा साइज्जइ ॥९१॥
जे भिक्खू गिरिपडणाणि वा मरुपडणाणि वा भिगुपडणाणि वा तरुपडणाणि वा गिरिपक्खंदणाणि वा मरुपक्खंदणाणि भिगुपक्खंदणाणि वा तरुपक्खंदणाणि वा जलपिवेसाणि वा जलणपवेसाणि वा जलपक्खंदणाणि वा जलणपक्खंदणाणि वा विसभक्खणाणि वा सत्थोपाडणाणि वा वलयमरणाणि वा सट्टाणि वा तब्भवमरणाणि वा अंतोसल्लमरणाणि वा वेहायसाणि वा गिद्धपट्टाणि वा जाव अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि बालमरणाणि पसंसइ पससंत वा साइज्जइ ॥९२॥ तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥१३॥
॥ निसीहज्झयणे एगारसमो उद्देसो समत्तो ॥११॥
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॥ द्वादशोदेशकः ॥ जे भिक्खू कोलुणवडियाए अण्णयरं तसपाणजाई तणपासएण वा मुंजपासएण वा कपासएण चा चम्मपासएण वा वेत्तपासएण वा मुत्तपासएण वा रज्जुपासएण वा बंधइ वंधत वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू कोलुणवडियाए अण्णयरं तसपाणजाई तणपासएण वा मुंजपासपण वा कठपासएण वा चम्मपासएण वा वेत्तपासएण वा मुत्तपासएण वा रज्जुपासएण वा वल्लगं मुंबइ मुंचतं वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू अभिक्खणं अभिक्खणं पच्चक्खाण मंजइ भंजंतं वा साइज्जइ ॥३॥ जे भिक्खू परित्तकायसंजुत्तं आहारं आहारेइ आहारतं वा साइजह ॥४॥ जे भिक्खू सलोमाई चम्माई धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ॥५॥
जे भिक्खू तणपीढगं वा पलालपीढगं छगणपीढगं वेत्तपीढग वा परवत्थेणोच्छन्नं अहिटेइ अहिडेतं वा साइज्जइ ॥६॥
जे भिक्खू णिग्गंथीण संघाडि अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सिवावेह सिन्धावते वा साइज्जइ ||७||
जे भिक्खू पुढवीकायस्स वा आउकायस्स वा अगणिकायस्स वा वाउकायस्स वा वणस्सइकायस्स वा कलमायमवि समारभइ समारभंतं वा साइज्जइ ॥८॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खं दूरूहइ दूरुहंतं वा साइज्जइ ॥९॥ जे भिक्खू गिहिमत्ते भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥१०॥ जे भिक्खू गिहिवत्थं परिहेइ परिहतं वा साइज्जइ ॥११॥ जे भिक्खू गिहिनिसेज्ज वाहेइ वा वा साइज्जइ ॥१२॥ जे भिक्खू गिहितेइच्छं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ।।१३।।
जे भिकाबू पुरेकम्मकडेण इत्थेण वा मत्तेण वा दबीए वा भायणेण वा असण वा पाणं वा खाइमं वा साहम वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेतं वा साइज्जह ॥१४॥
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३५
जे भिक्खू गिहत्थाण वा अण्णतित्थियाण वा सीओदगपरिभोगेण हत्थेण वा मत्तेण वा दव्वीए वा भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहे पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ १५ ॥
जे भिक्खू कटुकम्माणि वा पोत्थकस्माणि वा चित्तकम्माणि वा लेप्पकम्माणि वा दंतकम्माणि वा मणिकम्माणि वा सेलकम्माणि वा गंधिमाणि वा वेढिमाणि वा परिमाणि वा संघाइमाणि वा पत्तच्छेज्जाणि वा विविहाणि वा वेहिमाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारे अभिसंधारेंतं वा साइज्जइ ॥ १६॥
जे भिक्खू वप्पाणि वा फलिहाणि वा उप्पलानि वा पल्ललाणि वा उज्झराणि वा निझराणि वा चात्रीणि वा पोक्खरिणी वा दोहियाणि वा गुंजालियाणि वा सराणि वासरपंतियाणि वा सरसरपंनियाणि वा चक्खुदमणवडियाए अभिसंधारे अभिसंधातं वा साइज्जइ ॥ १७॥
जे भिक्खू कच्छाणि वा गहणाणि वा शूमाणि वा वणाणि वा वणविदुम्गाणि वा पन्चयाणि वा पव्वयविदुग्गाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइज्जइ ॥ १८ ॥
जे भिक्खू गामाणि वा नगराणि वा निगमाणि वा खेडाणि वा कव्वाणि वा मडवाणि वा दोणमुहाणि वा पट्टणाणि वा आगराणि वा संवाहाणि वा संनिवेसाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारे अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥ १९ ॥
जे भिक्खू गाममहाणि वा णगरमहाणि वा णिगममहाणि वा खेडमहाणि वा कन्डमहाणि वा मवमहाणि वा दोणमुहमहाणि वा पहणमहाणि वा आगरमहाणि वा संवाहमहाणि वा संनिवेसमहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारे अभिसंधारतं वा साइज्जइ ॥२०॥
जे भिक्खू गामवहाणि वा नगरवाणि वा णिगमवहाणि वा खेडवहाणि वा कव्वडवहाणि वा मडवत्रहाणि वा दोणमुहवहाणि वा पट्टणवहाणि वा आगरवहाणि वा संवाहवहाणि वा संनिवेसवहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारे अभिसंधारेंतं वा साइज ||२२||
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जे भिक्खू गामपहाणि वा णगरपहाणि वा निगमपहाणि वा खेडपहाणि वा कब्बडपहाणि चा मडवपहाणि वा दोणमुहपहाणि वा पट्टणपहाणि वा आगरपहाणि वा संवाहपहाणि वा संनिवेसपहाणि वा चक्खुदसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारें वा साइज्जइ ॥२२॥
जे भिक्खू गामदाहाणि वा णगरदाहाणि वा निगमदाहाणि वा खेडदाहाणि वा कब्बडदाहाणि वा मडंबडाहाणि वा दोणमुहदाहाणि वा पट्टणदाहाणि वा आगरदाहाणि वा संवाहदाहाणि वा संनिवेसदाहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइज्जइ ॥२३॥
जे भिक्खू आसकरणाणि वा हत्यिकरणाणि वा उट्टकरणाणि वा गोणकरणाणि वा महिसकरणाणि वा सूयरकरणाणि वा चक्खुदंसणवडियए अभिसंधारेइ अभिसंधारे वा साइज्जइ ॥२४॥
जे भिक्खू आसजुद्धाणि वा इत्थिजुद्धाणि उट्टजुद्धाणि वा महिसजुद्धाणि वा सूयरजुद्राणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा 'साइज्जइ ॥२५॥
जे भिक्खू गाउजूहियठाणाणि वा हयजूदियठाणाणि वा गयजूहियठाणाणि वा चक्खुदसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारें। चा साइज्जइ ॥२६॥
जे भिक्खू अभिसेयठाणाणि वा अक्खाइयठाणाणि वा माणुम्माणपमाणठाणाणि वा महयाहयनहगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडप्पवाइयरवठाणाणि वा चक्खुदंसपवडियाए अभिसंधारेइ अभिंसधारेंतं वा साइज्जइ ॥२७॥
जे भिक्खू डिवाणि वा डमराणि वा खाराणि वा वेराणि वा महाजुद्धाणि वा महासंगामाणि वा कलहाणि वा वोलाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेत वा साइज्जइ ॥२८॥
जे भिक्खू विख्वरूवेस महुस्सवेस इत्थीणि वा थेराणि वा मज्झिमाणि वा डहराणि चा अणलंकियाणि वा सुअलंकियाणि वा गायंताणि वा वायंताणि वा नच्चताणि वा हसंताणि वा रमंताणि वा मोहंताणि वा विपुलं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परिमायंताणि वा परि जंताणि वा चक्खुदसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥ २९ ॥
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जे भिक्खू इहलोइएसु वा रूवेसु परलोइएसु वा रूवेसु दिठेसु वा रूवेसु अदिठेसु वा सेवेमु सुएसु वा स्वेसु वा असएस वा रूवेसु विन्नाएसु वा रूवेमु अविन्नाएसु वा रूवेस सज्जइ रज्जइ गिज्झइ अझोववज्जइ सज्जंतं वा रज्जतं वा गिजातं वा अझोववज्जत वा साइज्जइ ॥ ३० ॥
