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देव शिल्प
मंदिर वास्तु एवं स्थापत्य
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रचयिता सिद्धांत रत्नाकर, ज्ञान योगी
प्रज्ञाश्रमण आचार्य श्री १०८ देवनन्दि जी महाराज
सम्पादक
नरेन्द्र कुमार बड़जात्या छिन्दवाड़ा
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मनोगत किसी भी धर्म, सम्प्रदाय अथवा संस्कृति का सभास उसकी पुरातात्विक सम्पदा को देखकर होता है। शास्त्रों से उस विचारधारा का बोध अवश्य होता है किन्तु उनका स्थापत्य उनके वैभव की माया शताब्दियों तक विना कुछ कहे भी कहता रहता है। जैन धर्म के विशाल मन्दिर एवं प्रतिमाएं आज भी इसका प्रमाण हैं कि यह धम प्राचीनतम है तथा इसकी वैभव गाथा अन्य किसी भी परम्परा से न्यून नहीं है। विधारधाराओं का सीधा प्रभाव उस समय की शिल्प कसा पर दिखता है।
गुरुदेव की शरण में आने के बाद य.यू. गुरुदेव के साथ अन्का तो क्षेत्रों के दर्शन किटो। पश्चात भी उस्तरेकानेक तीर्थक्षेत्रों एवं नगर-रामों में जिनदर्शन किये। विभिन्न स्थलों पर वहां की सराज एवं मन्दिर स्थापरकता अत्यंत शोषनीय स्थिति में दृष्टिगत हुए। इस विषय में अनेको घार चिन्तन किया था जिनालय निर्माण का असीम पुण्य इतन्ना शरण क्षीण हो एव्या उरथवा कहीं ऐसी चूक है जो दृष्टि बरहा है। ऐसा स्पष्ट परिलक्षित होने समा कि मन्दिर निर्माण की शिस्य विधा से समाज अनभित है तथा इसी कारण देवस्थानों एवं तीर्थक्षेत्रों में समरज बड़ी उपेक्षा की स्थिति में है। देव पूजा एवं मन्दिर निर्माण से प्राप्त असीम पुण्य फस से भी मात्र अज्ञानता एवं उपसावधानी के कारण यथोचित परिणाम नहीं मिल रहे। गृहस्थ जन भी दोषपूर्ण वास्तु के कारण पुरुषार्थ को निष्फल कर रहे हैं।
निरन्तर यह भावना मन में उत्यन्न होती रही कि जिनामम का अध्ययन कर श्रावकोपयोगी जानकारी यदि प्रस्तुत की जाये तो गृहस्थ अपने दरन एवं पुरुषार्थ को सार्थक कर सकेंगे। विहार एवं वर्षावार दोनों में निरंतर मन्दिरों के शिल्प एवं प्रतिमाओं का गहन अध्ययन किया। प्रावकों के लिये दरन एवं यूज्ज मुरण्टर कर्तव्य हैं। ये दोनों कर्तव्य तभी सफल होने जवकि समुचित रीति से मन्दिरों का निर्माण किया गया हो तथा उनमें जिरेन्द्र प्रभु की प्रतिमा सही प्रमाण में हरे । साथ ही पूजक भी संपूर्ण निम्तर से मवान की आराधना करे। इस विषय में कोई भी ऐसा ग्रन्य दृष्टिगोचर नहीं हुआ जिसमें सभी उपयुक्त विषयों का सुमम प्रस्तुतिकरण किया गया हो। श्री कचरेर तीर्थ में गृहस्थो के लिये उपयोगी बन्यवास्तु चिन्तामणि की रचना हुई जिसका सदुपयोग बड़ी संख्या में सर्वत्र जेन जेनेतर पाठकों ने किया।
तीर्थकर प्रभु के केवल ज्ञान से उत्पन्चर वाणी को ग्यारह अंग चौदह पूों में विभक्त किया जाता है। इसका दृष्टि प्रबाद अंग कर किया विशाल पूर्व शिल्य शास्त्रों का मूल है। कालान्तर में ज्ञान का संरक्षण न कर पाने से इन्हें शास्त्रों में लिया गया तथा विधर्मियों के उशयात से इनका भी क्षय हुआ। शास्त्र भले ही अनुपलब्ध हुए किन्तु तत्कालीन पुरातत्व के अवशेष आज भी धर्म का मौरवमयी इतिहास वर्णित करते हैं।
मन्दिर निर्माण का असीम युण्यफल तो है ही साथ ही यह शताब्दियों तक प्रभु का वीतरागी माय आराधक को दर्शाता है। इस प्रकार स्वयं की गई देवपूजर के अतिरिक्त मंदिर से लाभान्वित गराधक के पुण्यार्जन का निमित्त कारण बनकर मन्दिर स्थापनकर्ता निरन्तर पुण्य संचय करता रहता है। यदि मन्दिर ठीक नहीं बनर हरे अयका देव प्रतिमा सही प्रमाण में नहीं बनी हो तो उसका विपरीत परिणाम दोनों को ही मिलता है।
शिलोकपति चिन्तामणि पार्श्वनाशस्थामी की ही अनुकम्पा से उनके श्री चरणों में तीर्थक्षेत्र कचनेर में यह भावना उत्पन्न हुई कि नरशम की वास्तु शिल्य विद्या का उछोत किया जाये ताकि सामान्य पाठक की अनभिज्ञता दूर हो । परमपूज्य गुरुदेव गणाधिपति राणपराचार्य श्री १०८ कुन्थुसागर जी महाराज का दरद आशीर्वाद प्राप्त कर कार्यारम्भ किया। श्री क्षेत्र कचनेर में श्रायकों को लक्ष्य कर एक रचना वास्तु चिन्तामणि की उपलब्धि हुई।
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तदुपरान्त मन्दिरों को लक्ष्य में रखकर पुनः एक सर्योपयोगी रसना की आवश्यकता प्रतीत हुई। शाहगढ़ (म.प्र.) में अक्षय तृतीया १९९९ को इस कार्य का प्रारंभ किया। प.यू. गुरुदेव की असीम्र कृपा एवं वरद हस्त के प्रभाव से यह कार्य २००० में श्री पार्श्वनाथ प्रभु के समवशरण विहार स्थली में चातुर्मास स्थापना के समय समाप्त किया यद्यपि यह कार या फिर रेरामधुपयों ने हमें पूई कार किया तथा श्रुत देवी की इस आरधना में अत्यंत भक्ति एवं वात्साय पूर्ण सहयोग दिया। इसके प्रभाव से अन्य कार्य अल्प समय में सम्पन्न हो गया।
वास्तु चिन्तामणि की ही भांति जन सामान्य के लिये उपयोगी मन्दिर वास्तु एवं स्थापत्य शास्त्र की रचय देव शिल्प' का प्रारंभ किया। इस ग्रन्थ में सुगम भाषा में ग्यारह प्रकरणों में मन्दिर निर्माण से संबंधित सभी पहलुओं की समुचित जानकारी प्रस्तुत की है। वर्तमान युग में निर्मित किए जाने वाले मन्दिरों में कौन-सा निर्माण कहरं एवं कैसे किया जाने चाहिये, इस हेतु शास्तु शास्त्र एवं प्रतिष्ठर अन्यों का समन्वय कर निर्णय करना आवश्यक है।
शिल्य शास्त्र के पारिभाषिक शब्द ज्न्न सामान्य की भाषा से पृथक हैं। अतएव सावधानी रखना अवश्यक है। शिल्प शास्त्र में कथित शब्दों एवं उद्धरणों का शब्दार्थ नहीं वरन् भावार्थ ही ग्रहण करना आवश्यक है। पारंपरिक शिल्पकला का अध्ययन करने पर इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट होने लगता है। जैनाचार्यों ने प्रतिष्ठा प्रयो में मन्दिर एवं प्रतिमा के प्रमाण के वर्णन किए है। इतर शिल्ए शास्त्रों का अध्ययन एवं समन्वय करने पर ही सही निर्णय किया जा सकता है। विभिन्न शिल्य शास्त्रों में प्राप्त मतभेदों का समन्वय विद्वान सूत्रधार, स्थापत्य देता एवं परम पूज्य आधाई परमेष्ठी के मार्गदर्शन पूर्वक करना चाहिये।
देव शिल्प शास्त्र की रचना का उद्देश्य उन उपासकों का मार्गदर्शन है जो निरन्तर जिन पूजा में रत हैं, आगामी पीढ़ी के लिये उपयोगी महान पुण्य का अर्जन जिन मन्दिर निर्माण से आठ गुनर पुण्य मन्दिर के जीर्णोद्ररर में बताया गया है। जीर्णोद्धार करने से प्राचीन कलाकृति का संरक्षण होता है। पुण्यार्जक आराधक भावोत्कर्ष में नियमों का उस्सयन कर जीर्णोद्वार के नाम पर अनुपयुक्त निर्माण अथवा विघटन कर डालते हैं। इसका निराकरण भी इस रचन्दर में करने का प्रयास किया गया है।
अन्य की सामग्री के संघयर में हमारी शिष्या विदशी आर्यिका श्री १०५ सुमंगलाश्री माता जी की अग्र भूमिका रही। उरसातर कर्मोदय के कारण शारीरिक स्थिति प्रतिकूल होने पर भी अपने इस कार्य हेतु उस्यक परिश्म किया। वे प्रस्कूिस शारीरिक स्थिति के बावजूद भी निरंतर हानाभ्यास में रत रहती हैं। निरतियार संयम के कठिन मार्ग पर चलकर रत्नत्रय का पालन करती हैं। मैं उन्हें अपना मंससमय आशीर्वाद प्रदान करता हूँ कि माताजी शीघ्र ही उरनुकूल स्वास्थ्य एवं आत्मोप्सव्यि की प्राप्ति करें।
देव शिल्प ग्रन्य की विधिवत् समायोजना का गुरुतर कार्य हमारे अनन्य भक्त, देव शास्त्र सुरु के अनन्य आराधक, आर्ष परम्परा के पोरक, कर्मठ व्यक्तित्व के धनी, विद्वता की अर भूमिकर के निर्वाह में नियुण, वास्तु शास्त्रज्ञ श्री नरेन्द्र कुमार जैन बड़जात्यर, छिन्दवाडर ने किया है तथा अन्य को सर्योपयोगी बनाया है। ये पारिवारिक जीवन के उत्तरदायित्वों के निर्वहन में सतत् व्यस्त रहते हुए भी निरन्तर गुरु जर पालन में तत्पर रहते हैं। मैं अपने इष्ट आराध्य देव श्री १००८ चिन्तामणि पावनाय स्वामी से उनके सुख समृद्धि मय जीवन की मंगल कारतर करता हुआ उन्हें अपनर शुभाशीष प्रदरचर करता हूँ। वे इसी तरह देव शास्त्र गुरु की सेवा में तत्पर रहें।
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ग्रन्थ प्रकाशन के कार्य में दानदाता आवकों की उदार भावना का होना अत्यंत आवश्यक है। उसके बिना ग्रन्थ प्रकाशन होकर सर्वजन सुलभ होना असंभव है। प्रस्तुत रचना देव शिल्प' के प्रकाशन हेतु उदारमना, दानवीर, समाजरत्न परमगुरु भक्त श्रीमान नीलमकुमार जी चंपतरायजी अजमेरा, उस्मानाबाद (महा.), महाराष्ट्र जैन महासभा के उपाध्यक्ष समाजभूषण संघपति परमगुरुभक्त श्रीमान हीरालाल (बाबूभाई) माणिकचंदजी गांधी, अकलूज (महा.), दानवीर श्रीमान पवन कुमारजी जैन, पहाड़ी धीरज, दिल्ली, दानवीर श्री सुनील कुमारजी सु. जैन नागपुर (महा.), सौ. हर्षा महावीर जी मंगवाल, औरंगाबाद (महा.), श्री विजय कुमारजी पाटनी, (घाटनांदरावाले) औरंगाबाद आदि महानुभावों का अत्यधिक सहयोग रहा है। ये सभी आवक श्राविकाएं जिनधर्म में इसी प्रकार अनुराग रखें, देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति रखें तथा अपनी चंचला लक्ष्मी का सदुपयोग करें। ये सभी धर्म की सेवा में तत्पर रहकर परम्परा से मुक्ति सुख का प्राप्ति करें। इनका जीवन सुख समाधानमय बने, इस हेतु हमारा शुभ आशीर्वाद है।
देव शिल्प की कम्पोजिंग का कठिन कार्य सुन्दर रूप से श्री रजत गुप्ता, कु. रुचि वर्मा एव श्री राजेश मालवीय ने छिन्दवाड़ा में किया है। इनकी समन एवं परिश्रम से यह कार्य सम्पन्न हुआ है। इन्हें हमारा पूर्ण आशीर्वाद है।
यह ग्रन्थ मन्दिर एवं प्रतिमा स्थापनकर्ताओं के लिये उपयोगी सिद्ध होगा, यह हमारी भावना है। मन्दिर एवं तीर्थक्षेत्रों के न्यासी, व्यवस्थापक एवं कार्यकारीगण, समाज के प्रबुद्ध वर्ग, सक्रिय कार्यकर्ता एव दानवीर श्रेष्ठीगण इस कृति का लाभ उठायेंगे तथा मन्दिर, तीर्थक्षेत्र, प्रतिमा स्थापना, जीर्णोद्वार, मुनि निवास, धर्मायतनों के निर्माण आदि में मार्गदर्शन लेवेंगे, तभी इस रचना की उपयोगिता सिद्ध होगी। आप सबके लिये यह ग्रन्थ उपयोगी होगा तभी में अपना श्रम सफल समझुंगा ।
जगत के तारणहार प्रथम तीर्थंकर श्री १००८ आदिनाथ प्रभु की कृपा दृष्टि हम सब पर बनी रहे। मम आराध्य श्री १००८ चिन्तामणि पार्श्वनाथ की करुणामय दृष्टि मुझ समेत सभी जीवों के लिये कल्याणकारक हो । परम पूज्य गुरुदेव गणाधिपति गणधराचार्य श्री १०८ कुन्युसागरजी महाराज सदा जयवम्स रहें। चिरकाल तक जिनशासन की अक्षुण्ण प्रभावना होती रहे। समस्त जीवों का कल्याण हो । अमृतवर्षिणी सरस्वती मातेश्वरी की अनुकम्पा हम सब पर बनी रहे, यही आत्मीय भावना है।
गली
सिद्ध क्षेत्र नैना गिरि १५/०७/२०००
मलाई प्रज्ञाश्रमण आचार्य देवनन्दि मुनि
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सम्पादक की कलम से प्रस्तुत रचना देव शिल्प की रचना जैन आगम साहित्य की एक अभूतपूर्व कृति है। मन्दिर वास्तु एवं स्थापत्य पर सर्वांगीण जानकारी प्रस्तुत करने वाला कोई भी ग्रन्थ अभी उपलब्ध नहीं है। जो भी ग्रन्थ मिलते हैं वे एकांगी हैं। परम पूज्य गुरुदेव प्र. आवार्य श्री १०८ देवनन्दिजी महाराज ने निरन्तर ज्ञानोपयोग एवं चिन्तन के उपरांत इस विषय पर अपनी लेखनी चलाई है। यह ग्रन्थ मन्दिर वास्तु एवं स्थापत्य के प्राचीन एवं आधुनिक दोनों पहलुओं पर समानता से प्रकाश डालता है।
देव शिल्प ग्रन्थ की रचना करने गेंदीन प्रमुख उद्देश्य निहित हैं :मन्दिर वास्तु एवं स्थापत्य विषय पर सर्वोपयोगी जानकारी देना ताकि इस विषयक
अनभिज्ञता दूर हो। २. जैन संस्कृति एवं स्थापत्य कला का संरक्षण व संवर्धन। ३. तीर्थयात्रा के जो चार स्यं विकास के लिए आधारभूत जानकारी का प्रस्तुतीकरण ।
शुक्राचार्य के अनुसार शिल्प चौसठ कलाओं में एक है। कला से तात्पर्य है बिना वाणी के भावाभिव्यक्ति। शिल्पकला में कलाकार बिना कुछ कहे सब कुछ कह देता है। हजारों सालों से निर्मित मन्दिर एवं कलाकृतियां बिना वाणी के ही तत्कालीन वैभव एवं संस्कृति की गौरवमयी गाथा कहती आ रही है। जब भारत में विधर्मियों का प्रवेश हुआ तो उन्होंने सर्वप्रथम अत्याचार के बल से अपना धर्म चलाना चाहा तथा भारतीय संस्कृति के आधारभूत स्थापत्य कला का मिटाना चाहा। इतना अधिक विध्वंस करने के उपरांत भी अवशिष्ट स्थापत्य से सारे विश्व को आज भी भारत की ऐतिहासिक गरिमा का आभास होता है । अवशिष्ट पुरातत्व अवशेष भी संस्कृति के पुनरुत्थान के लिये पर्याप्त है । विभिन्न नगरों एवं तीर्थक्षेत्रों का दर्शन करने के उपरांत निर्मित यह कृति न केवल सम्पूर्ण समाज के लिये एक मार्गदर्शक है, वरन् जिनवाणी की अनुपम सेवा भी है।
प्रत्येक गृहस्थ के लिये भगवद् आराधना के निमित्त देवालय होना अत्यंत आवश्यक है। गृहस्थ की पूजा-अर्चना क्रिया तभी सुफलदायक होती है जबकि वह शास्त्रोक्त रीति से पूरी श्रद्धा भावना के साथ की जाये । शास्त्रोक्त रीति से पूजा अर्चना करने के उपरांत भी हमें यह दृष्टिगत होता है कि अतिशय क्षेत्र, सिद्ध क्षेत्र अथवा किन्हीं विशिष्ट देवालय में किन्हीं विशिष्ट प्रतिमा के समक्ष भावना उत्कृष्ट होती है तथा परिणाम भी शीघ्र ही दृष्टि में आते हैं। यह प्रश्न मन में उत्पन्न अवश्य होता है कि इस अन्तर का कारण क्या है ? अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि जिन प्रतिमाओं एवं देवालयों का निर्माण शिल्प शास्त्र के सिद्धान्तों के अनुरुप होता है वहां पर अतिशय (चमत्कार पूर्ण घटनाएं, स्वतः ही होती है, वातावरण दिव्य रहता है तथा आराधक की मनोभावना भी प्रशस्त, शुभ एवं कल्याणकारी होती है।
जैन धर्म के अनुरागी गृहस्थ पीढ़ियों से मन्दिर निर्माण कर अपना पुण्य संचय करते आये हैं। शास्त्रकारों ने एक राई के दाने के बराबर जिन प्रतिमा बनाकर एक भिलावे के बराबर जिनालय बनाकर उसमें स्थापित करने से असीम पुण्य प्राप्ति उल्लेखित की है। गृहस्थों के छह आवश्यक कर्मों में देव पूजा को प्रथम स्थान दिया गया है। अतएव देवालय का निर्माण असंख्य गृहस्थों को देवपूजा का निमित्त बनने से अतिशय पुण्यवर्धक कार्य होता है।
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इस कृतिदेव शिल्प की रचना करते समय गुरुदेव ने सम्प्रदाय एवं पंथ भेद से ऊपर उठकर सर्वोपयोगिता की भावना रखी है। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं को ध्यान में रखकर जिन प्रतिमा, शासन देव देवी प्रतिमा, क्षेत्रपाल, विद्या देवियों आदि का स्वरुप दोनों दृष्टियों से प्रस्तुत किया है। जैनेतर पाठकों का भी आचार्यवर ने स्मरण रखा है तथा अनेकों स्थानों पर जैसे दृष्टि प्रकरण, व्यक्त अव्यक्त प्रासाद, सम्मुख देव, गृह मन्दिर आदि में जैनेतर परम्पराओं के अनुरुप दिशा बोध दिया है। संप्रदायवाद की संकीर्णता से ऊपर उठकर आचार्यवर ने विराट सर्वतोभद्र दृष्टिकोण अपनाया है।
परम पूज्य गुरुदेव प्रज्ञाश्रमण आचार्य श्री १०८ देवनन्दिजी महाराज पर जिनवाणी सरस्वती की अद्भुत कृपा है। पूर्व में ध्यान जागरण कृति के माध्यम रो उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया था। वास्तु शास्त्र पर अभूतपूर्व कृति 'वास्तु चिन्तामणि ने उन्हें जन जन का चहेता बना दिया। करुणा मूर्ति आचार्य वर की कलम से पुनः देव शिल्प का सृजन हुआ। संभवतः पिछले एक सहस्र वर्षों में भी इस तरह की सर्वांगीण कृति प्रथम बार किसी दि. जैनाचार्य की बालन से निवृत हुई है। यह रकम भी वास्तु चिन्तामणि की भांति सर्वजन प्रिय होगी तथा दिगम्बर, श्वेताम्बर, जैन जैनेतर सभी पाठक इससे लाभ उठायेंगे।
(ग्रन्थ परिचय)
देव शिल्प ग्रन्थ की विषय वस्तु मन्दिर है । मन्दिर भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का अभिन्न अंग है। सारी भारतीय संस्कृति मूलतः आस्तिकता एवं धर्म पर आधारित है। श्रमण एवं वैदिक दोनों ही संस्कृतियों में साकार उपासना हेतु प्रतिमा एवं मन्दिर की उपयोगिता प्रतिपादित की गई है। निराकार उपासना हेतु भी प्रतिमा का निषेध होने के उपरांत भी आराधना स्थल बनाया गये जाते है।
प्राचीन भारतीय शिल्पकला का गौरव सारे विश्व में विख्यात है। जैन एवं हिन्दू दोनों ही धर्मों में इस विद्या का समान महत्व है। काल के थपेड़ों से इसका ज्ञान अत्यल्प शेष रहा है। परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री १०८ प्रज्ञाश्रमण देवनन्दिजी महाराज सतत् ज्ञानोपयोगी है। वास्तु शास्त्र के अभूतपूर्व ग्रन्थ वास्तु के उपरान्त आपने मंदिरों की शिल्प विद्या पर अनुसंधान एवं अध्ययन किया तथा उनके इस ज्ञानोपयोग का परिणाम देव शिल्प के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है।
ग्रन्थ देव शिल्प को ग्यारह प्रकरणों में विभक्त किया गया है। ग्रंथ का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
१. भूमि प्रकरण मंगलाचरण एवं जिनालय स्तुति के उपरांत सर्वप्रथम मन्दिर की आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है। जिनेन्द्र प्रभु की प्रतिमा कर्म क्षय का कारण है तथा यही शाश्वत सुख की प्राप्ति का आधार है। जन सामान्य के लिए प्रभु आराधना का स्थल मंदिर ही है। अतएव इसका निर्माण असीम पुण्य का अर्जन कर चिरकाल तक सुखी करने का हेतु है।
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सर्वप्रथम सूत्रधार के लक्षण एवं अष्टसूत्रों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। शिल्पशास्त्रों में सूत्रधार के लक्षणों का वर्णन करने का कारण यही है कि अकुशल, धन का लालची एवं पाप से न डरने वाला शिल्पी यदि शिल्प शास्त्र से विपरीत मन्दिर एवं प्रतिमा का निर्माण करेगा तो शिल्पी, मन्दिर निर्माणकर्ता तथा प्रतिमा स्थापनकर्ता तीनों ही चिरकाल तक दुख पायेंगे। मन्दिर हेतु भूमि की आकृति, रुप, वर्ण, बाह्य शुभाशुभ लक्षण, शल्यशोधन आदि करके ही मन्दिर हेतु स्थान का निर्णय करना चाहिये। दिशा का निर्धारण चुम्बकीय सुई से करना उपयोगी है। भूमि का निर्णय करने के उपरांत उसकी आकृति एवं मान का निर्णय माननिबार न ही करें. रेखा करते समय शुभाशुभ लक्षणों का ध्यान अवश्य रखें।
२.परिसर प्रकरण इस प्रकरण ने ग्रन्थ की उपयोगिता में पर्याप्त वृद्धि की है। पानी का जल बहाव ईशान की तरफ निकाले। अभिषेक जल का उल्लंघन नहीं करें साथ ही उसकी प्रणाली निर्दिष्ट दिशाओं में निकालें। आरती का स्थान आग्नेय दिशा में रखें। पूजा करने वालों की सुविधा के लिये परिसर में स्नानगृह बनायें। यह पूर्व, उत्तर या ईशान में बनायें। पूजा सामग्री तैयार करने का स्थान मन्दिर के ईशान भाग में बनायें। पूजा के वस्त्र भी यहीं बदलें।
मन्दिर में प्रवेश करते समय पांव अवश्य धोयं तथा चप्पल-जूते बाहर उतारें । इन्हें भी निर्दिष्ट दिशाओं में रखें । कचर! ईशान में कदापि न रखें। मन्दिर के कर्मचारियों का कक्ष नियत स्थानों पर बनायें। तीर्थक्षेत्रों एवं संस्थाओं में कार्यालय का स्थान मन्दिर परिसर के उत्तर या पूर्व में रखना उपयुक्त है।
मन्दिर की धर्मसभा में प्रवचन सत्संग के लिए उपयुक्त स्थान मन्दिर का उत्तरी भाग है। इसके दरवाजे भी उतर, ईशान, पूर्व में रखें। धर्मसभा की सजावट वैराग्यवर्धक चित्रों से करें। शास्त्र भंडार नैऋत्य दिशा में बनाना श्रेष्ठ है। मन्दिर की सजावट चित्रकारी, बेल बूटे, रुपक आदि से करें। तीर्थंकर की माता के स्वप्न, आहारदान, ऐरावत आदि चित्रों को मन्दिर में लगायें। तीर्थक्षेत्रों की प्रतिकृति, आचार्यों के चित्र आदि भी मन्दिर में लगा सकते हैं।
__ इसी प्रकरण में मन्दिर के किस भाग में अतिरिक्त भूमि लेना चाहिये, इसका भी निर्देश दिया गया है। तलघर बिना जरुरत के कदापि न बनायें। विविध रंगों का प्रयोग मन्दिर में कैसे करें, इस हेतु भी निर्देश दिये गये हैं। मन्दिर में पूजा हेतु पुष्पवाटिका लगाने की दिशा भी निर्दिष्ट की गई है। मंदिर परिसर में वृक्ष कहां एवं कौन से लगायें इसका भी ध्यान रखना आवश्यक है। इमली आदि वृक्षों का निषेध किया गया है।
मन्दिर प्रवेश के स्थान पर निर्मित सीढ़ियों का भी एक नियम है। इनकी दिशा उत्तर से दक्षिण अथवा पूर्व से पश्चिम की ओर चढ़ती हुई रखें। गोलाकार सीढ़ियां ठीक नहीं मानी गई हैं। सीढियों की संख्या भी विषम ही रखना चाहिये।
___ मन्दिर परिसर के चारों तरफ परकोटा अवश्य ही बनवाना चाहिये । यदि बहुत ही बड़ा परिसर हो तो भी फेंसिग लगाना ही चाहिए। परकोटे से भगवान की दृष्टि बाधित न हो, यह सुनिश्चित करें। मन्दिर प्रांगण में निर्मित की जाने वाली विभिन्न वास्तु संरचनाओं का निर्माण भावावेश में अथवा दानदाता की मर्जी से नहीं करें। जिस दिशा में शिल्प शास्त्र में निर्देश किये गये हैं, वहीं रचनाएं करें। मन्दिर परिसर की शुचिता स्थायी रखने के लिये इसे व्यापारिक भवनों से मुक्त रखना आवश्यक है।
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जलपूर्ति के लिये कुंआ अथवा बोरवेल बनवाना आवश्यक होता है। ऊपर भी ओवरहैड पानी की टंकी बनायी जाती है। दोनों ही आग्नेय में न बनायें।
व्यक्त अव्यक्त प्रासाद का विचार प्रारंभ में ही कर लेना आवश्यक है। जिन देवों के मन्दिर सांधार अथवा अव्यक्त बनाना आवश्यक हो, उनके मन्दिर व्यक्त न बनायें। ऐसा करने से मन्दिर एवं प्रतिमा का अतिशय समाप्त हो जायेगा। गर्भगृह को भी तोड़कर हाल में बदलने का फैशन चल पड़ा है। आचार्य श्री ने इसका स्पष्ट निषेध किया है। जिन मन्दिरों में गर्भगृह को तोड़ा गया है वहां पर निरंतर अनिष्टकर घटनाएं घटित होती है। शिल्पकार के साथ ही गर्भगृह तुड़वाने वाले कार्यकर्ता एवं समाज इसके विपरीत परिणामों को वहन करते हैं।
प्राचीन पद्धति से मन्दिर निर्माण करना अत्यंत जटिल एवं व्यय साध्य होने से आजकल नगरों में अल्पस्थान पर मन्दिर बनायें जाते हैं तथा आवश्यकता होने पर ये मन्दिर बहुमंजिला भी बनाये जाते हैं। इनका निर्माण करते समय सामान्य वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों का पालन करें। मन्दिर का धरातल सड़क से नीचा न हो। प्रवेश उत्तर या पूर्व से ही रखना आवश्यक है।
३.देवालय प्रम देवालय प्रकरण में विविध प्रकार के जिनालयों का निर्माण किस प्रकार किया जाये, इस हेतु उपयोगी निर्देश दिये गये हैं। भगवान जिनेन्द्र की धर्मसभा का नाम समवशरण है। इसकी कल्पना करके समवशरण मन्दिर बनाये जाने की प्रथा है। सभी स्थानों पर मन्दिर के समक्ष मानस्तंभ का निर्माण किया जाता है। यह पद्धति प्राधीन है। देवगढ़ के कलात्मक मानस्तम्भ विश्व प्रसिद्ध हैं। मान स्तंभ की ऊंचाई मूलनायक प्रतिमा के बारह गुने के बराबर तथा मन्दिर के ठीक सामने होना आवश्यक है। मानस्तंभ का निर्माण देखा देखी में न करें न ही शोभा के लिये इधर उधर बनायें। विशेष स्मृति के लिए कीर्तिस्तंभ का निर्माण करना उपयुक्त है। जैनधर्म में ग्रह कोप निवारण के तीर्थंकरों की पूजा करने का निर्देश मिलता है, उसी के अनुकूल नवग्रह मन्दिर भी बनाये जाते हैं। सूर्य ग्रह की शांति के लिये पद्मप्रभ एवं शनि के प्रकोप की शान्ति के लिए मुनिसुव्रतनाथ स्वामी की आराधना करना उपयोगी है।
पंच परमेष्ठी का वाचक ॐ तथा २४ तीर्थंकरों का सूचक हीं बीजाक्षर में तीर्थंकर स्थापना करके भी मन्दिर बनाये जाते हैं। हस्तिनापुर एवं इन्दौर के ॐ एवं ह्रीं मन्दिर दृष्टव्य हैं। नवदेवताओं के लिए भी पृथक प्रतिमा तथा पृथक जिनालय बनाये जाते हैं। सप्तर्षि मूर्तियां अनेकों मन्दिरों में मिलती हैं। इनके पृथक जिनालय भी बनाये जाते हैं। इसी भांति पंच बालयति जिनालय में पांचों बाल ब्रह्मचारी तीर्थंकरों की प्रतिमा स्थापित करते हैं। प्रकरण में सुगम शैली में इन सबके लिये उपयुक्त निर्देश दिये गये हैं। ये निर्देश समाज के प्रत्येक वर्ग के लिये मार्गदर्शक हैं। इसी प्रकरण में २४, ५२ एवं ७२ जिनालयों वाले मन्दिरों के लिये सचित्र निर्देश दिए गये हैं। जिनेश्वर प्रभु की वाणी की साकार रुप में आराधना सरस्वती देवी के रुप मे की जाती है। हंसवाहिनी वीणा वादिनी सरस्वती प्रतिमा के पृथक मन्दिर भी बनाये जाते हैं। इनको चौबीस जिनालयों के साथ भी स्थापित किए जाने का निर्देश दृष्टव्य है। चरणचिन्हों के लिए छतरियां सर्वत्र देखने में आती हैं।
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किस देव के सामने कौन से देव का मन्दिर बना सकते हैं, इस हेतु शिल्प शास्त्रों में स्पष्ट निर्देश दिये गए हैं। नाभिवेध का परिहार करके ही सम्मुख मन्दिर बनायें। प्रसंगवश देवों के चैत्यालयों की संक्षिप्त जानकारी भी प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर उद्धृत की गई है।
४. निर्माण प्रकरण
यह प्रकरण ग्रन्थ का महत्वपूर्ण भाग है। मन्दिर निर्माण का निर्णय व्यक्तिगत अथवा सामूहिक होता है। मन्दिर बनाने का निर्णय करने के पश्चात सर्वप्रथम अपने गुरुदेव से विनयपूर्वक आशीर्वाद लेवें तथा उनके निर्देशन में ही मुहुर्त एवं भूमि का चयन करें। पश्चात् भूमि के देवताओं से निर्विघ्न कार्य सम्पादन के लिये विधिवत् अनुरोध करें। शुभ मुहूर्त में भूमिपूजन विधान करें। मन्दिर निर्माण करने के लिए निकृष्ट सामग्री कदापि न लायें। मन्दिर बनाने में लोहे के प्रयोग का निषेध किया जाता है किन्तु वर्तमान निर्माण शैली में लोहा निर्माण का आवश्यक अंग है अतएव समन्वयपूर्वक कार्य करें। किस लकड़ी का प्रयोग करना चाहिये, इसका स्पष्ट निर्देश शिल्पशास्त्रों के अनुरुप निर्दिष्ट किया गया है।
मन्दिर निर्माण प्रारंभ कूर्म शिला स्थापन से किया जाता है। कूर्म के चिन्ह वाली शिला की स्थापना गर्भगृह के मध्य नींव में स्थापित की जाती है। इसे स्वर्ण या रजत से बनायें। आधार के लिए खर शिला की स्थापना करते हैं। खर शिला के ऊपर मोटा भिट्ट स्थापित किया जाता । भिट्ट स्थापना के उपरांत एक चबूतरानुमा रचना बनाई जाती है जिसे जगती कहते हैं। इसी जगती पर निर्दिष्ट स्थान पर पीठ के ऊपर मन्दिर का निर्माण किया जाता है।
मन्दिर की दीवार का बाह्य भाग मंडोवर कहलाता है। भीतरी भाग दीवार या भित्ति कहलाता है। मंडोक अत्यंत कलामा बनाया जाता है। इसी से नन्द का बाह्य वैभव दृष्टिगत होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में विभिन्न शिल्प शास्त्रों के मतानुसार मण्डोवर के थरों का मान वतलाया गया है। मंदिर के मध्य में स्तंभों की रचना की जाती है जो कि मण्डप की छत का भार वहन करते हैं। स्तंभों में मंडोवर की ही भांति विभिन्न थरें होती हैं। स्तम्भ अनेकों एवं कलाकृतियों से युक्त बनाये जाते हैं।
मन्दिर के सभी अंगों का इस ग्रन्थ में विस्तृत विवेचन किया गया है। द्वार में देहरी का निर्माण करना अपरिहार्य है। वर्तमान में देहरी के बिना ही द्वार बनाये जाने लगे हैं, यह हानिकारक है। बिना देहरी की चौखट न बनायें। द्वार की शाखाओं का भी अपना महत्व है। जिन मन्दिरों में सात या नौ शाखा वाला द्वार बनाना निर्दिष्ट किया गया है। देहरी से सवाया मथाला अथवा उत्तरंग बनाना चाहिये। उत्तरंग में तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा अथवा गणेश प्रतिमा बनाये। द्वार सही प्रमाण में ही बनाना चाहिये । द्वार की ही भांति खिड़की बनाने के भी नियम है। इन्हें द्वार के समसूत्र में बनायें। खिड़कियां सम संख्या में ही बनाना चाहिये। जाली एवं गवाक्ष कलात्मक रीति से बनाना चाहिये। ग्रन्थ में गवाक्ष के भेद सचित्र बताए गए हैं। क्लाणक से मन्दिर का मण्डपक्रम प्रारंभ होता है। वलाणक अथवा मुख मण्डप के उपरांत नृत्य मंडप तथा उसके उपरांत चौकी मंडप बनाया जाता है। चौकी मण्डप स्तंभों की संख्या के अनुरूप २७ भेदों के बनाए गए हैं। चौकी मण्डप के उपरांत गूढ़ मण्डप का निर्माण किया जाता है। गूढ़ मण्डप के उपरांत अन्तराल तथा सबसे अन्त में गर्भगृह बनाया जाता है। सांधार मन्दिरों में गर्भगृह के चारों ओर परिक्रमा बनाई जाती है। मण्डप का आच्छादन गूमट से किया जाता है। गूमट का बाह्य रुप संवरणा कहलाता है तथा भीतरी भाग वितान कहलाता है। इनके अनेकों भेद शिल्पशास्त्रों में बताये गये हैं।
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गर्भगृह मन्दिर का प्राण है क्योंकि यहीं भगवान की प्रतिमा स्थापित की जाती है। गर्भगृह में प्रतिमा कितनी बड़ी बनानी चाहिये तथा प्रतिमा की स्थापना गर्भगृह में कहां करना चाहिये इसका ध्यान रखना आवश्यक है।
मन्दिरों के मण्डप क्रमों के अनुरुप अनेकों मन्दिरों के रेखा चित्र दृष्टव्य है जो विषय की जटिलता को समाप्त कर देते हैं।
मन्दिर के ऊपरी भाग ऊँची पर्वत की चोटी के आकार की आकृति का निर्माण किया जाता है। इसे शिखर कहते हैं। शिखर की शैलियों के आधार पर ही मन्दिरों की जातियों का विभाजन किया जाता है। शिखर की रचना झुकती हुई कला रेखाओं के आधार पर की जाती है। शिखर के ऊपरी भाग को ग्रीवा कहा जाता है। ग्रीवा के ऊपर आमलसार की स्थापना की जाती है। आमलसार एक बड़े चक्र के आकार की रचना होती है। इसके ऊपर घट की आकृति का कलश चढ़ाया जाता है। कलश उसी पदार्थ का होना चाहिये जिससे मन्दिर का निर्माण किया गया है। शोभा के लिए स्वर्ण का पत्र इसके ऊपर लगाया जाता है।
___ शिखर के ऊपरी भाग में शुकनासिका की स्थापना की जाती है जिस पर सिंह स्थापित किया जाता है। सुवर्ण पुरुष की स्थापना भी शिखर के ऊपरी भाग में की जाती है। सुवर्णपुरुष को प्रासाद का जीव माना जाता है। इसी प्रकरण में शिखर के अंगों का सचित्र विवेचन विषय को स्पष्ट करता है। श्रृंग, उरुश्रृंग, तिलक, कूट, क्रम आदि ऐसे शब्द हैं जो शिल्प शास्त्र में प्रचलित हैं किन्तु इनका अर्थ शब्द के स्थान पर भाव से लेना चाहिये। विभिन्न शैलियों के शिखरों के रेखा चित्र उसकी रचना समझने के लिये पर्याप्त आधार है।
__ शिखर पर ध्वजा का आरोहण किया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण है । ध्वजा से ही वास्तु की पहचान होती है। ध्वजा वस्त्र की बनाएं तथा ध्वजादंड लकड़ी का । ध्वजाधार की स्थिति भी सही रखें। बदरंग एवं फटी हुई ध्वजा परिवर्तित कर देना चाहिये । ध्वजा पर सर्वान्ह यक्ष की स्थापना अवश्यमेव करना चाहिये।
१.वेदी प्रतिमा प्रकरण इस प्रकरण में सर्वप्रथम प्रतिमा स्थापना करने हेतु वेदी के निर्माण हेतु कुछ महत्वपूर्ण निर्देश दिये गये हैं। प्रतिमा एवं वेदी दीवाल से चिपकाकर नहीं बनायें। वेदी पर भामंडल के स्थान पर यंत्र न लगायें तथा छत्र आदिसे सहित बनायें। वेदी में प्रतिमा की स्थित,द्वार से दृष्टि का स्थान तथा वेदी एवं गर्भगृह के अनुपात में प्रतिमा के आकार की गणना करना अत्यंत आवश्यक है। यक्ष यक्षिणी देवों की दिशा एवं पार्श्व का ध्यान रखना आवश्यक है। तीर्थकर प्रभु की प्रतिमा को ही मूलनायक बनायें। बाहुबली स्वामी आदि का स्वतंत्र मंदिर नहीं बनायें। यदि बनायें तो भी मूलनायक तीर्थंकर प्रभु ही रखें। यहां यह उल्लेखनीय है कि श्रवण बेलगोला में मूलनायक नेमिनाथ स्वामी हैं।
पीठिका पर भगवान की प्रतिमा का आसन होता है, वेदी पर नीचे कलाकृतियों से सजावट करना चाहिये । दस हाथ से छोटी प्रतिमाएं मंदिर में पूज्य है । पैतालीस हाथ से बड़ी प्रतिमा चौकी पर स्थापित की जाना चाहिये । ग्यारह अंगुल से छोटी प्रतिमाएं गृह मन्दिर में भी रख सकते हैं।
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प्रतिमा की दृष्टि द्वार के किस भाग में आना चाहिये, इस विषय में आचार्यों के मतांतर हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में विभिन्न मतों का विवरण किया गया है। फिर भी जिन प्रतिमा के लिए ६४ में से ५५ वें भाग में दृष्टि रखना उचित प्रतीत होता है।
जिन प्रतिमा का बारीकी से प्रमाण पद्मासन एवं खड्गासन, दोनों के लिए दिया गया है। पूज्य आचार्य परमेष्ठी एवं विद्वान प्रतिष्ठाचार्य के परामर्श से ही प्रतिमा का निर्णय करना चाहिये। कभी भी दूषित अंगवाली प्रतिमा की स्थापना नहीं करना चाहिये अन्यथा शिल्पकार, मूर्ति स्थापनकर्ता तथा प्रतिष्ठाकारक आचार्य एवं समाज सभी का अनिष्ट होता है। अनेकों स्थानों पर इस दोष का सीधा प्रभाव दृष्टिगत होता है। अनेकों मन्दिर उजाड़ दिखते हैं तथा समाज पतनोन्मुख हो जाता है। तीर्थंकर प्रतिमा सिंहासन पर अष्ट प्रातिहार्य सहित पूरे परिकर वाली बनाना चाहिए। बिना परिकर वाली प्रतिमा को सिद्ध प्रतिमा माना जाता है। प्रतिमा के समीप अष्ट प्रातिहार्य एवं अष्ठमंगल द्रव्य अवश्य ही रखना चाहिये। यन्त्र का मान भी प्रतिमा की भांति किया जाता है। मातृका यंत्र एक प्रमुख यंत्र है जिसका प्रयोग प्रतिमा की स्थापना के समय अचल यंत्र के रूप में किया जाता है। ग्रन्थ में यंत्रों की संक्षिप्त जानकारी दी गई है। विस्तृत जानकारी मन्त्रशास्त्र के ग्रन्थों से प्राप्त करना चाहिये ।
६. देव-देवी प्रकरण
इस प्रकरण में तीर्थंकर प्रभु के समवशरण में स्थित शासन देव देवियों के स्वरूप का सचित्र संक्षिप्त विवरण दिया गया है। विभिन्न ग्रन्थों के पाठांतर मिलने पर भी देवों की विक्रिया ऋद्धि के कारण यह संभव है, ऐसा निर्देश भी दिया गया है। क्षेत्रपाल, मणिभद्र, घण्टाकर्ण, सर्वान्ह यक्ष आदि देव जैन धर्म एवं धर्मावलम्बियों के सहायक देव हैं। इनका सम्मान साकार रुप में प्रतिमा बनाकर किया जाता है। दिक्पालों का स्वरुप भी इसी प्रकरण में संक्षेप में दिया गया है। यक्ष की तीर्थंकर के दाहिने ओर तथा यक्षिणी को बायें ओर स्थापित किया जाता है। इसको विपरीत करने पर भयावह परिणाम होते हैं। शासन देव एवं देवियों की प्रतिमाएं प्रत्येक तीर्थकर प्रतिमा में स्थापित करना चाहिये । कालान्तर में पद्मावती देवी एवं ज्वालामालिनी तथा चक्रेश्वरी देवी की ही प्रमुखता से आराधना होने लगी। कहीं कहीं पर अज्ञानता वश इन्हें तीर्थंकर प्रभु से समकक्ष लोग मानने लगे। इसका कतिपय लोगों ने निराकरण करने का प्रयास किया तथा जब वे इसका समाधान न कर पाये तो इन्हें ही हटाने लगे। इससे पंथवाद का जड़ पनपी । मेरा निवेदन है कि सर्वत्र विवेक की आवश्यकता है। तीर्थंकर को तथा यक्ष यक्षिणी को समान मानना वास्तव में अनुचित है किन्तु यक्ष यक्षिणी को मिथ्या दृष्टि मानकर अथवा मिथ्या आयतन मानकर खंडित करना उससे भी अधिक अनुचित है। जैनेतर देवों की पंचायतन शैली एवं उनका उपयोगी वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है।
७. विभिन्न निर्देश प्रकरण
इस प्रकरण में अनेकानेक उपयोगी विषयों का खुलासा किया गया है। घर में पूजा करने के लिए गृह मन्दिर बनाया जाता है। इसमें मात्र १३, ५, ७, ९, या ११ अंगुल की प्रतिमा की रखी जानी चाहिये। इसका निर्माण शुभ आय में तथा काष्ठ से करना चाहिये। इसमें ध्वजादण्ड नहीं लगायें। गृह चैत्यालय की पवित्रता का ध्यान रखना अनिवार्य है अन्यथा विपरीत परिणाम होंगे। पूजा करने की दिशा, आसन, मुख, प्रदक्षिणा विधि आदि के लिए भी उपयोगी निर्देश दिए गए हैं।
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मुनियों एवं त्यागियों के लिये वसांतका का निर्माण किया जाता है। इसका निर्माण मन्दिर परिसर के दक्षिण या पश्चिम या उत्तर में रखें। अनेकों उपयोगी एवं व्यवहारिक निर्देश यहां दृष्टव्य हैं। साधु समाधि स्थल निषोधिका के लिए भी उपयोगी निर्देश दिये गये हैं। निषीधिका भी पूज्य है, इसके प्रमाण भी पठनीय है।
वर्तमान काल में सर्वत्र पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं होने लगी हैं। इसके लिए भी उपयोगी ग्रन्थ में प्रस्तुत किए गए हैं। प्रतिष्ठा मंडप यज्ञ कुण्ड एवं पांडुक शिला के रेखा चित्र समुचित निर्देश देते हैं।
यद्यपि स्तूपों का आजकल प्रचलन नहीं है फिर भी प्राचीनकाल में जैनों में स्तूप बनाने का प्रचलन था। स्तूपों के अवशेष आज भी मिलते हैं।
खण्डित प्रतिमा के लिए पूज्यता आदि के निर्देश दिए गए हैं। यदि १०० से अधिक वर्षों से किसी प्रतिमा की पूजा की जा रही हो तो वह सदोष रहने पर भी त्याज्य नहीं है। स्थापत्य शास्त्र के संरक्षण की दृष्टि से खंडित प्रतिमा के विसर्जन के स्थान पर उसे संग्रहालय में रखने का भी सुझाव समयोचित है।
__ मन्दिर निर्माण से अधिक महत्व मन्दिर के जीणोद्धार का है। आजकल जीर्णोद्धार के नाम पर चलने वाली यद्वा तद्वा बातों का निराकरण आचार्य श्री ने इस प्रकरण में किया है। जीर्णोद्धार कार्य में नव निर्माण से आठ गुना पुण्य प्राप्त होता है। जीर्णोद्धार के लिये विधि विधान एवं संकल्प पूर्वक ही मूर्ति को स्थानांतरित करें अन्यथा भयावह परिणाम होंगे।
6. ज्योतिष प्रकरण ज्योतिष प्रकरण में मन्दिर भूमि पर निर्माण प्रारंभ के लिए मुहूर्त चयन हेतु विशेष जानकारी दी गई है। सूर्य बलशाली होने पर ही कार्यारम्भ करें। साथ ही यह भी आवश्यक है कि किस तीर्थंकर की प्रतिमा मूलनायक के रुप में स्थापित की जानी है, इसका निर्णय राशि मिलान करके ही करें। वेध प्रकरण में वेधों के विभिन्न प्रकारों पर उपयोगी निर्देश दिए गए हैं। इसी प्रकार अपशकुन एवं अशुभ लक्षणों का भी विचार करना चाहिये । मन्दिर निर्माण के दोषों को भी इसी प्रकरण में स्पष्ट किया गया है।
९.प्रासाद भेदपकरण . इस प्रकरण में प्रासाद की विभिन्न जातियों को संक्षेप में दर्शाया गया है। केसरी आदि २५, वैराज्य आदि २५ प्रासादों का विवरण संक्षेप में दो भागों :-तल का विभाग एवं शिखर की सज्जा में सचित्र दिया गया है। मेरु आदि २० प्रासादों एवं तिलकसागर आदि २५ प्रासादों की अल्प जानकारी दी गई है।
१०. जिलेष्ट्र प्रासाद प्रकरण ___ इस प्रकरण में प्रत्येक तीर्थकर के लिए पृथक-पृथक रुप से प्रासादों का नाम, तल विभाग, शिखर सज्जा एवं उनके श्रृंगों की संख्या का सचित्र विवरण दिया गया है। कुल ९६७० प्रकार के शिखरों में से कुछ की ही जानकारी मिलती है।
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११. शब्द संकेत
ग्रन्थ के अन्त में शब्द संकेत में प्रयुक्त शब्दों का भावार्थ दिया गया है। सन्दर्भ ग्रन्थ सूची में प्रयुक्त ग्रन्थों की नामावली दी गई है।
प. पू. गणाधिपति गणधराचार्य श्री १०८ कुन्थुसागरजी महाराज ने आशीर्वाद देकर हम सबको कृतार्थ किया है। उनका जितना गुणगान किया जाये उतना ही कम है। मैं उनके चरणों में बारम्बार विनयपूर्वक नमोस्तु करता हूँ तथा सतत् उनके आशीर्वाद की कामना करता हूँ ।
प. पू. युवाचार्य तीर्थोद्धारक गुरुवर प्रज्ञाश्रमण श्री १०८ देवनन्दिजी महाराज की ख्याति सर्वत्र व्याप्त है। निरन्तर ज्ञानयोग में लगे आचार्यवर की करुणामयी दृष्टि से गृहस्थ प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उनके आशीर्वाद मात्र से गृहस्थों के संकट दूर होते हैं। तीर्थक्षेत्रों के विकास के लिये वे सदैव विचारशील रहते हैं। जिन क्षेत्रों में आचार्यवर ने चातुर्मास किया अथवा विहार किया वहां पर सतत् क्षेत्र के उद्धार के लिये उदारमना श्रावकों को प्रेरित करते रहे। उन क्षेत्रों का तीव्र विकास उनकी कार्यशैली का उदाहरण प्रस्तुत करता है।
वात्सल्य मूर्ति, ज्ञानयोगी गुरुवर की मुझ पर बड़ी कृपा दृष्टि है। मुझ सरीखे अल्प बुद्धि साधारण मनुष्य को आपने देव शिल्प ग्रन्थ के सम्पादन का भार सौंप कर महान उपकार किया है। मैंने अपनी समझ से यथाशक्ति इस महान ग्रन्थ का सम्पादन कार्य किया है। विद्वान पाठकों से मेरा अनुरोध है कि मेरी भूलों को नादान समझकर क्षमा करेंगे तथा आगमानुसार यथोचित संशोधन कर लेवेंगे।
अन्ततः मैं गुरुवर प. पू. प्रज्ञाश्रमण आचार्य श्री १०८ देवनन्दि जी महाराज के चरण युगलों में पुनः पुनः नमोस्तु करता हूँ तथा उनसे कृपा दृष्टि की याचना करता हूँ। साथ ही समस्त आचार्य संघ के श्री चरणों में भी नमोस्तु, वन्दामि इच्छामि करता हूँ ।
छिन्दवाड़ा ३/८/२०००
सतत गुरुचरणानुरागी, नरेन्द्र कुमार बड़जात्या
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अनुक्रमणिका
भूमिप्रकरण णमोकार महामंत्र मंगलाचरण चतुर्विंशति तीर्थंकर स्तर जिन भवन महिमा मंदिर की आवश्यकता मंदिर निर्माण का पुण्य फल जिनालय माहात्म्य सूत्रधार प्रकरण, नाम, गुण सूत्रधार का सम्मान एवं प्रार्थना सूत्रधार के अष्टसूत्र दिशा प्रकरण दिशा निर्धारण, आधुनिक विधि दिशा निर्धारण की प्राचीन विधि भूमि चयन, शुभ भूमि के लक्षण भूमि चयन, योग्य लक्षण, आकार की अपेक्षा अन्य शुभ लक्षणों वाली भूमि के फर। विभिन्न अशभADो से युक्त भमि पर मंदिर बनाने का निषेध विभिन्न अशुभ लक्षणों से युक्त भूमि पर मंदिर बनाने के विपरीत परिणाम धातु मिश्रित भूमि का शुभाशुभ कथन भूगि परीक्षण विधियाँ १-२.३ शल्य शोधन मापप्रकरण माप प्रकरण- आधुनिक मान, गज का प्रयोग गज उठाने का फलाकल आय प्रकरण, आय की गणना आय विचार संशोधन स्थान के अनुरुप आय रेखांकन,शुभाशुभकथन
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परिसर प्रकरण
मन्दिर में जल बहाव विचार
अभिषेक जल
प्रणाली का मान, आरती एवं अखण्ड दीपक
स्नानगृह, पूजन
तैयार करने का स्थान
पाद प्रक्षालन स्थल, जूते-चप्पल रखने का स्थान कचरा रखने का स्थान
माली एवं कर्मचारी कक्ष, कार्यालय एवं सूचना पटल
धर्मसभा अथवा व्याख्यान भवन
विभिन्न दिशाओं में धर्मसभा कक्ष बनाने का फल, शास्त्र भंडार
मंदिर में उपयोगी सजावटी चित्र
गुप्त भंडार एवं धन सम्पत्ति कक्ष
चौक, मंदिर में रिक्त स्थान का महत्व रिक्त भूमि एवं मंदिर भूमि विस्तार
तलधर
रंग संयोजना
पुष्प वाटिका एवं वृक्ष प्रकरण
सोपान
सोपान पंक्ति प्रमाण
मंदिर का परकोटा
मंदिर प्रांगण की विविध रचनाएं
मंदिर परिसर में व्यापारिक भवनों का निषेध
बिजली का मीटर एवं स्विच बोर्ड, टाइल्स का प्रयोग
जलपूर्ति व्यवस्था प्रकरण, पानी की टंकी
कूप
नलकूप अथवा हेंड पम्प
भूमिगत जल टंकी, कूप खनन समय, मास निर्णय भूमिजल शोधन
व्यक्त-अव्यक्त प्रासाद
गर्भगृह को हाल में परिवर्तित करने का निषेध
वर्तमान युग में मंदिर निर्माण, बहुमंजिला मंदिर
मंदिर की अभिमुख दिशा निर्णय
४३
४४
४५
४६
४७
४७
४८
४९
५१
५२
५५
५६
५७
५८
६०
६२
६३
६४
६५
६६
૬૭
६७
६८
६९
६९
७०
७१
७३
७५
७६
७८
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समवशरण मन्दिर
समवशरण की रचना, कोटों के नाम व विवरण
तीर्थंकर महावीर स्वामी का समवशरण के आकार का प्रमाण
समवशरण की वास्तु रचना मान स्तंभ
कीर्ति स्तंभ
सहस्रकूट जिनालय ह्रीं जिनालय
ॐ मंदिर
देवालय प्रकरण
नवग्रह मंदिर
परमेष्ठी एवं नवदेवता जिनालय
रत्नत्रय मंदिर
सप्तर्षि जिनालय, पंचबालयति जिनालय
चौबीस जिनालयों का स्थापना क्रम ( दो विधियाँ)
बावन जिनालयों का स्थापना क्रम
बहत्तर जिनालयों का स्थापना क्रम सरस्वती मन्दिर
चरणचिन्ह
विविध देवालय सम्मुख विचार देवों के चैत्यालय
निर्माण प्रकरण
मन्दिर निर्माण निर्णय स्वामी पृच्छा
निर्माण प्रारंभ पूर्व भूमि पूजन मंदिर निर्माण सामग्री प्रकरण मंदिर निर्माण में काष्ठ प्रयोग
मंदिर निर्माण प्रारंभ
कूर्मशिला
खरशिला
भिट्ट
जगती
पीठ
* * * * 39
२७९
८०
८२
८४
८५
८७
८९
९०
९२
९३
+ 88
९४
९५
९६
९७
९८
९८
१००
१०१
१०२
१०३
१०५
१०६
१०७
१०९
१११
११२
११३
११६
११७
११८
१२२
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मंडोवर भित्ति
१२५ १३५ १३१
१४४
१४६ १४७ १४८ १४९
१५२
१५३ १५५
१५८
१६० १६३
१६७ १६८ १७० १७२
देहरी शंखावर्त अर्धचन्द्र द्वार द्वार वेध द्वार का आकार द्वार शाखा त्रिशाखा,पंचशाखा द्वार सप्तशाखा, नवशाखा द्वार उत्तरंग महाद्वार खिड़की जाली एवं गवाक्ष जिन मन्दिर में मंडप बलाणक प्रतोली चौकी मंडप विश्वकर्मा कथित २७ मंडप गूढ़ मंडप वितान (गूमट) संवरणा गर्भगृह शिखर शिखर की रचना कला रेखा त्रिखंडा कला रेखाओं की सारणी ग्रीवा, आमलसार,कलश का मान शुकनासिका का पान, कपिली सुवर्ण पुरुष कलश ध्वजा (पताका) ध्वजाधार शिखर कलश से ध्वजा की ऊंचाई का फलाफल ध्वजा पर देवता की प्रतिष्ठा विधि ध्वजा प्रथम फड़कने का फलाफल
१७५
१७७ १८१ १८४
१८८ १९८
१९९ २०१ २०३ २०५ २०५ ২dly २०८ २०९ २११ २१३ २१४ २१५
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२२१ २२३ २२४
२२५
२२६
२२८ २२८ २२९ २३०
MAM
२३३ २३४
२३५
वेदी प्रतिमा प्रकरण वेदी प्रकरण वेदी निर्माण करते समय ध्यान रखने योग्य बातें पीठिका वेदी की सजावट मंदिर में स्थापित की जाने योग्य प्रतिमा का आकार जिन प्रतिमा प्रकरण प्रतिमा निर्माण के द्रव्य पोली एवं कृत्रिम द्रव्यों की प्रतिमा का निषेध गर्भगृह में प्रतिमा का प्रमाण गर्भगृह में प्रतिमा स्थापना का स्थल दृष्टि प्रकरण जिन प्रतिमा निर्माण प्रारंभ करने के लिए शुभ मुहूर्त प्रतिमा हेतु शिला परीक्षण शिला के शुभ लक्षण, शिला लाने की प्रक्रिया शिला से प्रलिगःनिर्माण की दिशा प्रतिमा का आसन जिन प्रतिमा के लक्षण, अरिहन्त प्रतिभा के विशेष लक्षण तीर्थकर प्रतिमा के आसन जिन प्रतिमा का वर्ण प्रतिमा का ताल मान जिन्न प्रतिमा का मान पद्मासन प्रतिमा का मान पद्मासन प्रतिमा के प्रत्येक अंगका विस्तत विवेचन कायोत्सर्ग प्रतिमा का मान कायोत्सर्गप्रतिमा के मान का विस्तृत विवरण जिन मंदिर में दोषयुत प्रतिमा का फल तीर्थकरों के चिन्ह प्रशस्ति लेख, प्रतिष्टित प्रतिमा की स्थापना सिंहासन का स्वरुप जिनेन्द्र प्रतिमाओं के विशेष लक्षण प्रातिहार्य भामण्डल, घण्टा अर्पण अष्ट गंगलद्रव्य धंत्र
२३६ २३६ २३७ २३८ २३९ २४० २४२
२४५
२५०
२५४
२५६
२६१ २६२ २६५
२६७
२६९ २७० २७३
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देव-देवी प्रकरण
२७५
२७७
२७८
२७९ २८० २८१ २८२ २८३ २८४ २८५ २८६ २८७
२८८
२८९
शासन देव देवियां तीर्थकर के यक्ष यक्षिणी देवों के नाम ऋषभनाथ - गोमुख यक्ष ऋषभनाथ-चक्रेश्वरी देवी अजितनाथ - महायक्ष, अजिता देवी संभवनाथ - त्रिमुख यक्ष, प्रज्ञप्ति देवी अभिनंदननाथ - यक्षेश्वर यक्ष, वज श्रृंखला देवी सुमतिनाथ - तुम्बरु यक्ष, पुरुषदत्ता देवी पद्मप्रभ - पुष्प यक्ष, मनोवेगा देवी सुपार्श्वनाथ - मातंग यक्ष, काली देवी चन्द्रप्रभ - श्याम यक्ष, ज्वालामालिनी देवी सुविधिनाथ - अजित यक्ष, महाकाली देवी शीतलनाथ - ब्रह्म यक्ष,मानवी देवी श्रेयांसनाथ - ईश्वर यक्ष, गौरी देवी वासुपूज्य - कुमार यक्ष, गांधारी देवी विमलनाथ - चतुर्मुख यक्ष, वैरोटी देवी अनंतनाथ - पाताल यक्ष, अनंतमती देवी धर्मनाथ-किन्नर यक्ष, मानसी देवी शांतिनाथ - गरुड यक्ष, महा मानसी देवी कुंथुनाथ-गन्धर्व यक्ष, जया देवी अरहनाथ - खेन्द्र यक्ष, तारावती देवी मल्लिनाथ - कुबेर यक्ष, अपराजिता देवी मुनिसुव्रतनाथ - वरुण यक्ष, बहुरुपिणी देवी नमिनाथ - भृकुटियक्ष, चामुन्डा देवी नेमिनाथ - योमेद यक्ष, आम्रा देवी पाश्वनाथ-धरण यक्ष पार्श्वनाथ-पद्मावती देवी वर्धमान - मातंग यक्ष, सिद्धायिका देवी दिक्पाल प्रकरण, स्वरुप, इन्द्र दिक्पाल- अग्नि, यम, नैऋत दिक्पाल- वरुण, वायु, कुबेर दिक्पाल-ईशान, नागदेव, ब्रह्मदेव
२९०
२९१ २९२ २९३ २९४
२९५
२९६ २९७ २९८ २९९ ३०० ३०१ ३०३ ३०४ ३०५ ३०६ ३०७
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३०८ ३०९ ३१० ३११ ३१२ ३१३ ३१४ ३१५
३१६
क्षेत्रपाल प्रकरण, स्वरुप क्षेत्रपाल देव का स्वरुप मणिभद्र यक्ष स्वरुप, सर्वान्ह यक्ष घंटाकर्णयक्ष यक्ष मन्दिर विद्या देवियां विद्या देवियां- रोहिणी-प्रज्ञप्ति विद्या देवियां- वजश्रृंखला और वजांकुशा विद्यादेवियां-जाम्बुनदा पुरुष दत्ता विद्या देवियां- काली, महाकाली विद्या देवियां- गोरी, गांधारी विद्या देवियां-ज्वालामलिनी, मानवी विद्या देवियों - वैरोटी, अच्युता विद्या देवियां- मानसी, महामानसी जैनेतर टेवों का पंचायतन, सूर्य, गणेश, विष्णु, शविते, रुद्र गणेश, चतुर्मुख शिव मंदिर सूर्य ग्रह मंदिर में नवग्रहों का स्थान गौरी आयतन, एक द्वार शिव मंदिर
३१७ ३१८ ३१९ ३२० ३२१ ३२२ ३२४ ३२५ ३२५
३२७ ३२८
३२९
३२९
विविध निर्देश गृह चैत्यालय विभिन्न दिशाओं में गृह चैत्यालय बनाने का फल गृह चैत्यालय में प्रतिमा स्थापन के लिए निर्देश गृह चैत्यालय में रखने योग्य प्रतिमा का आकार गृह चैल्यालय में शुचिता प्रकरण पूजा करने की दिशा जिन मंदिरों से निकलने की विधि, प्रदक्षिणा विधि जैनेतर गृह मंदिर में निषेध वसतिका एवं निषीधिका प्रकरण, वसतिका, स्वरुप वसतिका - दिशा निर्देश निषीधिका - दिशा निषीधिका- पूज्यता पंचकल्याणक प्रतिष्ठा मंडप प्रतिष्ठा मंडप पांडुक शिला स्तूप
३३१ ३३२ ३३३ ३३४ ३३५ ३३६ ३३७
३३८
३४०
३४१
३४२
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खण्डित प्रतिमा प्रकरण प्रतिमा के अंग भंग होने के फल जीर्णोद्वार प्रकरण प्रतिमा उत्थापन एवं सकल्प विधि प्रतिमा का मंजन, मन्दिर में अशुद्ध द्रव्य का प्रवेश वजलेप वास्तु शांति विधान वास्तु पुरुष प्रकरण
३४४ ३४६ ३४७ ३५० ३५१ ३५२
३५४
ज्योतिष प्रकरण
३५७
३५७
३५८ ३५९ ३५९ ३६०
३६१
३६१ ३६२
वास्तु ज्योतिष प्रकरण : कार्य प्रारंभ मुहूर्त का चयन मंदिर आरंभ के समय राशि सूर्य फल मंदिर आरंथ के समय मन्दिर कार्य आरम्भ के समय निर्बल ग्रह मन्दिर आरंभ के लिए लान शुद्धि लम से संबधित मन्दिर की आयु विचार लग्न से संबंधित मंदिर का फलाफल विचार मन्दिर आरम्भ के समय कुयोग और उसका फल राहूचक्र निर्देश वार वशेन राहू वास, राहू दिशा कार्य फल मन्दिर आरंभ के समय बारह भावों में नवग्रहों का शुभाशुभ कथन वेध प्रकरण, वेध के प्रकार संख्याओं के अनुसार वेध फल, वेध परिहार द्वार वेध विचार
अपशकुन एवं अशुभ लक्षण मन्दिर में महादोष, मन्दिर निर्माण में वास्तु दोष दिशामूढ के अन्य प्रकरण, छायाभेद वास्तु दोषों के अन्य भेद तीर्थंकर प्रतिमा निर्णय तीर्थकर एवं प्रतिमा स्थापनकर्ता की राशि का मिलान चक्र प्रतिमा स्थापनकर्ता एवं तीर्थंकर की राशि का नवांश.मिलान
३६३
३६४ ३६५ ३६६ ३६७ ३६८ ३६९ ३७० ३७२ ३७३ ३७४
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प्रासाद भेद प्रकरण
प्रासादों के भेद
केसरी आदि पच्चीस प्रासादों के नाम
विभिन्न देवताओं के लिए उपयुक्त प्रासाद
केसरी प्रासाद
सर्वतोभद्र प्रासाद
नन्दन, नन्दिशाल, नन्दीश प्रासाद
मन्दर प्रासाद
श्रीवृक्ष प्रासाद
अमृतोद्भव, हिमवान प्रासाद
हेमकूट, कैलास, पृथिवीजय प्रासाद
इन्द्रनील प्रासाद
महानील, भूधर प्रासाद रत्नकूट प्रासाद
पद्मरागसा
मुकुटोज्जवल प्रासाद ऐरावत, राजहंस प्रासाद
पक्षिराज, वृषभ प्रासाद
मेरु प्रासाद
वैराज्यादि प्रासाद
देवताओं के अनुकूल प्रासाद
वैराज्य प्रासाद नन्दन सिंह प्रासाद
श्री नन्दन, मन्दिर प्रासाद
मलय, विमान, विशाल प्रासाद
त्रैलोक्य भूषण, माहेन्द्र प्रासाद रत्न शीर्ष, सिलश्रृंग, भूधर प्रासाद भुवनमंडन, त्रैलोक्य विजय क्षितिवल्लभ प्रासाद
महीधर, कैलास प्रासाद
नवमंगल, गंधमादन, सर्वांग सुन्दर प्रासाद
विजयानन्द, सर्वांग तिलक, महाभोग, मेरु प्रासाद
मेरु आदि २० प्रासाद
तिलक सागर आदि २५ प्रासाद
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जिनेन्द्र प्रासाद प्रकरण
जिनेन्द्र प्रासाद जिन मंदिरों में मंडपक्रम चौबीस तीर्थकरों के लिए मन्दिर की रचना तीर्थंकर ऋषभनाथ, ऋषभ जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थंकर अजितनाथ, अजित जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थंकर संभवनाथ, संभव जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थकर अभिनंदननाथ, अभिनंदन जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थंकर सुमतिनाथ, सुमति जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थकर पद्मप्रभ, पदाप्रभ जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ, सुपार्श्वजिन वल्लभ प्रासाद तीर्थंकर चन्द्रप्रय, चन्द्रप्रभ जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थकर सुविधिनाथ, सुविधि जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थंकर शीतलनाथ, शीतल जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थंकर श्रेयांसनाथ, श्रेयांस जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थकर वासुपूज्य, वासुपूज्य जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थकर विमलनाथ, विमल जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थंकर अनंतनाथ. अनंत जिन बल्लभ प्रासाद तीर्थकर धर्मनाथ, धर्म जिन बल्लभ प्रासाद तीर्थंकर शांतिनाथ, शांति जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थकर कुन्थुनाथ, कुन्थु जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थकर अरहनाथ,अरह जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थकर मल्लिनाथ, मल्लि जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ, मुनिसुव्रत जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थंकर नमिनाथ, नमि जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थकर नेमिनाथ, नेमि जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थकर पार्श्वनाथ, पार्व जिन वल्लभ प्रासाद तीर्थंकर वर्धमान, वीर जिन वल्लभ प्रासाद
४२५ ४२६ ४२६ ४२७ ४२८. ४२९ ४३१ ४३३ ४३४ ४३६ ४३७ ४३८ ४३९ ४४१ ४४३
४४८
४४९ ४५०
३५१
४५२ ४५३ ४५४ ४५६ ४५८ ४६०
उपसंहार
४६२
शब्द संकेत
पारिभाषिक शब्द संकेत
४६४
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(देव शिल्प
णमो अरिहन्ताणं
णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमोलोए सव्व साहणं
एसो पंचणमोक्कारो सच्च पावप्पणासणो। मंतालाणं च सव्वेसिं पढ़म हवई मंतालं ।।
चत्तारि मंगलं। अरिहन्त मंगलं । सिद्ध मंगलं । साहू मंगल । केलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं ।
चत्तारि लोगुत्तमा। अरिहन्त लोगुंत्तमा। सिद्ध लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमो ।
केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारिसरणं पव्वजामि। अरिहन्त सरणं पव्वजामि । सिद्धसरणं पव्वग्जामि ।
साहूसरणं पव्वज्जामि। केलि पण्णत्तं धम्मं सरणं पत्वज्जामि ।
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(दिव शिल्प)
ॐ नमी जिनाय
॥ श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः ॥
॥ श्री चतुर्विंशति तीर्थंकरेभ्यो नमः ॥
॥ श्री गणधराचार्य कुन्थुसागराय नमः ॥
卐
**
मंगलाचरण
A
३
पणमिय आदि जिणंद, पढमं वित्थयरं धम्मकत्वारं 1 वोच्छामि वत्थुसत्थं, जिणचेइय चेइयालयानं 11 एदम्मि वत्थुगंथे, जिणायाराणं विभिण्ण भैयाणं । पडिमाण य प्पमाणं, सुहासुहृप्परुवणं चात्थि 11 पणमामि महावीरं सरस्सई तहेव गणहराणंपि सव्वेसिं । गुरु कुन्थुसायरमवि वियरण सुद्धों णमस्सामि ||
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देव शिल्प)
VAANAANANANANA
देवा सुरेन्द्र नर नाग समर्चितेभ्यः पाप प्रणाशकर भव्य मनोहरेभ्यः घंटा ध्वजादि परिवार विभूषितेभ्यो नित्यं नमो जगति सर्व जिनालयेभ्यः
B
CALALALALAENEAN
૪
देवेन्द्र, असुरेन्द्र, चक्रवर्ती, धरणेन्द्र ने जिनकी सम्यक प्रकार से पूजा की है, पापों का नाश करने वाले हैं, भव्य जीवों के मन को आकर्षित करते हैं, घण्टा, ध्वजा, माला, धूपघट, अष्ट मंगल, अष्ट प्रातिहार्य आदि मंगल वस्तुओं के समूह से सुसज्जित हैं, अलंकृत हैं ऐसे तीन लोक में स्थित सभी जिन मन्दिरों के लिये प्रतिदिन / प्रत्येक काल सदा सर्वदा नमस्कार हो । चैत्य भक्ति ६
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(देव शिल्प
चतुर्विंशति तीर्थंकर स्तव
थोरसामि हं जिणवरे तित्थयरे केवली अणंत जिणे ।
पर पवर लोए महिए विहुय स्य मले महप्पण्णे ॥२१॥
,
मनुष्यों में श्रेष्ठ लोक में, तथा कपल को क्षय करने वाले महान आत्माओं अर्थात जिनवरों, तीर्थकरों अनंत केवली जिनेन्द्रों की मैं स्तुति करता हूं। लोयस्सुज्जोययरे धम्मं तित्थंकरे जिसे वंदे ।
अरहंते कितिस्से चौबीसं चैत्र केवलिणो ॥ २॥
लोक में उद्योत को करने वाले धर्म तीर्थ के कर्ता जिनेन्द्र देव की मैं बन्दना करता हूँ। अरहंत पदविभूषित चौबीरा भगदंतों और इसी प्रकार केवली भगवंतों का मैं कीर्तन करूंगा ।
उसह मजियं च वन्दे संभव मभिणंदणं च सुमइंच ।
पउप्पहं सुपासं जिणं ध चंदप्पहं वन्दे || 31
वृषभनाथ तीर्थंकर को अजितनाथ तीर्थंकर को मैं नमस्कार करता हूं । संभवनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ तीर्थंकर को मैं नमस्कार करता हूं। सुविहिं च पुप्फयंत सीयल सेयं च वासुपुज्जं च ।
विमल मणतं भयवं धम्मं संति च वंदामि ॥॥ ४ ॥
सुविधि अथवा पुष्पदंत, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ वासुपूज्य विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ और शांतिनाथ तीर्थंकर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ।
कुंधुं च जिण खरिद अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमिं ।
P
वंदामि रिपुणेमि तह पासं वढमाणं च ॥ ५ ॥
जिनवरों में श्रेष्ठ कुंथुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत, नमिनाथ, अरिष्टनंगि पारसनाथ और वर्धमान तीर्थंकर को मैं नमस्कार करता हूं ।
एवं मए अभिथुआ विहुय श्य मला पहीण जर मरणा । चवीस पि जिणवरा तित्थयश मे पसी यंतु ॥६॥
जो कर्मरूपी रजोमल से रहित हैं तथा जिन्होंने जरा और मरण को नष्ट कर दिया है ऐसे चौबीसों जिनवर तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न होवें ।
कित्तिय वंदिय महिया एवे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा ।
आरोग्य णाण लाह दिंतु समाहिं च मे बोहिं ॥ ७
इस प्रकार मेरे द्वारा कीर्तन किए गए, वन्दना किये गये, पूजे गए ये लोक में उत्तम जिनेन्द्रदेव सिद्ध भगवान मेरे लिए ज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न निर्मल केवल ज्ञान का लाभ, बोधि और समाधि प्रदान करें।
चंदेहि णिम्मलयरा आइच्चेंहिं अहिय पया संता । सायर मित्र गंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥८॥
चन्द्रमा से भी निर्मलतर, सूर्य से भी अधिक प्रभासम्पन्न, सागर के समान गंभीर सिद्ध भगवान मुझे सिद्धि को प्रदान करें ।
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(देव शिल्प
जिन भवन महिमा भारतीय संस्कृति में स्तुति पाठ का अपना विशिष्ट स्थान है। साधारण शान वाला उपासक भी प्रभु की उपासना स्तुति पाठ करथे लेता है विभिन्न संतों एवं कवियों ने विभिन्न भाषाओं में स्तुति पाठ किये हैं उहें सामान्य गृहस्थ भी पढ़कर अपना कल्याण प्राप्त करते हैं।
जिनेन्द्र प्रभु का मन्दिर उपासक के मन को बाह्य रूप से ही आल्हादित कर देता है। उनकी महिमा का दर्शन करते ही उपासक के चित्त में भक्तिभाव उमड़ पड़ता है तथा प्रमुदित मन से वह प्रभु चरणों में स्वयमेव नतमरतक हो जाता है। जिन मन्दिर का वैभव उसके मनोभावों को और अधिक प्रमुदित करता है।
आचार्य सकलचन्द्र मुनि ने अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति एक संस्कृत स्तोत्र रचना के माध्यम से की है। ये मनोभाव तब प्रकट हुए हैं जब उन्होंने अत्यन्त विनय भाव से जिन भवन की ओर प्रस्थान किया तथा जिन भवन के बाहा रुप की शोभा के दर्शन किये । तदनन्तर जिनालय में प्रवेश करके उन्होंने त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्र प्रभु के दिव्य रुप को प्रकट करने वाले जिन बिम्ब के दर्शन किये।
यहाँ पर उनके द्वारा रचित एक विशिष्ट स्तोत्र का भावार्थ प्रस्तुत है जिससे पाठकगण जिनेन्द्र प्रभु के मन्दिर की महिमा का अवलोकन कर पायेंगे -
दृष्ट जिनेन्द्र भवनं भवताप हारे, भव्यात्मनां विभव संभव भूरि हेतु दुग्धाब्धि फेन यवलोज्ज्वल क्ट कोटी नब्द प्वज प्रकर राजि विराजमान ।।
मैंने आज जिनेन्द्र प्रभु के मन्दिर के दर्शन किये जो कि मेरे भवरोग (जन्म-मरण के चक्र) को दूर करने वाला है। जिसके दर्शन रो असीमित वैभव की प्राप्ति होती है। जो दुग्ध एवं समुद्रफेन की गांति धवल (श्वेत) एवं उज्ज्वल शिखरों से युक्त हैं। जिसके शिखर ध्वजों की पंक्तियों से शोभान्वित हो रहे हैं। ऐसे जिन भवन के आज मैं दर्शन कर रहा हूँ।
दृष्टं जिनेन्द्र भवनं भुवनेक लक्ष्मी थाम िवर्पित महामुनि सेव्यमानम् । विद्याधरामर वजज मुक्त दिव्य पुष्पांजलि प्रकर शोभित भूमि भागम् ।।२।।
आज गर्ने ऐसे जिला के दर्शन किए जहाँ पर त्रिभुवन लक्ष्मी का निवास है तथा जहाँ पर विद्याधरों एवं देव-देवियों द्वारा अर्धित पुष्पांजलि वहां की भूमि की शोभा में अभिवृद्धि कर रही है। ऐसे जिनालय में महानऋद्धि धारी मुनिगण जिनेन्द्र प्रभु की चरण सेवा में निमग्न हैं।
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(देव शिल्प)
टष्टं जिनेन्द्र भवनं भवनादि वास विख्यात नाक गणिका गण गीयमानम् । नानामणि प्रचव भासुर रश्मिजाल ।
व्यालीढ निर्मल विशाल गवाक्ष जालम् ||३१| आज मैंने ऐसे जिन भवन के दर्शन किये जहाँ वासी देवों की गणिक गीत गा रही हैं। यह जिन भवन विशाल झरोखों से युक्त हैं तथा विभिन्न प्रकार की चमकदार मणियों की झिलमिलाहट झरोखों की शोभा बढ़ा रही है।
दृष्टं जिनेन्द्र भवनं सुर सिद्ध यक्ष गन्धर्व किन्नर करार्पित वेणु वीणा ।
संगीत मिश्रित नमस्कृत धीर नादै ।
8
७
रापूरिताम्बरतलोरु दिगन्तरालम् ||४||
जिन भवन में आकाश एवं दिशाओं के देव, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर आदि जब जिनेन्द्र प्रभु को नमस्कार करते हैं तब उनके हाथों से वेणु निर्मित वीणा से जो संगीत ध्वनि निकलती है वह सारे जिनालय में भर जाती है। ऐसी मंगल ध्वनि से युक्त जिनालय के आज मैंने दर्शन किये।
दृष्टं जिनेन्द्र भवनं मणिरत्न हेप सारोज्ज्वलैः कलश चामर दर्पणाद्यैः ।
दृष्टं जिनेन्द्र भवनं विलसद् विलोल
माला कुलालि ललितालक विभ्रमाणम् ।। माधुर्य वायलय नृत्य विलासिनीनां
लीला चलद् वलय नूपुर नाद स्म्यम् || ५ ||
आज मैंने ऐसे जिन भवन के दर्शन किये जो कि सुन्दर मालाओं से युक्त हैं, जिन मालाओं पर भ्रमर मंडरा रहे है तथा ये मालाएं अति सुन्दर अलकों की शोभा धारण कर रही हैं। यह जिन भवन मधुर शब्द युक्त वाद्य, लय के साथ नृत्य करते हुए नृत्यांगनाओं के हिलते हुए वलय तथा घुंघरुओं के नाद से रमणीय प्रतीत हो रहा है।
सन्मंगलैः सततमष्ट शतप्रभैदे,
विभाजितं विमल मौक्तिक दामशोभम् ||६|
आज मैंने ऐसे जिन भवन के दर्शन किये जो मणिमथ, रत्न एवं स्वर्ण निर्मित एक सौ आठ कलशों से शोभान्वित हैं तथा निर्मल मोतियों की मालाएं उसकी शोभा में वृद्धि कर रही हैं।
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(देव शिल्प
८)
दृष्टं जिनेन्द्र भवनं वर देवदारु कपर चन्दन तरुष्क सुगन्धि धूपैः । मेघावमान गगने पवनाभिघात चंचल चलद विमल केतन तुंग शालम् ||७||
आज मैंने ऐसे जिन भवन के दर्शन किये जो पवन की लहरों से हिलती हुई पताकाओं से शोभायमान हैं तथा जहाँ पर उत्तम शाल, देवदारु, कपूर, चन्दन और तुरुष्क आदि सुगन्धित द्रव्यों से निर्मित धूप खेने से सुगन्धित धूम्र के बादल उत्तम मेघों की भांति छाये हुए हैं।
दृष्टं जिनेन्द्र भवन धवलातपत्रच्छाया जिमउन तनु यक्षकुमार वृन्दैः । दोद्यपान सित चामर पंवित भास भामण्डल युति युत प्रतिमाभिराम् ।।८।।
आज मैंने ऐसे जिन भवन के दर्शन किये जो शुभ्र आत पत्र की छाया में यक्ष कुमारों के द्वारा दुरते हुए चामरों की पंक्ति की शोभा से समन्वित हैं। जिन प्रतिमाओं के पीछे लगे भामण्डल की चमक से नयनाभिराम दृश्य लग रहा है।
दृष्टं जिनेन्द्र भवनं विविध प्रकार पुष्पोपहार रमणीय सुरत्न भूमि। नित्यं वसन्ततिलक श्रियमादधानं सन मंगलं सकलचन्द्र मुजीन्द्र वन्यम् ।।९।।
आज मैंने सकलचन्द्र गुनिराज के द्वारा सदा वन्दनीय जिनेन्द्र भवन को दर्शन किये जो कि सर्वोत्तम मंगलरुप है तथा निरन्तर वसन्त ऋतु में तिलक वृक्ष के समान शोभायमान है । जहाँ की रत्नभय भूमि विविध पुष्य उपहारों से रमणीय लग रही है। ऐसी भूमि की उपासना सकल चन्द्रगा के समान सदा सुखकर मुनिराज भी करते हैं।
दृष्टं पयाय मणिकांचन चित्र तुंगा। सिंहासनादि जिनबिम्ब विभूतियुक्तम् । चैत्यालयं यदतुलं परिकीर्तितं में सन् मंगलं सकलचन्द्र मुजीन्द्र वन्यम् ।।१०।।
आज मैंने ऐसे जिन चैत्यालय के दर्शन किये जिसमें मणि कांचन से सहित विचित्र शोभा को धारण करने वाले सिंहासन आदि विभूति से युक्त जिनेन्द्र प्रतिमा विराजमान है। जिसका कीर्तिगान सर्वत्र गाया जाता है, जो मेरे लिए मंगल स्वरुप है तथा पूर्ण चन्द्रमा की भांति सबको सुखकर है ऐसे चैत्यालय के दर्शन सकलचन्द्र मुनि (मैंने) ने किये हैं।
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देव शिल्प
मन्दिर की आवश्यकता
मनुष्य का मन अति चंचल होता है । मन की गति की कोई सीमा अथवा रोक उसके पास नहीं होती। क्षण मात्र में विश्व के एक सिरे से दूसरी ओर मन घूम आता है। ऐसे चंचल म. को नियंत्रण में रखने के लिए धर्म के अतिरिक्त और कोई समर्थ नहीं है। इसी मन को यदि भगवान जिनेन्द्र के गुणानुराग में लगाया जाये तो कर्म बन्धन ढीले पड़ जाते हैं। इसीलिए मुनि एवं गृहस्थ दोनों के लिये यह परम आवश्यक है कि वह अपने मन को सांसारिक विषय वासनाओं के जंजाल से निवृत कर धर्म ध्यान में केन्द्रित करे।
जिन महापुरुषों ने कर्म बन्धन को काटकर मोक्ष पद प्राप्त कर लिया है है उन महापुरुषों का गुणानुराग करने के लिए उनकी पूजा की जाती है। चूंकि हमारा मन अति चंचल है अतएव उन महापुरुषों की प्रतिकृति प्रतिमा के रुप में निर्मित की जाती है । इन प्रतिकृति को देखकर मन में उन महापुरुष के प्रति श्रद्धा भाव उत्पन्न होते हैं। उनके गुणों को जानने की तथा उनके निर्दिष्ट मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त होती है। प्रतिमा किसी भी द्रव्य की निर्मित की जा सकती है। शास्त्रानुसार प्रतिमा का निर्माणकर उसकी प्रतिष्ठा करने के उपरांत उस प्रतिमा में भी देवत्व प्रकट होता है। इसीलिये जैन धर्म में महापुरुष की अर्चना प्रतिमा के माध्यम से करने का निर्देश दिया गया है। जहां एक ओर महापुरुष को देवता माना जाता है वहीं दूसरी ओर उनकी प्रतिमा को भी देवता माना जाता है। प्रतिमा को पूजने का अर्थ पाषाण की पूजा कदापि नहीं है । वह तो महापुरुष अथवा भगवान का साकार रुप है । मन की चंचलता यदि वश में आ जाये तो पूजा करने की ही आवश्यकता शेष न रहे । मन की चंचल अवस्था के कारण ही साकार पूजा की जाती है।
जिस प्रकार धर्ग पूज्य है, धर्म नायक पूज्य है, धर्म गुरु पूज्य है, धर्म नायक महापुरुष की प्रतिमा पूज्य है, उसी प्रकार उनकी प्रतिमा के रहने का स्थान भी आराधना स्थल है। मन्दिर भी देवता स्वरूप है एवं भगवान की भांति हो भगवान का गन्दिर भी पूज्य है। यही वह स्थान है जहाँ चंचल मन विश्रांति पाता है तथा संसार सागर रो पार उतरने का आश्रय प्राप्त करता है । यह आराधना स्थल, जिसे देवालय, मन्दिर, प्रासाद, जिन भवन आदि पृथक-पृथक नामों से वर्णित किया जाता है, देवता स्वरुप पूज्य है।
प्राचीन काल से ही मनुष्य साकार पूजा कर रहा है तथा अपनी कल्पना के अनुरूप देवालय की रचना कर रहा है। मध्यकाल में लम्बे समय तक विधर्मियों के द्वारा साकार पूजा पद्धति को समूल नष्ट करने के लिए लाखों मन्दिरों एवं प्रतिमाओं को निर्दयता पूर्वक विध्वंस किया गया, किन्तु भीषण आघातों के उपरांत भी धर्म की जड़ को वे उखाड़ न सके तथा पुनः धर्म मार्ग की स्थापना हो गई। इस काल में अनेकों सम्प्रदायों ने मूर्तिपूजा पद्धति ही समाप्त कर दो विन्तु मन्दिरों का निर्माण करते रहे । मन्दिरों के माध्यम से धर्म का आधार रामाप्त नहीं होने पाया।
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(देव शिल्प
१०) मन्दिरों के निर्माण में वास्तु शिल्पकारों ने अपनी बुद्धिमत्ता का भरपूर उपयोग विाया। प्राचीन परम्पराओं एवं शास्त्रों के आधार पर निर्मित मन्दिरों ने भारत के सांस्कृतिक गौरव को स्थापित किया। यही वह आधार था जिस पर आघात करके विधर्मी अपना धर्म स्थापित करना चाहते थे। उनका विचार था कि यदि भारत स्थापत्यकला एवं संस्कृति को समाप्त कर दिया जायेगा तो भारत में वे अपना धर्म आसानी से प्रचारित कर लेंगे। किन्तु भारतीय संस्कृति के स्थापत्य गारव के भग्न अवशेषा ने पुनर्जीवन प्राप्त कर पुनः सांस्कृतिक वैभव को प्राप्त किया।
मन्दिर की आवश्यकता का एक अन्य पहलू उसका ऊर्जामय वातावरण है। मन्दिर की आकृति एवं वहां निरन्तर मन्त्रों के पाठ की ध्वनि का परावर्तन आराधक को ऊर्जा प्रदान करता है। जब हम पापमय स्थानों में जाते हैं तो स्वाभाविक रुप से हमारे मन में पाप करने का कुविचार आते हैं। मन्दिर में इसके विपरीत आराध्य प्रभु के प्रति विनय, श्रद्धा तथा शरणागति के भाव उत्पन्न होते हैं। मन्दिर का शांत ऊर्जामय वातावरण मन की चंचल गति को स्थिरता देता है। अनायास ही हमारे मन में भगवान की भक्ति, अनुराग तथा उनके गुण ग्रहण करने की भावना होती है।
जैन शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि जिन बिम्ब का दर्शन कर्म क्षय का हेतु है। इसका तात्पर्य यह है कि जिनेन्द्र प्रभु की प्रतिमा मात्र का दर्शन भी सुख पाने के लिए समर्थ निमित्त है, क्योंकि कर्मक्षय ही शाश्वत सुख पाने का एकमात्र कारण है। शास्त्रों में यह भी उल्लेखित है कि प्रथम बार सम्यग्दर्शन जिनेन्द्र प्रभु के पादमूल में ही होता है। जिन मन्दिर भी उनके बिम्ब का स्थान होने से सम्यादर्शन प्राप्त करने का सशक्त निमित्त है। अतएव जिन बिम्ब एवं जिन-मन्दिर धर्म का एक शाश्वत स्थान है।
___ मन्दिर की सर्वाधिक आवश्यकता है जनसामान्य को आराधना के लिये । मन्दिर स्थापनकर्ता के अतिरिक्त हजारों वर्षों तक असंख्य लोग निरन्तर भगवान की पूजा अर्चना करके अपना आत्मकल्याण करते है। उनकी पूजा में मन्दिर निमित्त बनता है। अतएव मन्दिर निर्माता को पूजा की अनुमोदना का फल मिलता है।
चिरकाल तक पीढ़ी दर पीढ़ी जिस स्थल पर उपासना होती है उस स्थान का कण-कण पूज्य हो जाता है । वह स्थल तीर्थ बन जाता है । तीर्थ का अर्थ है-तारने वाला । असंख्य लोगों को भवसागर से पार लगाने के लिये तीर्थ स्वरूप मन्दिर की महिमा का गुणगान निरन्तर होता रहा है, आगे भी होता रहेगा।
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देव शिल्प
मन्दिर निर्माण का पुण्य फल
जो गृहस्थ अपनी क्षमता के अनुरुप प्रभु का मन्दिर बनवाता है, वह असीम पुण्य का अर्जन करता है तथा वर्तमान एवं भविष्य दोनों को सुखी करता है। अनेको जन्म के पुण्य संचय से यह अवसर उपस्थित होता है कि वह प्रभु का मन्दिर बनवाये। शिल्प शास्त्रों में भी नवीन मन्दिर को निर्माण करवाने वाले को असीम पुण्यार्जन का उल्लेख उपलब्ध होता है। *
करोड़ों वर्षों के उपवास का फल, जन्म जन्मान्तरों में किया गया तप तथा करोड़ों दानों में करोड़ दान का फल यदि किसी को एक साथ मिल जाये वह फल एक नवीन जिन मन्दिर निर्माण कराने वाले उपासक को मिलता है। **
जो उपासक लकड़ी अथवा पाषाण का मन्दिर निर्माण करवाता है उसे इतना अधिक पुण्य मिलता है कि वह चिरकाल तक देव लोक में सुख भोगता है।#
स्वशक्ति के अनुरुप लकड़ी, ईंट, पाषाण, स्वर्ण आदि धातु, रत्न का देवालय उपासक को निर्माण करना चाहिये। ऐसा करने से चारों पुरुषार्थ अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि होती है ।$
देव प्रतिमाओं की स्थापना, पूजा, दर्शन करने से उपासक के पापों का हनन होता है तथा उसको धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चारों की प्राप्ति होती है।
११.
