________________
चूर्णिभाष्यावद्रिः उ० १३ सू० ७०-८३ धात्रीदत्यादिपिण्डपरिभोगनिषेधः ३२७ छाया-पार्श्वस्थं च समारभ्य, सांप्रसारिकान्तम् ।
वन्दते प्रशंसति चैव, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः-- 'जे भिक्खू' इति । यो भिक्क्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पासत्यं' पार्श्वस्थमारभ्य साम्प्रसारिकान्तं साम्प्रसारिकपर्यन्तं शिथिनाचारं मुनिवेषधरं वन्दते वन्दनां करोति प्रशंसति प्रशंसां करोति च स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोतीत्यत तेषां वन्दनां प्रशंसां च न कुर्यात् तत्करणात् मित्थ्यात्वादिदोष आपयेत ॥ सू० ६९ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खूधाईपिंडं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥ सू०७०॥ छाया- यो भिक्षुर्धात्रीपिण्ड भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥ ०७०॥
चूर्णि:-जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षु 'धाईपिंडं झुंजइ' धात्रीपिण्डं भुङ्क्ते, तत्र धात्रीकर्मकरणेन यत् पिण्डादिकं भवति तत् धात्रीपिण्डम् गृहस्थबालकादेः क्रीडनं कारयित्वा ततो गृह्यमाणः पिण्डः स धात्रीपिण्डः, तम् धात्रीपिण्डम् तादृशधात्रीपिण्डस्योपभोगं करोति तथा 'भुजतं वा साइज्जई' भुखानं वा स्वदते । यो हि भिक्षुर्धात्रीपिण्डस्योपभोगं करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० ७०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दुईपिंडं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ॥सू० ७१।। जे भिक्खू णिमित्तपिडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू०७२॥ जे भिक्खू आजीवियपिंडं भुंजड भुंजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७३।। जे भिक्खू वणीमगपिडं भूजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ।। सू०७४|| जे भिक्खू तिगिच्छपिंडं मुंजइ भुजंतं वा साइ जइ ॥ सू० ७५॥ से भिवखू कोहपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७६।। जे भिक्खू माणपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७७॥ जे भिक्खू मायापिण्डं भुंजइ भजंतं वा साइज्जइ ॥सु० ७८॥ जे भिक्खू लोभापडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥सू० ७९॥ जे भिक्खू विज्जापिडं भुंजइ जंतं वा साइज्जइ ।। सू०८०॥ जे भिक्खू मंतपिंडं भुंजइ भुजंत वा साइज्जइ ॥ सू० ८१॥ जे भिक्खू जोगपिडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८२॥ जे भिक्खू चुण्णपिंडं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥सू० ८३॥
छाया-यो भिक्षुतीपिण्डं भुङ्क्त भुञ्जानं वा स्वदते ॥ सू०७१॥ यो भिक्षुनिमितपिण्ड भुङक्त भुजानं वा स्वदते ॥ सू० ७२॥ यो भिक्षुः आजीविकापिण्डं मुफ्तेभुजानं