जे भिक्खू पढमाए पोरिसीए असणं वा पाणं खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेड उवाइणावेंतं वा साइज्जइ ॥ ३१॥
जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ परेणं असणं वा ४ उवाइणावेइ उवाइणात वा साइज्जइ ॥ ३२ ॥
जे भिक्खू दिया गोमयं पग्गिाहेत्ता दिया कार्यसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा आलिपंतं वा विलिपंतं साइज्जइ ।। ३३ ।।
जे भिक्खू दिया गामयं पडिग्गाहेत्ता रत्ति कार्यसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा आलिंपंतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ ॥३४ ।।
जे मिक्खू रतिं गोमयं पडिग्गाहेत्ता दिया कार्यसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा आलिपंतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ ॥ ३५ ॥
जे भिक्खू रत्तिं गोमयं पडिग्गाहेत्ता रत्ति कार्यसि वर्ण अलिंपेज वा विलिंपेज्ज वा आलिंपतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ ।। ३६ ।।
जे भिक्खू दिया आलेवणजाय पडिग्गाहेत्ता दिया कार्यसि वणं आलिंपेज वा विलिंपेज्ज वा आलिंपतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ ॥ ३७॥
जे भिक्खू अन्नउस्थिएण वा गारथिएण वा उवर्हि वहावेइ कहावेतं वा साइज्जह ॥ ४१॥
जे भिक्खू तन्नीसाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंतं वा साइज्जद ॥ ४२ ॥
जे भिक्खू इमाओ पंच महण्णवाभो महानईओ उदिवाओ गणियाओ बंजियाओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरइ वा संतरइ वा उत्तरंतं वा संतरंतं वा साइज्जइ । तं जहा- गंगा, जउणा, सरऊ, एरावई, मही-त्ति ॥ ४३ ॥ तं-सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं ॥ ४४ ॥
॥निसीहज्झयणे वारसमो उद्देसो समत्तो ॥१२॥
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॥ त्रयोदशो देशकः॥ जे मिक्खू अणंतरहियाए पुढचीए ठाणं चा सेज्जं वा णिसेज्ज वा णिसीहियं वा चेएइ चेएंतं वा साइज्जइ ॥ १॥ ___ एवं जे भिक्खू ससणिद्धाए पुढवीए० ॥ २ ॥ जे भिक्खू ससरक्खाए पुढवीए. ॥३॥ जे भिक्खू मटियाकडाए पुढवीए० ॥ ४ ॥ जे भिक्खू चित्तमंताए पुढवीए. ॥ ५ ॥ जे भिक्खू चित्तमताए सिलाए ॥ ६॥ जे मिक्खू चित्तमंताए लेलए ठाणं वा सेज्जं वा निसेज वा निसीहियं वा चेएइ चेएत वा साइज्जइ ॥७॥
जे भिक्खू कोलावासंसि वा दारुए जीवपइटिय सअंडे सपाणे सवीए सहरिए सओस्से सउदए सउतिगपणगदगमट्टियमक्कडासंताणगंसि ठाणं वा सेज्जं वा णिसेज्ज वा णिसीहियं वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ॥ ८ ॥
जे भिक्खू श्रूणसि वा गिहेलुयंसि वा उसुयालंसि वा कामजलंसि वा दुबद्ध दुण्णिक्खिचे अणिक्कंपे चलाच ठाण वा सेज्जंग णिसेज्जं वा णिसीहियं वा चेएइ चेदंतं वा साइज्जइ ॥९॥
जे भिक्खू कुलियंसि वा भित्तिसि वा सिलंसि वा टेलसि वा अंतलिक्खजायंसि वा दुब्बद्धे दुणिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले ठाणं वा सेज्ज वा निसेज्जं वा णिसीहियं वा चेएइ चेएंतं वा साइज्जह ॥ १० ॥
जे भिक्खू खसि वा फलिहंसि वा मंचंसि वा मंडसि वा मालंसि वा पासायंसि वा इम्मतलंसि वा दुवढे दुण्णिक्खित्ते अणिक्कंपे चलाचले ठाणं वा सेज्ज वा निसेज्ज वा निसीहिय वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ॥ ११ ॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा सिप्पं वा सिलोग वा अट्ठावयं वा कक्कडगं वा बुग्गरं वा सलाहं वा सलाहकहत्थयं वा सिक्खावेइ सिक्खा वा साइज्जइ ॥१२॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगाढं वयइ वयं वा साइज्जइ ॥१शा जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा फरसं चयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥१४॥
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जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगाढफरुसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥१५॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चा साएइ अच्चासाएतं वा साइजइ ।। १६ ॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारस्थियाण वा कोउगकम्मं करेइ करेंत वा साइज्जड ॥ १७ ।। जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा भूइकम्म करेइ करेंनं वा साइज्जइ ॥ १८ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पसिणं करेइ करत वा साइज्जइ ।। १९ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पसिणापसिणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ २०॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पसिणं कहेइ कहेंतं साइज्जइ ॥ २१ ।। जेभिक्खू अण्णउत्यियाण वा गारत्थियाण वा पसिणा-पसिणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ २२ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारस्थियाण वा तीयं निमित्तं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ २३ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पडुप्पण्ण निमित्तं कहेइ कहेंतं वा साइज्जड ॥ २४ ॥ जे मिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारस्थियाण वा आगमिस्सं निमित्त कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ।। २५ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण गारस्थियाण वा लक्खणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ २६ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा वंजणं कहेइ कहते वा साइज्जइ ।। २७ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण चा मुमिणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ २८ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा विज्ज पउंजइ पउंजंतं वा साइज्जइ ॥ २९ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा मंतं पउंजई पउंजंत वा साइज्जइ ॥ ३० ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारस्थियाण वा जोगं पउंजइ पउंजंतं वा साइज्जइ ।। ३१ ॥
जे मिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा नढाणं मूहाणं विपरियासियाणं मग वा पवेएइ संधि वा पवेएइ मग्गओ वा संधि पवेएइ, संधिओ वा मग्गं पवेएइ पवेएतं वा साइज्जइ ॥ ३२ ॥
. जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण या धाउं पवेएइ पवेएतं वा साइंज्जइ ॥३३॥
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जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारस्थियाण वा निहिं पवेएइ पवेएंत वा साइज्जइ ॥३४॥