यदि कोई घास का देवालय भी बनाता है तो कोटि गुणा पुण्य का अर्जन करता है। मिट्टी का देवालय बनाने वाला उससे दश गुणा अधिक पुण्य कमाता है। ईंट का देवालय बनाने वाला निर्माण उससे भी सौ गुणा पुण्य अर्जन कर अपना जीवन सुखी करता है। पाषाण निर्मित देवालय निर्माण करने वाला जिन भक्त अनन्त गुणा पुण्य फल प्राप्त करता है।
* कोटे वर्षोंवारुश्च तप वै जन्म जन्पनि ।
कोटि दानं कोटि दाने, प्रासाद फल कारणे ।। शि. र. १३/८५
**
"काष्ठ पाषाण निर्माण कारिणो यत्र मन्दिरे । "
भुंजतेऽसौ च तत्र सौख्यं शंकरत्रिदशैः सह । प्रा. मं. ८/८४ #स्वशक्त्या काष्ठ मृदिष्टक। शैल धातु रत्नजम् । देवतायतनं कुर्याद् धर्मार्थ काममोक्षदम् । प्रा मं. १ / ३३ $ देवानां स्थापनं पूजा पापघ्नं दर्शनादिकम् : धर्मवृद्धिर्भवेदर्थः काम मोक्षस्ततो नृणाम् ।। प्रा. पं. १ / ३४ @ कोटिप्न तृणजे पुण्यं मृण्मयै दशसंवगुणम् ।
ऐष्टके शतकोटिघ्नं शैलेऽनन्तं फलं स्मृतम् ।। प्रा.म. ५/३५
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देव शिल्प
१२
अतएव सुख की इच्छा रखने वाले गृह को चाहिये कि वह अपने जीवनकाल में अपनी शक्ति के अनुरूप जिनेन्द्र प्रभु का मन्दिर अवश्य निर्माण कराये। यह मन्दिर अनेकों पीढ़ियों तक भव्यजन उपासकों के लिए प्रभु भक्ति का निमित्त कारण बनता है। असंख्य जीव इस मन्दिर के दर्शन कर पुण्य लाभ करेगें । अतएव प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों रूप से यह जीव लिए अत्यंत हितकारी है। जैन जैनेतर सभी शास्त्रों में मन्दिर निर्माणकर्ता के लिए असीग पुण्य फल की प्राप्ति का वर्णन देखने में आता है।
उमास्वामी श्रावकाचार में आचार्य श्री का स्पष्ट निर्देश है कि जिन मन्दिर एवं जिन प्रतिमा का निर्माण यथा शक्ति करना चाहिये। उन्होंने तो यहाँ तक लिखा है कि जो भव्य जीव एक अंगुल प्रमाण की प्रतिमा को भी कराकर उसकी नित्य पूजा करता है उसके पुण्य संचय को कहना शब्दों की सामर्थ्य में नहीं है। जो पुरुष बिम्बा फल (भिलावा) के पत्ते के समान अत्यंत लघु चैत्यालय (मन्दिर) बनवाता है तथा उसमें जौ के आकार की प्रतिमा रखाकर उसकी नित्य पूजा करता है, उस गृहस्थ का पुण्य अत्यंत महान होता है तथा उसके संसार चक्र का किनारा अब अत्यंत निकट है अर्थात् वह शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करता है।
•
(उ.श्रा. १२४, ११५)
*अष्टमात्र वियतयः कृत्वा नित्यर्चयेत् । तत्फलन वस्तु हि शक्यते : संख्यपुण्ययुक् ॥ उ. श्री. ११५
बिन्यादरायतु बिम्बकम |
चः करोति तर मुक्तिर्मयति सन्निधिः ! 3 श्री. ५५
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देव शिल्प)
१३
जिनालय माहात्म्य
वास्तुशास्त्र के विविध वर्णनों में शास्त्रकारों ने जिनेन्द्र मंदिरों (जिनालयों) का महत्व एवं प्रभाव अपनी शैलियां में प्रस्तुत किया है। जैन धर्मावलम्बियों के अतिरिक्त अन्य रामाज एवं राष्ट्र के लिये भी ये मंदिर मंगलकारी हैं। जो भी व्यक्ति अपने पूरे जीनकाल में एक चावल के दान के बराबर भी जिन प्रतिमा बनवाकर मन्दिर में स्थापित करता है वह जन्म जन्मातर के पापकों का क्षय कर अनन्त सुख का अधिकारी बनता है। जिन वीतराग प्रभु स्वयं तो महान सुख को प्राप्त कर सिद्धशिला पर विराजमान हैं लेकिन एकदा तीच सुख की प्राप्ति होती है। अतएव किसी भी परिस्थिति में अपनी शक्ति के अनुरुप यह कार्य अपने जीवन में करने का लक्ष्य रखना चाहिये ।
जिनेन्द्र मंदिर सर्व पूजनीय हैं, प्रजा को सुखदायक है, सर्व मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। सभी को तुष्टि, पृष्टि, सुख, समृद्धि की प्राप्ति कराने के लिये समर्थ कारण हैं। रार्व लोक भी शांति का प्ररगर करने वाले हैं। राजा प्रजा सभी के लिये मंगल स्वरुप हैं ।
शास्त्रकारों ने तो यहां तक कहा है कि चाहे परिक्रमा वाले जिनालय हों या बिना परिक्रमा बालं ये सर्व सुखकारक है। यदि चारों ओर द्वार वाले सर्वताभद्र जिनालय का निर्माण करवाकर उरामें चारों दशाओं को गुरुण करके जिनेश्वर प्रभु की प्रतिमा स्थापित की जाय तो ये सभी इच्छित फलों को प्रदान करते
है।
यदि जगती और मण्डप वाले आदिनाथ प्रभु जिनालय का निर्माण नगर में किया जाता है तो यह रात्र मंगल तथा स्वर्ग लोक एवं इह लोक दोनों की सम्पदा प्रदान करता है। *
*च्छा अधिकार से संकलित
Q:TSTER ||:| चतुविनाशेन ॥ १२७
ताबीराः पुरम सुखावहाः । करिनाः कागदाः ॥ २८ नामष्टदव प्रजाराज्य सुखावहः ।
पानी दीमिया ॥ २२९ «ilzenzafa zentiETE PÊNAL न पुरेव पारदः ॥ ५३० जगल्या मण्डताः क्रीयन्ते वसु । तुम दीयतं राज्यं स्वर्गे ॥ १३२ लक्षणन्तखाश्च प्रार्च पश्चिम दिइमुखः । तपासाचा ध्ये सुखावहाः ।। १३२.
प्राप-२ / १२५-१३२ वास्तु पारद अधिकार
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(देव शिल्प
सूत्रधार प्रकरण
जब राजा, समाज अथवा धर्मात्मा गृहस्थ यह निर्णय लेते हैं कि उन्हें देव मन्दिर का निर्माण करना है तो सबसे पहले यह भी निर्णय करना आवश्यक होता है कि किस सूत्रधार अथवा शिल्पकार के निर्देशन में मन्दिर वास्तु का निर्माण करवाया जाये। मन्दिर का निर्माण तथा साधारण वास्तु के निर्माण में महान अन्तर है। मन्दिर में देव प्रतिमा की स्थापना कर उनका प्रतिदिन पूजा, अभिषेक आदि किया जाता है। देव प्रतिमाओं की भी पंचकल्याणक, अंजन शलाका आदि प्राण प्रतिष्ठा विधियों से प्रतिष्ठा की जाती है। ऐसी परिस्थिति में यदि मन्दिर का निर्माण वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों से अपरिचित नौसिखिये अथवा अल्पज्ञानी सूत्रधार के निर्देशन में किया जायेगा तो इससे न केवल मन्दिर तथा मन्दिर निर्माता को हानि होगी बल्कि मन्दिर की व्यवस्थापक समाज, पूजक तथा शिल्पकार की भी हानि होगी। यह हानि अनेकों प्रकार की होती है तथा लम्बे समय तक इसके प्रभाव दृष्टिगत होते हैं।
चैत्यालय अथवा मन्दिर स्वयं भी देवता स्वरुप हैं। जैनधर्म में इसे नव देवताओं में सम्मिलित किया जाता है । इसके निर्माण में असावधानी तथा अज्ञानता सर्वत्र हानिकारक होगी, इसमें रान्देह नहीं है। इसी कारण चैत्यालय वास्तु के निर्माणकर्ता शिल्पकार का अनुभवी होना अत्यन्त आवश्यक है।
सूत्रधार से कार्य प्रारम्भ करने के लिये निर्माता को आदरपूर्वक अनुरोध करना चाहिये। सूत्रधार को अपनी पूरी योग्यता के रााथ भगवान की पूजा समझकर मन्दिर वास्तु का निर्माण कार्य शुद्ध मुहूर्त में प्रारंभ कर || चाहिये।
सूलधार के अपरनाम
सूत्रधार के समानार्थी अन्य प्रचलित शब्द हैं - शिल्पी, शिल्पकार, स्थपति, शिल्पाचार्य, शिल्पशास्त्रज्ञ इत्यादि।
सूत्रधार के लक्षण सुशील, चतुर, कार्यकुशल, शिल्पशास्त्र के ज्ञाता, लोभरहिल, क्षमाशील, द्विज व्यक्ति को ही सूत्रधार बनाना चाहिये । ऐसे शिल्पकार से जिस देश / राज्य में मन्दिर आदि वारतु का निर्माण किया जाता है वह राज्य प्राकृतिक आपदाओं एवं भय, चोरो आदि बाधाओं से मुक्त रहता है।
मन्दिर निर्माण का कार्य अपने हाथ में ग्रहण करने वाले सूत्रधार के लिये यह आवश्यक है कि वह शिल्पशास्त्र का पूर्ण ज्ञाता हो। शिल्पशास्त्र की आधुनिक एवं प्राचीन शैलियों से वह सुपरिचित हो। आधुनिक शैली के बेहतर साधनों को अपने में वह सिद्धहस्त हो किन्तु शास्त्र के मूल सिद्धांतों में फेरबदल न करे। उराके शिल्प शास्त्र ज्ञान के अनुरुप ही वह मन्दिर वारतु का निर्माण करने में सक्षम होगा । *(श.र. १/१,
*सुशीलश्चतुरो दक्षः शास्त्रज्ञो लोभवर्जितः । क्षमावाज स्यादडिजश्चैव सूत्रधारः स उत्त्यचे ।।
शि. र. १/१
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(देव शिल्प
१५.
कार्यकुशलता सूत्रधार का प्रमुख गुण है। सूत्रधार न केवल वास्तु निर्माण की योजना बनाता है वरन् उसे क्रियान्वित करके मन्दिर चारस्तु को तैयार करता है। उसे लम्बे समय तक शिक्षित, अल्पशिक्षित अथवा अशिक्षित कार्यकर्ताओं एवं श्रमिकों से काम करवाना होता है। कार्यकर्ताओं एवं श्रमिकों की संख्या भी सामान्यतः काकी होती है। उनकी व्यवस्था करना सूत्रधार की प्रबन्ध कुशलता पर ही निर्भर होता है।
सूत्रधार में प्रतिभा का होना अत्यंत आवश्यक है। उसकी कल्पनाशीलता तथा प्रज्ञाबुद्धि ही यह निर्णय करती है कि मन्दिर का स्वरुप क्या होगा। मन्दिर किस शैली का, किस आकार का तथा कितना कलापूर्ण होगा इसकी कल्पना कर उस स्वप्न को साकार करना ही सूत्रधार का कार्य होता है । सूत्रधार को अपनी वास्तु से उतना हीं लगाव होता है जितना पिता को अपने पुत्र से जिस तरह पिता अपने • गुणों एवं विद्या को पुत्र में आरोपित करता है तथा उसे अपने से भी श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करता है उसी प्रकार सूत्रधार भी अपनी पूरी योग्यता को अपनी वास्तु में उड़ेल देता है।
अर्थ प्रबन्ध का वास्तु निर्माण में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। मन्दिर वास्तु का निर्माण अत्यंत व्यय साध्य कार्य है। लम्बे समय तक कार्य चलने से लागत में भी वृद्धि हो जाती है। मन्दिर निर्माता के अनुमानित अर्थ प्रबन्ध के अनुरूप ही यदि वास्तु का निर्माण होता है तो मन्दिर निर्माता अपने संकल्प को हर्षपूर्वक पूरा कर पाता है तथा यह वास्तु वर्तमान एवं भविष्य दोनों में सुखदायक एवं कीर्तिवर्धक होती है। शीलवान होना सूत्रधार का आवश्यक गुण है। अपने निर्माता के प्रति ईमानदारी, निष्ठा, चायित्व का निर्वाह करने की सद्भावना प्रत्येक सूत्रधार में होना ही चाहिये । यदि सूत्रधार चरित्रहीन होगा तो उसका प्रभाव उसके द्वारा निर्मित वास्तु पर उसी तरह पड़ेगा, जिस भांति चरित्रहीन भ्रष्ट पिता का प्रभाव उसकी संतानों पर पड़ता है।
वर्तमान युग मे सूत्रधारों में चरित्र का अभाव होने का प्रभाव शासकीय वास्तु निर्माणों में आमतौर पर दृष्टिगोचर होता है। निर्माण का घटियापन, अल्पायु, कमजोर निर्माण सूत्रधार के नीचे चरित्र का उदाहरण है।
वास्तु निर्माण की शिक्षा योग्य गुरु से लेवें
वास्तुशास्त्र एक विशिष्ट शास्त्र है। इसमें उल्लेखित सिद्धांतों का अर्थ स्पष्ट हुए बिना यदि अल्पज्ञसूत्रधार शिल्प का निर्माण करता है तो उससे न तो अपेक्षित परिणाम प्राप्त होंगे न ही शिल्प निर्माणकर्ता को सुख होगा।
अतएव यह अत्यन्त आवश्यक है कि सूत्रधार को अपने योग्य गुरु से मन्दिर एवं गृह वास्तु का निर्माण करने का शिल्प ज्ञान, लक्ष्य, लक्षण का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । *
*लक्ष्यलक्षणतोऽभ्यासाद् गुरुमार्गानुसारतः । प्रासाद भवनादीनां सर्वज्ञानमवाप्यते । प्रा. ५.०/१०
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देव शिल्प
सूत्रधार का सम्मान एवं प्रार्थना
जिनालय का निर्माण प्रारम्भ करने से पूर्व निर्माता शिल्पकार का सम्मान करे । इसी प्रकार कार्य समापन करने के उपरांत भी शिल्पकार का सम्मान करें। निर्माण कार्य समापन के पश्चात निर्माण करवाने वाले स्वामी को सूत्रधार से अनुरोध पूर्वक कहना चाहिये कि "हे सूत्रधार, इस निर्माण कार्य से आपने जो पुण्य लाभ लिया है वह मुझे प्रदान करें।"
इसके उत्तर में सूत्रधार आदरपूर्वक कहे कि "हे स्वामिन्, आपका यह निर्माण अक्षय
"*
रहे, यह निर्माण आज तक मेरा था, अब यह आपका हुआ
१६
इसके उपरांत सूत्रधार का भूमि, धन, वस्त्र, अलंकार, वाहन आदि के द्वारा योग्य सत्कार करना चाहिये | अपनी क्षमता के अनुसार वस्त्र, भोजन, ताम्बूल आदि से अन्य कारीगरों को भी उचित सम्मान प्रदान करना चाहिये। अन्य सहयोगी कारीगरों तथा व्यक्तियों का भी यथोचित सम्मान करना चाहिये ।
सूत्रधार का सम्मान करने के उपरांत ही वास्तु में प्रवेश करना चाहिये ।**
* पुण्यं प्रासादजं स्वामी प्रार्थयेत् सूत्रधारतः । सूत्रधारो ददेत् स्वामिन् अक्षयं भवतात् तव । प्रा. मं. ८/८५ ** इत्येवं विधिवद् कुर्यात् सूत्रधारस्य पूजनम् ।
भू वित्त वस्त्रालंकारैः गौ महिष्यश्च वाहनैः । प्रा. पं. ८/८२ अन्येषां शिल्पिनां पूजा कर्तव्या कर्मकारिणाम् । स्वाधिकारानुसारेण वस्त्रेस्ताम्बूल भोजनैः ।। प्रा. मं. ८/८३
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(देव शिल्प)
सूत्रधार के अष्टसूत्र
२. गज (इस्त)
६- गुनियां (काष्ठ)
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*
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१- दृष्टि सूत्र
*
*
७- साधनी (सृष्टि)
*
८- विलेप
*
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३- मूंज की डोरी
. सूत की डोरी (कार्पासक)
५- अवलंब
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(देव शिल्प
सूत्रधारकअष्टपत्र
सूत्रधार वास्तु निर्माण के लिये आट उपकरणों की सहायता प्रमुखता रो लेता है। इनका उल्लेख इस प्रकार है :१. दृष्टि सूत्र
हस्त
काराक ५. अवलम्ब
६. काष्ठ ७. सृष्टि या साधनी
८. विलेख्य १. दृष्टि सूत्र के अंतर्गत नेत्रों से ही औजारों जित-मा काम लेकर सही नाप जोख कर लिया जाता है।
२. हस्त से तात्पर्य एक पट्टी से है जो एक हाथ के नाप की होती है। इसके नौ भाग होते हैं जिनके अधिष्ठाता देवों के नाम इस प्रकार हैं -
रुद्र, वायु, विश्वकर्मा, अग्नि, बहाा, पाल, रुग, सोम, विष्णु।
वर्तमान में आधुनिक शिल्पी हस्त या गजे का प्रमाण दो फुट तथा अंगुल का प्रमाण एक इंच से करते हैं। प्राचीन शैली के वास्तु के ||प इसी अनुपात से इंच फुट में बदलकर निर्माण करना उपयुक्त है। यह विधि सरल एवं व्यावहारिक भी है।
३. मुंज से तात्पर्य गूंज घास की बनी डोरी से है जिराके आधार से लम्बी सरल रेखा खींची जा सकती है। दीवाल को सरल रेखा में बनाने के लिए एक छोर से दूसरे छोर तक इसे बांधा जाता है।
४. कार्पासक से तात्पर्य कपास के गजबुत सूत से है जो अवलम्ब था राहुल (प्लबलाइन) लटकाने के काम आता है।
५. अवलम्ब से तात्पर्य साहुल या प्लम्ब लाइन से है जो लोहे का एक छोर लट्ट होता है। इसे सूत से लटकाकर दीवार की ऊंचाई अर्थात् ऊपर से नीचे की सीधाई नापी जाती है।
६. काष्ट से तात्पर्य गुनिया अथवा त्रिकोण से है जिससे कोण बनाने या नापने में सहायता ली जाती है।
७. सृष्टि या साधनी से तात्पर्य फर्श को समतल बनाने के लिये सहायक उपकरण से हैं जिसे स्पिरिट लेवल की तरह उपयोग किया जाता है। .
८. विलेख्य परकार (पेयर ऑफ डिवाइडर्स) से रेखाओं की दूरी तुल.त्मक दृष्टि से नापी जाती है।*
"सूत्राष्टकं दृष्टि गृहस्तमौजं, कामिकं स्वादवलम्बसप । काष्ठं च सृष्ट्याख्यमतो विलेध-मित्यष्टसत्राणि वदन्ति तज्ज्ञाः ।। रा. १/४०
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(देव शिल्प)
दिया प्रकरण
दिशा शब्द से सर्व साधारण जन परिचित हैं। दिशा से तात्पर्य है किसी विशेष बिन्दु की अपेक्षा अन्य वस्तु की स्थिति, जो सीधे में दर्शाया जाये। ऐसा करने के लिये किसी स्थायी आधार की आवश्यकता होती है जिसको अपेक्षा करके सभी पदार्थों की दिशा का ज्ञान किया जा सके ।
सूर्योदय प्रतिदिन एक निश्चित स्थिति से होता है। सूर्योदय की अपेक्षा व्यवहार में आकाश प्रदेश पंक्तियों की दिशा का निर्धारण किया जाता है।*
यदि दिशा को परिभाषित करना हो तो प्राचीन ग्रन्थ धवला में आचार्य श्री ने कथन किया है कि - अपने स्थान रो बाण की भांति सीधे क्षेत्र को दिशा कहते हैं । ये दिशायें छह होती हैं क्योंकि अन्य दिशाओं का होना सम्भव नहीं है। ये हैं-- सामने, पीछे, दायें, बायें, ऊपर, नीचें।'* *
जब हम पृथ्वी एवं सूर्योदय की अपेक्षा दिशाओं का निर्धारण करते हैं तो निम्न लेखित स्थिति बनेगी :
यदि सूर्योदय की ओर मुख करके खड़े हों तो
सागने की दिशा - पूर्व पीछे की दिशा - पश्चिम बाये की दिशा
उत्तर दाहिने की दिशा
दक्षिण ऊपर की दिशा
ऊर्च नीचे की दिशा
अधो ईशान
आग्नेय
उत्तर
दक्षिण
वायव्य
पश्चिम
नैऋत्य
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* स.सि.!'५/३/२६९/१०
"ध./५/१, ४.५३/२२६/४
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(देव शिल्प
कहलाती हैं -
२०
अब इन दिशाओं के मध्य कर्ण रेखा से अन्य चार दिशाओं का ज्ञान होता है, ये विदिशायें
ईशान
आग्नेय
नैऋत्य
उत्तर एवं पूर्व के मध्य.
पूर्व एवं दक्षिण के मध्य
दक्षिण एवं पश्चिम के मध्य
पश्चिम एवं उत्तर के मध्य
वायव्य
इन्हीं दिशाओं एवं विदिशाओं के आधार पर सारे विश्व में दिशाओं का निर्देश किया जाता है।
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(देव शिल्प
दिशा निर्धारण मन्दिर का निर्माण करने से पूर्व यह अत्यंत आवश्यक है कि निर्धारित भूमि पर दिशा निर्धारण कर लिया जाये । मन्दिर निमांग में प्रवेश-द्वार की दिशा, गर्भगृह की स्थिति तथा प्रतिमाओं की दृष्टेि इधर-- उधर अविवेक से नहीं रखी जा राकती, अन्यथा इसके गीषण विपरीत परिणाम होते हैं। अनुकूल दिशाओं में निर्माण किया गया मन्दिर न कोयला भव्यता एवं अतिशय रो सम्पन्न होता है बल्कि उपाराकों के मनोरथ पूर्ति का सशक्त निमित्त बनता है।
दिशाओं का निर्धारण करने के लिये विभिन्न उपायों का आश्रय लिया जाता है। इसकी आधुनिक एवं प्राचीन दोनों विधियां हैं।
आधुनिक विधि दिशा निर्धारण के लिये वर्तमान काल में घुबकीय सुई का प्रयोग किया जाता है। इसमें एक चुम्बकीय सुई अपनी धुरी पर धूमती रहती है। राई एक डायल पर स्थित होती है। डायल में उत्तर-दक्षिण एवं पूर्व-पश्चिम दिशाएं ९०-९० के कोण पर दिखाई जाती है। कुल ३६० में डायल विभाजित रहता है। चुम्बक का यह गुण होता है कि स्वतन्त्रतापूर्वक घूमने पर कुछ ही समय में वह पृथ्वी की चुम्बकीय धारा के रामानातर हो जाता है तथा सुई उत्तर दक्षिण दिशा में स्थिर हो जाती है। सुई के उत्तरी ध्रुव पर लाल निशान अथवा तीर का निशान लगा रहता है। इसे डायल को घुमाकर डायल के उत्तर दिशा में तीर पर लाया जाता है। इससे हमें सारी दिशाओं का ज्ञान हो जाता है। अच्छे किस्म के यन्त्रों में आजकल सुई को डायल में ही फिट कर देते हैं तथा पूरा डायल ही घूमकर स्थिर हो जाता है। किन्हीं किन्ही यन्त्रों में डायल पारे अथवा अय द्रव पर तैरता है। खुले मैदान, रेगिरतान, जंगल, नए स्थान, समुद्र, पर्वतादि किसी भी जगह यह यन्त्र क्षणमात्र में सही दिशा का ज्ञान करा देता है। प्राचीन विधि की अपेक्षा यही विधि सही, सरल एवं उपयुक्त है।
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(देव शिल्प
२२) यहां स्मरणीय है कि इस यन्त्र को लोहे के किसी टेबल अथवा फर्नीचर पर या ऐरों स्था। जहां लोहा अथवा बिजली का तीव्र प्रवाह समीपस्थ न रखें । जिन यन्त्रों में बिजली की मदद रो चुम्बक निर्माण होता है जैसे बिजली की मोटर अथवा स्थायो चुम्बक वाले रपीकर, माइक आदि के समीप भी यन्त्र को रखने से सही दिशा का ज्ञान नहीं होगा, क्योंकि चुम्बकीय सुई बाहरी विद्युत या चुम्बकीय प्रभाव से प्रभावित होगी तथा तीव्र चुम्बक की तरफ आकर्षित होकर गलत निर्देश करेगी।
दिशा निर्धारण की प्राचीन विधि प्राचीन काल में दिशा निर्धारण सूर्योदय एवं सूर्यास्त के आधार पर किया जाता था। रात्रि में दिशा निर्धारण ध्रुव तारा अथवा अवण नक्षत्र के आधार पर किया जाता था। ये विधियां गोटे तौर पर दिशाओं का ज्ञान करा देती थीं किन्तु कउिन थी तथा असावधानी होने की स्थिति में भूल होने की संभावना रहती थी। दिशा निर्धारण की प्रचलित विधि दिन के समय शंकु के आधार पर थी।
समतल भूमि पर दिशा का निर्धारण करने के लिए सर्वप्रथम दो हाथ के विस्तार का एक वृत्त बनायें। इस वृत्त के केन्द्र बिन्दु पर बारह अंगुल का एक शंकु स्थापन करें। अब उदयार्ध (आधा सूर्य उदय हो चुके तब) शंकु की छाया का अंतिम भाग वृत्त की परिधि में जहां लगे वहीं एक चिन्ह लगा दें। यही प्रक्रिया सूर्यारत के समय दोहराएं। इन दोनों बिन्दुओं को केन्द्र से मिला देवें । यह दिशा दर्शक पूर्व पश्चिम दिशा है। अब इस रेखा को त्रिज्या मानकर एक पूर्व तथा एक पश्चिम बिन्दु से दो वृत्त बनाए। इसरो पूर्व पश्चिम रेखा पर एक मत्स्य आकृति बनेगी। इसके मध्य बिन्दु से एक सीधी रेखा इस प्रकार खींचे जो गोल के सम्पात के मध्य भाग में लगे जहां ऊपर के भाग में स्पर्श करे उसे उत्तर तथा नोचे के भाग का स्पर्श बिन्दु दक्षिण दिशा
उत्तर
पश्चिम
छाया
छापा
दक्षिण
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(देव शिल्प
'अ' बिन्दु पर शंकु स्थापन करें। इस बिन्दु से दो हाथ त्रिज्या का एक वृत्त बनायें। सूर्योदय के समय शंकु की छाया क बिन्दु पर स्पर्श करती है। मध्यान्ह के समय 'अ' बिन्दु से निकलती है तथा बाद में सूर्यास्त पर यह 'च' बिन्दु से निकलती है ] 'क' से 'अ' को मिलाते हुए च तक एक रेखा खींचें। यह 'च' 'अ' पूर्व दिशा है। 'अ क ' पश्चिम दिशा है।
'च अ क ' रेखा पर दोनों तरफ समकोण अथवा लम्ब बनाने के लिए 'च क ' को त्रिज्या मानकर 'क' केन्द्र एवं 'च' केन्द्र से दो वृत्त बनायें। ये दोनों वृत्त 'उ' एव 'द बिन्दु पर एक दूसरे को काटेंगे। अब 'उद' रेखा को 'अ ' पर से मिलाएं। इस प्रकार हमें चारों दिशाओं की रेखाएं मिल जायेंगी।
'अद' दक्षिण 'अ उ उत्तर 'अ क ' पश्चिम
"अ च ' पूर्व दिशा बतलाती है। दिशा निर्धारण की दोनों विधियों में आधुनिक विधि का ही सर्वत्र प्रयोग होता है। यही विधि सर्वमान्य एवं अनुकरणीय है। अतएव चुम्बकीय सुई का प्रयोग कर दिशा निर्धारण करना ही श्रेयस्कर है।
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(देव शिल्प)
(२४)
भूमिश्चयन जब उपासक की भावना जिन मन्दिर निर्माण करने की होती है तब वह सर्वप्रथम उपयुक्त शूमि का चयन करता है। शुभ लक्षणों से युक्त भूमि पर निर्माण किया गया मन्दिर दीर्घकाल तक उपासकों की आराधना स्थली बना रहता है। साथ ही आने वाली पीढ़ियां भी परम्परा से सन्मार्ग का आश्रय लेकर आत्या कल्याण करती है।
__ भूमि का मन करते समय का स्प, नस, गंध, वर्ण तशा परिकार देखा जाता है। शास्त्रोक्त विधियों से भूमि का परीक्षण किया जाता है। भूमि के नीचे भी अपवित्र शल्य न हों, इसका भी निराकरण किया जाता है।
भूमि पर निंद्य लोगों का आवास होना भी अनुपयुक्त: है । वहां पर भद्य, मांसादि सेवन करने वालों का आवास होना अथवा मांसाहारी भोजनालय का निकटस्थ होना भी अनुपयुक्त है। ऐसे स्थान, जहां पर धर्म पालन एवं साधना में विघ्न आले हों, मन्दिर निर्माण के लिये अनुपयुक्त है।
शुभ भूमि के लक्षण ___ जो भूमि अनेक प्रशंसनीय औषधि अथवा वृक्ष लताओं से शोभित हो, जिसका स्वाद मधुर हो, गंध उत्तम हो, स्निग्ध हो, गड्ढों एवं छिद्रों से रहित हो, आनन्द वर्धक हो, वह भूमि मन्दिर निर्माण के लिये श्रेष्ठ होगी। कंकरीली, पत्थरों से युक्त, उबड़-खाबड़ भूमि मन्दिर के लिये अनुपयोगी है।*
___ कटी फटी भूमि, हड्डी आदि शल्य युक्त भूमि, दीमक युक्त भूमि तथा उबड़-खाबड़ भूमि मन्दिर निर्माण के लिये उपयोगी नहीं है। ऐसी भूमि मन्दिर निर्माता की आयु एवं धन दोनों का हरण करती है। #
जो भूमि नदी के कटाव में हो, पर्वत के अग्र भाग से मिली हो, बड़े पत्थरों से युक्त हो, तेजहीन हो, सूपा की आकृति में हो, गध्य में विकट रुप हो, दीमक एवं सर्प की वामियों से युतः हो, दीर्घ वृक्षों से युक्त हो, चौराहे की भूमि हो, भूत-प्रेत निवास करते हों, श्मशान हो अथवा शनसान के निकटस्थ हो, युद्धभूमि हो, रेतीली हो, इन लक्षणों में किसी एक या अनेक लक्षणों से युक्त भूमि का चयन मन्दिर निर्माण के लिये नहीं करना चाहिये।
गृह निर्माण के लिये भूमि का चयन जिस प्रकार किया जाता है, उसी भांति मन्दिर के लिये भी भूमि चयन करना चाहिये।
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*शस्तौरचिटुमलता मधुरा सुगंधा, स्निग्धा समा न सुषिरा च मही नराणाम्। अप्यध्वजि श्रमविनोदपुपागताना, धत्ते श्रियं किमुत शाश्वतमन्दिरेषु ।। वृहत संहिता ५२/८६ # स्फुटिता च सशल्या च वल्मीकाऽऽ रोहिणी तथा टूरतः परिहर्तव्या कर्तुरस्युर्घनापहा
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(देव शिल्प
भूमि लक्षण
जो भूमि वर्गाकार हो, दीमक रहित हो, कटी फटी न हो, शल्य कंटक आदि से रहित हो तथा उसका उतार पूर्व, ईशान अथवा उत्तर की ओर हो वह भूमि सबके लिये वास्तु निर्माण तथा मन्दिर निर्माण के लिये सुखकारक होगी। जिस भूमि में दीमक होगी यह भूमि व्याधिकारक एवं रोग वर्धक होगी। खारी भूमि में वास्तु निर्माण से निर्माता को धन हीनता का दुख भोगना पड़ता है। कटी-फटी भूमि पर वास्तु निर्माण से मृत्यु तुल्य दुख होते हैं। शल्य कंटक युक्त भूमि भी दुख कारक है।
*
प.
प.
उ.
वर्गाकार भूमि
द.
उ.
आयताकार भूमि पू.
द.
उ.
भूमि चयन करते समय ध्यान रखने योग्य लक्षण
आकार की अपेक्षा
विषम चतुर्भुज भूमि
द.
२५
प्र.
१.
चारों भुजाएं समान हों, अर्थात् वर्गाकार भूमि हो । यह सुमंगला भूमि है। इस पर जिन मन्दिर के निर्माण से सुख, शांति, समृद्धि की प्राप्ति होती है।
२.
ऐसी आयताकार भूमि जो उत्तर दक्षिण में लम्बी हो तथा पूर्व पश्चिम में अपेक्षाकृत कम चौड़ी हो, ऐसी भूमि चन्द्रवेधी कही जाती है। यह अत्यंत शुभ है। धन, धान्य, सुख, सम्पत्ति लाभदायिनी है।
३. जिरा भूमि की मुख भुजा से पृष्ठ भुजा किंचित दीर्घ हो तो उसे विषम चतुर्भुज भूमि कहते हैं। उस भूमि पर निर्मित मन्दिर यश, सुख, सम्पत्तिदाता होता है ।
दिगतिठा वीद्यम्पसवा चउरंसाऽवम्भिणी अफुट्टाय । अक्कल्लर भू सुहया पुर्वे साणुत्तरं बुवहा । १ / ९. सा. बम्मड़ागी वाहिकरी ऊसर भूमीइ हवइ शेरकरी | अइफुट्टा मिच्चुकरी दुक्खकरी तह व ससल्ला ।। १ / ५० व. सा
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(देव शिल्प
२६) ४. यदि भूमि का बढ़ाव किांचेत ईशान कोण में होवे तो मन्दिर निर्माता के वैभव एवं धर्म भावनाओं का विकास होता है।
ईशान वृद्धि भूमि
ईशान वृद्धि भूमि |
ईशान वृद्धि भूमि
॥
५. त्रिकोणाकृति भूमि अति अशुभ तथा मन्दिर बनाने के अयोग्य है। इस पर मन्दिर बनाने से पुत्र संतति का अभाव होता है।
'त्रिकोणाकृति भूमि
६. बैलगाड़ी के आकार की भूमि पर यदि मन्दिर निर्माण किया जाये तो यह धन हानि का कारण बनता है।
बैलगाड़ी के आकार की भूमि
७. सूप तथा पंखे के आकार की भूमि भी अशुभ है तथा इस पर बने मन्दिर से धर्मवृद्धि नहीं हो पाती वरन् बाधा होने की संभावना बनती है।
हाथ परवाकृति भूमि
L
सूपाकार भूमि
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(देव शिल्प)
८. मृदंग के आकार की भूमि पर मन्दिर निर्माण करने से वंशहानि होती है।
मृदंगाकार भाने
९. सर्प एवं मेंढक के आकार की भूमि पर मन्दिर का निर्माण भयकारक होता है।
१०. अजगर के आकार की भूमि पर किया गया मन्दिर निर्माण निर्माता के लिए अत्यंत अशुभ तथा मृत्युकष्ट प्रदाता है।
११. मुद्गर के सदृश्य भूमि पर मन्दिर निर्माण करने से व्यक्ति बल पुरुषार्थ हीन हो जाता है।
१२. बांस के सदृश्य भूमि पर मन्दिर निर्माण करने से वंश का नाश होने का भय रहता है।
१३. एकदम वृत्ताकार भूमि पर निर्मित जिनालय शुभ, सदाचार वर्धक
हैं।
वृत्ताकार भूमि
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ची
(देव शिल्प
२८) अन्य शुभ लक्षणों याली भूमि के फल
१. भद्रपीठ भूमि-अर्थात् कूर्म पृष्ठ भूमि- जो भूमि मध्य में ऊंची तथा चारों नोचों
और नीची हो, वह भूमि जिनालय निर्माण के लिये शुभ है। इस भूमि पर भूमि
जिला मन्दिर निर्माण करने से धन, सुख, उत्साह में वृद्धि होती है। २. प्रासाद ध्वज के आकार की भूमि उन्नतिकारक है। ३. दृढ़ भूमि धादायक होती है।
सम भूमि सौभाग्यदायक होती है। नवनीत भूमि
५. उच्च भूमि प्रतिष्ठासम्पन्न पुत्रों को देती है। ६. कुश रो युक्त भूमि तेजस्वी पुत्रदायिनी है। ७. दूर्वायुक्त भूमि वीर पुत्रदायिनी है। ८. कल युक्त भूमि धन एवं पुत्र प्राप्ति में कारण है।
शुक्ल वर्ण भूमि सर्वोन्नति, परिवार सुख, समृद्धि,संततिदायी होती है। १०. पीलवर्ण भूमि राजकीय लाभ, यश, प्रतिष्ठा सुख, शांति दायक होती है। ११. सुखद स्पर्श भूमि मनःशांति, धन, विद्या, वैभव को सहजता से देती है।
ऐसा भूमि पर शिक्षण संस्थान, जिनालय बनाना उपयुक्त है।
१२. सुगंध युक्त भूमि धन-धान्य, यशदायक होती है। विभिन्न अशुभ लक्षणों से युक्त भूमि पर मन्दिर बनाने का निषेध
भूगि चयन की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि उस पर जिस वास्तु संरचना का निर्माण किया जाये वह उपयोगकर्ता के लिए सर्वसुखदायिनी होवे । विभिन्न शास्त्रों में गृह वास्तु का निर्माण करने के लिए जो भूमि के लक्षणों का वर्णन किया गया है, वह प्रत्यक्ष परीक्षा करने में स्पष्ट अवलोकित होती है । भले ही लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई का मान हभ ठीक-ठीक निकाल लेवें, किन्तु यदि भूमि का आकार शुभ नहीं है तो हमें उपयुक्त परिणाम नहीं मिलेंगे। पाप कार्यों को किये जाने से सिर्फ आत्मा ही दूषित नहीं होती वरन आसपारा का वातावरण भी दूषित होता है। जिस भवन में निरन्तर सद्भावना, जप, तप, धर्म का वातावरण हो, उस भवन में शुद्ध पवित्र वातावरण प्रतीत होता है । यदि कोई साधक यहां साधना करना चाहे, तो उसे सुगमता होगी। इसके विपरीत ऐसा भवन जिसमें निरन्तर काम, वासना, शराब, मांस भक्षण, व्यसन इत्यादि कार्य हो रहे हैं, वहां साधना करने पर साधक की एकाग्रता नहीं आयेगी तथा भावनायें दूषित होगीं । यह प्रभाव अधर्म को स्थापित करेगा तथा धर्म को विस्थापित करेगा। अतएव शुभ भूमि पर ही मन्दिर का निर्माण करना अत्यंत श्रेयकारी होगा।
अशुभ लक्षणों से युक्त भूमि पर मन्दिर निर्माण करने से आने वाले परिणामों से बचने के लिए सर्वप्रथम धैर्यपूर्वक भूमि का चयन करें।
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देव शिल्प)
२९
विभिन्न अशुभ लक्षणों से युक्त भूमि पर मन्दिर बनाने के विपरीत परिणाम
२.
दुर्गम भूमि पर मन्दिर न बनायें ।
२. हत्या, नरसंहार, बलि, बालकों को दफन करने के स्थान पर मन्दिर निर्माण शोककारक, मृत्युकारक तथा अत्यन्त दुखदायी होता है।
मन कहिस्तान, पशुअलि स्थल पर मन्दिर निर्माण से निरंतर कष्ट एवं वैमनस्य बना रहता है। विधवा, परित्यक्ता, नपुंसक जहां लम्बे समय से रहते हों अथवा जहां लम्बे समय से रुदन हो रहा हो ( शोकगृह), वहां मन्दिर बनाने से प्रगति अवरुद्ध हो जाती है।
मदिरालय, जुआघर अथवा अन्य व्यसनों के गृहों के समीप मन्दिर निर्माण से धन एवं प्रतिष्ठा का नाश होला है ।
.
४.
५.
कंटीले वृक्षों से निरंतर बिंधी रहने वाली भूमि, जहां काटने पर भी कंटीले वृक्ष निस्तर आ जाते हैं, मन्दिर निर्माण के लिये अनुपयुक्त है। यह क्लेशकारक तथा शत्रुवर्धक है ।
लगातार तापसियों का निवास रहकर उजाड़ हुई भूमि पर मन्दिर निर्माण से गांव उजाड़ हो जाते हैं। शीलहरणादि पापों से दूषित भूमि पर गन्दिर निर्माण करने से स्त्रियों का शील भंग होने का भय होता है। यदि भूमि के निकट लगभग १०० मीटर की दूरी पर शवदाह गृह हो तो वहां पर बना मन्दिर दुखदायक हो जाता है। यह भूमि अत्यन्त अशुभ है।
५०. जिस भूमि पर दीर्घकाल तक गर्दभ, शूकर, कौए रहते हों वहां पर मन्दिर निर्माण से अत्यंत क्लेश होता है।
६.
19.
८.
९.
११. कौए, कबूतर, जिस स्थान पर निरन्तर रहते हों वहां पर मन्दिर निर्माण रो रोग, शोक, भय, मृत्यु, आदि कष्ट होते हैं।
१२. गिद्ध पक्षियों के निवास से युक्त भूमि पर मन्दिर निर्माण से निर्माता की धन हानि तथा मृत्यु हो सकती
है ।
१३. टेढी-मेढी, रेतीली विकट भूमि पर जिनालय निर्माण से विकट स्वभावी विद्या हीन पुत्र होते हैं।
из
१४. नुकीली एवं पथरीली भूमि पर मन्दिर निर्माण से दरिद्रता बढती है।
टेढ़ी-मेढ़ी, रेतीली विकट भूमि
मुलीली एवं पथरीली भूमि
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देव शिल्प
मलव्याप्त भूमि
३०
१५. भूमि के स्पर्श से यदि हाथ मलिन हो तथा धोने पर भी साफ न हों, तो ऐसी भूमि जिनालय निर्माण के लिये अशुभ है।
१६. विष्ठा, यमन, मल आदि गन्दे पदार्थों से युक्त बदबूदार भूमि अथवा इनके जैसी गंध वाली भूमि अशुभ है।
१७. मुर्दे या कपूर जैसी गन्ध यदि मिट्टी में आये तो यह अनिष्टकारक है भय, रोग तथा चिन्ता का कारण है। इन प्रकार की भूमि यदि रूप, रस, गन्ध, वर्ण में उपयुक्त भी हों तो भी जिनालय निर्माण के योग्य नहीं है।
धातु मिश्रित भूमि का शुभाशुभ कथन
जिस भूमि पर जिन मन्दिर निर्माण करना हो उस भूमि पर एक हाथ गहरा गड्ढा खोदें। नीचे की भूमि का अच्छी तरह अवलोकन करें। यदि भूमि में धातु कण दिखते हैं तो उनको अच्छी तरह से परखें। उनमें जिस धातु जैसे कण दिखें उनका फलाफल इस प्रकार है
१. यदि उस भूमि में स्वर्ण जैसे कण दिखें या वह भूगि स्वर्ण जैरो चमके तो मन्दिर निर्माता के लिये भूमि धनागम कारक होगी।
२. यदि ताम्र सदृश्य कण दिखें तो मन्दिर निर्माता को धन धान्य वृद्धि तथा समाज के लिये सर्व सुख कारक होगा।
३. यदि सिंदूर के जैसे कण दिखते हैं तो मन्दिर निर्माता का यश कीर्ति का हनन या नाश होगा। ४. यदि अभ्रक जैसे कण हों तो मन्दिर निर्माता को अग्निभय एवं रांताप कारक होगी।
·
५. यदि उसमें कांच अथवा हड्डियों के कण हों तो वह भूमि मन्दिर के निर्माण के लिये सर्वथा अनुपयुक्त अशुभ एवं त्याज्य है।
६. यदि उसमें कोयले अथवा कोयले जैसे पत्थर के काले कण दिखाई देवें तो ऐसी भूमि पर मन्दिर निर्माण कराने से निर्माता को राजभय बना रहेगा तथा अकाल गरण का भय एवं निरन्तर चिन्ता व दुख होंगे।
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(देव शिल्प
३१ भूमि परीक्षण विधियां
मन्दिर निर्माण करने का निर्णय हो जाने के पश्चात उपयोगी भूमि का चयन किया जाता है। मि चयन के उपरांत विभिन्न विधियों से भूमि की परीक्षा की जाती है। परीक्षा के उपरांत ही उस पर जिन मन्दिर बनवाना चाहिये अन्यथा अपेक्षित परिणाम नहीं मिलेंगे वरन् विपरीत मिलेंगे। प्राचीन काल से प्रचलित भूमि परीक्षण विधियों में से किसी एक का अनुकरण करना चाहिये।
यह स्मरण रखें कि समशीतोष्ण एवं शुष्क जलवायु के रहते ये परीक्षण करना चाहिये। यदि तत्काल या कुछ समय पूर्व वर्षा हुई हो तो ये परीक्षण नहीं करें।
भूमि परीक्षण की ग्रथम विधि
प्रस्तावित भूमि के बीच में चौबीरा अंगुल लम्बा, इतना ही चौड़ा तथा इतना ही गहरा एक गडढा खोदें। अब निकली हुई मिट्टी को पुनः उसी में भरें। यदि पूरा गढा भरने के उपरांत मिट्टी बच जाये तो वह भूमि उत्तम फलदायका है। यदि मिट्टी । बचे न कम पड़े तो भूमि को मध्यम फलदायक मानना चाहिये। यदि मिट्टी कम पड़ जाये तो वह जघन्य फलदायक है । यह भूमि अधम है । मन्दिर निर्माता को ऐसी भूमि पर मन्दिर निर्माण से दुख दारिद्रय का कष्ट भोगना पड़ेगा। *
भूमि परीक्षण की द्वितीय विधि
प्रर ताचित भूमि पर २४ अंगुल लम्बा, चौड़ा, गहरा गडढा खोदें। उसमें लबालब जल भरकर तुरन्त १०० कदम जाकर वापस लौटे। यदि दो अंगुल पानी सूखे तो मध्यम फलदायक है। याद तीन अंगुल पानी सूखे तो अधम अर्थात दुखदायक होगी। #
भूमि परीक्षण की तृतीय विधि रांध्या समय जब कुछ अंधेरा होने तब थोड़ी भूमि के चारों ओर परधोटे की भांति चटाई को इस प्रकार बांधे कि हवा प्रवेश न हो। इरा जमीः। पर अब मंत्र ॐ हूं फट्' लिखें। इस मंत्र पर मिट्टी का एक कच्चा घड़ा रखें। उस पर कच्ची मिट्टी का दीपक घी से भरकर रखें । उसमें एक-एक बाती पूर्व में सफेद, पश्चिम में पीला, दक्षिण में लाल तथा उत्तर में सफेद लगायें।
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*चउतीसंगुल भूपी वणेवि पूरिज पुण टि सा गत्तः। तेणेव मट्टियाए हीणाहेय सप फला णेया ।व. रा.१/३ 23अहसा भरिव जलेण य चरणसट गच्छमाण जासुसइ तिदुइठा अंगुल भूमी अहप मज्झम उत्तमाजाण ।। य.स. १/४
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(देव शिल्प बातियों को णमोकार महामंत्र से मन्त्रित करें -
ॐ णमो अरिहंताणं, णमो सिदाणं ,णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सध्य साणं, चत्तारि मंगलं, अरिहंत मंगलं, सिब्द मंगलं, साह मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं, चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंत लोगुत्तमा, सिब्द लोगुत्तमा, साह लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्पो लोगुत्तमा, चत्तारि सरणं पत्वज्जामि, अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिब्द सरणं पच्वज्जामि, साह सरणं पवज्जामि, केवलि पण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जापि, ह्रौं कुरु कुरु स्वाहा।
इस मन्त्र से मंत्रित करके बातियों को जला देवें । यदि बातियां घी समाप्त होने तक जलती रहें तो उत्तम फलदायक समझें। यदि बतियां धी समाप्त होने के पूर्व ही बुझने लगे तो अधम फलदायक समझें।
शल्य शोधन ___ जिस भूमि पर जिन मन्दिर का निर्माण किया जाना निश्चित किया गया है, उस शूमि के नोचे हड्डी, चमड़ा, बाल, कोयला आदि होना अत्यंत अनिष्टकारक है। इन्हें शल्य कहा जाता है। भूमि चयन एवं परीक्षण के उपरांत शल्य शोधन किया जाना आवश्यक है। शल्य युक्त भूमि पर निर्माण से समाज में विविध संकट, क्षति, संक्लेश, व्याधि होने की संभावना रहती है।
शास्त्रों में उल्लेखित विधि के अनुसार शल्य शोधन करना चाहिये। शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, तारा एवं चन्द्र जिस दिन अनुकूल हों, ऐसे दिन शुभ लग्न एवं शुभ मुहूर्त में शल्योद्धार करना चाहिये।
शल्य शोधन की प्रथम विधि -
जिस भूमि पर मन्दिर निर्माण करना है उसके नौ भाग करें। इन नौ भागों में पूर्व से प्रारंभ कर ब, क, च, त, ए, ह, स, प, ज लिखें। फिर आगे लिखें रूप में यन्त्र बनाएं। कुमारी कन्या को तिलक लगाकर श्रीफल देकर पूर्व मुखी बैठाएं।
ईशान - प | पूर्व - ब
आग्नेय - क
उत्तर - स मध्य - ज दक्षिण - च
वायव्य - ह |पांश्चग - ए नक्रिय - त
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(देव शिल्प)
३३ ॐ ह्रीं श्रीं ऐं जपो वाग्वादिनी मम प्रश्ने अवतर अवतर' इस मन्त्र से खडिया (सफेद पाक) को १०८ बार मन्त्रित कर कुमारी कन्या के हाथ में देवें लथा कोई भी प्रश्नाक्षर लिखवायें लिखे अक्षर को कोष्ठक से मिलान करें । र्यादे मिल जाये तो उस भाग में शल्य रामझें । यदि अक्षर न मिले तो भूगि शल्य रहित समझें।
प्रश्नाक्षर से शल्य मिलने का संकेत ब आये तो पूर्व दिशा में डेढ़ हाथ नीचे मनुष्य की हड्डी निर्माता की मृत्यु
आग्नेय में दो हाथ नीचे गधे की हड्डी राज भय दक्षिण में कमर जितना गहरा मनुष्य की हड्डी निर्माता की मृत्यु नैऋत्य में डेढ़ हाथ नीचे कुत्ते की हड़ी बालकों को हानि
(संतान सुख का अभाव) पश्चिम में दो हाथ नीचे बच्चे की हड्डी स्वामी का परदेश वास वायव्य में चार हाथ नीचे कोयले
मित्रनाश उत्तर में कमर जितना गहरा विप्र की हड्डी स्वामी का धननाश ईशान में डेड हाथ नीचे गाय की हड्डी स्वामी का धन नाश मध्य में छाती जितना गहरा कपाल, केश, अतिसार स्वामी की मृत्यु
BhaFठ
निर्माता को चाहिये कि सर्वप्रथम शल्य शोधन करके ही वास्तु निर्माण का कार्य प्रारंभ करें। ऐसा न करने पर अनिष्टकारक घटनाएं होंगी तथा बाद में शल्य की उपस्थिति ज्ञात होने पर भी इसे निकालना असम्भव हो जायेगा।
शल्य का निराकरण करने के लिए शकुन शास्त्रों में पृथक पृथक विधियां दी गई हैं किन्तु उपरोक्त विधि उपयुक्त एवं व्यवहारिक है।
शल्य शोधन की द्वितीय विथि जिस भूमि पर वास्तु का निर्माण करना अभीष्ट है उस भूमि पर नव कोष्ठकों का एक चक्र निर्माण करें। उसमें पूर्वा दे दिशाओं से स, क, च, ट, त, प, य, श, इन वर्गों को लिखें। मध्य में ह प य लिखें। निम्न मन्त्र का इक्कीरा बार जाप कर कोष्ठक को अभिमंत्रित करायें तब प्रश्नकर्ता से प्रश्न करायें। जिस अक्षर से वह प्रश्नारम्भ करे वहां निर्दिष्ट शल्य होगी।
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(देव शिल्प)
४
ईशान -श ] पूर्व - अ
आग्नेय - क
उत्तर - य
मध्य हपय
दक्षिण • च
वायव्य - प|पश्चिम - तनैऋत्य -ट
जाप्य मन्त्र
ॐ हीं कूष्माण्डिनि कौंपारि मम हृदये ही काय काय स्वाहा।* शल्य स्थिति प्रश्नकर्ता का प्रथमाक्षर दिशा
शल्य स्थिति
फल पूर्व डेढ़ हाथ नीचे मनुष्य की हड्डी मनुष्य का मरण आग्नेय दो हाथ नीचे गधे की हड्डी राज दण्ड भय दक्षिण कमर भर के नीचे मनुष्य की हड्डी स्वामी मरण नैऋत्य डेढ़ हाथ नीचे कुत्ते की हड्डी गर्भपतन पश्चिम डेढ़ हाथ नीचे सियार की हड्डी परदेशवास बायव्य चार हाथ नौचे मनुष्य की हड्डी मित्रनाश उत्तर साढ़े चार हाथ नीचे गधे की हड्डी पशुनाश
ईशा- डेढ़ हाथ नीचे गौ की हड्डी गोधन नाश हपय
मध्य छाती जितना नीचे केश कपाल, मृत्यु
मुर्दा, भरम, लोह
शल्योद्धार करने के लिये निर्दिष्ट प्रक्रिया करने के उपरांत भी अनेकों बार खोदने पर हड्डी नहीं निकलती। ऐसी परिस्थिति में अपेक्षित स्थान को सावधानी से गहराई तक खोद लेना उपयुक्त है, क्योंकि दीर्धकाल के उपरांत हड्डी आदि वहाँ से जानवरों द्वारा निकाली भी जा सकती है। शल्योद्धार करने के पश्चात ही निर्माण कार्य प्रारंभ करना आवश्यक है।
*०२/२ से २/२१ विश्वकर्मा प्रकाश *वास्तु रत्नावली २/२२-२३
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३५ ]
(देव शिल्प
माप प्रकरण विभिन्न प्राचीन ग्रन्थों में माप का विवरण मिलता है। त्रिलोकसार ग्रन्थ में माप के दो भेद किये गये हैं। इन्हें लौकिक तथा अलौकिक मान के भेद से जाना जाता है। इनमें लौकेिन मान के पुनः छह भेद किये गये
१. मान, २. उन्मान, ३. अवमान, ४. गणिमान, ५. प्रतिरान, ६.तत्प्रतिमान देवमन्दिर आदि के माप में गणमान का आश्रय लिया जाता है। तिलोय पत्ति में प्रमाण करने के लिये अंगुल आदि का माप उल्लेखित है। अंगुल के तीन भेद हैं- १.उत्सेधांगुल, २. प्रमाणांगुल, ३. आत्गांगुल नगर, उद्यान, निवास, मन्दिर, वारतु प्रकरणों में नाप का आधार आत्मांगुल रो किया जाता है।
शास्त्रों में कहा है कि देवमन्दिर, राजप्रासाद, जलाशय, प्राकार, वस्त्र और भूमिका माप कम्बिा या गज रो करना चाहिये। गज का आधार अंगुल है। अंगुल के माप से योजन तक के माप तिलोय पाण्णत्ति में दिये गये हैं :कर्म भूमि के ८ बालों की
१लीख कर्म भूमि के ८ लीखों की - १जूं कर्म भूमि के ८ जूं
- १यव कर्म भूमि के ८ यव का कर्ग भूमि के ६ अंगुल का
१पाद कर्म भूगि के २ पाद
१ वितास्त कर्म भूमि के २ वितस्तेि
१हाथ कर्म भूमि के २ हाथ
१ रिकु कर्म भूमि के २ रिक्कु = ४ हाथ . १ दण्ड (धनुष्य) कर्म भूांगे के २००० धनुष
१कोस कर्म भूमि के ४ कोरा
१योजन कर्म भूमि के १० हाथ
१ बांस कर्म भूमि के २० हाथ या ४ भुजा - १ निवर्तन (क्षेत्रफल का माप)
गज का मान २४ अंगुल का होता है। गज का निर्माण चंदन, महुआ, खैर, बांस अथवा स्वर्ण, रजत, ताम्र आदि धातु से करना चाहिये। * *
-
१ अंगुल
*कम्म महिए बालं लिवश्वं न जवं च अंगुल्यं। इणि उत्तरा या भणिया पुत्वेहि अगुणिदो हिं ।। ति.प. १/१०६ छह अंगुलेहिं पादो के पादोहि विहत्यि णामा या दोणि विहत्यि हत्यो बे हत्थेहि हवे रिक्छ ।। ति.प. १/११४ बैरिखे दण्डो दण्डसमाजुला एणि पुसतं वा। तरस तहा णाली वा दो दण्ड सहस्सयं कोस ।। ति.प. 1/११५ चउकोसे हिंजोयणं तं चिद वित्यार गत ममतदृ ।। . . .
ति.प. १/११६ *"चतुर्विशत्युगलैस्तु हस्तमानं प्रचक्षते। चतुर्हस्तो भवेददण्हे ठहो कोशं तद् द्विसहस्त्रकम ।। चतुष्कोशं योजनं तु वंशो दशकरेर्मितः। जिदर्तन विशतिकरैः क्षेत्रं तच्च चतुष्कर : ।।
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(देव शिल्प
मापका आधुनिक मान वर्तमान में सारे विश्व में दो पद्धतियों से माप होता है -
१. मैट्रिक प्रणाली
२. ब्रिटिश प्रणालो मैट्रिक प्रणाली - इसका भाप मीटर से होता है। एक मीटर के १०० सेन्टीमीटर तथा १ रो.मी. का १० गिली गोटर होते हैं। १००० मोटर का एक किलोमीटर होता है । मीटर में प्रामाणिक माप फ्रांस में सुरक्षित रखा है। इसी के आधार पर सारी वैज्ञानिक गणनाएं की जाती है।
ब्रिटिश प्रणाली - इसका आधार फुट है। १२ इंच का एक फुट, २२० फुट का एक फलांग तथा ८ फलांग का एक मील होता है। ३ फुट का एक गज होता है।
सावधानी रखें कि शिल्प ग्रन्थों में उल्लेखित गज का मान एवं ३६ इंच का एक गज ये दोनों मान पृथक-पृथक हैं। प्राचीन एवं नवीन प्रणाली का समन्वय
इरा सन्दर्भ में २४ अंगुल = २४ इंच = एक गज या हाथ मान कर प्रयोग करना चाहिए। वर्तमान के राभी शिल्पी प्राचीन शास्त्रों के माप का इसी प्रकार प्रयोग करते हैं। *
गज का प्रयोग
मज का निर्माण धातु अथवा काष्ठ से करें। उसके नाम के ९ भाग करने चाहिये। ९ भागों के नाम नौ देवताओं के नाम पर किये गये हैं। सूत्रधार अथवा शिल्पकार को नवीन कार्यारम्भ करते समय गज को दो भागों के मध्य से उठाना चाहिये। उठाते समय गज का गिरना अशुभ होता है। इससे कार्य में विघ्ना की सूचना मिलती है।
विश्व रुद्र वायु कर्मा
अग्नि ब्रह्मा यम
बरुण कुबेर विष्णु
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"पदंगाल चउबीसहि छत्तीसिं करंगुलेहि कंबिआ। अहिं जधपज्झेहि पदंगुलु इक्कु जागेह ।। द.सा. १/४९ पासाय सयमंदिर तहाचा पायार बत्यभूमी य । इअ कंबीहि गणिज्जड निहसाभिकरेहि निहवत्य ।। व.सा. १/५०
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(देव शिल्प
३७)
गज उठाने के फलाफल
उठाने पर
उठाते समय गिर जाये १ एवं २ के मध्य से २एवं ३ के मध्य से ३ एवं ४ के मध्य से ४ एवं ५ के मध्य से ५ एवं ६ के मध्य से ६ एवं ७ के मध्य से ७ एवं ८ के मध्य से ८ एवं से
-कार्य अवरोध - कार्य सिद्धि - इच्छित फलप्राप्ति - कार्य पूर्णता - कार्य सिद्धि - शिल्पकार का नाश - मध्यम - मध्यम
__ * गज उठाने के फलाफल
उठाने पर
उठाते समय गिर जाये १ एवं २ के मध्य से २एवं ३ के मध्य से ३ एवं ४ के मध्य से ४ एवं ५ के मध्य से ५ एवं ६ के मध्य से ६ एवं के मध्य से ७ एवं ८ के मध्य से ८ एवं ९ के मध्य से
-कार्य अवरोध - अनावृष्टि - शुभ - कार्य पूर्ण होने पर नगर वृद्धि - पुत्र लाभ - शिल्पकार का नाश - मध्यम - मध्यम - सुख समृद्धि
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* शि.२.१/२३.२२,२३
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(देव शिल्प
(३८) आयप्रकरण गन्दर एवं गृह दोनों प्रकार के वारतु निर्माणों में आय की गणना का अपना विशिष्ट महत्व है। इसकी गणना करके अपने माप में समुचित संशोधन करके ही निर्माण करना इष्ट है। आय की गण-।। भूमि के क्षेत्रफल द्वार के आकार, गृह के आकार, प्रतिमा की दृष्टि का स्थान में अवश्यमेव धारना चाहिये । आय का नाम एवं फल समझने के लिए आगे सारणी दी गई है।
यहां यह अवश्य समझ लेवें कि 'आय' शब्द का अर्थ लाभ या धन आमदनी से नहीं है। यह क्षेत्रफल, लम्बाई एवं चौड़ाई की गणना का निर्णय करने हेतु एक पारिभाषिक शब्द है। शब्द के तात्पर्य अर्थ का ही ग्रहण करना यहां प्रासंगिक है।
आय की गणना लम्बाई एवं चौड़ाई को भूमि की गणना करें। इनका आपरा में गुणा कर क्षेत्रफल निकाल लेवें। इसमें आठ का भाग देवे तथा जो शेष आये वही आय कहलाती है। (व.सा. १/५०)
आत का भाग देकर शेष बचने पर आय के नाम इस प्रकार है -*
१ एक शेष बचे तो ध्वज आय २ दो शेष बचे तो धूम्र आय ३ तीन शेष बचे तो सिंह आय ४ चार शेष बचे तो श्वान आय ५ पांच शेष बचे तो वृष आय ६ छह शेष बचे तो खर आय ७ सात शेष बचे तो गज आय
८ आठ या शून्य शेष बचे तो ध्वांक्ष आय इनमें ध्वज, सिंह, वृष, गज आय शुभ हैं तथा धूम्र, श्वान, खर एवं ध्वाक्ष आय अशुभ है । # लम्बाई चौड़ाई की गणना करने के समय स्मरण रखें कि देवालय एवं मण्डप की भूमि का माप दीवार करने की भूमि सहित लेवें । गृहवास्तु, आसन, पलंग आदि की गणना में दीवार छोड़कर मध्य की भूमि मात्र को ग्रहण करें।
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*ध्वजो धूपश्च सिंहश्च श्वालो वृषस्वरौ गजः । ध्यांक्षश्चेति समुदिष्टाः प्राच्यादिसु प्रदक्षिणाः :। (अप. सू. ६४) 2वजः सिंहो वृषगजी शस्यते सुरवेशानि। अधमानां खरध्वांक्ष-धूमश्वानाःसुरदाबहाः । : (अप.सु. ६४) $ ये पर्वकासले मंदिरे च देवागारे मण्डपे वित्ति बाहदै। राजवल्लभ
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(देव शिल्प
आय विचार संशोधन
जिस वास्तु की चौड़ाई ३२ हाथ से अधिक हो उसमें विज्ञ जन आय का विचार नहीं करते । ग्यारह जब से ३२ हाथ तक विस्तार के वास्तु में ही आय का विचार किया जाता है।
यदि उपयुक्त आय नहीं आ रही हो तो प्रमाण गाप में दो तीन अंगुल की वृद्धि या कमी करके उपयुक्त आय आये, इस प्रकार लम्बाई-चौड़ाई का समायोजन करना चाहिए। गणना करने के लिए लम्बाई चौड़ाई के माप को अंगुलों में परिवर्तित कर पश्चात आयादि की गणना करें। उदाहरणतः -
लम्बाई चौड़ाई
१९४ x १४७ : ८
८ हाथ २ अ.
- ८ × २४ + २ ६ हाथ ३ अं. = ६x२४ + ३ २८५१८ + ८ = ३५६४ शेष ६ शेष ६ अर्थात खर आय
इसे ध्वज आय में बदलने के लिए लम्बाई एवं चौड़ाई में किंचित परिवर्तन करें। उदाहरण -
८ हाथ १ अं.
लम्बाई चौड़ाई
६ हाथ १ अं.
ध्वज आय
सिंह आय
वृष आय
गज आय
१९३१४५ + ८ = अर्थात् ध्वज आय. आय से द्वार विचार
पूर्वादि चारों दिशाओं में द्वार
पूर्व, उत्तर, दक्षिण दिशाओं में द्वार
पूर्व दिशा में द्वार
पूर्व एवं दक्षिण दिशाओं में द्वार
आय से भित्ति विचार *
गृह के आगे की दीवार
बायें एवं दाहिने ओर पीछे की दीवार
= १९३ अं.
= १४५ अं.
२७९८५ : ८ ३४९८ शेष १
* अग्रभित्तौ गजं दद्याद् वामदक्षिणयोर्ध्वजः ।
पृष्ठभित्तौ तथा सिंहं सुखसौभाग्यदायकाः ॥ ( शि. २. १ / ६८ )
= १९४
= १४७
:
गज आय
:- ध्वज आय
सिंह आय
:
३९
शुभ
શુમ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
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(देव शिल्प)
विचार
उत्तम स्थानों में
सर्वत्र
*
स्थान के अनुरूप आय
ग्राम, किला
वापिका, कूप, सरोवर
शय्या
सिंहासन
भोजनपात्र
छत्र, तोरण
नगर, प्रासाद,
सर्वगृह
मलेच्छ गृह
तापस मठ, कुटी
भोजनकक्ष
रसोई या लोहार आदि के गृह में
ब्राह्मण गृह
क्षत्रिय गृह
वैश्य गृह
देवालय
उपयुक्त आय ध्वज, सिंह, गज आय
ध्वज आय
गज, सिंह, वृष आय
गज आय
गज आय
सिंह आय
वृष आय
ध्वज आय
वृष, गज, सिंह आय
वृष, गज, सिंह आय
श्वान आय
ध्वांक्ष आय
धूम्र आय
धूम्र आय
ध्वज आय
सिंह आय
४०
वृष आय
साधु आश्रम
ध्यक्ष आय
यह अवश्य स्मरणीय है कि ध्वज आय सर्वत्र अनुकरणीय है अतएव यदि सभी जगह उपयुक्त आय की गणना स्थिर नहीं हो तो ध्वज आय का ग्रहण करना चाहिये ।
* व. सा. १ / ५३ से ५७
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(देव शिल्या
रेखांकन प्रासाद निर्माण हेतु परिकल्पना चित्र तैयार हो जाने के उपरांत शुभ मुहूर्तादि में भूमि चयन तथा शल्य शोधन कर लेवें। इसके बाद चयनित भूमि में शिल्पकार रेखांक-1 का कार्य प्रारममा करें।
रेखांकन प्रारंभ करने के पहले निर्माणकर्ता वर्णानुसार अपने अंग को स्पर्श करे। ब्राह्मण सिर को स्पर्श करे । क्षत्रिय नेत्र को स्पर्श करे । वैश्य पेट को स्पर्श करे तथा शूद्र पैरों को स्पर्श करें। *
रद्धांकन कार्य वर्तमान में चाक पावडर अथवा चूने से किया जाता है। किन्तु जिन प्रासाद के लिए रेखांकन शुभ द्रव्यों से किया जाना पुण्य वर्धक है। हाथ के अंगठे, मध्यमा अंगुली या प्रदेशिनी अंगुली से रेखा खींचना चाहिये । स्वर्ण, रजत आदि धातु से, मणि आदि रत्न से तथा पुष्प, दधि, अक्षत आदि से रेखांकन करना शुभस्कर है ।#
रेखांकन किये जाने के समय का शुभाशुभ कथन
१.यदि शरत्र से रेखांकित किया जाये तो शत्रुभय होता है। लोहे से रेखांकन करने से बन्धन भय होता है। भस्म से रेखांकन करने से अग्निभय होता है। तृण या काष्ठ से रेखांकन से राजभय होता है। यदि रेखा टूट जाये या टेढ़ी हो तो शत्रुभय होता है। रेखा स्पष्ट न हो तथा अशुभ ट्रव्य अर्थात् अस्थि, चर्म, दांत अथवा अंगार से बनाई गई हो तो अकल्याण होता है तथा मरण तुल्य कष्ट होता है।
२. रेखांकन के समय कोई थूक दें अथवा छींक देवे तो अशुभ होता है। यदि कोई कटु वचनों का प्रयोग करे तो यह भी शुभ नहीं है।
३. जिस समय नाप के लिए सूत्र डाला जाता है तथा इसके लिए कील ठोकी जाती है उस समय यदि सूत्र (धागा) पसारते समय टूट जाये तो महा अशुभ होता है इससे यजमान या मन्दिर निर्माता को मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट होता है। कील गाड़ने के समय यदि उसका मुख नीचे हो जाये तो भोषण संकट, भय, रोग, समाज के प्रमुख व्यक्ति अथवा शिल्पकार की स्मृति भंग तक हो सकती है।
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*विप्र स्पृथ्वा तथा शीर्ष वा क्षत्रियस्तथा।। शाश्चोळंच द्रश्द पादों स्पृष्ट्व-समार भेत ।। 233नुष्टकेन वा लुर्यान मध्यनुलया तोव च । प्रदेशिग्याध्यपि तथा स्वर्ण रौप्यादिधातुना ॥ पगिना कुसुमेर्वापि तथा दध्यक्षत फलैः। शस्त्रेण शत्रुतो मृत्यु बन्धा लोहेन भरमाना ।। अर्धट तृणेजापि काष्ठादि लिखितेन च । नृपादभद तथा वक्र खण्हे शत्रुभयं भवेत ।।
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देव शिल्प
४२
४. इसी प्रकार जलकुंभ लाते समय यदि कंधे से घड़ा गिर कर औंधा हो जाये तो समाज में उपद्रव होते हैं। यदि घड़ा फूट जाये तो श्रमिक की मृत्यु हो सकती है तथा यदि हाथ से घड़ा गिर जाये एवं फूट जाये तो प्रमुख व्यक्ति का अवसान हो सकता है। यदि विसर्जन के पूर्व ही घड़ा फूट जाये तो कीर्ति क्षय होता है।
**
अन्ततः यह ध्यान रखें कि अशुभ लक्षणों का अभाव करके ही सूत्रारम्भ का कार्य करें। जो रेखा खींची जाये उसमें भी बायें से दायी ओर खींची जाये तो सम्पत्ति लाभ होता है किन्तु इसके विपरीत करने पर शत्रुभय होता है।
**
विरूपा च दन्तेन चांगारेणास्थिनापि वा । न शिलाय भवेद्वेखा स्वामिनो परणं तथा ।। अपसव्यं क्रमे वैरं सव्वे सम्पदमादिशेत् । तस्मिन कर्म समारम्भे श्रुतंनिष्ठानितं तथा ॥ वाचस्तु परुषास्तत्र ये चान्ये शकुनाधामा: । तान् विव प्रकुर्वीत् वास्तु पूजन कर्मणि ।। सूत्रच्छेजे मृत्युः कीते चावांगपुखे महाजोगः । गृहनाथ स्वपति जां स्मृति लोपे मृत्युरादेश्यः ।। स्कन्धाच्युते शिरोसकुलोपसर्गोऽ५६र्जिते कुम्भः । भोपे च कर्मिदधच्युते कराद गृहपतेः मृत्युः ॥
कीर्तिवधः कुम्भे कुम्भस्योत्सव वर्जितः ।
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दिव शिल्प
मन्दिर में जल बहाव विचार मन्दिर के धरातल से जल के प्रवाह के लिये ढलान बनाना आवश्यक होता है ताकि वर्षा आदि का जल निराबाध बह सके। मन्दिर के धरातल की सफाई आदि करने से भी जल बहता है। अतएव फर्श का ढलान भी सही दिशा में होना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। *
पूर्व, ईशान अथवा उत्तर की ओर ही जल बहाव होना वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुरुप हैं। अतएव धरातल का ढलान भी हों तीन दिशा में लग लामदायक है। पारा दिशाओं में धरातल का ढलान न रखें।
पश्चिम, वायव्य तथा नैऋत्य में जल बहाव होने से समाज के लिए निष्प्रयोजनीय व्यय एवं अर्थसंकट आता है।
दक्षिण एवं आग्नेय में जल का बहाव होने से आकस्मिक धनहानि तथा मृत्यु तुल्य काट होते हैं। नैऋत्य एवं वायव्य में जल प्रवाह रोगों को निमन्त्रण देता है।
पानी निकालने की मोरी (प्लव) मंदिर में पानी निकालने के लिए मोरो या नाली बनाना पड़ता है। यह पूर्व, उत्तर अथवा ईशान की ओर निकलना चाहिये । अन्य दिशाओं में यह अत्यंत हानिकारक है । इनके दिशानुसार परिणाम इस प्रकार हैं :- ** मोरी की दिशा परिणाम पूर्व में
वृद्धिकारक उत्तर में
धनलाभ दक्षिण में
रोगकारक पश्चिम में धनहानि ईशान में शुभ आग्नेय में अशुभ, हानिप्रद नैऋत्य में अशुभ, हानिप्रद वायव्य में अशुभ फलदायक, हानिप्रद
*पुटवेसाणुत्तरं बुवहा
ब. सा. १/९ उत्तरार्थ
** पूर्व प्लवी वृद्धिकरों धनदश्चोत्तरे तथा। याम्यां रोगप्रदो ज्ञेयो धनहा पश्चिम प्लवः ।। ईशान्ये प्रागुटकप्लव स्त्वत्यन्त बदिनोजणाम् । अन्यदिक्ष प्लयो जेष्ट २४दत्यन्त हाजिदः ।। वृहदवास्तुपाला पृ १७० श्लोक ११/ ३२
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(देव शिल्प
(४)
अभिषेक जल
जिनेन्द्र प्रशु की प्रतिमा की पूजा का प्रमुख अंग अभिषेक क्रिया है। जल, दूध, दही, औषधि, इक्षुरस इत्यादि अमृत पदार्थों से प्रभु प्रतिमा का अभिषेक किया जाता है। इसके पश्चात शान्ति धारा की जाती है । यह अभिषेक जल गंधोदक के नाम से जाना जाता है । इसे अत्यंत पवित्र माना जाता है।'
वेदी अथवा पांडुक शिला पर प्रभु को विराजमान करने के लिए उनका मुख उत्तर या पूर्व में ही रखें। अभिषेक का जल निकलने की नाली या नलिका सिर्फ पूर्व या उत्तर दिशा में हो रखना आवश्यक है।
जिन मंदिरों की रचना पूर्व पश्चिम दिशा में है उनमें अभिषेक जल उत्तर में निकालना चाहिए। शिवलिंग वाले मंदिरों में भी इसी नियम का पालन करें। जिन मंदिरों को उत्तर दक्षि बनाया गया है उनमें नाली का मार्ग बायीं ओर अथवा दाहिनी ओर रखना चाहिए । दक्षिणाभिमुख प्रासाद की नाली बायीं ओर रखें। उत्तराभिमुख प्रासाद की नाली दायीं ओर रखें अर्थात् उत्तर मुखी मंदिर की नाली पूर्व में तथा दक्षिण मुखी मंदिर की भी नाली पूर्व में ही निकालें।
जिन मंदिरों की रचना उत्तर दक्षिण दिशा में है उनका अभिषेक जल पूर्व में ही निकाला जाना चाहिए । मण्डप में मूलनायक के बायीं ओर स्थापित देवों के अभिषेक का जल बायीं ओर निकालना चाहिए। मण्डप में मूलनायक के दाहिनी ओर स्थापित देवों के अभिषेक का जल दाहिनी ओर निकालना चाहिए । जगतो के चारों ओर जल निकालने की नाली बनाई जा सकती है। *
P
गर्भगृह का अभिषेक जल निर्गम - मकर मुख
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*शुद्ध तोटे क्षुसायि दुग्ध दयामजैः सैः । सर्वाणिभिरुष्पूर्ण वात्स्स्जापटोज्जिजम् । उ.प्या. १३४ **पिर मुखे द्वारे प्रणालं शुभमुत्तर ! प्रा.म. २/३५ प्रधि पूर्वापरं यदा द्वार प्रणालं चोत्तरे शुभम् । प्रशस्तं शिवलिंगाना इति शास्त्रार्य निश्चय : ।। अप.स. १०८ जैन मुक्ता: समस्ताश्च याम्योत्तर क्रमै : स्थिटाः । दाम दक्षिण योगोन कर्तब्ध सर्वकाम्दम् ।। अ.सू. १०८ पूर्वापरास्य प्रासादे नालं सौम्य प्रकारयेत् । तत् पूर्व यान्यसाधास्ट मण्डपे वाम दक्षिण | प्रा मंजरी/५० मण्डपे ये स्थिता देवारतेषां वाचदक्षिणे। प्रणालं कारखोद धीपान जगत्यां च चतुर्दशम् ।। प्रा.मं. २/३६
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देव शिल्प
प्रणाली का मान एक हाथ की चौड़ाई के तुल्य मंदिर में जल निकलने की नालो की ऊँचाई चार जव अर्थात आधा अंगुल रखें। इसके उपरांत प्रत्येक हाथ पर चार-चार जय बढ़ाऐं । इस प्रकार ५० हाथ चौड़े मंदिर में नालो २०० जव के बराबर अर्थात २५ अगुंल रख्ने । * अप. सू. १२८
__ जगती की ऊँचाई में तथा मण्डोवर (भित्ति के छज्जे के ऊपर चारों दिशाओं में पानी की नाली बनायें।
अभिषेक जल के उल्लंघनका निषेध
जन जैसर दो-
नारपसा में अमिक जल को अत्यंत पवित्र माना जाता है । इस जल का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। प्रतिमा के अभिषेक जल को या तो पात्र में एकत्र कर लिया जाना चाहिए अथवा इस जल को निकालने की नाली गुप्त रख-|| वाहिए। यदि इस जल का उल्लंघन किया जाएगा तो इससे पूर्व कृत पुण्य का क्षय होता है। शिव स्नानोटक के उल्लंघन रो परिहार के लिये इसे पहले चण्डगण के मुख पर गिराया जाता है। इसके उपरांत इस उच्छिष्ट जल का उल्लंघन करने पर दोष नहीं माना जाता। **
आरती एवं अखण्ड दीपक मंदिर में पूजा के अतिरिक्त आरती भी की जाती है। आरती के लिए धृत अथवा तेल का दोपक जलाया जाता है। आरती पीतल से निर्मित सुन्दर आरती स्टैण्डों में भी जलाई जाती है। मंदिर में वेदो के समक्ष भगवान की प्रतिमा के निकट आग्नेय दिशा में आरती रखना चाहिए। अनेकों स्थलों पर अखण्ड दीपक जलाने की परम्परा है। रो दीपक भी आग्नेय दिशा में रखने चाहिए ।
मंदिर के दाहिने भाग में दीपालय बनाना शुभ है तथा यश एवं सुख प्रदाता है, जबकि बांये भाग में दीपालय बनाना यश एवं सुख का हरण करता है। #
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*जलनालियाउ फरिसं करंतर चउजवा कमेणुस्त्वं । जठाई अभित्ति उदर Bउजइ समनजदेनेहिं पि।व.सा.३/५४ **शिवस्नानोदकं गढ़ मार्गे चण्डमुखें क्षिपेत् । दृष्टं न लंबोत्तत्र हन्ति पुप्यं पुराकृतम् । प्रा. म. २/३२ #टीपालयं प्रकर्तव्यं वाहस्य दक्षिणांताके। वापांगे तु न कर्तव्यं स्वामियशः सुखापहम् ।। शिर. ३/१23
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(देव शिल्प
४0 स्नान गृह जिन मन्दिरों में नियमित दर्शन पूजन करना प्रत्येक गृहस्थ का नित्य कर्म होता है। प्रातःकालीन क्रियाओं से निवृत्त होने के उपरांत सर्वप्रथम जिनदेव का दर्शन पूजन करना चाहिये।
पूजा करने के इच्छुक उपासक के लिये यह आवश्यक है कि वह धुले हुए शुद्ध वस्त्रों को पहनकर ही भगवान की पूजन, अभिषेकादि क्रिया सम्पन्न करे। पुरुष धोती-दुपट्टा पहनकर तथा स्त्रियां साड़ी पहनकर ही पूजाभिषेक क्रिया करें।
पूजन करने के पूर्व गात्र शुद्धि ( देह शुद्धि) परमावश्यक है। अतएव यदि पूजक घर से स्नान करके मन्दिर आयेगा तो मार्ग में अशुद्धि होने की आशंका रहती है। अतएव यह उपयुक्त है कि उपासक मन्दिर परिसर में ही स्नान कर लेवे तथा वहीं पर धुले हुए शुद्ध वस्त्रों को धारण कर भक्ति भाव से जिनेन्द्र प्रभु का अभिषेक पूजन करे।
स्नान गृह का निर्माण मन्दिर के पूर्व, उत्तर अथवा ईशान भाग में ही करना चाहिये। ये सम्भव न होने पर वायव्य में भी स्नान गृह बनाया जा सकता है। पूर्व की तरफ स्नान गृह बनाने से प्रातःकालीन सूर्य किरणों की ऊर्जा अनायास ही प्राप्त हो जाती है।
स्नान गृह के जल का प्रवाह उत्तर अथवा ईशान में ही रचना उपयुक्त है। अन्य दिशाओं में जल प्रवाह रखना अनिष्टकारी होगा तथा स्नान शुचिता को गो निष्फल कर देगा।
पूजन के लिए वस्त्र धारण करते समय पश्चिम / उत्तर की ओर मुख रखना चाहिये। आचार्य उमास्वामो के मतानुसार स्नान पूर्व दिशा की ओर मुख करके करें। दन्तधावन पश्चिम की ओर मुख करके करें। श्वेत वस्त्र परिधान उत्तर की ओर मुख करके करें तथा पूजन पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके करें।*
पूजन सामग्री तैयार करने कास्थान ___ मंदिर में उपासकों के लिए पूजन सामग्री - जल , चन्दन ,अक्षत , पुष्प आदि द्रव्यों को धोकर थालियों में सजाया जाता है। दीप तथा धूपघट तैयार किये जाते हैं। ये कार्य मंदिर के ईशान भाग में करें। यह कार्य पूर्व अथवा उत्तर दिशा में भी कर सकते हैं ।
.. पूजन हेतु कपड़े बदलने का स्थान मंदिर में पूजा करने हेतु शुद्ध धुले हुए धोती-टुपट्टे अथवा महिलाओं को धुली शुद्ध साड़ी धारण करना आवश्यक है । यह कार्य भी ईशान, उत्तर अथवा पूर्व दिशा में करना चाहिए । वस्त्र धारण करते समय उत्तर की ओर मुख रखें ।*
*स्नानं पूर्वमुखी भूव प्रतीच्यां दन्तधावनम् । उदीच्या श्वेत वस्त्राणि, पूजा पूर्वोतरामुरवी ।। उपास्वामी श्रावकाचार /२७
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(देव शिल्प
पादप्रक्षालन स्थल मन्दिर जिनेश्वर प्रभु का स्थान है अतएव यह परम पावन है तथा नव देवताओं में से एक देवता होने से पूज्य है। इसकी पूज्यता, शुचिता एवं पवित्रता स्थायी रखना प्रत्येक उपासक का कर्तव्य है। पूजन एवं दर्शन के इच्छुक उपासक को शुद्ध वस्त्र पहनकर आना अपेक्षित है। प्रवेश के पूर्व ही यह आवश्यक है कि वह अपने पांवों का जल से प्रक्षालन करे ताकि अशुचि बाहर ही रह जाये एवं प्रवेशकर्ता शारीरिक तथा मानसिक दोनों रुप से शुद्ध हो जाये। तभी यह भावपूर्वक जिनेश्वर प्रभु की बन्दना स्तुति पूजा सार्थक रुप से कर सकेगा।
__ भन्दिर सामान्यतः पूर्वाभिमुखी अथवा उत्तराभिमुखी होते हैं। दोनों ही स्थितियों में पाद प्रक्षालन ईशान दिशा में प्रवेश के समीप हो रखना उपयोगी है। यदि कदाचित् किसी मन्दिर में पश्चिम दिशा से प्रवेश हो तो वायव्य दिशा की ओर पानी रखना चाहिये।
- इसी तरह दांण से प्रवेश साधारणत नहीं होता किन्तु यदि ऐसा हो भी तो पानी किसी भी स्थिति में आग्नेय में न रखें। जल प्रवाह के लिये नाली का बहाव पूर्व, ईशान अथवा उत्तर दिशा में ही निकालना चाहिये।
जूते-चप्पल रखने का स्थान जिनालय में यथाशक्य जूते-चप्पल पहनकर नहीं आना चाहिये। नंगे पैर आना वास्तव में तीन लोक के नाथ के प्रति उपासक की विनम्रता प्रदर्शित करता है। यदि अपरिहार्य स्थिति वश ऐसा कार भी पड़े तो जूते-चप्पल पानी के स्थान से पृथक आग्नेय अथवा वायव्य दिशा में हो रखना चाहिये।
धर्मायतनों में प्रवेश करने के पूर्व ही जूते चप्पल त्यागना तो इष्ट है, साथ ही यदि पर्स, बेल्ट. फाइल इत्यादि चमड़े की अथवा अन्य अशुद्ध पदार्थ की बनी हो तो उसे मन्दिर के दरवाजे पर ही छोड़कर पश्चात् हाथ धोकर ही प्रांगण में प्रवेश करना चाहिये । मन्दिर का वातावरण शुद्ध रखना उपासक का कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व दोनों है।
कचरा रखने का स्थान
जिस तरह हम नियमित रुप से घर की सफाई करके कचरा बाहर निकालते हैं उसी भांति मन्देिर से भी नियमित रुप से सफाई करके कचरा निकालना आवश्यक है। मन्दिर में सफाई न रहने से मन्दिर की शुचिता एवं पवित्रता घटती है। पूजन आदि कार्य फलहीन हो जाते हैं। मन की स्थिरता भंग होती है। अतएव मन्दिर की नियमित सफाई अवश्य ही करना चाहिये। निकले हुए कचरे को इधर उधर न फेंककर निश्चित स्थान पर डालना चाहिये।
कचरा रखने का पात्र पूर्व, ईशान एवं उत्तर में नहीं रखना चाहिये। न ही इसे मुख्य द्वार के समक्ष रखना चाहिये। कचरा पात्र नैऋत्य, पश्चिम या दक्षिणी भाग में रखना चाहिये। कचरा पात्र मन्दिर की दीवाल से सटाकर नहीं रखना चाहिये। इसी तरह कोयला, पत्थर आदि का ढेर भी मन्दिर दीवाल से सटाकर नहीं रखें।
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(देव शिल्प
Ye यांदे उत्तर, पूर्व एवं ईशान में कचरा रखा जायेगा तो इससे समाज में मतभेद, अकालमृत्यु, मानसिक संताप, शत्रुता सरीखे दुखद घटनाक्रम होने की संभावना रहेगी। जबकि यही पात्र नैऋत्यादि दिशाओं में रखने से सद्भावना, सौहार्द, शुभ वातावरण निर्मित होगा।
यह ध्यान रखें मन्दिर भीतर एवं बाहर जितना अधिक साफ सुथस एवं पवित्र होगा, समाज एवं उपासकों के लिये उतना ही अधिक यश, उन्नति, लाभ एवं वैभव की प्राप्ति होगी।
. माली एवं कर्मचारी कक्ष
मन्दिर का प्रयोग अधिक लोगो के द्वारा किया जाता है जत५५ उनके आवागमन व्यवहार से मन्दिर में साफ सफाई की निरंतर आवश्यकता होती है। मन्दिर के रख रखाव आदि के लिए बागवान या गाली नियुक्त करने की परम्परा है। मन्दिर में पूजा के लिये लगी पुष्पवाटिका का रख- रखाव मालो करते है। साथ ही मन्दिर का भो रख रखाव भाली अथवा अन्य कर्मचारी करते हैं।
यदि गन्दिर प्रांगण) पर्याप्त बिस्तृत है तो माली जो एवं कर्मचारियों के कक्ष दक्षिण पश्चिम भाग में बनायें। इनके कक्षों के द्वार उत्तर या पूर्व की ओर ही हों तथा छत एवं फर्श का ढलान भी उत्तर, पूर्व या ईशान की तरफ हो। इनके द्वार दक्षिण या पश्चिम की ओर कदापि न रखें। .