जे भिक्खू मत्तए अप्पाणं देहेड देहंतं वा साइज्जइ ॥ ३५ ॥ जे भिक्खु अदाए अप्पाणं देहेइ देहंतं वा साइज्जइ ॥ ३६ ॥ जे भिक्खू असीए अप्पाणं देहेइ देहंतं वा साइज्जइ ।। ३७ ॥ जे भिक्खू मणिए अप्पाणं देहेइ देहतं वा साइज्छड ॥३८॥ जे भिक्खू कुंडपाणीए अप्पाणं देहेइ देतं वा साइज्जड ॥ ३९ ॥ जे मिक्खू फाणिए अप्पाणं देहेइ देहंतं वा साइज्जइ ॥ ४० ॥ जे भिक्खू तेल्ले अप्पाणं देहेइ देतं वा साइज्जइ ॥ ४१ ॥ जे भक्खू महुए अप्पाणं देहेइ देहतं साइज्जइ ॥ ४२ ॥ जे भिक्खू सप्पिए अप्पाणं देहेई देहंतं वा साइज्जइ ॥ ४३ ॥ जे भिक्खू मज्जए अप्पाणं देहेइ देइंतं था साइज्जइ ॥ ४४ ॥ जे भिक्खू वसाए अप्पाणं देहेइ देहतं वा साइज्जइ ॥४५॥
जे भिक्खू वमणं करेइ करेंतं साइज्जइ ॥ ४६॥ जे भिक्खू विरेयणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ ४७॥ जे भिक्खू वमणविरेयणं करेइ करेंतं वा साइजइ ॥४८॥ जे भिक्खू आरोग्गपडिकम्मं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ।। ४९॥ जे भिक्खू पासत्थं वंदइ वंदतं वा साइज्जइ ॥ ५० ॥ जे भिक्खू पासत्थं पसंसइ पसंसंतं वा साइजज्जइ ॥५१॥
जे भिक्खू कुसीलं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ॥५२॥ जे भिक्खू कुसीलं पसंसद पसंसतं वा साइज्जइ ॥५३॥ जे भिक्खू ओसणं बंदइ बंदतं वा साइज्जइ ॥५४॥ जे भिक्खू ओसणं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥५५॥ जे भिक्खू संसत्तं वंदइ वंदंतं वा साइज्जह ॥५६॥ जे भिक्खू संसत्तं पसंसह पसंसंत वा साइज्जइ ॥५७॥ जे भिक्खू अहाछंदं चंदइ बंदंतं वा साइज्जइ ॥५८॥ जे भिक्खू अहाछंदं पसंसइ पसंसंतं वा साइजइ ॥५९॥ जे भिक्खू नितियं बंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ॥६०॥ जे भिक्खु नितियं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥६॥ जे भिक्खू काहियं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ॥२॥ जे भिक्खू काहियं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥६३॥ जे भिक्खू पासणियं वंदइ बंदतं वा साइज्जइ ॥६४॥ जे भिक्खू पासणियं पसंसइ पसंसतं ग साइज्जइ ॥६५॥ जे भिक्खू मामगं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ॥६६॥ जे मिक्खू मामगं पसंसइ पस्संसतं
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वा साइज्जइ ॥६७॥ जे भिक्खू संपसारियं वंदइ बंदत वा साइज्जइ ॥६८॥ जे भिक्खू संपसारियं पसंसइ पसंसंत वा साइज्जइ ॥६९॥
जे भिक्खू धाईपिंडं भुंजइ झुंजत वा साइज्जइ ॥७०॥
जे भिक्खू दुईपिंडं भुंजइ भुजतं वा साइज्जइ ॥७१॥ जे भिक्खू णिमित्तपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥७२॥ जे भिक्खू आजीवियपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥७३॥ जे भिक्खू वणीमगपिंड भुजइ भुजंत वा साइज्जइ ॥७४॥ जे भिक्खू तिगिच्छपिंडं भुंजइ भुजतं वा साइज्जड ७५॥ जे भिक्खू कोहपिंडं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥७६॥ जे भिक्खू माणपिंड भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ।।७७॥ जे भिक्खू मायापिंडं झुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥७८॥ जे भिक्खू लोभपिंडं मुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥७९॥ जे भिक्खू विज्ञापिडं मुंजा भुजतं वा साइज्जइ ॥८०॥ जे भिक्खू मंतपिंड भुंजइ भुंजत वा साइज्जड ।।८१॥ जे भिक्खू जोगपिंडं भुंजइ भुजतं वा साइज्जइ ॥८२॥ जे भिक्खू चुण्ण पिंडं भुंनइ भुंजत वा साइज्जइ ॥८॥ तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहाहाणं उग्धाइयं ॥८४॥ ॥ निसीहज्झयणे तेरसमो उद्देसो समत्तो ॥१३॥
॥चतुर्दशोदेशकः॥ जे भिक्खू पडिग्गहं किणइ किणावेइ कीयमाहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१॥ - जे भिक्खू पडिग्गई पामिच्चेइ पामिच्चावेइ पामिच्चियमाहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू पडिग्गहं परियटेइ परियटावेइ परियट्टियमाहटु दिज्जमाणं पडिगगाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्खू पडिग्गहं अच्छिज्ज अणिसिह अभिहडमाहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेत वा साइज्जइ ॥४॥
जे भिक्खू अतिरेगपडिग्गहं गणि उदेसिय गणिं समुदेसिय त अणापुच्छिय अणामंतिय अण्णमण्णस्स वियरइ वियरंतं वा साइज्जइ ॥५॥
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जे भिक्खू अइरेगं पडिग्गहं खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा थेरस्स वा थेरियाए वा अहत्थच्छिन्नस्स अपायछिण्णस्स अनासाछिण्णस्स अकण्णछिण्णस्स अणोद्दछिण्णस्स सक्कस्स देह देंतं वा साइज्जइ ॥६॥
जे भिक्खु अइरेगं पडिग्गहं खुडगस्स चा खुड्डियाए वा थेरगस्स या थेरियाए वा हत्थछिष्णस्स पायच्छिण्णरस नासाछिण्णस्स कण्णछिण्णरस ओटुछिण्णस्स असक्कस्स न देइ न देत वा साइज्जइ ॥७॥
जे भिक्खू पडिग्गह अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्ज धरेइ धरेतं वा साइज्जइ । जे भिक्खू पडिग्गहं अलं थिरं धुवं धारणिज्ज न धरेड् न धरतं वा साइज्जइ ॥९॥ जे भिक्खू वण्णमंत पडिग्गहं विवण्णं करेइ करेंत वा साइजड ॥१०॥ जे भिक्खू विवण्णं पडिग्गहं वण्णमंतं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥११॥
जे भिक्खु 'नवए मे पडिग्गहे लद्धे' त्ति कटु तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेत वा भिलिंगेंतं वा साइज्जइ ॥१२॥
___“जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहे लद्धेत्ति कटु लोद्रेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा उधन्त्रटेज्ज वा उल्लोलतं वा उव्वदृत वा साइज्जइ ॥१३॥ जे भिक्खू णवए मे पडिगगहे लढे -त्ति कटु सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियटेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा० ॥१४॥ जे भिखू णवए मे पडिग्गहे लद्धे त्ति कटु बहुदेवसिएण तेल्लेण वा० ॥१५॥ बहुदेवसिएण लोद्रेण वा० ॥१६॥ बहुदेवसिएण सीओदगवियडेण वा० ॥१७॥ जे भिक्खू मुग्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे-त्ति कटु दुभिगंधे करेइ ॥१८॥ जे भिक्खू दुन्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे त्ति कटु मुभिगंधे करेइ ॥१९॥ जे भिक्खू सुम्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे-त्ति कटु तेल्लेण वा० ॥२०॥ लोरेण वा० ॥२१॥ सीओदगवियडेण वा० ॥२२॥ एवं बहुदेवसिएण तेल्लेण वा० ॥२३॥ वहुदेसिएण लोद्धेग वा० ॥२४॥ बहुदेवसिएण सीमोदगवियडेण वा० ॥२५॥ जे भिक्खू दुब्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे-त्ति कटु तेल्लेण वा० ॥२६।। लोरेण वा० ॥२७॥ सीओदगवियटेण वा० ॥२८॥ एवम् -बहुदेवसिएण तेल्लेण वा० ॥२९॥ बहुदेव सिएण लोरेण चा० ॥३०॥ वहुदेवसिएण सीओदगवियडेण वा० ॥३१॥
जे भिक्खू अणंतरहियाए पुढचीए पडिग्गहं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा, आयावेतं वा पयावेत वा साइज्जइ ॥३२॥
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४३
एवं ससणिद्धाए पुढवीए० ॥३३-४२॥
जे भिक्खू पडिग्गहाओ पुढवीकार्य नीहरेइ नीहरावेइ नोहरियं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥४३॥ एवं आउकार्य० ॥४४॥ तेउकार्य० ॥४५॥
एवं कंद-मूल-पत्त-पुप्फ-फल-बीय-हरियकार्य०॥४६-५२॥ ओसहिवीयं ॥५३॥ तसपाणजाय ॥५४॥
जे भिक्खू पडिग्गई कोरेइ कोरावेइ कोरियं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जड ॥५५॥
जे भिक्खू णायगं वा अणायगं चा उवासगं वा अणुवासगं वा गामंतरंसि वा वा गामपहंतरंसि वा पडिग्गह ओभासिय ओभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥५६॥
जे भिक्खू णायगंवा अणायग वा उवासग वा अणुवासगं वा परिसामज्झओ उहवेत्ता पडिग्गह ओभासिय ओभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥५७॥
जे भिक्खू पडिग्गहनीसाए उबद्धं वसइ, वसंतं वा साइज्जइ ॥५८॥ जे भिक्खू पडिग्गहनीसाए वासावासं वसइ वसंतं वा माइज्जइ ॥५९॥ तं सेवमाणे आवजइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं ॥६०॥ ॥ णिसीइज्झयणे चउद्समो उद्देसो समत्तो ॥१४॥
॥ पञ्चदशोद्देशकः ॥ जे भिक्खू भिक्खूणं आगाहं वयइ वयंत वा साइज्जइ ॥१॥ जे मिक्खू भिक्खूणं फरुसं वयइ वयंत वा साइज्जइ ॥२॥ जे भिक्खू भिक्खूणं आगाढफरुसं वय वयंतं वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्ख भिक्खूण अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएइ, अच्चासाएं तं वा साइजइ ॥४॥
जे भिक्खू सचित्तं अब भुंजइ भुजतं वा साइज्जइ ॥५॥ जे भिक्ख सचित्तं वं विडंसह विडंसंत वा साइज्जइ ॥६॥
जे भिक्खू सचित्तं अंवं वा अंवपेसियं वा अवभित्तं वा अंवसालगं वा अंबचोयगं या झुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥७॥
जे भिक्खू सचित्तं अंचं वा अंवपेसियं वा अवमित्तं वा अंवसालगं वा अंबचीयगं वा विडंसइ विडंसंत वा साइज्जइ ॥८॥
जे भिक्खू सचित्तपइडियं अंवं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥९॥ जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं अब विडंसइ विडंसंतं वा साइज्जइ ॥१०॥
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છંદ
जे भिक्खू सचितपट्टियं अव वा अंबपेसियं वा अंबभित्त वा अवसालगं वा अंचचोयगं वा भुजइ भुंजत वा साइज्जइ || ११||
जे भिक्खू सचित्तपट्टियं अंब वा अंबपेसियं वा अंबभित्तं वा अंबसालगं 'चा अंबचोयग वा विडंसइ विडंसं वा साइज्जइ ॥१२॥
जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा अप्पणो पाए आमज्जावेज्ज वा पमज्जा वेज्ज वा आमज्जावतं वा पमज्जावेंतं साइज्जः ॥१३॥
एवं उगम यन्वो जाव गामाशुगामं दइज्जमाणे अण्णउत्थिरण वा गारथिरण वा अप्पणी सीसवारिय करावेइ करावेतं वा साइज्जइ ॥११४ - ६८ ॥ | उच्चारस्रवणपरिष्ठापनप्रकरणम् ।
1
. जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेनु वा गाहावइकुळेसु वा परियावसदे वा उच्चारपासवणं परिद्ववेइ परिहवेंत वा साइज्जइ ॥ ६९ ॥
जे भिक्खु उज्जाणंसि वा उज्जाणगिहंसि वा उज्जाणसालंसि वा निजाणंसि वा निज्जाणगिहंसि वा निज्जाणसालंसि वा उच्चारपासवणं परिद्ववेइ परिद्वतं वा साइज्जइ ॥७०॥
जे भिक्खू असि चा अट्टालियंसि वा चरियंसि वा पागारंसि वा दारंसि वा गोपुरंसि वा उच्चारपासवणं परिद्ववेइ परिहवेंतं वा साइज्जई ॥ ७१ ॥
जे भिक्खू दगंसि वा दगमम्गंसि वा दगपईसि वा दगतीरंसि वा दगहाणंसि वा उच्चारपासवणं परिवेह परिद्ववेंतं वा साइज्जइ ||७२ ||
जे भिक्खू सुन्नगिर्हसि वा सुन्नसालंसि वा भिन्नगिर्हसि वा भिन्नसालंसि वा कूडागारंसि वा कोट्ठागारंसि वा उच्चारपासवणं परिद्ववेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥७३॥
जे भिक्खू तणगिहंसि वा तणसालंसि वा तुसगिहंसि वा तुससालंसि वा भुसगिहंसि वा ससासि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिहवेंत चा साइज्जइ ॥७४॥
जे भिक्खू जाणगिहंसि वा जाणसालंसि वा जुग्गगिहंसि वा जुग्गसालंसि वा उच्चार पासवणं परिद्ववेइ परिद्ववेंतं वा साइज्जइ ॥ ७५ ॥
जे भिक्खू पणियगिहंसि वा पणियसालंसि वा कुवियगिहंसि वा कुवियसालंसि वा उच्चारपासवणं परिद्ववेद परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥७६॥
जे भिक्खू गोणगिहंसि वा गोणसालंसि वा महाकुलंसि वा महागिहंसि वा उच्चापासवणं परिद्ववे परिद्ववेंतं वा साइज्जइ ॥७७॥
। इति-उच्चारप्रस्रवण- परिष्ठापनमकरणम् ।
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जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स चा गारस्थियस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ॥७८॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा वत्थं वा पडिग्गरं वा कंवलं वा पायपुंडणं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ॥७९॥
जे भिक्खू पासत्धस्स असगं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ॥८०-१००॥
जे भिक्खू जायणावत्थं वा निमंतणावथं वा अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । से य वत्थे चउण्हमण्णयरे सिया तं जहा-णिच्च निवसणिए १ मज्जणिए २ छमविए : रायदुवारिए ४ ॥१०४॥
जे भिक्ख विभूसावडियाए अप्पणो पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥१०५||
एवं तइयउद्देसगमभो जाव-जे भिक्खू गामाणुगाम दुइज्जमाणे विभूसावडियाए अप्पणो सीसवारियं करेइ करत वा साइज्जइ ॥१०६-१६०॥
जे भिक्खू विभूसावडियाए वत्थं वा पडिग्गरं वा कंवलं वा पायपुच्छणं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं धरेइ धरंतं वा साइज्जइ ॥१६१॥
जे भिक्खू विभूसावडियाए वत्थं वा जाव पायपुंटणं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं धोवेइ धोवंतं वा साइज्जइ ।।१६२॥ तं सेवमाणे आवडजड चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्घाइयं ॥१६॥ ॥णिसीहज्झयणे पणरसमो उद्देसो समत्तो ॥१५॥
॥ पोडशोदेशकः॥ जे भिक्खू सागारियसेज्ज अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥१॥ . ने भिक्खू सोदगं सेज्नं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥२॥ जे भिक्खू सागणियं सेज्ज अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥३॥ जे भिक्खू सचित्तं उच्छु मुंजइ झुंजतं वा साईज्जइ ॥४॥ एवं पण्णरसमे उद्देसे अंवस्स जहा गमो सो चेव इहपि णेयन्वो ॥५-९॥ ।
जे भिक्खू आरण्णगाणं वणवयाणं अडविजत्तासंपट्टियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१०॥ .