यांदे कारणवश उत्तर या पूर्वी भाग में कर्मचारी कक्ष बनाना पड़े तो इसे मुख्य दीवाल रो दूर हटकर बनाना चाहिये।
पश्चिम के कम्पाउन्ड रो लगाकर यदि रोबक गृह बनायें तो सेवकगृह के पश्चिम में रिक्त स्थान छोड़ें।
कार्यालय एवं सूचना पटल मन्दिर एवं सम्बन्धित सामाजिक, धार्मिक गतिविधियों के सुचारु रुपेण सम्पादन के लिए कार्यालय का निर्माण किया जाता है। इसमें धनराशि का एवं अन्य सम्पत्तियों का लेखा जोखा भी रखा जाता है। प्रमुख रुप रो तीर्थ क्षेत्रों पर मन्दिर में एक कार्यालय नितान्त आवश्यक होता है। कार्यालय का निर्माण मन्दिर परिसर के पूर्व या उत्तर में करें। अपरिहार्य स्थिति में पश्चिम में भी बना सकते हैं किन्तु कक्ष का द्वार पूर्व या उत्तर में ही रखें। कार्यकर्ता, ट्रस्टीगण इत्यादि कार्य करते समय अपना मुख उत्तर या पूर्व में रखें। ऐसा करने से कार्य सम्पादन सुचारु रूप से होता है तथा सफलता मिलती है।
सूचना पटल कार्यालय की बाहरी दीवार पर लगायें। मन्दिर के प्रमुख प्रवेश द्वार के समीप भी इसे लगा सकते हैं। सूचना पटल मन्दिर की मुख्य दीवार पर इस प्रकार लगायें कि पानी की बौछार इत्यादि से सुरक्षित रहे । मन्दिर की दीवाल पर पृथक कील ठोंक कर कोई भी सूचना अथवा आमन्त्रण पत्रिका नहीं टांगना चाहिये। अन्यथा समाज में निरर्थक तनाव निर्मित हो सकता है।
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(देव शिल्प
८४९०
धर्मसभाअथवा व्याख्यानभवन
मन्दिर जिनेश्वर प्रभु का आलय है। यहां पर आने से उपासक को मानसिक शान्ति के साथ ही धर्म मार्ग की प्राप्ति होती है। समय समय पर मन्दिर में आचार्यगण और साधु परमेष्टी अपने संघ सहित पदार्पण करते हैं। धनिष्ठ श्रद्धालुजन उनके प्रवचनों का लाभ लेकर अपना जीवन धन्य करते हैं। प्रवचन या व्याख्यान भवन का निर्माण इसी लिये किया जाता है कि धर्म सभा का लाभ अधिक से अधिक प्राणियों को हो सके। साथ ही अन्य येदिकाओं में पूजनादि कर्म कर रहे उपासकों को भी विख्न न हो।
धर्मसभा भवन का निर्माण मन्दिर के उत्तरी भाग में करना सर्वश्रेष्ठ है। इसका निर्माण इस प्रकार किया जाना चाहिये कि प्रवचनकर्ता का चबूतरा दक्षिणी भाग में बनाया जाये तथा धर्माचार्य उत्तर की ओर मुख करके धर्मसभा को सम्बोधित करें। यदि दक्षिण में चबूतरा बनाना संभव नहीं हो तो दक्षिण के स्थान पर पिसम में बनारों लशा धर्माचार्य पर्व मखी होकर व्याख्यान देवें।
इस कक्ष में द्वार उत्तर, पूर्व, ईशान में ही बनायें। अपरिहार्य स्थिति में दक्षिणी आग्नेय तथा पश्चिमी वायव्य में ही बनायें अन्यत्र नहीं । हाल की ऊंचाई पर्याप्त रखें, किन्तु वह मुख्य मन्दिर से ऊंचा न हो। हाल में वायु के आवागमन के लिये पर्याप्त व्यवस्था रखें। हाल के बाहरी भाग में आग्नेय कोण की तरफ बिजली के मीटर, स्विच बोर्ड आदि लगाये। ईशान में कदापि न लगायें। भले ही वायव्य में लगा सकते हैं।
धर्मराभा की छत का रंग सफेद ही रखें । अन्य रंग संयोजन भी इस प्रकार रखें कि उपयोगकर्ता को सुख शांति का अनुभव हो । यह ध्यान रखें कि कोई भी बीम ऐसी न हो जो कि प्रवचनकर्ता के स्थान के ऊपर स्थित हो।
स्वतन्त्र रुप से स्वाध्याय करने वाले श्रावक अपना मुख उत्तर में रखकर बैठे। पूर्व की दिशा में भी मुख करके बैठ सकते हैं। यदि इस कक्ष में शास्त्र की आलमारियां तथा भंडार (दानपेटी) रखना हो तो उसे नैऋत्य भाग में ही रखें।
- कदाचित् सामाजिक उद्देश्य की सभा, अधिवेशन आदि के लिये इन कक्षों का प्रयोग कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में सभापति नैऋत्य भाग में बैठे तथा उसका मुख उत्तर की ओर ही होवे। किसी भी परिस्थिति में मूल मन्दिर में सामाजिक सभाएं न करें। इससे मन्दिर की शुचिता में दोष आता है।
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(देव शिल्प
धर्म सभा कक्ष में सजावट के लिए उपयोगी चित्र
षड् लेश्या दर्शन
संसार मधु बिन्दु दर्शन
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(देव शिल्प
फल
विभिन्न दिशाओं में धर्मसभा कक्ष बनाने का फल: दिशा
उत्तम वार्तालाप, आपसी विश्वास में वृद्धि आग्नेय निरर्थक वार्तालाप दक्षिण मतभेद, चैमनस्य नैऋत्य विचार शैथिल्य, दुर्भावना पश्चिम उत्साह का अभाव वायव्य आपसी नाराजी, भ्रम उत्तर रार्वोत्तम, शांतिपूर्वक वार्तालाप, सभाधान ईशान उत्तम चर्चा
शास्त्र भंडार जिनेश्वर प्रभु के गन्दिर में पूजन दर्शन करने के उपरांत शास्त्र स्वाध्याय का बहुत महत्व है। जिनेन्द्र प्रभु द्वारा प्रतिपादित भोक्ष मार्ग जानने के लिये यह आवश्यक है कि हम उनके उपदेशों से परिचित हों। प्राचीनकाल में शास्त्रों का लेखन ताड़पत्रों पर होता था। पश्चात कागज के हस्त लिखित शास्त्रों का युग आया। धर्म की परम्परा निर्याहते ये शास्त्र वर्तमान में आधुनिक मशीनों द्वारा मुद्रित किये जाते हैं। इन शास्त्रों को पृथक से रखना चाहिये ताकि उपयोगकर्ता आसानी से अपेक्षित शास्त्र निकाल सके । ताड़ पत्र एवं प्राचीन हस्तलिखित शास्त्रों को पृथक आलमारो में भली भांति सुरक्षित रखना चाहिये। अत्यधिक उपयोग में आने वाले पूजा ग्रन्थ एवं गुटके पृथक सर्वोपयोगी स्थान पर रखें।
सभी शास्त्र भंडार की आलमारियां दक्षिणी, नैऋत्य अथवा पश्चिमी भाग में रखें ताकि ये उत्तर या पूर्व की तरफ खुलें । सभी आलमारियां यथा संभव दीवाल से सटाकर रखना चाहिये। आलभारियों का आकार आयताकार ही रखें, विषम आकार की न रखें। आलमारियां टेढ़ी या झुकाकर न रखें। दीवाल के अन्दर बनी सभी आलमारियां एक ही सूत्र में बनायें। विषम रखने से मन्दिर में निरर्थक वाद विवाद की संभावना बनती है।
दीवालगत आलमारियों के ऊपर खूटी या कील न टुकवायें अन्यथा निरर्थक मानसिक तनाव उत्पन्न होगा।
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५२)
(दलिप मन्दिर में उपयोगी सजावटी चित्र
तीर्थलकर की माता ले सोलह स्वप्न
A
M
SAJJUMMIUy PHICS.
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१- राफेद हाथी
२- पाटबल
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३- सिंह
-लक्षमीका कलशाभिषेक
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५- पुष्पमाला युगल
६- पूर्ण चन्द्रमा
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७- उदीयमान सूर्य
८- मीन युगल
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(देव शिल्प
मन्दिर में उपयोगी सजावटी चित्र
तीर्थंकर की गाता कै . शीलह स्वप्न
SHES
RUrdu
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६ पूर्ण कला युगल
१० पदासगार
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नात
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14-उन्मत स्मुद्र
१२- रत्न जड़ित सिंहासन
१३- देव विमान
१४-धरणेन्द्र भवन
Immons
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57
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-
५५-प्रकाशमान रनराशि
१६- धूम्ररहित अग्नि
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(दव शिला
मन्दिर में उपयोगी सजावटी चित्र
IRL
राज श्रेयासद्वारा आ.देगाथ प्रभुको आहार दान
ऐरावत हाथी ऐरावत हाथी पर इन्द्र का जन्माभिर क लिए गमन
ZHDaily
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(देव शिल्प
गुप्त भंडार एवं धन सम्पत्ति कक्ष
मन्दिर में दर्शन पूजन करने वाले श्रद्धालु, उपासक सामान्यतः कुछ न कुछ दान नियमित रूप से करते ही हैं। इसे भंडार तिजोरी में डाला जाता है। इसमें दान करने वाले का नाम गोपनीय होता है । अतः दूरो गुप्त भंडार भी कहा जाता है। कुछ राशि बोलियों के माध्यम से भी प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त कुछ तीर्थस्थलों में छत्र चढ़ाने की भी मान्यता है। मन्दिरों में छत्र, चंबर, 'भामंडल, सिंहासन कीमती धातुओं यथा चांदी से बने पूजा के बर्तन इत्यादि भी रखना पड़ता है। इन सबके भंडारण के लिये शास्त्रकारों ने उत्तर दिशा को सर्वोत्तम कहा है। यह कुबेर का स्थान है तथा यहा पर स्थित भंडार स्थिर एवं वृद्धिंगत होते हैं। किसी भी स्थिति में भंडार वायव्य में न रखें।
५५
गुप्त भंडार बनाने के लिये आवश्यक निर्देश
५- यदि मन्दिर पूर्णभिमुखी है तो भंडार पेटी / तिजोरी जिन प्रतिगा के दाहिनी ओर रखना चाहिये तथा इस प्रकार रखें कि वह उत्तर की ओर खुले ।
२- यदि मन्दिर उत्तराभिमुखी हो तो भंडार पेटी / तिजोरी भगवान के बायें हाथ की ओर तथा उत्तर की ओर खुले इस प्रकार रखें। ऐसा करने से भंडार सदैव वृद्धिगत होते हैं।
३- गुप्त भंडार कभी भी दीवालों के अन्दर न बनायें ।
४
५.
६
19
गुप्त भंडार पेटी कभी भी दीवाल से सटाकर न रखें ।
गुप्त भंडार सीढ़ी के अथवा बीम के ठीक नीचे न रखें।
मन्दिर के सभी महत्वपूर्ण कागजात भी उत्तरी दिशा में खुलने वाली आलमारी में रखें। अलगारी दक्षिण भाग में रखें।
मन्दिर के बहुमूल्य उपकरण एवं भंडार दक्षिण, पश्चिमी अथवा नैऋत्य भाग में रखें। आज़गारी का मुख उत्तर की ओर खुले। ऐसा करना श्री वर्धक होता है। इससे समाज में सहयोग रहता है तथा नि तर धनागम होता है।
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(देव शिल्प
(५६०
प्राचीन मन्दिरों में प्रायः मध्य में खुलो जगह छोड़ो जाली है। दक्षिण भारत में मन्दिर के गध्य में चौकोर खुली जगह रखी जाती है। प्राचीन शैली में भी मध्य में चौकी मण्डप (चतुष्किका) रखी जाती यो ! इस प्रकार का चौक पूरी तरह खुला भी रखा जाता है एवं आच्छादित भी। ऐसा करने से प्राकृतिक वाय प्रवाह एवं प्रकाश आता है । मन्दिर में आने वाले उपासकों के लिये यह अत्यंत उपयोगी है।
चौक को ऊपर से पूरी तरह खुला रखने के स्थान पर यदि उसमें जाली लगा दी जाये तो पक्षी एवं पानर आदि का आवागमन नहीं होता तथा मन्दिर में पवित्रता बनी रहती है। सुरक्षा की दृष्टि से भी यह उपयोगी है कि ऊपर जाली रहे।
____ मन्दिर में चौक रहने से समाज में पारस्परिक प्रेम-सद्भाव निर्मित होता है। समाज में मनमुटाव के अवरार कम होते हैं।
मन्दिर में रिक्त स्थान का नारा
मन्दिर निर्माण करते समय यह आवश्यक है कि परकोटे एवं मन्दिर के मध्य पर्याप्त खुली जगह छोड़ी जाये। खाली जगह उत्तर एवं पूर्व दिशा में अधिक छोड़ी जाये तथा दक्षिण एवं पारग में कम किसी भी स्थिति में उत्तर में दक्षिण की अपेक्षा कग से कम दुगुनी भूमि रिक्त रखना चाहिये। इसी प्रकार पूर्व में पश्चिम की अपेक्षा कम रो का दुगुनी भूमि रिक्त रखना चाहिए। ऐसा करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है।
यदि गन्दिर के दक्षिण एवं पश्चिा में रिक्त स्थाः। अधिक हो तो विधान के परामर्श रो वहां कोई निर्माण कार्य करा लेना चाहिये। ऐसा करने से इसके दोष कम हो जायेंगे !
मंदिर में रिक्त स्थान का दिशानुसार फल | रिक्त स्थान की दिशा | फल
कार्य सम्पादन के लिए उत्साह, शनि आग्नेय
महिलाओं को स्वास्थ्य हानि दक्षिण
सर्वत्र कुफल सत्य
अशुभ पश्चिम
अशुभ
घायच्य
मध्यम
उत्तर
ऐश्वर्य लाभ उत्तम पुत्र, विद्या लाभ
ईशान
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(देव शिल्प
रिक्त भूमि एवं मंदिर भूमि विस्तार मंदिर निर्माण के उपरान्त यदि स्थान कम पढ़ने के कारण रागोप की भूमि लेना हो तो वास्तुशास्त्र के नियम के अनुकूल हो लेना चाहिए। मंदिर के पीछे की जमीन खरीदकर, मंदिर का विस्तार नहीं कर ! चाहिए।
मादेर के भूखण्ड के पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर की रिक्त भूमि क्रय कर भूमि का विस्टार किया जाना चाहिए। मंदिर के भूखाड के पश्चिम एवं दक्षिण दिशा की ओर की रिक्त भूमि क्रय कर भूमि का शिरतार नहीं करना चाहिए।
मंदिर की भूमि विस्तार करते समय यह आवश्यक है कि भूखण्ड का आकार न बिगड़े अर्थात भूखण्ड आयताकार अपना का दिन है। कोई भी गोल कटने अथवा अधिक बढ़ने का प्रसंग न आये। योग कटना अनिष्ट का संकेत करेगा।
उत्तर
उत्तर
Haglb
मंदिर
अतिरिक्तः भूनि लेने योग्य ।
पश्चिम
अतिरिक्त भूमि लेने योग्य नहीं
मंदिर
दक्षिण
दक्षिण
उत्तर
उत्तर
मंदिर
अतिरिक्त भूमि लेने योग्य
पश्चिम
अतिरिस भूमि लेने योग्य नहीं
पंदिर
दक्षिण
दक्षिण
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(५८) तलघर तलघर का तात्पर्य मुख्य धरातल के नीचे खुदाई करके कमरे इत्यादि के लिये स्थान बनाना है। वर्तमान युग में कम भूमि क्षेत्र में अधिक क्षेत्रफल निकालने के लिये बहुमंजिली निर्माण के अतिरिक्त नीचे तलघर बनाये जाते हैं। प्राचीन जिन मन्दिरों में विधर्मियों के आक्रमण से रक्षा के निमित्त ये तलघर बनाये जाते थे ताकि संकट के समय जिन प्रतिमाओं को संरक्षित किया जा सके। मध्यकालीन समय में इसी पद्धति के कारण जिन संस्कृति को बचाया जा सका। इसी कारण आज भी यत्र तत्र भूमि खनन के समय प्राचीन जिन बिम्ब तथा समूचे अथवा भग्न जिनालय मिलते रहते हैं।
तलघर का निर्माण अत्यंत आवश्यक होने पर ही करना चाहिये। सिर्फ आंधक जगह निकालने के लिये निरुद्देश्य तलधर नहीं बनाना चाहिये। यदि अपरिहार्य स्थिति में तलघर बनाना ही इष्ट होवे तो केवल निर्धारित दिशाओं में बनाना चाहिये। तलघर बनाने से यदि बचा जा सके तो बचना वाहिये।
तलघर बनाते समयपालनीय निर्देश १. तलघर केवल ईशान दिशा में बनायें। यदि कुछ दीर्घाकार अपेक्षित हो तो उत्तर या पूर्व तक बनायें। २. किसी भी स्थिति में आनेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य एवं मध्य में तलघर नहीं बनायें। ३. तलधर का आकार आयताकार अथवा वर्गाकार हो होना चाहिये। ४. कोई भी तलाधर ऊपर की वेदियों के ठोक नीचे नहीं आना चाहिये। ५. तलघर के फर्श के धरातल पर ढलान भी केवल ईशान, पूर्व या उत्तर की ओर ही आना चाहिये। ६. किसी भी स्थिति में पूरे जिनालय के नोचे तलघर नहीं बनाना चाहिये। (७.. तलघर में उतरने की सीढ़ियों का उतार दक्षिण से उत्तर अथवा पश्चिम से पूर्व होना चाहिये। ८. यथा सम्भव दक्षिणो दोवाल की तरफ से सीढ़ियां बनाना चाहिये। ९. ध्यानप्रिय साधु एवं श्रावक वहां पर स्थिर चित्त होकर ध्यान कर सकें, इस हेतु समुचित प्रकाश एवं वायु की व्यवस्था रखें। १०. मन्दिर के प्रमुख प्रवेश के नीचे तलघर नहीं बनाना चाहिये।
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(देव शिल्प)
विभिन्न दिशाओं में तलघर बनाने के शुभाशुभ फल
Fien
पूर्व
आग्नेय
दक्षिण
नैऋत्य
पश्चिम
वायव्य
उत्तर
ईशान
फल
शुभ
अशुभ, समाज में मनमुटाव, विवाद
अत्यन्त दुख, समाज एवं मंदिर निर्माता पर आपदा
अति दुख, समाज में सुख शांति का नाश
अशुभ
अशुभ, निरंतर परेशानियां
शुभ
उत्तम, शुभ, प्रशस्त, श्री वृद्धि
५९
यथा संभव तलघर बनाने से बचना चाहिए । अत्यंत अपरिहार्य होने पर ही राहीं दिशा में तलधर बनायें।
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(देव शिल्प)
रंग संयोजना
वास्तु का निर्माण करने के उपरांत उस पर रंग करके उसे रमणीय तथा शांतिवर्धक बनाया जाना चाहियो मन्दिर में भी बाहर ऐसी रंग योजना को जाना चाहिये कि बाहर से गन्दिर
आकर्षक एवं गातेप्रदायक हो। भीतर पहुंचने के उपरांत भी गन्दिर का वातावरण धर्ममय, ध्यान योग निया में सहायक तथा श्री जिनेन्द्र प्रभु की प्रभावना में वृद्धिकारक हो । मन्दिर में प्रवेश होते ही उपासक संसारी मोहमाया के पाश रो विरत होकर श्री वीतराग जिनेन्द्र प्रभु के श्री चरणों में शरण पा सकें, ऐसा आमारा गीतरी सयोजना से होना आवश्यक है। जिस प्रकार वाटिका में हमें पुष्प आकर्षित एवं आल्हादित 4.रते हैं उसी प्रकार मंदिर का वातावरण भी हमें प्रसन्न करने वाला होना चाहिये। रंग योजना इस प्रक्रिया का अविभाज्य अंग है।
पूजन, जाप. विधान इत्यादि करते समय वस्त्र, माला, पुष्प, आसन इत्यादि के रंगों का स्पष्ट विवेचन जैन ग्रन्थों में मिलता है। मन्दिर के भीतरी भागों में ज्यादा गाढ़े रंगों का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिये। काला, डार्क चाकलेटी, डार्क नीला. डार्क ब्राउन, डार्क ग्रे कलर कहीं भी इस्तेमाल न करें।
गुलाबी, आसमानी, सफेद, पीला, केसरिया, हरा इत्यादि रंग यथास्थिति प्रयोग करें। दो या आंधक रंगों का प्रयोग करते समय यह अवश्य स्मरण रखें कि नीचे गाढ़ा तथा ऊपर फीका रंग, इस प्रकार रायोजित करें।
छत का रंग या तो सफेद रखें अथवा एकदम फीका । रंगों में चमक होना भी वर्जित नहीं है किन्तु उससे मन्दिर के धीतरागी स्वरूप में परिवर्तन न हो, यह आवश्यक है।
___ मन्दिर का शिखर श्वेत रंग का रखना उपयुक्त है। यही रंग सर्वाधिक प्रभावकारी है। भगवान जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए दृष्टाष्टक स्तोत्र में भी यही कहा है -
जिनेन्द्र भवनं भवतापहारि। भव्यात्ममा विभव संपद भूहिहंतु ।। दुग्धादिध फेन धवलोज्जवल कट कोटि । नदप्वज प्रकर राजि विराजमानम् ।।
इस स्तुति में जिनेन्द्र भवन का बाहरी रंग तथा शिखरादि का रंग फेन के समान उज्ज्वल श्वेत होना निर्देशित है। अतएव सभी प्रकार की रंग संयोजनाओं में यहीं प्रमुख लक्ष्य रखें कि उनसे वातावरण शांतिदायक एवं मनोरम बने। श्वेत रंग का शिखर दूर से ही उपासक को आकर्षित करता हैं तथा उसका चित्त जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन की कल्पना मात्र से ही पुलकित हो उठता है
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(देव शिल्प)
मंदिर में विविध रंगों का प्रभाव
श्वेत
नाला
रंग प्रभाव
शारीरिक, मानसिक, स्वास्थ्य रक्षक शांति, सौहार्द, सगन्वय का प्रेरक
में, उत्त
शुभ, उत्तम गुलाबी शुभ, उत्तम आसमानी शान्ति, उत्साहवर्धक लाल मध्यम काला शोक, उदासीनता, अशुभ चाफलेटो उदासीनता, असफलता, अशुभ
हरा
मुख्य द्वार एवं अन्य दरवाजों पर भी इन रंगों का प्रयोग पूरी सावधानी से करें। लाल रंग का प्रयोग दरवाज़ों पर न करें। कोई भी रंग इतना तेज न होवे कि नेत्रों को दुखदायक एवं अरुचिकर होवे।
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देव शिल्प
पुष्पवाटिका एवं वृक्ष प्रकरण
मन्दिर एवं अन्य धार्मिक, सामाजिक प्रयोग की वास्तु निर्मितियों में शोभा एवं सुविधा के लिये पुष्पवाटिका लगाई जाती है तथा वृक्षारोपण किया जाता है। पर्यावरण की शुचिता के लिये यह उपनिमि है। वृक्ष रोप एवं वाटिका जगाते समय यह स्मरण रखें कि ऊंचे वृक्ष मन्दिर के दक्षिण एवं नैऋत्य भाग में ही लगायें। इन वृक्षों की छाया दोपहर (प्रातः ९ बजे से दोपहर तीन बजे) के मध्य मन्दिर अथवा वास्तु पर नहीं पड़ना चाहिये। जिन वृक्षों को मन्दिर प्रांगण में लगाने का निषेध किया है, उन्हें कदापि न लगायें, अन्यथा अनिष्ट होने की आशंका निरंतर बनी रहेगी ।
पुष्प वाटिका
मन्दिर में पूजन के लिये पुष्पों की आवश्यकता होती है। इसके लिये उपयोगी पुष्पों के पौधे एवं वृक्ष पुष्पवाटिका में लगाना चाहिये। पुष्पवाटिका में निरन्तर विविध रंगों के पुष्पों से वातावरण प्रफुल्लित रहता है। साथ ही शुभ मंगलमय वातावरण निर्मित होता है। पुष्पवाटिका लगाते समय ध्यान रखें कि उसे मन्दिर के उत्तर, पूर्व, ईशान भाग में ही लगायें । आग्नेय दक्षिण एवं नैऋत्य में पुष्प वाटिका लगाने से कष्ट एवं मानसिक संताप होता है। उत्तर पूर्व, पश्चिम एवं ईशा में पुष्प वाटिका लगाने से पुत्र, धन, धान्य आदि का लाभ होता है।
वृक्ष
मन्दिर में दूध वाले वृक्ष नहीं लगायें। यदि प्रांगण में पूर्व से लगे हुए हों तो नागकेशर, अशोक, अरोता, बकुल, पास, शमी, शालि इत्यादि सुगंधित वृक्षों को लगाने से यह दोष दूर हो जाता है। कंटीले वृक्ष मन्दिर में न लगायें, इनसे मन्दिर एवं समाज दोनों के लिए कष्टकारी स्थिति निर्मित होती है। मन्दिर प्रांगण में फलदार वृक्ष न लगायें। नारियल लगा सकते हैं किन्तु केवल दक्षिण एवं नैऋत्य दिशा में ही लगाएं। फलदार वृक्षों की लकड़ी भी गन्दिर निर्माण के लिए उपयोग न करें। नीम, इमली इत्यादि वृक्ष असुरप्रिय होने से मन्दिर प्रांगण होने से मन्दिर प्रांगण में न लगाना ही उत्तम है। इन जनआवागमन बाधित होता है।
वृक्ष का नाम
पोपल
पीपल
णकर
पाकर
वट
चट
उदुम्बर
उदुम्बर
वृक्षों को विभिन्न दिशाओं में लगाने का फल
दिशा
पूर्व
पश्चिम, दक्षिण
दक्षिण
उत्तर
पश्चिम
पूर्व
उत्तर
दक्षिण
फल
भय
६२
शुभ
पराभव
शुभ, धनागम राजकीय कष्ट
शुभ, मनोरथ पूरक
नेत्ररोग
शुभ
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६३
(देव शिल्प
सोपान (सीढ़ियां) मन्दिर अथवा अन्य धर्मायतनों में बहुमंजिला निर्माण होने की स्थिति में सीढ़ियों का निर्माण आवश्यक होता है। इसी तरह प्रमुख प्रवेश द्वार पर मन्दिर में प्रवेश के लिये भी सोपान आवश्यक है। प्रवेश के सामने जो ढ़ियां बनाई जाये, उनका उतार पूर्व था उत्तर की ओर होना चाहिये। सीढ़ियों का आकार वर्गाकार या आयताकार रखना श्रेयस्कर है। इन्हें गोलाकार या त्रिकोण नहीं बनायें अन्यथा कोण करने का शेष उपना हो।
ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां किसी भी स्थिति में ईशान, पूर्व, उत्तर एवं गध्य में नहीं बनायें। सीढ़ियां बनाने के लिये दक्षिण एवं नैऋत्य दिशाएं उत्तम हैं। पश्चिम, आग्नेय तथा वायव्य में भी सोपान का निर्माण किया जा सकता है। सीढ़ियों का चढ़ाव पूर्व से पश्चिम अथवा उत्तर से दक्षिण की तरफ ही होना चाहिये। यदि सीढ़ियों को धुमाकर लाना हो तो पूर्व या उत्तर में घूमकर प्रवेश करे।
BAD
Praman
अलंकृत सोपान पार्श्व दृश्य
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(देव शिल्प
सीढ़ियों के लिये आवश्यक निर्देश १. सीढ़ियों के नीचे कोई भी महत्वपूर्ण कार्य न करें। २. किसी भी प्रकार की भगवान की अथवा यक्ष- यक्षिणी की वेदो न बनायें । ३. न ही जिन शास्त्रों का भंडार या आलभारी न रखें। ४. सीढ़ियों के ऊपर छत या छपरी अवश्य बनायें जिसका उतार उत्तर या पूर्व की ओर ही
होना आवश्यक है। ५. सोढ़ियों के नीचे शास्त्र पठन, जाप, स्वाध्याय, पूजन आदि कदापि न करें। सीढ़ियों की
संख्या विषम होनी चाहिये। ६. सोड़ियों का निर्माण इस प्रकार न करें कि उससे सम्पूर्ण भन्दिर की प्रदक्षिणा हो अन्यथा
समाज में अशांति एवं आपदाएं आने की सम्भावना रहेगी। ७. सीदियां बनाते समय ध्यान रखें कि ऊपरी मंजिल पर जाने तथा तलघर में जाने के लिये
एक ही स्थान से सीढ़ी न बनायें। ८, सीढ़ियों जर्जर हो, हिल रही हों अथवा जोड़ तोड़कर बनायी गई हो तो यह अशुभ है तथा
इनसमाज में मानसिक संताप का वातावरण बनता है। ९. सीढ़ियां प्रदक्षिणाक्रम अर्थात धड़ो की सुई की दिशा की तरफ (क्लाक वाइज) बनायें।
सोयान पंक्ति प्रमाण
सोपान का निर्माण गज परिवार युक्त अलंकृत करना चाहिये। सोपान की संख्या का प्रमाण इस प्रकार है -
कनिष्ठ मान - पांच, सात, नौ मध्यम मान - ग्यारह, तेरह, पंद्रह ज्येष्ठ मान - सत्रह, उनीस, इक्कीस सोपान संख्या विषम ही रखें, सम न रखें।
*परिखाराजैर्युक्तं, पंक्तिसोपालसंचयम्। पंचसप्तनवाश्च, कनिष्ठं मानमुत्तमम् । शि. र.४/३० . एकादश दश त्रीणि, तथा वै दशपंचकम् । मायनाजन विजय, कल्याण चकली युगे।। शि. र. ४/३१ सत्पदर्शय सोपान मेकानशितिभवेत्। उटोष्ठमाज भवेत्तच्छ, होलविशस्तथोत्तरम् ।। शि. र.४/३२
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दव शिल्प)
(६५०
मन्दिर का परकोटा
मन्दिरका निमांग जिरेन्द्र प्र के प्रणीत धमायतन का निर्माण है। जिन धर्म के द्वारा प्राणी मात्र को सुख का मार्ग मिलता है। उस धर्मायतन की रक्षा के लिये गन्दिर के चारों ओर परकोटा अथवा कम्पाउन्ड वाल बनाना चाहिये । ऐसा करके हम मन्दिर तथा अप्रत्येक्ष रुप से धर्म की सुरक्षा करते हैं।
परकोटा बनाते समय यह स्मरण रखें कि उसका आकार भी आयताकार अथवा वर्गाकार हो। परकोटे की दीवाल मुख्य मन्दिर की दीवाल से सटाकर बनायें। परकोटे एवं मन्दिर के मध्य पर्याप्त अन्तर होना चाहिये । परकोटे की दीवाल की ऊंचाई एवं मोटाई, दोनों दक्षिण में उत्तरी दीवाल से अधिक होवे। इसी भांति पश्चिमी दीवाल की मोटाई एवं ऊंचाई दोनों पूर्वो दोवाल से मोटी होवे। कुल मिलाकर नैऋत्य भाग में परकोटे की दीवाल सबसे ऊंची रखें तथा ईशान में सबसे नीची रखें।
यदेि परकोस इस तरह बनता है कि भगवान की दृष्टि राधित होती है तो झांटेवेध का परिहार करें। यदि उत्तर अथवा पूर्व में महाद्वार नहीं है तथा भगवान की दृष्टेि उत्तर या पूर्व में है तो लधुद्वार बनाकर वेध परिहार करें। द्वार पर सुन्दर कमानी बनायें। परकोटे की दीवाल विभिन्न दिशाओं में अधिक ऊंची होने का फल उत्तर
मन्दिर का धन व्यय ईशान
मन्दिर कार्यों में निरंतर विघ्न, बाधाएं
ऐश्वर्य हानि, धन हानि आग्नेय
यश प्राप्ति दक्षिण
श्रेष्ठ, शुभ नैऋत्य
समाज में धन, यशलाभ, शभ्युदय पश्चिम व.या
आरोग्य परकोटा बनाने के लिये पत्थर, ईंट आदि का प्रयोग करें। परकोटे की दीवाल पर प्लास्टर कर उस पर चूने या पेंट से पुताई करें। परकोटे पर काला रंग न लगायें न ही अत्यंत गादे, अथवा लाल, रक्त लाल. कत्थई रंग लगाएं। कोई भी रंग लगायें यह उत्साहवर्धक हो, निराशावर्धक न हो।
___ परकोटा बनाते समय ध्यान रखें कि दक्षिण में उत्तर से कम जगह खाली छोड़े। दक्षिणी भाग में कम से कम जगह खाली छोड़े। परिक्रमा के लिये लगभग ५ फुट जगह छोड़ सकते हैं।
परकोटा निर्माण से गन्दिर वास्तु न केवल सुरक्षित हो जाती है, वरन् उसका स्वरुप भी गरिमामयो हो जाता है। अपराधी तत्वों, पशुओं एवं प्रेतादि बाधाओं रो वास्तु सुरक्षित हो जाती है। अतएव मन्दिर निर्माण करते समय परकोटा अवश्य ही निर्माण करायें । तीर्थ क्षेत्रों, नसियां आदि के मन्दिरों के लिए यह परम आवश्यक है।
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(देव शिल्प
मन्दिर प्रांगण की विविध रचनायें
___ मन्दिर प्रांगण में मुख्य मन्दिर के अतिरिक्त अनेकों वास्तु निर्माण किये जाते हैं। मुख्यतः इसका उद्देश्य धार्मिक गतिविधियों के निमित्त होता है । मन्दिर के अतिरिक्त तीर्थयात्रियों के लिये आवास रथल, भोजनालय, रसोई इत्यादि निर्माण की जाती है। साधुओं एवं त्यागी, व्रती, संयमी जनों के लिये आश्चम, मढ आदि का निर्माण किया जाता है । धार्मिक शिक्षण के लिये भी संस्थाओं की स्थापना की जाती है। वाहन, रथ आदि रखने के लिये भी समुचित स्थान की आवश्यकता होती है।
विभिन्न दिशाओं के अनुकूल निर्माण
प्रासाद के परिसर के विभिन्न भागों में अनेको निर्माणों की आवश्कता पड़ती है। प्रासाद मंडन में ग्रंथकार ने इसके लिये स्पष्ट निर्देश दिये हैं *:
प्रासाद के भाग की दिशा निर्माण । आग्नेय दिशा में
र्यातयों, साधुओं के लिये आश्रम पश्चिम, उत्तर या दक्षिण में यतियों, साधुओं के लिये आश्रम वायव्य कोण में
धा-य को सुरक्षित रखने का भंडार आग्नेय कोण में
रसोईघर ईशान कोण में
पुष्प गृह एवं पूजा के उपकरण का स्थान। नैऋत्य कोण में
पात्र एवं आयुध कक्ष पश्चिमी भाग में
जलाशय मठ के अग्रभाग में (पूर्व में) विद्यालय एवं व्याख्यान कक्ष पश्चिमी भाग में
रथ शाला उत्तरी भाग में
रथ का प्रवेशद्वार
*अपरे रखशाला च याप्टो प्रतिष्ठितम। उत्तरे स्थरतनं च प्रोक्तं श्रीविश्वकर्मणा ।। प्रा.मं.२/२५ प्रासादस्योत्तर याम्ये तथाग्नी पश्चिमेऽपि वा। वतीनामाश्रमं कुर्यान्मठं तददित्रिभूपिकम् ।।प्रा.म.८/33 कोष्ठागारं च वायव्ये दहिलकोणे महानसम् । पुष्पगेहं तवेशाने त्यो पात्रमायुधम् ।।प्रा.मं.८/२५ सत्रामा च पुरतों वारुण्यः च जलाश्रयम्।। मठस्य पुरतः काद विधाव्याख्यानमण्डपम् ।। प्रा.मं.८/३१
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(देव शिल्प)
६७
मंदिर परिसर में व्यापारिक भवनों का निषेध
मंदिर के परकोटे से लगकर अथवा परकोटे के भीतर भोजनालय अथवा अन्य प्रकार की दुकानें परिसर में बना दी जाती है। परिसर में आय का स्रोत बढ़ाने के लिए ये दुकानें किराये से दी जाती हैं अथवा विक्रय कर दी जाती हैं। इन दुकानों में अनेकानेक प्रकार के लोगों के आवागमन से वहाँ के परिसर का वातावरण धार्मिक न रहकर व्यावसायिक बन जाता है। वहीं की शुचिता भंग होती है तथा शान्तिमय वातावरण शोरगुल में बदल जाता कभी-कभी ऐसी भी परिस्थिति निर्मित होती है कि बेची गई दुकान में व्यसन अथवा अभक्ष्य आदि का व्यापार होने लगता है ।
मंदिर की शुचिता स्थायी रखने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि मंदिर परिसर में व्यापारिक संस्था अथवा दुकानों का निर्माण नहीं किया जाए। मंदिर परिसर के निकट भी अशुचितावर्धक दुकानें न खुलें, यह ध्यान रखना मंदिर व्यवस्थापकों के लिए आवश्यक है। मंदिर परिसर में अशुचिता वृद्धि होने से मंदिर का शुभप्रभाव सगाज को नहीं मिलेगा साथ ही अविनय आसादना दोष का विपरीत प्रभाव अवश्य होगा ।
बिजली का मीटर एवं स्विच बोर्ड
मंदिर के प्रकाश के लिए विद्युत बल्ब आदि लगाये जाते हैं। विद्युत मीटर स्विच बोर्ड तथा मेन स्विच मांदर के आग्नेय भाग में ही लगाना चाहिए। आग्नेय में यदि असुविधा हो तो इन्हें वायव्य में लगायें। विद्युत मीटर आदि ईशान में बिल्कुल न लगायें। पानी की बोरिंग मशीन का स्विच बोर्ड भी इन्हीं दिशाओं में लगाना चाहिए।
टाईल्स का प्रयोग
मंदिर निर्माण में आज कल टाइल्स का प्रयोग किया जाने लगा है। टाईल्स का निर्माण यदि सीप या किसी भी प्रकार के जैविक पदार्थ (हड्डी आदि) से हुआ हो तो ऐसे टाईल्स का मंदिर निर्माण में उपयोग न करें। वेदी, फर्श तथा शिखर के निर्माण में भी ऐसे टाइल्स का प्रयोग नहीं करें।
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(द शिल्प
जलपूर्ति व्यवस्था विचार
पानी की टंकी मन्दिर में यद्यपि कूप अथवा बोर वेल से ताजा पानी प्रयोग किया जाता है। फिर भी निरंतर प्रयाग के लिये पानी की टंकी मारहारी खेल है। ...:. . . . . .
टंकी बनाते समय निम्नलिखित निर्देशों का पालन अवश्य करें :१- यदि मन्दिर में ओवर हैड पानी की टंकी बनाया इष्ट हो तो इरो नैऋत्य कोण में ही बनायें। २. यदि गन्दिर में भूमिगत जल टंकी बनाना इष्ट हो तो इसे ईशान, उत्तर अथवा पूर्व में बनायें। ३- भूमिम्ल टंकी इस प्रकार बनायें कि प्रवेश मार्ग उसके ऊपर आये। ५. किसी भी परिस्थिति में आनेय दिशा में पानी की टंकी न बनायें। ऐसा करने से समाज में निरन्तर
कलहपूर्ण वातावरण निर्मित होगा। ओवर हैड पानी की टंकी दक्षिण दिशा में बना सकते है। ओवर हैड टंकी इस प्रकार बनायें कि मन्दिरको शिखर रो रपर्श न हो तथा संमतही तारा
शिशखर से दूर बनायें। ७- ओवर हैड टंकी इस प्रकार बनायें कि गन्दिर के शिखर से स्पर्श -1 हो तथा संभव हो तो पृश्यक से
शिखर से दूर बनायें! मन्दिर वास्तु से पृथक ओवर हैड पानी की टंकी नैऋत्य दिशा में बनाना श्रेयस्कर है। आग्नेय में
इसे कदापि -[ बनायें। ९- ओवर हैड टंको ऊपर से ढंकी रखें।
कृय जिन मन्दिर में पूजनादि धर्म कार्यों के लिये कुएं का जल उपयोग किया जाता है। कुएं का निर्माण यदि मन्दिर परिसर में हो कर लिया जाता है तो इससे कुएं में भी स्वच्छता बनी रहती है तथा जल लाते समय भी अशुद्धि आने का भय नहीं रहता दर्शनार्थियों के लिए भी जल की आवश्यकता होती है साथ ही मुनिसंघों के अथवा त्यागो व्रतियों के लिये भी कुएं के जल की आवश्यकता होती है। सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मन्दिर में कुंए को निर्मित करना आवश्यक है।
कुएं का निर्माण वास्तुशास्त्र के अनुसार तथा उचित दिशाओं में करना सभी उपयोगकर्ताओं, मन्दिर निर्माता एवं समाज के लिए हितकारक होता है। प्रसिद्ध ग्रन्थ "शागार धामृत'' में पं आशाधर जी ने इसके लिये निर्देश दिया है । कुन्द कुन्द श्रावकाचार एवं उमास्वामी श्रावकाचार में भी इसका उल्लेख किया गया है।
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(देव शिल्प
विभिन्न दिशाओं में जलाशय बनाने का फल
जलाशय की दिशा फल ईशान
तुष्टि, पुष्टि, ऐश्वर्य-लाभ, ज्ञानार्जन, धन लाभ
धन-सम्पत्ति-ऐश्वर्य लाभ आग्रेय
पुत्र नाश, संतति अवरोध, धनहानि दक्षिण
मानसिक तनाव, स्त्रो नाश, धनहानि, अपयश नैऋत्य मन्दिर के प्रमुख व्यवस्थापकों को मृत्युभय, अपयश पश्चिम सम्पत्ति लाभ, चंचलता, समाज में गलतफहमियों
का वातावरण, वैमनस्य वायथ्य
परस्पर मैत्री का अभाव, शत्रुवृद्धि, चोरी का भय उत्तर
धनगम मध्य
सर्व हानि
निष्कर्ष यह है कि योदल ईशान, पूर्व अथवा उत्तर में ही कूप खनन कराना हितकारक है। यह ध्यान रखें कि कूप ठीक ईशान, पूर्व या उत्तर में न हो। उत्तर से ईशान के मध्य अथवा ईशान से पूर्व के मध्य खनन करें। यह अवश्य ध्यान रखें कि मन्दिर के मुख्य द्वार के ठीक सामने कुंआ अथवा किसी भी प्रकार का गड्ढा बनवा-] अत्यंत अनिष्टकारक है।
नल कूप अथवा हैण्डपंप (BOREWELLS)
वर्तमान में यह पद्धति चल पड़ी है कि सुविधाजनक तथा अल्पस्थान के कारण कुए के स्थान पर नल कूप खुदाये जाते हैं। इनमें भी वही दिशा रखें जो कि कुआं खुदाने के लिये निर्देशित की गई है। साथ ही यह भी ध्यान रखें कि नल कूप में ऐसी व्यवस्था हो कि जल छाने के उपरान्त जिवानी पुनः जल में डाली जा सके।
यदि कुए उथले हों तथा आस पास की बस्ती के सैप्टिक टैंकों का गन्दला पानी कुए में आने लगा हो तो कुएं के पानी का प्रयोग न करें। ऐसी स्थिति में नल कूप का ही पानी उपयोग कारा उपयुक्त है। जिवानी डालने की व्यवस्था करना कदापि न भूलें।
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व शिल्प
भूमिगत जल टंकी
यदि मन्दिर में भूमिगत जल टंकी का निर्माण करना आवश्यक हो तो इसे केवल ईशान, पूर्व अथवा उत्तर की दिशा में बनवायें। अन्यत्र कदापि नहीं। इसे भी मुख्य द्वार से हटकर बनायें। किसी भी स्थिति में आग्नेय में जल टंकी न बनायें नहीं भूमिगत न ओवर हैड टैंका
ओबर हैड टैंक सिर्फ नैऋत्य में बनायें। आग्नेय में कदापि नहीं। दक्षिण में भी ओवर हैड टैंक बना सकते हैं। अन्य दिशाओं में जल टंकी समाज के लिये अनिष्टकारी होगी।
पखनन समय निर्धारण
विभिन्न मासों, नक्षत्रों एवं तिथियों में क्य रखनन्द ! कापोत्यकाका फल होते हैं। विद्वानों से पूछकर इसका निर्णय करना चाहिये।
विभिन्न मासों में पखनन काफल मास फल
मास फल चैत्र कोष
आश्विन भय वैशाख धान्य
कार्तिक रोग ज्येष्ठ
मार्गशीर्ष दुख आषाढ शोक
पौर्ष कीर्ति श्रावण नाश
माध द्रव्य अग्नि भय भाद्रपद
फाल्गुन यश
विभिन्न नक्षत्रों में कूप खनन का फल रोहिणी, तीनों उत्तरा, पुष्य, अनुराधा, शतभिषा, मघा, घनिष्ठा, श्रवण इन नक्षत्रों में कूप खनन करना श्रेयस्कर है।
विभिन्न वारों में कूप खनन का फल वार
फल सोम, बुध, गुरु, शुक्र श्रेष्ठ मंगल, शनि, रवि जल सूख जाता है, अनिष्ट, मन्द जलागम
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देव शिल्प)
२.
३.
४.
भूमि जल शोधन
जलकूप खोदते समय कुछ विशिष्ट लक्षणों के द्वारा यह जानने का प्रयास किया
जाता है कि यहाँ कुआँ खोदने पर जल निकलेगा अथवा नहीं। प्रसंगवश कुछ लक्षणों को यहां उल्लेखित किया जाना आवश्यक प्रतीत होता है।
--
१.
५.
६.
विभिन्न तिथियों में कूप खनन
नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता, पूर्णा, तिथियों में नामानुसार फल मिलता है। कूप खनन में वर्जित तिथि
क्षय तिथि, वृद्धि तिथि तथा त्रयोदशी को कूप खनन आरंभ न करें।
७.
८.
७१
जहाँ की मिट्टी नील वर्ण की होती है वहाँ मधुर जल होता है।
जहाँ की मिट्टी भूरे मटमैले वर्ण की होती है वहाँ खारा जल होता है।
जहाँ की मिट्टी काले या लाल वर्ण की होती है वहाँ मीठा जल होता है।
जहाँ की बालू या रेतीली मिट्टी लाल वर्ण की होती है वहाँ कसैला जल होता है।
जहाँ की मिट्टी मुंज, कास या पुष्य युक्त होती है वहाँ मीठा जल होता है।
जिस भूमि में गोखरु, खस आदि वनौषधि हों तथा खजूर, जामुन, बहेड़ा, अर्जुन, नागकेशर, मेनफल, बेंत, करंज, क्षीरीफल वाले वृक्ष होते हैं वहाँ मीठा जल लगभग ३० फूट दूर होता है।
अग्नि, भस्म, ऊंट, गर्दभ के जैसे रंग वाली भूमि होती है वहाँ जल नहीं होता है। जल रहित प्रदेश में बेंत की झाड़ी हो तो उसके पश्चिम में, तीन हाथ दूर सवा पांच हाथ नीचे जल होगा ।
९.
जामुन वृक्ष के उत्तर दिशा में तीन हाथ दूर साढ़े सात हाथ नीचे जल मीठा होता है। १०. पलाश सहित बेर के वृक्ष के पश्चिम में तीन हाथ दूर ग्यारह हाथ नीचे जल होता है।
५१. जल रहित प्रदेश में सोना पाठा के वृक्ष के वायव्य में दो हाथ दूर साढ़े दस हाथ नीचे जल
होता है ।
१२. महुआ वृक्ष के उत्तर में वामी होने पर वृक्ष के पश्चिम में पांच हाथ दूर सवा छब्बीस हाथ नीचे न युक्त झिर (जल स्रोत) होता है।
१३. तिलक, भिलावा, बेंत, बेल, तेंदु, शिरीष, फालसा, अंजन तथा अतिबल आदि वृक्ष हरे-भरे पत्रयुक्त हों तथा पास में बांबी हो तो चौदह हाथ नीचे जल होता है।
१४. भार्गी, जमालगोटा, केवाच, लक्ष्मण, नेवारौ ये वृक्ष जहाँ हो यहाँ से दक्षिण में दो हाथ दूर साढ़े दस हाथ नीचे जल होगा।
१५. जिस वृक्ष के फल-फूल में विकार उत्पन्न हो जाये उसके पूर्व में तीन हाथ दूर जल होगा ।
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(देव शिल्प
१६. जहाँ वोरणा नामक तृणधा धूब होती है नहीं भूमि कौनल होती वहाँ साढ़े तीन हाथ नीचे
जल होगा। १७. जहाँ भूमि पर पैर मारने पर गम्भौर शब्द कर वहाँ साढ़े दस हाथ नीचे अत्यधिक जल होगा। १८. जिरा वृक्ष की शाखा झुककर पीले वर्ण की हो जाये वहाँ साढ़े दस हाथ नीचे जल होगा। १९. सफेद फूल युक्त कांटे रहित भटकटैया के पौधे के साढ़े दस हाथ नाचे जल होगा। २०. जहाँ भुमि पर भाप निकल रही हो अथवा धुआँ सरीखा लगे वहां सात हाथ नीचे अत्यधिक
जल होगा। २१. तृप रहित भूमि पर जहाँ तृण हो अथवा तृण सहित भूमि पर जहाँ तृण न हो वहाँ जल होगा। २२. जिस भूमि पर उत्पन्न घास या अन्न स्वयं सूख जाता हो अथवा जिस भूमि पर चिकना
अन्न पैदा हो अथवा जहाँ उत्पन्न पौधों के पत्ते पीले पड़ जाते हो यहाँ दो हाथ नीचे जल
मिलेगा। २३. जहाँ की मिट्टी चिकनी, बैठी हुई. बालुई तथा शब्द करती हुई हो वहाँ साढ़े दरा हाथ नीचे
जल होगा। २४. जहाँ अपने आप अन्न सूख जाये या जहाँ बीज न उगे वहाँ चार हाथ नीचे जल होगा। २५. जहाँ बि-: घर बनाये कीड़े रहते हैं वहाँ सवा पाँच हाथ नीचे जल होगा। २६. जहाँ गागे पैर रो दबाने पर दब जाये वहाँ सवा पाँच हाथ नीचे जल होगा। २७. जहाँ की भूमि मछली अथवा इन्द्र धनुष के आकार की हो, जहाँ बाँबी हो यहाँ साढ़े चौदह
हाथ नीचे जल होगा।
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(देव शिल्प
C व्यक्त-अव्यक्त प्रासाद
मंदिरों में सूर्य किरण प्रवेश की अपेक्षा से दो गेद किये जाते हैं। सूर्य किरण प्रवेश को गिन्न दोष माना जाता है *:
१. भिन्न दोष युक्त अथवा व्य मंदिर २. भिन्न दोष रहित अथवा अव्यक्त मंदिर
जिन मंदिरों में गर्भगृह में जालो अथवा द्वार से सूर्य किरणें आती हैं उन्हें व्यक्त मंदिर कहते हैं। इन्हें निरंधार मंदिरभी कहते हैं। ये मंदिर बिना परिक्रमा के बनाये जाते हैं। जि- मंदिर में गर्भगृह में सूर्य प्रकाश की किरणें आती हैं ऊ हे भिन्नदोष युक्त माना जाता है।
जिन गंदिरों में गर्भगृह में रार्य किरणें नहीं पहंचती हैं उसे सांधार अथवा अव्यक्त मंदिर कहते हैं । सांधार मंदिर में गर्भगृह तथा परिक्रमा होती है। जिन मंदिरों का गर्भगृह लम्बे बरामदे, द्वार, जालो आदि से सूर्य किरणों से भेदा नहीं जाता है उन्हें अभिन्न अथवा भिन्न दोष रहित मंदिर की संज्ञा दी जाती है।
जिनालय सांधार अथवा भिन्न दोष रहित ही बनाना चाहिये । गौरी, गणेश, मनु के बाद होने वाले देवों के मंदिर भी भिन्न दोष रहित बनाना चाहिये। ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं सूर्य मन्दिर सांधार अथवा निरंधार अथवा भिन्न अथवा अभिन्न अपनी इच्छा एवं उपयोगिता के अनुरुप बना सकते हैं।
जिन देवों के मंदिर भिन्न दोष रहित बनाना है उन्हें भिन्न दोष सहित कदापि न बनायें।
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"भिन्न टोपकर यरपात प्रासाद मठ मन्दिरम् । पृषामिर्जालकैद्धरि रश्मिवात प्रभादितप ।। १० ।। प्रा.नं.८/५७ ब्रह्म विष्णु शिवाकणां भिब्जदोषकर नहि। जिन गौरी गणेशानां गृहं भिखं विवर्जयेत् ।।१८।।प्रा. मं 1./१८ व्यक्तान्यक्त हं कुर्याद भिन्नाभिन्न मुर्तिकन् । यथा स्वागिशरीरं स्टात् प्रासादमपिताशप ।। प्रा. नं ८/१९ ब्रह्म विष्णुरवीणां च शम्भोः कार्या वरच्या । गिरिजाया जिजादीनां मन्वन्तरभुवां तथा ।। अपराशि वृचा सूट ११० एतेषां च सुरणां च प्रासादा भिक वर्जिताः । प्रासाद मठ वेश्मान्य निमानि शुभदाजि हि । शि.र.५/१३३ व्यक्ताव्यक्त लयं कुर्यादापच भित्रमूर्तयोः । मुर्ति लक्षणजे स्वामी प्रासादं तस्य ताशम् ।।शि... १३४ ब्रह्मा विष्णु शिवाकाणां गृहभिन्नं न दोषदम् । शेषाणां दोषटं भिन्नं व्यक्ताव्यक्तताह शुभम् ।। प्रा.पंजरो/१५९
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(देव शिल्ग
गर्भगृह
अंतराल
गूढ़ मंडप
रंगमंडप
अव्यक्त (सांधार मंदिर)
*r
प्राचीन स्थापत्य शैली के जिनालयों में हमें सर्वत्र उपरोक्त व्यवस्था दृष्टि गोचर होती है। सांधार मंदिरों में हमें जिन प्रतिमा के अतिशय के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। सांधार मंदिर बनाते समय प्राचीन शिल्पकारों ने पर्याप्त सावधानी रखी है। दक्षिण भारत के जैन जैनेतर मन्दिरों में हमें अनेक स्थानों पर यह व्यवस्था सामान्यतः देखने में आती है।
उत्तर भारत में कुछ
समय से वास्तु शास्त्र के नियमों की उपेक्षा करके सुविधा के अनुसार जिनालयों का निर्माण किया गया है। इराके कारण जहां एक ओर प्रभावना एवं अतिशय का अभाव दृष्टि में आता है वहीं दूसरी ओर मन्दिरों की स्थिति मी जीर्णशीर्ण एवं उपेक्षा का शिकार हुई साथ ही वहां की सम्बन्धित स्थानीय समाज भी पतन के मार्ग पर अग्रसर रही। अतएव जिनालय निर्माणकर्ता प्रारंभ रो ही मन्दिर निर्माण के मूल भूत सिद्धांतों का अवश्य अनुकरण करें
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(देव शिल्प)
७५
गर्भगृह
गर्भगृह को हॉल में परिवर्तित करने
का निषेध
कोली
गूढमंडप
TR
वर्तमान काल में गर्भगृह को नष्ट कर उसके स्थान पर जनोपयोगी बड़े हॉल के निर्माण की धारणा प्रचलन में है। जिनालय में गर्भगृह अवश्य ही होना चाहिये। भले ही संख्या अधिक होने की स्थिति में दर्शक या उपासक गूढ़ मंडप अथवा आगे के मंडपों में बैठकर अर्चना चार सपाते हैं। किन्तु किसी भी स्थिति में गर्भगृह सांधार ही बनायें। हाल में जिन प्रतिमा स्थापित न करें। अपरिहार्य परिस्थितियों में भी मूल नायक) प्रतिमा गर्भगृह में अवश्य हो रखें।
जि. गंदिरों में गर्भगृह को रुपांतरित कर हॉल में परिवर्तित किया गया है वहाँ पर निरंतर अनिष्टकारी घटनाएं घटती हैं। ऐसा कार्य करने वाले तथा करवाने वाले दोनों ही भीषण संकटों का सामः॥ करते हैं। अतएय इस परिस्थिति से सदैव बचना चाहिए।
रंगमंडप
OL_OL_
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नृत्यमंडप
व्यक्त (निरंधार) मंदिर
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देव शिल्प
वर्तमान युग में मन्दिर निर्माण
वर्तमान काल में मन्दिर निर्माण का कार्य पूर्णतः प्राचीन शैली से किया जाना अत्यंत व्यय साध्य कार्य है। अतएव वर्तमान युग के देवालयों में प्राचीन सिद्धांतों का अनुसरण एक सीमा तक ही किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त शहरीकरण के युग में मन्दिर निर्माण के लिये पर्याप्त भूमि भी अनुपलब्ध होती है। ऐसी स्थिति में मन्दिर निर्माण करते समय मूल सिद्धांतों का पालन करते हुए मन्दिर बनाना चाहिये ।
105
प्रवेश द्वार के उपरांत एक अथवा दो कक्ष दर्शनार्थियों के लिए निर्माण करना चाहिये। इसके उपरांत गर्भगृह का निर्माण करना चाहिये। गर्भगृह में वेदी पर देव प्रतिमा की स्थापना करना चाहिये । गर्भगृह पर शिखर का निर्माण करना चाहिये। शिखर एवं गर्भगृह, वेदी तथा प्रतिमा का निर्माण सिद्धांत के अनुसार ही करना चाहिये। इसमें किसी भी प्रकार की अशुद्धि अथवा असावधानी देवालय निर्माता, शिल्पकार तथा समाज सभी के लिए अनिष्टकारी है। वेदी पर प्रतिमा की स्थापना करते समय द्वार के जिस भाग में दृष्टि आना चाहिये, वहीं पर आये, यह अत्यंत गंभीरता पूर्वक ध्यान रखें 1
द्वार का मान शास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार ही रखें। मण्डप अथवा कक्ष भीतर से आयताकार अथवा वर्गाकार ही बनायें। मंडप अष्टारा भी बना सकते हैं किन्तु दोष एवं वेध का परिहार करने के उपरांत ही बनाये।
जिन मन्दिरों को व्यक्त अथवा भिन्न दोष सहित बनाया जा सकता है उन्हें ही व्यक्त बनायें । जिन मन्दिरों को सूर्य किरण वेधित (भिन्न दोष) रहित बनाना है वहाँ गर्भगृह एवं मण्डप इस प्रकार अवश्य बनायें कि सूर्य किरण गर्भगृह में सीधे प्रवेश न करें। यह प्रकरण व्यक्त अव्यक्त प्रासाद प्रकरण में भी अबलोकन करें।
बहुमंजिला मंदिर
स्थानाभाव के कारण तथा बड़ी समाजों की उपयोगिता के अनुरुप बहुमंजिला मन्दिर भी बनाये जाते हैं । बहुमंजिला मन्दिरों को निर्माण करते समय निन्न लिखित विशेष नियम ध्यान में रखना आवश्यक है -
१.
२.
३.
वेदी के ऊपर वेदी बनायें ऐसा निर्माण करें।
यदि वेदी के ऊपर वेदी बनाना इष्ट न हो तो यह ध्यान रखें कि उपासकों का आवागमन वेदी के ऊपर से न होवे ।
यदि ऊपरी मन्जिल में वेदी बनाना है तथा नीचे की मंजिल में नहीं बनाना हो तो वेदी नीचे से ठोस बनायें, पोली नहीं । वेदी नीचे की मंजिल से ठोस स्तंभ के रूप में ऊपर तक ले जाएं।
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(देव शिल्प)
४. चाहे मंजिल नीचे की हो अथवा ऊपर की, दृष्टि वेध न आये।
वेदी में भगवान की प्रतिमा का मुख अनुकूल दिशा में अर्थात् उत्तर या पूर्व में ही रखें। प्रवेश भगवान के सामने से ही रखें।
सौदिया दक्षिणी अथवा पश्चिमी दीवाल से लगकर बनायें। ८. किसी भी स्थिति में भिन्न दोष रहित वाले देवों के मंदिर के गर्भगृह में सीधे सूर्य किरण न
जाये, इसका ध्यान रखें।
गर्भगृह को तोड़कर हॉल नहीं बनाये। हाल या गण्डप सामने ही बनाये। १०. पूरे मन्दिर में कुल येदियों की संख्या विषम रखें । वेदियों में प्रतिमाओं एवं कटनियों की
संख्या भी विषम रखें। ११. सभी सामान्य वास्तु शास्त्र नियमों का पालन करें। १२. यदि मन्दिर में ठीक सामनं से प्रवेश असंभव हो तो यह ध्यान रखें कि येदी प्रतिमा अथवा
भूलनायक प्रतिगा की पोल द्वार की तरफ ना आये। १३. अपरिहार्य स्थिति में भी पूर्व अथवा उत्तर में से एक देशा से प्रधान अवश्य ही रखें। ऐसा न
करने से समाज में अशुभ एवं अप्रिय वातावरण निर्माण होंगे। १४. गर्भगृह में स्थान यदि कम भी पड़ता हो तो उसे बड़ा न करायें। भले ही समक्ष में वृहदाकार
मण्डप बना लेवें। गर्भगृह का मूल स्वरुप यथावत् रखें। १५. मन्दिर का धरातल सड़क से नीचा न हो। १६. आधुनिकता के फेर में मन्दिर की पवित्रता, सादगी एवं धार्मिकता में न्यूनता न आने देखें।
सजावट मनोहारी तो हो लेकिन ऐसा करना पर्याप्त मर्यादाओं के भीतर हो ।
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(देव शिल्प
मन्दिर की अभिमुख दिशा निर्णय
गन्दिर निर्माण का निर्णय करते समय प्रवेश दिशा का निर्णय करना आवश्यक है। मन्दिर का प्रवेश गर्भगृह की सीध में होता है। गर्भगृह में स्थित प्रतिमा की दृष्टि द्वार की अपेक्षा सही स्थान पर होना आवश्यक होता है। जिस ओर मूलनायक प्रभु का मुख होगा, उसी दिशा में मन्दिर का भी मुख होगा तथा उसी तरफ मन्दिर का मुख्य द्वार होगा। जिनेन्द्र प्रभु की प्रतिमाओं का मुख सिर्फ दो ही दिशाओं में किया जाना मंगलकारी है :- ये दिशाएं हैं -
. पूर्व २. उत्तर
किन्हीं किन्हीं मन्दिरों में तथा मा स्तंभ में भगवान की चार प्रतिमाएं चारों दिशाओं में मुख करके स्थापित की जाती है । ऐसी प्रतिगा एवं मन्दिर सर्वतोभद्र प्रतिमा कहलाती हैं। ऐसी स्थिति में मन्दिर का मुख्य प्रवेश द्वार उत्तर या पूर्व दिशा में ही रखना चाहिये।
किसी भी स्थिति में भगवान का मुख विदिशाओं में नहीं करना चाहिये। अन्य दिशाओं में भगवान का मुख नहीं रखना चाहिये।
भगवान का मन्दिर समवशरण का प्रतीक होता है । समवशरण में भी भगवान का श्रीमुख पूर्व की ओर होता है किन्तु भगवान के दिव्य अतिशय से चारों दिशाओं की ओर मुख प्रतीत होता है। दर्शक को भगवान का मुख अपने सामने ही प्रतीत होता है। इसी प्रकार का सर्वतोभद्र मन्दिर सर्वकल्याण का कारण है।
जैनेतर परम्पराओं में अभिमुख जैनेतर परापराओं में विदिशा एवं अन्य दिशाओं में देवों का मुख करके स्थापना की जाती है। वानरेश्वर हनुमान की प्रतिमा नैऋत्य दिशाविगुख स्व राकते हैं किन्तु अन्य किसी देव की स्थापना विदिशाचिमुख न करें । ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, इन्द्र, कार्तिकेय देव पूर्व अथवा पश्चिमाभिमुख रख सकते हैं। इनका मुख उत्तर-दक्षिण में नहीं करें।* गणेश, भैरव, चंडी, नकुलीश, नवग्रह, मातृदेवता, कुबेर का मन्दिर दक्षिणाभिमुख बना सकते हैं।**
नगर में मन्दिर स्थापना तथा अभिमुख नगर के मध्य में अथवा नगर के बाहर स्थापित जैन मन्दिर में भगवान का मुख नगर की ओर होना मंगलकारक है।
गणेश, कुबेर एवं लक्ष्मी की स्थापना नगर द्वार पर करना चाहिये। यह स्मरण रखें कि भगवान की पूजा भी उत्तर अथवा पूर्व की ओर मुख करके करना चाहिये। #
चारों दिशाओं की ओर मुख वाले वीतराग देव के प्रासाद नगर में होना सुख कारक होता है। (इसका तात्पर्य सर्वतोभद्र प्रासाद से है।) ##
*प्रा. म.२/३.६.**प्रा.म. २/३९,#प्र.मं.२/३९,##उ.श्रा. १०६
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(देव शिल्प
समवशरणमन्दिर
तीर्थंकर प्रभु को जब पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होती है तब उसके उपरान्त उनकी वाणी का प्रसार एक धर्मसभा के माध्यम से होता है. यह धर्ममा इन्द्र के आदेश ले कुबेर के द्वारा बनाई जाती है। वास्तु की यह एक अनूठी रचना होती है। इस धर्मसभा में देव, देवियां, मनुष्य, साधु, आर्यिकायें तथा पशु सभी जिनेन्द्र प्रभु की दिव्यवाणी को सुनते हैं।
समवशरण की आकृति के अनुरुप ही जिनेन्द्र प्रभु का समवशरण मन्दिर बनाने की प्रथा है । वास्तविक समवशरण में आठ भूमियां तथा श्रोताओं के लिये बारह विभाग होते हैं। इन बारह विभागों में विभिन्न वर्ग के श्रोता बैठते हैं।
समवशरण की रचना में चारों दिशाओं में मानस्तंभ होते हैं । मध्य में चारों दिशाओं में मुख करके जिनेन्द्र प्रभु की चार प्रतिमायें स्थापित की जाती हैं। इसका कारण यह है कि मूल समवशरण में जिनेन्द्र प्रभु यद्यपि एक ही तरफ पूर्व की ओर मुख करके बैठते हैं किन्तु अतिशय के कारण उनका मुख चारों तरफ दिखता है। सभी श्रोताओं को उनका दर्शन सीध में हो होता है।
समवशरण का आकार गोल होता है। इनमें आठ भूमियां होती हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं :
१. चैत्य प्रासाद भूमि २. खातिका भूमि ३. लता भूमि ४. उपवन भूमि ५. ध्वज भूमि ६. कल्प भूमि ७. भवन भूमि
८. श्री मण्डप भूमि बारह प्रकार के विभागों में श्रोताओं का विभाजन निम्नानुसार है -
१. गणधर एवं मुनिगण २. कल्पचासी देवियां
आर्यिका एवं श्राविकायें ४. ज्योतिषी देवियां ५. व्यन्तर देवियां ६. भवनवासी देवियां
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(देव शिल्प)
७.
भवनवासी देव
८.
व्यन्तर देव
९.
ज्योतिषी देव
१०. कल्पवासी देव
११. मनुष्य
१२. पशु-पक्षी
समवशरण की रचना
समवशरण की सामान्य भूमि वृत्ताकार होती है। उसकी प्रत्येक दिशा में सीढ़ियां होती हैं। इनकी संख्या २०,००० हैं। इसमें चार कोट, पांच वेदियां होती है इनके मध्य आठ भूमियां तथा सर्वत्र अन्तर भाग में तीन-तीन पीट होते हैं।
प्रत्येक दिशा में सोपान के लगाकर आठवीं भूमि के भीतर गन्धकुटी की प्रथम पीठ तक एक-एक वीथी (सड़क) होती है। वीथियों के दोनों तरफ वीथियों के लम्बाई के बराबर दो वेदियां होती हैं।
८०
आठों भूमियों के मध्य में अनेक तोरणद्वारों की रचना होती है।
कोटों के नाम तथा विवरण
प्रथम धूलिशाल कोट इसके चारों दिशाओं में चार तोरणद्वार हैं। जिनके बाहर मंगल द्रव्य, नवनिधि तथा धूपघट से युक्त देवियों की प्रतिमायें हैं। दो द्वारों के मध्य के स्थान में नाट्य शालायें हैं। इनके द्वारों की रक्षा का दायित्व ज्योतिष देवों का है।
-
नृत्य करती हैं।
धूलिशाल कोट के भीतर चैत्य प्रासाद भूमियां हैं। जहां पांच-पांच प्रासादों के अन्तराल से एक-एक चैत्यालय स्थित है।
उपरोक्त नाट्यशालाओं में ३२ रंगभूमियां हैं। प्रत्येक में ३२ भवनवासी देव कन्याएं
प्रथम चैत्य प्रासाद भूमि के बहुमध्य भाग में चारों वीथियों के मध्य में गोलाकार मानस्तम्भ स्थित है ।
इस धूलिशाल कोट से आगे प्रथम वेदी का निर्माण धूलिशाल कोट के सरीखा ही है। इस वेदी के आगे खातिका भूमि है, जिसमें जल से भरी हुई खातिकाएं हैं। इसके आगे दूसरी बेदी
है ।
दूसरी वेदी के आगे लता भूमि है। यह क्रीड़ा पर्वत एवं वापिकाओं से शोभायमान है। इसके आगे दूसरा कोट है जो प्रथम कोट की भांति है। इसकी रक्षा यक्ष देव करते हैं।
इसके आगे उपवन नाम की चौथी भूमि है। यह अनेक प्रकार के वन, उपवन एवं चैत्यवृक्षों से सुसज्जित है। यहाँ १६ नाट्यशालाएं हैं, प्रथम आट नाट्यशालाओं में भवनवासी
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(दव शिल्प देवकन्याएं तथा अगली आठ में कल्पवासी देवकन्याएं नृत्य करती हैं।
इसके आगे यक्ष देवों से रक्षित तीसरी वेदी है । इसके आगे ध्वज भूमि है जिसकी प्रत्येक दिशा में सिंह, गज आदि दस प्रकार के चिन्हों से अंकित प्रत्येक चिन्ह की १०८-१०८ ध्वजाएं हैं तथा प्रत्येक ध्वजा १०८ क्षुद्रध्वजाओं से संयुक्त है।
इसके आगे.प्रथम कोट सरीखा ही तृतीय कोट है जिसके आगे छटवीं कल्प भूमि है । यह दस भांति के कल्पवृक्षों तथा वापिका, प्रासाद, सिद्धार्थ वृक्षों (चैत्यवृक्षों) से शोभायमान हो रही है। इसमें प्रत्येक वीथी से लगकर चार-चार नाट्यशालाएं हैं जिनमें ज्योतिष देवकन्याएं नृत्य करती हैं। इसके आगे भवनधासो देवों से रक्षित चौथी वेदी हैं।।
इसके आगे भवनभूमि है जिसमें अनेकों ध्वजा पताका युक्त भवन तथा पार्श्व भागों में प्रत्येक वीथी के मध्य में ९-९ स्तूप हैं जो जिन प्रतिमाओं से संयुक्त हैं। ये कुल ७२ हैं। इसके आगे चतुर्थ कोट हैं जो कल्पवासी देवों से रक्षित हैं।
इसके आगे श्रीमण्डप भूमि है। इसमें कुल १६ दीवारें तथा उनके मध्य १२ कक्ष हैं इनमें पूर्व दिशा से प्रथम कक्ष गिना जाता है। इनमें बैठने वाले श्रोताओं का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है।
इसके आगे पंचम वेदी है। इसके आगे प्रथम पीठ है। इस पर १२ कक्ष तथा ४ वीथियों के सामने १६-१६ सीढ़ियां हैं। इस पीठ पर चारों दिशाओं में एक-एक यक्षेन्द्र स्थित हैं जो सिर पर धर्मचक्र धारण कर खड़े हैं। इस पोठ पर चढ़कर बारह गण प्रदक्षिणा देते हैं।
प्रथम पीठ के ऊपर दूसरा पोठ है जिसमें चारों दिशाओं सीढ़ियां हैं। सिंह, वृषभ आदि ध्यजाएं तथा अष्ट मंगल द्रव्य, नवनिधि, धूपघट आदि इसी पीठ पर हैं।
इसके ऊपर तीसरी पीठ पर चारों दिशाओं में आठ-आठ सीढ़ियां है। इस पीट के ऊपर गन्धकुटी है । यह अनेक ध्वजाओं से सुशोभित है । गन्धकुटी के मध्य में पादपीट सहित सिंहासन है जिस पर भगवान अंतरिक्ष में चार अंगुल अंतर करके विद्यमान हैं।
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देव शिल्प
तीर्थकर वर्धमान स्वामी के समवशरण के आकार का प्रमाण
सामान्य भूमि सोपान
वीथी
वीथी के दोनों पार्श्वो में बेटी ऊंचाई
प्रथम कोट की ऊंचाई मूल की चौड़ाई तोरणद्वार
चैत्य प्रासाद
चैत्य प्रासाद भूमि नाट्यशाला
-
प्रथम वेदी (ऊंचाई एवं चौड़ाई प्रथम कोटवत्) खातिका भूमि (चौड़ाई प्रथम चैत्य प्रासादवत्)द्वितीय वेदी (चौड़ाई प्रथम कोट से दूनी) लता भूमि (चौड़ाई चैत्य प्रासाद से दूनी ) - द्वितीय कोट. ऊंचाई प्रथम कोटवल् चौड़ाई - प्रथम कोट. से दूनी उपवन भूमि चौड़ाई तृतीय वेदी ऊंचाई एवं चौड़ाई भूमि चौड़ाई
ध्वज स्तंभ ऊंचाई एवं चौड़ाई तृतीय कोट ऊंचाई एवं चौड़ाई कल्प भूमि चौड़ाई
चतुर्थ वेदी ऊंचाई एवं चौड़ाई भवन भूमि चौड़ाई 'मवन भूमि की पंक्तियां स्तूप ऊंचाई चतुर्थ कोट
श्री मण्डप के कक्ष ऊंचाई चौड़ाई पंचम वेदी चौड़ाई
प्रथम पीठ ऊंड़ाई चौड़ाई
मेखला
दूसरी पीठ
तीसरी पीठ मेखला
गंधकुटी
-
। ।
१ योजन
१/१२ कोस लंबाई तथा १ हाथ चौड़ाई लम्बाई २३ / १२ को. तथा चौड़ाई १ हाथ ६२, १ / २ धनुष
२८ हाथ
१/७२ को कोट सेकची
ऊंचाई ८४ हाथ
चौड़ाई ११/७२ योजन
ऊंचाई ८४ हाथ
१/७२ को
२८ हाथ
८४ हाथ
१/३६ को.
११ / ३६ यो.
२८ हाथ
१/३६ को.
११/३६ यो. १/३६ को २८ हाथ ११ / ३६ योजन
८४ हाथ चौ., २२ / ३ अ.
१ / ३६ योजन, २८ हाथ
१९ / ३६ योजन
१ / ७२ कोस, २८ हाथ ११/३६ योजन
चौड़ाई ११/७२कोस
८४ हाथ
चौड़ाई १२५ / ९ धनुष
८.४ हाथ
१२५० / ९ धनुष १२५ / ९ धनुष २ / ३ धनुष १ / ६ को.
६२. १/२ध.
१ / २६. ऊ. / चौ. ५ / ४८ को.
५ / २. ऊ / चौ. ५/१९२ को.
६२. १/२ च.
चौ. ५०६. ऊ. ७५ च.
८२
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(देव शिल्प)
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THEATRE
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Samay
तीर्थकर के समवशरण की गंध कुटी
समवशरण स्थित चैत्य वृक्ष भूमि
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(देव शिल्प
समवशरण मंदिर की वास्तु रचना जिनेन्द्र प्रभु की धर्मसभा की रचना कुबेर करता है। उसी दिव्य रचना की मानव निर्मित प्रतिकोते समवशरण मंदिर के रुप में बनाई जाती है।
समयशर मंदिर चतुर्मुखी प्रासाद होता है। इसकी रचना पूर्णतः वृत्ताकार होती है। इसमें आठ भूपियां बनाई जाती हैं। इनका क्रम सोपानवत बनाया जाता है। बारह विभाग श्रोताओं के कोठों के रूप में बनाये जाते हैं। तीर्थंकर प्रभु की चार प्रतिमाएं पद्मासन में चारों दिशाओं को मुख करके स्थापित की जाती हैं | चारों देशाओं में गा-स्तंभ की रचना की जाती है। तीर्थकर प्रभु का आसन कमल का होता है। ऊपर छन्त्र तथा अशोक वक्ष बनाये जाते हैं। कोठों में श्रोताओं की प्रतिकतियां बनाकर अत्यंत सुन्दर रूप से स्थापित की जाती हैं। श्रोताओं का मुख भगवान की ओर रखा जाता है ।
समवशरण की रचना वास्तविक समवशरण के अनुपात के अनुरूप ही करना चाहिए। रचना की रंग योजना मोरम होनी चाहिए। अधिक गाढ़े अथवा काले रंगों का प्रयोग कदापि न करें । चित्रकारी आदि के रंग भी इस प्रकार रांयोजित करें कि ये नयनाभिराम हों।
समवशरण की रचना का आकार सामान्यतः लगभग २१ हाथ (४२ फुट) के व्यास में करना चाहिए जिसमें भीतरी गंध कुटी जहां भगवान एवं श्रोतावर्ग बैठते हैं वह १५ हाथ (३० फुट) हो.॥ चाहिए।
समवशरण वेदी
समवशरण
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(देव शिल्प
मानस्तम्भ जिनेन्द्र प्रभु की धर्मसभा समवशरण कहलाती है। यह सौधर्मेन्द्र के निर्देश पर कुबेर द्वारा निर्मित की जाती है। इसमें जिनेन्द्र प्रभु मध्य में विराजते हैं तथा देवों की विक्रिया से चारों दिशाओं में सामने ही मुख प्रतिभासित होता है। प्रभु की दृष्टि के समक्ष धर्मसभा से बाहर के भाग में चारों दिशाओं में एक एक मानस्तंभ निर्मित होता है। यह ऊंची एवं भव्य मनोहारी रचना दर्शन मात्र से शांति का अनुभव कराती है तथा इसके दर्शन से अभिमान समास होकर सद्ज्ञान की उपलब्धि होती है।
जिनेन्द्र प्रभु का जालय अर्थात् जिन मन्दिर भी जिन समवशरण की प्रतिकृति मानी जाती है। जिन मन्दिर के समक्ष मुख्य द्वार के सामने भानस्तंभ निर्माण करने की परम्परा सर्वत्र है। मानस्तंभ के ऊपरी भाग में स्थित जिन प्रतिमाओं के दर्शन करके उपासक बिना मन्दिर में प्रवेश किये भी शांति का अनुभव करता है। मान स्तंभ के दर्शन करते हो जिन मन्दिर में प्रवेश कर जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन करने की भावना होती है। अतएव सर्वत्र ही मुख्या जिनालय के समक्ष मानस्तंभ
Pintency स्थापित किए जाते हैं । देवगढ़ आदि स्थानों के
1367 कलात्मक मान स्तंभ दर्शनीय हैं तथा स्थापत्य कला के वैभव को बतलाते हैं।
जैन शास्त्रों में अकृत्रिम जिन चैत्यालयों में भी मान स्तंभ का वर्णन मिलता है।
मानस्तंभ निर्माणकरते समय
ध्यासब्य निर्देश १. मन्दिर के द्वार के ठीक सामने समसूत्र में मान स्तंभ बनायें। २. मान स्तंभ की ऊंचाई का मान मूलनायक प्रतिमा के मान के बारह गुने के बराबर होना चाहिये। ३. मान स्तंभ वृत्ताकार, चतुरस्र अथवा अष्टास होना चाहिये।
मानस्तंभ
1433
3025104
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(देव शिल्प
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४. ऊपर निर्मित मन्दिरनुमा गुमटी में चार जिन प्रतिमाएं एक ही नाप की तथा मूलनायक प्रभु के नाम की स्थापित करें। चारों जिन प्रतिमाएं या तो एक ही पत्थर में निर्मित हों अथवा चार पृथक पृथक हों। ५. मान स्तंभ के ऊपर शिखर तथा कलश का निर्माण करना चाहिये। ६. मानस्तंभ में निर्मित जिनालय वर्गाकार ही होना चाहिये। ७. मानस्तंभ के नीचे के भाग में तीन कटनियां बनाना चाहिये । प्रथम कटनी में तीर्थंकर की माता के सोलह स्वप्न चित्रित करें। . द्वितीय कटनी में अष्ट प्रातिहार्यों का चित्रण करें। तृतीय कटनी में चारों ओर चार जिन प्रतिमाओं की स्थापना करें। भान स्तंभ की प्रतिमाएं तीर्थंकर के चिन्ह युक्त होवें। इनका खड्गासन होना श्रेष्ठ है। ८. भान स्तंभ पर स्वर्ण कलश आरोहित करें तथा ध्वजारोहण करें। ९. मान स्तंभ की प्रतिमाओं के पास अष्ट मंगल द्रव्यों की स्थापना करें। १०. मान स्तंभ के नीचे के भाग की जिन प्रतिमा तथा मूल नायक प्रतिमा की दृष्टि एक सूत्र में
होना चाहिये। ११. भान स्तंभ की प्रतिभाओं का दैनिक अभिषेक आवश्यक नहीं है। फिर भी यदि वार्षिक रूप से समारोह पूर्वक अभिषेक किया जाये तो अति उत्तम है। १२. मान स्तंभ का निर्माण मन्दिर से कुछ ऐसे पर करें ताकि दृष्टि भेद न हो। १३. मान स्तंभ के चारों ओर लगभग एक गज ऊंचा परकोटा अनायें । यह वर्गाकार बनायें तथा चारों दिशाओं के मध्य में शोभायुक्त द्वार बनायें। परकोटे को कलाकृतियों से सुसजित करें। १४. परकोटे की सजावट के लिये कलापूर्ण अष्ट मंगलद्रव्य, धार्मिक बोधवाक्ष्य, सूत्र आदि, नवकार मंत्र लिखवाकर करना चाहिये। १५. मान स्तंभ के आस-पास पूर्ण स्वच्छता रखें।
मानस्तंभ के प्रकरण में यह विशेष बात है कि अशौच अथवा सूतक पातक आदि की स्थिति में भी जिन बिम्ब का दर्शन किया जा सकता है। इसमें कोई दोष नहीं है। साथ ही इतर लोग भी बाहर से ही जिन प्रतिमा के दर्शन बगैर मन्दिर में प्रवेश किये कर सकते हैं।
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देव शिल्प
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कीर्ति स्तम्भ
धर्म प्रभावना के निमित्त विशेष उत्सवों अथवा अवसरों की स्मृति सुरक्षित रखने हेतु कीर्ति स्तम्भों की रच॥ की जाती है। धर्माला को स्तभों के निमित्त से धार्मिक जानकारी एवं संदेश मिलता है।
धार्मिक महोत्सव, तीर्थंकर प्रभु की जन्मशती आदि अवसरों पर कीर्ति स्तंभ बनाये जाते हैं इनकी स्थापना ऐसे स्थान पर की जाती है जहाँ ये जन सामान्य को आकर्षित करें तथा धार्मिक संदेश एवं सर्वतोभद्र की भावना को सम्प्रेषित करें ।
नगर के प्रमुख मार्ग, चौक, पार्क अथवा मंदिर प्रांगण में इनका निर्माण किया जाता है।
कीर्ति रतन्भ
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(देव शिल्प
८८)
एकदम वृत्ताकार अश्या पाकार वर्माका नििध में चारों तरफ जाली लगाकर एक क्षेत्र बनाया जाता है । इसके मध्य भाग में एक स्तंभ लगाया जाता है। स्तंभ वृत्ताकार, अष्टास्र अथवा वर्गाकार (चौकोर) होना चाहिए। स्तंभ पर आकर्षक कलाकृतियां बनाई जाती है।
स्तंभ के ऊपर एक चक्राकार वृत्त लगाया जाता है इसे धर्मचक्र भी कहते है। इस चक्र में चौबीस तीर्थंकरों के प्रतीक चौबीस आरे होते है। सामान्यतः इसका आकार(व्यास) स्तंभ की ऊँचाई का एक तिहाई अथवा एक चौथाई भाग होता है।
कीर्ति स्तंभों की अन्य कलात्मक रचना भी की जाती है । घण्टाघर नुमा शैली में भी इसे बनाते है। कीर्ति स्तंभ के नीचे के भाग में अनेकान्त, स्याद्वाद, अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह आदि दर्शाने चित्र वाले बोध वाक्य अथवा धर्मसूत्र भी लिखे अथवा उत्कीर्ण किये जाते है। महुआ(गुजरात) में ऐसा स्तंभ है। चित्तौड़गढ़ का कीर्ति स्तंभ विश्वविख्यात है। भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण वर्ष के उपलक्ष्य में सारे भारत में अनेकों नगरों में प्रमुख स्थलों पर महावीर कीर्ति स्तम्भ की स्थापना की गई है।
धर्म चक्र
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(द शिल्प
८९) सहसकूट जिनालय
जिनेन्द्र प्रभु की १००८ प्रतिमाओं के मन्दिर को सहस्रकूट चैत्यालय की संज्ञा दी जाती है। इस जिनालय में मन्दिर की आकृति में ऐसे जिनालय शिखरयुक्त होते हैं। अरिहन्त प्रभु के १००८ शुभ लक्षणों के प्रतीक स्वरुप भगवान की ही १००८ प्रतिमाओं के रुप में आराधना करने के लिये भक्त जन इस प्रकार के जिनालयों का निर्माण करते हैं।
सहस्रकूट जिनालयों की रचना चारों दिशाओं में चार द्वार युक्त होना चाहिये। सहस्रकूट जिनालय में मूलनायक के स्थान पर प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा स्थापित की जाना चाहिये। प्रथम तीर्थकर ने एक हजार वर्ष तक तप किया था, उसके प्रतीक स्वरुप १००० प्रतिमाओं के जिनालय बनाने का कार्य भो भक्तों द्वारा किया गया।
नामानुसार इस प्रकार के मन्दिर में १००० कूट (शिखरयुक्त मन्दिर) होना चाहिये । देवगढ़ में एक सहस्रकूट जिनालय है जिसमें शिखरयुक्त मन्दिरों का पृथक निर्माण नहीं है वरन् मन्दिर की बाहरी दीवाल पर ही म००० लघु मन्दिर उत्कीर्ण किये गये हैं।
कारंजा (जि. वाशिम, महाराष्ट्र) में प्राचीन बलात्कार गण मन्दिर में पीतल/ कांसे से बनी एक सुन्दर रचना सहस्रकूट जिनालय की है। जिन्तूर, श्री महावीरजी आदि स्थानों पर भी ऐसी संरचनायें हैं।
------- ---------------------------------------------------- सहस्रकूट जिनालय में १०२४ प्रतिमाएं भी स्थापित की जाती हैं। उनकी गणना करने की विधि दिशेषतः श्वे.परंपरा में इस भांति है
- भरत क्षेत्र ऐरावत क्षेत्र
कुल १० क्षेत्र की प्रत्येक में तीन काल की चौबीसी = १०४३४२४
= ७२० पंच विदेह में अधिकतम जिन एक साथ वर्तमान चौबीसी के प्रत्यके के पंच कल्याणक १२० शाश्वत जिन ऋषभानन आदि (चारों तरफ स्थापित मुख्य प्रतिमा)
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१०२४ चारों दिशाओं में प्रत्येक में २५६ प्रतिमायें स्थापित की जाती है।
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(देव शिल्प
ह्रीं जिनालय में २४ तीर्थंकरों की स्थापना
१०
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(दव शिल्प
ही जिनालय हीं मूल बीजाक्षर है। मन्त्रों में यह बीजाक्षर कल्याण के लिये प्रयुक्त किया जाता है। ॐ की भांति ही हौं भी सर्वकल्याण मंगल के लिये जैन जै-नेतर मन्त्रों में प्रयुक्त होता है। जैन शारत्रों में पंच परमेष्ठी अर्थात अरिहन्त, अशरीरो (सिद्ध) आचार्य उपाध्याय एवं मुनि (साधु) को संयुक्त रूप से व्यक्त करने कि लिये ॐ बीजाक्षर का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार चौबीस तीर्थंकरों को रांयुक्त रूप से व्यक्त करने के लिये ह्रीं बीजाक्षर का प्रयोग किया जाता है। जब एक तीर्थंकर का नाग मात्र मंगलकारी होता है तो चौबीस तीर्थंकरों को एक साथ व्यक्त करने वाला ह्रों बीजाक्षर कितना मंगलकारों है, यह वर्णनातीत है।
हाँ को जिनालय के रूप में भी पूजा जाता है। हाँ की आकृति बनाकर उसमें चौबीस तीर्थंकारों की रथापना की जाती है। चौबीस तीर्थंकरों की स्थापना इस प्रकार की जाती
ह्री में स्थित चंद्राकार में बिन्दु गें ऊपरी पंक्ति में ई मात्रा में ह अक्षर में
तीर्थंकर का नाम चन्द्रप्रभु, पुष्पदन्त नेमिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ पद्मप्रभु, वासुपूज्य सुपार्श्वनाथ. पार्श्वनाथ ऋषभनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनंदननाथ, रागतिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, विगलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ शांतिनाथ, कुन्थु नाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, नामेनाथ, वर्धमान बाभी
OTT
ही में चौबीस तीर्थकरों के यक्ष यक्षिणियों की भी स्थापना की जाती है । ह्रौं कार की रथापना मूलनायक प्रतिमा की भांति भी की जा सकती है। अन्य सामान्य वेदी में भी ही की स्थापना की जा सकती है।
प्राकृत भाषा में ह्रीं की रचना
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देव शिल्प)
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ॐ
मंदिर
ॐ की ध्वनि एक विशिष्टं नाद है। इसे बीजाक्षर भी माना जाता है। तीर्थंकर प्रभु की दिव्य ध्वनि भो ॐकार रूप ही निःसृत होती है । ॐ शब्द की व्युत्पत्ति करने पर पांचों परमेष्ठियों के प्रथम नामाक्षर होते है -
37 +34 + 3πT +3 +44 += ओम् अरिहन्त + अशरीरी + आचार्य + उपाध्याय मुनि इस तरह ॐ ध्वनि में पांचो परमेष्ट्रि समाहित हो जाते है। समस्त भारतीय दर्शन ॐ की महत्ता को स्वीकार करते है। ॐ जिनालय में गर्भगृह में ॐ शब्दाक्षर की पाषाण अथवा धातु की प्रतिमा स्थापित की जाती है 1 ॐ की आकृति को एक चौकौर वर्गाकार, अष्टास अथवा वृत्ताकार वेदी पर स्थापना करें।
ॐ की रचना
ॐ की वर्तमान प्रचलित रचना
चंद्राकार में सिद्ध की स्थापना करें। ॐ की ऊपर की पंक्ति में अरिहन्त की स्थापना करें। मध्य में आचार्य की स्थापना करें। ॐ की मात्रा में उपाध्याय की स्थापना करें। ॐ के नीचे की पंक्ति में मुनि की स्थापना करें । परमेष्ठी प्रतिमाएं सही आकार में ही बनायें ।
ॐ मंदिर में मीतरी सजावट एकदम सादगी पूर्ण करें ताकि ध्यानप्रिय साधक का चित एकाग्र हो राके। मंदिर की अन्य रचना सामान्य रीति से करें।
प्राकृत शास्त्रों में ॐ की रचना किंचित अन्तर से मिलती है।
सिद्ध
अरिहंत
उपाध्याय
आचार्य
ॐ
मुनि
प्राकृत भाषा में ॐ की रचना
सिद्ध
१२
अरिहंत
आचार्य
मुनि
उपाध्याय
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(देव शिल्प
नवग्रह मन्दिर
सभी मनुष्यों का जीवन सुख-दुःख का समन्वित रुप होता है। पुण्य के उदय से हमें सुख की प्रप्ति होती है जबकि पाप कर्म के उदय से हमारे जीवन में दुखमय परिस्थितियां आती हैं। ज्योतिष शास्त्र में नवग्रहों के उदय अस्त के रूप में इसे प्रदर्शित किया जाता है। जब मनुष्य विपरीत ग्रहों के उदय के कारण दुखी होता है तो उसके निवारण के लिये जिनेन्द्र प्रभु की शरण में आता है। महान जैनाचार्यों नवग्रहों के उपद्रवों को शमनकरने लिये पृथक पृथक तीर्थंकरों की पूजा करने का उपदेश दिया है। तीर्थंकरों की पूजा करने से पापकर्म कटते हैं तथा पुण्य कर्मों का आगमन होता है। पुण्य के प्रभाव से हमारा विपरीत समय शीघ्र ही व्यतीत हो जाता है तथा अनुकूल समय का आगमन होला है।
जैनाचार्यों ने नवग्रहों से सम्बन्धित तीर्थंकरों की पूजा करने के लिये नक्ग्रह जिनालयों का उल्लेख किया है। इन जिनालयों में पृथक पृथक तीर्थकरों के चैत्यालय पृथक पृथक भी बना राकते हैं अथवा एक साथ भी उनकी स्थापना की जाती है।
नवग्रहों की शांति के लिये पूज्य तीर्थंकरों की नामावली ग्रह का नाम तीर्थंकर का नाम
पद्मप्रभ चन्द्र
चन्द्रप्रभ मंगल
वासुपूज्य बुध
विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, नभिनाथ, वर्धमान ऋषभनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, सुपार्श्वनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ
पुष्पदंत शनि
मुनिसुव्रतनाथ
नेमिनाथ केतु
मल्लिनाथ, पार्श्वनाथ
जिस तीर्थंकर की प्रतिमा चैत्यालय में विराजमान करना है, उनकी स्थापना गर्भगृह में वेदी पर करें, अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमा भी शास्त्र-विधि के अनुसार ही स्थापित करें। यह ध्यान रखें कि किसी भी प्रकार से प्रतिमाओं के समक्ष स्तंभ वेध आदि न आयें। नवग्रह मन्दिर में सभी चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमायें इस प्रकार स्थापित करना चाहिये कि पृथक पृथक चैत्यालयों में एक-एक ग्रह के निमित्त प्रतिमाओं की स्थापना हो सके। इस प्रकार के जिनालयों का निर्माण कराने की शक्यता न हो तो सन्बंधित तीर्थकर की प्रतिमा स्थापित करें। यह भी संभव न हो तो उन तीर्थकर की विशेष पूजा पाठ अवश्य करें ताकि विपरीत ग्रहों के प्रभाव से शीघ्र ही मुक्ति मिलकर ग्रहों की अनुकूलता हो सके।
वृहस्पति
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२. सिद्ध -
(देव शिल्प
पंच परमेष्ठी एवं नवदेवता जिनालय
जैन धर्म में तीर्थंकरों के अतिरिक्त उनकी वाणी , धर्म , मुनिजन आदि को भी देवता की संज्ञा दी जाती है। सभी नव देवता की एक साथ स्थापना कर नव देवता जिनालय का निर्माण किया जाता है।
नय देवता के नाम तथा उनका स्वरुप इस प्रकार है - १. अरिहन्त - वे महान पुरुष है जिन्होंने तप करके घाातियां कर्मो को नष्ट करके केवल ज्ञान
अवस्था प्राप्त कर लो है। वे महान आत्माएं है जिन्होंने आटों कर्म (घातिया तथा अघातिया) को नष्ट कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त करे मोक्ष में स्थान पा लिया है, ये संसार चक्र से मुक्त
हो गये है। ३. आचार्य - वे महान गुांने पुरुष है जो महाव्रती साधुओं के संघ नायक तथा निर्यापक हैं। ये
दीक्षा एवं प्रायश्चित्त देने के अधिकारी हैं। ४. उपाध्याय- वे महान मुनि पुरुष हैं जो साधुओ को धर्म शास्त्र, जिन आगम ग्रन्थों को पढ़ाते है। ५. साधु- वे महान मुनि पुरुष हैं जिन्होंने पूर्ण निग्रन्थ अवस्था को ग्रहण कर महाव्रतों को
अंगीकार किया है। ६. जिन धर्म- अनादि काल से जिनेन्द्र प्रभु द्वारा प्रणोत धर्म जैन धर्म है। ७. जिनागम- ऐरो शास्त्र जिनमें जिन धर्म की प्ररुपणा एवं उपदेश दिया जाता है । मूलतः ये
जिनेन्द्र प्रणीत है। ८. जिन चैत्य- अरिहन्त , सिद्ध प्रभु की पूजा, स्तुति के निमित्त तथा उनके स्वरुप का आभार
कराने हेतु धातु, काष्ठ, पाषाण अथवा रत्न आदि से निर्मित प्रतिमा है। ९. जिन चैत्यालय- वह प्रासाद जिसमें जिन चैत्य विराजमान हैं जिन चैत्यालय कहलाता है। इसमें
जिनागम शास्त्र भी विराजमान होते हैं तथा समय-समय पर आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी आकर धर्मोपदेश देते है। धर्मानुरागी गण यहां जिनेन्द्र प्रभु की
पूजा भक्ति , शारत्र पाठ तथा जिन गुरुओं की वैयावृत्ति आदि करते हैं। जैन शास्त्रो में ये सभी देवता की स्थिति रखते हैं तथा धर्म अद्धालुओं के द्वारा पूज्य है। इनकी रांयुक्त रूप से उपासना करने के लिए नव देवता की संयुक्त प्रतिमा स्थापित की जाती है 1 एक चक्राकार आकृति की प्रतिमा की स्थापना की जाती है। जिनमें मध्य में अरिहन्त प्रभु की स्थापना करते हैं, पृथक -पृथक देवताओं की पृथक-पृथक प्रतिमाएं भी स्थापित की जाती हैं। इन प्रतिमाओं के लिए विशेष संकेत इस प्रकार है। १. अरिहन्त प्रभु की प्रतिमा अष्ट प्रातिहार्य युक्त बनाएं। प्रतिमा पद्मासन तथा शास्त्रानुसार
तालमान में होना परम आवश्यक है।
सिद्ध प्रतिमा बिना सिंहासन, चिन्ह एवं प्रातिहार्य के बनाएं। ३. आचार्य प्रतिमा में ऊंचे स्थान पर दिगम्बर आचार्य बैठे हुए अभय मुद्रा में हों तथा नीचे
साधुगण बैठे हों। सभी साधु एवं आचार्य पीछी कमंडलु सहित हों।
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(देव शिल्प
उपाध्याय प्रतिमा में ऊंचे स्थान पर दिगम्बर साधु हाथ में शास्त्र लेकर पढ़ाने की मुद्रा में हों तथा नीचे साधु गण बैठे हो । सभी साधु एवं उपाध्याय पीछी कमंडलु सहित हों । साधु प्रतिभा में ध्यानस्थ मुद्रा में पीछी कमंडलु सहित साधु हों। जिन धर्म भाववाचक संज्ञा है। जिन धर्म को समझाने के लिए धर्म चक्र की स्थापना की जाती है। धर्म चक्र में चौबीस आरे होना चाहिए। धर्मचक्र तीर्थंकर प्रभु के विहार के समय आगे चलता है। तीर्थंकर का बिहार धर्म को रथापना का प्रतीक है अतः धर्म के रूप में धर्म
चत्र की स्थापना की जाती है। ७. जिनागग- इसकी प्रतिभा में वेदी पर एक आसन पर जिन शास्त्र की आकृति रखें । ८. जिन चैत्य - तीर्थंकर प्रतिमा को जिन चैत्य के स्थान पर रखें।
जिन चैत्यालय- मंदिर की एक छोटी प्रतिकृति जिसमें भीतर गर्भगृह में जिन चैत्य विराजमान हों।
पंच परमेष्ठो जिनालय में आरेहंत, सिद्ध, आचार्य , उपाध्याय एवं साधु की प्रतिमा पृथकपृथक येदी में अथवा एका बदाम स्थापित की जाती है। मूल नायक के स्थान पर अरिहंत प्रतिमा स्थापित की जाती है।
नव देवता जिनालयों में इन प्रतिमाओं को पृथक पृथक वैदियों पर स्थापित करना हो तो मध्य में मूल नायक के स्थान पर अरिहंत प्रतिमा रखें। संयुक्त रुपेण प्रतिमा के प्रसंग में इसका स्वतंत्र जिनालय भी बनाया जा सकता है तथा पृथक वेदों में भी इसे रखा जा सकता है। नव देवताओं की मूर्तियां अनेकों स्थानों में है। अकलूज (महाराष्ट्र) का नवदेवत। जिनालय भी दर्शनीय है।
रत्नत्रय मन्दिर जैन धर्म में मुक्ति का एक मात्र मार्ग रत्नत्रय हैं। ये तीन रन हैं : सभ्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सन्यग्चारित्र । रत्नत्रय की महत्ता को पूजनीय बनाने के लिए रत्नत्रय प्रतिमाएं बनाई जाती हैं।
रत्नत्रय प्रतिमा में रत्नत्रय के स्थान पर तीन-तीन तीर्थंकरों की प्रतिमा की स्थापना की नाती है। ये तीर्थंकर हैं :- शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ।
इनमें शांतिनाथ की प्रतिभा मध्य में रखो जाती है। इन तीर्थंकरों की संयुक्त प्रतिमा रखने का एक अतिरिक्त कारण यह भी है कि ये तीनों तीर्थंकर अपने पद के अतिरिक्त चक्रवर्ती एवं कामदेव पद के भो धारक थे अर्थात एक साथ तीन पदों के धारक थे अतः स्नत्रय के रुप में इन्हीं में तीर्थंकरों की प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं। तीनों तीर्थंकरों की प्रतिमायें एक ही आसन में बनायें ।
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(देव शिल्प
सप्तर्षि जिनालय मनु आदि सात ऋषियों की प्रतिमाएं संयुक्त रुप से एक साथ स्थापित की जाती है. इनकी प्रतिमाएं पृथक पृथक भी एक ही मन्दिर में स्थापित की जाती हैं।
सप्त ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं :१. श्रीमनु
२. श्रीसुरमनु ३. श्रीनिचय
४. सर्वसुन्दर ५. जयवान
६. विनयलालस ७. जयमित्र
इन सातमुनियों की प्रतिमाएं खगासन में एक साथ निर्मित की जाती है। मुनियों के साथ प्रत्येका में पृथक-पृथक पोछी कमंडल रहना आवश्यक है । इन प्रतिमाओं को मंदिरों में रखा जाता है। इन प्रतिमाओं का स्वतन्त्र जिनालय सप्तर्षि जिनालय कहलाता है।
सप्तर्षि कीजैन मतानुसार कथा प्रभापुर नगर के राजा श्रीनन्दन के सात पुत्र थे । प्रीतेंकर महाराज के केवलज्ञान के अवसर पर देयों के आगमन के उपरान्त प्रतिबोध से पिता सहित सातों से दीक्षा ले ली।.ये ही सप्तऋषि कहलाते हैं। इनके प्रभाव से ही मथुरा नगरी में चमरेन्द्र यक्ष द्वारा प्रसारित महामारी रोग नष्ट हुआ।
पंच बालयति जिनालय
जिन परम्परा में पांच प्रतिमाओं की पंच बालयति प्रतिमा बनाने की परिपाटी है। ये तीर्थंकर पंच बालयति प्रतिमा बनाने की परिपाटी है। ये तीर्थंकर पंच बालयति कहलाते हैं। इन तीर्थंकरों ने संसार के समस्त वैभव को युवावस्था में ही त्याग दिया था तथा विवाह न करके बालब्रह्मचर्य का पालन किया व दीक्षा लेकर केवल ज्ञान प्राप्त किया। इन तीर्थंकरों के नाम एवं क्रम इस प्रकार हैं :
१२ वें तीर्थंकर वासुपूज्य स्वामी १९ वें तीर्थंकर मल्लिनाथ स्वामी २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ स्वामो २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ स्वामी
२४ वें तीर्थकर वर्धमान स्वामी इन तीर्थंकरों की संयुक्त प्रतिमा धातु या पाषाण की बनाई जाती हैं। इन तीर्थकरों की पृथक -पृथक प्रतिमा भी पृथक पृथक वेदियां बनाकर स्थापित की जाती हैं । मन्दिर निर्माण के अन्य नियम समान होते हैं । ये मन्दिर पंच बालयति मन्दिर कहलाते हैं ।
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(देव शिल्प
(१७) चौबीस जिनालयों का स्थापना क्रम-दो विधियाँ
___ यदि चौबीस जिनालयों का मन्दिर ब-पाया जाता है तो उसमें तीर्थकरों की पृथक-पृथक रश्चापना करना होता है। ऐसी स्थिति में एक तीर्थंकर को प्रतिमा मूल नायक के रूप में स्थापित करना पड़ता है। अन्य तीथंकारों की प्रतिभा पृष्टिमार्ग या प्रदक्षिणा क्रम में सात पूर्व - दक्षिण - पश्चिम - उतार इस क्रम में स्थापित करना चाहिये। जिस यातार मूल - नायक प्रतिमा स्थापित की जाये उस पंक्ति में सरस्वती देवी की प्रतिमा स्थापित करना चाहिये।
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चौबीस जिनालयों का स्थापना क्रम- दो विधियाँ
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(देव शिल्प) बावन जिनालयों का स्थापना कम
नन्दीश्वर तोप के बावन जिनालयों की प्रतिकृति बनाने की परपरा प्राचीन काल से ही जैन समाज में प्रचलित है। बावन जिनालयों में पृथक- पृथक जिनालय बनाकर प्रतिमा स्थापित की जाती है। इनका एक विशेष क्रम है, मध्य में मुख्य प्रासाद के बायों तथा दाहिनी ओर सत्रह- सत्रह जिनाला स्थापित करें। पिछले भाग में नौ जिनालय स्थापित करें। आगे के भाग में आठ जिनालय स्थापित करना चाहिये । इस प्रकार बावन जिनालय स्थापित करें। संलग्न चित्रानुसार भी बावन जिनालयों की स्थापना की जाती है।
मध्य लोक के आठवें द्वीप में ये स्थित हैं। ३२ रतिकर, ४ अंजनगिरि, १६ दक्षिभुख- ऐसे ५२ पर्वतों के मध्य भाग में १२ चैत्यालय हैं। ये पूर्वाभिमुखी हैं तथा इनकी लंबाई एवं चौड़ाई १० - १० योजन तथा ऊचाई ७ योजन है। इनके द्वारों की ऊंचाई ८. योजन तथा चौड़ाई ४ योजना है। ये द्वार पूर्व, उत्तर तथा दक्षिण में हैं।*
बहत्तर जिनालयों का कम
मुख्य प्रासाद के बायीं तथा दाहिनी तरफ पचौरस - पच्चीस जिनालय स्थापित करें। पिछले भाग में ग्यारह जिनालय स्थापित करें। आगे के भाग में दस जिनालय स्थापित करें। मुख्य प्रासाद मध्य में रखें।
भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल की चौबीस चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिभाएं मिलकर बहत्तर जिनालय बनाये जाते हैं।
*जैन ज्ञान कोश मराठी भाग २/४२५ *बावन जिनालयों के विषय में तत्वार्थ राजवार्तिक में उल्लेख है।
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(देव शिल्प
(१९)
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रतिकतोदधिमुखी/पतिकर पर्वत
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पर्वत विधिमुखारतिका पर्वत
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पर्वत/ पर्वत रतिकर विधिमुख/रतिव
पर्वत
पर्वत
बावन पर्वतों का मुख दर्शन
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तलदर्शन
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देव शिल्प
१००
सरस्वती मन्दिर
नयदेवताओं में जिनवाणी का नाम सम्मिलित है। जिनवाणी से तात्पर्य है वह वाणी जो केवलज्ञान प्राप्त होने के उपरांत अरिहंत (तीर्थंकर) प्रभु के द्वारा निःसृत होती है। जिस प्रकार हम पंच परमेष्टी की मन्दिर में प्रतिमा बनाकर पूजा करते हैं उसी भांति जिनवाणी की पूजा शास्त्रों की पूजा के रुप में की जाती है। जिन शास्त्रों में जिनवाणी लिखी हुई है वे भी जिनेन्द्र प्रभु की ही भांति पूज्य हैं। जैन धर्मानुयायियों का एक सम्प्रदाय तो सिर्फ शास्त्रों की ही आराधना होती हैं।
जिनवाणी का एक अन्य नाम द्वादशांग वाणी भी है। इसे कुछ अन्य नामों से भी वर्णित किया जाता है भारती, बहुभाषिणो सरस्वती, शारदा, हंसगागिनी, विदुषा, वागीश्वरी, जगन्मातः, श्रुतदेवी, बह्माणी, वरदा, वाणी इत्यादिः किन्तु जिनवाणी को सबसे अधिक सरस्वती नाम से जाना जाता है। सरस्वती ज्ञान की
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देवी है अतएव जिनवाणी का रूप सरस्वती देवी के रूप में ही स्मरण किया जाता है। सरस्वती देवी की प्रतिमा की रचला
जैन शास्त्रों में सरस्वती देवी की प्रतिमा बनने के
लिये एक विशेष रूप बताया गया है। रसरस्वती देवी की प्रतिभा अत्यंत सुन्दर एवं सौम्य स्मित रुप में चार भुजा युक्त बनाई जाती है। गुजाओं में एक भुजा में दीणा दूसरी में पुस्तक तीसरी में कमल पुष्प तथा चौथी में आशीर्वाद मुद्रा रखी जाती है। वाहन हंस का रखा जाता है। शुभ्र, वस्त्र, किणी, मणिमाला, रत्नहार, भुजबन्ध आदि से प्रतिमा को शोभान्वित किया जाता है।
सरस्वती देवी की स्थापना
भूलनायक प्रतिगा के दाहिने ओर सरस्वती देवो का
मन्दिर गर्भगृह में ही बनाया जाता है। पृथक से भी सरस्वती देवी का मन्दिर बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमायें जहां स्थापित की जाती हैं, वहां भी सरस्वती प्रतिमा स्थापित की जाती है। ऐसे प्रसंग में जिरा पंक्ति में मूलनायक प्रतिमा स्थापित की जाती है उत्ती पंक्ति में सरस्वती देवी की प्रतिमा स्थापित की जाती है। प्रतिष्ठा सारोद्धार में पं. आशाधरजी ने निर्देशित किय है कि सरस्वती की आराधना करने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। इसी सन्यदर्शन से सम्यज्ञान की प्राप्ति होती है। जो कि वास्तविक मोक्षमार्ग का परिचय कराता है.
विद्याप्रिया षोडशदृशविशुद्धि पुरोगमार्हन्त्य कृदथं रामः । (प्र.सा.)
सरस्वती देवी
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(देव शिला
(१०१) चरणचिन्ह जिस स्थल से मुांनेगण मोक्ष गमन करते हैं अथवा जहां से उनका समाधिमरण होता है वहां पर उगको रगृति के लिए चरण चि.हों को स्थापना की जाने की परम्परा है। जिन स्थानों पर भूगर्भ से प्रतिमा निकली हो अथवा जहां महानियों का आगमन हुआ हो वहां भो चस| चिन्ह स्थापित किये जाते हैं। चरण चिन्ह के ऊपर एक मंडप नुमा स्वना निर्माण की जाती है तथा उस पर शिखर चढाया जाता है। इसे चरण छतरी भी कहते हैं।
चरण छतरी में चरण की स्थापना वेदी पर की जाती है। वेदी का आकार डेढ़ हाश्य लम्बा डेढ हाथ चौड़ा वर्गाकार होना चाहिये । इस पर चरण चिाह की आकृति बनायें । वेदी की ऊँचाई डेड हाथ रहने । वेदी संगमरमर अथवा अन्य अच्छे पाषाण की बना सकते हैं। चरण चिन्हों की आकृति इस प्रकार बनायें कि पांध की अंगलियां (अ भागउत्तर या पर्व की ओर हो । राणाभिषेक का जल उत्तर या पूर्व की ओर निकले इस प्रकार नाली निकालें।
यहां यह स्मरणीय है कि जैन परम्परा में चरण बिन्ह की अर्चना की जाती है. चरण अथवा चरण पाटुका की नहीं । चरण ध-II-1 से खंडित प्रतिमा का आभास होता है।
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चरण चिन्ह
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देव शिल्प
१०२
विविध देवालय सम्मुख विचार
अनेकों बार ऐसे प्रसंग आते हैं जब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि अमुक देव के मन्दिर के समक्ष अन्य किसी देव का मन्दिर बनाया जाये अथवा नहीं ? साथ ही किस देवता के समक्ष किस देव का मन्दिर बना सकते हैं। ऐसा करते समय देवों के स्वभाव- गुण को मुख्य रुप से दृष्टिगत रखा जाता है ।
स्वजातीय देवों के आपस में या सामने देवालय बनाने में दोष नहीं माना जाता है । जिनेन्द्र प्रभु के मन्दिर के समक्ष जिनेन्द्र प्रभु का अन्य मन्दिर बनाया जा सकता है। फिर भी इतना अवश्य है कि मुख्य प्रासाद के किसी भी ओर अन्य देव का मन्दिर बनाने पर नाभिवैध का परिहार करके ही मन्दिर बनायें अर्थात् प्रासाद के गर्भ को छोड़कर ही मन्दिर का निर्माण करें।
जेनेतर देव सम्मुख प्रकरण
शिव के सामने शिव मन्दिर स्थापित कर सकते हैं। विष्णु के सामने विष्णु मन्दिर स्थापित कर सकते हैं। ब्रह्मा के मन्दिर के सामने ब्रह्मा का मन्दिर बनाया जा सकता है। सूर्य मन्दिर के सामने सूर्य मन्दिर स्थापित करने में कोई दोष नहीं माना जाता।
यहां यह भी स्मरण रखें कि शिवलिंग के समक्ष अन्य कोई देव स्थापित नहीं करना चाहिये। चंडिका देवी मन्दिर के सामने मातृदेवता, यक्ष, भैरव अथवा क्षेत्रपाल के मन्दिर बनाये जा सकते हैं। इसका कारण यह है कि ये देव आपस में समानभावी हितैषी हैं।
ब्रह्मा एवं विष्णु के मन्दिर एक नाभि में हो अर्थात् आपस में सामने आयें तो कोई दृष्टि दोष नहीं माना जाता है। किन्तु शिव अथवा जिन देव के समक्ष अन्य देव का मन्दिर कदापि न बनायें ।
दोष परिहार
इस दोष का निरसन एक विशिष्ट परिस्थिति में संभव है, यदि इन दोनों मन्दिरों के मध्य राजमार्ग या मुख्य रास्ता हो अथवा मध्य में दीवार हो तो इस दोष का परिहार हो जाता
है ।
* प्रा.मं. २ /२८, २९, ३०, अप. सू. १०८, प्रा.मं. २ /३१
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(देव शिल्प
देवों के चैत्यालय
भवनवासी देवों के चैत्यालय जैन शास्त्रों में सर्वत्र उल्लेख मिलता है कि देवों के स्थानों में जिन भवनों का अस्तित्व रहता है। ये चैत्यालय अत्यंत रमणीय तथा धर्मप्रभावना से संयुक्तारहते हैं। भवनवासो देवों के जिन भवन (चैत्यालय) में प्रत्येक में तीन-तीन कोट रहते हैं। ये कोट चार-चार गापुरों से संयुक्त रहते हैं। प्रत्येक वीथी (मार्ग) में एक मान स्तम्भ तथा नौ स्तूप तथा कोटों के अन्तराल में क्रम से वन भूमि, ध्वज भूमि तथा चैत्यभूमि होती है । वन भूमि में चैत्य वृक्ष स्थित हैं। ध्वज भूमि में हाथो आदि चिन्हों से युक्त आठ महाध्वजाएं हैं। प्रत्येक महाध्वजा के साथ १०८ शुद्रध्यजाएं हैं।
जि-। मन्दिरों में देवच्छन्द के भीतर श्रीदेवी, श्रुतदेयो तथा रार्वाह तथा स-त्कुिमार यक्षों की मूर्तियां एवं अष्ट मंगलद्रव्य होते हैं। उन भवनों में सिंहासन आदि सहित चंवरधारी नाग यक्ष युगल तथा नाना प्रकार के स्लों से युक्त जिन प्रतिमाएं विराजमान होती हैं। .
व्यंतर देवों के चैत्यालय ध्यंतर देवों के जिन भवन अष्टमंगल द्रव्यों से सहित होते हैं। इनमें दुन्दुभि आदि की मंगल ध्वनि होती है। इन मन्दिरों में हाथों में चंवर धारण करने वाले नागथक्ष युगलों से युक्त, सिंहासन आदि अष्ट प्रातिहार्यों से सहित अकृत्रिम जिन प्रतिमाएं विराजमान हैं।
इन जिनभवनों में प्रत्येक में छह-मण्डल हैं। प्रत्येक गटल में राजांगण के मध्य उत्तरी भाग में सुधर्मा नामक सभा है इसके उत्तर भाग में जिन भवन है।
देवनगरियों के बाहर चारों दिशाओं में चार बनखण्ड हैं, इनमें एक-एक चैत्यवृक्ष हैं। चैत्यवृक्ष की चारों दिशाओं में चार जिन प्रतिमाएं स्थित हैं। **
कल्पवासी देवों के चैत्यालय सगस्त इन्द्र मन्दिरों के आगे न्यग्रोध वृक्ष होते हैं। इनमें से एक-एक वृक्ष पृथ्वी स्वरुप तथा सम्रा वृक्ष के सरीखे रचना युक्त होते हैं। इसके मूल में प्रत्येक दिशा में एक-एक जिन प्रतिमा स्थित होती है।
सौधर्म इन्द्र के मन्दिर में ईशान दिशा में सुधर्मा नामक सभा होती है । उसके भो ईशान विभाग उपपाद सभा होती है। इसी ईशान दिशा में पांडुकवन के जिनालयों के सदृश रचना वाले उत्तम रस्मया जिनालय हैं। #
1
*(ति.प./३/४४ से ५२) "(लि.१.६/१३ से १५, ति.प.५/ ५९० से २०० एवं २३०) #ति.५/८/४०५ रो४११)
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(देव शिल्प)
(१०४) पांडकवनकेचैत्यालय ।
पांडकवन के चैत्यालयों की रचना अत्यंत सुन्दर हैं। इनमें एक उत्तम उठा हुआ परकोटा है। चारों दिशाओं में चार गोपुर द्वार हैं। चैत्यालय की सभी दिशाओं में प्रत्येक में १०८ ध्यजाएं लगो हैं। इन ध्वजाओं पर सिंह, हंस आदि उत्तग चिन्ह अंकित हैं।
चैत्यालयों के समक्ष एक सुधर्मा नामक विशाल सभा मण्डप हैं उसके आगे नृत्य मण्डप है । नृत्य मण्डप के आगे स्तूप है । स्तूप के आगे चैत्यवृक्ष हैं । चैत्यवृक्ष के नीचे एक अत्यन्त मनोहारी जिन प्रतिमा विराजमान है। इसका आसन पर्यकासन है।
त्याला अनेकों गवाक्ष, जाली, झालर, तोरण, मणिमाला एवं टिकाओं से अपनी अलग ही छांवे बना रहा है। इस चैत्यालय के पूर्वी भाग में एक शुद्ध जल से भरा ससेवर है जिसमें जलचर जीवों का अवस्था नहों है । *
..
पांडुक वन के चैत्यालय - मेरुगिरी स्वरुप
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पांडुक वन के चैत्यालय - तल माग
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*(ति.प./४/१८५५ से १९३५, त्रि. सा./९८३ - १00)
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(देव शिल्प)
१०५
मन्दिर निर्माण निर्णय
यह सर्वविदित है कि जिनेन्द्र प्रभु का मन्दिर बनाना एक असीम पुण्यवर्धक कार्य हैं। अनेकानेक जन्मों के संचित पापकर्मों का नाश गन्दिर निर्माण से होता है। मन्दिर में स्थापित आराध्य देव की पूजा चिरकाल तक होती है। अन्य लोगों को भगवद् आराधना के निमित्त भूत मन्दिर की स्थापना करने से अकल्पनीय पुण्य मिलता है। यह पुण्य तभी कार्यकारी है जब मन्दिर का निर्माण आगम प्रणीत सिद्धान्तों के अनुसरण करते हुए किया जाये। स्वयं निर्णय कर यद्वा तद्वा मन्दिर का निर्माण कर देने से पूजनकर्ता को भी लाभ नहीं मिलता तथा स्थापनकर्ता का भी अनिष्ट होता है।
धर्म रत्नाकर ग्रन्थ में आचार्य श्री जयसेन जी ने कथन किया है कि मन्दिर का निर्माण वास्तु शास्त्र के सिद्धान्तों के अनुरूप ही किया जाना चाहिये। ऐसे मन्दिर में भगवान की अर्चना करने वाला पुण्य का अर्जन कर दोनों लोकों में सुख भोगता है तथा परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति करता है। *
मन्दिर निर्माण करने की भावना मन में आने पर सर्वप्रथम आचार्य परमेष्ठी के पास जाकर विनयपूर्वक उनसे अपने भाव प्रकट करना चाहिये। यदि संभाज को सामूहिक भावना सर्व उपयोगी मन्दिर बनवाने की हो तो पहले समाज में इस पर सहमति विचार बनाकर पुनः समाज के सभी प्रमुख जनों को परम गुरु आचार्य परमेष्ठी के पास जाना चाहिये। तदुपरांत विनयपूर्वक श्रीफल अर्पणकर अपनी भावना व्यक्त कर उनसे मार्गदर्शन लेना चाहिये। जिस नगर में मन्दिर स्थापित करना प्रस्तावित है, उसके नाम राशि का मिलान प्रस्तावित तीर्थकर की राशि से करना चाहिये। उसके पश्चात् प्रतिमा स्थापनकर्ता की राशि का मिलान करना चाहिये। इसके पश्चात् ही शुभ मुहूर्त का चयनकर मन्दिर निर्माण का कार्य आरम्भ करना चाहिये ।
*वास्तुक्त सूत्र विधिना प्रविधापयन्ति ये मन्दिर मदनविद्विषतश्चिरं ते ।
शेविष्णुविश्वरमणी रमणीयभोगा, सौख्याब्धिमध्यरचितस्थितयों रमन्ते ।। धर्म रत्नाकर / ८
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(देव शिल्प)
स्वामी पृच्छा किसी भी भूमि पर वास्तु निर्माण का कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व यह अपेक्षित है कि वहाँ पर स्थित क्षेत्र स्वामी देवों को संतुष्ट किया जाये तथा उनकी विनय करके उनसे कार्यारम्भ करने की अनुमति ली जाये । महान आचार्य जयसेन स्वामी ने अपना आशय इस प्रकार व्यक्त किया है - *
क्षेत्र में निवास करने वाले देव आदि को संतुष्ट करके यथा द्रव्य विधि पूर्वक सम्मानित करके पंच परमेष्ठी पूजन करे एवं दीनों को भोजनादि देकर संतुष्ट करे । इसके पश्चात् हो निर्माण कार्य प्रारम्भ करना इष्ट है।
सिद्धचक्र, इन्द्रध्वज आदि विधान एवं पंच कल्याणक प्रतिष्ठा आदि धार्मिक प्रसंगों पर भी मंडप एवं वेदी आदि के निर्माण के पूर्व क्षेत्रपाल आदि देवों के प्रति सम्मान करते हुए उनसे आज्ञा अवश्य लेनी चाहिये।**
प्रतिष्ठाचार्य एवं यजमान प्रतिष्ठादि की यज्ञ भूमि में सर्वप्रथम भूमिस्थ देवों एवं तिर्यंच, मनुष्यादि के प्रति क्षमा याचना करे तथा सम्मान सहित अनुरोध करे कि "हे क्षेत्ररक्षक देव, आप इस क्षेत्र में बहुत काल से निवास कर रहे हैं अतः स्वभावतः आपका इस क्षेत्र के प्रति असीम स्नेह है। हम इस क्षेत्र में मन्दिर वास्तु अथवा धार्मिक आवास अथवा भयन (अथवा गृह) का निर्माण कराना चाह रहे हैं। अथवा इस स्थान पर अमुक ................ धार्मिक कार्यक्रम करना चाह रहे हैं। आप इस निर्माण कार्य (अथया धर्म कार्य) को पूर्ण करने के लिये अपनी सम्मति प्रदान करें तथा हमें परिवार सहित सहयोग प्रदान करें ताकि हम यह कार्य निराकुल निर्विघ्न सम्पन्न कर सकें। इस प्रकार क्षेत्रपालादि देवों रो विनय करके विधि पूर्वक पूजनादि कर्म करें तथा भूमि शुद्धि, विधि विधान पूर्वक प्रतिष्ठाचार्य सम्पन्न करायें।
तिलोय पणत्ति आदि करणानुयोग ग्रन्थों का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि मध्यलोक में सुई की नोंक के बराबर स्थान भी व्यंतरादि देवों से रहित नहीं है। ऐसी स्थिति में कोई भी निर्माण करने के पूर्व उनकी अनुमति लेना उचित ही है। इसका कारण यह भी है कि जो जीव जिस स्थान पर रहता है, उरो उससे स्नेह हो जाने के कारण वह अन्यत्र नहीं जाना चाहता #
अतएव निर्माण कार्यारम्भ के पूर्व विधिपूर्वक इन देवों से अनुमति लेना तथा सहयोग के लिये विनय करना उपयुक्त ही है । लोकाचार में भी भूमि पर कार्यारंभ करने के पूर्व राजकीय अनुमति ली ही जाती है । अतएव यहाँ निवासी देवों से अनुमति लेना अथवा सहयोग की कामना करना उचित ही है।
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*तत्स्थान वासान् निखिलान सुराठीन् संतोष्य पंचेशः सुमण्डलेन ! पूजा विधायेतस्दीन जन्तून सम्माने वार को महात्मः ॥ जयसेन प्रतिष्ठा पाठ **अहो धरायाभिह ये सुराश्च क्षमन्तु यज्ञादि कति दन्तु।
प्रीतिः पुराणा बहुवास योगात् क्षिताश्तो ऽस्मद्विनिवेदन वः ।। २१:१ जयसन प्रतिष्ठा पाट पृ पर # यो यत्र निवसन्नास्ते स तत्र कुरुते रतिः । इष्टोपदेश ४ः
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(देव शिल्प
निर्माण प्रारंभ पूर्व भूमि पूजन
मन्दिर निर्माण प्रारम्भ करने के लिए सर्वप्रथम शुभ मुहूर्त का चयन विज्ञान प्रतिष्ठाचार्य से कर लेना चाहिये । मन्दिर निर्माण कर्ता व्यक्तियों को एवं समाज को परम पूज्य आचार्य परमेष्ठी से विनय पूर्वक मन्दिर निर्माण कार्य आरम्भ करने के लिए विधिपूर्वक निवेदन करना चाहिये। आशीर्वाद प्राप्त कर चतुर्विद संध की उपस्थिति में समस्त समाज के साथ प्रभु के प्रति भक्तिभाव रखते हुए अभिमान आदि कषाय विचारों को त्याग कर वास्तु निर्माण हेतु भूगि पूजन करना चाहिये । भूमि पूजन विधि के द्वारा वहाँ के निवासी देवों से इस सत्य कार्य को करने की अनुमति एवं सहयोग की प्रार्थना करना चाहिये । मन्दिर निर्माण कर्ता को अत्यन्त प्रसन्नता पूर्वक विनय गुण से सहित होकर भूमि पूजनादि कार्यों को सम्पन्न करने से कार्य निर्विघ्न होता है । इस अवसर पर प्रतिष्ठाचार्य एवं सूत्रधार को यथोचित सम्मान करना चाहिये।
निर्माण कार्य प्रारंभ हेतु भूमि खनन विधि ___ निर्माण कार्य प्रारंभ करने से पूर्व विधि विधान पूर्वक भगवान जिनेन्द्र की पूजा करें। तत्पश्चात् भूमि को सवौषधि एवं पंचामृत से सिंचन करें। इसके उपरांत वास्तुपूजन भूमिपूजन आदि विधान करके कार्यारम्भ करना चाहिये । मन्दिर के लिए नींव खोदने का कार्य ईशान दिशा से करना चाहिये । इसी भाग में अथवा मध्य में कूर्म शिला की स्थापना करके मन्दिर निर्माण कार्यारम्भ करना चाहिये।
खनन यन्त्र (कुदाल) कामाप भन्दिर निर्माण का कार्य प्रारंभ करने के लिये प्रयुक्त किया जाने वाला यन्त्र (कुदाल) का गाप विषम अंगुल में रखना श्रेयस्कर है। यदि इसका माप सम अंगुल में है तो इससे निर्माता को कन्या प्राप्ति का लाभ होगा जबकि विषमांगुल माप के यन्त्र से पुत्र प्राप्ति का लाभ होगा। मध्यांगुल होने पर विपरीत कल तथा दुख होगा।
खनन यन्त्र का शुद्धिकरण सर्वप्रथम नये खनन यंत्र को पंचामृत से सिंचन कर शुद्ध करें। ऐसा करते समय निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें:
" की शू कोंकः" इसके पश्चात यन्त्र पर केशर से स्वस्तिक बनाकर पंचवर्णसूत्र (कलावा) बांधना चाहिये।
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देव शिल्प
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अब मन्दिर स्थापनकर्ता को मस्तक पर तिलक कर रक्षा सूत्र बांधे तथा वह उत्तर की ओर मुख करके खड़े होकर निम्न मन्त्र का उच्चारण करते हुए भूमि पर खनन यंत्र शक्ति से प्रहार कर खनन करें
36 हूं फट् स्वाहा
खनन करते समयं पत्र जितना जबिक भूमि में प्रविष्ट होता है उतनी ही अधिक मन्दिर वास्तु की आयु होती है।
भूमि खनन समय का निर्णय
अधोमुख नक्षत्रों में (मूल, आश्लेषा, कृतिका, विशाखा, पू. फा., पू.बा., पू.भा., भरणी, मघा ) में भूमि खनन प्रारंभ शुभ है। इन नक्षत्रों में अनुकूल चन्द्र तथा शुभ वारों में खनन प्रारंभ करें। *
भूमि खनन के समय शुभाशुभ शकुन
भूमि खनन प्रारंभ करते समय मंगल वचन, गीत, मंगल वस्तुओं का दर्शन, धर्मवाक्यों की ध्वनि, पुष्प या कल की प्राप्ति, बांसुरी, चौणा, मृदंग की ध्वनि अथवा इन वाद्ययन्त्रों का दर्शन शुभ माना जाता
है।
इसी प्रकार दही, दुर्वा, कुश, स्वर्ण, रजत, ताम्र, मोती, मूंगा, मणि, रत्न, वैर्ड्स, स्फटिक, सुखद मिट्टी, गारुड़ वृक्ष का कल खाद्य पदार्थ का मिलना अथवा दर्शन होना शुभ फलदायक माना जाता है। कांटा, करेले का वृक्ष, खजूर, सर्प, बिच्छू, पत्थर, वज, छिद्र, लोहे का मुदगर, केश, कपाल, कोयला, भस्म, चमड़ा, हड्डी नमक, रक्त, गज्जा का दर्शन अशुभ फलदायक माना जाता है। भूमि से केश, कपाल, कोयला आदि अशुभ पदार्थों का निकलना भी अशुभ माना जाता है।
* अधोमुखे च नक्षत्रे, शुभेऽव्हि शुभ वासरे। चन्द्र तारानुकूले च खननारम्भणं शुभम् ।।
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देव शिल्प
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मन्दिर निर्माण सामग्री प्रकरण
मूलतः वास्तु संरचना के लिये काष्ठ, लोहा, चूना, ईंट, पाषाण इत्यादि सामग्री का प्रयोग किया जाता है। गृह वास्तु का निर्माण इन्हीं पदार्थों से किया जाता है । किन्तु जिस भवन में तीन लोक के नाथ ईश्वर की स्थापना की जाती है उस भवन का निर्माण सिर्फ शुद्ध, पवित्र एवं श्रेष्ठ द्रव्यों रो किया जाना आवश्यक है। प्राचीन काल से ही मन्दिरों का निर्माण पाषाण से किया जाता रहा है। वर्तमान युग में वैज्ञानिक आविष्कारों के प्रभाव से वास्तु निर्माण कंक्रीट अर्थात् लोहा, सीमेन्ट, पाषाण से किया जाता है। सीमेन्ट के प्रयोग से कम स्थान में अधिक निर्माण संभव हो जाता है तथा मजबूती भी अधिक रहती है।
मन्दिर का निर्माण करने के लिये प्रमुखतः तीन प्रकारों की व्यवस्था है -
१.
पूर्णतः पाषाण निर्मित
२.
ईंट, गारे एवं पाषाण से निर्मित
3.
ईंट, सीमेंट एवं लोहा कंक्रीट
निर्मित
इनमें सामान्यतः भवनों का निर्माण तीसरी शैली से किया जाता है। मन्दिरों का निर्माण भी वर्तमान में इसी पद्धति से किया जाने लगा है। किन्तु यह पद्धति प्राचीन सिद्धांतों से मेल नहीं खाती अतएव इस पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है।
प्रथम दो पद्धतियों से बनाये गये मन्दिर निर्माण भी सैंकड़ों वर्षों तक स्थिर रहते हैं जबकि मजबूती का दावा करने वाले कंक्रीट के निर्माण सौ वर्ष से ज्यादा टिकने में असमर्थ प्रतीत होते हैं। हाँ यह अवश्य है कि पाषाण निर्माणों में स्तंभ तथा दीवालों की मोटाई अत्यधिक रखना पड़ती है। इस कारण उपयोग के लिये स्थान में कमी आ जाती है।
लोहे के प्रयोग का निषेध
शिल्पशास्त्रों में काष्ठ, मिट्टी, पाषाण, धातु, रत्न आदि से मन्दिर वास्तु निर्माण का निर्देश दिया है लोहे को अधम धातु मानकर इसका मंदिर निर्माण हेतु शिल्प शास्त्रों में निषेध किया गया है। लोहे में जंग लगना अथवा मजबूती को दृष्टिगत रखने के उपरांत भी इसके अधम होने के कारण इराको वर्जित किया गया है। त्रिलोकपति जिनेन्द्र प्रभु के मन्दिर का निर्माण अधम वस्तु से न किया जाये, इसका निर्माणकर्ता को ध्यान रखना आवश्यक है। ऐसा न करने घर निर्माणकर्ता एवं उपयोगकर्ता रामाज दोनों को अनावश्यक विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।
*
* काष्ठे पृथिष्टके चैव पाषाणे धातु रत्नजे । उत्तरोत्तरं दृढं द्रव्यं लीह कर्म विवर्जयेत् । शिल्प स्मृति वास्तुविद्या ६/११६ उत्तमोत्तमधात्वादि पाषाणष्टिककाष्टकम् । श्रेष्ठमध्यमाधमं द्रव्यं लौह अधमाधमम् । शिल्प स्मृति वास्तुविद्या ६/१७
I
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देव शिल्प
(११० समन्वय ___ वर्तमान युग में सभी वास्तु संरचनायें कंक्रीट से ही बनाई जा रही हैं। जबकि प्राचीन काल में निर्मित मन्दिरों में लोहे का नामो-निशान भी नहीं था। खजुराहो के मन्दिरों का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि वहां के मन्दिर केवल पाषाण निर्मित हैं उनमें मसाले से जुड़ाई गी नहीं है। कहीं-कहीं पर पाषाणों को ताम्बे की पट्टियों से कसा गया है। अतएव यह स्पष्ट है कि पाषाण निर्मित मन्दिर बनाना असंभव नहीं है। वर्तमान में वास्तु शिल्पशास्त्र की अल्प जानकारी होने के कारण शिल्पी कंक्रीट से ही निर्माण करने का उपक्रम करते हैं। ऐसी परिस्थिति में मन्दिर का गर्भगृह तथा शिखर बिना लोहे का ही बनाना चाहिये, इसमें श्रेष्ट द्रव्यों का ही निर्माण करना चाहिये । पाषाण भो श्रेष्ठ प्रकार का ही लेना चाहिये। प्राचीन शास्त्रों में दी गई गणनायें भी पाषाण निर्मित मन्दिर निर्माण के अनुरुप ही दी गई हैं अतः उनसे समन्वय रखने के लिये भी मन्दिर का निर्माण पाषाण से ही करना चाहिये। .
प्रसंग वश यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि दिर, यो निलो ता . वाले उपकरण जैसे घंटा, छत्र, सिंहासन भी लोहे के नहीं बनाना चाहिये। स्टेनलेस स्टील भी लोहे का ही एक प्रकार है अतः इसका प्रयोग भी उपकरणों के लिये नहीं करें। दरवाजे, पल्ले, खिड़की आदि में भी यथा संभव लोहे का प्रयोग न करें।
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(देव शिल्प
- मन्दिर निर्माण में काष्ठ प्रयोग
___ मन्दिर, कलश, ध्वजादण्ड, ध्वजादण्ड की पाटली ये सभी एक ही लकड़ी के बनाये जाने चाहिये। सागवान, केसर, शीशम, खैर, अंजन, महुआ की लकड़ी इनके लिए शुभ मानी गई है।# निम्नलिखित काष्ठों का प्रयोग वास्तु के लिए नहीं करना चाहिये - १.हल, २.घानी/कोल्ह, ३.गाड़ी, ४. रेहट, ५.कंटीले वृक्ष ६. केला, ७. अनार, ८. नींबू, ९.आक, १०. इमली, ११. बीजोरा, १२.पोले फूल वाले वृक्ष, १३. बबूल, १४. बहेड़ा, १५. नीम, १६. अपने आप सूखा हुआ वृक्ष, १७.टूटा हुआ वृक्ष, १८. जला हुआ वृक्ष, १९. श्मसान के समीप का वृक्ष, २०. पक्षियों के घोंसले वाला वृक्ष, २१. खजूर आदि अतिलम्बा वृक्ष, २२. काटने पर दूध निकले ऐसा वृक्ष, २३: उदुम्बर (बड़, पीपल, पाकर, ऊमर, कठूमर).
इन वृक्षों को -। तो मन्दिर में लगाना चाहिये न ही इनका काष्ठ निर्माण में प्रयोग करना चाहिये। इन वृक्षों की जड़ मन्दिर में प्रविष्ट हो अथवा मन्दिर के समीप हो तो भी क्षतिकारक है। इनकी छाया भी मन्दिर पर नहीं पड़ना चाहिये।*
देव मन्दिर, कूप, बावड़ी, श्मसान, मठ, राजमहल की लकड़ी, पत्थर, ईंट आदि का तिलमात्र भी मन्दिर में उपयोग करना क्षतिकारक है। ऐसा करने से मन्दिर सूना रहता है उसमें पूजा प्रतिष्ठा नहीं हो पाती। यहां तक कि यदि घर में ये लगाये जायें तो गृहस्वामी उस मकान का उपयोग नहीं कर पाता।**
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*हत पाणव समडमई अरहट्ट जंताणि कंटई तह य । परि वीरतयाण य कह जिजज्जा ।।द.सा. १/१४६ बिजेरि केलि दाहिपजंभीरी दोहलि, अंबलिया। बल बोरमाई कणयमया तह वि जो कुळा ।। 4. सा. १/१४७ एयाणं जइ वि जहा पाडिवसा उपविर-सड अहवा! छाया वा जम्मि गिहे कुलनासो हवा तत्धेव।। व. सा. १/१४८ सुमक्क भठठा दइदा पसाण खगनिलय खीर चिन्दीहा। जिंब बहेडा रुवस्वा जहु कहिज्जति मिहहेऊ ।। व. सा. १/१४९'
*अन्य तास्तुत्युतं द्रव्यमव्य वास्ता न योजयत।। प्रासादे न भवेत् पूजागृहे च न वसे गृही1 समरांगण सूत्रसार पासाय व वाच. मसाण मठ रायमंदिराणं च । पाहाण इट्ट कट्ठा सरिसवमत्ता दिवसिज्जा ।। 1. सा. १/१५२ #मुहय इ० दारुपयं पासाट कलस दण्डमहि । सहकट्ठ सांदेड कीरं सीमिमखयरंजणं मह्यं ।। व.स. ३/३१
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(देव शिल्प
मन्दिर निर्माण प्रारम्भ उपयुक्त भूमि पर मन्दिर निर्माण करने का निर्णय हो चुकने के पश्चात् शुभ मुहूर्त का चयन एवं गुरु की अनुमति लेना चाहिये । मन्दिर निर्माण करने की प्रक्रिया मन्दिर निर्माण के कार्य स्तरों पर निर्भर होती है।
प्रक्रिया मन्दिर निर्माण प्रारंभ करते समय क्रमशः निम्नलिखित का निर्माण कर-॥ चाहिये - १. कूर्म शिला स्थापन २. खर ३. जगती
भण्डोवर
स्तम्भ ६. द्वार, खिड़की ७. मण्डप निर्माण, प्रतोली, वलाणक ८. संवरणा, वितान ९. गर्भगृह १०. शिखर निर्माण ११. कलश, पताका स्थापन १२. प्रतिमा, स्थापन १३. साजसज्जा
कूर्म शिला स्थापन के उपरांत किया जाने वाला सभी कार्य दक्षिण से प्रारम्भ कर उत्तर की ओर करें। इसी भांति पश्चिम से प्रारम्भ कर पूर्व की ओर करें। इस प्रकार कार्य करने से सारे कार्य निर्विघ्न एवं यथा सगय पूर्ण होवेंगे। इसके विपरीत करने पर अनावश्यक व्यवधान आने की अत्याधिक संभावना रहेगी।
____ मन्दिर निर्माण के लिये वास्तु शास्त्र के सामान्य नियमों का अनुसरण करें तथा अपने आचार्य परमेष्टी गुरु एवं विद्वानजनों से निरन्तर परामर्श लेते रहें । ऐसा करने से कार्य सम्पादन में सुगमता रहती है। मन्दिर निर्माण में अपनी शक्ति अनुसार द्रव्य व्यय करके उत्तम देवालय को निर्माण करना उपयुक्त है।
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देव शिल्प
कूर्म (धरणी) शिला
कूर्म शिला से तात्पर्य ऐसी शिला से है जो कछुए के चिन्ह से अंकित हो । यह गर्भगृह की नींव के मध्य में स्थापित की जाने वाली नवमी शिला है।
यह पूर्ण शिक्षा स्वर्ण पाजत पत्र पर बनवाकर पंचामृत अभिषेक से स्नान कराकर स्थापित करना चाहिये ।
कर्म शिला की आकृति
कूर्म शिला के नौ भाग करें। प्रत्येक भाग पर पूर्व से आरंभ कर दक्षिणावर्त (क्षीराणंच / १०१ ) दिशा क्रम में एक- एक आकृति बनवायें ।
पानी की लहर
भोजन का ग्रास
१. पूर्वः २. आग्नेयः
मछली
३. दक्षिणः
मेंढक
४. नैऋत्यः
मगर
९. मध्य में
कछुआ
५. पश्चिमः
६. वायव्यः
७. उत्तरः
८. ईशानः
120 MOD
९१३
कूर्म शिला एवं अष्टशिलाएं
पूर्णकुम्भ
सर्प
शंख
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(देव शिल्प
११४
मन्दिर की वास्तु का निर्माण प्रारम्भ करने से पूर्व भूमि को इतना खोदें कि कंकरीली जमीन अथवा पानी आ जाये। कूर्म शिला को मध्य में स्थापित करें। (प्रा. नं १ /२८-२९ ) ईशान दिशा से प्रारंभ कर एक- एक शिला रखनी चाहिये । मध्य में धरणी शिला स्थापित करें। कूर्म को धरणी शिला के ऊपर स्थापित करें।
शिलाओं के नाम इस प्रकार हैं:- नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता, अजिता, अपराजिता, शुक्ला, सौभागिनी तथा धरणी। इन शिलाओं के ऊपर क्रम से वज्र, शक्ति, दण्ड, तलवार, नागपाश, ध्वजा, गदा, त्रिशुल इस प्रकार दिक्पालों के शस्त्रों को स्थापित करें। शिलाओं की स्थापना शुभ मूहूर्त में मंगल वाद्यध्वनि पूर्वक करें।
कूर्म शिला स्थापित करने के बाद उसके ऊपर एक नाली देव के सिंहासन तक रखी जाती है। इसे प्रासाद नाभि कहते हैं।
कूर्म शिला का माप
एक हाथ के चौड़ाई वाले प्रासाद में आधा अंगुल की कूर्म शिल। स्थापित करें। इसके बाद पंद्रह हाथ तक प्रत्येक हाथ पीछे आधा आधा अंगुल बढ़ायें। इसके बाद सोलह से इकतीस हाथ तक चौथाई अंगुल बढ़ाएं। इसके बाद अठ्ठारह हाथ के लिए प्रत्येक हाथ अंगुल का आठवां भाग अथवा एक जव के बराबर बढ़ाते जाएं।
जिस मान की कूर्म शिला आये उसमें उसका चौथाई भाग बढ़ाएं तो ज्येष्ठ मान की शिला होगी। यदि मान से उसका चौथाई कम कर दें तो कनिष्ठ मान आएगा।
एक हाथ से पचास हाथ तक प्रासाद के लिये धरणी शिला का प्रमाण विभिन्न शास्त्रों में किंचित अंतर से है:
प्रासाद हाथ में
१
-
२-१०
११-२०
२१- ५०
धरणी शिला के मान की गणना विधि - १
(क्षीरार्णव अ. १०१ के मत से)
फुट में
२
अंगुलो में / इंच में
४ अंगुल / इंच
४-२०
प्रति हाथ २-२ अंगुल / इंच बढ़ाएं प्रति हाथ १-१ अंगुल / इंच बढ़ाएं
२२-४०
४२-१००
प्रति हाथ १ / २ - १ / २ अंगुल / इंच बढ़ाएं
इस प्रकार के मान से शिला को वर्गाकार बनायें। इसके तीसरे भाग के बराबर मोटाई रखे । पिण्ड के आधे भाग में शिला के ऊपर रुपक एवं पुष्पाकृति बनायें । I
शिला का मान
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(देव शिल्प
(११५)
धरणी शिला के मान की गणना विधि -२ (ज्ञान प्रकाश दीपार्णव अ. ११ के मत से )
शित का मान अंगुलो/इंच में
प्रासाद
हाथ में
फुट में
मोटाई अंगुल / इंच में
१, १/३
५-१२ १०-२४ प्रत्येक में ३/४ अंगुल /इंच बढाएं १३ - २४ २६-४८ प्रत्येक में १/२ अंगुल /इंच बढ़ाएं २५-३६ ५०-७२ प्रत्येक में ३/४ अंगुल /इंच बढ़ाएं ३७ - ५० ७४-१०० प्रत्येक में १ अंगुल /इंच बढ़ाएं इस प्रकार ५० हाथ के प्रासाद में ४७ अंगुल की शिला रखें।
धरणी शिला के भान की गणना विधि -३ (अपराजित पृच्छा सूत्र १५३)
शिला का मान फुट में
अंगुलो/इंच में
प्रासाद हाथ में
ट
Conno
१२
५-८ १०-१६ प्रत्येक में ३-३ अंगुल /इंच बढ़ाएं ९ - ५० १८-१०० प्रत्येक में २-२ अंगुल/इंच बढ़ाएं इस प्रकार ५० हाथ के प्रासाद में १०८ अंगुले की शिला रखें।
थरणी शिला का अन्य मान
(अपराजित पृच्छा सूत्र ४७/१६) ९० अंगुल लंबी २४ अंगुल चौड़ो १२ अंगुल मोटी धरणी शिला रखें ।
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देव शिल्प
खर शिला
खर शिला से तात्पर्य ऐसी शिला से है जो जगती के दासा तथा प्रथम भिट्ट के नीचे आधार शिला के रूप में बनाई जाती है। यह पर्याप्त मोटी तथा चौड़ी बनायें। ईंट, चूना, पानी से इसे शक्तिशाली बनाना चाहिये । प्रासाद तल के ऊपर इसे बनायें ।
*
खरशिला के मान की गणना #
प्रासाद की चौड़ाई हाथ में कूट में
9
२
२-५
६-९
१०-३०
३१-५०
खरशिला की मोटाई अंगुलो / इंच में
६
प्रति हाथ १ अंगुल / इंच बढ़ाएं प्रति हाथ १/२ अंगुल / इंच बढ़ाएं प्रति हाथ १ / ४ अंगुल / इंच बढ़ाएं
प्रति हाथ १/८ अंगुल / इंच बढ़ाएं
8-90
१२-१८
२०-६०
६२-१००
इस प्रकार ५० हाथ के प्रासाद में १९, १/८ अंगुल की शिला रखें। **
अन्य मत
प्रथम भिट्ट के नीचे कूर्म शिला की मोटाई से अर्धमान की खर शिला की मोटाई रखना
चाहिये ।
११६
*अतिस्थूला सुविस्तीर्णा प्रासादधारिणी शिला । अतीव सुदृढा कार्या इष्टिकाचूर्णवारिभिः । प्रा. पं. ३/१
**
"प्रथमभिट्टस्याधस्तात् पिण्डो वर्ण (कर्म) शिलोत्तमा ।
तस्य पिण्डस्य चार्धन स्वरशिला पिण्डमेव च ।। क्षीरार्णव १०२ / ५ # अप. सू. १२३ के मत से
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(देव शिल्प
भिड खर शिला के ऊपर वाली थर का नाम भिट्ट है। भिट्ट के ऊपर पीठ बनाया जाता है । भिट्ट से डेढ़ गुना वर्णशिला की मोटाई रखें । वर्णशिला से आधा भाग के बराबर खर शिला का मोटापन रखें। इन शिलाओं का इतना मजबूत होना आवश्यक है कि मुद्गर प्रहार गी उनके ऊपर निष्प्रभावी हो जायें। इन दृढ़ शिलाओं के ऊपर मन्दिर का निर्माण किया जाना चाहिये।
भिट्ट के मानकी गणना विधि-१
एक हाथ (दो फुट) वाली चौड़ाई के मन्दिर में भिट्ट की ऊंचाई चार अंगुल/ इंच रखें। इसके उपरांत दो से पच्चास हाथ तक(चार से सौ फुट) की चौड़ाई में प्रत्येक हाथ (दो फुट) के लिये आधा अंगुल/इंच बढ़ायें। *
भिट्ट के मानकी गणना विधि-२ प्रासाद की चौड़ाई
भिट्ट की ऊंचाई हाथ में
अंगुलो/इंच में
२-५ ४-१०
प्रत्येक में १ अंगुल /इंच बढ़ाएं ६-१० १२-२०
प्रत्येक में ३/४ अंगुल/इंच बढाएं ११-२० २२-४०
प्रत्येक में १/२ अंगुल/इंच बढ़ाएं २१-५० ४२-१००
प्रत्येक में १/४ अंगुल /इंच बढ़ाएं इस प्रकार पचास हाथ (१०० फुट) चौड़ाई के प्रासाद में भिट्ट की ऊंचाई २४, १/४ अंगुल/ इंच होगी। #
क्षीरार्णव, अ. पृ. , वास्तु विद्या, वास्तुराज ग्रंथानुसार मिट्ट की जो ऊंचाई करना हो उसमें एक, दो या तीन भिट्ट बना सकते हैं। प्रथम भिट्ट से दूसरा भिट्ट पनि भाग का बनाएं। तीसरा भाग आधा ऊंचा ही रखना चाहिये। अपनी ऊंचाई का चौथा भाग बाहर निकलता हुआ (निर्गम) रखना उपयुक्त है। ##
प्रथम भिट्ट का बाहर निकलता भाग ऊंचाई का चौथाई रखें। दूसरे भिट्ट में तीसरा भाग रखें तथा तीसरे भिट्ट में आधा रखें।
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* शिलोपरि भवेट् भिट्ट-मेकहस्ते युगांगुलम् । अर्धागुल। भवेद् वृद्धि-र्यावद्धस्तशतार्द्धकम् ॥ प्रा. मं ३/२ "अगुलेनाशहीनेन अर्द्धनार्दैन च क्रमात् । पंचटिंगविशतिर्थावच्छतार्द्ध च विवर्द्धयेत्॥ (प्रा नं ३/३)
#राज सिंह कृत वास्तुराज के मतानुसार ## क्षीटार्णव के अनुसार
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(देव शिल्प
(११८)
प्रगती मन्दिर निर्माण के लिये भूमि का चयन कर लेने के पश्चात उसमें ऐसी भूमि का रेखांकन करना चाहिये, जिस पर मन्दिर बनाना है। इस निर्धारित भूमि पर एक ऊंचा चबूतरानुगा निर्माण किया जाता है । इस निर्माण को हो जगती कहते हैं। यह एक पीठनुमा निर्माण होता है तथा सामान्यतः पाषाण निर्मित होता है। यह एक ऐसा पीठ है जो कि मन्दिर के निर्माण के लिए उसी प्रकार आधार का काम करता है जिस प्रकार राजसिंहासन रखने के लिए एक उच्चस्थान का निर्माण किया जाता है। *
जगती का आकार मन्दिर का निर्माण कार्य जैसी भूमि पर किया जायेगा उसी प्रकार की आकृति जगती की रखना चाहिये । मन्दिर का निर्माण निम्न आकार का किया जाता है -
१. वर्गाकार
आयताकार ३. वृत्ताकार ४. लम्ब वृत्ताकार (अण्डाकार) ५. अष्टकोण
इसी प्रकार की आकृति जगती की रखें । यदि अष्टकोण मन्दिर बनाना हो तो जगती भी अष्टकोण रखना चाहिए।
__ जगतीका मान जगती का मान प्रासाद की चौड़ाई से एक निश्चित अनुपात में रखना चाहिए । यह मान तीन प्रकार का है - १. कनिष्ठ मान- प्रासाद की चौड़ाई से ती-। गु-ना मान की जगती का मान कनिष्ट मान है। २. मध्यम मान - प्रासाद की चौड़ाई से चार गुना मान की जगतो का मान मध्यग मान है। ३. ज्येष्ठ गान - प्रासाद की चौड़ाई से पांच गुना मान की जगतो का मान ज्येष्ठ मान
कहलाता है। विशेष - जिन (अरिहन्त) प्रभु के मन्दिरों में जगती छह से सात गुनी भी कर सकते हैं ।*
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*प्रा. म. २/१ ** प्रा. गं. २/३ अ. स्...:५
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(देव शिल्प
(११९) यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि मण्डप के क्रम से सवा, डेढ़ अथवा दुगनी चौड़ाई वाली जगती का निर्माण करे। जिन गन्दिरों में परिक्रमा (भगाणी) बगाई जाना है वहाँ पर ज्येष्ठ लगती ताले मन्दिरों में तीन भ्रभा बाना चाहिये । माटयम जगती में दो भणी रखें तथा कनिष्ठ में एक भ्रमणी रखें। *
विशेष - प्रासाद के अनुरूप ही जगतीं बनाना चाहिये । जगतो चार, बारह, बांस, अट्ठाइस या छत्तीस कोने को बनायें।
जगती की ऊंचाई का मान प्रथम विधि - एक से बारह हाथ तक चौड़ाई वाले प्रसाद को जगती की ऊंचाई प्रासाद से आधे भाग की रखें। तेरह से बाईस हाथ लक के प्रासाद की जगती की ऊंचाई प्रासात से तीरारे भाग की रखें । तेइंस से बनीरा हाथ तक के प्रासाद की जगली की ऊंचाई चौथाई भाग रखें। ३३ से ५० हाथ में पांचवां भाग रखें।** प्रासाद की चौड़ाई
जगती की ऊंचाई हाथ में
फुट में परो १२ २ से २४
आधा १३
तीसरा भाग २३ रो ३२ ४६से ६४
चौथा भाग ३३ से ५० ६६से २००
पांचया माग
द्वितीय विधि #
प्रासाद की चौड़ाई हाथ में
कुट में
जगती की ऊंचाई हाथ में
कुट में
१,१/२
५ रो१२ १३ सो २४
१०-२४ २६-४८ ५०-१००
आधा भाग तीसरा भाग चौथा भाग
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*प्रा .२/६.**प्र. नं.२/९,
#1. मं. २/१० अ. सू. ५२५/२३-२६,
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(देव शिल्प
अनुपात एवं क्रम इस प्रकार है.
-
शब्द संकेत
जाड्यकुम्भ
पदम
ग्रास पट्टी
खुर
वेदिबन्ध
जगती की ऊंचाई में थरों का मान
जगती की ऊंचाई के २८ भाग करें तथा उसमें निर्माण की जाने वाली थरों का
कुभ
कलश
अंतर पत्र
कणी
पुष्पकण्ठ
सर्वप्रथम जाड्यकुम्भ कणी
पद्मपत्र सहित ग्रास पट्टी
खुरा
कुम्भा
कलश
अन्तरपत्र
केवाल
पुष्पकण्ठ
3
२८ भाग
कुल पुष्पकण्ठ से जाड्यकुम्भ का निर्गम आठ भाग का करना चाहिये ।
३ भाग
२ भाग
३ भाग
२ भाग
७ भाग
३ भाग
१ भाग
३ भाग
४ भाग
मन्दिर में दृष्टव्य पीठ (चौकी) का सबसे नीचे का गोटा,
पीठ के नीचे का बाहर निकलता गलताकार थर
१२०
कमलाकार गोटा या एक भाग
कीर्तिमुखों की पंक्ति, जलचर विशेष के मुख वाला दासा
वेदिबंध का सबसे नीचे का गोटा (प्रासाद की दीवार का प्रथम थर )
अधिष्ठान अर्थात् मन्दिर की गोटेदार चौकी
वेदिबन्ध का खुर के ऊपर का एक गोटा
पुष्पकोश के आकार का गोटा, जिसका आकार घट के समान है
दो प्रक्षिप्त गोटों के बीच एक अंतरित गोटा
कर्णक, थरों के ऊपर नीचे रखी जाने वाली पट्टी
दासा, अन्तराल
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(देव शिल्प
जगती की सजावट
पूर्वादि दिशाओं में प्रदक्षिणा क्रम से कर्ण अर्थात् कोने में दिक्पालों को स्थापित करना चाहिये। जगती को किले की भाति चारों तरफ सुशोभित करें। चारों दिशाओं में एक एक द्वार वाले वाकया मंडप बनायें। जल के निकास के लिए परनाले मगर के मुख वाले बनायें । द्वार के आगे तोरण एवं सीढ़ियों का निर्माण करना इष्ट है। मण्डप के आगे प्रतोली (पोल) बनाकर उसके आगे सीढ़ियां बनवायें। इसके दोनों तरफ गज (हाथी) की आकृति बनायें । प्रत्येक पद के अनुसार तोरण बनायें। तोरण के दोनों स्तम्भ की बीच की चौड़ाई का मान प्रासाद के गर्भगृह के मान अथवा दीवार के गर्भमान अथवा प्रासाद के मान का रखा जाता है।
यह जगती रुप वैदिका प्रासाद का पीठ रूप है। अतः इसे अनेक प्रकार के रूपों एवं तोरणों से सुसज्जित करें। तोरणों के झूलों में देवों की आकृतियां बनाना चाहिये।
* प्रा. मं. २/१५ - १६, १७-१८
कंदरिया महादेव मंदिर खजुराहो ( जगती )
१२९
*
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(देव शिल्प)
पीठ पोट का आशय प्रासाद/मन्दिर के आसन्न से है। प्रासाद की मर्यादित भूगि पर जगती बनाई जाती है। जगती पर मन्दिर की मर्यादित भूमि पीठ पर बनाई जाती है। मन्दिर की दीवारें पीठ पर उठाई जाती है। पोट का प्रमाण एवं अनुपात शिल्पशास्त्र के अनुरुप ही रखना चाहिये। प्रासाद में भिट्ट के ऊपर पीठ बनायी जाती है । पीठ की ऊंचाई का प्रमाण प्रासाद की चौड़ाई के अनुपात से इस प्रकार है :
प्रा. मं. ३/५-६
मंडोवर
नस्थर
वर्णिका नारा पट्टी
अश्वश्र
-
-
-
-
1--132
YAARI
गजथर
here २.पही कपातली
कु. जाइयम
प्रारापट्टी
"अंतरपत्र
कर्णिका
निवा जायम
कणपीठ
L
जादाबा
ast
دخملا
LasaraKAHश::
महापीट
काम
पीठ के भेद
በጃ፦
क.मगंट
गज पीठ - गज आदि थरों से युक्त पोट को गज की कहते । ऐसी रूप बालो पीउ का निfur
अत्यन्त न्यय साध्य कार्य है। कामद पीठ - जाइयकुंभ, कार्गिका.
याम बाली सातारा पीट बनायी जाये तो उसे काम, पीडका हैं। कण पीठ - जायकुम्भ तथा कर्णिका बालो को भर माली बन रहो का पील वाहते हैं।
इसमें ध्यान रखें कि लतिन जाति के प्रासादों में बाहर निकलता हुआ माग कम होता है जबकि सांधार जाति के प्रासादों के मील का निकला हुआ या अधिक होता है।
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(देव शिल्प
प्रासाद की चौड़ाई
पीठ कामान
पीठ की ऊंचाई अंगुल / इंच में
-
SK -
१६ १८ २७, १/२
३० ६से १०
१२-२० प्रत्येक हाथ (दो फुट) पर ४ अंगुल/ इंच बढ़ाएं ११ से २०
२२-४० प्रत्येक हाथ (दो फुट) घर ३ अंगुल/ इंच बढाएं २१ से ३६
२४-७२ प्रत्येक हाथ (दो फुट) पर २ अंगुल/ इंच बढाएं ३७ से ५०
७४-१०० प्रत्येक हाथ (दो फुट) पर १ अंगुल/ इंच बढ़ाएं इस प्रकार पचास हाथ की चौड़ाई के भन्दिर की पीट की ऊंचाई ५ हाथ ६ अंगुल आती है। यह मध्यम मान है। ऊंचाई का पांचवा भाग ऊंचाई में कम करें तो कनिष्ठ मान की ऊंचाई होगी। ऊंचाई का पांचवां भाग ऊंचाई बढ़ा दे तो येउनान की नंचाई होगी। ज्येष्ठ मान की पीठ का पांचवां भाग बढ़ा दें तो ज्येष्ठ-ज्येष्ठ मान होगा। ज्येष्ठ माना की पीठ का पांचवां भाग कम कर दें तो ज्येष्ठ-कनिष्ठ मा। होगा। मध्यम मान की पीठ का पांचवां भाग कम कर दें तो कनिष्ठ - मध्यग मान होगा। गध्यम मान की पीठ का पांचवां भाग बढा दें तो मध्यम-ज्येष्ट मान होगा। कनिष्ठ मान की पीट का पांचवां भाग बढ़ा दें तो ज्येष्ठ - कनिष्ठ मान होगा। कनिष्ठ ना-। की पीठ का पांचवां भाग कम कर दें तो कनिष्ठ - कनिष्ट भान होगा।
पीठ की ऊंचाई का मान प्रासाद की चौड़ाई से आधा, तीसरा अथवा चौथाई भाग पीठ की ऊंचाई रख-पा चाहिये। पीठ की ऊंचाई से आधा गान पीत का निर्गम निकलता हुआ भाग रहता है। उप पीट का प्रमाण शिल्पकार अपनी इच्छा के अनुरुप स्थिर करें।
पासायासो अखं तिहाय पायंचपीढ उदो अ। तरसद्धि नियामो होइ उवधी सहिच्छमाणं तु ।। व. सा. 3/3
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देव शिल्प
११४
-
अड्डथर, पुष्पकण्ठ, जाड्यमुख, कणी, केवाल ये पांच थर सामान्य पीठ में अनिवार्यतः होते हैं। इनके ऊपर गज थर, अश्व थर, सिंह थर, नर थर, हंस थर इन पांच थरों में सब अथवा कम - अधिक बनाना चाहिये । निर्माता की जितनी शक्ति हो उसके अनुरूप बनाना उपयुक्त है।
↓
पीठ के आकार का अनुपात
विभिन्न शिल्पशास्त्रों में पीठ के आकार का अनुपात पृथक-पृथक देखा जाता है। कुछ विशेष मत इस प्रकार हैं - १. अपराजित पृच्छा के मत में पीठ का मान पूर्ववत (प्रा. मं. के अनुरूप ) है सिर्फ चार हाथ की चौड़ाई वाले प्रासाद में ४८, ३२ या २४ अंगुल प्रमाण ऊंची पीठ बनाने का निर्देश है। अन्य माप के प्रासादों में पीठ में पीठ का मान नहीं है। **
२. वास्तु मंजरी के मत से प्रासाद की ऊंचाई (मंडोवर की ) २१ भाग करें, इनमें ५,६,७,८ या ९ भाग का मान की पीठ की ऊंचाई रखें। #
३. क्षीरार्णव के मत से प्रा. मं. के अनुरुप माप में मात्र २ से ५ हाथ के प्रासाद में प्रत्येक हाथ पांच-पांच अंगुल बढाकर ऊंचाई रखें। शेष नाम पूर्ववत् रखें। इस मत रो पचास हाथ की चौड़ाई में पीठ की ऊंचाई ५ हाथ ८ अंगुल होगी ।
४. वसुनन्दि श्रावकाचार के मतानुसार प्रासाद की चौड़ाई का आभार पीठ की ऊंचाई रखें। यह उत्तम मान है। इसके चार भाग करें इनका तीन भाग मध्यम तथा दो भाग कनिष्ठ मान होगा। पीठ का क्षर मान
पीठ की ऊंचाई के मान ५३ भाग करें। इसमें पीठ का निर्गम (निकलता हुआ भाग) रखना चाहिये। ऊंचाई के ५३ भाग में से ९ भाग का जाड्यकुम्भ, ७ भाग की अंतर पत्र के साथ कर्णिका, ७ भाग की कपोताली के साथ ग्रास पट्टी १२ भाग का गज थर, १० भाग का अश्व थर तथा ८ भाग का नर थर बनाना चाहिये। यदि देववाहन का थर बनाना चाहें तो इसे अश्व भर के स्थान पर भी बनाया जा सकता है। ##
कर्णिका के आगे
ग्रास पट्टी से आगे
५ भाग निकलता हुआ जाड्कुम्भ
३,५ / २ भाग निकलती हुई कर्णिका ४ भाग निकलता हुआ नर थर
हुआ भाग) रखें, गज, अश्व, नर थर के नीचे अन्तराल
अश्व थर से आगे
इस प्रकार २२ भाग निर्गम (निकलता
रखें तथा अंतराल के ऊपर व नीचे दो दो कर्णिका बनायें।
-
"अधरं फुल्लि अओ जाडमुडो कणउ तह य कयवाली ।
गय अस्स सीह नर हंस पंच धरइं भवे पीठं ॥ व. सा. ३/४
**
"अप. सू. १२३, #अप. सू. १२३ / ७, ##प्रा. मं. ३ / ७-८, १०-११
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________________
(देव शिल्प)
मण्डोवर
प्रासाद/ मन्दिर का निर्माण पीठ पर किया जाता है। जगती पर पीठ का स्थान बनाया जाता है। पीठ को मन्दिर का आसन कहते हैं। पीठ के ऊपर दीवार बनायी जाती है। इस दीवार को ही मंडोवर की संज्ञा दी जाती है। मण्डोवर शब्द को समझने के लिये इसे तोड़ना होगा:- मण्ड अर्थात् पीठ या आसन । इसके ऊपर जो भाग बनाया जाये वह भण्डोवर कहलाता है । मन्दिर की प्रमुख दीवार अर्थात मंडोवर के ऊपर शिखर का निर्माण किया जाता है । कुम्भा के थर से लेकर छाद्य के प्रहार थर के मध्य का भाग मंडोवर कहलाता है। *
मण्डोवर की रचना
पीठ, वेट्बिन्ध तथा जंघा से मिलकर मण्डोवर की रचना होती है। मण्डोवर में तेरह थर होते हैं उनके नाम व प्रमाण इस प्रकार हैं। पीठ के ऊपर खुश से लेकर छाद्य तक मन्डोवर के २५ भाग करें। उन भागों में मण्डोवर की थर ऊंचाई पृथक-पृथक इस प्रकार है **
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
खुर
कुम्भ
कलश
केवाल
मंची
जंघा -
छजी (छाजली) -
उर जंघा -
भरणी -
शिरावटी
१०.
११.
छज्जा
१२. वेराडु
५३.
पहारु
"अप. सू. १२६/१०
* व. सा. ३/१८-१९
भाग
३ भाग
१, १/२ भाग
१, १/२ भाग
१ १/२ भाग
५, १/२ भाग
१ भाग
१२५
२ भाग
१.१/२ भाग
१, १/२ भाग
२ भाग
१, १/२ भाग
१, १/२ भाग
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________________
(देव शिल्प विभिन्न प्रकार की जाति के प्रासादों में मण्डोवर की रचना पृथक पृथक शेत्तियों से की जाती है। सामान्य प्रकार के प्रासादों में मण्डोवर की ऊंचाई (छज्जा से प्रारंभ कर) के २७ भाग करें। #
१.खुर
पभाग २. कुम्भ
४ भाग ३. कलश
१,१/२ भाग ४. अंतराल
१/२ भाग ५. केवाल
१,१/२ भाग ६. मांची
१/२ भाग ७. जंघा
८ भाग ८. उगम
३ भाग ९. भरणी
५,१/२ भाग १०. केवाल
१,१/२ भाग ११. अंतराल
१/२ भाग १२. छज्जा
२, १/२ भाग छज्जा का निर्गम २ भाग करना चाहिये। नागर जाति के प्रासादों में मण्डीवर कीरचना
पीठ के ऊपर छज्जा के अन्त तक जो प्रासाद की ऊंचाई आये उसके १४४ भाग करें। उनका विभाजन इस प्रकार करें :१. खुरा- ५भाग
८. उरजंघा
१५ भाग २. कुंभा- २० भाग ९. भरणी
८ भाग ३. कलश- ८ भाग १०. शिरावटी
१० भाग ४. अंतराल- २,१/२ भाग ११. कपोतिका (केवाल) ८ भाग ५. केवाल- ८ भाग १२. अन्तराल
२,१/२ भाग ६. मंची- ९ भाग १३. छज्जा
१३ भाग ७. जंघा- ३५ भाग छज्जा का निर्गम १० भाग रखें।##
# प्रा.म.३/२९-३० ##प्र. नं. ३/२० से २३ दीवार्णव पांचवा अध्याय अ. पृ. सूत्र १२२
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________________
(देव शिल्प)
थरों की सजावट
कुम्भा में ब्रह्मा, विष्णु, महेश का रूप बनाएं। इनमें से एक देव मध्य में तथा शेष दो आजू-बाजू बनाएं। भद्र के कुम्भा में तीन संध्या देवियां सपरिवार बनायें । कोने के कुम्भा में अनेक प्रकार के रूप बनायें । भग मध्य गर्भ में सुन्दर रथिका या गवाक्ष बनायें । कमल पत्र के आकार और तोरणद्वार स्तम्भ बनायें ।
कोना तथा उपांग की कालना की जंधा में भ्रम वाले स्तम्भ बनायें। सभी मुख्य कोने की जंघा में वर्गाकार स्तंभ बनायें तथा गज, सिंह वरालक एवं मकर के रूपों से शोभायगान करें। कर्ण की जंघा में आठ दिक्पाल पूर्वादि दिशा से प्रदक्षिण क्रम में रखें। नटराज पश्चिम भद्र में, अंधकेश्वर दक्षिण भद्र में, विकराल रूप चंडिका उत्तर दिशा के भद्र रुप में रखें। प्रतिस्थ के भद्र में दिक्पालों की देवियां बनायें। नारिमार्ग (दीवार से बाहर निकला खांचा ) में तपध्यानस्थ ऋषि बनायें। भद्र के गवाक्ष बाहर निकलते हुए शोभायमान करें ।
मेरु जाति के प्रासादों में मण्डोवर की रचना
*
जिन मंडोवर में एक से अधिक जंघा होती है उन्हें मेरु मंडोवर कहा जाता है। इन मंडोवर में भरणी के ऊपर खुर, कुम्भ, कलश, अन्तराल, तथा केवाल ये प्रथम पांच थर नहीं बनाये जाते। मंची आदि शेष सब बनाये जाते हैं। अतएव प्रथम खुरा से लेकर भरणी तक नगर जाति के १४४ भाग के मंडोवर के अनुरूप बना लेते हैं। पश्चात् मंत्री आदि का मान इस प्रकार है
5. मंची.
२. जंघा
३. उद्गम ४. भरणी -
५. शिरावटी
६. केवाल
७. अंतराल
१२७
९. मंची -
१०. जंघा
११. भरणी - १२. शिरावटी -
१३. पाट
१४. कूटछाध -
* प्रा. मं. ३ / २४ से २७
८ भाग
२५ भाग
१३ भाग
८ भाग
१० भाग
८ भाग
२, १/२ भाग
८. छज्जा
१३ भाग
सभी थरों का निर्गम (बाहर निकलता हुआ भाग) कुम्भा का एक चौथाई भाग के बराबर रखें।
-
७ भाग
१६ भाग
७ भाग
४ भाग
4 भाग
१२ भाग
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________________
देव शिल्प
महामेरू मण्डोवर
जितनी प्रासाद की ऊंचाई हो, उतनी ही ऊंचाई का मंडोवर रखना चाहिये। इस मंडोवर के ऊंचाई में छह छज्जे बनायें । प्रथम छज्जा दो जंघा वाला बनायें। इस प्रकार ५० हाथ की चौड़ाई वाले प्रासाद में १२ जंघा तथा ६ छज्जा बनायें। दो दो भूमि के अन्तर से एक एक छज्जा बनायें । भरणी के ऊपर मांची रखें, छज्जा के ऊपर मंची नहीं रखें। नीचे की भूमि से ऊपर की भूमि की ऊंचाई कम रखें। यह महामेरु मंडोवर ५० हाथ के प्रासाद में बनायें । क्षीरार्णव के अनुसार
मंडोवर की मोटाई
ईंटों के प्रासाद में दीवार की मोटाई का मान प्रासाद की चौड़ाई के चौथे भाग के बराबर रखें। पाषाण एवं काष्ठ के प्रासादों में प्रासाद की दीवार का भान प्रासाद की चौड़ाई के पांचवें या छटवें भाग के बराबर रखें। सांधार प्रासाद में दीवार को आठवें भाग के बराबर रखें । धातु एवं रत्न प्रासाद में दसवां भाग रखें। पाषाण के प्रासाद में पांचवा भाग तथा काष्ठ के प्रासाद में सातवां भाग रखना उपयुक्त है। अ. पू. सू. १२६ के अनुसार
प्रासाद की जाति प्रासाद की चौड़ाई का अंश के बराबर दीवार की मोटाई
प्रा. मं. ३/३१ के अनुसार १/४ भाग
१/५ भाग, १/६ भाग
१ / ५ भाग, १ / ६ भाग
ईंट
पाषाण
लकड़ी
सांधार
धातु / रत्न
१२८
१/८ भाग
१/१० भाग
अ. पू. सू. १२६ के अनुसार
१/४ भाग
१/५ भाग
१/७ भाग
१/८ भाग
१/१० भाग
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________________
(देव शिल्प
भंडावर एवं महापोठ
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मंडोबर
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लक्ष्मण मन्दिर खजुराहो
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________________
देव शिल्प
महापीठ
मंडोवर.