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जे भिक्खू वसुराइयं अवसुराइयं वयह वयंत वा साइज्जइ ॥११॥ जे भिक्खू अवसुराइयं वसुराइयं वयह चयंतं वा साइज्जइ ॥१२॥ जे भिक्खू वसुराइयगणाओ अवमुराइयगणं संकमइ संकमंतं वा साइज्जड ॥१३॥
व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तप्रकरणम् । जे भिक्खू बुग्गहवुकताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ दें वा साइज्जइ ॥१४॥
जे भिक्खू बुग्गहताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥१५॥
जे भिक्खू बुग्गहवुकताणं वत्थं वा पडिग्ग वा कंवलं वा पायपुंछणगं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ॥१६॥
जे भिक्खू बुग्गहचुक्ताणं वत्थं वा पडिग्गरं वा कंबलं वा पायपुंछणगं वा पडिच्छइ पहिच्छतं वा साइज्जइ ॥१७॥
जे भिक्खू बुग्गहचुवताणं वसहि देइ देंतं वा साइज्जइ ॥१८॥ जे भिक्खू चुग्गहवुक्कंताणं वसहि पडिच्छइ पडिच्छंत वा साइज्जइ ॥१९॥ जे भिक्खू बुग्गहचुक्ताणं वसहि अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥२०॥ जे भिक्खू चुग्गहनुक्कंताणं सज्झायं देइ देंतं वा सइज्जइ ॥२१॥ जे भिक्खू चुग्गहवुक्कंताणं सज्झाय पडिच्छइ पडिच्छंत वा साइज्जइ ॥२२॥
। इति व्युद्ग्रहन्युत्क्रान्तप्रकरणम् । जे भिक्खू विहं अणेगाहगमणिज्ज संति लाढे विहाराए संथरमाणेच जणवएस विहारवडियाए अभिसंधारेह अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥२३॥
जे भिक्खू विरूवरूवाई दस्सुयाययणाई अणारियाई मिलक्खुई पच्चंतियाई संति लाढे विहाराए संथरमाणेसु जणवएम विहारवडियाए अभिसंधारेड अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥२४॥
। जुगुप्सितकुलप्रकरणम् । जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥२५॥
जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु वत्थं वा पडिगगह वा कंवलं वा पायपुंछणगं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेतं वा साइज्जइ ॥२६॥
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४७
ज भिक्खू दुर्गाछियकुलेस बसहिं पडिग्गाहेड़ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥२७॥ जे भिक्खू दुर्गाछियकुलेस सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥२८॥ जे भिक्खू दुर्गाछियकुले सज्झायं उद्दिस उद्दिसंतं वा साहइज्जः ||२९|| जे भिक्खु दुर्गाछियकुळे सज्झायं समुद्दिसइ समुद्दिसंतं वा साइज्जइ ||३०|| जे भिक्खु दुर्गाछियकुलेमृ सज्झायं अणुजाणइ अणुजाणतं वा साइज्जइ ॥३१॥ जे भिक्खू दुर्गाछियकुलेमु सज्झायं वाएड वार्यतं वा साइज्जइ ||३२|| जे भिक्खू दुर्गाछियकुलेस सज्झायं पडिच्छर पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥ ३३॥
जे भिक्खु दुर्गाछियकुले सज्झायं परियदटेड़ परियदटंतं वा साइज्जइ ॥ ३४ ॥ । इति जुगुप्सित-कुलप्रकरणम् ।
जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुढवीए णिक्खिवर निक्खितं वा साइज ॥ ३५॥
जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाईम वा साइमं वा संधारए णिक्खिवइ णिक्खितं वा साइज्जइ ॥ ३६ ॥
जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वेहासे णिक्खिवर णिक्खिवंतं वा साइज्जइ ||३७||
जे भिक्खू अण्णउत्थिएहिं वा गारत्थिएहिं वा सर्द्धि भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ||३८||
जे भिक्खू अण्णउत्थि एहिं वा गारत्थि एहिं वा सद्धिं आवेढिय परिवेढिय मुंबई भुंजतं वा साइज्जइ ॥ ३९॥
जे भिक्खु आयरियउवज्झायाणं सेज्जासंथारगं पाएणं संघटित्ता इत्थेणं अणगुण्णत्ता पधारेमाणे गच्छ गच्छंतं वा साइज्जइ ॥४०॥
जे भिक्खू पमाणाइरित्तं वा गणणाइरित्त वा उवहिं धरेइ धरतं वा साज्जइ ॥४१॥ जे भिक्खू अनंतर हियाए पुढवीए जीवपइट्ठिए सअंडे सपाणे सवीए सहरिए सओ से सउदए सउतिंगपण गदगमटियमक्कड़ा संताणगंसि दुब्बद्धे दुण्णिक्खित्ते अणि - क्कंपे चलाचले उच्चार पासवणं परिद्ववेइ परिद्ववेतं वा साइज्जइ ॥४२॥
तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उग्घाइयं ॥ ४३ ॥ ॥ निसीहज्झयणे सोलसमो उद्देसो समत्तो ॥ १६ ॥
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॥ सप्तदशोदेशकः ॥
। कौतूहलपतिज्ञामकरणम् । जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए अण्णयरं तसपाणजाई तणपासएण वा मुंजपासएण वा, कट्ठपासएण वा, चम्मपासएण वा, वेत्तपासएण वा रज्जुपासएण वा सुत्तपासएण वा बंधइ वंधतं वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए अण्णयरं तसपाणजाई तणपासपण वा, मुंजपासएण वा, कट्टपासएण वा, चम्मपासएण वा, वेत्तपासएण वा, रज्जुपासएण वा, सुत्तपासएण वा, बंधेल्लगं मुयइ मुयंतं वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा भिंडमालियं वा मयणमालियं वा पिच्छमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालियं वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा वीयमालियं वा हरियमालियं वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा भिंडमालियं वा मयणमालियं वा पिच्छमालियं वा दंतमालिय वा सिंगमालिय वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुप्फमालिय वा फलमालियं वा वीयमालियं वा हरियमालियं वा धरेइ धरेत वा साइज्जइ ॥४॥ एवम्-परिभुजइ० ॥५॥
जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए अयलोहाणि वा तंवलोहाणि वा तउयलोहाणि वा सीसलोहाणि वा रुप्पलोहाणि वा सुवण्णलोहाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥६॥ एवं धरे ० ॥७॥ परिभुंजइ० ॥८॥
जे भिक्खू कोउहल्लचडियाए हाराणि वा अद्धहाराणि वा एगावलिं वा मुत्तावलि चा कणगावलिं वा रयणावलिं वा कडगाणि वा तुडियाणि वा केराणि वा कुंडलाणि वा पहाणि वा मउडाणि वा पलंवमुत्ताणि वा सुवण्णमुत्ताणि वा करेइ करेंत वा साइज्जइ ॥९॥ एवं धरेइ० ॥१०॥ परिसुंजइ० ॥११॥
जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए आईणाणि वा आईणपाउरणाणि वा कंवलाणि चा कंचलपाउरणाणि वा कोयराणि वा कोयरपाउरणाणि वा गोरमियाणि वा कालमियाणि वा नीलमियाणि वा सामाणि वा महासामाणि वा उद्याणि वा उट्टलेस्साणि वा वग्याणि वा विवग्याणि वा पचंगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणि वा खोमाणि वा दुगुल्लाणि वा तिरीडपट्टाणि वा पतुलाणि वा पणलाणि वा आवरताणि वा चीणाणि वा
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४९
असुयाणि वा कणगकंताणि वा कणगखचियाणि वा कणगविचित्ताणि वा आभरणविचित्ताणि वा करेड़ करेंतं वा साइज्जइ ॥१२॥ एवम् धरेइ० ||१३|| परिभुंजइ ॥ १४ ॥ । इति कौतूहलप्रतिज्ञाकरणम् ।
जे निम्थे णिग्गंथस्स पाए अण्णउत्थिरण वा गारत्थिएण वा आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा आमज्जावेंत वा पमज्जावेत वा सांइज्जइ ||१५||
एवं उगमो भाणियन्त्रो जाव जे निग्गंथे निग्गंथस्स गामाणुगामं दुइज्जमाणस्स अण्णउत्थिरण वा गारस्थिरण वा सीसदुवारियं कारावेइ कारावेंतं वा साइज्जइ ॥१६-७०॥.
एवं जे निग्गंथे निग्गंथीए० ॥७१-१२६ ॥ एवं जा निग्गंथी निग्गंथस्स० ॥१२७-१८२॥ एवं जा निग्गंधी निग्गंधीए० || १८३-२३८||
जे णिग्गंथे णिग्गंथस्स सरिसगस्स अंते ओवासे संते भोवासं न देइ न देतं वा साइज || २३९ ॥
जाणिग्गंधी णिग्गंधीए सरिसियाए अंते ओवासे संते ओवासं न देइ न देतं वा साइज्जइ ॥ २४०॥
जे भिक्खू मालोहडं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दिज्जमाणं पडिग्गाहे पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ २४९ ॥
जे भिक्खू कोद्वाउत्तं असणं वा पाणं वा खाडमं वा साइमं वा उक्कुज्जिय णिक्कुज्जिय दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गर्हितं वा साइज्जइ ॥ २४२ ॥
जे भिक्खू मट्टिओलित्तं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उभिदिय निभिदिय दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ २४३ ॥
जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुढवीपइट्ठियं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ || २४४ || एवं आउपइट्ठियं० ॥ २४५ ॥ उपइडियं० ॥ २४६||
O
फइकायपइडियं० ॥२४७॥
जे भिक्खू अच्चुसिणं असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा मुहेण वा सुप्पेण वा विणणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा पत्तभंगेण वा साहाए वा साहामंगेण वा पेहुणेण वा पेहुणहत्थेण वा वेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा फुमित्ता वीइत्ता आहट्ट दिज्नमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥२४८||
و
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जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अच्चुसिणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥२४९॥
जे भिक्खू उस्सेइमं वा संसेइमं वा चाउलोदगं वा चारोदगं वा तिलोदगं वा तुसोदगं वा जवोद्गं वा आयामं वा सोचीरं वा अवकंजियं वा मुद्धवियर्ड वा अहुणाधोयं अणं विलं अपरिणयं अवुक्कंतजीचं अविद्धत्यं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।।
जे भिक्खू अप्पणो आयरियताए लक्खणाई वागरेइ वागरतें या साइज्जइ ॥२५॥
जे भिक्खू गाएज्ज चा इसेज्ज वा वाएज्ज वा णच्चेज्ज वा अभिणएज्ज या इयहेसियं, इत्थिगुलगुलाइयं, उक्कहसीहनाय वा करेइ करतं वा साइज्जइ ॥२५२॥
जे भिक्खू भेरीसदाणि वा पडहसहाणि वा मुरयसदाणि वा मुइंगसदाणि वा नंदिसदाणि वा झल्लरिसदाणि वा बल्लरिसदाणि वा डमरुगसदाणि वा महलसदाणि वा सदुयसदाणि वा पएससद्दाणि वा गोलंकिसदाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि वितवाणि सदाणि कण्णसोयवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेत वा साइज्जइ ॥२५३॥
जे भिक्खू तालसदाणि वा, कंसतालसदाणि वा लित्तियसदाणि वा गोहियसहाणि वा मकरियसदाणि वा कच्छभीसदाणि वा महइसहाणि वा सणालियासदाणि वा वलियासदाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि घणाणि सदाणि वा कण्णसोयपडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेत वा साइज्जइ ।।२५४॥
जे भिक्खू वीणासदाणि वा विवंचीसदाणि चा तुण्णसदाणि चव्वीसदाणि वा वीणाइयसद्दाणि वा तुंवचीणासदाणि वा संकोडयसदाणि वा रुरुयसदाणि वा ढंकुणसहाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराराणि तताणि सदाणि कण्णसोयवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेत वा साइज्जइ ॥२५५॥
- जे भिक्खू संखसदाणि वा ससदाणि चा वेणुसदाणि वा खरमुहीसदाणि वा परिलीसहाणि वा चेचासदाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि झुसिराणि सदाणि कण्णसोयवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइज्जइ ॥२५६॥
जे भिक्खू वप्पाणि वा फलिहाणि जाव वा इहलोइएसु वा रूवेसु परलोइएमु वा रूवेसु जाव अज्झोववज्जतं वा साइज्जइ ॥२५७-२७०॥ त सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं ॥२७॥
॥ निसीहज्मयणे सत्तरसमो उद्देसो समत्तो ॥१७॥
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॥ अष्टादशोदेशकः॥ जे भिक्खू अणहाए णावं दुरूहइ दूरुहंतं वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू णावं किण किणावेइ कीयं आहटु दिज्जमाणं दुरूहइ दुरुहंतं वा साइज्जइ ॥२॥
एवं जो चउद्दसमे उद्देसे पडिग्गहगमो सो यत्रो जाव अच्छेज्जं अणिसिहं अभिहडमाहटु दिज्जमाणं दूरूहइ दूरुहंतं वा साइज्जइ ॥३-५॥
जे भिक्ख थलाओ नावं जले ओक्कसावेइ ओक्कसाते वा साइज्जइ ।।६।। जे भिक्खू जलाओ नावं थले उकसावेइ उकसावेंतं वा साइज्जइ ॥७॥ जे भिक्खू पुण्णं णावं उस्सिंचइ उस्सिचंतं वा साइज्जइ ॥८॥ जे भिक्खू विखुणं णावं उप्पिलावेइ उप्पिलावेंतं वा साइज्छइ ॥९॥ जे भिक्खू पडिणावियं कटु णावाए दुरुहइ दुरुहंतं वा साइज्जइ ॥१०॥
जे भिक्खू उड्ढगामिणि वा णावं अहोगामिणिं वा णावं दुरूहइ दुरुहंतं वा साइज्जइ ॥११॥ ___ जे भिक्खू जोयणवेलागामिण वा अद्धजोयणवेलागामिणि वा णावं दूल्हइ दूरूहंतं वा साइज्जइ ॥१२॥ ____ जे भिक्खू णावं आकसावेई खेवावेइ रज्जुणा कटेणं वा कड्ढावेइ आकसावंत वा खेवावंतं वा कइढावंतं वा साइज्जइ ॥१३॥ . जे भिक्खू णावं अलित्तएण वा दंडेण वा पप्फिडिएण वा सेण वा वलेण वा चाहेइ वाहेतं वा साइज्जइ ॥१४॥
जे भिक्खू णावाउदगभायणेण वा पडिग्गहेण वा मत्तएण वा णावाउसिंचणेण वा णावं उस्सिंचइ उस्सिंचतं वा साइज्जइ ॥१५॥
जे भिक्खू नावं उत्तिंगेण उदगं आसवमाणं उवरुवरिं च कज्जलावेमाणं पेहाए हत्येण वा पाएण वा आसत्थपत्तेण वा कुसपत्तेण वा मट्टियाए वा चेलेण वा चेलकपणेण वा पडिपिहेइ पडिपिहेंतं वा साइज्जइ । १६॥
जे भिक्खू णावागओ णावागयस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१७॥
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पर पपणं गर्म पावागी जन्लगयम्म० ॥१८॥ णावागओ पंकगयस्स० ॥१९॥ सामागधी गलगयम्ब० ॥२०॥ एवं जलगएणवि चत्तारि ॥२४॥ पंकगएणवि चत्तारि Pा गलगएपवि गत्तारि ॥३२॥
भिषा बन्ध किणड किगावेद कीयमाटु दिनमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाने का गाना ॥३३॥
पां नउरममें उमए पडिगई जो गमो भणियो सो चव ईपि क्त्येण यन्दो अ भिनय यन्यनीसाप वासावासं वसट वसंतं वासाहज्जइ, णवरं कोरणं णत्थि ॥३४.९. में मेरमाणे आपना चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्घाइयं ॥११॥
॥निमोहमायणे अहारसमो उहेसो समत्तो ॥१८॥
॥एकोनविंशतितमोद्देशकः॥ मनिषा वियर्ड किणद किणावेइ कीयं आहटु दिज्जमाणं पटिग्गाहेइ पडिगाई या गाना ॥१॥
भिषा वियट पामिन्नेः पामिच्चावेड पामिच्चं आहटु दिज्जमाणं पढिग्गाः परिगानं वा माइग्ना ॥२॥