JES
स्तम्भ
Arroman
स्तम्भ
अर्ध मंडप
स्तम्भ मंडप
अंतराल
कंदरिया महादेव मंदिर खजुराहो - नागर जाति प्रासाद
(आंशिक)
१३०
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________________
(देव शिल्प
(१३१) एक अन्य विधि से गणना
वर्गाकार प्रासाद की भूमि की चौड़ाई के दस भाग करें। इनमें दो दो भाग की दीवार की मोटाई रखें तथा छह भाग का गर्भगृह बनायें।*
मंडोवर की ऊंचाई की गणना - विधि १**
प्रासाद की चौड़ाई हाथ में
मुट में
- मंडोवर की ऊंचाई हाथ अंगुल में फुट/इंच में
२-९ २ - ७
६-१०
५-१ १०-२ ७. ५० १४-२०
प्रत्येक हाथ पर १४ अंगुल बढ़ाएं ११ - ३० २२-६०
प्रत्येक हाथ पर १२ अंगुल बढ़ाएं ३१ से ५० ६२-१००
प्रत्येक हाथ पर ९ अंगुल बढ़ाएं इस प्रकार ५० हाथ चौड़ाई का मन्दिर २५ हाथ ९ अंगुल ऊंचा बनाना चाहिये।
मंझेवर की ऊंचाई की गणना-विथि २
प्रासाद की चौड़ाई
मंडोवर की ऊंचाई हाथ में
फुट १से ५
२ से १०
१ से ५ हाथ (समान) ६ से ३०
१२ से६० प्रत्येक हाथ पीछे १२ अंगुल बढ़ाएं ३१ से ५०
६२ से १०० प्रत्येक हाथ पीछे ९ अंगुल बढ़ाएं यह प्रासाद की ऊंचाई खुरा से छज्ना तक मानी जाएगी।
इसमें ५० हाथ (१०० फुट ) के प्रासाद में ऊंचाई २४ हाथ १८ अंगुल (४९ फुट ६ इंच) आयेगी।
-
-
-
--
-
-
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-
* प्रा.म. ३/३२, **प्रा. म.३/१५-१६, #प्रा. गं. ३/१७-१८
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________________
देव शिल्प
शिरावटी
मंचिका
मंडोवर का स्तर
तिभाग . . : ..
-
-
भरणी
कपोताली
कलश
उदाम
फूटछाद्य अंतरपत्र
शिरावटी
मरणी
स्ट्राम
H
जघा
मंदिका
SITA
केवाल अंतरपत्र
कुम्पक
[ पट्टिका
खुरक
मंडोवर का स्तर विभाग
मंडोवर का मुखभद्र
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फुट में
देव शिल्प मंडोवर की ऊंचाई की गणना-विधि ३
क्षीरार्णव ग्रन्थ के मतानुसार प्रासाद की चौड़ाई
मंडोवर की ऊंचाई हाथ में
हाथ/ अंगुल
कुट/इंच में १ हाथ ९ अंगुल
३-९ २ हाथ ७ अंगुल
४-७ ३ हाथ ५ अंगुल
६-५ ४ हाथ १ अंगुल
८-१ ५हाथ
१०-० ५ हाथ २२ अंगुल
११-१० ६ हाथ १७ अंगुल
१३-५ ७ हाथ ८ अंगुल
१४-८ ७ हाथ १९ अंगुल
१५-७ ८ हाथ १० हाथ ६ अंगुल
२०.६ १२ हाथ १२ अंगुल
२५-० १४ हाथ १८ अंगुल
२९-६ १७हाथ
३४-० १९ हाथ ६ अंगुल
३८-६ २१ हाथ १२ अंगुल
४३-० २३ हाथ ८ अंगुल
४७-६ १०० २५ हाथ
५०-० अर्थात् १० हाथ के बाद हर पांच हाथ में २ हाथ ६ अं. बढ़ाएं। मंडोवर की ऊंचाई की गणना-विधि ४
व.सा. ३/२२ १से ५ हाथ समान १ से ५ हाथ (५ वें में एक अंगुल बढ़ाएं) ६ से ५० हाथ प्रत्येक हाथ पर १० अंगुल बढ़ाएं
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________________
देव शिल्प
प्रासाद की चौड़ाई
हाथ में
१-४
५
६
تا
८
९
둠 영생 심음
१०
२०
३०
४०
मंडोवर की ऊंचाई की गणना - विधि ५
५०
फुट में
२-८
१०
१२
१४
१६
१८
२०
४०
६०
८०
वृषभ - हस्ति युग्म
900
हाथ अंगुल
समान
मंडोवर की ऊंचाई
फुट/इंच में
५ हाथ १ अंगुल
५ हाथ ११ अंगुल
५ हाथ २१ अंगुल
६ हाथ ७ अंगुल
६ हाथ १७ अंगुल
७ हाथ ३ अंगुल
११ हाथ ७ अंगुल
१५ हाथ ११ अंगुल
१९ हाथ १५ अंगुल
• २३ हाथ १९ अंगुल
मंडोवर की सजावट में उपयुक्त कला कृतियाँ
अन्ततः यह ध्यान रखें कि मंडोवर की ऊंचाई की गणना प्रासाद की जाति के अनुरूप करना चाहिये ।
१३४
ऊंटों का जोड़ा
१०-७
१०-११
११-९
१२-७
१३-५०
१४-६
२२-७
३०-११
३९-३
४७-७
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(दव शिल्प
(१३५) भित्ति मन्दिर के लिये दीवालों का निर्माण किया जाता है। यदि सभी दीवालें अगली दीवाल से एक सूत्र में बनायी जायेंगी तो वास्तु उपयोगकर्ता के लिये सुखदायक होती है। मन्दिर की दीवालों का श्रेणी भंग होना समाज के लिये अनपेक्षित कष्टदायक होता है।
अग्र भित्ति समान सूत्र में होना शुभ का गया है। दीवालों का श्रेण भंग होना पुत्र एवं धन हानि में निर्मित होता है। *
मन्दिर की दीवालों में दरार पड़ना, फटना, दीवाल सीधी न होना, उबड़-खाबड़ होना, मन्दिर एवं समाज दोनों के लिए अशुभ एवं अहितकारक है। अतएव दीवाल का निर्माण बड़ी सावधानी से करना चाहिये।
विभिन्न दिशाओं में भित्ति में दरार एवं भंग होने काफल दीवाल की दिशा पश्चिमी दीवाल
सम्पत्ति नाश एवं चोरी का भय दक्षिणी दीवाल
रोगबृद्धि, मृत्युतुल्य कष्ट पूर्वी दीवाल
समाज में फूट, विवाद उत्तरो दीवाल
आपसी वैमनस्य, अशुभ
मन्दिर की दीवालों का निर्माण करते समय यह ध्यान रखें कि सर्व प्रथम दक्षिणी दीवाल पश्चिम से पूर्व ( अर्थात् नैऋत्य से आग्नेय की तरफ) बनायें। इसके उपरान्त दक्षिण से उत्तर (अर्थात् नैऋत्य से वायव्य) की तरफ बनाएं। इसके उपरांत उत्तरी दीवाल पर पश्चिम से पूर्व ( अर्थात् वायव्य से ईशान) की तरफ बनायें। सभी कक्षों की दीवालें इसी प्रकार के क्रम में उठायें। इसके विपरीत क्रम में बनाने से कार्य में अनेकों विध्न आयेंगे तथा कार्य में अनपेक्षित विलम्ब होंगे।
___ मन्दिर की दीवालों का कोण ९०° समकोण रखना आवश्यक है अन्यथा दीवालों में टेढ़ापन आयेगा तो महा अशुभ तथा विघ्नकारक होगा।
मन्दिर की दीवालों में सीलन(नमी) बना रहना रोगोत्पत्तिका कारण है अतएव दीवाल बनाते समय ऐसा मिश्रण उपयोग करें कि सीलन न आये।
*समान स्त्रै शुभपा भित्तिः श्रेणी विभंजे सुत वित्त जाशः । पंचरत्नाकर
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(देव शिल्प
दीवार की मोटाई की गणना शिल्पशास्त्रों में दीवार की मोटाई का प्रमाण का अनुपात मन्दिर का चौड़ाई को आधार करके निकाला जाता है साथ ही दीवार चौड़ाई को आधार करके निकाला जाता है। साथ ही दीवार के द्रव्य का भी ध्यान रखा जाता है। अग्रलिखित सारणी में दीवार की मोटाई का प्रमाण स्पष्ट है - मंदिर की दीवार की मोटाई मंदिर की चौड़ाई का भाग मंदिर की चौड़ाई का भाग
(प्रासाद मंडन ३/३१) । (अप. सूत्र १२६) १.ईंटों से निर्मित १/४
१/४ भाग २.पाषाण से निर्मित १/५
१/५ भाग या ५/६ भाग ३.काष्ठ से निर्मित १/५
१/७ भाग ४.सांधार प्रासाद (परिक्रमायुक्त)१/८
१/८ भाग ५.धातु निर्मित प्रासाद १/१०
१/१० भाग ६.रल निर्मित प्रासाद १/१०
१/१० भाग
भोटाई का प्रमाण निकालने को एक अन्य रीति इस प्रकार भी है -
वर्गाकार मन्दिर की भूमि चौड़ाई के १० भाग करे। उसमें २-२ भाग के बराबर दीवार की मोटाई रखें। शेष ६ भाग का गर्भगृह बनायें।
(प्रा.मं. ३/३२ पृ. ५९)
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(देव शिल्प
स्तंभ
प्रासाद/मन्दिर का आधार दीवार तथा स्तंभ पर निर्भर होता है। स्तंभ के बिना छत एवं शिखर का भार अकेले मण्डोवर पर आ जाता है । अतएव स्तंभ यथास्थान स्थापित किये जाते हैं। इनका प्रमाण के अनुरुप ही निर्माण किया जाना चाहिये।
स्तंभके भेद आकृति की अपेक्षा मन्दिर में पांच प्रकार के स्तंभ स्थापित किये जाते हैं - १. चतुरस्र - चार कोने वाले स्तंभ को चतुरस्र स्तंभ कहते हैं। २. भद्रक - भद्रयुक्तस्तंभ को भद्रक कहते हैं। ३. वर्धमान - प्रतिरथ युक्त स्तंभ को वर्धमान कहत है। ४. अष्टास्र - आठ कोने वाला स्तंग अष्टास्र कहलाता है। ५. स्वस्तिक - आसन के भद्र तथा आठ कोने वाला स्तंभ स्वस्तिक कहलाता है।
स्तंभ और मण्डोवर कासमन्वय स्तंभ एवं मण्डोवर के थरों में एक रुपता रखना आवश्यक है तभी मन्दिर के स्तंभ शोभायमान होंगे। ऐसा करने के लिये निम्न लिखित को समसूत्र में रखना अत्यंत आवश्यक
है। -
५. मंडोवर का कुम्भ तथा स्तंभ की कुरम २. मंडोवर का उदगम तथा स्तंभ की मथाला ३. मंडोवर की भरणी तथा स्तंभ की भरणी ४. मंडोवर की मपोताली तथा स्तंभ की शिरावटी इसके अतिरिक्त पाट के पेटा भाग तक छज्जे का नमता हुआ भाग रखना
__प्रा.म. ३/३४-३५ पूर्वार्द्ध.
चाहिये।
नाग
-
in
स्तम्भशीर्ष
परम
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देव शिल्प
१
स्तम्भ बनाना चाहिये ।
( प्रा. मं. ७ /१४)
विधि २- मन्दिर की चौड़ाई के १३ वें एवं १४वें भाग के बराबर प्रमाण की चौड़ाई का स्तंभ भी बनाया जा सकता है। ( अप. सू. १८४ / ३५ प्रा.मं. पृ. १२१ )
विधि ३ - क्षीरार्णव के मतानुसार प्रासाद की चौड़ाई हाथ में
२
३
स्तंभ की चौड़ाई अंगुल / इंच ४ अंगुल / इंच
19 अंगुल / इंच
९ अंगुल / इंच
८-२०
प्रत्येक हाथ के २-२ अंगुल बढ़ाएं प्रत्येक हाथ के १,१/४ अंगुल बढ़ाएं
२२-६०
६२-८०
प्रत्येक हाथ के १ अंगुल बढ़ाएं प्रत्येक हाथ के ३/४ अंगुल बढ़ाएं इसमें
४१-५०
८२-१००
५० हाथ ( १०० फुट) वाले प्रासाद में स्तंभ की चौड़ाई २ हाथ १७, १/२ अंगुल (५ फुट५, १/२ इंच )
होगी ।
विधि ४- ज्ञानप्रकाश दीपार्णय के मतानुसार
४-१०
११-३०
३१-४०
मान इस प्रकार हैं
-
विधि १ - मन्दिर की चौड़ाई के १० वें, ११वें या १२वें भाग के समान प्रमाण की चौड़ाई का
प्रासाद की चौड़ाई
हाथ में
१
२
३
४
x
स्तम्भ के मान की गणना
विभिन्न विद्वानों ने अपने दृष्टिकोण से स्तंभ के विस्तार का मान दिया है वे
५-१२
१३-३०
३१-५०
१३८
फुट में
२
४
६
फुट में
२
४
६
८
स्तंभ की चौड़ाई अंगुल / इंच
४ अंगुल / इंच
७ अंगुल / इंच
९ अंगुल / इंच
• १२ अंगुल / इंच
१०-२४
२६-६०
६२-१००
इसमें ५० हाथ वाले प्रासाद में रतंभ की चौड़ाई २ हाथ २, १/२ अंगुल होगी। स्तम्भ की चौड़ाई से चार गुनी स्तंभ की ऊंचाई रखें।
प्रत्येक हाथ के १, १/२ अंगुल बढाएं प्रत्येक हाथ के १ अंगुल बढ़ाएं
प्रत्येक हाथ के १/२ अंगुल बढ़ाएं
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(देव शिल्प)
(१३९)
FICIE
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स्तंभों की विभिन्न शैलियाँ
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(देव शिल्प)
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स्तंभोंकी विभिन्न शैलियाँ
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(देव शिल्प
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Page #164
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स्तंभों की विभिन्न शैलियाँ
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-
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代,是上主的名。」 不到
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二.
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________________
स्तंभों की विभिन्न शैलियाँ
(देव शिल्प
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-
-
-
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स्तम्भ और मंडोवर
का समन्वय
(१४३)
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(देव शिल्प
C१४४)
देहरी
आवास की भांति मंदिर में भी दरवाजों की चौखट एवं देहरी का विशिष्ट महत्व है । द्वार प्रमुख हो अथवा भीतर के, चौखट युक्त दरवाजा होना आवश्यक है। वर्तमान में बिना चौखट अथवा मात्र तीन भुजाओं के फ्रेम में दरवाजा लगाने का चलन है किन्तु यह उपयुक्त नहीं है। दरवाजा चौखट युक्त होना श्रेष्ठ एवं उपयोगी है।
चौखट में नोचे की भुजा को उदुम्बर या देहरी कहा जाता है। ऊपर की भुजा को उत्तरंग कहा जाता है। प्रवेश या निर्गम करते समय देहरी के ऊपर से जाया जाता है। उपासक गण मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व देहरी को नमन करते हैं उसके पश्चात् भीतर प्रवेश करते हैं। देहरी को नमन करना मात्र भक्ति का अतिरेक नहीं है, न ही किसी प्रकार का आडम्बर । वास्तव में जिन मन्दिर स्वयं भी एक पूज्य देवता है। जैन आगम शास्त्रों में नब देवताओं का व्याख्यान किया गया है। ये सभी नव देवता पूज्य हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं -
अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु जिन धर्म, जिनागम, जिनचैत्य, जिन चैत्यालय .
चैत्यालय (मन्दिर) स्वयं भी एक देवता होने से पूज्य हैं। उपासकगण गन्दिर में प्रवेश करते समय देहरी को स्पर्श कर नमन करते हैं । उराके पश्चात ही गन्दिर में प्रवेश करते हैं। स्त्रियां भी पर्वादिक के समय देहरी की कुंकुम आदि द्रव्यों से पूजा करती हैं। इस प्रकार चैत्यालय की देहरी अपना विशिष्ट स्थान रखती है। अतएव बिना देहरी के मुख्य द्वार बनाने की कल्पना भी नहीं करना चाहिये।
देहरी का पर्याप्त व्यवहारिक महत्व भी है। रेंगकर चलने वाले प्राणी सर्प, गोह, छिपकली, बिच्छू आदि देहरी होने से भीतर प्रवेश करने में समर्थ नहीं होते।
देहरी का निर्माण कराते समय उसमें उपयुक्त नकाशो भी कराना चाहिये । शोभायुक्त देहरी द्वार की शोभा संवर्द्धित करती है।
मन्दिर के प्रवेश द्वार देहरी के बगैर बनाना अत्यंत अशुभ है। गर्भगृह में भी देहरी युक्त चौखट अवश्य बनवाना चाहिये ।
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देव शिल्प
उदुम्बर (देहरी) का निर्माण __ मन्दिर के कोने के समसूत्र में देहरी बगवाना चाहिये । इसकी ऊंचाई कुम्भा की ऊंचाई के बराबर रखें। इसकी स्थापना करते समय इसके नीचे पंच रत्न रखें। यदि ऊंचाई कम करना इष्ट हो तो कुम्भा की ऊंचाई का आधा, एक तिहाई, अथवा एक चौथाई भाग कम कर सकते हैं। इससे ऊंची अथवा नीची देहरी बनाना उचित नहीं है । देहरी रथापना के समय शिल्पी का सम्मान करें। *
देहरी ( उदुम्बर) की रचना
देहरी की चौड़ाई के तीन भाग रामान करें। उसमें से मध्य के भाग के मध्य में अर्धचन्द्र की आकृति का तथा कमल पत्रों से युक्त मन्दारक बनायें। देहरी की ऊंचाई के आधे भाग में जाड्य कुम्भ तथा कर्णा, ऐसी दो थर बाली कण पीठ बनायें । मन्दारक के दोनों ओर एक- एक भाग में ग्रास मुख (कीर्ति गुख) बनाये। उसके पार्श्व न शाखा के रोल का स-पा बनायें।
खुरथर के बराबर अर्धचन्द्र की ऊंचाई रखें तथा इसके ऊपर देहरी रखें । गर्भगृह के भूमि तल की ऊंचाई उदुम्बर से आधा, तिहाई या चौथाई रखें । बाहर के मण्डपों का शूमितल पीठ की ऊंचाई के समान रखें तथा रंग मंडप का भूमितल पीट के नीचे के अंतिम भाग में रखें।**
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*मूलकर्णस्य सूत्रेण कुम्भेनोदुम्बरः समः तदधः पंवरत्नानि स्थापयेच्छिल्पि पूजया ।। प्रा. मं. ३/३८ कुन्ास्यार्धे त्रिभागे वा पादे हीनं उदुम्बरः । तदर्धे कणक मध्ये पीठान्ते बाह्य भूमिका ॥ प्रा. मं.३/४१ उदुम्बरं तथा वक्ष्ये कुम्भिका तं तदुझ्या तस्यार्धन त्रिगागेन पादोनरहितं तथा ॥ उक्तं चतुर्वेधशस्तं कुर्वाचनमदुम्बरम्। अत्युत्तमाश्च चत्वारो न्यूनाटुष्यास्तथाधिका । अ. पृ.सूत्र ५२९
**द्वार व्यारा निभान मध्ये मन्दारको भवेत। वृत्तं मन्दारक कुयोट् मृणालं पद्मसंयुतं । प्रा. मं. ३/३९ जाड्य कुम्भः कणाली च कीर्तिवक्त्रद्वयं तथा। उदुम्बरस्य पार्श्व शाखायास्तलरूपकम् । प्रा. गं. ३/४० खुरको ट्टचन्द्र स्यात् तय स्यादुदु-बरः : उदुम्बराइँ राशे वा पादे वा गर्भभूमिका ॥ अ.पृ.सू. १२९/११ मण्डपेषु च सर्वेषु पीठान्ते रंगभूमिका। एषः गतिविधातव्या सर्वकामफलोदया। अ.सू.१२९/१२
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देव शिल्प)
१४६
यदि किसी कारण से देहरी की ऊंचाई कम करना पड़े तो भी कुम्भी तथा स्तंभ का मान पूर्ववत् ही रखें कम न करें। शेष मन्दिरों में चाहें वे सांधार हों या निरंधार, कुंभी की ऊंचाई देहरी के बराबर ही रखना चाहिये। *
כבס
उदुम्बर देहरी
शंखावर्त अर्धचन्द्र
देहरी के आगे बनाई जाने वाली अर्धचन्द्राकृति रचना को शंखावर्त कहते हैं । यह देहली के आगे की अर्धचन्द्राकार शंख और लताओं वाली आकृति होती है। इसका प्रमाण इस प्रकार रखना चाहिए -
इसकी ऊंचाई खुरथर की ऊंचाई के समान रखें। द्वार की चौड़ाई के बराबर लम्बा अर्धचन्द्र बनायें तथा लम्बाई से आधा निर्गम रखें। लम्बाई के तीन भाग करके उसके दो भागों का अर्धचन्द्र बनायें तथा आधे आधे भाग के दो गगारक बनायें । अर्धचन्द्र और गगारक के बीच में पत्ते वाली बेलयुक्त शंख और कमलपत्र जैसी सुशोभित आकृति बनायें । गगारक देहली के आगे अर्धचन्द्राकृति के दोनों तरफ की फूल पत्ती की आकृति होती है।
**
* उदुम्बरे क्षते कुम्भी स्तम्भकं नावपूर्वकम् ।
सान्धारे च निरन्धारे कुम्भिकान्तमुदुम्बरम् ॥ क्षीरार्णव अ. १०९
1
** खुरकेन समं कुर्यादर्धचन्द्रस्य चौच्छ्रतिः ।
द्वार व्यास समं दैर्ध्य निर्गमं स्यात् तदर्धतः । प्रा. मं. ३ / ४२ / श्रीरार्णव १०९/२४ द्विभागमर्धचन्द्रं च भागेन द्वौ गगारकौ ।
शंखपत्र समायुक्तं पद्माकारलंकृतम् ।। प्रा. मं. ३ / ४३ / क्षीरार्णव १०९ / २५
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(देव शिल्प)
द्वार
१४७
मन्दिर में प्रवेश के स्थान पर द्वार निर्माण करना चाहिये। प्रमुख प्रवेश के स्थान पर मुख्य द्वार तथा भीतर सामान्य द्वारों का निर्माण किया जाता है। मुख्य द्वार मन्दिर का प्रमुख अंग है तथा उसका निर्माण अत्यंत गंभीरता से प्रमाण सहित ही किया जाना चाहिये। द्वार का निर्माण निर्दोष करना अत्यंत आवश्यक है।
द्वार का निर्माण करते समय सामान्य नियमों का तो ध्यान रखना ही चाहिये। साथ ही मन्दिर के गर्भगृह के समसूत्र तथा आकार के अनुपात का भी ध्यान रखना आवश्यक है। गर्भगृह के आकार, प्रतिमा के आकार तथा द्वार के आकार में एक निश्चित अनुपात का होना अत्यन्त आवश्यक है। ऐसा न किये जाने पर मन्दिर तो शोभाहीन होगा ही साथ ही इसके परिणाम भी अत्यन्त भीषण होंगे। द्वारों का निर्माण कलात्मक रीति से किया जाना चाहिये किन्तु उनकी कलाकृति से उनके आकार में अन्तर न आये यह सावधानी रखें।
द्वार के लिये नियम
१) मन्दिर का मुख्य द्वार मूलनायक प्रतिमा के ठीक सामने होना चाहिये। गर्भालय का द्वार भी आगे के दरवाजे के समसूत्र में रखना चाहिये। गर्भालय एवं आगे के दरवाजों को समसूत्र में रखना शुभ एवं फलदायक है। किंचित भी न्यूनाधिक विषम सूत्र न रखें ।
२) दरवाजे के किवाड़ यदि अंदर के भाग में ऊपर की तरफ झुके होंगे तो यह मन्दिर के लिये धन नाश का निमित्त बनेगा ।
३) दरवाजे के किवाड़ यदि बाहर के भाग में ऊपर की ओर झुके होंगे तो समाज में कलह एवं रोग का कारण बनेगा ।
४) दरवाजा खोलते या बन्द करते समय आवाज निकलना अशुभ एवं भयकारक है।
५) दरवाजा भीतर की ओर ही खुलना चाहिए। अन्यथा रोग होंगे।
६) दरवाजे की चौड़ाई एवं ऊंचाई निर्धारित मान के अनुकूल रखें अन्यथा विषम परिस्थितियां जैसे- भय, अकारण चिन्ता, स्वास्थ्य हानि, अकस्मात धननाश आदि स्थितियां बन सकती हैं।
७) यदि द्वार स्वयमेव खुले या बन्द होवें तो उसे अशुभ समझें। इससे व्याधि, पीड़ा, वंशहानि के संकट समाज में आ सकते हैं।
८) यदि द्वार पत्थर का हो तो चौखट पत्थर की बनायें ।
९) दरवाजे यदि लकड़ी के हों तो लकड़ी की चौखट तथा लोहे के हों तो लोहे की चौखट
लगायें ।
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(देव शिल्प
१४८
१०) सुरक्षा की दृष्टि से गर्भगृह एवं मुलद्वार के अन्दर चैनल गेट लगा सकते हैं किन्तु इनसे भगवान की दृष्टि अवरोध नहीं होना चाहिए।
१५) यथासंभव मन्दिर में चिटखनी, सांकल, कब्जे आदि पीतल के लगायें, लोहे के न लगाएं।
१२) बिना द्वार का मन्दिर कदापि न बनायें। यह समाज के लिए अशुभ, हानिकारक है तथा नेत्ररोगों की वृद्धि का निमित्त होगा ।
१३) दरवाजे एवं चौखट एक ही लकड़ी के बनवायें । लोहे के दरवाजे अथवा शटर न बनवायें।
१४) एक दीवाल में तीन दरवाजे या तीन खिड़की न रखें। एक दरवाजा एवं तीन खिड़की रख सकते हैं।
१५) पूरी वास्तु में दरवाजे सम संख्या में हों किंतु दशक में न हों । २, ४, ६, ८, १२, १४, १६ हों किन्तु १०, २०, ३० न हों ।
द्वार देध
द्वार वास्तु का एक प्रमुख अंग है। द्वार से ही वास्तु के भीतर आना जाना किया जा सकता है। द्वार का अपने प्रमाण में होना तो निस्संदेह आवश्यक है साथ ही द्वार के समक्ष किसी भी FI अवरोध उसमें वेध दोष उत्पन्न करता है। इराका विपरीत फल वास्तु के उपयोगकर्ता को भोगना पड़ता है। निर्माता एवं शिल्पकार दोनों को यह सावधानी रखनी आवश्यक है कि द्वारों में किसी प्रकार का वेध न हो । अग्रलिखित सारणी में द्वार वेध के परिणामों की ओर निर्देश किया गया है -
द्वार वेध के परिणाम
मुख्य द्वार के सामने वेध द्वार के नीचे पानी के निकलने से
द्वार के सामने कीचड़ जमा रहना
द्वार के सामने वृक्ष द्वार के सामने कुंआ द्वार से मार्गारम्भ द्वार में छिद्र
फल
निरन्तर धन का अपव्यय
समाज में शोक
क्यों को कष्ट
रोम
यजमान का नाश
धननाश
द्वार वेध दोष परिहार
मुख्य द्वार को ऊंचाई से दुगुनी भूमि छोड़कर यदि पेव है तो वह दोष नहीं है। यदि द्वार एवं वेध के मध्य मुख्य राजमार्ग होवे तो भी वेध का दोष नहीं माना जाता है।
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(१४९)
दिव शिल्प
द्वारका आकार द्वार का आकार चौकोर आयताकार रखें। त्रिकोण, सूप के आकार का, वर्तुलाकार दरवाजा न बनवायें। दरवाजे दो पलड़े के ही बनवायें। एक पलड़े का दरवाजा न बनवायें । द्वारों का आकार विषम नहीं होना चाहिये !
विषमाकार दरवाजों कापरिणाम
द्वार की आकृति
परिणाम त्रिकोणाकृति
स्त्री दुःख रूपाकार
धन नाश वर्तुलाकार
कन्या जन्म धनुषाकार
कलह गुरजाकार
चन नाश अतएव द्वार चौकोर एवं सम प्रमाण ही बनायें।
हार के आकार का अनुपात प्राचीन वास्तु शास्त्रों में मन्दिर के द्वार का प्रमाण मन्दिर के विस्तार के अनुपात में बताया गया है। मन्दिर का मूल गर्भगृह वर्गाकार समचतुरस्र बनाया जाता है। राहो अनुपात में निर्माण किए गरो द्वार शोभावर्धक होने के साथ ही मंगलकारी भी होते हैं। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि मन्दिर में स्थापित देव प्रतिमा की दृष्टि द्वार के विशिष्ट स्थान पर ही आना चाहिये । इसका विशेष उल्लेख पृथक प्रकरण में दिया गया है।
द्वार की ऊंचाई के मान की गणना द्वार की ऊंचाई का एक निश्चित मान मन्दिर की ऊंचाई से होता है ।
सामान्यतया द्वार के अनुपात में ऊंचाई से चौड़ाई आधी रखने का विधान है | नागर, भूमिज, द्राविड़ प्रासादों में यही अनुपात मान्य है। विशेष गणना के लिए अनलिखित सारणियां दृष्टिगत रखना चाहिये।
नागर जाति के मन्दिरों का मान दृष्टव्य है। इसका १० वां भाग कम करें तो स्वर्ग के तथा अधिक करें तो पर्वत के आश्रित मन्दिर के द्वार का मान होता है।
उत्तम द्वार का मान - ऊंचाई से आधी चौड़ाई रखें। मध्यम द्वार का मान-उत्तम द्वार की चौड़ाई रो एक चौथाई कम रखें। कनिष्ठ द्वार का मान - मध्यम मान की चौड़ाई से एक चौथाई कम रखें।
शिवालय में ज्येष्ठ द्वार, मनुष्यालय में कनिष्ठ द्वार तथा सर्व देवों के मन्दिर में माध्यम द्वार रखना चाहिये । भूमिज एवं द्राविड़ प्रासादों के द्वार के गान किंचित पृथक हैं।
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(देव शिल्प)
नागर जाति के प्रासादों के द्वार मान की गणना*
मन्दिर की चौड़ाई हाथ में
फुट में
द्वार की ऊंचाई अंगुल/इंच १६ अंगुल ३२ अंगुल ४८ अंगुल
६४ अंगुल (४.४ अंगुल बढ़ायें) ६८-७२-७६-८०-८४-८८ (३-३ अंगुल.बढ़ायें)९१-९४-९७-१००-१०३
१०६-१०९-११२-११५-११८.
५ से १०१०-२० ११ से २० २२-४०
२१ से ३०
४२-६०
. (२-२ अंगुल बढ़ाये) १२०-१२२-१२४-१२६-१२८
१३०-१३२-१३४-१३६-१३८ (१-१ अंगुल बढ़ायें) १३९-१४०-१४१-....१५८
३१ से ५०
६२-१००
भूमिज जाति के प्रासादों के द्वार मान की गणना
फुट में
मन्दिर की चौड़ाई
द्वार की ऊंचाई हाथ में
अंगुल / इंच
१२ अंगुल २से५ ४-१०
२४,३६,४८,६० अंगुल ६ से ७ १२-१४
६५ अंगुल ८ से ९ १६-१८
७४, ७८ १० से २० २०-४० (२.२ अंगुल बढ़ायें) ८०,८२,८४,८६,८८,९०...१०० २१ से ३० ४२-६०(२-२ अंगुल बढ़ाये) १०२.. ....१२० ३१ से ४० ६२-८० (२-२ अंगुल बढ़ायें) १२२...... १४० ४१ से ५० ८ २-१०० (२.२ अंगुल बढ़ाये) १४२ .. .. .. १६० अंगुल
द्वार की ऊंचाई से चौड़ाई आधी रखनी चाहिये। यदि चौड़ाई में ऊंचाई का सोलहवां भाग बढ़ाये तो अधिक श्रेष्ठ होता है। उदाहरणार्थ अनुपात इस प्रकार होगा :
४ हाथ (८ फुट) ऊंचाई व २ हाथ (४ फुट) चौड़ाई तथा २,१/४ हाथ ( ४,१/२ कुट) चौड़ाई श्रेष्ठ शोभार्थ।
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*क्षीरार्णव के अनुसार
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दव शिल्प
द्वाविड़ जाति के प्रासादों के द्वार मान की गणना
फुट में
मंदिर की चौड़ाई
द्वार की ऊंचाई हाथ में
अंगुल/इंच
१० अंगुल २से६ ४-१२ (६-६ अंगुल बढ़ाये) १६, २२, २६,३४, ४० अंगुल ७ से १० १ ४-२० (५.५अंगुल बदायें) ४५, ५०,५५, ६० अंगुल ११ से २० २२-४० (२-२ अंगुल बढ़ाये) ६२, ६४, ६६, ६८,७०, ७२,
७४, ७६, ७८, ८० अंगुल २१ से ३० ४२-६० (२-२ अंगुल बढ़ायें) ८२,८४. .. .. .. .. १०० अंगुल ३१ से ४० ६२-८० (२-२ अंगुल बढ़ायें) १०२, १०४,......१२० अंगुल ४१ से ५०८ २-१०० (२-२ अंगुल बढाये) १२२, १२४, ......१४० अंगुल
द्वार की ऊंचाई से चौड़ाई आधी रखें। चौड़ाई में यदि ऊंचाई का सोलहवां भाग बढ़ाएं तो अधिक शोभायमान होगा। उदाहरणार्थ अनुपात इस प्रकार होगा :४ हाथ (८ फुट) ऊंचाई व २ हाथ (४ फुट) चौड़ाई तथा २.१/४ हाथ ( ४,१/२ फुट) चौड़ाई श्रेष्ठ शोभार्थ
विभिन्न जातियों के मंदिरों के द्वार मान भूमिज जाति के द्वार मान के बराबर - विमान, वैराट, बलभी जाति के मंदिरों में नागर जाति के द्वार मान के बराबर - मिश्र, लतिज, विमान, नागर, पुष्पक,
सिंहावलोकन जाति के मंदिरों में द्राविड़ जाति के द्वार मान के बराबर -- फांसांकार, धातु, रत्न, दारुज, रथारुह जाति
के गंदिरों में । पालकी, रथ, गाड़ी, पलंग, मन्दिर का द्वार, गृहद्वार की ऊंचाई से चौड़ाई आधी रखना चाहिये । अगर चौड़ाई बढ़ाना इष्ट हो तो ऊंचाई का सोलहवां भाग ही बढ़ाना चाहिये।
द्वार की आय द्वार से ध्वजादिक आय की विशुद्धि के लिये द्वार की ऊंचाई में आधा या डेढ़ अंगुल कम ज्यादा किया जाये तो कोई दोष नहीं है। द्वार उपयुक्त आय में ही बनाना आवश्यक है। "
*अंगुलं शाधमधु वा कुर्यादीनं तथाधिकम। आय दोष विशुद्ध्यर्थ, हस्ववृद्धि न दूषयेत् ॥ शि. र. ३/१५६
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(देव शिल्प
गुण
द्वारशाखा द्वार के दोनों पार्थ कलाकों में कई सालमा मामा' बनाये जाते हैं, इन्हे द्वार शाखा कहते हैं अर्थात् द्वार की चौखट के एक पक्खा को द्वार शाखा कहा जाता है। द्वार एक से प्रारंभ कर नौ शाखाओं तक के होते हैं। महेश के प्रासाद में नव शाखा का; अन्य देवों के प्रासाद में सात शाखा का; चक्रवर्ती नरेशों के प्रासाद में पांच शाखा का तथा सामान्य राजाओं का प्रासाद तीन शाखा का द्वार बनाना चाहिये । एक शाखा वाला द्वार द्विजों एवं शूद्रों के लिए आवास में बनायें। जिन मन्दिर में सात या नौशाखा वाला द्वार बनायें।*
शाखाओं के आधार पर द्वारों के नाम , गुण एवं आय# शाखाओं की संख्या नाम
आय नवशाखा पदिगनी
उत्तम
ध्वज आय मुकुली
ज्येष्ठ
ध्या आय सात हस्तिनी
उत्तम
गज आय मालिनी
ज्येष्ठ
खर आय नन्दिनी
उत्तम
वृषभ आय चार गांधारी
मध्यम श्वान आय तोन सुभगा
मध्यम सिंह आय
कनिष्ठ धूम आय एक
स्मरकीर्ति प्रासाद के गद्र आदि तीन, पांच, सात या नव अंग हैं। उनमें जितने अंग का प्रासाद हो उतनी हो शाखाएं बनानी चाहिये। अंग से कम शाखा न बनायें , अधिक बनाना सुखद है। **
शाखा स्तम्भ का निर्गम (निकलता हुआ भाग):द्रव्य की अनुकूलता के अनुसार शाखा के स्तम्भ का बाहर निकलता हुआ भाग एक, डेढ़, पौने दो अथवा दो भाग तक रख सकते हैं । $
पांच
टो
सुप्रभा
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#अप. सू. १३५
एकशावं भवेद द्वारं शने वैश्य जि सदा। समशास्वं च धुमाये श्वाने रामभवायसे || प्रा. मं. ३/५५ ** त्रिपंचराप्तनन्दांगे शाखाः स्युरंगतुल्यकाः। हीनशाखं न कर्तव्यमधिकाढ्यं सुखावहम् ॥ प्रा. मं. ३/५६ $ एकांशं सार्थभागं च पादोजद्रयमेवच । विभागों निर्गमकुर्यात स्तम्भ द्रव्यानुसारतः।। प्रा. म. 3/80
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देव शिल्प
त्रिशाखा द्वार
शाखा की चौड़ाई के चार भाग करें। उसमें दो भाग का रूप स्तंभ बनाएं यह स्तंभ पुरुष संज्ञक है। इसके दोनों तरफ एक एक भाग की शाखा रखें। यह शाखा स्त्री संज्ञक है। रूप स्तंभ का बाहर निकलता भाग एक भाग का रखना श्रेष्ठ है। द्रव्य की अनुकूलता से शाखा के स्तंभ का निकलता हुआ भाग एक, डेढ, पौने दो अथवा दो भाग तक रख सकते हैं। शास्त्रा की चौड़ाई का चौथा भाग शाखा का निकलता भाग रखें। रूप स्तंभ के दोनों तरफ शोभा के लिये एक एक कोणिका बनाएं। इसमें चम्पा के फूलों की अथवा जलवट की आकृति करें। सभी शाखाओं का प्रवेश शाखा की चौड़ाई का चौथा, साढ़े चार अथवा पांचवा भाग करें। द्वार की ऊंचाई चार भाग करके एक भाग की ऊंचाई में द्वारपाल बनायें तथा तीन भाग की ऊंचाई में स्तम्भ और शाखा आदि बनाएं।
पंच शाखा द्वार
पांच शाखा द्वार की चौड़ाई के छह भाग करें। उसमें एक एक भाग की चार शाखा तथा दो भाग का रूप स्तम्भ बनायें। रुपस्तंभ का निर्गम (निकलता हुआ भाग) एक भाग रखें। इसके दोनों तरफ कोणी बनावें । दूसरी शाखा का निर्गम एक भाग रखें। उसके समसूत्र में चौथी य पांचवीं शाखा एक एक भाग निकलती रखें। स्तंभ का निर्गम सवा अथवा डेढ़ भाग भी रख सकते हैं। द्वार की ऊंचाई का आठवां भाग बराबर शाखा के पेटाभाग की चौड़ाई रखें।
पांच शाखाओं का नाम- प्रथम -
द्वितीय
तृतीयचतुर्थ पंचम
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१५३
पत्र शाखा गन्धर्व शाखा
रुप स्तंभ खल्व शाखा सिंह शाखा
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(देव शिल्प
BOOS
अलंकृत द्वारशाख
१५४
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(देव शिल्प
(५५)
सप्तशाखाद्वार
रात शाखा की चौड़ाई के आठ भाग करें। मध्य में चौथी शाखा रतंभ शाखा की चौड़ाई दो भाग करें। दोनों तरफ तीन-तीन शाखा एक एक भाग को रखें। स्तम्भ में दोनों तरफ चौड़ाई में तथा निर्गग में चौथाई चौथाई भाग की कोणिका बनायें। डेढ भाग का निकलता हुआ स्तंभ श्रेष्ठ है। दुसरी एवं सातवीं शाखा का निर्गम एक एक भाग रखें। अन्य शाखाओं का निर्गम आधा आधा भाग रखना चाहिये। मध्य में स्तंभ शाखा तीसरी व पांचवी शाखा रो आगे निकलती हुई रखें।
सात शाखाओं के नाम इस प्रकार हैं - प्रथम पत्र शाखा, दूरारी गन्धर्व शाखा, तीसरी रुप शाखा, चौथी स्तंभ शाखा, पांचवीं रुप शाखा, छठवीं खल्व शाखा, सातवीं सिंह शाखा है।
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हस्तिनी सप्त शाखा विस्तार भाग 8
उदुम्बर
।
स्त्र शाखा
मंदारक
सिन शाखा खस्वशाखा शपशाखिका
ग्रास
रुपशाचिका
धर्वशाच्च
रुप स्तम्भ
सप्तशाखा द्वार एवं उदुम्बर की रचना
बवशाखा द्वार वशाखा की चौड़ाई के ग्यारह भाग करें। उरागों दोनों स्तंभ दो दो भाग रखें। उसके दोनों तरवा चौथाई चौथाई भाग की कोणिकाएं ब-गायें । रतंभ की निर्गम डेढ़ा या पौने दो गुना रखें। इन नव शाखाओं में दो स्तंभ शाखा तथा दो गन्धर्व शाखा है। दोनों स्तम्भ की चौड़ाई दो दो भाग रखें। प्रत्येक शाखा की चौड़ाई एक एक भाग रखें।
नव शाखाओं का विस्तार प्रासाद के कोने तक किया जाता है। नवशाखाओं के नाम इस प्रकार हैं - प्रथा पत्र शाखा, द्वितीय गंधर्व शाखा, तृतीय स्तंभ शाखा, चतुर्थ खल्व शाखा, पंचम गंधर्व शाखा, षष्टम रुप स्तंभ, सप्तम रुप शाखा, अष्टम खल्व शाखा, नवम सिंह शाखा है।
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(देव शिल्प)
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नवशाखा द्वार
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(देव शिल्प
उत्तरंग द्वार शाखा के ऊपर का मथाला (ऊपरी भाग) उत्तरंग कहलाता है। यह भाग सिर के ऊपर वाला भाग है । देहरी या उदुंबर नीचे रहती है जबकि उत्तरंग ऊपर रहता है। उत्तरंग की ऊंचाई द्वार की देहरी की ऊंचाई रो सवाई रखना चाहिये।
उखरंग की रबला उत्तरंग की ऊंचाई के इकोस भाग करें। उनमें से ढाई भाग को पत्र शाखा एवं त्रिशाखा बनायें। इसके ऊपर तीन भाग का मालाधर, पौन भाग की छत्री, पौन भाग की फालना, सात भाग की रथिका (गवाक्ष), एक भाग का कण्ठ और छह भाग का उद्गग बनायें । इस प्रकार का उत्तरंग। बना-[[ मन्दिरकी शोभा में वृद्धि तो करता ही है साथ ही पुण्यवर्धक भी है।*
प्रासाद के गर्भगृह में जिरा देवता की प्रतिमा की स्थापना की गई हो उस देव की मूर्ति द्वार के उत्तरंग में बनाई जा| चाहिये। शाखाओं में देय परिवार का रुप बनाना चाहिये। जिनेन्द्र प्रभु के गन्दिर में जिन प्रतिमा उत्तरंग में लगायें। अनेकों स्थानों पर गणेश प्रतिमा को गणेश के अतिरिक्त अन्य मंदिरों में भी विधननाशक के रूप में उत्तरंग में स्थापित किया जाता है, इसमें कोई हानि नहीं है। ऐसा करण| मंगलकारक है।**
उदगग
माथिका
मालाधर
शाखा
उत्तरंग .
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*उटु-बरसपादन उत्तरंग विनिर्देिशेत्। तदुच्छ्रयं यं विभजेत भाग अर्थक विंशति ।। पत्र शाखा निशाखा च द्धि सार्श तु कारयेत्। मालाधरं च विभागं कर्तव्यं चाभदक्षिणे। ऊर्वे घाधकः पादोन पादोना फालना तथा। रथिका सराभागाश्च भागैकं कण्ठं भवेत्। . षड्भागमुसेधं कार्य मुदगमं च प्रशस्यते। इशं कारयेत् प्राज्ञाः सर्वयज्ञफलं भवेत॥ वास्तु विद्या अ. ६ **घरय देवर यया गतिः मैव कार्योत्तरंगके । शाखायां च परिवारो गर्णशश्चोत्तरंग ।। प्रा. म.३/६८
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(देव शिल्प
मालाधर और नवग्रह से सुसज्जित उत्तरं ।
अलंकृत द्वार शाख
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(देव शिल्प
महावार मन्दिर के प्रांगण में प्रवेश के स्थान पर एक द्वार बनाया जाता है। तोर्थ क्षेत्रों में भी परिसर के प्रवेश स्थाः। पर द्वार बनाया जाता है। इसे महाद्वार की संज्ञा दी जाती है । यह द्वार प्रांगण के उत्तर , ईशान अथवा पूर्व दिशा में बनाना चाहिए। द्वार की स्थिति सम्मुख पथ के अनुरुप निम्न है - सड़क की दिशा
द्वार की स्थिति पूर्वी सड़क में
पूर्वी ईशान में अथवा पूर्व में उत्तरी सड़क में
उत्तरी ईशान में अथवा उत्तर में दक्षिणी सड़क में
दक्षिणी आग्नेय में पश्चिमी सड़क में
पश्चिमी वायव्य में
महाद्वार की रचना महाद्वार की रचना दो बड़े चौकोर स्तंभों से की जाती है। इन स्तंभों के ऊपर नगारखाना, निरीक्षण तथा सुन्दर कलात्मक तोरण या कमानी होती है। इस द्वार की ऊँचाई लगभग १५ फुट रखना चाहिए तथा चौड़ाई इतनी रखें कि भारी वाहन, रथ आसानी से प्रवेश कर सके ।
द्वार की रचना में पश्चिमी अथवा दक्षिणी भाग में दार रक्षक का कक्ष बनाया जाता है। द्वार के ऊपर सुंदर कलाकृति तथा ध्वज एवं कलश भी आरोहित किया जाता है। महाद्वार की भव्यता से भीतर स्थित मन्दिर की भव्यता का आभास होता है। इस द्वार में दो पल्लों का द्वार लगायें। द्वार भीतर की ओर खुलने वाला हो । द्वार चौकोर बनाना श्रेष्त है । महाद्वार के निर्माण में चौड़ाई और ऊंचाई का अनुपात प्रवेश द्वार की भांति ही समझना चाहिए।
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गवाक्ष युक्त प्रवेश द्वार
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प्रवेश द्वार
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(देव शिल्प
स्तम्भ-तोरण द्वार
१६२
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(देव शिल्प
खिएकी मंदिरों मे खिड़की बनाने का अपना विधान है। यदि मंदिर ऐसे देय का है जिनके लिए प्रकाश युक्त/निरंधार/प्रदक्षिणा रहित / व्यक्त प्रासाद बनाया जा सकता है तो ऐसी स्थिति में मंदिर में दरवाजों के सूत्र में तथा ऊपरी भाग में खिड़की लगा सकते हैं।
यदि ब्रह्मा, विष्णु , शिव एवं सूर्य का मंदिर बनाया जाता है तो इसमें सूर्य प्रकाश आ.|| अर्थात् भिन्न दोष युक्त होना दोषकारक नहीं है। इस मंदिरो में लम्बे दालान, जाली अथवा दरवाञ्चों रो प्रकाश आना दोष नहीं माना जाता।
जिनेन्द्र प्रभु के मंदिर, गौरी, देवी एवं मनु के उपरान्त होने वाले देशों के मंदिरों में सूर्य प्रकाश का प्रवेश अर्थात् भिन्न दोष होना दोषकारक है अतएव इनके मंदिरों में सूर्य प्रकाश का सोधा प्रवेश नहीं होना चाहिए। ऐसा राभी प्राचीन मंदिरों में सामान्यतः देखा जा सकता है।
वर्तमा। शैली के मंदिरों में पर्याप्त वायु प्रवाह एवं प्रकाश के लिए खिड़की बनाना अपरिहार्य माना जाता है। ऐसी स्थिति में जिन गंदिरों में भिन्न दोष रहित मंदिर बनाना आवश्यक हो यहाँ गर्भगृह में खिड़की न बनायें।
खिडकियां बनाने के नियम १. खिड़कियां सम संख्या २, ४, ६, ८ में बनायें। २. खिड़कियों के पल्ले भीतर खुल.) वाले हों।
खिडकियां दो पल्ले वाली हो बनायें।
खिडकियों की सजावट मुख्य द्वार के समकक्ष भव्य नहीं करके सामान्य शैली में करें । ५. यदि गन्दिर में खिडकियां बनाना अपारेहार्य हो तो इन्हें उत्तर एवं पूर्व दिशा में बनाना
चाहिये। ६. जि- मन्दिरों में सूर्य किरण प्रवेश उपयुक्त न हो उनमें खिडकी के ऊपर इस प्रकार का
छज्जा लगायें कि सीधी सूर्य किरप्ण मन्दिर में प्रवेश न करें। ७. गर्भगृह के पीछे परिक्रमा में खिड़की एवं झरोखा न बगायें ।गर्भगृह के पीछे खिड़की या
झरोखा बनाने से मंदिर में पूजा, अभिषेक शनैः-शः बन्द हो जाता है। *
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*ांचेमुख भवेन्द्रिं पृष्टे यदा करोति च। प्रसादे न भवेत् पूजा गृहे कोड- राक्षसाः ॥ शिल्पदीपक
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दिव शिल्प
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खिड़की की कलात्मक जालो
खिड़की की कलात्मक जाली
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(देव शिल्प
जाली एवं गवाक्ष मन्दिर में प्रकाश एवं वायु प्रवाह के लिए जाली एवं गवाक्ष (झरोखों) की रचना की जाती है। जाली की सुन्दरता से मन्दिर की सुन्दरता में अभिवृद्धि होती है।
जाली का प्रमाण द्वार की ऊंचाई के तीन भाग करें। दो भाग की जाली तथा झरोखा बनायें। जाली लम्बाई में छोटी भी हो तो दोष नहीं गाना जाता। द्वार जाली तथा गवाक्ष ऊपरी बाढ़ से एक समसूत्र बनाना चाहिये।
शि.र. ४/५४० गवाक्ष की रचना ___ गवाक्ष की रचना मंडोवर पर भी सजावट के लिए की जाती है, जिसमें अनेकों देव-देवियों के रुप बनाते हैं। इसमें जाली नहीं देकर प्रतिगाये ब-यो जाती है । गवाक्ष से मन्दिर की सुन्दरता में अभिवृद्धि होती है।
गवाक्ष के भेद गवाक्ष की शैलियों के अनुरुप उनके विभिन्न भेद होते हैं । मन्दिर निर्माणकर्ता अपने द्रव्य के अनुरुप इनका निर्माण करता है। इनके कुछ भेदों के नाम इस प्रकार है :१. त्रिपताक २. उभय ३. स्वस्तिक ४. नंदावर्तक ५. प्रियवक्रासुमुख ६. सुवक्र ७. प्रियंग ८. पदम-||म ९. दोपचित्र (चार छाद्य युक्त)
१०. वैचित्र- पांच छाद्य युक्त १०, सिंह
१२. हंस १३. मतिद १४. बुध्यर्णव १५. गरुड़
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गंडोवर के गवाक्ष
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(देव शिल्प
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गवाक्ष के विभिन्न भेद
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(देव शिल्प
जिन मन्दिर में भण्डप जिन गन्दिर का निर्माण करते समय गर्भगृह के सामने के भाग में मन्दिर की उपयोगिता एवं शोभा दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के मण्डपों की निर्माण किया जाता है । मण्डप सामान्यतः चार स्तम्भों पर आधारित कलापूर्ण कक्ष होते हैं जिनका उद्देश्य उपासकों को पूजा, आरती, नृत्य आदि के लिए समुचित स्थान प्रदान करना है। गर्भगृह गहन तथा छोटा होता है तथा उसमें अधिक मात्रा में जनसमुदाय का बैठना, उपासना अथवा आरती, नृत्यादि करना संभव नहीं होता। साथ ही उसमें अत्यधिक आवागमन से वातावरण में अशुचिता बढ़ने की शंका होती है । अतएव ऐसी परिस्थितियों के लिए हो विभिन्न मंडपों का निर्माण किया जाता है। आधुनिक युग में गर्भगृह के सागने के भाग में लम्बे हॉल बनाने की प्रथा चल पड़ी है कमोवेश इसका उद्देश्य भो समान ही है। मन्दिर निर्माता को चाहिये कि मण्डपों का निर्माण सुविज्ञ शिल्पी से शास्त्रोक्त पद्धति से ही करायें। मण्डप चारों तरफ दीवार रो बन्ट भी होते हैं तथा दोनों ओर से खुले भी। *
जिनप्रासादका मण्डपक्रम गर्भगृह के बाहर गूढ मण्डप का निर्माण किया जाना चाहिये । प्रासाद में गर्भगृह के आगे गूढ़ मण्डप की अर्थात् दीवार युक्त मण्डप की रचना करें। इसके उपरान्त त्रिक मण्डप अथवा चौकी मण्डप बनाये । चौकी मण्डप के आगे रंगमण्डप अथवा नृत्य मण्डप बनाना चाहिये। रंग मण्डप के आगे तोरण युक्त) बलाणक (द्वार के ऊपर का मण्डप) बगायें।*
• मण्डपका अन्य क्रम जिन प्रासाद के गर्भगृह के आगे गूढ़ मण्डप बनायें । गूढ गण्डप के आगे त्रिक तीन (नव चौकी) बनायें। इसके आगे नृत्य मण्डप (रंग मण्डप) बनायें । इनके आगे तोरण युक्त द्वार के ऊपर का गण्डप (बलाणक) बनायें। #
अन्यमत जिन प्रासाद के आगे (अर्थात् गर्भगृह) के आगे समवशरण बनायें । शुक नास (कवली गण्डप) के आगे गूढ़ मण्डप बनायें। इसके आगे चौकी मंडप बनायें तथा उसके आगे नृत्य मंडप बनायें। ##
प्रासाद के दाहिनी एवं बायीं ओर शोभाभण्डप तथा गवाक्ष युक्त शाला (झरोखा युक्त ढोल के आकार की छत सहित आयताकार मन्दिर /कक्ष ) बनाना चाहिए । जिरामें गंधर्व देव गीत, नृत्य, मनोरंजन आदि करते हुए होयें।
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*व. सा. ३/४९, ** प्रा. म.७/३, #प्रा. मं. २/२२. ##प्रासाद मंजरी/४५-४७, वि. सा. ३/५०
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(देव शिल्प
बलाणक
गर्भगृह के आगे के मण्डप को बलापक कहते हैं। इसे मुखमण्डप भी कहते हैं। देवालय के द्वार के आगे तथा प्रवेश द्वार के ऊपर इसे बनाया जाता है। राजमहल, गृह, नगर, जलाशय आदि के द्वार के आगे भी इसे बनाया जाता है। जिनेन्द्र देव, शिव, सूर्य, ब्रह्म, विष्णु, तथा चंडिका के समक्ष बलाणक बनाना चाहिये ।
बलाक की चौड़ाई जगती के मान से चौथाई रखते हैं। इसे इस चौथे भाग का पुनः चार भाग करके एक भाग कम भी रख सकते हैं। कक्ष अथवा दालान के मान से, प्रासाद के गर्भगृह की चौड़ाई के मान से अथवा प्रासाद की चौड़ाई के बराबर वलाणक की चौड़ाई रख सकते हैं।
**
१६८
मण्डप का द्वार और बलाणक का द्वार मुख्य प्रासाद के बराबर रखना चाहिये। यदि द्वार का मान (ऊंचाई) में वृद्धि करना इष्ट हो तो द्वार की ऊंचाई जितने हाथ की हो, उतने अंगुल की बढ़ा सकते हैं। चूंकि द्वार का ऊपरी भाग उत्तरंग समसूत्र में रखा जाना आवश्यक है अतएव यह वृद्धि नीचे के भाग में ही करना चाहिये। #
बलाणक के भेद
बलाक के पांच भेद निम्न हैं:
१.
२.
3.
४.
५.
जगती के आगे की चौकी पर जो बलाक बनाते हैं उसके बायीं तथा दाहिनी तरफ के द्वार पर वेदिका (पीठ) तथा भत्तवारण (कटहरा बनाया जाता है। इसे वामन नामक बलाक कहते हैं ##
राजद्वार के ऊपर पांच या सात भूमि वाला बलाणक उत्तुंग नाम से जाना जाता है। जलाशय के बलापक को पुष्कर नाम दिया जाता है।
गृह द्वार के आगे एक, दो या तीन भूमि वाला बलाणक हर्म्यशाल कहलाता है। यह गोपुराकृति होता है। $
किले के द्वार के ऊपर गोपुर नामक बलाणक बनाया जाता है।
* शिवसूर्यो ब्रह्माविष्णु चण्डिका जिन एव च ।
-
एतेषां च सुराणां च कुर्यादव्ये बलाणकम् । अप. सु. १२३
** जगतीपादविस्तीर्ण पादपादेन्द वर्जितम् । शालालिन्देन वार्भेण प्रासादेन समं भवेत् । प्रा.मं. ७/३९ #मूलप्रासादवद् द्वारं मण्डपे च बलाणके । न्यूनाधिकं न कर्त्तव्यं देये हस्तांगुलाधिकम् ।। प्रा. मं. ७/४१ ##जगत्यां चतुष्किका वामनं तद् बलाणकम् । वामे च दक्षिणे द्वारे वेदिकामत्तवारणम् ।। प्रा. मं. ७/४३ $हशाली गृहे वापि कर्तव्यो गोपुराकृतिः । एकभूम्यास्त्रिभूम्यन्तं गृहाद्यद्वारमस्तके ।। प्रा. मं. ७ / ४६
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(देव शिल्प
बलाणक कामान ज्येष्ठ मान के प्रासाद में कनिष्ठ मान का बलाणक बनाया जाता है। गध्यम मान के प्रासाद में मध्यम मान का बलाणक बनाया जाता है। कनिष्ठ मान के प्रासाद में ज्येष्ठ मान का बलाणक बनाया जाता है।
बलाणकका स्थान .यह प्रासाद से एक, दो, तीन, चार, पांच, छह या सात पद (भाग) के अन्तर से दूर बनाया जाता है।
बलाणक की रचना* गगह के आगे बलाणक या मन मंडप की ऊंचाई के १३, १/२ अथवा १४, १/२ अथवा १५, १/२ भाग करें। उनमें ८, ९ या १० भाग का खुला भाग (चन्द्रावलोकन) रखें । आस- पट्ट के ऊपर एक हाथ अथवा २१ अंगुल का कटहरा (मत्तवारण) बनाना चाहिये। खुले भाग के नीचे से मंडप के तल तक ५, १/२ भाग करें। उसमें १, १/४ भाग का राजसेन तथा ३, १/४ भाग की वेदो एक एक भाग का आसन पट्ट बनायें।
आसन पट्ट के ऊपर के पाट के तलभाग तक ७, १/२ भाग करें। उसमें से ५, १/२ भाग का स्तंभ रखें। उसके ऊपर ३/४ भाग या १/२ भाग की भरणी तथा इसके ऊपर १, १/४ या १, १/२ भाग की शिरावटी रखें।
शिरावटी के ऊपर दो भाग का पाट रखें । उसके ऊपर तीन भाग निकलता तथा पाट के पेटा भाग तक नमित (झुका हुआ) सुन्दर छज्जा बनायें। उसके ऊपर १/२ भाग की केवाल बनायें । पाट की चौड़ाई दो भाग रखें।
*प्रा. मं.७/९-१३ अ.प.पृ. सू. १८४ श्लोक ५से १३ शब्द संकेत
पेटा भाग- नीचे का भाग आसन पट्ट- बैठने का तकिया राजसेन- मंडप की पीठ के ऊपर काथर शिरावटी- भरणी के ऊपर काथर 'भरणी- प्रासादकी दीवार का तथा स्तंभ के ऊपर का थर
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(देव शिल्प)
प्रतीली मन्दिर के आगे भाग में द्वार के स्थान पर हों अथवा चार स्तंभ से युक्त तोरण आकृति का निर्माण किया जाता है, इसे प्रतोली कहते हैं। यह अत्यंत कलात्मक आकृतियों से युक्ता बनाया जाता है । इरो जगती के अग्रभाग में बनाते हैं। इसके पांच प्रकार हैं -
१. उत्तंग - दो स्तंभ वाली प्रतोली २. मालाधर - जोड़ रुप दो स्तंभ वाली प्रतोली विचित्र
चार स्तंभ की चौकी और तोरण युक्त वाली प्रतोली चित्ररूप - 'विचित्र' प्रतोली के दोनों ओर कक्षासन वाली प्रतोली मकरध्वज __ - चौकी युक्त जुड़वां स्तंभ होचें ऐसी प्रतोली
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मदल युक्त प्रवेश द्वार (प्रतोल्या)
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सजावटी तोरण एवं स्तम्भ युक्त प्रवेश द्वार (प्रतोल्या)
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(देव शिल्प
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(देव शिल्प
चौकी मण्डप
चार स्तम्भों के मध्य के स्थान को चौकी कहते हैं। चौकी की संख्या के आधार पर चौकी मण्डपों में बारह प्रकार के भेद किये जाते हैं। जिन प्रासाद के समक्ष नव चौकी वाला मंडप बनाना चाहिये । ये भेद नाम सहित इस प्रकार हैं -
चौकी मंडप का नाम रचना १.सुभद्र
गूढ़ मंडप के आगे एक चौकी वाला ...करीट
ती चौकी ३. दुन्दुभि
तीन चौकी के आगे एक चौकी ४. प्रान्त
तीन-तीन चौकी की दो कतार ५. मनोहर
छह चौकी के आगे एक चौकी ६. शान्त
तीन-तीन चौकी की तीन कतार ७. नन्द
तीन-तीन चौकी की तीन कतार के आगे एक चौकी ८. सुदर्शन
तीन-तीन चौकी की तीन कतार के दोनों बाजू में
एक-एक चौकी, आगे नहीं । ९. रम्यक
तीन-तीन चौकी की तीन कतार के दोनों बाजू में एक
एक चौकी, आगे एक चौकी १०. सुनाभ
तीन-तीन चौकी की चार कतार ११. सिंह
तीन-तीन चौकी की चार कतार के दोनों बगल में एक
चौकी, आगे नहीं १२. सूर्यात्मक तीन-तीन चौकी की चार कतार के दोनों बगल में एक
एक चौकी, आगे एक चौकी
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*एकत्रिवेदषट्सप्तांकचतुष्वयरित्रकाये । अदो भद्रं विना पार्श्व पार्श्वयोरयतस्तथा ।। प्रा मं.७/२२ अवातस्त्रिचतुष्क्यश्च तथा पार्श्वद्वयेऽपि च । मुक्तकोणे चतुष्कं चैदिति द्वादश मण्डपाः ॥ प्रा.म.७/२३ गढस्थाने प्रकर्तव्या जानाचतुष्फिकाव्यिताः । चतुरस्रादिभेदेन वितानबहुभिर्युताः । प्रा.म.७/२.४ $अ.पृ.सू. १८७
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(दंव शिल्प
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(देव शिल्प)
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(देव शिल्प)
विश्वकर्मा कथित २७ मण्डप
सत्ताईस प्रकार के मंडपों के तल सम या विषम किये जा सकते है, किन्तु उनके स्तंभ सम संख्या में ही रखना आवश्यक है। प्रथम मण्डप १२ स्तंभों का होता है तथा २-२ स्तंभ बढ़ाने से अन्तिम मण्डप में ६४ स्तंभ हो जाते हैं। (समरांगण सूत्रधार अ. ६७ अ. पृ. १८६ )
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हर्पण २२ स्तंभ
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मानभद्र २६ न्तभ
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देव शिल्प
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यज्ञमट १४० स्तंभ
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कोली
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पुष्पकः ६४ स्तभ
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विश्वकर्मा कक्षित
२७ मण्डप की लामावली
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मानव २८ स्तंभ १०- नन्दन ३० स्तंभ
सुभद्र १२ स्तंभ
श्याम भद्र १४ स्तंभ
सिंहक १६ स्तंभ
पदाधिक १८ तंभ
कर्णिकार २० स्तंभ
हर्षण २२ स्तंभ
सुग्रीव २४ स्तंभ
मानभद्र २६ स्तंभ
१५- भूजय ३२ स्तंभ
१२- शत्रुवर्धन ३४ स्तंभ
१३- सुश्रेष्ठ ३६ स्तंभ १४ - विशालाच ३८. स्तंभ
१५ यज्ञभद्र ४० स्तंभ
१६- श्रीधर ४२ स्तंभ
१७- वास्तुकीर्ति ४४ स्तंभ
१८- विजय ४६ स्तंभ
१९- श्रीवत्स ४८ स्तंभ
२०- जयावह ५० स्तंभ २१- गजभद्र पावन ५२ स्तंभ २२- बुद्धि सन्निधि ५४ रतंभ
२३- कौशल्य ५६ स्तंभ
२४- मृग नन्दन ५८ स्तंभ
२५- सुप्रभ ६० स्तंभ २६- पुष्प भद्र ६२ स्तंभ
२७- पुष्पक ६४ स्तंभ
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(देव शिल्प
गूढ़ मण्डप
गर्भगृह के आगे प्रासाद की चौड़ाई के बराबर डेढ़ो, पौने दो गुनी अथवा दुगुनी चौड़ाई का गूढ मण्डप बनाना चाहिये। मण्डप में तीन या पांच सीकियां यनाडा में चारों दिशाओं में चौकियां बनायें।
गूढ़ मण्डप का प्रमाण* * प्रासाद की चौड़ाई
मण्डप का आकार (चौड़ाई) १ एवं २ हाथ (२ से ४ फुट)
सिर्फ चौकी बनायें ३ हाथ (६ फुट)
दुगुना ४ हाथ (८ फुट)
पौने दो गुना ५ से १० हाथ (१० से २० फुट) १० से ५० हाथ (२० से १०० फुट)
समान या सवाया
डेढा
प्रायः मण्डप का प्रमाण डेढ़ा या दूना अलिन्द (द्वार के सामने दालान) के अनुसार जानना चाहिये।
गूढ मण्डपकी दीवारों की रचना गूढ मंडपों की दीवार की रचना प्रासाद की रचना की तरह करना चाहिये । प्रासाद की दीवार जितने थर वाली हो वैसी ही उतने थर वाली बनायें। रुपों की आकृति भी गूढ़ मंडप में प्रासाद के अनुरुप ही बनायें।
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*व सा ३/५१.**प्रा.गं७/५-६ शब्द संकेतचौको
खांचा, चार स्तम्भों के मध्य का स्थान मुख भद्र
प्रासाद का मध्य भाग
प्रासाद का मध्य भाग (मध्यवर्ती प्रक्षेप) प्रतिरथ
कोने के पास का चौथा कोना (भद्र और कर्ण के बीच का प्रक्षेप) भद्र के पास की छोटीकोनो, कोणी
भद्र
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(देव शिल्प
गूढ मण्डप की फालना (दीवार के खांचे)
कोने से दुगुना भद्र तथा पौन भाग का प्रतिस्थ रखें। भद्र से आधा मुख भद्र रखें । नन्दी आदि छटवें या आठवें भाग की रखें। खांचों का बाहर निकलता भाग चौथाई अथवा आधा करें। पीट, जंघा आदि की मेखलाएं* मुख्य प्रासाद के बाहर निकलती हुई बनायें।
गूढ गण्डप के गढ़ में जाली अथवा गवाक्ष बनायें। कोने में दीवार बनाये अथवा भद्र में खुला भाग रखें।
गूढ मण्डप में ती-1 अथवा एक द्वार बनायें। द्वार के आगे चौकी मंडप ब-[यें। *
गूढ़ मण्डप के आठ भेद फालबा की अपेक्षा १.वर्धन समचौरस, २. स्वस्तिक ३. गरुड़, प्रतिरथ वाला, ४. सुरनन्दन मुखभद्र, ५. सर्वतोभद्र दो प्रतिरथ वाला, ६. कैलास तीन प्रतिरथ वाला. ७. इन्द्रनील कर्ण जलान्तर वाला तथा ८. रत्नसंभव भद्र जलान्तर वाला।
शब्द संकेतजलान्तरमेखली
बरसाती पानी के बहाव के लिए कटी बारीक नालियां दीवार का खांचा
"मुखभद्रयुतो वापि द्वित्रिप्रतिस्थैर्युतः । कर्णोदकाल्तरेणारा भद्रोदकविभूषितः ।। १७ कंगतो द्विगुण भद्रं पादोजप्रतिकर्णकः । भद्रार्थ मुस्खभद्रं च शेषं षड्वसु भाजितम् ।। १८ दलेजार्धन पादेन दलस्य निर्गपो भवेत् । मुलप्रासादवद बाझे पीटजपादिमेखला । १९ गवाशेणान्दितं भद्र-मथ जालकसंयुतम् । दोऽय कर्णगूढो वा भने चन्द्रावलोकनम् ।। २० त्रिद्वारे कवकोऽथ मुचे कार्या चतुश्किका । गढ़े प्राकाशके वृत्त - मर्धादयं करोटकम् ।। २१ प्रा. म.७/१७ से २५
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(देव शिल्प
गूढ़ मंडप
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(देव शिल्प
वितान (गूमट)
गुमट की ऊंचाई गूढ मण्डप के गूमट के भेद ऊंचाई की अपेक्षा निम्नलिखित हैं१. मंडप की गोलाई की चौड़ाई से आधे मान का गूमट (करोटक) की ऊंचाई रखना चाहिये । इसका नाम वामन उदय है । यह शुभ, शांतिदायक है। २. गूमट की ऊंचाई के नौ भाग कर उसके सात भाग यदि ऊंचाई रखें तो इसे
अनन्त उदय कहते हैं। यह सर्वसुख कारक है। ३. गूमट की ऊंचाई के नौ भाग करके उसके छह भाग यदि ऊंचाई रखें तो इरो
वाराह उदय कहते हैं। यह अनंत फलदायक है। गूमट की ऊंचाई उपरोक्त तीन अनुपातों के अलावा अन्य किसी अनुपात में न करें अन्यथा अनपेक्षित अनिष्ट घटनाएं होंगी।
पदमशिला
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गजताल
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रुपकंत कर्णदरिका
वितान (गूगट) के थर
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(देव शिल्प
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गुमट की आंतरिक सजावट
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वितान का तलदर्शन
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१८३)
(देव शिल्प
वितान की सजावट के लिए विद्याधर आकृतियाँ
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(देव शिल्प
संसारणा
मंडप का आच्छादन संवरणा से किया जाता है। बाहर का कलात्मक भाग संवरणा कहलाता है। जबकि भीतरी भाग गूमट कहलाता है। संवरणा के २५ प्रकार है। संवरणा की रचना घंटी रथिका कूट और तवंग से की जाती है। प्रथम संवरणा में तल भाग ८ भाग करें तथा उसके बाद प्रत्येक में ४-४ भाग बढ़ाते जाएं। १- पुष्पिका
५घटिका तल भाग - ८ भाग २- नन्दिनी
९घटिका तल भाग - ५२ भाग दशाक्षा
१३घंटिका तल भाग - १६ भाग देवसुन्दरी
१७ घंटिका तल भाग - २० भाग कुलतिलका
२१ घंटिका तल भाग - २४ भाग रम्या
- २५घंटिका तल भाग - २८ भाग उद्भिन्ना - २९घंटिका तल भाग - ३२ भाग नारायणी
३३घोटका तल भाग - ३६ भाग ९- नलिका - ३७ घटिका तल भाग - ४० भाग
चम्पका ___- ४१घंटिका तल भाग - ४४भाग पद्मा
- ४५ घंटिका तल भाग - ४८ भाग १२- समुद्भवा
४९ घंटिका तल भाग- ५२ भाग १३- त्रिदशा
५३,टिका तल भाग- ५६ भाग १४- देवगान्धारी
५७ घंटिका तल भाग- ६०भाग १५- रत्नगर्भा
६१ घंटिका तल भाग- ६४'भाग १६- चूडामणि
६५ घंटिका तल भाग- ६८ भाग हेमकूटा
६९ घटिका तल भाग- ७२भाग १८- चित्रकूटा
७३ घंटिका तल भाग- ७६ भाग १९- हिमाख्या
७७ घंटिका तल भाग- ८० भाग २०- गन्धमादिनी
८१घंटिका तल भाग- ८४ भाग २१- मन्दस
८५घंटिका
तल भाग- ८८ भाग २२- मालिनी
८९ घंटिका तल भाग- ९२ भाग २३- कैलासा
९३ घंटिका तल भाग- ९६ भाग २४- रत्नसंभवा
९७ घटिका तल भाग- १०० भाग २५. मेरुकूटा - १०१ घटिका तल भाग- १०४भाग
११
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(देव शिल्प
(१८५)
सम्वर्णा का तलदर्शन
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वितान का तलदर्शन - छत की पुष्पनुमा आकृति
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देव शिला)
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सम्वर्णा की प्राचीन शैली का बाहरी दृश्य
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सम्वर्णा की प्राचीन शैली का तलदर्शन रेखांकन
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(देव शिल्प)
(१८७)
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सम्वर्णा का पार्श्वदर्शन
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(देव शिल्प)
(१८ गर्भगृह प्रासाद का सबसे प्रमुख भाग गर्भगृह होता है। गर्भगृह का तात्पर्य गूढ स्थल से है। जिनेन्द्र प्रभु अथवा पूज्य देव की प्रतिमा की स्थापना इसी में की जाती है। गर्भगृह का निर्माण पर्याप्त सावधानी से किया जाना आवश्यक है।
आकार की अपेक्षा गर्भगृह केभेद १.सम चौरस (वर्गाकार) २.लम्ब चौरस(आयताकार) ३. गोल (वृत्ताकार) ४. लम्बगोल (अण्डाकार)
५.अष्टकोण
प्रासाद के गर्भगृह का माप एक से पचास हाथ तक कहा गया है। कुंभक या जाड्यकुंभ का निकास इसके अतिरिक्त गर्भगृह की दीवार के बाहर होना चाहिये। विभिन्न थरों का निर्गम, पीठ एवं छल्ने का निर्गम (निकलता हुआ भाग ) भी समसूत्र के बाहर नहाना चाहिये।
गर्भगृह समरेखा में चौकोर (वर्गाकार) होना चाहिये। उसी में फालना (खांचे) देकर प्रासाद में तीन, पांच, सात या नौ भाग किये जा सकते हैं। गर्भगृह की चौड़ाई में चौथाई भाग के बराबर दोनों ओर कोण रखें तथा मध्य में आधा भाग भित्ति को खांचा देकर थोड़ा सा आगे निकाल देवें । यह तीन अंगों वाला प्रासाद कहलाता है।
इसी प्रकार दो कोण, दो खांचे, एक भित्ति रथ वाला प्रासाद पंचांग वाला प्रासाद कहा जायेगा । दो कोण, दो- दो उपरथ (कोने के बीच का तीसरा कोना) तथा एक भित्तिरथ वाला सप्तांग प्रासाद कहलाता है।
दो कोण, चार-चार उपरथ, एक रथिका युक्त प्रासाद नवांग प्रासाद कहलाता है।
ये प्रासाद त्रिरथ,पंचस्थ, समरथया नवरथ प्रासाद भी कहे जाते हैं। इन्हीं खांचों के आधार पर प्रासाद की पूरी ऊंचाई खड़ी की जाती है।
प्रा.मं.१/.. सावधानी -
प्रासाद का माप प्रासाद की दीवार के बाहर कुम्भी के कोण तक गिनना चाहिये।
गर्भगृह वर्गाकार ही बनाना चाहिये । काष्ठ मन्दिर तथा वल्लभी जाति के प्रासाद यदि लम्बाई में अधिक भी हों तो दोष नहीं लगता । गर्भगृहएक, दो या तीन अंगुल भी लम्बाई में अधिक हो तो यमचुल्ली नामक दोष लगता है। यह मन्दिर निर्माता के गृह नाश का निमित्त बनता है। अतएव गर्भगृह लम्बा न बनायें। विवेक विलास के मत से - प्रासाद के चौड़ाई के चौथे भाग से एक अंगुल कम या ज्यादा करके प्रतिमा रखना चाहिये अथवा प्रासाद की चौड़ाई की चौथाई भाग के पुनः दस भाग कर उसका एक भाग बढ़ाकर या घटाकर प्रतिमा का प्रमाण निकालें।
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(देव शिल्प)
गर्भगृह में प्रतिमा की स्थिति
गर्भगृह की महिमा उसमें स्थित जिन प्रतिभा के कारण है। गर्भगृह की चौड़ाई इस प्रकार रखें कि चौड़ाई के दस भाग में गर्भगृह बनायें तथा दो दो भाग की दीवार बनायें ।
गर्भगृह की चौड़ाई के तीसरे भाग के मान की प्रतिमा बनाना उत्तम है। इस मान का दसवां भाग चटा देवें लो मध्यम मान की प्रतिमा का मान आयेगा। यदि पांचवां भाग घट। देवें तो कनिष्ठ मान आयेगा । •
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भद्र युक्त
गर्भगृह
गर्भगृह
आची उपांग
नंदी हस्तांगुल उपांग प्रतिरथ
कर्ण
प्रतिरथ कर्ण
कर्ण प्रतिरथ
कर्ण
भद्र
प्रतिभद्र युक्त गर्भगृह
कणी समदल उपांग कणी कर्ण
अनुग
प्रतिकर्णी
भद्ररथिका
• प्रा. मं. ४/४ इसका विस्तृत विवरण प्रतिमा प्रकरण में है।
भद्रस्थ
कर्ण कणी
नंदी अनुग
सुभद्रयुक्त गर्भगृह
१८९
मागवा उपांग कणी प्रतिरथ
प्रतिरथ
भद्र शाला.
कर्ण
कर्ण
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(देव शिल्प)
भद्र स्थ
प्रतिकर्ण
नदी.
कर्णरेखा
नंदी प्रतिकर्ण
ओशार
कर्णरेखा
नदी
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भद्र रक्षिका
ओसार
समटल प्रासाद तल
प्रासाद का स्वरुप
उपरथ
नंदी प्रतिकर्ण
कर्णरेखा
ओसार
कर्णरेखा
प्रतिकर्ण
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भद्र रथ
१९०
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देव शिल्प
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सांधार प्रासाद, घुमली, नवलखी (सौराष्ट्र ) - तल दर्शन
कंदरिया महादेव मन्दिर खजुराहो तल दृश्य
रंगमंडप
● कक्षास
१९१
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(देव शिल्प
चौकी
चौकी
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नागर जाति के मन्दिर का पार्श्व दर्शन नीलकंठ महादेव मन्दिर - शुनक गुजरात
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(देव शिल्प)
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(देव शिल्प)
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शिव मीनाक्षी मन्दिर, मदुराई-दक्षिणी गोपुरम
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श्यामलाजी मंदिर का प्रवेश द्वार
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(देव शिल्प
१९८) शिखर मन्दिर के ऊपरी भाग में पर्वत की चोटी के आकार की उच आकृति निर्माण की जाती है। इसे शिखर कहते हैं। दूर से दर्शनार्थी को शिखर के दर्शन होते हैं जिनसे यह आभास हो जाता है कि यहां पर देवालय है। उत्तर भारतीय शैली में शिखर सामान्यतः वक्रीय होता है। दक्षिण भारतीय शैली में शिखर
-बदाकार अथवा अष्टकोण या चतुष्कोण होता है। दक्षिण भारतीय शैली के शिखरों पर अनेक कलश होते हैं। शिखर विहीन मन्दिर भी बनाये जाते थे किन्तु शिखर मन्दिर के अपरिहार्य अंग हैं सिर्फ शोभा नहीं । दक्षिण में हेमाड़ पन्थी मन्दिरों में शिखर नहीं हैं। सांची एवं मुकुन्दरा आदि स्थलों में भी शिखर विहीन मन्दिर मिले हैं।
कुछ समय पूर्व एक भ्रामक विचार शैली ने जन्म लिया। इसमें शिखरयुक्त जिनालय को मन्दिर तथा शिखर विहीन जिनालय को चैत्यालय कहा जाने लगा। वास्तव में गृह चैत्यालयों में शिखर नहीं होता तथा उनका शक निर्माण रादि किया जाये तो भी गड त्यालयों में कलश नहीं रखा जाता। गृह चैत्यालयों का आकार काफी छोटा होता है तथा सामान्यतः ये काष्ठ निर्मित होते हैं।
शिखर निर्माण शिखर के नीचे के दोनों कोनों के दस भाग करें। इनके छह भाग के बराबर शिखर के स्कन्ध की चौड़ाई रखें। छह भाग से न अधिक रखें ना ही कम।*
प्रासाद के वर्गाकार क्षेत्र के दस भाग करें। उनमें से दो दो भाग के दो कोण बनायें। तीन भाग का भद्र तथा डेढ डेढ़ भाग के दो प्रतिकर्ण बनायें। शिखर की ऊंचाई चौड़ाई से सबा गुनी होना चाहिये। स्कन्ध छह भाग का ही रखें। अब स्कन्ध के गौ भाग करें। चार भाग के दोनों कोण तीन भाग के दोनों प्रतिकर्ण तथा दो भाग का पूरा भद्र बनायें। अब रेखाओं को बनायें! **
. शिखर की ऊंचाई का मान खर शिला से कलश के अन्त भाग तक की ऊंचाई के बीस भाग करें। उनमें आठ, साढ़े आट अथवा नौ भाग मण्डोवर (मन्दिर की दीवार) की ऊंचाई रखें । शेष ऊंचाई का शिखर बनायें। यह क्रमशः ज्येष्ठ, मध्यम, कनिष्ठ मान है।
मूल रेखा के विस्तार से चार गुना सूत्र लेकर दोनों कोने के मूल बिन्दु से दो वृत्त बनाएं। जिसके दोनों वृत्तों के स्पर्श से कमल की पंखुड़ी जैसा आकार (पाकोश) बन जाता है। उसमें दोनों कोने के मध्य की चौड़ाई से सवाया शिखर की ऊंचाई रखें ! #
इस प्रकार सवाया शिखर करने के बाद जो पद्मकोश की ऊंचाई शेष रहती हैं उसमें ग्रीवा, आमलसार कलश बनावें।
*प्रा. मं. ४ / १२, "(ज्ञान स्नकोष), प्रा. मं. ४ / २२ अप. सू. १३.., #प्रा. मं. ४ / २३
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देव शिल्प)
शिखर का तल विभाग
शिकार की रचना
उरुश्रृंग
उरुश्रृंग की रचना
शिखर निर्माण
१९९
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(देव शिल्प)
२००
शिखर के पृथक भाग
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श्रीवत्स बंग
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उरुश्रृग युक्त शिखर
तल का विभाग
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तल का विभाग
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बाहरी भाग
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नन्दन
नन्दशालि
तल का विभाग
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(देव शिल्प)
(२०१० शिखर की ऊंयाई की गणना के लिये सून्न का माप
मूल कर्ण (पायचा) से शिखर की ऊंचाई सवाई करना हो तो पायवे के विस्तार से चार गुना सूत्र लेवें । यदि शिखर डेढ़ गुना करना हो तो पांच गुना सूत्र लें। यदि शिखर पौने दो गुना करना हो तो पौने सात गुना सूत्र ले। यदि शिखर १, १/३ गुना कर 1 ही तो साढ़े चार गुना सूत्र लें।
इरा राव से मूल कर्ण के दोनों बिदुओं से दो गोल बनायें। इससे कमल की पंखुड़ी जैसा आकार बन जाता है । इसमें अपने इच्छित मान की ऊंचाई में शिखर का स्कंध तथा शेष रही ऊंचाई में आमलसार, कलश आदि बनाना चाहिए।
कला रेखा __मण्डोवर के ऊपर शिखर की रचना की जाती है। शिखर की रचना नीचे के भाग में चौड़ी होती है तथा ऊपरी भाग में अपेक्षाकृत कम होती जाती है। इस शिखर की रचना को निर्धारित करने के लिये प्रथमतः शिखर की चौड़ाई को २५६ रेखाओं में विभाजित करना होता है। ये रेखाएं उत्तरोत्तर झुकती हुई सी बनाई जाती है। ये रेखायें कला रेखा के नाम से जानी जाती है। अब एक तरफ के कोने के दो भाग करें। उसमें प्रथम भाग के चार भाग करें। दूसरे भाग के तीन भाग करें। अब दूसरी तरफ के कोने के भी इसी तरह भाग करें। इसके बाद दोनों प्रतिकर्णों की दो रेखाएं मिला दें। इस प्रकार कुल सोलह रेखाएं हो जायेंगी!