जगिरा दियः परियह परियटावह परियटियं आहट दिज्जमाणं परिग्गापरिगान वा माइनर ॥३॥
मित अन्न गिमि अभिहडं आहद दिग्नमाणं पडिग्गाहेद पहिगतंग माना
गिरानम अट्टाए परं निन्दं नियददाताण पदिग्गाहेइ पडिग्गाहतं
+नि विपट गहाय गामा,गा दरम्ना दाजनं वा माइनस ॥६॥ + नि मान्ने गागोड गायिं शहद द्विग्नमाणं पटिग्गाहे. पहि
i
r L रंग या माउन्जर । न नहा-पुनाए iire, ARE मार. भा. मरण ८||
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जे भिक्खू कालियमुयस्स परं तिण्डं पुच्छाणं पुच्छइ पुच्छंत वा साइज्जइ ॥९॥ जे भिक्खू दिहिवायस्स परं सत्तण्डं पुच्छाणं पुच्छइ पुच्छंत वा साइज्जइ ॥१०॥
जे भिक्खू चउसु महामहेस सज्झायं करेइ करेंत वा साइज्जइ । तं जहा-इंदमहे, खंदमहे, जक्खमहे, भूयमहे ॥११॥
जे भिक्खू चउसु महापडिवएसु सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ । त जहामुगिम्हियपाडिवए, आसाढीपाडिवए, आसोईपाडिवए, कत्तियपाडिवए ॥१२॥
जे भिक्खू पोरिसिं सन्झायं उवाइणावेड उवाइणात वा साइज्जइ ॥१३॥ जे भिक्खू चउक्कालं सज्झायं न करेइ न करेंत वा साइज्जइ ॥१४॥ जे भिक्खू असज्झाइए सज्झायं करेइ करने वा साइज्जइ ॥१५॥ जे भिक्खू अपणो असज्झाइए सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥१६॥
जे भिक्खू हेठिल्लाइं समोसरणाई अवाएत्ता उवरिल्लाई समोसरणाई वाएइ चाएतं वा साइजइ ॥१७॥
जे भिक्खू णवयंभचेराई अवाएत्ता उवरिमसुयं वाएइ वाएंतं वा सइज्जइ ॥१८॥ जे भिक्खू अपत्तं वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ ॥१९॥ जे भिक्खू पत्तं ण वाएइ ण वाएंतं वा साइज्जइ ॥२०॥ जे भिक्खू अन्चत्तं चाएइ वाएतं वा साइज्जइ ॥२१॥ जे भिक्खू वत्तं ण वाएइ ण वाएंतं वा साइज्जइ ॥२२॥
जे भिक्खू दोण्हं सरिसगाणं एक सिक्खावेइ एक्कं न सिक्खावेइ, एक्कं वाएइ एक्कं न चाएइ, एक्कं सिक्खायेंतं एक्कं न सिक्खावेत वा, एक्कं वाएंतं एक्कं ण वाएंतं वा साइज्जइ ॥२३॥
जे भिक्खू आयरियउवज्झाएहि अविदिणं गिरं आइयइ आइयंतं वा साइज्जइ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारस्थिय वा वाएइ वाएंत वा साइज्जइ ॥२५॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारस्थियस्स वा पडिच्छइ पडिच्छत वा साइज्जइ ॥२६॥
जे भिक्खू पासत्यं वाएई वाएंतं वा साइज्जइ ॥२७॥ जे भिक्खू पासत्थस्स पडिच्छइ पडिच्छंत वा साइज्जइ ॥२८॥
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जे भिक्ख ओसन्नं वाएइ० ॥२९॥ ओसन्नस्स पडिच्छई ॥३०॥ कुसील वाएइ० ॥३१।। कुसीलस्स पडिच्छइ० ॥३२॥ णितियं वाएइ० ॥३३॥ णितियस्स पडिच्छइ० ॥३४॥ संसत्तं वाएइ० ॥३५।। जे भिक्खू संसत्तस्स पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥२९-३६॥ तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं ॥३७॥
॥निसीहज्झयणे एगूणवीसइमो उद्दसो समत्तो ।।
॥विंशतितमो देशकः॥ जे भिक्खू मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिडचिय आलोएमाणस्स मासिय, पलिउंचियं आलोएमाणस्स दोमासियं ॥१॥
जे भिक्खू दोमासिय परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं ॥२॥
जे भिक्खु तेमासिय परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं, पलिउंचिय, आलोएमाणस्स चाउम्मासियं ॥३॥
जे भिक्खू चाउम्मासियं परिहारहाणं पडिसे वित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं, पलिरंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं ॥४॥
जे भिक्खू पंचमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलो एमाणस्स पंचमासियं पलिउंचिय आलोएमाणस्स छम्मासियं ॥५॥
जे भिक्खू बहुसोवि मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासिय पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं ॥७॥ ___बहुसोवि दोमासिय० ॥८॥ बहुसोवि तेमासियं० ॥९॥ बहुसोवि चाउम्मासियं० ॥१०॥ बहुसोवि पंचमासियं० ॥११॥
तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते वेव छम्मासा ॥१२॥
जे मिक्खु मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा एएसि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं' वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा छम्मासियं वा, तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥१३॥
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जे भिक्खू बहुसोचि मासियं वा बहुसोवि दोमासियं वा बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासियं वा एएर्सि परिहारहाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोहमाणस्स मासिय वा दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा, पलिउंघिय आलोएमाणस्स दोमासिय वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा छम्मासियं वा तेण परं पलिउंचिए वा अपनिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥१४॥
जे भिक्खू मासियं वा साइरेगमासियं वा दोमासिय वा साइरेगदोमासियं वा तेमासियं वा सारेगतेमासियं वा चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं दा, एएसि परिहारहाणाण अण्णयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा साइरेगमासियं वा दोमासियं वा साइरेगदोमासियं वा तेमासियं वा साइरेगतेमासियं वा चाउम्मासिंयं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा साइरेगदोमासियं वा नमामियं वा साइरेगतेमासियं वा चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा छम्मासियं वा तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेत्र छम्मासा ॥१५॥
जे भिक्खू बहुसोवि मासियं वा बहुसोवि साइरेगमासियं वा बहुसोवि दोमासियं वा बहुसोवि साइरेगदोमासियं वा बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि साइरेगतेमासियं वा बहुसोवि चाउम्मासियं या बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारहाणाणं अण्णयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स बहुसोवि मासियं वा वहुसोवि साइरेगमासियं वा बहुसोवि दोमासियं वा बहुसोवि साइरेगदोमासियं वा बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि साइरेगतमासियं वा बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरंगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स बहुसोवि दोमासियं का वहुसोवि साइरेगदोमासियं वा बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि साइरेगतेमासिय वा बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासिय वा बहुसोवि पंचमासियं वा बहुसावि साइरेगपंचमासियं वा बहुसोवि छम्मासिय वा तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥१६॥ .