इन सोलह रेखाओं की ऊंचाई में सोलह- सोलह भाग करें। इस प्रकार कुल २५६ (दो सौ छप्पन) रेखाएं हो जायेंगी। ये कला रेखाएं हैं।
शिखर की ऊंचाई की भेदोभव रेखा
मूल रेखा की चौड़ाई से शिखर की ऊंचाई सवाई करें। इस सधाये शिखर में दोनों कोगों के मध्य २५ (पच्चीस) रेखाएं होती हैं। ऊंचाई में ये रेखाएं झुकली हुई सी होती हैं। प्रा. मं. ४ / १३.१४
कला भेदोद्भव रेखा शिखर की ऊंचाई के पांच से उनतीस खण्ड करें। उन खण्डों में अनुक्रम से ऊंचाई में एक एक कला रेखा बढ़ाएं। प्रथम पांच खण्डों में एक से.पांच कला होंगी। पश्चात छठवें रो आगे प्रत्येक में उतनी ही कला रेखा होंगी अर्थात् ६वे में ६, ७३ में ७,८ वें में ८ इत्यादि २९ वें में २९। इतनी कला संख्या स्कन्ध में भी बनाई जाना चाहिये।
प्रथा समचार की त्रिकखंडों में आठ आठ कला रेखा है। पीछे आगे के प्रत्येक खण्ड में चार चार कला रेखा बढ़ाने से अठारहवे खण्ड में अड़सठ कला रेखा होती है। ऊंचाई में जितनी कला रेखा हों उतनी ही स्कन्ध में भी ब-ए, एक भी कम करें को शोभा न होगी।
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(देव शिल्प)
शिखर की कला रेखाएं - २५६ रेखा का चित्र
शिखर की ऊंचाई में अट्ठारह तथा तिरछी सोलह रेखाएं होती है। ऐसा चक्र बनाने से २५६
रखाएं होती हैं।
अब सोलह प्रकार के चारों की त्रिखण्डा कला रेखाएं बनाएं। त्रिखण्ड से एक एक खण्ड दाते हुए अधारह खण्ड तक बढ़ाएं। प्रथम प्रत्येक त्रिखण्ड में समचार की आठ आठ कला रेखाएं हैं।
इस प्रकार सोलह चार हैं
I
+
त्रिखण्डा कलारेखाएं जानने के लिए अग्रलिखित सारणी का प्रयोग करें
२०२
* (चार अर्थात् जिसमें चौथाई चौथाई भाग सोलह बार बढाया जाता है)
प्रा. ४ / ५५ से २० तक
**
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(देव शिल्प
(२०३)
त्रिखंडा कला रेखाओं की सारणी
चारका नाम
रेखाकानाम
प्रथम खण्ड द्वितीय खण्डं तृतीय खण्ड कला की की कला की कला की कला कुल संख्या
१
समचार
८x१८
शशिनी
८
८
८
२४
सपादचार
८x१.१/४:१०
शीतला
१०
१२
३०
९
सार्धचार ८x१,१/२- १२ सौन्यास पादोनद्वयचार ८x१,३/४= १४ शान्ता द्विगुणचार ८४२ - १६ मनोरमा स्पाद द्विगुणचार ८४२,१/४= १८ शुभा सार्ध द्विगुणचार ४२,१/२= २० मनोभया पादोनत्रय चार ८४२,३/४ = २२ वोरा त्रिगुणचार ८४३ = २४ कुमुदा सपाद त्रिगुणचार ८४३, १/४= २६ पद्मशेखरा सार्ध त्रिगुण चार ८४३,१/२ = २८ लालेता पादोन चतुष्क चार ८४३,३/४ - ३० लीलावती चतुर्गुणाचार ८४४ = ३२ त्रिदशा सपाद चतुर्गुणाचार ८४४.१/४ = ३४ . पूर्णमंङला सार्ध चतुर्गुणाचार ८४४,१/२ = ३६ पूर्णभद्रा पादोन पंचकचार ८४४.३/४ = ३८ भद्रांगी
१७.२६
५१
1८८
५४
१४
८ ८
२२ २३
१६
३८ ६९
इस प्रकार चार खंडों की कला रेखाएं चार के भेदों से समझनी चाहिये। सोलह प्रकार के कलाचारों के भेद से प्रत्येक त्रिखंण्डादि में सोलह सोलह रेखाएं बनती हैं। अतः कुल रेखाएं २५६ होती हैं। शिखर की ऊंचाई में जितनी कला रेखा हो, उतनी ही स्कन्ध में भी बनाना चाहिये।
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(देव शिल्प)
लतिन प्रासाद की शिखर निर्माण योजना
२०४
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(देव शिल्प)
( २०५०
ग्रीवा, आमलसार तथा कलशकामान
शिखर की ऊंचाई करने के पश्चात पद्मकोश की जो शेष ऊंचाई में ग्रीवा, आमलसार और कलश बनावें। शिखर के स्कन्ध से पद्मकोश के अन्तिम बिन्दु तक की ऊंचाई के सात भाग करें। उसमें से एक भाग की ग्रीया, डेढ़ भाग का आमलसार, डेढ़ भाग का पद्मछ्त्र (चन्द्रिका) तथा तीन भाग का कलश बनायें। द्विभाग की चौड़ाई वाले कलश का बिजौरा बनावें। कलश के अण्डा का विस्तार (चौड़ाई) प्रासाद के आठवें भाग का रखना चाहिये।
शुक नासिका कामान छज्जा से शिखर के स्कन्ध तक की ऊंचाई के इक्कीस भाग करें। इनमें से ९, १०, ११, १२ या १३ भाग तक की शुकनासिका की ऊंचाई रखें।
छज्जा के ऊपर शुकनासिका की ऊंचाई पांच प्रकार की मानी गई है। उनमें से शुकगासिंका की ऊंचाई के गौ भाग करें। इनमें से १,३,५,७,९ इन पांच भागों में से किसी भी भाग में सिंह स्थान की कल्पना करें। उस स्थान पर सिंह रखा जाता है। **
शुक नासिका के दोनों तरफ शिखर के आकार वाला मण्डप कपिली कहा जाता है। इसे कवली या कोली भी कहते हैं।
___ गर्भगृह के द्वार के ऊपर दाहिनी और बायीं ओर छह प्रकार से कपिली बना सकते हैं। उसकी ऊंचाई में शुक नासिका बन्नायें , यह प्रासाद की नासिका है।
प्रासाद की चौड़ाई के दस भाग करें उसमें दो, तीन या चार भाग की अथवा आधा चौथाई एवं तिहाई इस प्रकार से छह प्रकार के मान से कपिली बनाते हैं। इन छह प्रकार की कपिली के नाम इस प्रकार हैं ##
१. प्रासाद की चौड़ाई के दस भाग में से दो भाग की - अंचिता २. प्रासाद की चौड़ाई के तीन भाग में से दो भाग की - कुंचिता ३. प्रासाद की चौड़ाई के चार भाग में से दो भाग की - शस्या ४. प्रासाद की चौड़ाई के चौथे भाग बराबर की मध्यस्था ५. प्रासाद की चौड़ाई के तीसरे भाग बराबर की
भ्रमा ६. प्रासाद की चौड़ाई के आधे भाग बराबर की
सभ्रमा
माग बराबर की
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* प्रा. ग.४/२३,२४,२५, **प्रा. मं.४/२६-२७, ## अ.सू. १३८ #प्रासादो दशभावाश्च द्वित्रिवेदांशसम्मिताः । प्रासादार्धन पादेन त्रिभागेनाथ निर्मिता ।। प्रा.मं.४/२९
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(देव शिल्प
(२०६) शिखर के नमन (झुकाव) का विभाग शिखर के मूल में दस भाग करें। ऊपर रकध के नौ भाग करें। उनमें से डेढ डेढ़ भाग के दो प्रतिस्थ्य तथा दो दो भाग के दोनों कोने बनाएं । शेष तीन भाग नीचे तथा दो भाग ऊपर के बराबर का भद्र बनायें।
आमलसार मन्दिर के शिखर के स्कन्ध के ऊपर कुम्हार के चाक की आकृति मा गोल कलश आगलसार कहलाता है।
दोनों प्रतिरथ के गध्य की चौड़ाई के मान का गोल आगलसार बनाना चाहिये । इसकी ऊंचाई का मान चौडाई से आधा रखें। ऊंचाई के चार भाग करें। उनमें पौन भाग की ग्रीवा बनाएं। राया भाग का आमलसार बनाएं। एक भाग की चन्द्रिका बनाएं। एक भाग की आमलसारिका बनाएं। आगलसारिका गोल आकृति की होती है।
प्रा. ! ३२-३३ आमलसार का मान लिकालने की अन्य विशि
काधकी चौड़ाई के छह भाग तथा आगलसार की चौड़ाई सात भाग रखें । आमलसार की चौड़ाई के अट्ठाइस तथा ऊंचाई के चौदह भाग करें। ऊंचाई में तीन भाग की ग्रीधा रखें। पांच भाग का अंडक बनाएं। तीन भाग की चन्द्रिका बनाएं। तीन गाग की आमलसारिका रखें । आमलसार के मध्य गर्भ की चौड़ाई में साढ़े छह भाग निकलती आमासारिका रखें। इससे ढाई भाग निकलती चन्द्रिका रखें तथा इसरो पांच भाग निकला अंडक (आमलसार) रखें।
ज्ञान व दी. अ.९ आमलसार के नीचे शिखर के कोण रूप शिखर के आमलसार के नीचे और स्कन्ध के कोने में जिगदेव की प्रतिकृति रखी जाती है।
समिNिO
कलश
आमलसार
- SRAM
- -
मिल
-
आमलसार
ग्रीवा, आगलसार एवं कलश
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(देव शिल्प
(२०७)
सुवर्ण पुरुष आमलसार कलश के मध्य भाग में राफेद रेशम के वस्त्र से टंका हुआ चंदन का पलंग रखें | इस पलंग के रूपर कनया पुरुष (स्वर्ण का प्रासाद पुरुष) रखना और इसके पास घृत से मरा हुआ ताग्न कलश रखें। यह क्रिया शुभ- मुहूर्त में कराये । यह प्रसाद का मर्गरथा-1 (जीव रस्थान ) है |#
सुवर्ण पुरुष का मान प्रथम विधि : एक हास्य की चौड़ाई वाले प्रासाद में कक पुरुष आधे अंचल का बनायें। इसके बाद प्रत्येक हाथ के लिए चौथाई अंगुल बढ़ा। चाहिये ।** ___द्वितीय विधिःप्रासाद की चौड़ाई एक हाथ से पचास हाथ तक की चौड़ाई के लिए प्रत्येक हाथ आधा आधा अंगुल बढ़ाकर बनाएं।
सुवण पुरुष की स्थापना
पापक पुरुष मन्दिर का जीव माना जाता है। इसकी स्थापना का रथा- छजा के प्रवेश में, शिखर के मध्य भाग में, अथवा उराके ऊपर, शुक ||सिका के अतिम स्थान में, वेदी के ऊपर और दो माल के मध्य गर्ग में रखना चाहिये । सामान्यतः इसकी स्थापना आगलसार कलश में की जाती है । यह स्वर्ण, रजत या लान का बनाकर जलपूर्ण कलश स्थापन करें। बाद में उसे पलंग के ऊपर रखें। इसके बाद अपने नाम से अंकित स्वर्ण मुद्रा से भरे चार कलश पलंग के चारों पायों के पास रखें।
इस प्रकार कानका पुरुष की स्थापना चिरकाल तक देवालय निर्माता को सुखी करती है।
#(अप्प. पृ. सू. १५३, *आमलसरच मज्झे चंदनखड़ासु सेना । तस्सुवरि कणयपुरिसं धधप्रतओ य चरकलासा !व.स. २/२१ **जलाइ कमशो पायंगुलतिक यमुरिया अ । कीरइ युद्ध पसार इलाहटाई बापट । व. स. ३/33 प्रमाण सुरुपस्यानलं कुर्याद तर प्रत। त्रिपता कर वामे हादस्य दक्षिणा दुजम् ।। प्रा म ४/३५
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(देव शिल्प
(२०८ कलश कलश मन्दिर के शिखर के हो ऊपरी पा. आणि किया जाता है । शिखर से मन्दिर में शोभा आती है उसे भांति कलश से शिखर में शोभा आती है। कलश गन्दिर के मुकुट की भांति
है। कलशारोहण के उपरांत ही मन्दिर के कार्य को पूर्ण समझा जाता है अतएव इस कार्य को पूरी गंभीरता से करा चाहिये।
कलश की निर्माण सामग्री
कलश का निर्माण उसी द्रव्य से किया जाना चाहिये , जिसे द्रव्य से मन्दिर का निर्माण किया जा रहा हो । काष्ठ का कलश ही लगाना चाहिये । धातु के मन्दिर में धातु का तथा पाषाण के मन्दिर में पाषाण का कलश लगाना चाहिये।
बहुमूल्य धातु यथा स्वर्ण अथवा रत्न का भी कलश लगाया जा सकता है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा (अथवा प्राण प्रतिष्ठा) होने के उपरांत स्वर्ण या रून कलश चढ़ाया जा सकता है।
कलश का आकार
कलश
शिखर के स्कन्ध से पद्मकोश तक के अंतिग बिन्दु तक की ऊंचाई के सात भाग करें।
इसमें एक भाग की ग्रीवा, डेढ़ भाग का आमलसार, डेढ़ भाग के पात्र या चंद्रिका तथा तीन भाग का कलश बनायें। द्विभाग की चौड़ाई वाले कलश का बीजोरा बनाएं।
प्रा. मं ४/३७-३८.३९ कलश की ऊंचाई के मान में उसका सोलहवां भाग बढ़ावे तो ज्येष्ठ मान का कलश होगा। यदि बत्तीसवां भाग बढ़ाएं तो मध्यम मान की कलश की ऊंचाई होगी। जो ऊंचाई आये उसके नौ भाग करें। उसमें एक भाग की ग्रीवा और पीठ, तीन भाग का अंडक (कलश का पेट), दोनों कर्णिका ( एक छल्ली और एक कणी) एक एक भाग की तथा तीन भाग का बीजोरा ऊंचाई में रखें।
बीजोरा के अन भाग की चौड़ाई एक भाग तथा मूल गाग की चौड़ाई दो भाग, ऊपर की कणी की चौड़ाई तीन भाग, आधी पीठ की चौड़ाई दो भाग (पूरी पोठ की चौड़ाई चार भाग) तथा कलश के पेट की चौड़ाई छह भाग है।
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(देव शिल्प)
(२०१०
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THREE-
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पताका
ध्वजा (पताका) पाटली है
ध्वजा का अर्थ पताका या झण्डे से है । ध्वजा से पाटली
तात्पर्य है वस्त्र से निर्मित एक टुकड़ा जो एक डंडे में लगाया जाता है तथा यह ध्वजा अपने धारण करने वाले के अस्तित्व का द्योतक है। यदिध्वजा मंदिर पर लगी है तो मंदिर होने की सूचना देती है । दूर से हो ध्वजा को देखकर उसके आकार, रंग के अनुरुप मंदिर, महल का अनुमान लग जाता है । राजा अथवा राष्ट्रप्रमुख के महल पर लगी ध्वजा उसके सत्तापक्ष के अस्तित्व को प्रकट करती है । मन्दिर के अतिरिक्त राष्ट्र, राजनैतिक दल,
संगठनों को भी अपनी-अपनी ध्वजा होती है। ध्वजा दंड
मन्दिरों में ध्वजा लगा- एक मंगल कार्य भी है क्योंकि ध्वजा अष्ट मंगल द्रव्यों में से एक है। ध्वजा का आरोपण एक ध्वजादण्ड के सिरे पर लगाकर उसे ध्वजाधार से मजबूती से कस दिया जाता है। शिल्पशास्त्रों में ध्वजा, ध्वजादण्ड, ध्वजाधार के पृथक-पृथक प्रमाण दिये गये हैं।
ध्वजा वस्त्र की ही बनाना चाहिये। ध्वजा के आकार
का तांबे या चांदी का पता काटकर उसे ध्वजा के स्थान पर THANI
लगाने की प्रथा वर्तमान में देखी जा रही है किन्तु शास्त्रों में वस्त्र निर्मित ध्वजा का ही उल्लेख प्राप्त होता है। अतएव धातु के पतरे की ध्वजा बनाने से ध्वजा लगाने का उद्देश्य पूरा नहीं होता।
___ध्वजा का आरोपण निश्चित स्थान एवं दिशा में ही ध्वजा, ध्वजाधार एवं पाटली
करना आवश्यक है । यदि वातावरण के प्रभाव से ध्वजा फट जाती है अथवा बदरंग हो जाती है तो इसे शीध्रतिशीघ्र परिवर्तित कर देना आवश्यक है। फटी एवं बदरंग ध्वजा अशुभ लक्षण उत्पन्न करती है।
मन्दिर के शिखर पर शोभा के लिए झण्डा या पताका लगाई जाती है। यह वस्त्र अथवा धातु की निर्मित होती है तथा दूर से ही उपासकों को देवस्थान होने की सूचना देती है। पताका मन्दिर की शोभा के स्थान पर शुभ भी है। अतः जैन एवं वैदिक सभी मन्दिरों में पताका लगाने की परम्परा है।
ध्वजाधार
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(दव शिल्प)
(२१० ध्वजा लगाने के स्थान शिल्प रत्नाकर ग्रन्थकार कहते हैं कि चिन्ह रहित शिखर (कलशहीन) तथा ध्वजहित देताला अहवागी हो जाते हैं। अतापत बिना कलश का शिखर न बनायें तथा बिना पताका (ध्वजा) के मन्दिर न बनायें। * पुर, नगर, कोट, रथ, राजगृह, वापी, कूप, तालाब में भी ध्वजा लगाना चाहिये ताकि दूर से ही इनकी पहचान हो सके।
मंदिर में पताका लगाने का स्थान पताका लगाने का स्थान मन्दिर में शिखर के ऊपरी भाग में निर्धारित किया गया है। वहां पर ध्वजादंड का रोपण करके उसमें ध्वजा लगाना चाहिये।
ध्वजा लगाने का स्थान ईशान दिशा में लगाना चाहिये। चतुर्मुखी प्रासाद में किंचित ईशान दिशा में ध्वज दण्ड लगाना चाहिये। ** ईशान दिशा में लगे ध्वजा से राज्य में वृद्धि तथा राजा प्रजा दोनों को आ-iद होता है।
ध्वजा का आकार एवं निर्माण विधि बारह गुल लम्बी और आठ अंगुल चौड़ी मजबूत कपड़े की पताका बनाना चाहिये।
प्रासाद गण्डन कार ने ध्वजा का मान अन्य रुपेण किया है। ध्वजादण्ड की लम्बाई के मान के समान ध्वजा की लम्बाई करें तथा लम्बाईका आठवां भाग चौड़ाई रखें। यह अनेक वर्ण के वरत्रों की बने तथा अग्रभाग में तीन था पांच शिखाएं बनाना चाहिए -
ध्वजा का कपड़ा श्वेत, लाल, श्वेत, पीला, श्वेत, काला हो तथा फिर उसी क्रम से इन्हीं रंगों वाला हो। इस ध्वजा में चंद्रमा, माला, छोटी घंटिया, तारा आदि नाना प्रकार के चित्र से सजायें 1 23
कपड़े से बनायी गयी ध्वजा सुखदायक, लक्ष्मीदायक, यशकीर्ति वर्धक होती है। राज, प्रजा, बाल, वृद्ध, पशु सभी के लिये समृद्धिकारक होती है।
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*निश्चिन्हं शिखरं दृष्ट्वा प्वजाहीनं सुरालयं । असुशवासमिच्छन्ति ध्वजाही न कारयेत् ।।शि २.५/५०२) निष्पल्लं शिवरं रक्षता ध्वजहीने सुरालये । असुरावासमिच्छन्ति जहीनं न कारयेत् ।(ग्रा. मं. ४ / ४८) पुरेव नगारे कोटे श्ये राजगृहे तथा । वापीकूप तड़ागेषु प्रजाः कार्याः सुशोभनाः (मा. मं. ४/ ४७) *चतुर्मुरटे तटों तक्ष्य प्रामाद सर्व कामदे। ईशान दिशामाश्रित्य प्वजा दण्ड निवेशनम् ।। शि. र५/९८) ईशच्या कुरुते किंचित् स्थपकः स्थापकः सदा । राज्यदः स्थले वृद्धिः प्रजा सौजन्दति ।। हस्तत्रिंभाला विस्तीर्णस्यहस्तायतदैः । वस्त्रोक्तम सुसंलिष्टे प्वज निर्मापयेच्छुभम् ।। . वजादण्ड प्रमाणेन देयष्टांशेन विस्तरे। नानावत्रविचित्राये स्त्रिपंचायशिखोत्तमा ।। प्रा. पं. ४/४६ # सितं २th सितं पित्तं सितं कृष्ण पुजः पुनः । यावत्प्रासाद दीर्घत्वंता उत्संयइटोतकपात ।। रन्द्रार्थचन्द्र मुक्तास्त्रक किंकिणी तारकारिभिः । जाजा भद्रप ठपश्च चित्र पत्र विचित्रवेत् ।।
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(देव शिल्प
(२११)
ध्वजाधार
स्थान निश्चित करने की विधि प्रथम विधि -
शिखर की ऊंचाई के छह भाग करें। ऊपर के छठवें भाग के पुनः चार भाग करें। इनमें से नीचे का एक भाग छोड़कर दाहिने प्रतिस्थ में ध्वजाधार बनायें । अर्थात ऊंचाई के चौबीस भाग करके बाइरावें भाग में ध्वजाधार बनायें। ध्वजाधार का अन्य नाम स्तम्भ वेध है।*
द्वितीय विधि -
शिखर की रेखा के ऊपर के आधे भाग के तीन भाग करें। ऊपर के तीसरे भाग के पुनः चार भाग करें। इसमें नीचे का एक भाग छोड़कर उसके ऊपर के भाग में ध्वजाधार बनाएं। यह ईशान अथवा नेऋत्य कोण में प्रासाद के पिछले भाग में दाहिने प्रतिरथ में दीवार के छटवें भाग जितना मोटा बनायें ।
ध्वजाधार की मोटाई दीवार का छठवां भाग रखें। ध्वजादण्ड को मजबूत रखने के लिए रतम्भका रखी जाती है। उसकी ऊंचाई ध्वजाधार से आमलसार की ऊंचाई तक रखें । उसकी मोटाई प्रासाद के मान के बराबर हस्तांगुल (जितने हाथ का हो उतने अंगुल) रखें। उसके ऊपर कलश रखें। ध्वजादण्ड एवं स्तम्भिका को अच्छी तरह यज्र बन्ध करें।
ध्वजादण्ड की रचना ध्वजादण्ड बढ़िया लकड़ी का बनाना चाहिये जिसमें न तो गांठे हो न ही पीलापन। ध्यजादण्ड सुन्दर एवं गोलाकार बनायें। दण्ड में पर्व या विभागों की संख्या विषण तथा ग्रन्थी (या चूड़ी) राम संख्या में रखना चाहिए। %
*स्वायाः षष्टपे भागे तदश पाटवर्जिते। बजाधारस्तु कर्तव्यः प्रतिरये च दक्षिणे ।। ज्ञान प्र.दी.अ./.९ **स्तम्भ वेधस्तु कर्तव्यो भित्याश्च घष्टमांशकः । घण्टोदय प्रमाणेन स्तम्भिकोदयः कारयेत ।। पाम हस्तांगुल विस्तार स्तस्वाज़ कलशो भवेत् ।ज्ञान प्र.दी.अ ५
सुवृतः सारदारुश्च वन्धिकोटर वर्जितः। पर्वभिषि कार्यः समवन्धि सुखावहः ।। प्रा. मं ४/४४
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देव शिल्प
ध्वजा दण्ड की पाटली
ध्वजादण्ड की मर्कटी या पाटली जिसमें ध्वजा लटकाई जाती है अर्ध चन्द्राकार बनाएं। इसकी लम्बाई का प्रमाण ध्वजादण्ड की लम्बाई का छठवां भाग रखें तथा चौड़ाई लम्बाई से चौड़ाई आधी रखें। चौड़ाई की तीसरा भाग मोटाई रखें। इसके कोने में घंटियां लगाएं तथा ऊपर कलश लगाएं। *
मर्कटी का मान एक और विधि से निकाला जाता है (अ.सू. १४४) ध्वजादंड की लंबाई
पाटली की लंबाई
हाथ में
१ से ५
६ से १२
फुट में
२ से १० फुट
२१२
ध्वजादंड की चौड़ाई का सात गुना ध्वजादंड की चौड़ाई का छह गुना ध्वजादंड की चौड़ाई का पांच गुना
१२ से २४ फुट
२६ से १०० फुट
१३ से ५० पाटली की चौड़ाई का मान पाटली की लम्बाई के तीसरे भाग के बराबर रखें।
ध्वजादण्ड निर्माण करने की काष्ठ
ध्वजा दण्ड निर्माण करने के लिए बांस, अंजन, महुआ, शीशम अथवा खैर की लकड़ी का प्रयोग करें।
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ध्वजादण्ड की ऊंचाई का मान निकालने की विधियां
१.
प्रासाद की खर शिला से कलश के अग्रभाग तक की ऊंचाई के एक तिहाई के बराबर मान का ध्वजादण्ड ज्येष्ठ मान का है। इसमें आठवां भाग कम करें तो मध्यम मान आयेगा। यदि चौथा भाग कम करें तो कनिष्ठ मान का ध्वजादण्ड होगा। #
* दण्ड दीर्घषडंशेन मर्कदयर्धेन विस्तृता ।
अर्धचन्द्राकृतिः पाश्र्वेषण्टो कलशस्तथा ।। प्रा. मं ४/४५ ** वंशमयोऽथ कर्तव्यः आंजनो मधुकस्तथा ।
सीसपः खादिरश्चैव पिण्डश्चैव तु कारयेत् || शि. २.५/८२ #दण्ड: कार्यस्तृतीयांशः शिलातः कलशान्तकम् । मध्यष्टशेन हीनोऽसौ ज्येष्ठ पादोन कव्यसः । प्रा. मं. ४/४१ ##प्रासाद व्यास मानेन दण्डोज्येष्ठः प्रकीर्तितः ।
मध्यी होनी दशांशन पंचमांशेन कन्यसः । प्रा. मं. ४/४२
२.
प्रासाद की चौड़ाई के बराबर ध्वजादण्ड की लम्बाई रखें। यह ज्येष्ठ मान है। इसका दसवां भाग कम करें तो मध्यम मान तथा पांचवां भाग कम करें तो कनिष्ठ मान होता है। यही मत अधिक प्रचलित भी है। ##
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देव शिल्प
२१३
३.
गर्भगृह था शिखर के नीचे के पायचे के चौड़ाई के बराबर लम्बा ध्वजादण्ड बनायें। यह ज्येष्ठ मान है। उसका बारहवां भाग कम करें तो मध्यम मान आयेगा। यदि छठवां भाग कम करें तो कनिष्ठ मान आयेगा । *
४.
प्रकाश वाले अर्थात् बिना परिक्रमा वाले मन्दिर का ध्वजादण्ड मन्दिर की चौड़ाई के बराबर लम्बा बनायें। परिक्रमा वाले मन्दिर (अथात् सांधार) मन्दिर का ध्वजादण्ड मध्य मन्दिर के बराबर अर्थात् गर्भगृह के दोनों तरफ दीवार तक की चौड़ाई के बराबर बनायें। परिक्रमा और उसकी दीवार को छोड़कर सिर्फ गर्भगृह की दीवार गिनें !'
**
ध्वजादण्ड की चौड़ाई का मान
एक हाथ (२ फुट ) चौड़ाई वाले प्राशाद के ध्वजादण्ड की चौड़ाई पौन अंगुल / इंच रखें। बाद में पचास हाथ (१०० फुट) तक प्रति हाथ ( २ फुट ) आधा-आधा अंगुल / इंच बढ़ाएं। # शिखर कलश से ध्वजा की ऊंचाई का फलाफल
शिल्पशास्त्रों में शिखर पर लगाई जाने वाली पताका की ऊंचाई का एक निश्चित अनुपात बताया गया है। शिखर के सबसे ऊपर के भाग में कलश आरोहित किया जाता है । शिखर पर लगाई जाने वाली पताका कलश से भी ऊंची लहराना चाहिये। जितनी अधिक ऊंची ध्वजा होगा उतना ही श्रेष्ठ परिणामों की प्राप्ति होगी।
शिखर कलश से ध्वजा की ऊंचाई के अनुरूप फल का उल्लेख अग्रलिखित सारणी में उद्धृत है $शिखर कलश से ध्वजा की ऊंचाई
फल
हाथ में
फुट में
9
२
२
४
३
४.
६
८
१०
१२
·
निरोगता
पुत्रादि की वृद्धि सम्पत्ति वृद्धि
राज सुख, राज्य वृद्धि
सुभिक्षता वृद्धि
* मूल रेखा प्रमाणेन ज्येष्ठः स्वाद् दण्डसंभवः । मध्यमो द्वादशांशोनः षहंशोनः कलिष्टकः । अ. सु. १४४ ** दण्डः प्रकाशे प्रासादे प्रासादकर संख्यया सांधकारे पुनः कार्यो मध्य प्रासाद मानतः ॥ विवेक विलास १/१७९ # एक हस्ते तु प्रासादे दण्डः पादौनमंगुलम । कुर्यादधौगुला वृद्धिर्यावत्पंताशदस्तकम् ।। प्रा.मं. ४ / ४३
# हत्थे पासाए दंड पडणंगुलं भवे पिंडं । अमंगुलवुद्द्दिकमे जाकर पास कन्दुए। व. सा. ३/३४ $ आशाधर प्रतिष्ठा सारोद्धार
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(देव शिल्प
ध्वजा पर देवता की प्रतिष्ठा विधि ध्वजाले हा" मशिन वर्मा के उपरानी जाने वाली प्रमुख धार्गिक क्रिया है। मन्दिर में जिन विम्ब की स्थापना के उपरान्त विधिपूर्वक ध्यजा का आरोहण किया जाता है। सर्वप्रथम सर्वान्ह यक्ष की पूजा करें -
ॐ ही सर्वान्ह यक्ष सहित सर्वध्वज देवते एहि एहि संतोषट तिष्ठतिष्ट ठः ठः
अत्र सन्निहितो भव वषट् इदं स्नपनपर्चनम् च गृहाण गृह।।।
इस मन्त्र से आवाहन कर स्थापना करें। सर्वान्ह यक्ष की अष्ट द्रव्य से पूजा करें। इसके लिये निम्न विधि है
सर्वोषधि सहित नौ कलशों की स्थापना करें। जल शुद्धि मन्त्र से जल को मन्त्रित करके सर्वान्ह यक्ष की मूर्ति के समक्ष अथवा ध्वज पट के समक्ष दर्पण स्थापन कर : गंध, पुष्प, गंगल, उपकरण आदि स्थापन करें। ध्वज पट के दर्पण में प्रतिबिम्ब का उपरोक्त मन्त्र से अभिषेक करें। साथ में सर्वान्ह यक्ष की प्रतिमा का पंचामृत अभिषेक करें। पश्चात आवाहन आदि कर मन्त्र से पूजा करें। फिर मुख, वस्त्र, नयनोन्मीलन, विलेपनादि कर ध्वजारोहण करना चाहिये।
नयनोन्मीलन मन्न ॐ ही अहं नमः णमो अरिहंताण सर्वान्ह यक्षाय धर्मचक्र विराजिताय चतुर्भुजाय श्यामवर्णाय मजायिकढ़ाय सर्वजन नयन आल्हादन कराय नयनोन्मीलनमहं करोमि स्वाहा।
इस मन्त्र से ध्यज पट पर चित्रित सर्वान्ह यक्ष का नयनोन्मीलन करें। स्वर्ण शलाका को दोनों आंखों पर फेरें।
इस प्रकार ध्वजा पर देवता की प्रतिष्ठा राम्पन्न होती है।
अब तीन कोकिला से संयुक्त बांरा दण्ड को दर्भमाला से बेष्टित करके अशोक, आम आदि के पत्ते बांधे। फिर ध्वजदण्ड की ठोक प्रकार अर्चना करके ध्वजारोहण के गड्ढे में शाल्यादि डालकर अर्ध चढ़ाये। नाना वाद्यों के वादन के साथ ध्वजा को दण्ड में बांधकर ध्वजारोहण कर देखें। सभी लोग णमोकार मन्त्र का पाठ करें।
प्रतिष्ठाचार्य निम्न लिखित मन्त्र पढ़कर गन्दिर या वेदिका पर ध्वजारोहण करायें।
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(देव शिल्प
(२१५)
ध्वजारोहण मन्न ॐ मो अरिहत्ताणं स्वस्टि भद्रं भवतु सर्व लोकस्य शांतिः भवटु स्ठाः। विशेषः मन्दिर पर ध्वज चढ़ाने के उत्सव में सम्मिलित होना धुग्यवर्धक कार्य है।
ध्वजा प्रथम फड़कने का फलाफल जिस समय ध्वजादण्ड पर ध्वजा चढ़ाई जाती है, उसके उपारांत वायु के प्रवाह से वह ध्वजा फड़फड़ाती है। ध्वजा के प्रथमतः फड़फड़ाने से शुभ-अशुभ लक्षणों के संकेत मिलते हैं । यदि उत्तर की ओर से हवा दक्षिण की ओर चलेगी तो यह दक्षिण की ओर फड़केगी । दक्षिणी तीनों ही दिशाओं में प्रथम फड़कना अशुभ माना जाता है । अग्रलिखित सारणी में दिशानुवार फल दृष्टिगोचर
होते हैं -
ध्वजा प्रथम फड़कने की दिशा पूर्व उत्तर पश्चिम/ बायव्य/ ईशान आग्नेय / दक्षिण/ नैऋत्य
फल सर्वकामना सिद्धि आरोग्य, संपदा शुभ , वृष्टि शांति कराना चाहिये । दान पूजा करें।
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*यावंतः प्राणिन के ते लया कुर्युप्रदक्षिणाम् । टावंत प्रान्पुर्व त्यैव क्रमेण विम्ल पदम ।। १५ आशाधर प्रतिष्ठा सारोद्धार **मुक्त प्राचीनते केतौ सर्वकामान वाप्नुयात । उत्तरांगते तस्मिन स्वस्थारोग्यंच सम्पदः ।। १६ यदि पश्चिमतो यालि दायव्ये वा दिशाश्रये । (शाओवाततो दृष्टिकर्धात केत शभानिसा ।। १७ अन्येस्मिन दिग्विभामेतु केती मरुद्भवशात्। शांतिकं तत्र कर्तव्यं दान पूजा विधानतः ।। १८
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(देव शिल्प)
(२१६)
नागरजाति के मंदिर का आधार एवं शिखर दर्शन
पारिभाषिक शब्द सूचक
बालश
बोजपूरी आमलसारेका
til spy आमलक
ग्रीवा
स्कन
भूगि आगलक
HDी शुकनकि
I-AR
1222
कर्णरथा
आस-1 पर
उरुश्रृंग
...
Byai
पेटिका
::
राजरोन जसरकारका स्त पट्टिका
PG
तिलक
कर्णण REL
HALIKHE परंडिका
कोन गार अतस्प
संशा
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ज्या
मध्यबंधः
अधिष्ता।
कपोत छाय
अंतरपत्र ग्रर पट्टी
कर्णेका जाद कुंग
पोठ
मिहOM
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लक्ष्मण मन्दिर खजुराहो - नागर शैली
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कुलपाक जी मन्दिर के शिखर का रेखाचित्र (आन्ध्रप्रदेश)
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लिंगराज मंदिर, भुवनेश्वर
शिखर योजना
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कलिंग प्रासाद का शिखर
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वेदी प्रकरण
गर्भगृह में देवमूर्ति की स्थापना थेदी पर की जाती है। यह एक ढोरा चबूतरानुमा निर्माण होता है। इसे पबासन भी कहते हैं। इसका प्रमाण शास्त्रानुकूल तथा स्थापित की जाने वाली प्रतिमा एवं द्वार के मान के अनुकूल होना आवश्यक है। वेदी पर प्रतिमाओं की स्थापना एक अथवा तीन कटनियों में की जाना चाहिये।
___ गर्भगृह में परिक्रमा का स्थान छोड़कर जिन बेब (प्रतिमा) को स्थापित करने के लिये पोन वेदी का निर्माण किया जाना चालिये गर्भगन में १, १/२ हाथ ऊंची वेदिका बनाना चाहिये।
वेदी का आकार चार प्रकार से किया जा सकता है :-* १. चतुष्कोण वेदी २. कमलाकृति वेदी ३. अर्धचन्द्राकृति वेदी ४. अष्टकोण वेदी
चतुष्कोण वेदी (वर्गाकार अथवा समचतुरस वेदी)
इसमें लम्बाई एवं चौड़ाई बराबर होना चाहिये । प्रतिष्ठित जिन प्रतिमा की स्थापना के लिये यह सर्वश्रेष्ठ है।
कमलाकृति वेदी- इसे पद्मिनी वेदी भी कहा जाता है। इसमें वेदी को खिले हुए कमल की आकृति का बनाया जाता है तथा उस पर प्रतिमा स्थापित की जाती है। विशेष रुप से इस वेदी का प्रयोग तीर्थंकर प्रभु के ज्ञान कल्याणक के समय किया जाता है।
अर्धचन्द्राकृति वेदी - इसे श्रीधरी वेदी भी कहा जाता है। इस वेदी को अर्धचन्द्र का आकार दिया जाता है जिसका समतल भाग ऊपर रहता है। इस येदी का प्रयोग तीर्थंकर के जन्म कल्याणक के समय किया जाता है।
अष्टकोण वेदी- इसे सर्वतोभद्र वेदी भी कहा जाता है। इसमें आठ कोण, आठ भुजाएं होती हैं। आठों भुजाओं का मान समतुल्य होता है। इस वेदी का प्रयोग विशेष रूप से तीर्थंकर के दीक्षा कल्याणक के समय किया जाता है।
वेदी का निर्माण करते समय अत्यधिक सतर्कता रखना अत्यंत आवश्यक है। किंचित भूल भी अत्यन्त विपरीत परिस्थिति का निर्माण कर सकती है। ---------------------- *वेदी चतुर्विघा तत्र चतुरस्त्रा व पधिनी. श्रीधरी सर्वतोभद्रा दीक्षासु स्थापनादिषु । चतुरवा चतुःकोणा वैदी सौख्य फलप्रदा केचिदैत्य प्रतिष्ठायां पग्रिजी पद्मसंजिभा ।!
आ. जयसेन प्रतिष्टा पाट श्लोक २२८/२२९
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( शिल्प
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TEMSELE
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वेदी
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(देव शिल्प)
वेदी निर्माण करते समय ध्यान रखने योग्य बातें१. वेदी पोली न बनायें। वेदी ठोस हो बन्गट। २. वेदी में एक या तीन कटनियों का ही निर्माण करें। ३. दो अथवा चार या अधिक कटनियां नहीं बनायें। ४. मूल नायक प्रतिमा बेदी के ठीक मध्य में स्थापित करें। ५. गूल-गायक की प्रतिमा से बड़े आकार की प्रांतेना बेटी पर स्थापित न करें। ६. मूल नाराक प्रतिमा का चिन्ह स्पष्टतया वृष्टिगोचर हो ।
वेदी में मूल-गायक प्रतिमा के अतिरिक्त प्रतिमाएं यदि स्थापित की जाती हैं तो उनमें पर्याय अन्तर रखना अत्यंत आवश्यक है। एक प्रतिभा से दूरारी प्रतिमा के मध्य में प्रतिमा के मान रो
आधी दूरी का अन्तर रखना आवश्यक है। ८. प्रतिभा दीचाल से चिपकाकर न रखें तथा वेदो दीवाल से चिपकाकर न बनाएं। ९. स्थापित मूर्तियां पृथक-पृथक हों। आपस में संघर्ष न हो। १०. भूलनायक प्रतिमा पूरे परेिकर एवं यक्ष यक्षिणी सहित ही बनायें । ११. यदि यक्ष- यक्षिणी की प्रतिमाएं मूल वेदी से पृथक स्थापित करना हो तो मूल वेदी के दाहिनी और
यक्ष की प्रतिमा की वेदी स्थापित करना चाहिये । मूलनायक के बायें ओर यक्षिणी की प्रतिमा
स्थापित करें। १२. मूल नायक प्रतिमा यदि अचल यंत्र से स्थापित की गई हैं तो उसे किंचित भी विस्थापित नहीं
करना चाहिये। १३. कोई भी वेदी दीवाल से सटाकर न बनायें। १४. परिक्रमा के लिये उपयुक्त स्थान अवश्य रखें। १५. प्रतिमा के परिकर में भामंडल के स्थान पर यंत्र नहीं लगाना चाहिये। १६. प्रतिमा के नीचे अथवा चिन्ह के रधान को ढांककर यंत्रों को कदापि न रखें। १७. यथासंभव प्रतिमा की वेदी समचतुरय वर्गाकार ही निर्माण करें। ५८. गोल वेदी अथवा कोगे कटी हुई वेदी कदापि न बनवायें। १९. मूलनायक प्रतिमा पदमासनस्थ आकृति में करना चाहिये। २०. मूलनायक प्रतिमा तीर्थंकर प्रशु की ही बना-।। चाहिये। २१. किरा तीर्थधार की प्रतिगा मूलगायक बनाना है, इसके लिये मन्दिर निर्माता तथा तीर्थकार
के जन्म नक्षत्रादि का गुण मिलान अवश्य करना चाहिये। २२. प्रत्येक वेदी पर कलश स्थापित करना अत्यंत आवश्यक है। २३. वेदियों पर ध्वजा अवश्य ही लगायें। २४. वैदियों पर लगायी गई तोरण इतनी बड़ो न हो कि उससे भीतर स्थापित प्रतिमाएं ढक जायें। २५. यदि देदी लम्बाई में चौड़ाई से किंचित भो लन्यी हो तो दोषकारक है। सगचतुरस वेदी हो
सर्वश्रेष्ठ है।
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(देव शिल्प
२२४) पीठिका पीटिका का तात्पर्य है हमेशा बैठा जा सकगे वाला आसन । राजा महाराजा सिंहासन पर बैठते हैं। तीर्थकर प्रभु कमलासन पर बैठते हैं। द्रविड़ ग्रन्थों में नौ प्रकार की पीठिकाओं का उल्लेख
१. भद्र पीठ २.पदम पीठ ३, महान्बुज पोठ ४. वज्र पीठ ५. श्रीधर पीठ ६.पीठ पद्म ७. महावज ८. सौग्य ९. श्रीकाम्य दक्षिण एवं उत्तर दोनों क्षेत्रों में भद्रपीठ, पद्मपीठ तथा महान्बुज पीठ का निर्माण देखा जाता है।
प्रसंगवश यह ध्यान रखें को पीठिका एवं वाहन पृथक-पृथक हैं। हनुमान के लिए ऐसा नहीं है क्योंकि वे श्रीराम के चरणों के समीप सेवक मुद्रा में बैठते हैं। खड़े हुए रुप में वे एक हाथ में गदा तथा दूरारे में पर्वत उठाते हैं। प्रमाण मुद्रा में भी हनुमान की प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। बालकृष्ण का कोई आसन नहीं है किन्तु राजा रुप में कृ| सिंहासन पर बैठते हैं।
भद्रपीठ
महाम्बुज पीठ
CHIKOTABHI
पद्मपीठ
'सिंहासन (पीठिका
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देव शिल्प
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वेदी की सजावट
वेदी पर तीर्थकर प्रभु की प्रतिमा की स्थापना करने के उपरांत वेदी की सजावट भी विभिन्न रूपों में की जाती है। वेदो में नीचे अष्ट मंगल, अष्ट प्रातिहार्य, तीर्थंकर की माता के सोलह स्वप्न, अभय दृश्य (जिसमें सिंह पूर्वी एक साथ जल पीते हैं) इत्यादि दृश्यों की चित्रकारी अथवा बेलबूटे आदि रुपक बनाना चाहिये।
सर्वज्ञदेव के पाद पीठ में नवग्रह की स्थापना करना चाहिये। जिन मन्दिर के गर्भगृह की वालों के अन्दर के भाग में तीर्थो की रचना की चित्रकारी, तोर्थकरों एवं महापुरुषों की जीवन गाथा के अंश की कलाकृतियां कराना चाहिये। चित्रकारी में युद्ध के दृश्य, क्रूर दृश्य, दानवों के चित्र, कंटीली झाड़ी, उजाड़ गांवों के चित्र कदापि न बनायें। संसार मधु बिन्दु दर्शन, षट्लेश्या दर्शन इत्यादि धर्मवर्धक दृश्यों की चित्रकारी से वेदी की शोभा बढ़ती है साथ ही उपासकों को सत् प्रेरणा भी मिलती हैं।
वेदी प्रतिमाओं की ऊंचाई का मान
द्वार की ऊंचाई का आठ, सात या छह भाग करें। ऊपर का एक भाग छोड़ दें। शेष भाग के पुनः तीन भाग करें। उसमें ऊपर के दो भाग की प्रतिमा बनायें तथा एक भाग की पौठ बनायें ।
विशिष्ट जैनेतर प्रतिमाओं के लिये मान
द्वार की ऊंचाई का आधा भाग के बराबर शयनासन प्रतिभा की पीठ बनायें । जलशय्या चाली प्रतिमा का मान द्वार की चौड़ाई से अधिक न रखें।
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(देव शिल्प) मंदिर में स्थापित की जाने योग्य प्रतिमा का आकार
शित पशास्त्र में गृह दैलमालय एवं मंदिर में पूजनीय प्रतिमाओं के आकार के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश दिये हैं। यह विवेक रखना अत्यंत आवश्यक है कि किस आकार की प्रतिमा मन्दिर में स्थापित की जाये। एक हाथ से छोटे आकार के मन्दिर में स्थिर प्रतिमा रखने का निषेध किया है। इस स्थिति में केवल चल प्रतिमा ही रखना चाहिये । प्रतिमा के आकार की गणना मन्दिर के एवं द्वार के आकार के अनुरुप की जाती है।
_गृह चैत्यालय में एक से बारह अंगुल तक की प्रतिमा की ही पूजा हेतु स्थापना करना उचित है। इससे अधिक आकार की प्रतिमा मन्दिर में ही पूजी जानी चाहिये । चूँकि विषमांगुल की प्रतिमाएं ही पूजा में शुभफल देती हैं अतः ग्यारह अंगुल तक की ही प्रतिमा गृह मन्दिर में रखना चाहिये।
ग्यारह अंगुल से नौ हाथ तक की प्रतिमाओं की पूजा मन्दिर में ही करना चाहिये । ग्रन्थांतर में सोलह हाथ तक की प्रतिमा मन्दिर में पूजने योग्य कही गई है।
दस हाथ से छत्तीरा हाथ तक की प्रतिमा पृथक-पृथक एवं बिना शिखर के स्थापित की जानी चाहिये। छत्तीस हाथ रो पैंतालीस हाथ तक की प्रतिमा ऊंचे चबूतरे पर ही स्थापित की जानी चाहिये।
तात्पर्य यह है कि वृहदाकार प्रतिमाओं के अनुपात में मन्दिरों का निर्माण संभव नहीं है अतएव इस भांति की प्रतिमाएं खुले में ही स्थापित की जाती हैं। दक्षिण भारत में स्थित श्रवणबेलगोला की गोमटेश्वर बाहुबली की ५७ फुट ऊंची प्रतिमा सारे विश्व में विख्यात है। र्यादे इतनी विशाल प्रतिमा को आच्छादित करके मन्दिर बनाया जाये तो प्रमाण के अनुकूल न होने के कारण सुफलदायी नहीं होगा।
अतएव स्थापित की जाने वाली प्रतिमा का आकार मात्र भक्ति के अतिरेक में निश्चित न करें। बल्कि शास्त्र की आज्ञा के अनुरूप ही करें। रुप मंडन १/७-८-९, मत्स्य पुराण २५७-२३
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%2जैक हस्तादितोऽन्य ने प्रासादें स्थिरता नयेत ! स्थिरं जा स्थापयेत् पोहे, गृहीणां दव.कब्दियत् ।।
शिल्पश्मृति बा.वि. अ.६/१३० *आस्भकांगुला व पर्यन्तं द्वादशांगुला। गृहेषु प्रतिमा पूज्या नाधिका शरयते ततः ।। ॐ. मं. १/७ तच जवहस्तान्त पूजनीया सुरालवे । दशहस्तादितों वाऽर्चा प्रासदिन विनाऽर्चयेत् ।। रु. मं. १/८ दशादि करषष्ठया (करवृदया) तु षटत्रिंशत् प्रतिमा (:) पृथक। वाणवेद करान् याचद चतुष्का (चतुष्पद्याम्) पूजयेत् सुधीः ।। १/९ रु.मं. आषोडशा तु प्रासादे कर्तव्या माधिका ततः।। मत्स्य पुराण. २५७/२३
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(देव शिल्प)
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जिन प्रतिमा प्रकरण
जिन प्रतिभा का अर्थ है जिनेन्द्र प्रभु की प्रतिमा या मूर्ति जो कि उनके स्वरुप का आभास कराने के लिए स्फटिक, पाषाण, धातु, काष्ठ आदि द्रव्यों से निर्मित की जाती है। प्रतिमाएं कृत्रिम रूप से वीतराग प्रभु की छवि का आभारा कराकर हमें वीतराग प्रभु की स्तुति करने के लिए निमित्त कारण हैं। प्रतिमा अरिहन्तादि पांचों परमेष्ठियों की बनाई जाती है। प्रतिमा का निर्माण शास्त्रों के निर्देश के अनुरूप होना चाहिये । यदि शास्त्र प्रमाण के अनुकूल प्रतिमा नहीं बनाई जायेगी तो विभिन्न प्रकार के अनिष्ट होने का अवसर बना रहता है।
अरिहन्त की प्रतिमा पूरे परिकर से सहित होना चाहिये। यक्षादि तथा अन्य समवशरण की विभूतियों से सहित होना चाहिये। सिद्ध प्रतिमा बिना परिकर की होती है। अरिहन्त प्रतिमा के साथ अष्ट प्रातिहार्य एवं मंगल द्रव्य अवश्य ही रहना चाहिये।
सामान्यतः जिन प्रतिमाएं एक ही द्रव्य की पूर्ण वीतराग निर्मित होती हैं। किन्तु सुमेरु पर्वत के भद्रशाल वन में स्थित चार चैत्यालयों में रंगीन मणिगय प्रतिमा होती है। पाण्डुक वन में भी ऐसी ही प्रतिमाएं होती हैं।
जिन प्रतिमा चूंकि अरिहंतादि परमेष्ठी की प्रतिकृति है अतः इसे जिन बिन्ब भी कहा जाता है। प्रतिमाओं को चैत्य नाम से सम्बोधित किया जाता है। पृथक रूप से नव देवताओं की कोटि में जिन चैत्य को देवता माना गया है। अतः न केवल परमेष्टो वरन् उनकी प्रतिमा भी पूज्य है तथा उनके रहने का स्थान अर्थात् चैत्यालय (जिनालय) भी पृथक देवता है तथा पूज्य है।
जिनेन्द्र प्रतिमाओं का निर्माण एवं माप शास्त्रोक्त विधि से ही किया जाना चाहिये । प्रतिमा निर्माण के उपरांत जब तक पूर्ण विधान पूजन विधि तथा दि. जैन साधु / आचार्य के द्वारा सूरिमन्त्र से प्रतिमा की प्रतिष्ठा नहीं हो जाती तब तक प्रतिमा की पूजा नहीं की जाती।
शिला परीक्षा आदि शास्त्रोक्त विधियों के द्वारा परीक्षित शिला से ही जिन प्रतिमा का निर्माण करना चाहिये ।
जिन प्रतिमा स्थापना निर्णय राशि मिलान का सुझाव
जिन प्रतिमा का निर्माण प्रारम्भ करने से पूर्व पूज्य आचार्य परमेष्ठी एवं गुरुजनों रो आशीर्वादपूर्वक अनुमति लेना चाहिये । तदुपरांत उनसे बेदी एवं मन्दिर के आकार के अनुरूप मूर्ति का आकार, आसन, वर्ण तथा किन तीर्थंकर की प्रतिमा स्थापनकर्ता की राशि, नवांश तथा तीर्थंकर की राशि का मिलान एवं नगर की राशि का मिलान कर आचार्य से उपयुक्त दिशा निर्देश ग्रहण करना चाहिये। इसके उपरांत ही जिन प्रतिमा के निर्माण का समय, शिला परीक्षण एवं शिला लाने जाने का समय निर्धारित करना चाहिये। यह विशेष ध्यान रखें कि बिना गुरु आचार्य की अनुमति एवं आशीर्वाद के स्वतः जिन प्रतिमा एवं मन्दिर निर्माण का कार्य नहीं करना चाहिये ।
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(देव शिल्प
प्रतिमा निर्माण के द्रव्य
सूर्यकान्त मणि, चन्द्रकांत तथा सभी रत्न, मणियों की प्रतिमाएं सर्वगुणयुक्त होती हैं। सुवर्ण, रजत, तांबा धातुओं की प्रतिमा बनाना श्रेष्ठ है। पीतल की प्रतिमा भी बना सकते हैं किन्तु अन्य मिश्र धातु जैसे कांसा आदि की प्रतिमाएं नहीं बनाना चाहिये ।
यदि काठ की प्रतिमा बनवाना इष्ट हो तो श्री पर्णी, चन्दन, बेल, कदम्ब, पियाल, गूलर और शीशम की काष्ठ ली जा सकती है। इन वृक्षों की जिस शाखा से प्रतिमा बनाना हो, वह निर्दोष तथा वृक्ष पवित्र भूमि में उगा हुआ हो ।
पाषाण में संगमरमर अथवा ग्रेनाइट की प्रतिमा बनाना श्रेष्ठ है। निर्दोष दाग रहित श्वेत संगमरमर की प्रतिमा की आभा निश्चय ही उपासक को दर्शन मात्र से प्रफुल्लित करती है।
इतना अवश्य ध्यान रखें कि धातु निर्मित प्रतिमाओं के लिए उपयोग की जाने वाली धातु नई हो। पुराने बर्तनों आदि को गलाकर प्रतिमा कदापि न बनवायें। यह महा अशुभ तथा अनिष्टकारी है। विभिन्न द्रव्यों की प्रतिमा बनाने का फल
प्रतिमा निर्माण द्रव्य लकड़ी या मिट्टी
मणि रत्न
स्वर्ण
रजत
ताम्र
पाषाण
परिणाम
आयु, श्री, बल, विजय प्राप्ति
सर्वजन हितकारी
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पुष्टि लाभ
यश लाभ
सन्तति लाभ
अत्यधिक भूमि लाभ
वृहत्संहिता ४ / ५ पृ४००
पोली एवं कृत्रिम द्रव्यों की प्रतिमा का निषेध
वर्तमान युग में अनेकों कृत्रिम द्रव्यों की प्रतिमायें निर्मित की जाने लगी हैं। प्लास्टिक, एक्रिलिक, नायलोन आदि की प्रतिगायें या आकृतियां बनने लगी हैं। प्लास्टर ऑफ पेरिस की भी मूर्तियाँ आजकल सामान्यतः देखने में आती हैं। प्लास्टिक/एक्रिलिक प्रतिमा में नाइटलैम्प लगाकर उसे सजावट के काम में लाने लगे हैं। टाइल्स में भी प्रतिमायें या भगवान की फोटो लगाने लगे हैं। ये सभी फोटो अथवा प्रतिमायें पूजा के लिए उपयुक्त नहीं हैं। ये अशुभ एवं अनिष्टकारक हैं ।
धातु की प्रतिमा ठोस होना आवश्यक है। उसमें पोलापन किंचित भी नहीं होना चाहिये । अन्यथा भीषण संकटों का सामना करना पड़ सकता है। पोली मूर्तियों की पूजा करना उचित नहीं है। एक्रिलिक, प्लास्टिक आदि की मूर्तियां सामान्यतः पोली ही बनती है। चांदी, सोना अथवा पीतल की भी पोली मूर्तियों की न तो पूजा करना चाहिये, न ही इनकी प्राण प्रतिष्ठा करानी चाहिये। पोली मूर्तियों की पूजा प्रतिष्ठा अत्यंत अनिष्टकारक है। प्लास्टिक अथवा कृत्रिम रसायनों से निर्मित ठोस प्रतिमा भी पूज्य नहीं है। केवल शुद्ध धातु अथवा काष्ठ अथवा पाषाण की शास्त्रोक्त प्रतिमायें ही पूजा प्रतिष्ठा के योग्य हैं।
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देव शिल्प
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गर्भगृह में प्रतिमा का प्रमाण
गर्भगृह की महिमा उसमें स्थित जिन प्रतिमा के कारण है। गर्भगृह की चौड़ाई इस प्रकार रखें कि चौड़ाई के दस भाग में गर्भगृह बनायें तथा दो दो भाग की दीवार बनायें ।
गर्भगृह की चौड़ाई के तीसरे भाग के मान की प्रतिमा बनाना उत्तम है। इस मान का दसवां भाग घटा देवें तो मध्यम मान की प्रतिमा का मान आयेगा। यदि पांचवां भाग घटा देवें तो कनिष्ठ मान आयेगा। *
द्वार के अनुपात में प्रतिमा के आकार की गणना
यह गणना अनेक प्रकार से की जाती है। माप उत्तरंग से नीचे तथा देहली के ऊपर का गणना की विधियां इस प्रकार हैं।
लेना चाहिये
-
१.
द्वार की ऊंचाई के आठ या नौ भाग करें। ऊपर का एक भाग छोड़ देवें। शेष भाग में पुनः तीन भाग करें। उनमें से एक भाग की पीठिका तथा दो भाग की प्रतिमा बनाना चाहिये | **
२. द्वार की ऊंचाई के बत्तीस भाग करें। उनमें १४, १५, १६ भाग के मान की प्रतिमा खड्गासन में बनायें | पद्मासन मूर्ति / बैठी मूर्ति १४, १३, १२ भाग की बनाना चाहिये ! # क्षीरार्णव अ. ११ एवं वसुनन्दि श्रावकाचार का मत
३.
द्वार की ऊंचाई के आठ भाग करें। ऊपर का एक भाग छोड़ दें। शेष सात भाग के तीन भाग करें। उनमें दो भाग की प्रतिमा तथा एक भाग की पीठ (पबासन) बनायें ।
४. द्वार की ऊंचाई के सात भाग करें। ऊपर का एक भाग छोड़ दें। शेष छह भाग के तोन भाग करें। दो भाग की प्रतिमा तथा एक भाग की पीठ रखें।
५.
द्वार की ऊंचाई के छह भाग करें। ऊपर का एक भाग छोड़ दें। शेष पांच भाग. के तीन भाग करें। ऊपर के दो भाग की प्रतिमा तथा एक भाग की पीठ बनायें। यह कायोत्सर्ग प्रतिमा का मान है। प्रासाद की चौड़ाई का चौथाई भाग प्रमाण प्रतिमा रख सकते हैं।
६.
७.
द्वार की ऊंचाई के आठ भाग करें। उसमें ऊपर के एक भाग को छोड़ देवें। नीचे के सातवें भाग के पुनः आठ भाग करें। इसके सातवें भाग में भगवान की दृष्टि रखना चाहिये। अर्थात् द्वार की ऊंचाई का चौसठ भाग करके उसके पचपनवें भाग में भगवान की दृष्टि रखना चाहिये। ## द्वार की ऊंचाई के नौ भाग करें। इसके सातवें भाग में पुनः नौ भाग करें। सातवें भाग की गणना नीचे से करें अर्थात् नीचे के छह तथा ऊपर के दो भाग छोड़ देवें। इस प्रकार सातवें भाग के नौ भाग में से सातवें भाग में प्रतिमा की दृष्टि रखना चाहिये। इस प्रकार इक्यासी भाग में से इकसठवें भाग प्रतिमा की दृष्टि आना चाहिये। $
८.
इनके अतिरिक्त स्फटिक, रत्न, मूंगा अथवा सुवर्ण आदि बहुमूल्य धातु की प्रतिमा रखने के लिये यह आवश्यक नहीं है। ये प्रतिमाएं अपनी भावना एवं क्षमता के अनुरूप रखना श्रेयस्कर है। $$
*प्रा. मं. ४/४* प्रा. मं. ४/५ #प्रा. मं. ४ / २, ##व. सा. ३ / ४४ प्रा. मं. ४/५, $ वसुनन्दि श्रावकाचार (व. सा. पृ१३५), $$ व. सा. ३/३९
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(देव शिल्प
गर्भगृह में प्रतिमा स्थापना का स्थान
गर्भगृह की पिछली दीवाल से गर्भगृह के मध्य बिन्दु तक के मध्य पृथक-पृथक स्थानों में विभिन्न देवताओं की प्रतिमा स्थापित की जाती है। इस हेतु विभिन्न विद्वानों के पृथक-पृथक मत हैं:
२३०
-
प्रथम मत गर्भगृह की पिछली दीवाल से गर्भगृह के मध्य बिन्दु तक पांच भाग करें। मध्य बिन्दु से प्रारंभ कर पांचवें भाग में यक्ष, गंधर्व, क्षेत्रपाल, स्थापन कर सकते हैं। चौथे भाग में देवियों की स्थापना, तीसरे भाग में जिनदेव, कृष्ण, सूर्य, कार्तिकेय, दूसरे भाग में ब्रह्मा तथा प्रथम भाग में शिवलिंग स्थापित करें | मध्य बिन्दु से थोड़ा हटकर शिवलिंग स्थापित करें। *
द्वितीय मत- गर्भगृह की पिछली दीवाल से गर्भगृह के मध्य बिन्दु तक दस भाग करें। मध्य बिन्दु से प्रारंभ कर पहले भाग में ब्रह्मा, दूसरे भाग में हर और उमा, तीसरे भाग में उमा और देवियों, चौथे भाग में सूर्य, पांचवें भाग में बुद्ध, छटवे भाग में इन्द्र, सातवें भाग में जिनेन्द्र देव, आठवें भाग में गणेश और मातृका, नवमें भाग में गंधर्व, यक्ष, क्षेत्रपाल व दानव तथा दसवें भाग में दानव, राक्षस, ग्रह और मातृका की स्थापना करना चाहिये । **
तृतीय मत- गर्भगृह की पिछली दीवाल से गर्भगृह के मध्य बिन्दु तक अट्ठाईस भाग करें। मध्य बिन्दु से प्रारंभ कर दूसरे भाग में शालिग्राम और ब्रह्मा, तीरारे भाग में नकुलीश चौथे भाग में सावित्री, पांचवें भाग में रुद्र, अर्धनारीश्वर, छटवें भाग में कार्तिकेय, सातवें भाग में ब्रह्मा, सावित्री, सरस्वती, हिरण्यगर्भ, आठवें भाग में दशावतार, उमा, शिव, शेषशायी, नवमें भाग में मत्स्य, वराह, पद्मासन एवं ऊर्ध्वारान विष्णु, दसवें भाग में विश्वरूप, उमा, लक्ष्मी, ग्यारहवें भाग में अग्नि, बारहवें भाग में सूर्य, तेरहवें भाग में दुर्गा, लक्ष्मी, चौदहवें भाग में गणेश लक्ष्मी, वीतराग, जिनेन्द्र देव, पंद्रहवें भाग में ग्रह, सोलहवें भाग में मातृका, लक्ष्मी, देवियाँ, सत्रहवें भाग में गणदेव, अठारहवें भाग में भैरव, उन्नीसवें भाग
क्षेत्रपाल, बीसवें भाग में यक्षराज, इक्कीसवें भाग में हनुमान, बाईसवें भाग में मृगघोर, तेईसवें भाग में अघोर, चौबीसवें भाग में दैत्य, पच्चीसवें भाग में राक्षस, छब्बीसवें भाग में पिशाच तथा सत्ताईसवें भाग में भूत स्थापित करें। पहले और अट्ठाईसवें भाग में किसी को भी स्थापित न करें। # दीवाल से चिपकाकर प्रतिमा स्थापना का निषेध
गर्भगृह में प्रतिमा की स्थापना दीवाल से चिपकाकर कदापि न करें । देव प्रतिमा तथा महापुरुषों की प्रतिमा दीवाल से चिपकाकर स्थापित करना अत्यंत अशुभ है। चित्रों को दीवाल से चिपकाकर लगा सकते हैं। ##
*व. सा. ३ / ४५-४६, विवेक विलास, प्रासाद तिलक ।
** वास्तु मंजरी, वास्तु राज
#शि. २. ४ / १३८- २५६, ज्ञान प्रकाश, दीपाव, श्रीरार्णव, अ.पू. सूत्र ##. सा ३/४७, शि. र. १२ / २०४
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(देव शिल्प
वष्टि प्रकरण जैनेतर देवताओं की प्रतिमा की दृष्टि एवं द्वार की स्थिति
निम्नलिखित सारणी से यह ज्ञात होता है कि ६४ भाग में से कौन से भाग में प्रतिमा की दृष्टि रखना चाहिये , भाग की गणना उदुम्बर (देहली) से ऊपर की तरफ (उत्तरंग) करना चाहिये। प्रासाद के द्वार मान से सर्वदेवों का दृष्टि स्थान उदुम्बर से उत्तरंग तक के ६४ भाग करें। *
3५
३७
देव का नाम सृष्टि का स्थान आदि तत्व १ सृष्टि तत्व ३ तत्व ५ अष्टि तत्व ७ आयुश्तत्व ९ लक्ष तत्व ११ विज्ञ तत्व १३ प्राज्ञ तत्व १५ शांति तत्व १७ अव्यक्त १९ व्यक्ताव्यक्त २१ व्यक्त शेष नाग जलशायी गरुड़ मातृगण कुबेर ३३
देव का नाम दृष्टि का स्थान भंग - वाराह अवतार उमा- रुद्र बुद्ध भगवान ब्रह्मा सावित्री दुर्यासा, अगस्त्य, नारद लक्ष्मी नारायण धाता- ब्रह्मा शारदा गणपति पद्मासन ब्रह्मा हरसिद्धि ब्रह्मा, सूर्य, विष्णु, जिन शुक्राचार्य चंडिका भैरव वैताल
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* शिल्प रत्नाकर अ- ४ श्लोक – २०६ से २१३ आय भागे भजेदवारमष्टमयत: त्यजेत्।। सप्तमा सप्तमे रटिषेसिंहे बजे शुभा ।। प्रा. पंजरी १६५ पष्ट भावास्य पंचाशे लक्ष्मीनारायणस्यदक् । शयनाशि लिंपालि द्वारार्वन व्यतिक्रपात् ।। प्रा.मजसी १६६
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(देव शिल्प).
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जिन प्रतिमा निर्माण प्रारंभ करने के लिए शुभ मुहूर्त
प्रतिमा निर्माता मूर्ति शिल्पी को प्रसन्न चित्त से यथोचित सम्मान कर प्रतिमा निर्माण करने के लिए प्रार्थना करें तथा शिल्पी अत्यंत प्रसन्न मन से मनोहारी जिन बिम्ब बनाने का कार्य शुभ काल में प्रारंभ करे शुभ वार- सोम, गुरु, शुक्र, किन्ही के भगत से बुध भी शुभ नक्षत्र- तीनों उत्तरा, पुष्य, रोहिणो, श्रवण, चित्रा, घनिष्ठा, आर्द्रा मतांतर से - अश्विनी, हरत, अभिजीत, मृगशिर, रेवती, अनुराधा भी शुभ नक्षत्र हैं। शुभ तिथि- २, ३, ५, ७, ११, १३
अथवा जिन तीर्थंकर की प्रतिमा बनानी है उनके गर्भकल्याणक की तिथि शुभ योग- गुरु पुष्य अथवा रवि हस्त योग
शिला लाने के ग्रस्थान करने हेतु नक्षत्र रेवती, श्रवण, हस्त, पुष्य, अश्विनी, पूनर्वसु, ज्येष्ठा, अनुराधा, धनिष्ठा, मृग इन नक्षत्रों में शिला लेने के लिये जाना चाहिये। पूर्व से लगाकर कृत्तिका तक के नक्षत्रों में यात्रा के लिए न जायें।
हस्त, पुष्य, अश्विनी, अनुराधा ये नक्षत्र यात्रा के लिये शुभ हैं किंतु दक्षिण दिशा में जाने के लिए मंगल, बुध एवं रविवार को न जाये।
यात्रा के लिये जाने से पूर्व नक्षत्र, लग्न, गोचर शुद्धि देखकर ही जायें।
प्रतिमा हेतु शिला परीक्षण प्रतिमा के निर्माण के लिये शिला परीक्षण करके ही लाना चाहिये। वर्तमान काल में प्रायः संगमरमर की प्रतिमाएं निर्मित होती हैं। सादे देसी पत्थर की प्रतिमाओं का निर्माण प्राचीन काल से किया जाता रहा है। सुविधा एवं प्रभावना की दृष्टि से संगमरमर की प्रतिमाओं का निर्माण निःसंदेह श्रेयस्कर है। चाहे किसी भी पाषाण की प्रतिमा हो, पाषाण सुलक्षण युक्त होना चाहिये।
__ अनुभवी शिल्पकार के साथ शुभ मुहूर्त में प्रयत्नपूर्वक उत्साह के साथ शिला परीक्षा के लिये पुण्य प्रदेश में अथवा नदी, पर्वत, वन में शिला का अनुसंधान करना चाहिये।
___ शिला सफेद, लाल, काली, पोली, मिश्रवर्ण, कपोत (कबूतर) के वर्ण की, मूंगे के रंग की, कमल की आभा के समान, मंजीठ की आभा के समान अथवा हरे रंग की होवे। शीतल स्निग्ध, सुस्वादु, अच्छे स्वर से युक्त तथा मजबूत सुगंध युक्त, प्रभायुक्त तथा मनोरम होना चाहिये।
ऐसी शिला जिसमें शब्द न हो. बिन्दु रेखा दाग आदि हों, रुखी, दुध युक्त, बदरंग हो, मूर्ति निर्माण के लिये अनुपयोगी है।
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देव शिल्प
(२३३) शिला परीक्षण की विधि शिला या काष्ठ जिसकी प्रतिमा बनाना इष्ट है, उसका दाग प्रगट करने के लिये निर्मल कोजो के साथ बेल वृक्ष के फल की छाल को पोसकर पत्थर या काष्ठ पर लेप करना चाहिये। ऐसा करने से दाग प्रगट हो जाता है।
यदि दाग ऐसे स्थान पर आने की संभावना हो कि हृदय, मस्तक, कपाल, दोनों स्कन्ध, दोनों कान, मुख, पेट, पीठ, दोनों हाथ, दोनों पैर आदि में किसी एक या अनेक भागों में नीले आदि रंग वाली रेखा हो तो इस शिला का प्रतिमा के लिये उपयोग न करें। अन्य अंगों पर भी यदि ये रेखा हो तो मध्यम है। चीरा आदि दोषों से रहिल स्वच्छ, चिकनी, शीतल अपने रंग के जैसी हो रेखा हो तो दोष नहीं हैं। यदि दाग या रेखा अन्य वर्ण की हो तो महान दोष है। काष्ठ या पाषाण में कील, छिद्र, पोलापन, जीवों के जाले, संधि, कीचड़ अथवा मंडलाकार रेखा हो तो महादोष है।
यदि मंडल जैसा देखने में आये तो मधु के जैसा मंडल हो तो भीतर जुगनू जानें । भरम जैसा मंडल हो तो रेत है। गुड़ के जैसा मंडल हो तो भीतर लाल मेंढक हैं, आकाशी रंग का मंडल हो तो जल है। कपोत वर्ण का मंडल हो तो छिपकली है। मंजीठ रंग मंडल देखने में आये तो मेंढक है। लाल वर्ण का मंडल दिखे तो गिरगिट है। पीले रंग का मंडल देखने में आये तो गोह है। कपिल वर्ण का मंडल दिखे तो चूहा है। काले वर्ण का मंडल देखने में आये तो सर्प है। विचित्र वर्ण का मंडल देखने में आये तो बिच्छू है। इस प्रकार विभिन्न रंग के मंडल प्रगट होने से भीतर अमुक प्राणी है, यह समझें।
उपरोक्त प्रकार के दाग वाले पाषाण या काष्ठ प्रतिमा निर्माण के लिये वर्जित हैं। अन्यथा धन, संतति की हानि होने का कष्ट होगा। अपवित्र स्थान में उत्पन्न चीरा, मसा, नस आदि दोषों से सहित पाषाण या काष्ठ की प्रतिमा कदापि न बनायें।
शिला में शुभ लक्षण यदि पत्थर या काष्ठ में नंद्यावर्त, घोड़ा, श्रीवत्स, कछुआ, शंख, स्वस्तिक, हाथी, गाय, बैल, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, छत्र, माला, ध्वजा, शिव लिंग, तोरण, हिरण, प्रासाद, मन्दिर, कमल, वन, गरुड़ अथवा शिव की जटा जैसी रेखा दीखती हो तो यह शुभ लक्षण मानना चाहिये।
शिला लाने की प्रक्रिया शिला परीक्षण के उपरांत शिला तराशने के बाद अपने स्थान पर वापस आ जाये। इसके बाद रात्रि में शयन से पूर्व जिनेन्द्र प्रभु का भावपूर्वक र-मरण करें। सिद्धभक्ति एवं णमोकार मन्त्र का पाठ करें। पश्चात निम्न मन्त्र को कह कर शयन करे -
जमोस्तु जिलेन्द्राय ॐ प्रज्ञाश्रमणे जमो नमः केवलिने तुभ्यं नमोस्तु परपेष्टिने हे देवि मम स्वप्ने शुभाशुधं कार्य ब्रूहि हि स्वाहा ।
रात्रि में शयन में स्वप्न में शुभाशुभ लक्षणों का ज्ञान हो जाने के उपरांत प्रातः शिला लाने के लिये जाना चाहिये। वहां जाकर शिला पूजन करके मन में स्मरण करे कि जिस प्रकार पूर्वकाल में नारायण महापुरुषों ने कोटि शिला उठाई थी उसी भांति हे महाशिला, मैं भी तुम्हें उठाता है, तुम शीघ्र चलो।
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(देव शिल्प)
२३४
इसके बाद सात बार शिला को अभिमंत्रित करक रथ या अन्य वाहन में स्थापित करें। यदि पील के लिये शिला चाहिये तो भी इसी विधि का अनुसरण करना चाहिये। शिला लेकर नगर में उत्रावपूर्वक प्रवेश करें तथा ती प्रदक्षिणा पूर्वक जिनालय दर्शन करें।
शिला का निर्णय हो चुकने के पश्चात वहां उत्साहपूर्वक हूं कार मन्त्र से शस्त्रादि को अभिमंत्रित करे तथा शिला एवं शस्त्र दोनों का उचित गान पूजा करें। पश्चात शिला को शस्त्र से तराशकर पुनः गंधादि से पूजा करें। इसके उपरांत पोष काल से दोनों हाथों से उधित पदार्थ का विलेपन करना चाहिये।
शिला प्रक्षालन करने के पूर्व इस मन्त्र का पाठ करें -
ॐ झं वं ह पः क्ष्वीं धवीं स्वाहा,
इस मंत्र का पाठ करते हुए शिलः को धोकर उरा पर सुगंधित जल डालें। इसके बाद शिला को तराशते पूर्व इरा मंत्र का पाठ करे :
ॐ हूं फट् स्वाहा
शिला से प्रतिमा निर्माण की दिशा
यह निर्णय हो जाये कि किस शिला से प्रतिमा का निर्माण करना है तो उसकी दिशा का निर्धारण कर यह भी निश्चित करें कि प्रतिमा का सिर किस भाग में बनेगा ।
जोशिला पूर्व पश्चिम लम्बाई में पड़ी हो उस शिला के पश्चिम भाग में प्रतिमा का सिर बनाना चाहिये।
इसी भांति जो शिला उत्तर दक्षिण दिशा में लम्बाई में पड़ी हो उस शिला के दक्षिण भाग की ओर प्रतिमा का सिर बनाना चाहिये। *
*कवादक्षिणी स्थिता भूमी तु या शिला
प्रतिगायः शिरस्तस्याः कुर्यात पश्चिम रु.म. १/१५
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(दव शिल्प
प्रतिभा का आसन सामान्य रुप से बैठक की मुद्रा आसन कहलाती है। प्रतिमा विधान में अनेकानेक आसनों (८४ तक) के उल्लेख हैं।
प्रतिमाओं के आसन के प्रमुख भेद - १. कायोत्सर्ग प्रतिमा - जिन प्रतिगाओं में सिर से पांव तक एक सूत्र में खड़ी हुई मुद्रा होती है
उन्हें कायोत्सर्ग प्रतिमा कहते हैं। २. पद्मासन प्रतिमा - जिन प्रतिमाओं में पालथी लगाकर दोनों हाथ गोद में रखे जाते हैं उसे
पद्मास.। या योगासन कहते हैं। ३. बद्धपद्मासन प्रतिमा - दोनों पैरों को बांधकर पालथी मारकर बैंठे तथा दोनों पंजे खुले दिखाई
दें। बायें हाथ के ऊपर दायां हाथ गोद में रखा हो। बुद्ध एवं जैन तीर्थकरों
की प्रतिमाएं इसी प्रकार रखी जाती है । इसे बद्ध पदमासन कहते हैं। ४. अर्ध पर्यकासन प्रतिमा - बैठक में एक पैर मोड़कर तथा दूसरे को नीचे लटकता रखा जाता है
इस आसन को अर्ध पर्यकासन कहते है। ५. भद्रासन प्रतिमा - भद्रासन में बैठक पर बैठकर दोनों पैर खुले रखे जाते हैं। ६. गोपालासन प्रतिमा - कृष्ण की बंसी बजातो खड़ी मूर्ति गोपालासन में होती है। ७. वीरासन प्रतिमा - एक पैर आधा खड़ा रखकर दूसरा घुटने से उक आहोती ति
वीरासन कहलाती है। ८. पर्यंकासन प्रतिमा - शेषशायी विष्णु अथवा बुद्ध निर्वाण की लेटी हुई मूर्ति पर्यकासन कहलाती
उत्कटासन
पद्मासन
वोरासन
गोपाल आसन
भंगासन
अर्धपथकासन
प्रेतासन
ललित आसा
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(देव शिल्प
(२३६)
जिन प्रतिमा के लक्षण
प्रतिमा जिनेन्द्र प्रशु के वीतराग स्वरुप का रुपक है उसमें अनेकों शुभ लक्षण होते हैं। वह मनोज्ञ, आकर्षक, सौम्य, शान्त, वीतराग, श्रीवत्ससहित, खगासन अथवा पद्मासन होना चाहिये। बिम्ब का चेहरा प्रफुल्लित, नेत्र शांत, मुदित, भार्या (पत्नी) से रहित होना चाहिये। प्रतिमा का माप शिल्प शास्त्र में दर्शाये गये मापों से मेल खाता हो। जिन प्रतिमा आयुधादि से रहित सुन्दर, चित्तहर्षक होना चाहिये। यह ध्यान रखें कि कांख एवं मूंछ दाढ़ी के बालों के चिन्ह न हों। दृष्टि ठीक हो। अर्ध उन्मीलित नयन हों।
अरिहन्त प्रतिमा के विशेष लक्षण अरिहन्त तीर्थंकर की प्रतिमा छत्र, चामर, भामंडल, अशोक वृक्ष, सिंहासन आदि अष्ट प्रातिहार्यों से संयुक्त होना चाहिये।
प्रतिमा के नीचे के भाग में नवग्रह हों। प्रतिमा के बायीं ओर यक्षिणी तथा दाहिनी ओर यक्ष होना चाहिये । क्षेत्रपाल का स्थान आसन पीठ के मध्य में हो। यक्ष- यक्षिणियों की प्रतिमा सर्वांगसुन्दर, वाहन, आयुध, वस्त्र, अलंकर, श्रृंगार से संयुक्त होना चाहिये।
सिंहासन में भी दोनों ओर यक्ष, यक्षिणी, सिंह युगल, गज युगल, चंवरधारी देव, चक्रेश्वरी देवी (मध्य में) अवश्य बनायें। चक्रेश्वरी गरुड़ वाहन पर चतुर्भुजी शास्त्रानुकूल बनायें। .
तीर्थंकर प्रतिमा के आसन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं सामान्यतः दो आसनों में निर्मित की जाती है। इन्हीं आसनों से तीर्थंकर प्रभु का मोक्षगमन होता है। ये आसन इस प्रकार है :१. खड्गासन अथवा कायोत्सर्ग आसन २. पद्मासन *
सभी तीर्थंकर प्रतिमाएं इन्हीं दो आसनों में बनाई जाती हैं। तीर्थकरों का जिस आसन से मोक्षगमन हुआ है उसी आसन में भी मूर्ति बनाई जा सकती है। वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों के मोक्षगमन का आसन निम्नानुसार है :
प्रथम ऋषभनाथ, १२वें वासुपूज्य तथा २२ वें नेमिनाथ स्वामी का मोक्षगमन पद्मासन से हुआ है। शेष २१ तीर्थंकरों का मोक्षगमन खड्गासन स्थिति में हुआ है। जिन तीर्थकरों का निर्वाण खगासन से हुआ है उनकी पद्मासन प्रतिमा भी बनाई जा सकती है, इसमें कोई दोष नहीं है।
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*मध्य काल में दक्षिण भारत में पद्मासन के एक भेद अर्धपद्मासन में प्रतिमाएं बनाई गईं । ऐलोरा, पेटण, जिन्तूर एवं अन्य अनेकानेक स्थानों में अर्धपद्मासन प्रतिमाएं मिलती हैं। इनमें बैटक में एक पांव ऊपर तथा एक पाव नीचे रखा जाता है। ये प्रतिमाएं भी समचतुरस संस्थान में बनाई जाती है। इनका प्रमाण पद्मासन प्रतिमाओं की भांति ही होता है।
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(देव शिल्प)
२३७
जिन प्रतिमा का वर्ण
सामान्यतः जिनेन्द्र प्रभु की प्रतिमाएं श्वेत अथवा श्याम वर्ण मे बनायी जाती हैं । चौबीस तीर्थंकरों के अपने -अपने वर्ण में भी तीर्थंकर प्रतिमा स्थापित की जाती है। विशेष रुप से चौबीसी में (चौबीस तीर्थंकरों के एकत्रित जिनालय में ) तीर्थकरों की प्रतिमाएं अपने स्व वर्ण में स्थापित की जाती
प्राचीन लधु चैत्य भक्ति (भगवान गौतम स्वामीकृत) में चौबीस तीर्थंकरों के अपने - अपने वर्ण (रंग) बताये गये हैं -*
• लाल
तीर्थकरों का नाम
वर्ण चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त
श्वेत सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ
नील पद्म प्रभ, वासुपूज्य मुनिसुव्रत, नेमिनाथ
हरा आदिनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ , कंचन (स्वर्ण) अभिनन्दन नाथ , सुमतिनाथ, शीतलनाथ, कंचन (स्वर्ण) श्रेयांसनाथ, विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, कंचन (स्वर्ण) शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, कंचन (स्वर्ण) नामिनाथ, वर्धमान स्वामी
कंचन (स्वर्ण)
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*यो कुन्देन्दु तुषार हार धवलो, वादिन्दनील प्रभो , दी बन्धूक समप्रभी जिजवृषो दी च प्रियंगु प्रभी। शेषाः षोडश जन्म मृत्यु रहिताः सन्तप्त हेम प्रभास्ते सज्ज्ञान दिवाळराः सुरनुता : सिद्धिं प्रयच्छन्तु न : || ५|| प्राचीन लघु चैत्य भक्ति (भवावाज गौतम स्वामीकृत)
प्रालेयनील हरितारुणपीतभासं, यन्पूर्ति पत्याय सुखावसधमुनीन्दाः। प्यारान्ति सप्ततिशत जिजवल्लभाजां, त्वदय्याजतोऽस्तु सतत मय सुप्रभातम् ।। सुप्रभात स्तोत्रम् /१० श्वे. परंपरा- खतौ च पद्मप्रभुवासुपूज्यौ, शुक्लौ व चंद प्रभुपुष्पनंदनी। शि.र १२/५ कृष्णो पुजः जेमिमुनिसुव्रतो, नीलो श्री मल्लि पावो कजकत्विस षोडशः । शि.र. १२/६
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(देव शिल्प
(२३८) प्रतिमा का ताल मान . शिल्प शास्त्र में प्रतिमाओं का मान ताल के प्रमाण से किया जाता है। प्रति के मुख, हाथ, पैर सभी अंगोपांग इस प्रकार निर्मित किये जाना चाहिये कि उनका रुप सुडौल एवं सुरुचिपूर्ण लगे।
प्रतिमा के ही बारह अंगुल के मान को एक ताल कहा जाता है। इसी प्रमाण से देव प्रतिमा की ऊंचाई नवताल की अर्थात् १०८ अंगुल के बराबर ग्रहण की जाती है। पद्मासन प्रतिमा का प्रमाण ५६ अंगुल गाना जाता है। सदैव यह स्मरण रखें कि इस मान में प्रयुक्त अंगुल का मान गज या कंबिया का या इंच के गान का अंगुल नहीं है। यहां पर प्रतिगा के अंगुल का ही ग्रहण किया जाता है ।
प्रतिमा के ललाट से दाढो तक चेहरे का माप एक ताल मान कहलाता है। १२ अंगुल का मान इसी के तुल्य आता है। # अपनी मुट्ठी के चतुर्थांश को एक अंगुल मानना चाहिये। ऐसे बारह अंगुल का ताल जानना चाहिये।
विभिन्न प्रतिमाओं की ताल मान सारणी ग्रास
१ताल
गणेश, वाराह, कुमार ६ ताल पक्षी
२ ताल मानव
७ताल हाथी
३ताल सर्व देवियां
८ ताल किन्नर, अश्व
४ताल सर्व देवता, जि.
९ ताल वृषभ, शूकर
५ ताल
राग, बलराम, रुद्र, ब्रह्मा १० ताल वामन बालक
५ ताल
विष्णु, सिद्ध, जिन ५० ताल स्कंध, हनुमान, भूत, चंडी ११ ताल पैताल, भैरव, नरसिंह, हयग्रीव १२ ताल राक्षस
१३ ताल दैत्य, दानव
१४ ताल राहू, भृगु, चामुण्डा १५ ताल क्रूर देवताओं की मूर्ति १६ ताल हिरण्यकश्यप, हिरणाक्ष, १६ साल असुर, जयमुकुल १६ ताल नमुचि, निशुंभ, शुंभ १६ ताल स्वच्छन्द भैरव
२१ ताल सामान्यतः जिन प्रतिमा ९ ताल में निर्मित की जाती है । प्रतिमा के अंगोपांग के मान शास्त्रों में ९ ताल के मान से उद्धृत है। कुछ ग्रन्थों में जिन प्रतिमा १० ताल की बनाने का निर्देश मिलता है।'
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मुख माने कर्तव्या सर्वावयव कल्पयेत्। मत्स्य पुराण २५७/१ #नवत्ताल भवेदचं तालस्य द्वादशांगुलम् ।आंगुलानीज कम्बाया किन्तु रूपस्य तस्यहि || विवेक विलास १/१३५ जिज सहिता, उपमंडन, शिल्प रत्नाकर,
दस ताल पाण लक्चवा -त्रिलोक सार /१८७ करवरदमुष्टेश्चतुर्थाशो चंगुलं परिकीर्तितम् । तदंगुलै दिशांगुलभ चित्तालस्य दीर्घता॥ ६/८२ शुक्राचार्य #जवताल हवइ रुवं रुचरस य बारसंगुलो तालो। अंगुल अष्ठहिसयं ऊढं बासीण छप्पन्नं ।। ४.सा. २/५ जदादेव मणुस्स ७२६याण मुस्सेयो दस णव अट्ठताल पमाणे ग मणिदो । षट खंडागम धवला (पुस्तक ४४०) # जिजांगुल प्रमाणेज साहांगुलशतायुतज ताल मुरदं वितस्तिस्यादेकार्य द्वादशांगुलं तेज मानेलतादिवसधा प्रविकल्पयेत्
वसुनन्दिप्रतिष्ठासार
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(देव शिल्प
जिन प्रतिमा का मान
समचतुरस पदमासन प्रतिमा का मान
ललाट से लगाकर गुहा स्थान तक के नाप ९ ताल के उपरोक्त ५२ भाग
घुटना
४ भाग
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५६ भाग
बत्थुसार के अनुसार १६ भाग की प्रतिमा बा || चाहिये जबकि प्रतिष्ठा भाग संग्रह में ५४ गाग का निर्देश
पद्मासन प्रतिमा में समसून प्रमाण पद्मासन प्रतिमा में निम्नलिखित चार माप एक समान रहना आवश्यक है : -
१. दायें घुटने से बायां धुटा २. दायें घुटने से बायां कंधा
बायें घुटने से दायां कंधा ४. नोचे से गरतक (पादपीट आसन से केशात तक)
दाहिने घुटने से बायें कंधे तक एक सूत्र, बायें घुटने से दाहिने को तवा दुसरा सूत्र. एक घुटने से दूसरे घुटने तक तीसरा सूत्र, नीचे वस्त्र की किनार से कपाल से केरा तक चौथा सूत्रा ये चारों सूत्र बराबर रहना चाहिये ! इस प्रतिमा को समचतुरस्र संस्थान प्रतिमा कहा जाता है। ऐसी पदमासन प्रतिभा की दाहिनो जंघा तथा पिण्डी के ऊपर बायां हाथ एवं बायां चरमण रखें। बायों जंधा एवं पिण्डी पर दाहिना चरण एवं दाहिना हाथ रखें । यह आसन पर्यकास.। कहा जाता है।
4.स.२.४,विवेक विलास
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(देव शिल्प
पद्मासन प्रतिमा का मान
कायोत्सर्ग नवताल की प्रतिमा १०८ भाग की होती है। अग्रलिखित अनुपात एवं मान इसी के आधार पर हैं । कपाल, नासिका, मुख, गर्दन, हृदय, गुह्य और जानु इनके नाप कायोत्सर्ग प्रतिमा के समान ही होते हैं। इस प्रकार पद्मासन में कुल ऊंचाई छप्पन भाग होती है।
४ भाग
५ भाग
४. भाग
३ भाग
१२ भाग
१२ भाग
१२ भाग
४ आग
कपाल
नासिका
मुख
गला
गले से हृदय तक
हृदय से नाभि तक नाभि से गुच्छ इन्द्रिय
जानु
सन्मुख दर्शन
कुल ५६ भाग
समचतुरस्र पद्मासन जिन प्रतिमा
yaad
२४०
पार्श्व दर्शन
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(देव शिल्प
कमलाकृति वेदी पर स्थापित पद्मासन जिन प्रतिमा
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(देव शिल्प
पद्मासन प्रतिमा के प्रत्येक अंग का विस्तृत विवेचन
कुल भाग १०८ के अनुपात में मान दोनों में सुख की चौड़ाई
१४ भाग गले की चौड़ाई
१०माग छाती प्रदेश
३६ भाग कमर की चौड़ाई
१६ भाग त पिण्ड की मोटाई (शरीर की मोटाई)
१६ भाग कान की ऊंचाई
१० भाग चौड़ाई
३भाग काग की लोलक
२.१/२ भाग नीची कागका आधार
१भाग केशान्त तक मस्तक के बराबर अर्थात् नयन रेखा के समानान्तर ऊंचा कान बनाना चाहिये।
मयन नासिका की शिखा के मध्य गर्भसूत्र से १-१ भाग दूर आंख रखें। अखि की लम्बाई
४ भाग आंख की काली कीकी
१भाग आंख की शृकुटी
२ भाग आंख की नीचे का कपोल भाग ६ भाग
चौड़ाई ऊंचाई अग्रगाग की मोटाई नाक की शिखा ओंठ की लम्बाई ओठ की चौड़ाई
नासिका एवं ओंठ
३ भाग २ भाग १ भाग १/२ भाग ५ भाग १ भाग
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२४३
(देव शिल्प
स्तन वक्षस्थल ब्रह्मसूत्र के मध्य में छाती में ५ भाग ऊंचा, ४ भाग चौड़ा श्रीकस करें -
गौलतन का कोई १/२ भाग नाभि की गहराई
१ भाग -भि की चौड़ाई
१भाग स्तन एवं कोख का अंतर ५ भाग मुसल (स्कन्ध)
८. माग कुहनी
७ माग मणिबंध
४भाग जंघा
१२ भाग जानु (घुटना)
८ भाग पैर की एड़ी
४भाग स्तनसूत्र से नीचे के भाग में भुजा १२ भाग रतन सूत्र से ऊपर रकाध ६ भाग
नाभि स्कन्ध तथा केशांत भाग गोल बनायेहाथ और पैर का अन्तर
१ भाग गोद की लम्बाई
९ भाग गोद की चौड़ाई
४भाग कुहनी से कुक्षी का अंतर
३ भाग पलांटी से जन निकलने का मार्ग की ऊंचाई २ भाग पलांटी से जल निकलने का मार्ग की चौड़ाई ३ भाग
ब्रह्म सूत्र* (मध्यगर्भ सूत्र) से पिण्डी तक के अवयवों के अर्धभाग गला
६ भाग कान
१० भाग शिखा
२भाग कपाल
२ भाग
२ भाग भुजा के ऊपर की गुज संधि- ७ भाग
- ८ भाग
दादी
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*ब्रह्मसूत्र - जो सूत्र प्रतिमा के मध्य गर्भ भाग से लिया जाये उसे ब्रह्मासूत्र कहते हैं। यह शिखा, नाक, श्रीवत्स और नाभि के बराबर मध्य में आता है।
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चराकोरमाबाई
(देव शिल्प
(२४४) दोनों घुटनों के बीच में एक तिरछा सूत्र रखें तथा नाभि से पैर के कंकण के ६ भाग तक एक सीधा समसूत्र तिरछे सूत्र तक रखें। इस समसूत्र का प्रमाण - पैरों से कंकण तक
१४ भाग पैरों से पिंडी तक
१६ भाग पैरों से जानु तक
१८ भाग होता है दोनों परस्पर घुटने तक एक तिरछा सूत्र रखा जाये तो यह नाभि से नीचे १८ भाग दूर रहता है। चरण के मध्य भाग की रेखा
१५ भाग (अर्थात् एड़ी से मध्य तुली ) एड़ी से अंगूठे तक
१६ भाग एड़ी से छोटी अंगुली तक
१४ भाग मध्य की अंगुली की लम्बाई
५ भाग तर्जनी तथा अनामिका
४-४ भाग छोटी अंगुली
३ भाग अंगूठा
३भाग अंगुलियों के नख
१भाग अंगूठे के साथ करतल पट की चौड़ाई
७ भाग
१६ भाग चरण की चौड़ाई
८भाग चरण की मोटाई
४भाग (एड़ी से पैर की गांठ तक) हथेली के मध्य भाग से मध्य की लम्बी अंगुली तक ९ भाग हथेली के मध्य भाग से अनामिका की लम्बी अंगुली तक ८ भाग हथेली के मध्य भाग से तर्जनी की लम्बी अंगुली तक ८ भाग हथेली के मध्य भाग से कनिष्ठ की लम्बी अंगुली तक ६ भाग मध्य की बड़ी अंगुली की लम्बाई
५ भाग तर्जनी एवं अनामिका अंगुली की लम्बाई
४-४ भाग अंगूठा की लम्बाई
३ भाग अंगुलियों के नख
१भाग अंगूठे से करतलपट की चौड़ाई
७ भाग गले की ऊंचाई
३ भाग गले तथा कान का अंतराल
१,१/२ चौड़ा भाग गले तथा कान का अंतराल
३ ऊंचा भाग लंगोट (अंचलिका) (श्वे. प्रतिमा में)
८ चौड़ा भाग लंगोट लम्बाई गादी के मुख तक. केशांत से शिखा की ऊंचाई
५ भाग गादी की ऊंचाई
८ भाग
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(देव शिल्प)
कायोत्सर्ग प्रतिमा का मान
१. बसुनंदिश्रावकाचार के अनुप मुख की ऊंचाई
१२ भाग गला की ऊंचाई
४ भाग गले से हृदय तक का अंतर १२ भाग हृदय से नाभि तक का अंतर १२ भाग नाभि से लिंग तक का अंतर १२ भाग लिंग से जानु तक का अंतर २४ भाग जानु से गुल्फ तक का अंतर २४ भाग गुल्फ से पैर के तल तक
४ भाग
१०८ भाग गुख की चौड़ाई १२ भाग तथा मुख की केशांत तक लम्बाई १२ भाग इसमें ललाट ४ भाग, नासिका ४ भाग, मुख से दाढी, भाग केशस्थान, ५ भाग (शिखा २ भाग ऊंची तथा केश स्थान ३ भाग)
ललाट नासिका गुख
४भाग ५ भाग ४ भाग
२. वत्थुसार के अनुरुप गुह्य से जानु तक २४ भाग घुटना . ४ भाग घुटने से पैर २४ भाग की गांठ
गर्दन
३भाग गले से हृदय १२ भाग हृदय से नाभि १२ भाग
चरणताल नाभि से गुह्य
४भाग १२ भाग
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कुल - - १०८ भाग
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जानु - गुल्फ-
घुटना पैर का टखना या गांठ
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(देव शिल्प
३. कायोत्सर्ग प्रतिमा का मान *
कायोत्सर्ग प्रतिमा ९ एवं १० ताल दोनों प्रमाणों में बनायी जाती है। उनके मान इरा प्रकार है। यदि छोटो प्रतिभा में बनाना हो तो भी अनुपात यही रखें :
ललाट नासिका
मुख
ग्रीवा (गला)
ग्रोवा से हृदय तक हृदय रो नाभि
नाभि से गुह्य स्थान
गुह्य स्थान से
घुटना के ऊपर
घुटना
घुटना के नीचे
से गांठ तक
गांव से पैर के
दोनों पैरों के बीच
तले तक
आचार्य जयसेन प्रतिष्ठा पाठ के अनुरूप
९ ताल
४ इंच / अंगुल
४ इंच / अंगुल
४ इंच / अंगुल
४ इंच / अंगुल
१२ इंच / अंगुल
१२ इंच/ अंगुल
१२ इंच / अंगुल
२४ इंच/ अंगुल
४ इंच/ अंगुल
२४ इंच/ अंगुल
४ इंच / अंगुल ४ इंच / अंगुल
५०८ इंच (९ ताल)
२४६
१० ताल
४ इंच / अंगुल
४ इंच / अंगुल
४, १/२ इंच/ अंगुल
४ इंच / अंगुल
१३, १/२ इंच / अंगुल
१३. १/२ इंच / अंगुल
१३, १/२ इंच/ अंगुल
२७ इंच / अंगुल
४ इंच / अंगुल २७ इंच/ अंगुल
४ इंच / अंगुल
१२० इंच (१० ताल)
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(देव शिल्प
मन्दिर के अनुरूप पद्मासन एवं खगासन प्रतिमा का मान *
सारणी
मन्दिर का मान
प्रतिमा का मान
प्रतिमा का मान पद्मासन
खड्गासन
गज
1. अं.
ग. अं.
०-११
२ ४
०
०-२१
१-०७
-१२ ०-१८ १-० ५- ३
१२ १८ २४ २७
१-१७
१-१७
१-६
१-२५
३३
१-२३
१.९ १-१२
२-१
१-१५
१-१८
२-४
५२
२-१५
२-१४
३-१
३-११
५०
१००
३-१०
८२
३-२
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* (प्रासाद मंजरी के मतानुसार
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(देव शिल्प
२४८) मन्दिर के अनुरुप पद्मासन एवं खगासन प्रतिमा का मान *
प्रासाद का
पद्मासन म. अं. इंच
गज
फुट .
खड्गासन ग. अं. इंच __-११ ११ __-२२ २२
१-७ ३१
-२२
१-१७
cu
१-१९
२४०-१२ १२
0- १८ १८
१-० २४ ५ १० १-३ २७
१-६ ३० १-९ १-१२ १-१५
१-२१
4-२३
२-१ २-३
१-१८
२-५
५२
२-४ २-१४
२-१९ ३-१ ३-११
३-१०
३-२१
* भारतीय शिल्प संहिता
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देव शिल्प
( )"
थो
()
नव ताल कायोत्सर्ग जिनप्रतिमा
70
२४९
दस ताल कायोत्सर्ग जिनप्रतिमा
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________________
२५०
(देव शिल्प
(२५०) कायोत्सर्गप्रतिमा के मान का
विस्तृत विवरण ९ ताल = १०८ भाग की प्रतिमा का माप
मस्तक का माप
मरतक के केशों से लेकर ठोढ़ी तक १२ भाग प्रमाण ऊंचा तथा इतना ही चौड़ा मुख करें। उसमें १ ताल अर्थात् ४ भाग ललाट, ४ भाग नासिका, ४ भाग मुख और ठोढ़ी करें। ललाट ८ भाग चौड़ा तथा ४ भाग ऊंचा करें। अष्टमी के चन्द्रमा के समान ललाट करें। ललाट के ऊपर उष्णीश चोटी तक ५ भाग प्रमाण केश करें। उसके ऊपर २ भाग प्रमाण किंचित ऊंची गोल चोटी रखें। चोटी से ग्रीवा के पिछले भाग तक ५ भाग प्रमाण केश करें अर्थात् ललाट से चोटी तक १२ भाग
रखें। पीछे केश से चोटी तक १२ भाग प्रमाण रखें। ५. मस्तक के उभय पाश्चों में ४-४ भा। प्रमाण चौड़े (धनुषाकार मध्य में मोटे, दोनों ओर छोटे)
शंख नाम के दो हाड़ करें। ६. ललाट के ४ भाग नीचे तथा ४१/२ लम्बे दोनों भंवारे (भौंह) करें! आदि में १, १/२ भाग चौड़ा
अन्त में १/४ भाग चौड़ा करें। नेत्र का माप १. ३ भाग प्रमाण लम्बी नेत्रों की सफेदी कमल पुष्प दल के समान करें। २. राफदी के मध्य में भाग श्याम तारा करें। ३. तारा के मध्य में १/३ भाग गोल छोटी श्याम तारिका करें। ४. भृकुटी के मध्य से लेकर नीचे की ओर बाफुणी (ऊपरी पलक) तक ३ भाग आंखों की चौड़ाई
करें।
नासिकाभागकामाप १. नासिका के मूल में २ भाग दोनों नेत्रों का अंतराल करें। २. ऊपर नीचे के दोनों ओंठ २-२ भाग प्रमाण लम्बे तथा १-१ भाग ऊंचे (मोटे) करें। ४ भाग मुख
का खुलता भाग रखें । मुख के मध्य में २ भाग ओंटों को खुला करें। १-१ भाग दोनों बगलें मिली हुई करें। नासिका के नीचे और ऊपर के ओंठ के मध्य १/२ भाग लाबी १/३ भाग चौड़ी नाली करें १
भाग लंबी १/२ भाग मोटी सृक्किणई (ओंठों की बायीं दायीं बगले) करें। ४. २ भाग मोटा हनु (गाल के ऊपर के समीप का हाड़) करें। ५. हनु के मूल से चिबुक (गालों के नीचे काम के पास तक का हाड़) का अन्तराल ८ भाग करें। ६. कान ४ भाग लम्बे २ भाग चौड़े करें। ४ भाग पास (कान के मध्यवर्ती कड़ी नस के आगे परनाली
ल
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(देव शिल्प
२५१ रुप खाल) करें । पास के ऊपर की बर्लिका (गोट) १/४ भाग करें।
कर्ण भागकामाय १. १/२ भाग कर्ण छिद्र मध्य में यवनालका के समान करें। २. ४, १/२ भाग नेन और कर्ण का अंतराल करें। ३. दोनों कानों का अंतराल १८ भाग पीछे तथा १४ भाग सामने हो। ४. इस प्रकार कानों के समीप मस्तक की परिधि ३२ भाग तथा ऊपर के मस्तक की परिधि १२ भाग होना चाहिये।
बाहु भाग का माप १. हाथ की कोहनी का विस्तार १६/३ भाग तथा परिधि १६ भाग रखें। २. कोहलीचा लक चूड़ा उता से बाह करें। ३. भुजा का मध्य भाग १३/३ भाग तथा परिधि में १४ भाग करें। ४. पौंचे का विस्तार ४ भाग तथा परिधि १२ भाग करें। ५. पौंचे से मध्यम अंगुली तक १२ भाग करें। ६. मध्यम अंगुली ५ भाग करें। ७. मरयम अंगुली से १/२ - १/२ पर्व कम तर्जनी तथा अनामिका अंगुली करें। ८. अनागेिका रो १ पर्व कम कनिष्ठिका अंगुली करें। ९. पौंचे से कनिष्ठिका तक ५ भाग अंतराल करें। ५०. तर्जनी और मध्यमा के प्रमाण से कनिष्ठिका की मोटाई १/२ भाग कम करें। अंगुष्ठ में २ पर्व करें।
शेष अंगुलियों में ३-३ पर्व करें। ११. अंगुष्ठ की परिधि ४ भाग रखें। १२, १/२ पर्व के बराबर पांचों अंगुलियों में नन करें। १३. हथेली ७ भाग लम्बी ५ भाग चौड़ो करें। १४. हथेली की मध्य परिधि १२ भाग करें। १५. अंगुष्ट मूल तथा तर्जनो के मूल का अन्तराल २ भाग करें। १६. भुजा गोल संधि जोड़ से मिली, गोड़ा तक लम्बी करें। १७. अंगुलियों को मिलापयुक्त स्निग्ध, ललित, उपचय, संयुक्त, शंख, चक्र, सूर्य, कमल आदि उत्तम चिन्हों से संयुक्त करें।
वक्षभागकामाप १. वक्षस्थल २४ भाग चौड़ा करें। २. पीत सहित वक्षस्थल की परिधि ५६ भाग रखें। ३. वक्षस्थल के मध्य श्रीवत्रा का चिन्ह बनायें। ४. मय भुजा के वक्षस्थल ३६ भाग करें।
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२५२
(देव शिल्प ५. दोनों स्तनों के मध्य अंतराल १२ भाग बनायें ६. स्तनों की चूचियां २ भाग वृत्ताकार बनायें।
चूंचियों के मध्य में १/४ भाग वीटलियां बनायें। ८. वक्षस्थल से नाभि तक १२ भाग अंतराल बनायें।
उदर भाग का माप १. वक्षस्थल रो नाभि के मध्य का भाग उदर कहलाता है। २. नाभि का मुख १ भाग चौड़ा हो। ३. नाभि दक्षिणावर्त रुप में गोल मनोहर शंख के मध्य समान करें। ४. नाभि के मध्य से लेकर लिंग के मूल तक ८ भाग पेडू करें। ५. पेडू में ८ रेखाएं बनाएं।
कटि १८ भाग चौड़ी बनायें। ७. कटि की परिधि ४८ भाग बनायें। ८. तिकूणा (बैठक का हाड़) ८ भाग चौड़ा बनायें। ९. दोनों कूल्हे ६ भाग गोल बनायें १०. स्कन्ध के.सूत से गुदा तक ३६ भाग लम्बा तथा १/२ भाग मोटा रीढ़ का हाड़ रखे। ११, ४ भाग लम्बा लिंग रखें। मूल में २ भाग मोटा मध्य में १ भाग तथा अंत में १/४ भाग मोटा रखें।
सर्वत्र मोटाई से तिगुनी परिधि रखें। १२. दोनों पोतों को आम की गुठली के समान चढ़ाव उतार रुप में ५-५ भाग लम्बे ४ भाग चौड़े पुष्ट
रूप में बनायें।
कमर के नीचे का माप १. दोनों जांधे २४- २४ भाग पुष्ट बनायें। २. दोनों जांध्ये भूल में ११-११ भाग, मध्य में ९-९ भाग अंत में ७-७ भाग रखें। इनकी परिधि सर्वत्र
अपनी मोटाई से तिगुनी होना चाहिये। ३. जांघों से नीचे तथा पीड़ियों के ऊपर दोनों घुटने ८ भाग लम्बे, ४ भाग चौड़े करें। ४. .. घुटने से नीचे टिकुन्या तक २४- २४ भाग दोनों पीड़ियां बनायें। दोनों पीड़ियां मूल में ७- भाग,
मध्य में ६-६ भाग अंत में १३/३ - १३/३ भाग रखें। परिधि मोटाई से तिगुनी रखें। दोनों पगों की चारों टखनों को १-१ भाग करें। परिधि तिगुनी रखें। दोनों पगों के चरण तल १४-१४ भाग लम्बे करें। ठखना से अंगुष्ठ के अग्र भाग १२ भाग लम्बे करें टखनों के पीछे एड़ी२ भाग करें। एडी नीचे २ भाग बगल में कुछ कम मध्य में ऊंची गोल हो। परिधि ६ भाग हो। अंगुष्ठ ३ भाग लम्बा, मध्य में २ भाग, आदि अन्त में कुछ कम चौड़ा हो ।
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(देव शिल्प
२४६
१०. ( प्रथम अंगुली ) प्रदेशिनी ३ भाग लम्बी हो ।
११. मध्यमा इससे १/१६ भाग कम करें । २१५/१६ १२. अनामिका इससे १/८ भाग कम करें अर्थात् २, ७/८ भाग १३. कनिष्ठिका इससे १/८ भाग कम करें अर्थात् २, ३/४ भाग १४. चारों ही अंगुलियां १-१ भाग मोटी तथा तिगुनी परिधि की हो। १५. अंगूठों में २-२ पर्व करें।
५६. अंगुलियों में ३-३ पर्व करें।
१७. अंगुष्ठ का नख १ भाग करें
१८. प्रदेशिनी का नख १ / २ भाग करें। शेष अंगुलियों के नख अनुक्रम से कम करें।
१९. पादतली को एड़ी के पास ४-४ भाग
२०. मध्य में ५-५ भाग
२१. अंत में ६ - ६ भाग चौड़ी बनायें ।
२२. शंख, चक्र, अंकुश, कमल, यव, छत्र आदि शुभ चिन्हों से संयुक्त चरण बनायें।
२५३
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(देव शिल्प
(२५४० जिन मन्दिर में दोषयुक्त प्रतिमा का फल
प्रतिमा में दोष
भर
रौद्र रूप
प्रतिमा कर्ता का मरण कृश काय
द्रव्य क्षय होनाधिक अंग
स्वपर कष्टकारक हीनोगअधिक अंग -
शिल्पी का नाश दुर्बल अंग -
धनक्षय अधिक गोटी -
धन क्षय अधिक लम्बी -
घ. क्षय छोटा कद
प्रतिमा का का मरण तिरछी दृष्टि वायों या बायों ओर- मूर्ति अपूजनीय, दृष्टिधन नाश, विरोध,
भयोत्पत्ति, शिल्पकार एवं आचार्य का नाश नोची दृष्टि
पुत्र हानि, धन हानि, भय, पूजकों को हानि , विघ्नकारक नत्र रहित
दृष्टि क्षय खराब नत्र -
दृष्टि नाश आतेगाढ़ दृष्टि -
अशुभकारक जय दृष्टि
राजा, राज्य, स्त्री, पुत्र नाश स्तब्ध दृष्टि
शोक. उद्धेग, संताप,धन क्षय छोटा मुख
शोभा एवं कांति क्षय ऊर्ध्व मुख -
धन नाश अधोमुख -
चिन्ताकारक ऊंचे नीचे मुख
परदेश गमन टेढी गरदन -
स्वदेश नाश दीर्घ उदर
रोगोत्पत्ति कृश उदर
अकाल पश हृदय
उद्वेग, हृदय रोग, गहोदर नीचा कन्धा
भ्रातृ मरण लम्बी कांख -
इष्ट वियोग लम्बी नाभि
कुल क्षय
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देव शिल्प
प्रतिमा में दोष
पतली कमर
छोटी कमर
कमर के नीचे का भाग पतला
टेढ़ी नाक, मुख, पैर टेढ़े
हाथ, गाल, नख, मुख पतलेछोटे पांव
पतली जांघ
छोटी जांघ
चपटी मूर्ति
हीन आसन
विषम आसन हंसती था रोती हुई - गर्व से भरे अंग वाली
प्रतिमा कर्ता का घात
वाहन नाश
शिल्पियों का सुख नाश
कुल नाश, भीषण दुख
कुल नाश
पशुधन हानि
राजा का नाश
पुत्र मित्र नाश
दुखदायक
त्रद्धि नाश
व्याधि
प्रतिमा कर्ता की हानि
प्रतिमा की हानि
फल
२५५
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(देव शिल्प
(२५६) तीर्थंकरों के चिन्ह तीर्थंकर प्रतिमाओं का स्वरुप वीतराग तथा समान होता है। उनको पहचान करने के लिये उनके चिन्ह निर्धारित किये जाते हैं। इनका निर्धारण सौधर्म इन्द्र के द्वारा प्रभु के जन्माभिषेक के अवसर पर उनके दाहिने अंगूठे पर बने चिन्ह को देखकर किया जाता है। यही चिन्ह प्रभु की प्रतिमा की पादपीठ पर लगाया जाता है।
चौबीस तीर्थंकरों के चिन्हों की सारणी क्रमांक तीर्थंकर । चिन्ह (दिग.) | चिन्ह (श्वे.)
ऋषभ-गाथ
अजितनाथ
गज
गज
संभवनाथ
अश्व
PAU वानर
Ix
अभिनंदननाथ
वापर
सुमतिनाथ
चकवा
क्रौंच पक्षी
पाप्रभु
कमल
लाल कमल
ool स्वस्तिक
सुपार्श्वनाथ
स्वस्तिक
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२५७
(देव शिल्प क्रमांका तीर्थंकर
(२५७) चिन्ह (श्वे.)
चिन्ह (दिग.) ।
न्द्रिप्रभु
अर्धचन्द्र
अर्द्धचन्द्र
सुविधि-गाथ
मगर
मगर
|१०.
।
शीतलनाथ
श्रीवत्स
११. ।
श्रेयांसनाथ
खंगपक्षी
वासुपूज्य
भैंसा
भैंसा
१३.
विमलनाथ
शूकर
अनंतनाथ
श्येनपक्षी
|१५. | धर्मनाथ
१६.
।
शांतिनाथ
हरिण
हरिण
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(देव शिल्प क्रमांक तीर्थंकर
(२५८) चिन्ह (श्वे.)
चिन्ह (दिग.)
१७. | कुंथुनाथ
बकरा
बकर
अरहनाथ
मत्स्य
नन्द्यावर्त
१९. । मल्लिनाथ
कलश
कलश
२०. |
नुनिसुव्रतनाथ ।
२१.
नमिनाथ
उत्पल
उत्पल (नोल कमल
२२.
नेमिनाथ
शंख
शंख
|२३.
पार्श्वनाथ
सर्प
सर्प
२४. ।
वर्धमान
सिंह
सिंह
*क्षेपक श्लोक - पूज्यपादाचार्य कृत ' निर्वाण भक्ति',
**शिर. १२/७-८
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(देव शिल्प
२५९)
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परिकर सहित तीर्थंकर प्रतिमा (श्वे.)
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देव शिल्प
समचतुरस्र कायोत्सर्ग एवं पद्मासन जिन प्रतिमा
२६०
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(देव शिल्प
प्रशस्ति लेख
प्रतिभा के नीचे पीठ पर प्रशस्ति लेख उत्कीर्ण किया जाता है। यह इस बात को दर्शाता है कि प्रतिमा की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कब तथा किनके द्वारा की गई। समय-समय पर इस लेख की शैली में किंचित् परिर्वतन भी हुए हैं। यह लेख पुरातत्व संरक्षण तथा संस्कृति संरक्षण दोनों दृष्टियों से अत्यंत उपयोगी हैं।
सामान्य रीति के लेख का प्रारूप इस प्रकार है -
स्वस्ति श्री वीर निर्वाण संवत्सरे २५. ...तमे........ विक्रमाब्दे २०............ तमे.. .. मासे......तमे...पक्षे. तिथौ वासरे..
मूलसंघे श्री दिगम्बर जैन कुन्दकुन्दाचार्याम्नाये..
. जिन बिम्ब प्रतिष्टोत्सवे...
सान्निध्ये प्रतिष्ठाचार्यत्वे.. सर्वलोकस्य कल्याणाय भवतु ।
. स्थाने
. दिगम्बर जैनाचार्य श्री १०८ ..
२६१
इत्येतैः प्रतिष्ठापितमिदं जिन बिम्ब
पतिष्ठित प्रतिमा की स्थापना
मन्दिर निर्माण के उपरांत उसमें प्रतिमा की स्थापना की जाती है। प्रतिमा को पंचकल्याण प्रतिष्ठा विधान से प्रतिष्ठित किया जाता है। उसके उपरांत उत्साहपूर्वक शुभ मुहूर्त में मंत्रोच्चार पूर्वक प्रतिमा को पीठिका पर विराजमान किया जाता है।
प्रतिमा के आकार का अवलोकन करके पहले से ही यह निर्णय कर लेना आवश्यक है कि प्रतिमा की प्रतिष्ठा पंचकल्याण मण्डप में की जाये अथवा मन्दिर में ही की जाये। यदि प्रतिभा का आकार इतना बड़ा हो कि उसे मुख्य द्वार से लिटाकर अथवा टेढ़ी करके भीतर लाना पड़े तो ऐसी स्थिति उचित नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रतिमा पहले से ही वेदी पर स्थापित कर उसके पश्चात प्रतिष्ठा करानी चाहिये । यदि मन्दिर का प्रमाण शास्त्रोक्त है तथा द्वार का प्रमाण भी अनुरुप है तो प्रतिमा आसानी से आ जायेगी। किन्तु पूर्व निर्मित मन्दिर में बड़ी प्रतिमा स्थापित करते समय उपरोक्त निर्देश का अनुकरण आवश्यक है ।
जिरा समय प्रतिमा वेदी पर स्थापित की जाती है उस समय स्थापित की जाने वाली प्रतिमा का मुख नगर की ओर रखना चाहिये तथा पीठ वेदी की ओर रखना चाहिये। इसके विपरीत करने पर महान अनिष्ट होने की आशंका रहती है।
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(देव शिल्प)
सिंहासन का स्वरूप
जिनेन्द्र प्रभु की प्रतिमा सिंहासन में ही विराजमान करना चाहिये। सिंहासन में मध्यभाग में धर्मचक्र बनायें तथा बायें एवं दाहिने भाग में क्रमशः यक्षिणी एवं यक्ष की स्थापना करें। सिंहासन को गज एवं सिंह की आकृतियों से सुसज्जित करें।
सिंहासन का विस्तृत विवरण
सिंहासन के दोनों ओर यक्ष यक्षिणी, दो सिंह, दो हाथी, दो चंवर धारी देव, मध्य में चक्रेश्वरी देवी बनायें। सिंहासन के मध्य की चक्रेश्वरी देवी गरुड़ वाहन पर आसीन हो तथा चतुर्भुजी स्वरुप वाली हों। उसकी ऊपर की दोनों भुजाओं में चक्र की स्थापना करें। नीचे की दाहिनी भुजा में वरदान हस्त हो। नीचे की बायीं भुजा में बिजौरे का कल हो। चक्रेश्वरी देवी के नीचे एक धर्मचक्र बनायें। धर्मचक्र के दोनों तरफ हिरण बनायें। गादी (पीठ) के मध्य में तीर्थंकर प्रभु का चिन्ह बनायें। **
सिंहासन का प्रमाण निम्न अनुपात में रखें
लम्बाई में मूर्ति से डेढ़ा चौड़ाई में मूर्ति से आधा मोटाई में मूर्ति से चौथाई
सिंहासन की लम्बाई के ४ भाग करें।
प्रत्येक यक्ष-यक्षिणी
दो सिंह
दो हाथी
दो चंवर धारी
चक्रेश्वरी देवी
-
परिकर का प्रमाण
१४- १४ भाग
१२- १२ भाग
१०-१० भाग
३- ३ भाग
६ भाग
कुल - ८४ भाग
२६२
* सिंहासनं च जैनानां गज सिंह विभूषितम् ।
मध्ये च धर्मचक्रं च तत्पार्श्वे यक्ष दक्षिणी । शि. २. ४ / १५६
** चक्कधरी गरुडंका तस्सांहे धम्मचक्क उभयदिसं । हरिणजुअं रमणीयं गडियमज्झम्मि जिणचिण्हं ॥ व. सा. २ / २८
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(देव शिल्प
(२३)
कणपीठ छज्जा
सिंहासन पीठ की ऊंचाई ४भाग २ भाग १२'भाग २भाग ८भाग
हाथी
कणी अक्षरपट्टी
कुल - २८:ग
परिकर के पार्श्व भाग का आकार प्रतिमा की नहीं के बराबर ८ भाग ऊंचाई में चंवरधारी / कायोत्सर्ग मुनि । चंबरधारी देव
३१भाग तोरण से सिर तक १२ भाग
------------ कुल -५१ भाग
परिकर के पार्श्व भाग का प्रमाण थंभली समेत रूपथभलो
२-२ भाग
१२ भाग परालिका
६ भाग
२२ भाग चौड़ाई
१६ भाग मोटाई चौड़ाई में परिकर के ऊपर के छत्र भाग (डउला/छत्रवटा) का स्वरूप एक एक तरफ मध्य सूत्र से आर्ध छत्र का भाग
१० भाग कमलनाल
१भाग माला धारण करने वाले १३भाग थंमली
२भाग वंसी / वीणा धारक
८ भाग बैठी प्रतिमा का भाग तिलक के मध्य में घंटा थंभली
२ भाग मगरमुख
६ भाग
४२ भाग ४२ दोनों तरफ = ८४ भाग
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(देव शिल्प
(२६४ ऊंचाई में डउला (मूर्ति के ऊपर का परिकर)का विभाजन छत्र क्य
१२ भाग इसके ऊपर शंख धारक
८ भाग इराके ऊपर वंशपत्र एवं लता ६भाग
------
२६ मा ये छब्बीस भाग २४ भाग के ऊपर बनायें । कुल ५० भाग डउला की ऊंचाई प्रतिमा के मस्तक के ऊपर छत्र त्रय की चौड़ाई
२०भाग बाहर निकलता हुआ भाग
१० भाग
------
३० भाग भामंडल की मोटाई
८ भाग भामंडल की चौड़ाई
२२ भाग दोनों तरफ माला धारक इन्द्र १६-१६ भाग उनके ऊपर एक एक हाथी १८-१८. भाग उनके ऊपर हाथी पर बैठे हिरण गमेषी देव उनके सामने दुंदुभिवादक तथा मध्य में छत्र के ऊपर शंखवादक बनायें। धनत्रय समेत डउला की मोटाईछत्रत्रय समेत डउला की मोटाई-प्रतिमा से आधी करें । पार्श्व में चंवर धारक अथवा कायोत्सर्गस्थ ध्यानस्थ प्रतिमा की दृष्टि मूलनायक प्रतिमा के स्तनसूत्र के बराबर रखें।
जिन प्रतिमा के परिकर के स्वरूप में अंतरण
जहां दो चंवरधारक हैं वहां दो कायोत्सर्गध्यानस्थ प्रतिमा बनायें। डउला में जहां वंश एवं वीणा धारक हैं वहां पद्मासनस्थ दो प्रतिमा बनायें। इस प्रकार उपरोक्त दो एवं एक - एक मूलनायक इस प्रकार पंच तीर्थ प्रतिमा बन जायेगी। यदि परिकर में पंचतीर्थ प्रतिमा बनाना हो तो चंबरधारक, वंशीधारक, वीणाधारक के स्थान पर उसी प्रमाण से ध्यानस्थ प्रतिमा बनायें तो यह भी पंचतीर्थ प्रतिमा बन जायेगी।
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(देव शिल्प)
(२६५)
जिनेन्द्र प्रतिमाओं के विशीष लक्षण
जिन धर्म में चौबीस तीर्थकरों की प्रतिमाओं की आराधना पूजा की जाती है। सर्वप्रथम तीर्थंकर आदिनाथ स्वामी युग के प्रथम तीर्थंकर थे । वे आयु एवं काया में भी सबसे बड़े थे। अतएव कलाकार अपनी मनोभावनाओं को व्यक्त करने के लिए उनकी प्रतिमाओं को केशलतायुक्त अथवा जटायुक्त बनाते हैं। सर्वत्र आदिनाथ स्वामी की प्रतिमाए जटाजूट से युक्त प्राप्त होती है। इसमें किसी भी प्रकार की विपरीतता नहीं हैं। जिन प्राचीन जैन प्रतिमाओं में ऐसे जूट पाये जाते हैं उन्हें आदिनाथ प्रभु की प्रतिमा माना जाता हैं।
पार्श्वनाथ स्वामी पर कमट का उपसर्ग एवं धरणेन्द्र पद्मावती नाग देव-युगलों के द्वारा उस उपसर्ग का निवारण जैन परम्परा की अलौकिक घटना है। इसकी स्मृति के निमित्त ही पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा में मस्तक के ऊपर फणावली का निर्माण किया जाता हैं। इन फणों की संख्या सामान्यतः सात,नौ, ग्यारह होती हैं। अनेकों स्थलों पर पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमाएं १००८ अथवा १०८ कणावली युक्त भो बनाई जाती हैं । बीजापुर (कर्नाटक) के सहस्रफणी पार्श्वनाथ की प्रतिमा विश्वविख्यात है।
. सुपार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा भी फणावली युक्त बनाई जाती है। किन्तु सामान्यतः सुपार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा पांच फणों से युक्त होती हैं।
बाहुबली स्वामी की प्रतिमा केवल खड्गासन ही बनाई जाती है तथा इनके पांचों में लताएं बनाई जाती हैं। नीचे ब्राह्मी एवं सुन्दरी उनकी लताएं हटाती हुई प्रदर्शित की जाती हैं। श्रवणबेलगोल स्थित बाहुबली स्वामी की अलौकिक, सुन्दर विश्वविख्यात प्रतिमा के दर्शन कर सभी का मन शान्ति का अनुभव करता हैं।
भरत जी की प्रतिमा के नीचे नवनिधि, चौदह रत्न पार्श्व में दर्शाए जाते हैं। भरत जी को चक्रवर्ती पद की विभूतियां त्यागकर महाव्रत ग्रहण करने के एक अन्तर्मुहुर्त में ही केवलज्ञान प्राप्त हो गया था। अतएव तुरंत त्यागी हुई विभूतियों के आभास के लिए उन्हें उनकी प्रतिमा के नीचे ही दर्शाया जाता है।
इस प्रकार के लक्षणों से युक्त प्रतिमाएं सर्वत्र मिलती है तथा इन विशेष लक्षणों से उनकी वीतरागता में कोई अन्तर नहीं आता है। भक्तों के भाव पूजन में विशेष रुपेण लगते हैं अतएव ऐसे लक्षणों से युक्त प्रतिमाएं पूज्य ही हैं । इसमे किसी प्रकार सन्देह नहीं रखना चाहिये।
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(देव शिल्प
(२६६)
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बाहुबली स्वामी की बेल लता से आवृत प्रतिमा
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(देव शिल्प
पातिहार्य
घातिया कर्गों का क्षय करने के उपरानत जब आभा में केवलज्ञान प्रकट होता है तब अतिशय पुण्य की महिमा रो देवों द्वारा निर्मित अनेकानेक विशिष्ट महिमायें रची जाती है । रामवशरण ऐसी ही विभूति है। भगवान के समीप आठ बिशिष्ट मंगल रचनायें भगवान के वैभव में शोभा बढ़ाती हैं। । इन्हें आठ प्रतिहार्य की संज्ञा दी जाती है। ये आठ प्रातिहार्य निम्नलिखित हैं* :१. अशोक वृक्ष
२. सिंहारान ३. छत्र त्रय
४. भामण्डल ५. दिव्याने
६. पुष्प वृक्ष ७. चौसट चमर
८. दुन्दुभि
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१. सिंहासन
२- अशोक वृक्ष
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- भामंडल
३- छत्र त्रय *जैन ज्ञान कोश मराठी ३/१०६
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(देव शिल्प
(२६८)
अन्यत्र इनका नामोल्लेख इस प्रकार भी है -
१. अशोक वृक्ष २. तीन छत्र ३. रत्न खचित सिंहासन ४. भक्तगणों से वेष्टित रहना ५.दुन्दुभि ६. पुष्पवृष्टि ७. प्रभामण्डल ८. चौंसठ चमर
ये सभी प्रतिहार्य तीर्थकर प्रभु की धर्मसभा में रहते हैं । मन्दिर मूलतः तीर्थकर की धर्मसभा का प्रतीक होता है अतः गर्भगृह में भी सिंहासन के साथ ही ये प्रातिहार्य निर्मित किये जाते हैं ।
४
VF
६- सुर पुष्प वृष्टि
५-दिव्य ध्वनि
JA
७-चंवर
८- देवदुन्दुभि
*(ति.प./४/९१५-९२७) (ज.प./१३/१२२-१३०)
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________________
(देव शिल्प
(२६९) भामण्डल जिन प्रतिमा के मस्तक के पीछे प्रभामण्डल की उपस्थिति दर्शाने हेतु भामण्डल की स्थापना की जाती है।
भामण्डल की आकृति गोल ही रखना चाहिये । इसका आकार इस प्रकार रखें :प्रमाण - मस्तक के प्रमाण से दुगुना होना चाहिए। मोटाई - पूरे सिंहासन के ८४ भाग करने पर उसके आठ भाग के तुल्य करें। चौड़ाई - पूरे सिंहासन के ८४ भाग करने पर उसके बाइस भाग के तुल्य करें।
सभी प्रातिहार्य प्रतिमा के साथ ही बनाये जाते हैं। यदि प्रतिमा के पीछे पृथक से मूल्यवान धातु का रत्नजटित भामण्डल स्थापित करना हो तो भामण्डल का आकार पूर्ववत् ही रखें, मोटाई का प्रमाण कम किया जा सकता है ।**
घण्टा अर्पण अष्ट मंगल द्रव्यों को जिन मन्दिर में लगाना अत्यन्त आवश्यक है। घण्टा भी मंगल द्रव्य है। मन्दिर में मंगलध्यान के लिय घण्टा एवं झालर लगाये जाते हैं। घण्टा एवं झालर का वादन एक विशिष्ट ध्वनि का उत्पादन करते हैं। इसकी ध्वनि जिनदर्शन को प्रेरित करती है। मन को प्रसन्न कर उपासक को पापों से दूर करती है। अन्य अमंगलकारी ध्वनियों का परिहार करती है।
जिन भन्दिर में घण्टे का उपयोग पूजा एवं अभिषेक के समय वादन के लिये किया जाता है। उपासक दर्शन करते समय भी इसका वादन करते हैं। शिखर से परावर्तित होकर आई हुई घण्टा ध्वनि की गूंज सारे वातावरण को आल्हादित एवं धर्ममय बनाती है। घण्टा अर्पण से व्यापक पुण्य फल की प्राप्ति के लिए आचार्यों ने निर्देश किया है।
घण्टा एवं झालर लोहे का न बनायें , पीतल का ही बनायें। झालर कांसे की भी बनाई जा सकती है। वरांग चरित्र में घण्टा दान करने से सुस्वर की प्राप्ति का उल्लेख मिलता है। घण्टा लगाते समय ध्यान रखें कि इससे भगवान की दृष्टि अवरुद्ध न हो। साथ ही दर्शनार्थी को सिर में न टकराए।
___ घण्टा मुख्य प्रवेशद्वार के पास ही लगायें, ताकि दर्शनार्थी प्रवेश करते ही इसका वादन करो मन्दिर में जो उपासक घण्टा लगवाते हैं वे सुर गति को प्राप्त कर आनन्द भोगते हैं। ऐसे श्रावक को स्वर दोष नहीं होता, सुस्वर की प्राप्ति होती है।*
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"घंटाहि यंटमपाउलेसु पदरच्छराणमज्झम्मि । संकीउई सुरसंयाय सेविओं विभाणेस ।। वसुजन्दि श्रावकाचार ४८९ ।। घण्टा तोरण दाम घ्पपटकैः राजन्ति सन्मंठाले: स्तोत्रश्चित्तहरैर्महोत्सव शतैर्वादित्र संगीतकैः पूजारम्भ महाभिषेक यजनैः पुण्योत्करैः सक्रिर्यैः श्री चैत्यायतनाजि तानि कृतिनां कुर्वन्तु मंगलम् ।९।। नवदेवतास्तोत्र * छत्तत्तयवित्थारं वीसंगल जिवगमेण दह-भायं । भामंडलवित्थारं बावीसं अट्ठ पइसारं ।।व.सा. २/३५
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(देव शिल्प
अष्ट मंगलद्रव्य
तीर्थकर प्रभु के बिम्ब के समीप अष्ट मंगल द्रव्यों को विराजमान किया जाता है। समवशरण में ये प्रत्येक १०८ की संख्या में होते हैं। वेदी पर मूलनायक प्रतिमा के समक्ष इनको स्थापित किया जाता है | तीर्थंकर प्रभु के समीपस्थ होने के कारण इन अष्टद्रव्यों को मंगल द्रव्य कहा जाता है। इनके नाम इस प्रकार है *:
१.
२.
कलश
४.
५.
ध्वजा
७.
छत्र
C.
सुप्रतिष्ठ
इनके अतिरिक्त घण्टा शंख, धूपघट, दीप, कूर्च, पाटलिका, झांझ, मंजीरा आदि भी मंगल स्वरुप प्रतिमा के उपकरण की भाँति रखे जाते है ।
झारी
चंवर
१- मंगल कलश
३- दर्पण
* ते सव्वे उववरणा यहुदीओ तह, व दिव्वाणिं ।
मंगल दव्राणि पुढं जिणिंद पासेसु रेहति ।। ति.प. ४/१८७९
भिंगार कलस दप्पण चामर धय वियण छस सुपाडा ।
3.
६.
दर्पण
व्यजन
10000008000)
२७०
अठुत्तर सवसंखा पत्तेक मंगला तेसुं ॥ ति.प. ४/१८८०
अतिरिक्त संदर्भ, ज.प./१३/०१२, त्रि. सा. / ९८९, ८.पा./टी. ३५/२९/५.ह.पु./५/३६,४-३६५
२- भृंगार (झारी)
४- व्यजन (पंखा )
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(देव शिल्प
२७१
११
TIT
६-श्वर
५-रका
Base
MUNITIAAWIKI
HTHHALPUR
८- स्वस्तिक
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________________
देव शिल्प
२७२
जैनाचार्यों ने अनेकों स्थलों पर मन्दिर में मंगल द्रव्य एवं उपकरणादि दान करने को असीम पुण्यार्जन का हेतु बताया है।
ध्वजा एवं छत्र जिनमन्दिर में अर्पित करना राज्यपद प्राप्ति का निमित्त बनता है। छत्र दान करने से मनुष्य एक छत्र राज्य का अधिकारी होता है। चंवरों के दान से मनुष्य वैभव को प्राप्त करता है तथा सेवकों द्वारा चंवरादि से सेवित होता है। जिन मन्दिर में भामण्डल अर्पित करने से असीम सुख शान्ति की प्राप्ति होती है तथा प्रभाव में वृद्धि होती है। सावयधम्मदोहा / २००/ आ. योगीन्दुदेव
छत्र अर्पण करते समय अधिकतर यह विकल्प उठता है कि ऊपर बड़ा छत्र लगायें या छोटा। सबसे ऊपर सबसे छोटा छत्र लगायें। मध्य में मध्यमाकार छत्र लगायें तथा सबसे नीचे सबसे
बड़ा छत्र लगाना चाहिये ।
(क्रा
(हीं
केवलितो
F
faz
बरहन्त मंगलाम स्वाहा
Ubat
Dilwale
मंगलाव स्वाहा
साहू
स्वाहा
स्वाहा
ها
अ
साहू
मंगलाव
स्वाहा
2Bj
TE
水
SE
क्रा
(हीं
5
केवलो
धम्मो मंगलra स्वाहा
(क़ा)
ह्रीं
umimble
niunde
लोगुत्तमाय
स्वाहा /
Suna
alhafie
thata
अरहन्त
fate!
लोगुसमाय
सिय
32
स्वाहा
सो समाय लो
दूर
विनायक यंत्र
साह
(क्रां
ही
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(देव शिल्प
यंत्र
सभी भारतीय धर्म शास्त्रों में यंत्र मंत्र का विशेष महत्व बताया गया है। बीजाक्षरों का नियमित पाठ मंत्र कहलाता है। इसी प्रकार के बीजाक्षरों अथवा अंकों को एक निश्चित रीति से विशिष्ट आकृति अथवा कोष्टक में भरा जाता है। ये यंत्र कहलाते हैं। मंत्रो से भी अधिक यंत्रों का प्रभाव होता है । मंत्रों को सिद्ध करके यंत्रों का निर्माण किया जाता है। इन यंत्रों में अलौकिक शक्ति मानी जाती है। जैन धर्म में भी इनका बड़ा महत्व है। गर्भगृह में भगवान की प्रतिमा के साथ विशिष्ट यंत्रों को रखा जाता है । यंत्र का निर्माण धातु के पत्र पर किया जाता है। भोजपत्र पर भी यंत्र लिखे जाते हैं । मन्दिरों धातु के यंत्रों का ही प्रयोग सामान्यतः किया जाता है। कुछ प्रमुख यंत्रों के नाम इस प्रकार हैं : रत्नत्रय, षोडशकारण, दशलक्षण, भक्तामर, विनायक, ऋषिमंडल, मातृका इत्यादि । यन्त्र स्थापना के लिए निम्न लिखित सावधानियां अवश्य रखना चाहियेः२. यंत्र इस प्रकार रखें कि मूर्ति का चिन्ह न ढके । ३. यंत्र का प्रयोग भागण्डल के स्थान पर न करें। ४. यंत्र उल्टा स्थापित न करें। ५. यंत्र विधिपूर्वक प्रतिष्ठित हों।
में
--
१. मूर्ति के ठीक सामने यंत्र रखें।
६. यंत्र का प्रतिमा की भांति ही पूजा अभिषेक नियमित रुपेण करें।
७. यंत्र विषम संख्या में ही रखें।
८. यंत्र को सिंहासन पर रखकर छत्र लगा सकते हैं। ९. यंत्र किसी सुयोग्य आचार्य या गुरु के निदेशन में ही प्राप्त करें तथा स्थापित करें।
१.
4
3
स्वाहा
इवीं
我
छवीं
पं
उ
ॐ हे क्रौं श्री क्लीं मम शान्तिं पुष्टिं कुरु कुरु स्वाह्म
ॐ
9.
पं
यंत्रेश यंत्र
܀
博
तं
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3
4.
ર૩
मां
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(देव शिल्प)
२७४)
झातृका
यंत्र
पला बलों बतों में xxx ग घर खाप फ कानप
क्लीं क्लीं क्ली में xx xx
छ/ जअ भ |झ
पली शबली
1ली क्लासला ॐ
CHOTA
संह
अध श
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रठ
चली को क्ली sh ४४४
11151
धात
xx x अंकली चला बलों
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४४४ अपनी क्लीं क्लीं.
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ॐ नमो
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प फ ब भ म
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क्लीं ह्रीं क्रौं स्वाहा
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(देव शिल्प
२७५
शासक देख देवियां चौबीस तीर्थंकरों के शासन देव-देवियों का उल्लेख सर्वत्र मिलता है। ये प्यंतर जाति के यक्ष-यक्षिणी देव होते हैं । समवशरण में इनका स्थान होता है । इनका मुख्य कार्य जिन शासग की प्रशावना करना है। जिनधर्म के सद्गुणों का प्रभावों का अतिशय कर्म का प्रसार करना इनका कार्य है। इसी कारण धर्मानुयायी मनुष्य इनकी विशेष विनय करते हैं। इनकी प्रतिमाओं की स्थापना गर्भगृह में की जाती है। तीर्थकर के वाम भाग में शासन देवी तथा दाहिनो भाग में शासन देव की स्थापना की जाती
पुराणों में अनेकानेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है जिनमें शारान देव-देवियों ने जिनभक्तों की विभिन्न संकटों से रक्षा की। शासन देवी देवताओं को जिन धर्म का तीर्थंकर अथवा उनरो उत्कृष्ट मानना अथवा तीर्थंकर की अवहेलना करके इन्हीं की पूजा-अर्चना करना घोर मिथ्यात्व है। शासन देव-देवी तीर्थंकर के भक्तों के धर्गमार्ग में सहायक हैं। उन्हें स्वपूजा नहीं, तीर्थंकर पूजा में आनन्द मिलता है। तीर्थंकर पूजकों को स्वधर्मी मानकर वे उनकी सहायता करने में तत्पर होते हैं। तीर्थंकर पूजा करने से अर्जित पुण्य के प्रभाव रो शारान देव-देवियां जिन धर्म उपासकों के संकटों को दूर करने के लिये तत्पर होते हैं।
शासन देव देवियों की प्रतिमाएं जैन स्थापत्य कला के अभिन्न अंग हैं। प्राचीनतम प्रतिमाओं में जैन शासनदेव देवियों की प्रतिमाएं सारे देश में मिलती हैं। अनेकों स्थानों पर स्थित शासन देवियों के मन्दिर अपने चमत्कृत कर देने वाले अतिशय के कारण प्रसिद्ध हैं। इसमें हुम्भच पद्मावती, आरा एवं
रसिंह राजपुरा की ज्वालामालिनी देवी की प्रतिमाएं सारे भारत में विख्यात हैं। पुरातत्व दृष्टि से जैन शासन देव देवियों की प्रतिमाओं का अपना विशिष्ट स्थान है। विषयांतर के भय से यह विस्तार नहीं दिया जा रहा है। पाठक पुरातत्व ग्रन्थों का अवलोकन कर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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विशेष - अनेक ग्रन्थों में शासन देव-देवियों के नामांतर मिलते हैं उनसे किसी भी प्रकार का अंतर नहीं है। इनके अनेक नाम होते है। तीर्थकरों के नाम भी अनेक होते हैं जैसे- पुष्पदंत एवं सुविधिनाथ अथवा आदिनाथ एवं ऋषभनाथ अथवा वर्धमान एवं महावीर इसका अर्थ यह नहीं कि वर्धमान पृथक हैं तथा महावीर पृथक। शासन देव-देवियों के नामांतर भी इसी प्रकार हैं। विभिन्न प्रतिष्ठा ग्रन्थों में नाम भेद मिल सम्ते हैं।
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(देव शिल्प)
२७६
तीर्थकरी के यक्ष यक्षिणी देवों के नाम * तीर्थकर यक्ष
यक्षिणी ऋषभनाथ गोमुख (वृषभ)
चक्रेश्वरी अजितनाथ महायक्ष
रोहिणी (अजिता) ३. संभवनाथ त्रिमुख
प्रज्ञप्ति (नम्रा) ४. अभिनन्दन नाथ यक्षेश्वर
वजश्रृंखला (दुरितारि) ५. सुमतिनाथ तुम्बुर (तुम्बरु)
पुरुषदत्ता(संसारी) पद्मप्रभ कुसुम
मनोवेगा(मोहिनी) ७. सुपार्श्वनाथ बरनन्द(मातंग)
काली(मालिनी) चन्द्रप्रभ विजय(श्याम)
ज्वालामालिनी सुविधिनाथ अजित
महाकाली(भृकुटि) १०. शीतलनाथ ब्रह्मेश्वर
मानवी(चामुन्डा) ११. श्रेयांसनाथ कुमार(ईश्वर)
गौरी(गोमेधकी) १२. वासुपूज्य षण्मुख(कुमार)
गांधारी(विद्युत्माली) १३. विमलनाथ पाताल(चतुर्मुख)
वैरोटी(विद्या) १४. अनन्तनाथ किन्नर(पातालं)
अनन्तमति(क्जेिंगिणी) १५. धर्मनाथ किंपुरुष(किन्नर)
मानसी(परिभृता) १६. शांतिनाथ गरुड़
महामानसी (कन्दर्प) १७. कुंथुनाथ गंधर्व
जय(गांधारिणी) १८. अरहनाथ महेन्द्र(यक्षेन्द्र)
विजया(काली) १९. मल्लिनाथ कुबेर
अपराजिता(अनजान) २०. मुनिसुव्रतनाथ वरुण
बहुरुपिणी (सुगंधिनी) २१. नमिनाथ विद्युत्प्रभ(भृकुटी)
चामुन्डी (कुसुममालिनी २२. नेमिनाथ सर्वान्ह (गोमेद)
कूष्मांडो २३. पार्श्वनाथ धरणेन्द्र
पद्मावती २४. वर्धमान मातंग
सिद्धायनी
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* त्रिकालवी महापुरुष पृ. १४०-१४९ बृहत शान्ति धारा
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________________
(देव शिल्प)
२७७
तीर्थंकर मषभनाथ
गोमुख यक्ष
श्वे.
दिग. सुवर्ण
गौ
विशे. कांति मुख वाहन भुजाएं दाहिने हाथ में
चार ऊपर के हाथ में फरसा, बिजौरे का फल माला वरदान धर्मचक्र
सुवर्ण गौ हाथी # चार वरदान माला बिजौरा पाश
बायें हाथ में
मस्तक पर
गोमुख यक्ष
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--
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___#
प्रकारान्तर (आचार दिनकर)- बैल
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(देव शिल्प
२७८
तीर्थंकर नषभनाथ चक्रेश्वरी देवी (अप्रतिहत चक्रा)
श्वे.- अग्रतिचक्रा
विशे
दिग.
श्वे.
कांति आसन वाहन भुजा
सुवर्ण कमल गरुड़
सुवर्ण कमल पर
बारह
दोनों तरम के दोहा नवजा, दोनों तरफ के चार-चार हाथों में चक्र, नीचे बायें हाथ में फल, नीये दायें हाथ में वरदान
आठ दाहिनी भुजा में वरदान, बाण, पाश, चक्र बायीं भुजा में धनुष, वन, चक्र, अंकुश
.
es
n
चक्रेश्वरी देवी
---rear-
--------
*प्रकारान्तर भुजा चार; ऊपर के दोनों हाथों में चक्र नीचे बायें हाथ में बिजौर का फल, नीचे दायें हाथ मे वरदान $प्रकारान्तर (श्रीपाल रास) - बाहन सिंह
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________________
(देव शिल्प
[२७९)
तीर्थंकर अजितनाथ
महायक्ष दिग.
विशे. कांति
सुवर्ण
चार हाथी
पण चार हाथी आठ वरदान, मुदगर, माला, पाश, दिजौर।, अभय, अंकुश, शक्ति
वाहा भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
आट
तलवार, दण्ड, फरसा, वस्टान, चक्र, त्रिशुल, कमल, अंकुश
अजिता देवी (रोहिणी देवी) श्वे.- अजिता (अजितबला)
श्वे.
गौर
विशे. कांति आसन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
दिग. सुवर्ण लोहासन चार शंख, अभय, चक्र, वरदान
लोहासन चार बरवान, पाश, बिजौरा, अंकुश
महायक्ष -- रक्षा
अजिता (रोहिणी) देवी
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(देव शिल्प
( २८०
श्वे.
विशे. वर्ण
तीर्थकर संभवनाथ
बिमुख यक्ष दिग. कृष्ण तीन तीन- ती.। मोर
मुख
नेत्र
कृष्ण तीन तीन-तीन मोर
छह
गुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
दण्ड, त्रिशूल, लीक्षण कतरनी चा, तलवार, अंकुश
नेवला, गदा, अभय विजौरा, सांप, माला
प्रज्ञप्ति देवी (नम्रा देवी)
श्वे.- दुरितारि दिग. सफेद
विशे.
वण
गौर
वाहन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
छह तलवार. इष्टी (तूची), बरदान अर्धचन्द्र, रसा, जल
मता चार वरदान माला फल, अभय
Vi
MORE
त्रिमख यक्ष
प्रज्ञापा (ना) देवा
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________________
(देव शिल्प)
विशे.
वर्ण
वाहन
'भुजा
दाहिने हाथ में
बायें हाथ में
विशे.
कांति
वाहन
आसन
'भुजा
दाहिने हाथ में बायें हाथ में
तीर्थंकर अभिनन्दन नाथ यक्षेश्वर यक्ष
श्वे. - ईश्वर
यक्षेश्वर यक्ष
दिग.
कृष्ण
हाथी
चार
बाण तलवार
धनुष, काल
वज्र श्रृंखला देवी (दुरितारि देवी)
श्वे. - कालिका
·
दिग.
सुवर्ण
हंस
चार
मालप, वरदान •नागपाश, बिजौरा फल
श्वे.
कृष्ण
हाथ
चार
बिजौरा, मन्ना
Jarll, 3091
श्वे.
कृष्ण
-
कमल
चार
वरदान, पाश नाग, अंकुश
२८१
कमश्रृंखला (दुरितारि) देव
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________________
देव शिल्प
विशे.
वर्ण
वाहन
यज्ञोपवीत
भुजा
दाहिने हाथ में बायें हाथ में
विशे.
वर्ण
वाहन
भुजा
दाहिने हाथ में बायें हाथ में
तुम्बरु यक्ष
तीर्थंकर सुमतिनाथ तुम्बरु यक्ष
दिग.
कृष्ण
गरुड़
सर्प
वार
ऊपर सर्प, नीचे वरदान ऊपर सर्प नीचे फल
पुरुषदत्ता देवी (खड्गवरा देवी) श्वे. - महाकाली
दिग.
सुवर्ण
हाथी
चार
चक्र, वरदान
वज्र, फल
तीर्थंकर पद्मप्रभ
श्वे.
सफेद
गरुड़
चार
वरदान, शक्ति
नाग, पाश
श्वे.
सुवर्ण
कमल
चार
वरदान, पाश बिजौरा, अंकुश
खड्गवरा (पुरुष दत्ता) देवी
२८२
Page #305
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________________
(देव शिल्प
(२८३)
पुण्यक्ष
श्वे. - कुसुम दिग. कृष्ण हिरणा
श्वे.
नील
हिरण
विशे. वर्ण वाहन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
चार*
चार
माला वरदा-1 ढाल अभय
फल, अभय नेवला, माला
मनोवेगा देवी (मोहिनी)
श्वे.- अच्युता (श्यामा) दिग. सुवर्ण घोड़ा
श्वे. कृष्ण
विशे. वर्ण वाहन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
चार
चार**
तलवार, वरदान ढाल. फल
वरदान, बाण धनुष, अभय
---------ॉनौवेंगा ( मोहिना) देवी
पुष्प यक्ष*(पालांतर- वसुनंदि प्रतिष्ठा कल्प में दो भुजा) * *आचार दिनकर में - दाहिने हाथ में चस्पान, पाश
बायें हाथ में बिजौरा, अंकुश
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(देव शिल्प
२८४]
विशे.
तीर्थकर सुपार्श्वनाथ
मातंग यक्ष दिग. कृष्ण सिंह टेढ़ा (कुटिल
वर्ण वाहन
हाथी
टो
भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
त्रिशूल .
चार बेलफल, पाश नेवला*, अंकुश
दण्ड
काली (मानवी) देवी
श्वे.-शान्ता दिग. सफेद
विशे. वर्ण वाहन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
श्वे, सुवर्ण हाथी चार वरदान, माला शूली, अभय
चार
त्रिशूल, वरदान घण्टा, फल
मातंग यक्ष
काली (मानवी )देवी
* पाटान्तर (आचार दिनकर में).
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(देव शिल्प)
( २८५)
विशे. वर्ण वाहन
तीर्थंकरचन्द्रप्रभ श्याम यक्ष
श्वे.- विजय दिग. कृष्ण कबूतर तीन चार माला, वरदान फरसा, फल
ल
भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
मुद्गर
दिग.
वर्ण
ज्वालामालिनी (ज्वालिनी) देवी
श्वे.-भृकुटि (ज्वाला) विशे.
श्वे. सफेद
पीला वाहन भैंसा
चार दाहिने हाथ में त्रिशूल, बाण, मछली, तलवार । तलवार, मुद्गर बायें हाथ में
चक्र, धनुष, नागपाश, ढाल ढाल, फरसा
वराह**
भुजा
आठ
AN.
WAP
re
Milan
श्याम यक्ष
ज्वालामालिनी देवी
-
-
-
-
-
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-
*(हेलाचार्य कृत ज्वालामालिनी कल्प में) हाथों में त्रिशूल, पाश, मछली, धनुष, बाण, फल, वरदान, चक्र ** वरालक, ग्रास (आचार दिनकर में) ; हंस (चतु० जि० चांरेत्र में)
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(दव शिल्प
२८६)
२८६
तीर्थकर सुविधिनाथ (पुष्पदन्त)
अजित यक्ष
विशे.
दिग.
वर्ण
श्वे श्वेत कछुआ
श्वेत कछुआ चार अक्षमाला, वरदान शक्ति, फल
वाहन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
चार
माला, बिजौर नेवला, भाला
महाकाली देवी (भृकुटि देवी)
थे. -- सुताश दिग. कृष्ण कछुआ
विशे. वर्ण वाहन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
चार
मुद्गर, वरदान वज,फल
चार वरदान, माला कलश, अंकुश
रा
अजित यक्ष
महाकाली (भृकुटि) देवी
Page #309
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(देव शिल्प
(२८७)
तीर्थकर शीतलनाथ
ब्रह्मयक्ष
विशे.
दिग.
श्वे.
वर्ण
आसन मुख नेत्र भुजा दाहिने हाथ में बायीं भुजा में
सफेद
सुवर्ण कमल
कमल चार
चार
तीन-तीन आठ
आठ बाण, फरसा, तलवार, वरदान बिजौरा, मुद्गर, पाश, अभय धनुष, दण्ड, ढाल, वज्र नेवला, गदा, अंकुश, माला
विशे.
मानवी देवी (चामुण्डा देवी)
श्वे.- अशोका दिग. हरा काला शूकर
वर्ण
भूने
वाहन आसन भुजा दाहिने हाथ में बायीं भुजा में
चार बिजौरा, वरदान मछली, माला
कमल चार वरदान,पाश फल, अंकुश
ब्रह्मयक्ष
मानवी (चा डा) देवी
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________________
देव शिल्प
विशे.
वर्ण
वाहन
नेत्र
भुजा
दाहिने हाथ में बायें हाथ में
विशे.
वर्ण
वाहन
भुजा
दाहिने हाथ में बायें हाथ में
ईश्वर यक्ष
तीर्थंकर श्रेयांसनाथ
ईश्वर यक्ष
दिग.
सफेद
बैल
तीन
चार
माला, फल
त्रिशूल, दण्ड
गौरी देवी (गौमेधकी)
श्वे. - मानवी (श्रीवत्सा)
दिग.
सुवर्ण
हरिण
चार
कलश, वरदान
मुद्गर, कमल
श्वे.
सफेद
बैल
तीन
चार
बिजौरा, गदा
नेवला, माला
श्वे.
गौर
सिंह
चार
वरदान, मुदगर
कलश, अंकुश
गौरी (गॉधकी) देवी
२८८
Page #311
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________________
(देव शिल्प
तीर्थकर वासुपूज्य
कुमार यक्ष
विशे
दिग.
वर्ण
वाहन
श्वेत हंस तीन
छह
भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
बाण, गदा, बरदान धनुष, नेवला, फल
चार बिजौरा, बाण नेवला, धनुष
गांधारी देवी (विशुनपालिनी) श्वे.-प्रचण्डा (प्रवश)
दिग. हरा
विशे.
श्वे.
मगर
वर्ण वाहन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
चार कमल, वरदान कमल, मूसल
कृष्ण घोड़ा चार वरदान, शक्तिः पुष्प, गदा
O
कुमार यक्ष
गांधारी (विद्युन्मालिनी देवी
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________________
(देव शिल्प
२९०)
तीर्थंकर विमलनाथ
चतुर्मुख यक्ष श्वे.- षण्मुख यक्ष
विशे.
दिंग.
श्वे.
वर्ण
सफेद
वाहा
मोर
मोर
भुजा दाहिने हाथ में
बारह फरसा, फरसा, फरसा, फरसा, तलवार, माला फरसा, फरसा, फरसा, फरसा, ढाल, वरदान
बारह फल, चक्र, बाण, खड्ग, पाश, माला नेवला, चक्र, धनुष, दाल, अंकुश, अभय
बायें हाथ में
वैरोटी देवी विदिता (विजया) दिग.
विशे.
वर्ण
हरा
हरताल
सर्प
वाहन आसन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
चार
सर्प, बाण रार्थ, धनुष
कमल चार याण, पाश धनुष, सर्प
चतुर्मुख यक्ष
वैरोटी देवी
*प्रतिष्ठा तिलक में छह
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________________
(देव शिल्प
(२९१)
विशे.
तीर्थकर अनन्तनाथ
पाताल यक्ष दिग. लाल मगर तीन नाग के तीन फण
लाल
मगर
तीन
वाहन मुख मस्तक पर मुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
छह
अंकुश, त्रिशूल, कमल चाबुका, हल, फल
कमल, खडग, पाश नेवला, ढाल, माला
अनन्तमती देवी (विजुभिणी)
श्वे.- अंकुशा दिग.
विशे.
वर्ण
सुवर्ण
इंस
वाहन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
श्वे. गौर कमल चार रखडग, पाश ढाल, अंकुश
चार बाण, वरदान धनुष, बिलौरा, फल
YETEN
team
N
पातल यक्ष
अनन्तमति (विभिणा) देवी
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________________
(देव शिल्प
तीर्थकर धर्मनाथ
किन्नरयक्ष दिग,
विशे. वर्ण वाहन मुख भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
मछली तीन
श्वे लाल कछुआ तीन छह बिजौरा, गदा, अभय नेवला, कमल, माला
मुद्गर, माला, वरदान चक्र, वज, अंकुश
विशे.
मानसी देवी (परभृता) श्वे. - कन्दर्या (पन्नगा)
दिग. मूंगा (लाल) व्याघ्र
श्वे.
वर्ण
गौर मछली
चार
वाहन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
कमल, बाण, अंकुश कमल, धनुष, वरदान
कमल, अंकुश कमल, अभय
किन्नर यक्ष
मानसी (परभृता देवी
Page #315
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________________
(देव शिल्प
श्वे.
विशे. वर्ण मुख वाहन
तीर्थंकर शांतिनाथ
गरुड़यक्ष दिग. कृष्ण टेढा (वराह मुख) शूकर चार चक्र, कमल वज्र, फल
कष्ण वराह मुख
भजा
दाहिने हाथ में बायें हाथ में
चार बिजौरा, कमल नेवला, माला
विशे.
महामानसी देवी (कन्दर्पा)
श्वे.- निर्वाणी दिग. सुवर्ण मयूर
श्वे.
वर्ण
गौर
चार
वाहन भुजा दाहेिने हाथ में बायें हाथ में
कमल चार पुस्तक, कमल कमंडल, कमल
ईदी, वरदान चक्र, फल
गरुड़ यक्ष
महा मानसी (कंदर्पा) देवी
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-
-
*पाठान्तर -आचार दिनकर में सुवर्ण वर्ण
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________________
(देव शिल्प
तीर्थंकर कुन्थुनाथ
गंधर्व यक्ष
दिग.
विशे. वर्ण वाहन
कृष्ण पक्षी चार नागपाश,राण नागपाश, धनुष
श्वे. कृष्ण हंस चार पाश, वरदान बिजौरा, अंकुश
दाहिने हाथ में बायें हाथ में
विशे.
वर्ण
जया देवी (गांधारी)
बला (अच्युता) दिग, सुवर्ण काला शूकर चार तलवार, वरदान चक्र, शंख
गौर
वाहन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
मोर चार बिजौरा, शूली अरई*, कमल
KEss
m
ROServA
गंधर्व यक्ष
जया (गांधारी) देवी
* लोहे की कील लगी गोल लकड़ी,
Page #317
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________________
(देव शिल्प
तीर्थकर अरहनाथ
खेन्द्र यक्ष श्वे.-यक्षेन्द्र दिग, कृष्ण शंख
विशे.
वर्ण
कृष्ण शख
वाहन मुख
नेत्र
भुजा दाहिने हाथ में
तीन-तीन बारह बाण, कमल, बिजौरा, माला, बड़ी अक्षमाला, अभय धनुष, वज, पाश, मुदगर, अंकुश, वरदान
तीन-तीन बारह बिजौर, बाण, खड्ग, मुदगर, पाश, अभय नेवला, धनुष, ढाल, शूल, अंकुश, माला
बायें हाथ में
तारावती देवी (काली)
श्वे.-धारिणी दिग.
श्वे. कृा
सुवर्ण
हंस
कमल
विशे. वर्ण वाहन आसन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
चार
चार वज्र,वरदान सांप, हरिण,
लिजौरा, कमल पाश, माला
Mand
खेन्द्र यक्ष
तारावती (काली)देवी
Page #318
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________________
(देव शिल्प
२९६)
विशे.
तीर्थंकर मल्लिनाथ
कुबेरयक्ष दिग. इन्द्रधनुष हाथी
वर्ण
चार
वाहन मुख भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
श्वे. इन्द्रधनुष हाथी गरुड़ मुख आठ वरदान, फरसा, शूल, अभय . बिजौरा, शक्ति, मुदगर, माला
आठ तलवार, बाण, नागपाश, वरदान ढाल, धनुष, दण्ड, कमल
अपराजिता देवी को-सोदा
विशे.
दिग.
वर्ण
हरा अष्टापद
श्वे. कृष्ण कमल चार वरदान, माला बिजौरा, शक्ति
वाहन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
चार
तलवार,वरदान ढाल, फल
कुबेर यक्ष
अपराजिता देवी
Page #319
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________________
(देव शिल्प)
(२९७
तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ
वरुण यक्ष
सफेद *
विशे. वर्ण वाहन मुकुट मुख नेत्र भुजा बायें हाथ में दाहिने हाथ में
दिग. सफेद बैल जटा का आठ तीन-तीन
बैल जटा का
चार
चार
तीन-तीन आठ नेवला, कमल, धनुष, फरसा विजौरा, गदाबाण, शक्ति
ढाल, फल, तलवार, दरवान
विशे.
बहुरुपिणी देवी (सुगन्धिनी)
श्वे.- नरदत्ता दिग. पीला
गौर** काला सर्प
भद्रासन
वर्ण
चार
चार
वाहन भुजा बायें हाथ में दाहिने हाथ में
ढाल, फल तलवार, वरदान
बिजौरा, शूल वरदान, माला
ICS
वरूण या
बहुरूपिणी (सुगंधिनी) देवी
* प्रवचन सारोद्धार में कृष्णवर्ण, **आचार दिगकर में सुवर्णवर्ण
Page #320
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________________
(दव शिल्प
२९८)
तीर्थंकर नमिनाथ
विशे. वर्ण वाहन मुख नेत्र भुजा बायें हाथ में दाहिने हाथ में
भृकुटि यक्ष दिग. लाल नदी (बैल) चार तीन-तीन आठ चक्र, धनुष, बाण, ढाल कमल, तलवार, अंकुश, वरदान
श्वे. सुवर्ण नन्दी (बैल) चार तीन-तीन आठ नेवला, फरसा, यज्र, माला विजौरा, शक्ति, मुदगर, अभय
चामुन्डा देवी (कुसुममालिनी)
श्वे.- गांधारी
विशे. वर्ण
श्वे. सफेद हंस
चार
वाहन भुजा बायें हाथ में दाहिने हाथ में
मगर चार दण्ड,ढाल माला, तलवार
बिजौरा, कुंभकलश* वरदान, तलवार
HTINITS
मृतुटि यक्ष
चामुंडा (कुसुम गालिनी देवी
-
-
-
-
* (पाट भेद भाला)
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________________
(दव शिल्प)
तीर्थंकर नेमिनाथ
गोमेदयक्ष श्वे.- गोमेध दिग. कृष्ण तीन पुष्प मनुष्य
विशे. वर्ण मुख
आसन वाहन भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
श्वे. कृष्ण तीन
मनुष्य
छह
फल, वज्र, वरदान मुद्गर, फरसा : दण्ड
बिजौरा, फरसा, चक्र नेवेला, शूल, शक्ति
आमा देवी (मांडिनी) श्वे. - अम्बिका (कूष्मांडी)
दिग
श्वे.
विशे. वर्ण वाहन
सुवर्ण
हरा सिंह आम्र की छाया में रहने वाली
सिंह
टो
भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
शुभंकर पुत्र प्रियंकर पुत्र की प्रीति के लिये आम्र की लूम को (गोद में पुत्र)
चार विजौरा* पाश पुत्र, अंकुश
गोमेदयक्ष
अंबिका (कूष्पाण्डिनी देवी
-
-
-
---
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
--
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*पाठांतर आचार दिनकर में आम की लूम
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________________
(देव शिल्प)
'तीर्थंकर पार्श्वनाथ
धरणा श्वे.- पार्श्व यक्ष दिग. आकाशी नीला
विशे
वर्ण
श्वे. कृष्ण हाथी, सिर पर नाग फणी कछुआ
मुख
वाहन मुकुट भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
कछुआ सांप का चिन्ह चार वासुकी नाग, वरदान वासुकी नाग, नागपाश
चार
बिजौरा, सांप नेवला, सांप
धरणेन्द्र यक्ष
Page #323
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________________
(देव शिल्प)
३०१
पद्मावती देवी
विशे.
दिग.
श्वे.
वर्ण
सवाई
मुर्गा #
आसन वाहन मस्तक भुजा दाहिने हाथ में बायें हाथ में
कमल कुक्कुट सर्प $ तीन फणा सांप का चिन्ह चार* कमल, वरदान अंकुश माला
चार कमल, पाश फल, अंकुश
SUPER
पभावती देवी
# आचार दिनकर में कुछुट सर्प *प्रकारान्तर
२
चौबीस
पाश, तलवार, भाला,बालचन्द्र, गदा, मूसल शंख, तलवार, चक्र, बालचन्द्र, श्वेत कमल,लाल काल, धनुष, शक्ति, पाश, अंकुश, घंटा, बाण, मूसल, ढाल, त्रिशूल, करसा, भाला, वज माला, फल, गदा, पान, नवीन पत्तों का गुच्छा, वरदान पाश, फल, वरदान, अंकुश (मनिषेण कृत पद्मावती कल्प)
३
चार
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________________
(देव शिल्प
३०२
*चौबीस भुजा युक्त पद्मावती देवी
जयमाला पदावतो दसक में वर्णिता २४ भुजा आदुधा इस प्रकार हैं: . वन, अंकुश, काल, वक्र, छत्र, इमर, दाल, खा.पर, खा, अनुग, कोरा, बागा, मसल. हाल, शक तक, वार, अनिवाला, डमाला, परवान हस्त, त्रिशूल, फरशी. गाग, मुदगर, दण्ड
--
---
----
----
-
-
-.
.
-
-
.
.
-
-
.
.
.
-
-
-
* भारतीय शिल्पसंहितारोमृत
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________________
।
देव शिल्प
प्रकारान्तर
विशे.
वर्ण
वाहन
मस्तका
भुजा
बायें हाथ में
दाहिने हाथ में
विशे.
वर्ण
आसन
वाहन
भुजा
बायें हाथ में दाहिने हाथ में
# हाथी
तीर्थवन वर्धमान (महावीर)
मातंग यक्ष
मातंग यक्ष
दिग.
मूंग जैसा ह हाथी
धर्म चक्र धारण
दो
बिजौरा फल
वरदान
सिद्धायिका देवी
दिग.
सुवर्ण
भद्रासन
सिंह
दो
पुस्तक वरदान
श्वे.
सुवर्ण
हाथी
दो
बिजौरा
नेवला
श्वे.
हरा
सिंह #
चार
३०३
बिजौरा,
वीणा
पुस्तक, अभय
सिद्धायिका देवी
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________________
[ ३०४
(दै शिल्प
दिक्पाल देव दश दिशाओं के प्रत्येक के स्वामी दिक्पाल देव होते हैं। ये देव व्यंतर जाति के हैं। इन्हें लोकपाल भी कहा जाता है। इन देवताओं के नाम इस प्रकार हैं
दिशा का नाम दिक्पाल का नाम
दक्षिण
पश्चिम
आग्नेय -
अग्नि
यम नैऋत्य
नैऋत
वरुण वायच्य
पवन उत्तर
कुबेर ईशान
ईशान ऊध्य
सोम अधो
धरणेन्द्र इन देवों की पूजा, स्थापना, आवाहन पंचकल्याणक प्रतिष्टा के समय किया जाता है । सभी प्रकार की सागान्य एवं विशेष पूजा महोत्सवों के पूर्व दिक्पालों का आवाहन, अर्चन इस लक्ष्य को लेकर किया जाता है कि ये जिनेन्द्र प्रभु की अर्चना गहोत्सक सभी दिशाओं से आने वाले अष्टिों से मुक्त रखें।
दिक्यालकोंकास्वरूप
इन्द्र: पूर्व दिशा का स्वामी वर्ण - तप्त सुवर्ण सदृश वस्त्र - पोले वाहन - ऐरावत हाथी हाथ में - वज धारण
पूर्व दिशा
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________________
(देव शिल्प
अग्नि : आग्नेय दिशा का स्वामी वर्ण - कपिला (अग्नि जैसा वाहन - सार वस्त्र - नौले हाथ में - धनुषबाण धारण
आग्नेय दिशा
__ अग्नि यम : दक्षिण दिशा का स्वामी
P
iri
कृष्ण
हाथमें वाहन
दण्ड मैंसा
दक्षिण दिशा
यम
नैऋत: नैऋत्य दिशा का स्वामी
MAN
वर्ण - धून वस्त्र - व्याघ्र चर्म वाहन - प्रेत हाथ में - मुद्गर धारण
नैऋत्य दिशा
नैऋत ..
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________________
(देव शिल्प
३०६
वरुणः यश्चिम दिशा का स्वामी
का
पOUP
वर्ण - मेध जैसा बस्त्र - पीला बाहन - मछली हाथ में - पाश
।
पश्चिम दिशा
वरुण
वायु (यवन) : वायव्य दिशा का स्वामी
- धूसर (हल्का पीला)
लाल हरिण
वाहन हाथ में
वायथ्य दिशा- वायु
कुबेर : उत्तर दिशा का स्वामी
इन्द्र का कोषपाल देव
वर्ण - सुवर्ण वस्त्र - सफेद वाहन - मनुष्य हाथ में - रत्न
उत्तर दिशा कुबेर
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________________
देव शि:)
। ३०७
ईशान : ईशान दिशा के स्वामी
वर्ण - सफेद परत्र - गजचर्म वाहा - बैल हाथ में - शिव धनुष एवं त्रिशूल
ईशा। दिशा के रवामी |
नागदेव*: पाताल लोक के स्वामी
वर्ण - कृष्ण वाहन - सर्प आसन - कमल हाथ में - सर्प, त्रिशूल, माला
नागदेय पाताल लोक स्वामी
वर्ण
ब्रह्मदेव : ऊर्ध्व लोक स्वामी
सुवर्ण मुख
चार वस्त्र - सफेद वाहन आसन
कमल हाथ में
पुस्तक तथा कमल
हंस
ब्रह्मदेव ऊध्य लोक स्वामी
------
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*पाठभेद अनन्त, इनका स्थापनाभि के ऊपर मनुष्य का तथा नाांग के नीचे सर्प का होता है :
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________________
देव शिल्प
(३०८) क्षेत्रपालदेव क्षेत्रपाल की स्थापना प्रत्येक मन्दिर में आवश्यक रूप से रखी जाती है। इनकी स्थापना जिन मन्दिर के क्षेत्र के अधिपति क्षेत्ररक्षक देव के रूप में की जाती है। इनका स्वरुप यद्यपि उग्र रहता है किन्तु पूजा के लिये उग्र स्वरुप का आधार सामान्यतः ठीक नहीं होता है अतएव क्षेत्रपालजी की पूजा के निमित्त मूर्ति शांत रुप की रखी जाती है।
दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों जैन सम्प्रदायों में क्षेत्रपाल की पूजा अर्चना आरती समान रुप से की जाती है। ये देव तात्कालिक रुप से फलदायक माने जाते हैं। दोनों सम्प्रदायों में पूजा करने की पद्धतियों में परम्परानुसार किंचित अन्तर हो सकता है। तैल अर्चना तथा सिंदूर लेपन पूरी प्रतिमा पर किया जाता है।
क्षेत्रपालदेव का स्वरूप
(आचार दिनकर के अनुरूप) वर्ण
कृष्ण, गौर, सुवर्ण, पांडु, भूरे वर्ण भुजा
बीस केश - बर्बर तथा बड़ी जटाएं यज्ञोपवीत - वासुकी नाग मेखला - तक्षक नाग हार
शेषनाग हाथों में- अनेक भांति के शस्त्रों का धारण धारण- सिंह चर्म आसनवाहन - कुत्ता नेत्र - मस्तक पर तीन नेत्र -
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________________
(देव शिल्प)
नाम
वर्ण
केश
नेत्र
दांत
आसन
रुघ
भुजा
दाहिने हाथ में -
बायें हाथ में -
क्षेत्रपाल देव का स्वरूप
निर्वाण कलिका के अनुरूप
अपने क्षेत्र के अनुरुप नाग
श्याग
बर्बर
पीले
विरुप एवं बड़े
पादुका पर
नग्न
छह
गुदार, पाश, डमरु
कुत्ता, अंकुश, लाडी
स्थापना का स्थान
जिन भगवान के दाहिनी ओर ईशान को लगकर दक्षिणाभिमुखी करें।
क्षेत्रपाल के पांच नाम
क्षेत्रपाल इन पांच नामों से जाने जाते हैं:
:
१. विजयभद्र २. मणिभद्र ३. वीरभद्र ४. भैरव ५. अपराजित
३०९
क्षेत्रपाल जी
यहां यह स्मरण रखना अत्यंत आवश्यक है कि क्षेत्रपाल आदि देवों की पूजा अर्चना जिनेश्वर प्रभु के समान नहीं की जाती है। त्रिलोकपति जिनेश्वर प्रभु की आराधना सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की उत्पत्ति का कारण है तथा परम्परा से गोक्ष का हेतु है । क्षेत्रपाल आदि देवताओं की विनय तात्कालिक तथा सामान्य उपचार विनय के रूप में की जाती हैं। तीर्थकर प्रभु की पूजा एवं क्षेत्रपाल देव की विनय में किंचित् भी समानता नहीं है। अतएव उपासक का कर्त्तव्य है कि दोनों को एक समझने की भूल न करें।
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________________
(देव शिल्प
३१०
मणिभद्र यक्ष का स्वरुप __ मणिभद्र यक्ष का स्वरुप क्षेत्रपाल की ही भांति होता है, कित् गणिभद्र की गणना प्रमुख जैन शासन प्रभावक देव के रुप में की जाती है। इसी कारण उपासक इनकी वन्दना करते हैं। श्वेतांबर उपाश्रयों में मणिभद्र की स्थापना सिंदूर चर्चित काष्ट के रूप में भी की जाती है। इनका विशेष रुप इस प्रकार है -
Pay
वणं - श्याम वाहन - सप्त सूंड वाला ऐरावत हाथी मुख - वराह दंत पर- जिन चैत्य धारण भुजा - छह बायीं गुजा- अंकुश, तलवार, शक्ति दायी भुजा- ढाल, त्रिशूल, माला
मणिभद्र जी (मानभद्र जी) सर्वाब्ह यक्ष सर्वान्ह यक्ष की प्रतिगायें जिन तीर्थकर प्रतिमाओं के साथ ही बनाई जाती हैं। इनका अन्य नाम सर्वानुभूति यक्ष है । ये अकृत्रिम चैत्यालय में रहते हैं। यहाँ भी जिन गंदिरों में इनकी स्थापना की जाती है । तिलोय पण्णत्ति में भी इनका उल्लेख है।
इनका स्वरुप कुबेर की भांति होता है । सान्ह यक्ष दिव्य हाथी पर आरूढ़ होकर विचरण करते हैं। सर्वान्ह यक्ष जिन पूजा यज्ञ महोत्सयों की रक्षा करते हैं।
सर्वान्हयक्ष का स्वरूप
श्याम वाहन
दिव्य गज भुजा हाथों में
दो हाथों में धर्म चक्र गरतक पर धारण करते हैं दो हाथ अंजलि बल मुद्रा
वर्ण
चार
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________________
(देव शिल्प
(३११) घंटाकर्ण यक्ष धण्टाकर्ण यक्ष भी जैन शारान प्रभावका देव है । इनका स्वरुप विशिष्ट है । देवरूप में अठारह भुजायें होती हैं । गुजाओं में बज, तलवार, दण्ड, चक्र, मूराल, अंकुश, मुन्दर, बाण, तर्जनी मुट्रा डाल, शक्ति, मस्तक, नागपाश, धनु, घण्टा, कुटार, दो त्रिशूल होते हैं।
घण्टाकर्ण यक्ष को उपासा से भय एवं दुखों से रक्षा होती है। उपरार्ग भय के दुखों से रक्षा होती है। सभी प्राणी मात्र इनसे अभय पाते हैं, ऐसा माना जाता है।
वर्तमान में घण्टाकर्ण राम का एक विशिष्ट २५ पूजा जाने लगा है । यक्ष धनुष बाण चढ़ाकर खड़े हैं। पीले वाण का तरकश लगा है। कमर पर तलवार है। पाटली पर धीसा यंत्र लिखा है। कई जगह मूर्तियों में काम एवं हाथों में छोटी पंटियां बंधो हैं।
घण्टाका यक्ष को गणना बायन वीरों में की जाती है। श्वे. पर-परा में इनकी बहुत मान्यता है।
utar
VACHAMMAR
१७०
घंटाकर्ण यक्ष
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(देव शिल्प
३१२
यक्ष मन्दिर अथवा क्षेत्रपाल मन्दिर
राक्ष एवं क्षेत्रपाल जी का स्वतन्त्र मन्दिर भी बनाया जाता है किन्तु यह स्वतन्त्र मन्दिर भी तीर्थंकर (मूलनायक ) मन्दिर के परिसर में ही होना चाहिए। इसका शिखर मूलनायक मन्दिर के शिखर से नीचा हो । मूलनायक मन्दिर के दाहिने तरफ यक्ष मन्दिर बना सकते है। गर्भगृह वर्गाकार बनायें। द्वार चौकोर तथा उदुम्बर आदि से युक्त हों । यक्ष प्रतिमा सौन्य रूप में बनाये।
श्रीफल में भी यक्ष / क्षेत्रपाल की अतदाकार स्थापना की जाती है। इसमें पूरे पिंड पर सिंदूर तेल अर्चन करें। पूजा के लिए नारियल फोड़ने के लिए पृथक स्थान नियत कर देवें । आरती या अखण्ड दीप का स्थान आग्नेय कोण में रखें। प्रतिमा एवं मंदिर निर्माण के सामान्य नियमों का पालन अवश्य करें ।
क्षेत्रपाल देव के विशिष्ट मंदिर
शिखरजी में भूमियाजी, राजस्थान में नाकोड़ा भैरव, सौंदा (कर्नाटक), रतपनिधि (कर्नाटक), ललितपुर, बुरहानपुर आदि में प्रसिद्ध यक्ष मंदिर हैं।
क्षेत्रपाल के विशेष वैभव एवं अतिशय के अनुरूप अनेक स्थानों पर उनके भव्य मन्दिर हैं। ललितपुर के निकट क्षेत्रपाल, बुरहानपुर का क्षेत्रपाल मंदिर तथा दक्षिण भारत का स्तवनिधि के क्षेत्रपाल सारे देश में प्रसिद्ध हैं ।
Page #335
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देव शिल्प
18 F
विद्या देवियां जिस प्रकार सरस्वती को जिनवाणी की प्रतीकात्मक देवी की संज्ञा है उसी प्रकार जिन शासन में वाणी की विभिन्न प्रकृतियों को मूर्तरुप देवी स्वरुप माना जाता है। ये विद्यादेवियां कही जाती हैं। इनकी संख्या सोलह है । दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में इन्हें समान रूपेण मान्यता है।
सोलह विद्या देवियों की नामावली - क्र. दिगम्बर परम्परा श्वेताम्बर परम्परा
रोहिणी राहणी प्रज्ञप्ति
प्रज्ञप्ति वजशृंखला वजशृखला वजांकुशा वज्रांकुशा जांबुनदा अप्रतिचक्रा (चक्रेश्वरी) पुरुषदत्ता पुरुषदत्ता काली
काली महाकाली महापरा गौरी
गौरी गांधारी गांधारी ज्यालामालिनी ज्वाला मानवी
मानवी
पैरोट्या अच्युता अच्छुप्ता मानसी मानसी महामानसी महामानसी
is WoreFFM
वैरोटी
इन देवियों की प्रतिमाएं मन्दिर में भीतरी एवं बाध्य भाग में लगाई जाती है। खजुराहो एवं रणकपुर में जैन मन्दिरों में सोलह विद्यादेबेयों की प्रतिमाएं अत्यंत मनोहारी हैं।
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(देव शिल्प)
विधा देवियों का स्वरूप
१.रोहिणी दिगम्बर परंपरा श्वेताम्बर परंपरा पीत
धवल आसन
कमल भुजा चार
चार बायें हाथ में कलश, कमल
शंख, धनुष दायें हाथ में शंख, बीजपुर अक्षसूत्र, बाण
वर्ण
प्रता
१-रोहिणी (दि.)
१-रोहिणी (श्वे.)
वर्ण वाहन भुजा बायें हाथ में दायें हाथ में
२.प्रज्ञप्ति दिगम्बर परंपरा श्याम अश्व चार चक्र, खड्ग कगल, पाल
श्वेताम्बर परंपरा धवल मयूर चार* मातुलेंग, शक्ति वरदान, शक्ति
२-प्रज्ञप्ति (श्वे.)