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जे भिक्खू मासियं वा साइरेगमासियं वा दोमासियं वा साइरेगदोमासियं वा तेमासियं वा साइरेगतेमासियं वा चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासिय वा पंचमासिय वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारढाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्ज ठावहत्ता करणिज्जं वेयावडियं ठाविए वि पडिसेवित्ता से वि कसिणे तत्थेव आरुहियन्वे, सिया पुचि पडिसेवियं पुन्वि आलोइयं १, पुचि पडिसेविय पच्छा आलोइयं २, पच्छापडिसेवियं पुचि आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४, अपलिउंचिए अपलिउंचिय १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४ । अपलिउचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स सबमेयं सकय साहणिय जं एयाए पटवणाए पट्टविए निविसमाणे पडिसेवेह से वि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥१७॥
जे भिक्खू वहुसोवि मासियं वा, वहुसोवि साइरेगमासियं वा वहुसोवि दोमासिय वा बहुसोवि साइरेगदोमासिय वा बहुसोवि तेमासिय वा बहुसोवि साइरेगतेमासियं वा वहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासियं वा वहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारहाणाणं अण्णयरं परिहारहाणं पडिसेविता भाकोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्जं ठावइत्ता करणिज्ज वेयावडियं ठाविए वि पडिसेवित्ता से विकसिणे तत्थेव आरुहियध्वे सिया, पुच्वं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं १, पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुच्वं आलाइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४। अपलिउंचिए अपलिचियं १, अपलिअचिए पलिउंचियं २, पलिउंचियं अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४। अपलिउंचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स सबमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्टवणाए पट्टविए निन्धिसमाणे पडिसेवेइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियन्वे सिया ॥१८॥
जे भिक्खू मासियं वा साइरेगमासियं वा दोमासियं वा साइरेगदोमासियं वा तेमासिय वा साइरेगतेमासियं वा चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारहाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा पलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ठाविए वि पडिसेविचा सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया, पुब्धि पडिसेवियं पुवि आलोइयं १, पुचि पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छापडिसेवियं पुब्दि आलोइयं ३;
व साहरगावाहम्माणिय वा बहुसोषि पंचा
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पच्छाप डिसेवियं पच्छाआलोइयं ४ । अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिडंचिए पनिउंचियं २ पलिउंचिए अपलिउंचियं ३ पलिउंचियं ४ | पलिङ चिए पलिउ चियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्ठवणाए पट्टविए णिव्विसमाणे पडिसेबर सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया || १९|| जे भिक्खू सोबिमारियं वा बहुसोचि सारेगमासियं वा बहुसोवि दोमासियं वा बहुसोचि सारेगदोमासियं वा बहुसोवि तेमासियं वहुसोवि साइरेगते मासि वा बहुविचाउम्मासियं वा बहुसोवि साडरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासि वा बहुसांबि साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारहाणार्ण अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएजा पलिउचिय आलो एमाणस्स ठवणिज्जं ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ठाविवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियन्वे सिया पुव्वि पडि सेवियं पुचि आलोइयं १, पुव्वि पडि - मेवियं पच्छा आलायं २. पच्छा पडि सेवियं पुव्त्रि आलोय ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोयं ४ | अपलिउंचिए अपलिउ चियं १, अपलिउ चिए पलिउ चियं २ पलिउंचिए अपलिउंचियं ३ पलिउचिए पलिउंचियं ४ | पलिउंचिए पलिउंचिय आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्ठवणाए पट्ठविए निव्विसमाणे पडिमेवेइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियन्वे सिया ||२०||
छम्मासि परिहारट्ठाणं पट्ठचिए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे संह सहेउ सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं सवीसइराइया दो मासा ||२१|
पंचमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमामासियं परिहारहाणं पडिसेचित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सह सहेउ सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं सवीसराइया दो मासा ॥२२॥
चाउम्मासिय परिहारद्वाणं पढविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीस राइया आरोपणा आइमज्ज्ञावसाणे सअट्ठे सहेउ सकारण अहीणमइरितं तेण परं सवीसइराइया दो मासा ॥ २३ ॥
मासि परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीस राइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअट्ठ सहेउ सकारण अहीणमइरित्तं तेण परं सवीसइराइया दो मासा ॥२४॥
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दोमासिय परिहारट्ठाण पठविए अणगारे अतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिमेंवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमळावमाणे सदरें सहेउ सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं सवीसहराइया दो मासा ॥२५॥
मासियं परिहारठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा दोमिासियं परिहारट्ठाणं पढिमेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसराटया आरोवणा आदमज्झावसाणे सभट्टं महेउ सकारणं अहीणमइरितं तेण परं सवीसइराउया दो मासा ॥२६॥
सवीसइराइयं दोमासियं परिहारठाणं पटविए अणगारे अंतग दोमासियं परिहा रट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसहगल्या आरोवणा आइमझावसाणे सअट्ठं सहेउ सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं सदसराइया तिणि मासा ||२७||
सदसगइयं तेमासियं परिहारट्ठाणं पविए अणगारे अंतरा दोमामियं परिहार ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसराइया आरोवणा आउमज्यावयाणे सअट्ठं सहेउ सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं चनारि मासा ॥२८॥ चाउम्मासियं परिहारठाणं पट्टबिए अणगारे अंतरा दोमासिय परिहारट्रठाणं पडि सेवित्ता आलोएज्जा अहावग वीसइराइया आरोवणा आत्मज्यावसाणे सअट्ट सहेउ मकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं सवीसहराटया चत्तारि मासा ||२९||
सवीसहराइयं चाउम्मासियं परिहारहाणं पटठविए अगणारे अंतरा दोमापियं परिहारट्ठाणं पडि सेवित्ता आलोएज्जा अहावरा बायडराइया आरोवणा आइमज्यावसाणे सअट महेउ सकारणं अहीणमरित्तं तेण परं सदसराइया पंच मामा ॥३०
सदसगइयं पंचमासियं परिहारट्ठाण पट्ठविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीमइराइया आरोवणा आत्मज्झावमाणे सअहें सहेउ सकारणं अहीणमटरित्तं तेण परं छम्मासा ॥३१॥ __छम्मासिय परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्यावसाणे असट्ठं सहे सकारण अहीणमइरितं तेण परं दिवड्ढो मासो ॥३२॥
पचमासिय परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासिय परिहारठाणं पडिसे वित्ता आलोएज्जा अहावरा पविखया आरोवणा आइमज्झायमाणे सटें सहेउ सकारणं अहीणमडरित तेण परं दिवड्ढो मासो ॥३३॥
चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारठाणं पडि मेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आरममावसाणे सअळं महेउ
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सकारणं अहीणमइरितं तेण परं दिवड्ढो मासो ॥३४॥
तेमासियं परिहारहाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसे वित्त आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअट्ठं सहेउं सकारणं अहीणमहरितं तेण परं दिवड्ढो मासो ॥३५॥
दोमासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअट्ट सहेर्ड सकारणं अहीणमइरित तेण परं दिवड्ढो मासो ॥३६॥
मासियं परिहारठाणं पठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्जावसाणे सबढे सहे सकारण अहिणमडरितं तेण परं दिवइडो मासो ॥३७॥
दिवढमासियं परिहारट्ठाणं पठविए अणगारे अंतरा मासिय परिहारट्ठणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आदमज्झावसाणे सअट्ठ सहेउ सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं दो मासा ||३८||
दोमासियं परिहारहाणं पठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमल्झावसाणे सअटूट सहेउ सकारणं अहीणमइरितं तेण परं अड्ढाडज्जा मासा ॥३९॥
अड्ढाइज्जमासियं परिहारहाणं पठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटें सहेउं सकारणं अहीणमारित्तं तेण परं तिण्णि मासा ||४०॥
तेमासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअळं सहेउ सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं अदुट्ठा मासा ॥४१॥
अद्भुट्ठमासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडि से वित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअलैं सहेउ सकारणं अहीणमइरित्त तेण परं. चत्तारि मासा ॥४२॥
चाउम्मासियं परिहारट्ठाण पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सई
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________________ सहेउ सकारण अहीणमइरितं तेण परं अढपंचमा मासा // 43 // ___ अड्ढपंचममासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतग मासिय परिहारट्टाणं पडि सेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया ओरावणा आइमज्झावमाणे समझे सहेउसकारणं अहीणमइरिगं तेण परं पंच मामा // 4 // पंचमासियं परिहारट्ठाणं पटविए अणगारे अंतग मासियं परिहारट्ठाण पटिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमझायसाणे मनट पहे सकारणं अहीणमहरिनं तेण पर अइहछठा मामा // 45|| __ अद्धछट्ठमासियं परिहारठाणं पठविए अणगारे अंतरा मासिय परिहारठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आत्मज्झावसाणे सअटें सहेउ सकारणं अहीणमइरिनं तेण पर छम्मासा // 46 // // निसीहल्झयणे वीसहमो उद्देमो समतो // 20 // // इति निशीथसूत्रस्य मूलपाठः समाप्तः //