२.प्रज्ञप्ति (दि.) *आचार दिनकर में दो - शाका, कमल
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(देव शिल्प
३१५
वर्ण वाहन भुजा दाएं हाथों में बाएं हाथों में
३. वज़श्रंखला दिगम्बर परंपरा स्वर्ण हाथी चार जश्रृंखला,कमल शंख, बोजपुर
श्वेताम्बर परंपरा स्वर्ण काल चार* श्रंखला, वरन श्रंखला, कमल
३- वजनंखला (दि.)
३- वज्रश्रखला (श्वे.)
वर्ण
४. वजांकुशा दिगम्बर परंपरा श्वेताम्बर परंपरा
अंजन के समान श्याम स्वर्ण वाहन पुष्पयान भुजा बाएं हाथों में वीणा, कगल. गातुलिंग अंकुश दाएं हाथों में अंकशा, बीजपुर वरदान, वज
गज
चार
चार -
प
४- वनांकशा (दि.)
४-वज्रांकुशा (श्वे.)
* निर्माण कालिका में चार जाधार दिनकर में दो - अंखला, गदा *आचार दिनकर में-खडग, वज, ढाल, भाला
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३१६)
(देव शिल्प
५. जाम्बुनदा (श्वे. अप्रतिचक्रा)
दिगम्बर परंपरा श्वेताम्बर परंपरा वर्ण स्वर्ण पीत
स्वर्ण पीत वाहन
गराड भुजा चार
पार बाएं हाथों में बीजपुर, भाला चक्र, चक्र दाएं हाथों में कमल, खड्ग चक, चक्र
मयूर
५- जांजुनदा (दि.)
५- अप्रतिचक्रा (श्वे.)
६.पुरुषदत्ता दिगम्बर परंपरा श्वेत मोर
वर्ण वाहन भुजा बाएं हाथों में दाएं हाथों में
श्वेताम्बर परंपरा પીતા महिाली चार - गातुलिंग, खेटका वरदान, खड्ग
चार
वज्र, काल शंख, फल
६- पुरुष दत्ता (दि.)
६- पुरुष दत्ता (श्वे.)
*आचार दिनकर में दो - खड्ग, ढारा
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देव शिल्प
वर्ण
वाहन
भुजा
बाएं हाथों में दाएं हाथों में
७- काली (दि.)
वर्ण
वाहन
भुजा
बाएं हाथों में दाएं हाथों में
८- महाकाली (दि.)
* आवार दिनकर में दो- गदा और वज
७. काली
दिगम्बर परंपरा
पीत
हरिण
चार
मूराल, फल
कमल, खड्ग
श्वेताम्बर परंपरा
कृष्ण
कमल
चार *
वज्र, अभय अक्षसूत्र, गदा
८. महाकाली (श्वे. महापरा, कालिका)
दिगम्बर परंपरा
नोल, श्याग
शरभ
चार
धनुष, फल
खड्ग बाण
1
७- काली (श्वे.)
श्वेताम्बर परंपरा
तमाल
R
चार
घण्टा, अभय अक्षसूत्र, वज्र
८- महाकाली (श्वे.)
३१७
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देव शिल्प
वर्ण
वाहन
भुजा
बाएं हाथों में दाएं हाथों में
९- गौरी (दि.)
वर्ण
वाहन
भुजा
बाएं हाथ में दाएं हाथ में
दिगम्बर परंपरा
गौर
गोह
चार
कमल
कमल
चक्र
९. गौरी
दिगम्बर परंपरा
अंजनवत् कृष्ण
कच्छप
दो
खड्ग
१०- गांधारी (दि.)
* आचार दिनकर में कृष्ण वर्ण दो हाथ- मूसल, वज्र
१० गांधारी
श्वेताम्बर परंपरा
पील
गोह
चार
अक्षमाला, कमल वरदान, मुराल
९- गौरी ( श्वे. )
श्वेताम्बर परंपरा
नील *
कमल
चार
अभय, वज्र
वरदान, मूसल
१०- गांधारी (श्वे.)
३१८
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(देव शिल्प
३१९
वर्ण वाहन भुजा बाएं हाथों में दाएं हाथों में
११.ज्वालामालिनी
(श्वे. - ज्वाला) दिगम्बर परंपरा श्वेताम्बर परंपरा श्वेत
પર્વત लुलाय
वराह आठ
असंख्य धनुष, खड्ग बाण, खेट
शस्त्र
१ जनाला मालिनी लि.!
११- ज्वाला मालिनी (श्वे.)
१२मानवी दिगम्बर परंपरा
श्वेताम्बर परंपरा
नील
श्याम
वर्ण वाहन
नीलकमल
चार
चार
बाएं हाथों में दाएं हाथों में
त्रिशूल, कमल मस्य, खड्ग
अक्षसूत्र, वृक्ष पाश, वरदान
१२-मानवी (श्वे.)
१२- मानवी (दि.) *आचार दिन्कार में ज्वाला युक्त दो हाथ
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देव शिल्प
वर्ण
वाहन
भुजा
बाएं हाथों में
दाएं हाथों में
१३- वैरोटी (दि.)
वर्ण
वाहन
भुजा बाएं हाथों में दाएं हाथों में
१३. वैरोटी (श्वे. - वैरोट्या)
१४. अच्युता (दि.)
दिगम्बर परंपरा
स्वर्ण *
सिंह
चार
सर्प
सर्प
१४. अच्युता (श्वे. - अच्छुप्ता ) दिगम्बर परंपरा
वर्ण
अश्व
चार
श्वेताम्बर परंपरा
श्याम**
अजगर
चार**
खेटक, सर्प
खड्ग, सर्प
नमस्कार मुद्रा, खड्ग नमस्कार मुद्रा, वज
१३- वैरोट्या (श्वे.)
श्वेताम्बर परंपरा
विद्युतवत्
अश्व
चार #
खेटक, सर्प
खड्ग, बाण
१४ अच्युता (श्वे. )
**
*नील ग्रंथांतर में
'आचार दिनकर में गौर वर्ण हाथों में खड्ग, डाल, सर्प, वरदान # आचार दिनकर आए हाथ में धनुष, ढाल, दाएं हाथ में खझ आण
-
३२०
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(देव शिल्प
[३२१
१५. मानसी दिगम्बर परंपरा लाल सर्प
श्वेताम्बर परंपरा घवल*
वर्ण
हैस
वाहन भुजा बाएं हाथों में दाएं हाथों में
नमस्कार गुद्रा नमस्कार मुद्रा
चार * अक्षवलय, अशनि, वरदान. वज
१५- मानसी (दि.)
५५-मानसी (श्वे.)
१६. महामानसी दिगम्बर परंपरा श्वेताम्बर परंपरा
धवल
सिंह चार अक्षमाला, वरदान कुंडिका, ढाल माला, अंकुश वरदान, खग
वर्ण वाहन भुजा बाएं हाथों में दाएं हाथों में
हंस
चार -
१६- महामानसी (दि.)
१६- महामानसी (श्वे.)
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*आचार दिनकर में सुधार्ग वर्ग ; दो हाथ- वरदान **आचार दि-कर में मगर चाहन; दो हाश्य- तलवार. वरदान
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(देव शिल्प
(३२२) जैनेतरदेवों के पंचायतन
सूर्य मन्दिर सूर्य के मन्दिर के पंचायतन देवों का स्थापना क्रम इस प्रकार है। मध्य में सूर्य तथा उसके उपरांत प्रदक्षिणा क्रम से गणेश, विष्णु, शक्तेि, नहादेव को स्थापित करें। साथ ही नवग्रह तथा बारह गणों की मूर्तियों की भी स्थापना करें।
गणेश मन्दिर गणेश के मन्दिर में मध्य में गणेश की स्थापना करें तथा प्रदक्षिणा क्रम से शक्ति, महादेव, विष्णु एवं सूर्य को स्थापित करें। बारह गणों की मूर्तियां स्थापित करें।
विष्णु मंदिर विष्णु के मन्दिर में मध्य में विधा को स्थापना करें तथा प्रदक्षिणा क्रम से गणेश, सूर्य शक्ति तथा महादेव को स्थापित करें। गोपिकाओं तथा अवतारों की मूर्तियां स्थापित करें।
शक्ति मंदिर" शक्ति के मन्दिर में मध्य में शक्ति की स्थापना करें तथा प्रदक्षिणा नाम से महादेव, गणेश, सूर्य, तथा विष्णु को स्थापित करें। मातृदेवो, चौसट योगिनी आदि देवियों तथा भैरव आदि देवों की भी मूर्तियां स्थापित करें।
महादेव मंदिर महादेव के मन्दिर में मध्य में महादेव की स्थापना करें तथा प्रदक्षिणा क्रम से सूर्य, गणेश, चण्डी तथा विष्णु को स्थापित करें।दृष्टिवेध का परिहार अवश्य करें। *
पंचदेवों के नाम सूर्य, गणेश, विष्णु, शक्ति, महादेव पंचायतन के पंच देव हैं। इनमें से जिस देव का मन्दिर बनाना हो उन्हें मध्य में रखें । अन्य चार देवों की स्थापना का नाम उपरोक्त निर्देशानुसार ही करें।'
निदेव स्थापना त्रिदेव मन्दिर में महादेव को मध्य में स्थापित करें। उनके बायीं ओर विष्णु की स्थापना करें। महादेव के दाहिनी ओर ब्रह्मा की स्थापना करें। #
*प्रा. मं. २४१-४५ : शि. २. ११/८५ %23प्रा...२/४६
* शक्ति के अन्य नाम- अंबिका और चण्डी
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(देव शिल्प
(३२३)
1
......--
."
......-."
"
.-.
ब्रह्मेश्वर मन्दिर - 'मुवनेश्वर
पंचायतन मंदिर
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(देव शिल्प)
३२४)
गणेश मन्दिर गणेश प्रतिमा का स्वरूप*
बायें अपर - दक्षिण दोनों कानों के पीछे - उत्तर दक्षिण पश्चिम
गजकर्ण सिद्धी धूम्रक एवं बाल चन्द्रमा गौरी सरस्वती कुबेर बुद्धि
चतुर्मुख शिव मन्दिर
- -
बायें भाग में दक्षिण भाग में मध्य भाग में दक्षिण दिशा में पीछे के भाग में यायें भाग में कर्ण में अग्नि कोण में ईशान कोण में नैऋत्य कोण में
शांति गृह यशोद्वार महादेव मातृ देवी ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र महालक्ष्मी, उमा तथा भैरव चन्द्र एवं सूर्य स्कंद गणेश
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*शि. र. ११/३१०-३११ *शि. र. १५/२८३-२८४-२८५
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(देव शिल्प)
(३२५०
एक द्वार शिवमन्दिर
सूर्य
बायें भाग में
गणेश दाहिने भाग में
पार्वती नैऋत्य कोण में वायव्य कोण में
जनार्दन दक्षिण दिशा में
मातृका उत्तर दिशा में
शान्ति गृह
कुबेर गौरी आयतन गौरी के वाम भाग में
सिद्धि दाहिने भाग में
लक्ष्मी पश्चिम भाग में
सावित्री दोनों कानों के पीछे
गवती एवं सरस्वती ईशान कोण में
गणेश आग्नेय कोण में
कुमार स्वामी मध्य में
सर्व आभरणों से भूषित गौरी सूर्य मन्दिर में नवग्रहों का स्थान में मध्य में आग्नेय में
मंगल दक्षिण में नैऋत्य में पश्चिम में वायव्य में
केतु उत्तर में
बुध ईशान में
शनि चन्द्रमा
सूर्य
राई
शक्र
पूर्व में
* शि. २. १५/२८१-२८२
** शि.र.११/३००-३०१
# शि. र.११/८६.८८
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(देव शिल्प)
(३२६ )
दुष्पगिदिदं सिनेमानंदविद्यारस . स्वादाहलाद-सुधाम्बुधिप्लवलसद्धव्याघक्लृप्तोत्सवम् ।
अत्रासाद्य सपद्यवमिदशं चित्तप्रसतिं पशं, संभक्तुं पशवोऽपि सदृशमलं मुक्तिश्रियः शंफलीम् 11911
अर्थः- स्याद्वाद विरुपी रस के स्वाद से उत्पन्न आनन्द रुणे अमृत के समुद्र में तो से सुशोभित भव्य जीवों के समूह के द्वारा उत्सव किसे जाते हैं ऐसा यह शोभा से युक्त जिनमन्दिर मैंने देखा है। यहां शीघ्र ही पापों को नष्ट करने वाली परंग चिर। श्री विशुद्धता का प्राप्त कर (गनुष्यों की कौन कहे पशु भी मुक्तिरूपी लक्ष्मी की ती स्वरुप सद् दृष्टिः-सम्यग्दर्शन को प्राप्त करंग के लिय सगर्थ होते हैं ।।।।
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देव शिल्प)
३२७
गृह चैत्यालय
गृहस्थ जनों के निवास स्थानों में भी पूजा अर्चना का स्थान बनाया जाता है। इसका कारण यह है कि यादे किसी कारण से मंदिर जाना न हो सके तो गृह स्थित मन्दिर में भी पूजा अर्चना की जा सके। ऐसा करना इसलिए भी आवश्यक है कि जनसंख्या विस्तार के कारण बस्तियां फैलती जा रही हैं। सब जगह मन्दिर न तो हैं, न सब जगह बनना ही संभव है। अतएव निवास स्थान पर ही जिनेन्द्र प्रभु की अर्चना हो सके, इसके लिये घर पर ही जिन प्रतिमा की शास्त्र की अनुमति के अनुरूप स्थापना करना चाहिये। बढती हुई व्यावसायिक व्यस्तता के कारण भी मन्दिर का घर पर होना लाभदायक होता है, ताकि काग पर निकलने के पूर्व उपासक घर पर ही पूजा अर्चना कर सके ।
गृह चैत्यालय का अर्थ है घर पर जिन प्रतिमा का मंदिर। घर पर चैत्यालय में प्रतिभाएं रखने का अलग विधान है। साथ ही चैत्यालय बनाने का अलग विधान है। विभिन्न श्रावकाचारों में जैनाचार्यों ने इसका स्पष्ट निर्देश किया है।
गृह चैत्यालय की रचना
गृह चैत्यालय में दीवाल से स्पर्श मूर्ति स्थापित करना सर्वथा अशुभ है। ऐसा कभी न करें। गृह चैत्यालय में कभी भी पाषाण का मन्दिर नहीं बनायें। यदि चित्र दीवाल पर बने हैं तो शुभ हैं। आल्मारी या दीवाल में बने हुए आले में भी भगवान की प्रतिमा स्थापित न करें। *
गृह चैत्यालय के लिए पुष्पक विमान के समान आकृति वाला काष्ठ का चैत्यालय बनायें। इसमें ध्वजादण्ड नहीं लगायें। आमलसार कलश लगा सकते हैं।
गृह चैत्यालय के लिये काष्ठ का मन्दिर वर्गाकार आकृति का बनायें। इसमें पीठ, उप पोठ तथा उस पर वर्गाकार तल बनायें। चारों कोनों पर चार स्तंभ लगायें। चारों ओर तोरण युक्त द्वार, चारों ओर छज्जा, ऊपर कनेर के पुष्प की भांति (चार गुमट तथा मध्य में एक गुम्बज ) बनायें ।
अन्य मतानुसार एक या तीन द्वार का भी गृह मन्दिर बना सकते हैं तथा एक ही गुंबज का बना सकते हैं। गर्भगृह से ऊंचाई सवा गुनी रखना चाहिये तथा बाहर निकलता भाग (निर्गम) आधा रखना चाहिये ।
* भित्ति संलग्न बिम्बश्च पुरुषः सर्वथाऽशुभः ।
चित्रमयाश्च नागाद्यः भित्तौ चैव शुभावहः ॥ शि. र. १२/२०४
न कदापि ध्वजादड़ो स्थाप्यो वै गृहमंदिरे।
कलशमरसारौ च शुभदौ परिकीर्तिता ॥ शि. र. १२ / २०८
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(देव शिल्प)
गर्भगृह से छज्जा की चौड़ाई सवा गुनी करें। अथवा एक तिहाई या आधा भाग भी बढ़ा सकते हैं। दीवार व छज्जा युक्त मंदिर शुभ आय में बनायें । कोना, प्रतिरथ, भद्र आदि अगवाला तथा तिलक तवंगादि भूषणवाला शिखर बल्ल काल मन्दिर घर में न रखें। ऐसा काष्ठ मन्दिर घर में रखना उचित नहीं हैं किन्तु यदि तीर्थया घ में रखें तो कोई दोष नहीं है। तीर्थमार्ग में जिन दर्शन हेतु काष्ठ मन्दिर ले जाया जा सकता है। यात्रा से आने के बाद उसे घर मन्दिर में न रखें बल्कि रथशाला या जिनमंदिर में रखें। ** गृह मन्दिर में मल्लिनाथ, नेमिनाथ एवं महावीर स्वामी की प्रतिमा अतिवैराग्यकर होने के कारण नहीं रखना चाहिये। शेष २१ तीर्थंकरों की प्रतिमा ही रखें। #
सावधानी :- गृह मंदिर में शिखर पर ध्वजादण्ड नहीं रखना चाहिये। सिर्फ आमलसार कलश ही रखना चाहिये। ###
विभिन्न दिशाओं में गृह चैत्यालय बनाने का फल
दिशा
पूर्व
आग्नेय
दक्षिण
नैऋत्य
पश्चिम
वायव्य
३२८
फल
शुभ, ऐश्वर्य लाभ, प्रतिष्ठा, यश की प्राप्ति.
अशुभ, पूजा आराधना निष्फल अशुभ, शत्रुवृद्धि
भूत पिशाच बाधा में वृद्धि, अशुभ अशुभ, ऐश्वर्य हानि, धननाश अशुभ, रोगोत्पत्ति
शुभ धन लाभ ऐश्वर्य प्राप्ति
शुभ सुख समाधान शांति सर्वकार्य सिद्धि
गृह मन्दिर बनाते समय यह आवश्यक है कि लम्बाई चौड़ाई बराबर हो तथा ध्वज आय एवं देवगण ही आये। ऐसा नक्षत्र आये जिसका देवगण हो। उदाहरण के ४१ अंगुल लं. चौ. बनाने पर ये दोनों आयेंगे।
उत्तर
ईशान
** कर्ण प्रतिरथ भद्रोरुश्रृंगतिलकान्वितः ।
काष्ठाप्रासादः शिखरी प्रोको तीर्थ शुभावहः ॥ उ. श्री. २०९
# नेमिश्च मल्लिनाथश्च वीरो वैराग्यकारकः
यो वै मंदिरे स्थाप्याः शुभदा न गृहे मताः । शि.र.१२/१०५
#मल्ली नेमी वीरो गिहभवणे सादए ण पूइज्जइ
इगवी तित्थयरा संतगरा पूइया वन्दे । प्रतिष्ठा कल्प, उपाध्याय सकलचन्द्र ##व.सा.३/६८
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(देव शिल्प
गृह चैत्यालय में प्रतिमा स्थापन के लिए निर्देश १- जिस तीर्थंकर की मूर्ति गृह मन्दिर में रखना इष्ट है, उनकी तथा गृह स्वामी की राशि गुण का
मिलान करके ही मूर्ति रखें। जिस तीर्थंकर की राशि गृह स्वामी की राशि के अनुकूल हो उसे
ही रखें। २- गृह मन्दिर में पाषाण, लेप, चित्र जो लौह रंग से बने हों, हाथी दांत तथा काष्ठ की प्रतिमा कदापि
| रखें। केवल धातु या रत्न प्रतिमा गृह मन्दिर में रख सकते हैं। ३- गृह मन्दिर में केवल पद्मासन प्रतिमा ही रखना चाहिये। ४- घर में बिना परिकर वाली प्रतिमा अर्थात् सिद्ध प्रतिमा नहीं रखना चाहिये।
गृह चैत्यालय इस प्रकार स्थापित कर-|| चाहिये कि भगवान की पोट मुख्य वास्तु या घर की
तरफ न आये । अन्यथा गृह स्वामी को तन, मन, धन एवं जन की हानि की संभावना रहती है। ६- गृह चैत्यालय इस प्रकार स्थापित करें कि वह घर के उत्तरी, पूर्वी अथवा ईशान भाग में आये।
अन्य दिशाओं में स्थापना करना अशुभ फलदायक होता है। गृह चैत्यालय में स्थापित प्रतिभा का बायां भाग की तरफ घर / वास्तु का होना अशुभ है।
गृहचैत्यालय में रखने योग्य प्रतिमा का आकार
गृह चैत्यालय में कोई भी प्रतिमा का आकार एक से ग्यारह अंगुल के मध्य होना चाहिये। यह भी सिर्फ विषम अंगुलों में होना अति आवश्यक है।
सम अंगुलों की प्रतिमा विपरीत फल देती है।* &
विषम अंगुलों के आकार की प्रतिमा के पूजन का फल प्रतिमा का आकार अंगुल में फल
तीन पांच सात
धन धान्य वृद्धि उत्तम बुद्धि ज्ञान वृद्धि गोधन वृद्धि, धन धान्य, परिवार की उन्नति
ग्यारह
सर्वमनोरथ पूरक
*एकांगुला भर्वत श्रेष्ठा द्वयंगुला धननाशिका। त्र्यंगुला वृद्धिदा ज्ञेया वर्जयेत् चतुरंगुलाम् ।। शि.२. १२/१४९ पगगुला भवेद् वृद्धिरुद्धगंच घडंगुला। सप्तांगुला नवा वृद्धिींना चाष्टांगुला सदा ॥ शि.र. ०२/५० नवांगुला सुतं दद्याद द्रव्यहानिर्दशांगुला। एकादशागुलं बिम्बं सद्यः कामार्थ सिद्धिदम् । शि.र. ५२/१५१
&उ.श्रा १०१ से २०३
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________________
२.
३.
४.
५.
६.
७.
दिव शिल्प
८.
सम अंगुलों के आकार की प्रतिमा के पूजन का फल
प्रतिमा का आकार अंगुल में
फल
दो
चार
गृह चैत्यालय की शुचिता के लिए निर्देश
५.
इसके भीतर बगैर स्नान किए तथा अशुद्ध वस्त्र पहने नहीं जाये ।
मासिक धर्म वाली महिलाएं एवं युवतियां किसी भी स्थिति में इसमें प्रवेश न करें। न ही इसके दरवाजे पर खड़े या बैठे रहें ।
मासिक धर्म वाली स्थिति में नारियों अपनी छाया किसी भी भगवान के मन्दिर, प्रतिमा अथवा चित्र पर नहीं पड़ने देवें ।
गृह चैत्यालय अथवा लघु देव स्थान ऐसे स्थान पर न बनाये, जिसके ठीक लगकर शौचालय, मूत्रालय, कचराधर अथवा जूते-चप्पल रखने का स्थान हो ।
जहाँ पर देव स्थान अथवा चैत्यालय हो उसके ऊपर कोई वजन न रखें।
चैत्यालय सीढ़ी के नीचे कदापि न बनायें ।
ऐसे स्थान, जहाँ से बहुत से लोगों का आना-जाना होता है, वहाँ यदि शुचिता संभव न हो तो चैत्यालय नहीं बनाये ।
छह
आठ
दरा
बारह
३३०
गृह चैत्यालय में शुचिता प्रकरण
निवास स्थान में पूजा पाठ के लिए मन्दिर की आवश्यकता होती है। मन्दिर का स्थान गृह के ईशान भाग में बनाना चाहिये। ईशान के आंतरिक्त पूर्व अथवा उत्तर में भी गृह चैत्यालय बनाये जा सकते हैं। गृह में चैत्यालय बनाने के साथ ही उसकी पवित्रता शुचिता का ध्यान रखना परम आवश्यक है। ऐसा न करने पर भीषण विपरीत परिणामों का आगमन संभावित होता है।
धननाशकारक
पीड़ादायक रोगोत्पत्ति
उद्वेग
हानि, बुद्धि क्षीण
धन नाश
अशुभ
चैत्यालय जिस काष्ट से बनाया गया है वह पुरानी उपयोग की हुई लकड़ी न हो। केवल अच्छी लकड़ी का ही बनायें ।
९.
सेप्टिक टैंक के ऊपर गृह चैत्यालय नहीं बनायें !
१०. चैत्यालय में स्थित प्रतिमाओं का अभिषेक जल (गन्धोदक) तथा पूजा में चढ़ाये गये द्रव्य (निर्माल्य) का उल्लघन न करें तथा इसे ऐसे स्थान पर रखावें जहां पर इसका अविनय न हो ।
११. प्रतिमाओं की स्वच्छता रखना गृहस्थ का कर्तव्य है अतएव चैत्यालय में इस प्रकार व्यवस्था रखें कि धूल, गंदगी, प्रदूषण वहाँ प्रवेश न करें।
१२. यह सावधानी रखें कि किसी भी स्थिति में चैत्यालय में मकड़ी के जाले न लगे ।
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देव शिल्प
पूजा करने की दिशा
उपासक को पूजन करते समय अपने मुख की दिशा का ध्यान रखना आवश्यक है । जैनाचार्यो ने पूजा प्रकरणों में इसका उल्लेख किया है। आचार्य उमास्वामी कृत श्रावकाचार में इसका स्पष्ट निर्देश है
-
पूजा पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके ही करना चाहिए। यदि प्रतिमा उत्तर मुखी हो तो पूजक को पूर्व की ओर मुख करके पूजा करना चाहिए। यदि प्रतिमा पूर्व भुखी हो पूजक को उत्तर मुख होकर पूजा करना चाहिए। * अन्य दिशाओं की तरफ मुख करके पूजा करने का फल नहीं मिलता न हो पूजा में पूजक का मन लगता है।
**
पूजन करते समय बैठने का आसन
पूजन करते समय पद्मास से बैठकर, पर्यकासन या सुखासन से बैठकर पूज-1 करना चाहिए। भगवान जिनेन्द्र देव की पूजन करते समय अपना मुख पूर्व प्रत में ही रखें # पूजा करते समय नासाग्रदृष्टि रखें, मौनपूर्वक मुख ढक कर पूजा करना चाहिए। &
विभिन्न दिशाओं में मुख करके पूजन का फल $ पूजा करने की दिशा का नाम
पश्चिम
दक्षिण
आग्नेय
वायव्य
नैऋत्य
ईशान
उत्तर
पूर्व
३३१
फल संतति का अभाव
संतति का नाश
निरंतर धनहानि
संतति का अभाव
कुलक्षय
सौभाग्य नाश
धन वृद्धि रार्वलाभ, श्रेष्ठ, शांति
* स्नानं पूर्वमुखीभूय प्रतीच्यां दन्तधावनम्। उदीच्यां श्वेतवस्त्राणि पूजा पूर्वोत्तरमुखी ॥ उ. श्री. ९७ ॥ ॥
**
* उदमुख स्वयं तिष्ठेत प्रांग्मुखं स्थापयेज्जिनम्। ७. श्री. पू. ४५६.
#पद्मासन समानः पल्यंकरथोऽथवा स्थितः । नूर्वोत्तर मुखं कृत्वा पूजां कुर्याज्जिनेशिनाम् ।। उ. श्री. पृ. ४७ &पद्मासन समासीनो नासः श्रन्यस्तलोचनः । मौनो वस्त्रावृतास्तोयं पूजां कुर्याजिनेशिनः ॥ उ. श्री. / १२४ $ तथाचकः पूर्वदेश चोत्तरस्यां न सम्मुखः । दक्षिणस्यां दिशायां च विदिशायां च वर्जयेत् ॥ ३. श्रा. ५५६ पश्चिमाभिमुखः कुर्यात् पूजां चेच्छ्री जिनेशिनाम्। तदास्यात्संततिच्छे दो दक्षिणस्यामसंततिः ।। उ. श्रा. ११७ आग्नेयां च कृता पूजा धनहानिर्दिनेदिने । वायव्यां संततिर्नवनैा तु कुलक्षयः ।। उ. श्री. २१८ ईशान्या नैद कर्तव्या पूजा सौभाग्यहारिणी ॥ उ. श्रा. १०९
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(देव शिल्प
जिन मंदिरो से निकलने की विधि जिन देव के समक्ष स्तोत्र, मत्र , पाठ, पूजा आदेकर। जिस समय मांदर से निकाले उस रामय जिन देव को बाहर निकलते समय पीठ न दिखावें । सन्मुख ही पिछले पैर चलकर द्वार का उल्लंघन
करें। *
मंदिर में प्रदक्षिणा विधि का फल । जन्म जन्मांतर में किये गये पाप भी मन्दिर में प्रदक्षिणा देने से नष्ट हो जाते हैं। पाषाण निर्मित मेरु प्रासाद की प्रदक्षिणा का फल अत्यंत महान है। स्वर्ण के सुमेरु पर्वत की तीन प्रदक्षिणा करने का फल तथा मेरु प्रसाद की तीन प्रदक्षिणा का फल समान होता है। ** मन्दिर की प्रदक्षिणा देने का फल सौ वर्ष के उपवास के फल के समान होता है |#
प्रदक्षिणा विथि विभिन्न देवों निम्न संख्या में प्रदक्षिणा देना चाहिए :जिन देव को
तीन चण्डी देवी को सूर्य को
सात गणेश को
तीन विष्णु को
चार महादेव को
आधी प्रदक्षिणा ##
मानस्तंभ की वन्दना समवशरण के बाहर मानस्तंभ स्थित होते हैं। समवशरण के प्रतीक स्वरुप मन्दिर के समक्ष भी मानस्तंभ की रचना की जाती है। मानस्तंभ में चारों दिशाओं को मुख करके भगवान जिनेन्द्र की प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं। अतएव मानस्तंभ की वन्दना भी जिनेन्द्र प्रभु की वन्दना की भांति ही की जाती है।
भान रतंभ की वन्दना करते समय मानस्तंभ की प्रदक्षिणा देना चाहिये । पश्चात् मानस्तंभ में स्थित जिनेन्द्र प्रतिमाओं को नमस्कार करना चाहिये। & प्रदक्षिणा पूर्वक मानस्तंभ की वंदना करके उत्तम जिनेश्वर की भक्ति करने वाले उत्तम कुलीन धार्मिक जन समवशरण के भीतर प्रवेश करते हैं।
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*अग्रतो जिनदेवरय स्तोत्रमन्त्राईनादिकम् । कुन्नि दर्शवत् पृष्टं सम्मुखं दार लंघनम्।। प्रा. मं. २/३४
यानि कानिचपापाने जन्मांतरक्सानि च।तानि तानि विनश्यति प्रदक्षिणा पदे पदेशि 93/30 प्रतिष्ठा विधि प्रदक्षिणात्रय कार्य मेरु प्रदक्षिणायातम् । फलं स्याच्छैलराज्यस्थ मेरोः प्रदक्षिणाकृते।। प्रा. मं. ५/३५ #कलं प्रदक्षिणी कृत्य भुक्ते वर्ष शतस्य तु। प. पु. ३०/१८१ ## एक. चण्ड्या सप्तातेस्रो दद्याद् विनायके । चतस्रो वासुदेवस्य शिवस्यार्धा प्रदक्षिणा || प्रा. मं. २/२३ &प्रादक्षिण्येन वंदित्वा गानस्तंभ मतादिकः। उत्तमा प्रविशन्त्यन्त सत्तमाहित भक्त्यः ॥ हरि.पु. ५७/१७२
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(देव शिल्प)
जैनेतर गृह मंदिर में निषेध* घर में स्थापित मंदिर में सामान्यतः आस्था के अनुरुप एक से अधिक प्रतिभाएं रखी जातो हैं। कभी कभी अनुरागवश एक ही देव की अधिक प्रतिगाएं रख ली जाती हैं । गृहरथ को चाहिये कि एक ही देव की अधिक प्रतिमाएं न रखे।
निम्नलिखित मूर्तियाँ गृह मंदिर में न रखें :
१. दो शिवलिंग २. तीन गणेश ३. तीन शक्ति ४. मत्स्य आदि दशावतार से चिन्हित प्रतिमा ५. तुलसी के साथ चंडी, सूर्य गणेश, दीप ६. दो द्वारिका चक्र ७. दो शालिग्राम ८. दो शंख
शास्त्रोक्त शति से विपरीत गृह मंदिर में अधिक प्रतिमाएं रखने से गृहस्थ को उद्वेग व परेशानी होती है। अतएव अधिक प्रतिमाएं कदापि न रखें।
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* गृहे लिंगद्रयं नाच्य गणेशत्रयमेव च। शक्तित्रयं तथा शंखं मम्मादि (मत्स्यादि) दशकांकितम् ॥ रुप मंडल २/२ रोचक्रे द्वारकयास्तु शालिग्रामद्वयं तथा। द्रौ शंखौ नार्चयेत् तद्वत् सूर्ययुमं तथैव च | रुपमा २/३ तेषां तु पूजनान्नूनमुद्रेग प्राप्नुयाद गृही। तुलस्यानाचयेच्यण्डी दीपं (नैव) सूर्य गणेश्वरम् ॥ रुप मं.२/५
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देव शिल्प
(३३४) वसतिका एवं निषाधिका प्रकरण
वसतिका ___ गृह त्याग करके संयम मार्ग पर चलने वाले साधुगणों के लिये ठहरने के स्थान वसतिका म से जाने जाते हैं। ये स्थान तिर्यच शो.. पक्षियों के आदागमा से पता होने तथा मौसम की विपरीत स्थितियों से सुरक्षित होना चाहिये। ये स्थान साधुगणों की चर्या, ध्यान, अध्ययन एवं तपस्या के लिये अनुकूल होना आवश्यक है।
साधुगण सामान्यतः मन्दिर के समीप ही स्थित साधु निवास अथवा धर्मशाला भवनों में ठहरते हैं। सामान्यतः साधुगण एक स्थान पर लम्बे समय तक नहीं ठहरते हैं। सिर्फ चातुर्मास अवधि में चार माह ठहरते हैं। ऐसी स्थिति में साधुगणों की चर्या ध्यान आदि क्रियाएं निर्वेिच्न रुपेण चलती रहें, ऐसी व्यवस्था रखना पड़ती है। ऐसे भवन जि-में साधओं के ठहरने की व्यवस्था रखी जाती है वसतिका कहलाते हैं। इन्हें त्यागी भवन या मुनि निवास भी कहते हैं।
तीर्थक्षेत्रों में मन्दिर पारेसर में ही ऐसे भवनों का निर्माण किया जाता है। शहरों अथवा ग्रागों में प्राचीन काल से ही ऐसे मन्दिरों का निर्माण किया जाता है जो नगर के बाहरी भाग में स्थित होते थे इनमें गन्दिर परिसर में ही उपयन तथा साधु एवं धर्मात्माजनों के ठहरने के लिये धर्मशाला शैली के भवन बनाये जाते हैं। इन भवनों वाले परिसर को नरिसयां कहा जाता है । उत्तर-पश्चिम भारत में ये नसियां सर्वत्र दृष्टिगोचर होती हैं।
वसतिका का सामान्य स्वरूप वसतिका में प्रवेश एवं निर्ग सुखपूर्वक निराबाध हो राके । मजबूत दीवार एवं द्वारयुक्त होना आवश्यक है। ग्राम के बाहर होना इसकी प्रमुख आवश्यकता है। मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका अर्थात् चतुर्विध संघ लथा बाल, वृद्ध सभी वहां आ जा सकें ! भूमि समतल होना श्रेष्ट है। ग्राम के अन्त में अथवा बाह्यभाग में वसतिका का निर्माण किया जाता है।*
वसतिका की मूलभूत आवश्यकतायें ____4. वसतिका का स्थान खुली एवं संसक्त स्थानों से पर्याप्त दूर होना अत्यन्त आवश्यक है। ऐरो स्थान जो गन्धर्व नृत्य, गायन अथवा अश्व शालाओं के समीप हैं अथवा जहां कलाप्रेय अशिष्ट जन रहते हैं, वसतिका के लिये अनुपयुक्त हैं। राजमार्ग तथा जनोपयोगी बाटिका अथवा जलाशय के सगीप भी वसतिका का निर्माण अनुपयोगी है । मूल भावना यह है कि वसतिका का स्थान ध्यान में बाधक न हो। **
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*(-आ./मू/६३६-६३८) *"(भ. आ.//६३३-६६३४ रा.वा./९/६/१५/५९७ बो.पा./टी./५७/५२०/२०)
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(देव शिला
(३३५) वसतिका निर्माण के लिये दिशा निर्देश मुनियों के ठहरने का स्थान मन्दिर परिसर में ही बनाया जाना हो तो इसे मन्दिर के उत्तर, दक्षिण, आग्नेय अथवा पश्चिम भाग में बनाया जाना चाहिये । इस स्थान में वायव्य कोण में धान्यगृह की स्थापना कर सकते हैं लेय को में हुरिों के लिये गौ के नारे के सारे बनाने चाहिये। ईशान कोण में पुष्प वाटिका बनायें ताकि संघस्थ त्यागीगण पूजा-अर्चना के लिये पुष्प संचय कर सकें।
वसतिका के नैऋत्य भाग में भारी सामा-| का कक्ष बायें । अग्रभाग में अर्थात् पूर्व में यज्ञशाला बनाना चाहिये। पश्चिमी भाग में जल स्थान बनायें। आगे के भाग में शिक्षण के लिये पाठशाला तथा व्याख्यान भवन का निर्माण किया जा सकता है।
वसतिका अथवा त्यागी भवन के दक्षिणी भाग में साधुओं के ठहरने के कक्ष बनाना चाहिये। नैऋत्य भाग के कक्ष में संघ नायक आचार्य श्री के लिये कक्ष बनायें। *
दो एवं तीन मंजिल की वास्तु का निर्माण मट अथवा त्यागी भवन के लिये किया जा सकता है। सामने के भाग में सुशोभित बरामदा बनायें तथा उसके आगे कटहरा बनायें। ऊपर की छत खुली रखों*
वसतिका का प्रवेश पूर्व अथवा उत्तर अथवा ईशान में होना चाहिये। धरातल का ढलान भी इन्हीं दिशाओं में करें । दक्षिणी दीवालों में खिड़की, दरवाजे अत्यंत आवश्यक हों तभी बनाएं। वसतिका के कक्षों को निर्माण इस प्रकार करना चाहिये कि किसी भी कक्ष में ऊपरी बीग बैठने के अथवा शयन के स्थान पर न आये। द्वार एवं बाहरी परिसर के निर्माण में वेध दोष का परिहार अवश्य करें। वास्तु निर्माण के सभी नियम वसतिका के निर्माण के लिये भी पालन करें।
वसतिका निर्माण में सादगी होगा अत्यंत आवश्यक है। भवन की निर्माण शैली मन्दिर अथवा धर्गशालानुमा होना चाहिये न कि होटल अथवा आरामगाहनुमा । यह स्मरण रखना अत्यंत आवश्यक है कि वसतिका त्यागी व्रतो संयमी साधुओं के ठहरने के लिये है न कि गृहस्थों के विश्राम के लिये। अतएव इसमें किसी भी प्रकार से विलासिता श्रृंगार अथवा कामुकता की झलकमात्र भी नहीं आना चाहिये अन्यथा वसतिका निर्माण का उद्देश्य ही नष्ट हो जायेगा।
वसतिका की रंगयोजना में केवल सफेद रंग हो करना चाहिये। फीके रंगों का भी प्रयोग किया जा सकता है। गाढ़े रंगों का प्रयोग वसतिका में न करें। वसतिका में सजावट के लिये ऐसी कोई भी चित्रकारी आदिन करें जो ध्यान में विपरीत वातावरण निर्माण करती हो।
प्राचीनकाल में वसतिका का निर्माण घास-फूस अथवा मिट्टी से भी किया जाता था। मूल भावना सादगी की थी। वर्तमान युग में ऐसा करना अनुपयुक्त एवं अव्यवहारिक प्रतीत होता है। गुफा, कंदरा आदि में ध्यान करना तथा भीषण वनों के मध्य रहता विभिन्न कारणों से संभव नहीं हो पाता। अतएव मुनिगणों के लिये वसतिका का निर्माण करना उपयोगी है।
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*प्रासादस्योत्तरे याम्प्ये थाग्नौ पश्चिमेऽपि वा। यतीनाम'श्रम कुर्या-म तद्वित्रिभूमिकम् ।। प्रा. मं.८/३३ कोष्लागारं च वायव्ये वान्हकोणे महागसम् पुष्पोह तथेशाने नैऋत्तो पात्रमायुधम्॥ प्रा. म. ८/३५ लिथिरिक्तां कुजं धिषणयं रविदं विधं तथा । दयतिथि च गण्डान्तं घरभोपग्रह त्यजेत् ॥ प्रा. गं. ८१३९ "विशालमध्ये षड्दारु: पट्टशालाग्रे शोभिता। मत्सधारणमग्रे च तल पांगेका।: प्रा.मं. ८३४
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(देव शिल्प
बिषीधिका अर्हन्तादि अथवा मुनियों की समाधि के स्थल को निषीधिका कहा जाता है। दूसरे शब्दों में इसे निषिद्धिका भी कहते हैं जिसका अर्थ है निषिद्ध स्थल । सामान्यजनों का यहां साधारणतया सुगम आबागगन नहीं होता।
भगवती आराधनाकार आचार्य शिवार्य जी का उल्लेख है कि निषोधिका ऐसे प्रदेश में हो जो कि एकान्त स्थल हो, अन्य जनों को साधारणतः दृष्टि में न आये । यह प्रकाश सहित होना चाहिये। यह नगर से कुछ दूर हो तथा विस्तीर्ण, प्रासुक एवं दृढ़ होना चाहिये। यह स्थान चींटी आदि कीटों से मुक्त हो, छिद्र रहित सथा घिरा हुआ न हो । यह स्थल विध्वस्त, टूटी बास्तु न हो तथा नमी रहित हो। निषाधिका समतल भूमि पर होना आवश्यक है । स्थल जन्तु रहित होना चाहिये।
मुनिगण ऐसे स्थल का चयन करने के उपरान्त उराका प्रतिलेखन करते हैं अर्थात् पीछी से उस स्थल को साफ करते हैं। चातुमास योग के प्रारंभ काल में तथा ऋतु प्रारंभ के समय सभी साधुओं को मह निसा अवशान का नि:
निषधिका निर्माण की दिशा
आचार्यों ने निषीधिका का स्थान क्षपक की वसतिका (मुनियों का विश्राम स्थल) से नैऋत्य, दक्षिणा अथवा पश्चिम दिशा में होना शुभ एवं कल्याणकारक बताया है।
विभिन्न दिशाओं में निर्मित निषीधिका का फल निम्नलिखित रूप से दर्शाया गया है :
दक्षिण दिशा में - संघको सुलभता से आहार प्राप्ति पश्चिम दिशा में - संघ का सुगम विहार, पुस्तक एवं उपकरणादि की
समयानुकूल प्राप्ति नैऋत्य दिशा में - संघ के लिए हितवर्धक, बोधि एवं समाधि का कारण आग्नेय दिशा में संघ में वातावरण दूषित, साधुओं में अभिमा की स्पर्धा वायव्य दिशा में
संघ में कलह एवं फूट का वातावरण निर्माण की संभावना ईशान दिशा में - व्याधि एवं आपसी खींचातानो का वातावरण निर्माण उत्तर दिशा में - मुनि मरण
अतएव निषाधिका का निर्माण वसतिका के दक्षिण, नैऋत्य अथवा पश्चिम हो करना शुभ है। अन्यत्र निषोधिका कदापि न बनायें। *
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गलती आराधन्ताम् | १९६-९७०/१७३५.भ.31/3./१४३/३२६-१
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(देव शिल्प
३३७)
निषीधिकाकीपूज्यता निर्वाण भूगि को निषधिका कहा जाता है। निर्वाण भूमि से जो भायें सिद्ध पद्य को प्राप्त करते हैं वे उस शूमि को भी पूज्य बना देते हैं। प्राचीनतम ग्रन्थों में भी षिधिका को महत्वपूर्ण स्थान देते हुए उसे पूज्य कहा गया है।
आंतेम तीर्थंकर वर्धमान स्याभी के प्रथम गणधर गौतमस्वामी कत प्रतिक्रमण ग्रंथों में उन्होंने स्पष्ट कहा है - सिटु अर्थात् निषीधिका को नमस्कार है, अरहंतों को नमस्कार है सिद्धों को नमस्कार है।
आचार्य प्रभाचन्द्र ने संस्कृत टीका में निषोधिका के सत्रह अर्थों में इसका अर्थ सिद्ध जीव, निर्माण क्षेत्र तथा उनके आश्रित आकाश प्रदेश किया है ।** गाथा का अर्थ इस प्रकार है:
अर्थात सिद्ध, सिद्ध भूमि, सिद्ध के द्वारा आश्रित आकाश के प्रदेश आदि निषीधिकाओं की में सदा वन्दना करता हूँ।
महान आचाई कुन्दकुन्द कृत षटप्रामृत की टीका में श्रुतसागर सूरि # का काथान दृष्टव्य है:
जो लोग देव, शास्त्र, गुरु की प्रतिगा एवं नियोधिका को पुष्प आदि रो पूजन करने के प्रतिष करते हैं, वे पाप करते हैं तथा उस पाप के प्रभाव से वारकादि दुर्गतियों में पतित होते हैं।
आचार्य नेमिचन्द्र ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रतिष्ठा तिलक शास्त्र में निषाधिका की यथोन प्रतिष्ठा करके उसकी पूजन करने का रपट निर्देश दिया है।
निषीधिका स्थल भी जिनालय की भांति ही पूज्य स्थल है अतएव इराकी पूजयता में किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिये।
वर्तमान काल में निषीधिका दक्षिण भारत में कोल्हापुर, भोज, नांदणी, शेड्याल, रायबाग, तेरदाल, अक्किदाट, में निषाधिकायें हैं। कर्नाटक में श्रवणबेलगोला में चन्द्रगिरि पर्वत पर आचार्य श्री भद्रबाहु स्वाभी की निषोधिका है।
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*णमोत्थुदे गिनीधिए प्रमोत्धु दे अरहंत **सिखाय सिद्ध भूमी सिखाण समाहिझो पालो देसी। एयालो अण्णाओ जिसीहीयामोसया वन्दे ।। #देवहं सत्त्वहं मुणियरह जो विद्येसु करे।। जियम पाउ होइ तसु संसारु भइ।। श्रुत सागर शूरिकृत भालार्थ · देव शास्त्र का प्रतिमासु फिलीपिकासुरमुष्पादिषिः जादिषु लोकाटेषं कुर्गतित ते पापं भवान्त, लेन पापेन तरकादीप्तवित इति ज्ञातव्यम् । (त्रि म.पु.पृ १२.१४
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(देव शिल्प)
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा मंडप
मन्दिर में स्थापित की जाने वाली प्रतिमाओं के लिये एक विशेष महापूजा का आयोजन किया जाता है जिसे पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव का नाम दिया जाता है । इसमें यज्ञ क्रिया भी होती है। इन सबके लिये शास्त्रों में पृथक-पृथक निर्देश दिये गये हैं।
मन्दिर के आगे अर्थात् पूर्व तथा ईशान अथवा उत्तर दिशा में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पूजा महोत्सव का मंडप बनाना चाहिये।
३३८
मन्दिर से इस मण्डप की दूरी ३,५,७,९,१५ या १३ हाथ होना चाहिये। इस मण्डप की आकृति वर्गाकार होना चाहिये। आकार का प्रमाण ८, १०, १२ या १६ हाथ के मान का होना चाहिये । यदि विशाल कुण्ड बनाये जायें तो बड़ा मंडप भी बनाया जा सकता है। मंडप १६ स्तंभों का बनाना चाहिये। इसे तोरणों से शोभायुक्त करना चाहिये। मंडप के मध्य में वैदिका बनायें। यज्ञ के लिये ५.८ या ९ कुण्ड बनाना चाहिये ।
*
वर्तमानकाल में पंचकल्याणक महोत्सवों का स्वरूप अत्यंत विशाल हो गया है। इनमें अत्यधिक व्यय भी हो रहा है। पंचकल्याणक पूजा उत्सव पूरी गंभीरता के साथ विधि विधान पूर्वक ही करवाना चाहिये । इसमें किसी भी प्रकार की असावधानी आयोजनकर्ताओं को असीम संकट में डाल सकती है।
पंचकल्याणक पूजा में यज्ञकुण्ड
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दिशाओं के अनुरूप यज्ञकुण्डों का आकार पृथक-पृथक रखा जाता है पूर्व
वर्गाकार
आग्नेय
योन्याकार
दक्षिण
अर्धचन्द्राकार
नैऋत्य
पश्चिम
त्रिकोण
गोल
षट्कोण
अष्टदल पद्माकार अष्टकोण
वायव्य
उत्तर
ईशान
ये कुण्ड अष्ट दिशाओं के दिक्पालों के लिये निर्मित किये जाते हैं। पूर्व एवं ईशान दिशा के मध्य भाग में (पूर्वी ईशान में) आचार्य कुण्ड बनायें। इसका आकार गोल या वर्गाकार रखें।
ये कुण्ड अष्ट दिशाओं के दिक्पालों के लिये निर्मित किये जाते हैं। पूर्व एवं ईशान दिशा के मध्य भाग में (पूर्वी ईशान में) आचार्य कुण्ड बनायें। इसका आकार गोल या वर्गाकार रखें।
* प्रा.नं. ८/४१,४२,४३. ** मंडप कुंड सिद्धि / ३२ (प्रा.म. ८)
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देव शिल्प
उत्तर
कुण्डों का आकार एवं विस्तार आहुतियों की संख्या के अनुरूप ही कुण्ड का विस्तार रखा जाता है आहुतियों की संख्या
१० हजार आहुतियों के लिए ५० हजार आहुतियों के लिए १ लाख आहुतियों के लिए १० लाख आहुतियों के लिए ३० लाख आहुलियों के लिए ५० लाख आहुतियों के लिए ८० लाख आहुतियों के लिए १ करोड़ आहुतियों के लिए कुण्ड की तीन मेखलायें ४, ३, २ अंगुल / इंच की रखना चाहिये ।
पूर्व
ईशान
.श
वायव्य
यज्ञ कुण्ड का मान हाथ ( २ कुट) का कुण्ड २ हाथ ( ४ फुट ) का कुण्ड ३ हाथ ( ६ फुट ) का कुण्ड ४ हाथ ( ८ फुट ) का कुण्ड ५ हाथ (१० फुट) का कुण्ड ६ हाथ (१२ फुट ) का कुण्ड 19 हाथ ( १४ फुट ) की कुण्ड ८ हाथ ( १६ फुट ) का कुण्ड
विदी
पश्चिम
प्र. मं ८/४५,४६,४७
आग्नेय
३३९
नैत्राय
दक्षिण
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(देव शिल्प
(३४०) प्रतिष्ठा मण्डप
पंच कल्याणक प्रांतेष्टा मण्डप का आकार १५० हाथ लम्बा तथा १०० हाथ पीड़ा हो । उसमे बंदी का चबूतरा २४ हाथ लम्बा एवं इतना ही चौड़ा वर्गाकार बनायें । वेदी की
चाई २ से ४ हाथ रखें। इसमें ही मध्य में एक वर्गाकार वेदी ( हाथ लम्बी तथा इतनी ही चौड़ी बनायें इरो सागरण्डल वेदी पाहत हैं । इराकी ऊंचाई १/६ हाथ रखें । इसी के सामने ४ हाथ लम्बा-चौडा समवशरण मण्डल बनायें। इसके पीछे १ हाथ के अन्तर से तीन कटलो बनवायें जो २-२ हाथ चौड़ी तथा १-१ हाथ ऊंची हो। पीछे की दीवाल की ऊंचाई ३,१/२ हाथ रखें।
वेदिका
पंच कल्याणक
प्रतिष्ठा मंडप
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(देव शिल्प
३४१ पांडुक शिला
प्रतिष्ठा गण्डा से उत्तर दिशा में पांडुक शिली की रचना की जाती है । सर्वप्रथम चार हाथ (आत कुट) ऊंची आठ हाथ (१६ फुट) व्यास की प्रथम कटनी बनायें। इसके ऊपर ३.१/२ हाथ (७ फुट ऊँची, वार हाथ (आउ फुट) व्यारा की दूसरी कटनी बनाये । इसके ऊपर २.१/२ हाथ (५ फुट) ऊँची १ हाथ (२ फूट) व्यास की तोसरी जाटनी बनायें। तीनों कटनी पूर्ण वृत्ताकार होना चाहिए। अभिषेक जल निकालने के लिए टकी हुई नलिका लगायें । ऊपर चढ़ने के लिए पूर्व से चढ़ती हुई सीढ़ियां बनायें। सुविधा के लिए पश्चिम में भी सीढ़ी बना सकते हैं। पांडुक शिला ऐसे खुले स्थान में बनायें जहां गजराज (ऐरावत हाथी शिला की परिक्रमा कर सके।
पांडक शिला शुगेरुपति के ऊपरी भाग में होती है जिसके ऊपरी अर्धचन्द्राकृति शिला पर नवजात भगवान को इन्द्र ले जाकर अभिषेक करता है। उसी परम्परा का निर्वहन कर पंचकल्याणक ऊसव में पाण्डुका शिला बनाकर उस पर विधिनायक प्रतिमा को रखकर अभिषेक किया जाता है।
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And
प्रतिष्ठा हेतु पांडुक शिला
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(देव शिल्प
(३४२) स्तूप स्तूप एक पवित्र स्मारक रचना है। शिद्ध पुरुषों के मोक्ष मिना स्थल पर सामान्यतः इनका निर्माण किया जाता है। रगारक के रूप में एक ची स्थायो होरा रांरचना निर्माण की जाती है । जैन तथा बौद्ध धर्मों के स्तूप निर्माण की प्राचीन परम्परा है।
स्तूप शब्द का प्राकृत रुप थप है। इसका अर्थ है हर लंगाना। यह एक पुण्य स्थान है, जिसमें भस्म की प्रतिष्ठापित किया जाता है । स्तूप के स्थान में पवित्रता की भावना तथा अशुद्धि से रक्षा करने की भावना निहित है। भस्म को एक पात्र में रखा जाता है। भरग पात्र का निचला भाग धातु गर्भ कहलाता है। इसके ऊपर ही स्तूप संरचन्ना का निर्माण किया जाता है ।
जैन परम्परा में स्तूप में अरिहति सिद्ध की प्रतिमाओं रो चित्र विचित्र सुसज्जित किया जाता है। रामवशरण में भवन भांगे की भवन पंक्तियों में स्तूप की रचना होती है।
भरत चक्रवर्ती ने भगवान ऋषभदेव के अग्नि संस्कार स्थल पर तीन बड़े स्तूप बनवाये तथा अनेक छोटे स्तूप बनाये साथ ही सिंह निषद्या नामक एक योजन विस्तार का चतुर्मुख जिनालय बनवाया।
बौद्ध स्थापत्य में स्तुप उल्टे टोकरे के आकार के बनाये जाते हैं । बौद्ध स्तूपों का निर्माण सम्राट अशोक (२६२-२३२ ई.पू.) के सागर से अधिक किया गया । गुप्तकाल में जैन एवं बौद्ध दोनों स्तूपों का निर्माण किया गया।
जैन स्तूप बौद्ध स्तूपों से अधिक प्राचीन मिलते हैं। मथुरा में स्थित जैन स्तूप ईसा पूर्व का था। खंडरों रो ज्ञात होता है कि उसका तल भाग गोलाकार था जिसका व्यारा ४७ फुट था। उसमें केन्द्र से पारेधि की ओर बढ़ते हुए व्यारार्ध वाली दीवाले ईटों से चुनी गई थी, ईटें छोटी बड़ी है, रतुप के बाह्य भाग में जिन प्रतिमाएं थी । ऐसा लगता है कि आसपास तोरण द्वार एवं प्रदक्षिणा पश्च रहा होगा।
बौद्ध स्तूप को चैत्य भी कहा जाता है, जिराका अर्थ है चिता की भस्म को चुनकर एक पात्र में रखकर उस पर निर्मित स्मारक । चैत्य शब्द का जैन परम्परा में अर्थ जिन प्रतिमा तथा चैत्यालय का अर्थ जिन मन्दिर माना जाता है।
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जैन और बौद्ध स्तूप
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(देव शिल्प)
३४३
खण्डित प्रतिमा प्रकरण
खंडित प्रतिमाओं के विषय में सामान्य उपासक के मन में अनेकों भ्रमात्मक जानकारी होती है। प्रतिमा पूजन करते करते समय के साथ घिस जाती है तथा उसके अंगउपांग घिस कर लुप्त हो जाते हैं। लापरवाही अथवा दुर्घटनावश भी प्रतिमा खंडित हो सकती है। ऐसी स्थिति में प्रतिमा की पूज्यता के विषय में संदेह हो जाता है। आगम ग्रन्थों के मतानुसार ही निर्णय लेना श्रेयस्कर है।
अपूज्य खंडित प्रतिभा
जिस प्रतिमा के नाक, मुख, नेत्र, हृदय, नाभि आदि अंगोपांग खंडित हो गये हो, उनकी पूजा नहीं करना चाहिये ।
खण्डित, जली हुई, तिड़की हुई, फटी हुई, टूटी हुई प्रतिमा पर मन्त्र संस्कार नहीं रहते। वह पूज्यनीय नहीं रहती है। मरतक आदि से खंडित प्रतिमा सर्वथा अपूज्य रहती है।
अतिशय सम्पन्न प्रतिमाओं के संबंध में खंडित प्रतिमा होने पर वे प्रतिमा अपूज्य नहीं मानी जातीय प्रतिमा का स्वरुप ही भंग हो गया हो तो प्रतिभा पूज्य नहीं रहती। यदि सौ से अधिक वर्षों से किसी प्रतिमा की पूजा की जा रही हो तो वह प्रतिमा दोष युक्त रहने पर भी पूज्य होती है। यदि प्रतिमा महापुरुषों के द्वारा स्थापित हो तो उसके विकलांग होने अथवा किंचित खंडित होने पर भी प्रतिमा पूज्य है. उसका पूजन सार्थक होता है।
प्रतिमा खंडित हो जाने पर कर्तव्य
यदि किसी व्यक्ति के हाथ से प्रतिमा खंडित हो जाये अथवा किसी दुर्घटना से प्रतिमा खंडित हो जाये तो इस विधि का अनुकरण करें
सर्वप्रथम शांति मन्त्र अथवा णमोकार मन्त्र की १५० माला फेरकर जाप करें। तदनन्तर पूजन विधान करें। शांति विधान, पंच परमेष्ठी विधान अथवा चौबीस तीर्थंकर विधान में से किसी एक विधान का पूजन कर सकते हैं ।
जिन तीर्थंकर की प्रतिभा खंडित हुई हो उसी तीर्थंकर की प्रतिभा रखें तथा १००८ कलशों से जल एवं पंचामृत अभिषेक विनय पूर्वक करना चाहिये। विधान समाप्त होने के उपरांत णमोकार मन्त्र पढ़कर ५०८ होम आहुति देवें। इसके उपरांत प्रतिमा (खंडित) को कपड़े में बांधकर विनयपूर्वक अगाध जल में विसर्जित कर देवें ।
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(देव शिल्प
३४४
प्राकृतिक आपदा आने पर कर्तव्य
यदि मन्दिर वास्तु अथवा परिसर में कोई प्राकृतिक आपदा आती है जैसे बाढ़, भूकम्प, बिजली गिरना, दुर्घटना इत्यादि तो प्रथम मन्दिर की सफाई करें तथा पश्चात् भगवान का पूजन करें। इसके उपरान्त वृहद शांति यज्ञ तथा पुण्याह वाचन करना चाहिये। इसके पश्चात् जीर्णोद्धार का कार्य आरम्भ करें ।
खंडित प्रतिमाओं का संरक्षण
प्राचीन काल से ही प्रतिमाओं के भंग हो जाने पर उनके विसर्जन कर देने की
परम्परा है। किन्तु वर्तमान काल में इसमें एक नई शैली विकसित हुई है। इन प्रतिमाओं को पुरातत्व की दृष्टि से अमूल्य निधि माना जाता है। इन प्रतिमाओं को देखकर प्राचीन इतिहास, वास्तु शिल्प, मूर्तिकला इत्यादि के विषय में विस्तृत जानकारी मिल जाती है। धर्म के गौरवशाली इतिहास से अन्य लोग परिचित भी होते हैं। अतएव यदि प्रतिमाओं एवं मन्दिरों के खण्डों का संरक्षण पुरातत्व की दृष्टि से किया जाये तो अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है।
जिस भवन में प्राचीन प्रतिमाओं का संरक्षण किया जाना है, उसमें पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था हो तथा सोड, दीमक आदि से सुरक्षित हो। वायु, धूल, आदि का प्रभाव सीधे न पड़ता हो, सीधे धूप न आती हो, प्रतिमाओं के सुरक्षित रखरखाव की पूरी व्यवस्था हो, ऐसा भवन ही संरक्षण के लिये उपयुक्त है। भवन का मुख उत्तर में हो तथा द्वार ईशान भाग में हो। प्रतिमाओं को दक्षिणी दीवाल तथा पश्चिमी दीवाल के समीप रखा जाये। ईशान भाग खाली रखें। वहां पर कार्यरत व्यक्ति उत्तर मुख बैठकर कार्य करे ।
प्रतिमा खंडित होने पर प्रायश्चित
जिस व्यक्ति के हाथ से प्रतिमा खंडित हुई हो उसे उस दिन उपवास करना चाहिये तथा निग्रंथ आचार्य परमेष्टी पास जाकर विनयपूर्वक घटना का निवेदन कर प्रायश्चित की प्रार्थना करना चाहिये। साथ ही जिन तीर्थंकर की प्रतिमा भग्न हुई है, उन्हीं तीर्थंकर की प्रतिमा उसी आकार की स्थापित करवाना चाहिये। गुरु की आज्ञा अनुसार पूजन, विधान, दान आदि करवाना चाहिये। संकल्प पूरा होने तक रस त्याग आदि संकल्प लेना चाहिये।
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(देव शिल्प
३४५) .
प्रतिमा के अंग भंग होने के फल
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भग्न अंग नख भंगअंगुली भंग नासिका ग बाहुभंग - पैर भंग - पादपोठ भंग चिन्ह भग परिकर भंग छत्रभंग - श्रीवत्स मंग आसन भंग
फल शत्रु भय देश विनाश कुल नाश बंधन धन हानि कुल नाश योहानाश सेवकों का नाश लक्ष्मी नाश सुख नाश ऋद्धि नाश
उपासक को चाहिए कि अत्यंत सावधानीपूर्वक ही देव प्रोतेगा का पूजननअभिषेक करें। प्रतिमा उठाने अश्चवा रखने में अत्यधिक सावधानी रखें । प्रतिमा आड़ी टेढ़ी न करें, प्रतिभा उठाते रखते समय उलटी न करें। किसी भी स्थिति में प्रतिमा भग्न न हो।
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(देव शिल्प
(३४६)
जीगोंद्वारप्रकरण
मन्दिर निर्माण करने के उपरांत निरन्तर उपासकगण वहाँ आराधना आदि धर्म कार्य करते हैं। पर्याप्त समय के उपरान्त प्राकृतिक परिवर्तनों तथा काल यापन से वास्तु में जीर्णता आने लगती है। भित्ति, स्तंभ, छत आदि शिथिल होने लगते हैं तथा उनके पुननिर्माण की आवश्यकता का आभास होने लगता है। पूजनादि क्रियाओं के परिणामस्वरुप पर्याप्त काल के पश्चात् प्रतिभाओं में क्षरण होने लगता है। अंगोपांग घिसने से प्रतिमा का स्वरुप बदल जाता है तथा उनकी पूज्यता समाप्त हो जाती है। ऐसे परिस्थिति उत्पन्न होने पर दो ही विकल्प होते हैं -
प्रथा - नवीन मन्दिर का निर्माण तथा द्वितीय - प्राचीन मन्दिर का जीर्णोद्धार कर पुनर्जीवन ।
वास्तु शास्त्र के दृष्टिकोण से नवीन मन्दिर से भी अधिक महत्व जीर्णोद्धार करने का है। ऐसा करने से प्राचीन वास्तु के साथ हो पुरातत्व स्थापत्य की सुरक्षा होती है। वास्तु के जीर्ण होने से गन्दिर अंगहीन होकर सदोष हो जाता है। प्रतिभा भी खण्डित होने पर पूज्य नहीं रहती अतरव इनका समयोचित जीर्णोद्धार करा देने से वास्तु की आयु में वृद्धि हो जाती है।
जीर्णोद्धार के लिए निर्देश जीर्णोद्धार कराते समय आवश्यक है कि मन्दिर वास्तु यदि अल्प द्रव्य से निर्मित हो, उससे अधिक द्रव्य की वास्तु का निर्माण करें। यदि वास्तु मिट्टी की है तो काष्ठ की बनाएं। यदि काष्ठ की हो तो पाषाण की बनाये । पाषाण की हो तो धातु की बनायें। धातु की हो तो रस्न की बनाये । मूल भावना यही है कि श्रेष्ठतर द्रव्य का उपयोग किया जाये। * २. मंदिर निर्माण अथवा जीर्णोद्धार के लिए किसी अन्य वास्तु का गिरा हुआ ईंट, चूना, गारा, पाषाण, काष्ठ आदि प्रयोग नहीं करें। आचार्यों ने इसका स्पष्ट निषेध किया है। ऐसा करने से देवालय सूने पड़े रहते हैं उनमें पूजा नहीं होती। गृह वास्तु में ऐसा किये जाने पर गृहस्वामी उसमें नहीं रह पाता।" ३. . यह आवश्यक है कि जीर्णोद्धार की जाने वाली वास्तु जिरा आकार अथवा मान की हो नवीन वास्तु उसी आकार एवं मान की रखना चाहिये। यदि पूर्व मान से कम किया जायेगा तो क्षय होता है। यदि मान अधिक किया जायेगा तो स्वजन हाने होने की संभावना रहेगी। अतएव भान परिवर्तन नहीं करें। # ४. जीर्णोद्धार का कार्य प्रभु के समक्ष निश्चित समयावधि का संकल्प लेकर करें। ५. प्रतिमा का उत्थापन विधि विधान पूर्वक करें । अनावश्यक ऐसा न करें अन्यथा भोषण संकटों का आगमन होगा। जीर्णोद्धार के लिए वेदी से प्रतिमाओं के उटाने का कार्य शुभ लग्न, मुहुर्त में पूर्ण विधि रो करें। ऐसा करने से कार्य निर्विधन सम्पन्न होता है।
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*प्रा. मं. ८/८ शि. २. ५/१०८, "शि. र. १/१५९ प्रा. म. ८/४, #प्रा. मं.८/ शि. २.५/१०६
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(देव शिल्प
(३४७)
जीर्णोद्धारकार्य निर्णय जीर्णोद्धार के लिये मूर्ति अथवा प्रतिमा या देशालय को जब उठाया जाता है तब उसमें अत्यधिक सावधानी रखना आवश्यया है । बिना विधि के मात्र गायावेश में यह कार्य करना सर्व दुःखों का कारण बनता है।
यदि वारतु/देवालय को अच्छी स्थिति में रहने के बाद भी उसे जीर्णोद्धार अथवा नवीनीकरण के नाम पर गिराया अथवा विस्थापित किया जायेगा तो उसके भीषण टुष्परिणाम होंगे। देवालय विस्थापन करने वाला तथा विस्थापन करवाने वाला दोनों ही चिरकाल तक रक का दुःख गोगते हैं।
देव प्रतिमा स्थापित किया हुआ देवालय का विस्थापन कदापि न करें। अचल प्रतिमा को यदि चलित किया जायेगा तो राष्ट्र में विभ्रग या विप्लव होने की संभावना रहेगी । ऐसा विस्थापन करने से अल्पकाल में ही देश का उच्छेद हो जाता है।**
अचल देव प्रतिमा को चलायमान करने से प्रतिमा उत्थानकर्ता का कुल निश्चय ही नष्ट हो जाता है तथा स्त्री एवं पुत्र का मरण भी होता है, ऐसा पूजक छह मारा गें नष्ट हो जाता है ।#
जीर्ण देवालय गिराकर नया बनाने की मर्यादा
मिट्टी का देवालय यदि आकार रहित होकर गिर गया हो तो उसे गिराकर नया बना ले। पाषाण का देवालय यदि तीन हाथ आकार का हो अथवा डेढ़ हाथ का काष्ठ का देवालय हो तो उसे जीर्ण होने की स्थिति में गिराकर नया करा सकते हैं। इसरो अधिक ऊंचा देवालय गिराने का निषेध है ।
जीर्णोद्धार करने का निर्णय लेने से पूर्व सुविज्ञ आचार्य एवं शिल्य शास्त्रज्ञ रो परामर्श करने के उपरांत ही शास्त्रोक्त विधि से कार्यारम कार चाहिये।
प्रतिमा उत्थान एवं संकल्यविधि
जब यह निश्चय कर लिया जाये कि मन्दिर का जीर्णोद्धार किया जाना है तो सर्वप्रथम परम पूज्य आचार्य परमेष्ठी जन एवं विद्वानों से परामर्श कर पूरो योजना बनाना चाहिये । तदनन्तर शुभ मुहूर्त का निर्णय कराना चाहिये। इसके उपरांत एक वर्गाकार चबूतरा बनवाये, जिरा पर ले जाकर मूर्तियों को स्थपित करना है । यह चबूतरा ठोस होना चाहिये। इस पर चंदोबा, त्र आदि लगायें तथा प्रतिमा विराजमान करने के पूर्व इसकी शुद्धि करवा लेवें। यहाँ शान्ति मन्त्र का प्यारह हजार जाप देखें। इसके उपरांत मंदिर के व्यवस्थापकों को पूज्य गुरु आदिकों की उपस्थिति में मन्दिरों में पूजा विधान करना
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*शि.र./०१३, "शि.र.५/१२०, ##शि..५/-२२,शि.र. ५/१३३.
.र.५/५५४
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(देव शिल्प
(३४८) चाहिये। इसके पश्चात् जीर्णोद्धार कार्य का उत्रास्तयित्व ग्रहण करने वाले उपासकों को जिनेन्द्र प्रभु की अंदी के समक्ष श्रीफल अर्पण कर यह संकल्प करना चाहिये -
हम देवाधिदेव श्री ---------- ------- (मूलनायक) सहित समस्त जिनेन्द्र देदों को यहाँ से उत्थापन कर नये स्थान ------------- में (जहाँ भगवान का स्थानांतरित करना है) स्थापित करना चाहते हैं। सदैव की भांति हम यहां भी भक्तिपूर्वक श्रीजी का पूजन अभिषेक नियमित रूप से करते रहेंगे। जीर्णोद्धार कार्य समाप्त हो जाने पर हम सभी प्रतिमाओं को विधि पूर्वक मूल स्थान में स्थानांतरित कर देवेंगे। जीर्णोद्धार कार्य हम ------------- ---- समय मर्यादा में पूरा करने का संकल्प लेते हैं, इस अवधि में हम ------- - रस त्याग, एकाशन आदि संयम का पालन करेंगे।
___ हम यहाँ स्थित जिन शासन प्रभावक देवी-देवताओं से भी विनय करते हैं कि वे हमें इस धर्म कार्य में पूर्ण सहयोग प्रदान करें तथा यह कार्य निर्विघ्न तथा समय सीमा में पूरा हो सके इस हेतु समुचित सहकार एवं मार्गदर्शन देखें।
जिनेन्द्र प्रभु के समक्ष श्रीफल अर्पण कर संकल्प करें। शासन देवों, वास्तु देवों तथा दिग्पाल देवों के समक्ष भी आदर पूर्वक यथायोग्य वन्दना एवं श्रीफल अर्पण कर याचना करें कि यदि कोई जाने - अनजाने में भूल हो जाये तो उसे आप अनुग्रह पूर्वक क्षमा करें तथा समुचित संकेतों से हमें मार्गदर्शन दें।
इसके उपरांत मंगलध्वनि के साथ प्रतिमाओं को नई येदी पर स्थापित करें। प्रतिमा स्थापना पर्याप्त सावधानी से करें इसमें प्रसाद या उतावली न करें। बिना पूजा विधान एवं हवन किये प्रतिमाओं को कदापि प्रस्थापित न करें।
जीर्णवास्तुपातन विधि जीणोद्धार करने के लिए स्वर्ण अथवा रजत का हाथो या बैल बनायें। इसके दांत अथवा सींग से प्रथम शुभ मुहूर्त में जीर्ण वास्तु गिराना प्रारंभ करें। इसके पश्चात् विज्ञ शिल्पी सारी वास्तु को गिरी देखें।
जीर्णोद्धार प्रारम्भ समयचयन शुभ दिवस, शुभ नक्षत्र, शुभ लग्न, उत्तग बलवान चन्द्रमा तथा चन्द्र तारा का बल संयुक्त शुभ गुहूर्त में तथा अमृतसिद्धि योग में जीर्णोद्धार कार्यारम्भ करना चाहिए ।
जीर्णोद्धार के लिएवास्तुचालन
यदि अय जीर्ण प्रासाद मिट्टी का हो तो उरो पूरी तरह गिरा दें तथा पुनः निर्माण करें। यदि तीन हाथ प्रमाण का काष्ट निर्मित आधा पुरुष ऊँचा प्रासाद हो तो इसे चलायमान करें। इससे ज्यादा ऊँचा हो तो चलायमान नहीं करें। ##
*.र.५/१६, **प्रा.
८/१५ शि. र ५/५१८. #शि.२.५/१५. ##i. मं.८/११शि. ५/१२
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(देव शिल्प)
३४९
जीर्णोद्वार हेतु वास्तु पातन की दिशा
जीर्णोद्धार हेतु वास्तु पिराने का कार्य ईशान दिशा से प्रारंभ करना चाहिये तथा ईशान से वाच्य एवं आग्नेय की और यह कार्य करते हुए नैऋत्य दिशा का भाग सबसे अंत में गिराना चाहिये। गिराये हुए मलबे को उत्तर, ईशान तथा पूर्व दिशा में एकत्रित नहीं करें । इस मलबे को दक्षिण, नैऋत्य अथवा पश्चिम में रखें।
जीर्णोद्धार का महान पुण्य
सभी शास्त्रकारों ने मन्दिर निर्माण में असीम पुण्य अर्जन कहा है। किन्तु यदि प्राचीन जीर्ण मन्दिर का उद्धार कर उरो नवनिर्मित किया जाये अथवा जीर्णोद्धार किया जाये तो आठ गुना अधिक पुण्य का अर्जन होता है अतएव नव मंदिर निर्माण करने के स्थान पर प्राचीन मन्दिर का जीर्णोद्वार करने प्रा. नं. ८/६ में विशेष अनुराग रखना चाहिये ।
मन्दिर के अतिरिक्त बावड़ी, कुआं, तालाब तथा भवन का जीर्णोद्धार करने से भी आत गुना पुण्य प्राप्त होना है।
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देव शिल्प
३५०
प्रतिमा का मंजन
पर्युषण पर्वराज पूर्व प्रायः सभी मन्दिरों में मूर्तियों का मंजन किया जाता है। इसी भांति किसी विशेष अवसर यथा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा उत्सव आदि के पूर्व भी मन्दिर की प्रतिमाओं का गंजन किया जाता है। जानकारी के अभाव में अथवा असावधानी के कारण प्रतिमाओं को अधिनय पूर्वक परात में एकत्र कर लेते हैं। ऐसा करना अत्यंत अनिष्ट कारक कर्म है।
प्रतिमाओं को स्थान से उत्थापित करने की विधि ठोक वैसी ही है जैसी जीर्णोद्धार के समय प्रतिमा उत्थापन के समय की जाती है। विधिपूर्वक संकल्प करके ही प्रतिमा का उत्थापन करना चाहिये। मूलनायक प्रतिमा वृत्यकार प्रतिमाओं की उत्थापित न करें, वरन् वहीं मंजन कर लेवें ।
प्रतिमा का मंजन करने के लिए पिसी हुई लौंग, रीठे के पानी का तथा उत्तम द्रव्यों का प्रयोग करना चाहिये । धातु की प्रतिमा पर नीबू, इमली आदि नहीं लगाएं। साबुन, डिटरजेन्ट, लिक्विड, केमिकल आदि प्रतिमा पर न लगायें। किसी भी प्रकार का अशुद्ध द्रव्य प्रतिमा पर कदापि न लगायें।
मंजन कार्य समाप्त होने के उपरांत पूर्ण विनय एवं विधि के साथ प्रतिमा को यथास्थान स्थापित करना चाहिये ।
मन्दिर में अशुद्ध द्रव्य का प्रवेश
यदि किसी असावधानी अथवा अचानक ही कोई ऐसी घटना हो जाये जिससे मन्दिर की शुचिता गंग हो तो तुरंत हो अशुद्ध पदार्थों को वहां से हटवाना चाहिये । यदि मन्दिर में हड्डी, गांस, चरबी, शूकर या गिद्ध, कौआ, कुत्ता आदि मांसभक्षी प्राणी मंदिर में प्रवेश कर जायें तो मन्दिर की शुचिता भंग होती है। मन्दिर में चाण्डाल आदि का प्रवेश अथवा बच्चे द्वारा मल, मूत्र त्याग, वमन अथवा किसी महिला के असमय रजस्वला हो जाने से भी मन्दिर की शुचिता भंग होती है।
ऐसा अवसर आने पर अशुद्ध पदार्थ को तुरन्त हटवायें। धुलाई करवायें, चूना पुतवायें। इराके पश्चात् जिनेन्द्र प्रभु का अभिषेक, शान्तिधारा, पूजा, कोई विशिष्ट विधान, जप, हवन तथा ध्वजारोहण करना चाहिये ।
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(देव शिल्प)
वज्रलेप
प्रतिमाओं एवं देवालयों को क्षरण से बचाना आवश्यक होता है। यदि प्रतिमा भंग हो जाए अथवा उसके अंग उपांग घिस जायें तो प्रतिमा की पूज्यता समाप्त हो जाती है। क्षरण से बचाकर प्रतिमा की स्थायित्व के निमित्त उसमें वज्रलेप करना आवश्यक है। ऐसा करने से हमारी सांस्कृतिक धरोहर स्थायी रह सकती है। प्रतिमा का वज्रलेप करने के उपरांत उसका पुनः संस्कार करा लेना चाहिये । यहां यह स्मरण रखें कि खण्डित प्रतिमा के अंगोपांग मसाले या अन्य द्रव्य से बनाकर उसे पूरा करके उस पर वज्रलेप नहीं चढायें। ऐसा कदापि न करें । वज्रलेप सिर्फ अखण्डित प्रतिमा पर ही चढायें । खण्डित प्रतिमा न पूजा के योग्य है न ही पुनः संस्कार के । कच्चा तेंदूफल, कच्चा कैंथ फल, रोमल के फूल, शाल वृक्ष के बीज, धामनवृक्ष की छाल तथा वच इनको बराबर-बराबर वजन कर १०२४ तोला पानी में डालकर काढा बनायें। जब पानी आठवां हिस्सा रह जाये तब उसे उतारकर उसमें श्रीवसक ( सरो) वृक्ष का गोंद, होराबोल, गुगल, भिलवा, देवदार, कुंदरू, राल, अलसी तथा बिल्व (बेलफेल) को महीन कर बराबर-बराबर लेकर गिला देवें तथा खूब हिलायें तो वज्रलेप तैयार हो जायेगा। *
यह लेप प्रतिमा, देवालय आदि के जीर्ण होने पर गरम गरम लगायें। ऐसा करने से लेप की हुई प्रतिमा अथवा देवालय की स्थिति काफी अधिक यहां तक कि हजार वर्ष बढ़ जाती है। वज्रलेप तैयार करते समय अनुभवी व्यक्ति से परामर्श अवश्य ले लेवें ।
# आमं तिन्दुकमामं कपित्थकं पुष्पमपि च शाल्मल्याः । वीजानि शल्लकीनां धन्चनवल्को व्य चेति ॥ शि.२.१२ / २१० एतैः सलिलद्रोणः क्वाथयितव्योऽष्टभागशेषश्य ।
३५१
अवतार्योऽस्य च कुरुको द्रवरितः रामनुयोज्यः ॥ . २.१२ / २११ श्रीटारकरश गुग्गुलु भल्लातकः कुन्दुरुकसर्जरसः ।
अतसी बिल्वैश्च युतः कल्कोऽयं वज्रलेपारव्यः । शि. २.१२/२१२ प्रासादह वलभी लिंगप्रतिमासु कुयकूपेषु
सन्तप्तो दातव्यो वर्षसहस्राय तस्यायुः ।। शि. २. १२ / २०३
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(दव शिल्प
(३५२ वास्तुशांति विधान जब भी किसी वास्तु का निर्माण अथवा पुनर्निर्माण किया जाता है, उसके भीतर प्रवेश के पूर्व ही। उसकी शांति के निगित्त वारतु शांतेि विधान पूजा करना चाहिये । जैन एवं जैनेतर दोनों में वार तु शांति पूजा का प्रचलन है किन्तु इसके लिए समुचित जा-कारी सामान्य जनों को नहीं होती। कुछ गृहस्थ शांति विधान अथवा अन्य सामान्य पूजा पाठ करके अपने कर्तव्य को इतिश्री समझ लेते हैं। जैनेतर सम्प्रदायों । में अनेकों स्थानों पर पूजा के स्थान पर विभिन्न हिंसा जन्य क्रियाएं तथा बांले का आयोजन करने की पद्धति देखी जाती है। गृह प्रवेश एक अत्यंत मंगलमय शुभ कम है तथा इस अवसर पर किसी भी प्राणी का वध करना तथा उसकी बोल से वास्तु शांति भानना केवल भ्रम है । यह पापमूलक क्रिया है तथा गृह प्रवेश के निमित्त की जाने वाली पशु बलि से कभी भी गृह उपयोगकर्ता सुखो नहीं रह सकता।
प्राचीन काल से प्रचलित शास्त्रों के अनुरुप आशाधरजी विरचित वारतु शांति विधान को आधार करके शांति पूजा करना चाहिये। श्री जिनेन्द्र प्रभु की पूजा समाहित वास्तु शांति विधान करके कारतु भूमि पर स्थित वारतु देवों को अर्घ्य देवार गृह प्रवेश करना इष्ट है।
वास्तु शांति पूजा जिस भांति गृह निर्मित होने के उपरांत वास्तु शांति पूजा की जाती है, उसी भांति देवालय का निर्माण करने के उपरान्त भी वास्तु शांति पूजा अवश्यमेव करना चाहिये। ऐसा करने से वास्तु निर्माण के समय की गई क्रियाओं में शुद्धता आती है। मन्दिर निर्माण के उपरांत सर्वप्रथम मन्दिर प्रतिष्ठा की जाती है। इस पूजा के उपरांत ही भगवान की प्रतिमा मन्दिर में स्थापित की जाती है। तभी गन्दिर एवं भगवान की प्रतिमा दोनों पूज्यता को प्राप्त होते हैं!
प्राची- शास्त्रों में विधान है कि मन्दिर निर्माण के दौरान विभिन्न चरणों में भी वास्तु शांति पूजना करः।। चाहिये। कम से कम सात कार्यों के करते समय वास्तु पूजन अवश्य करना चाहिये *:१ कुर्म रथापना
२ द्वार स्थापना ३ पद्मशिला की स्थापना ४ प्रासाद पुरुष की स्थापना ५ कलशारोहण
६ ध्वजारोहण ७ देव प्रतिष्ठा उपरोक्त सात कार्यों के करते समय वास्तु पूजन पुण्याह सप्तक कहलाता है।
*कूर्मसंस्थापने द्वारेमभास्यायां चौरुषं। घटे ध्वज प्रतिष्ठाय -मेव पुण्याहसप्तक । प्रा.न. १/३.
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(देव शिल्प)
मंदिर निर्माण कार्य के मध्य में सर्वशांति के लिए विभिन्न चरणों में शांतिपूजा अवश्य ही करना
चाहिये :
१.
३.
५.
७.
--
**
भूमि का आरम्भ
शिलान्यास
खुर शिला स्थापन
स्तम्भ स्थापन
पद्मशिला स्थापन
९.
११. प्रासाद पुरुष स्थापन
१३. कलशारोहण
**
* भूम्यारम्भे तथा कूर्मे शिलायां सूत्रपातने ।
२.
४.
६.
८.
खुरे द्वारोच्छ्रये स्तम्भे पट्टे पद्यशिलासु ॥ प्रा.म. १ / ३७ शुकनासे च पुरुष घण्टायां कलशे तथा ध्वजोच्छ्रये व कुर्वीत शान्तिकानि चतुर्दश ॥ प्रा.म. ५/३८
१०.
१२.
कूर्म न्यास
सूत्रपात (तल निर्माण)
द्वार स्थापन
पाट चढ़ाते समय
शुकनास स्थापन
आमलसार चढ़ाना
३५३
१४. ध्वजारोहण
यदि अपरिहार्य कारणों से चौदह शांतिपूजा न हो सकें तो कम से कम पुण्याह सप्तक की सात पूजा अवश्य हो करें |
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(स्व शिल्प
३५४) वास्तुपुरुषप्रकरण किरोगी वास्तु संरचना का निर्माण करने से पूर्व उसका मानचित्र बनाकर एक संकल्पना । तैयार की जाती है। किस स्थान पर स्तंभ बनायें अथवा न बनायें इसका निर्णय करने के लिए प्राचीन । शास्त्रकारों ने हमें वास्तु पुरुष मंडल की संयोजना दी। इसके लिये भूमि की आकृति का चित्र बनाकर उसमें वास्तु पुरुष की आकृति बनाई जाती है ।
जैनेतर पुराणों में वास्तु पुरुष की उत्पत्ति महादेव के पसीने की बूंद से बताई जाती है तथा उसकी शांति के लिये उसकी पूजा एवं उस पर स्थित देवताओं को विधिपूर्वक पूजा बलि देने का विधान है।
वास्तु पुरुष की आकृति इस प्रकार बनायें कि एक आँधा गिरा हुआ पुरुष जिसकी दोनों जानु एवं हाथ की कोहनियां वायु कोण तथा अग्नि कोण में आयें। चरण नैऋत्य कोण में तथा मस्तक ईशान कोण में आये।
इस आकृति के मर्म स्थानों अर्थात् मुख, हृदय, नाभि, मस्तक, स्तन एवं लिंग के स्थान पर दीवार, स्तम्भ या द्वार नहीं बनाना चाहिये।
आर्यमा
उत्तर
धरकी
वायव्य
वायव्य
ईशान
पाफराक्षसी
भल्लाट कुबर ।
नाग । मुख्य भिल्लाट 1 कुबेर |
दिति।
पीलीपच्या
पर्जन्य
यापयक्षम"
रुद्र
ई पृथ्वीधर
आपवत्स
मरिचि
मित्र
| सूर्य
पश्चिम बदल
पश्चिम
वैवस्वान
PADS
Hat
i
anp
राहक्षत
विदारिका
'ENCE नैऋत्य पूतना
दक्षिण
जम्भा आग्नेय
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(देव शिल्प
वास्तु पुरुष मंडल के ४५ देवों के नाम तथा रथा- इस प्रकार हैं * -
वास्तु पुरुष मंडल में स्थिति देय का नाम ईशान कोण दोनों कान
पर्जन्य, दिति गला
आप दोनों कंधे
दिति तथा अदिति दोनों रत
आर्यमा तथा पृथ्वीधर हृदय
आपवत्स दाहिनो भुजा
इन्द्र, सूर्य, सत्य, भृश तथा आकाश बायीं भुजा
नाग, मुख्य, मल्लाट, कुबेर, शैल दाहिना हाथ
सावित्र तथा सविता बायां हाथ
रुद्र तथा रुद्रदास जंघा
मृत्यु तथा गैत्रदेव नाभि का पृष्ट भाग - ब्रह्मा गुह्येन्द्रिय रथान ... इन्द्र एवं जय दोनों घुटने
अनि एवं रोगदेव दाहिने पग की नली पूष], वितथ, गृहक्षत, यम, गंधर्व, भृग, मृग बायें पग की नली नंदी, सुग्रीव, पुष्पदंत, वरुण, असुर, शेष, पापयक्ष्मा पांच
पितृदेव
पूर्वी
गंडल में इनके अतिरिक्त दिशाओं के आठ कोणों पर आठ देवियां भी स्थित करें -
मंडल में दिशा का नाम देवी का नाम इंशान उत्तरी चरक ईशान
पीलीपीच्छा अनि
विदारिका अग्नि दक्षिण
जम्भा नैऋत्य दक्षिण
पूत-11 नैऋत्य
पश्चिम वायव्य
पश्चिम पापरक्षिसिका वायव्य उत्तर
अर्यमा इस प्रकार निर्मित वास्तु पुरुष मंडल पर वास्तु शांति पूजा करना चाहिये
*47. म.८१०३ - १११ अ.सू. ११३/१११
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(देव शिल्प
३५६)
जिस भूखण्ड पर मन्दिर वास्तु का निर्माण करना है उसकी आकृति पर वास्तु पुरुष की कल्पना करना चाहिये। जिन स्थानों पर वास्तु पुरुष के मर्म स्थान आते हैं वहाँ स्तम्भ आदि नहीं आना। चाहिये । वास्तु पुरुष में स्थित देवताओं को यथा योग्य नैवेद्य अर्पण कर उन्हें अनुकूल रखना चाहिये ।। वास्तु शान्ति की पूजा निर्दिष्ट समयों पर अवश्य करा लेना चाहिये। देवालय की वास्तु शान्ति के लिये ८१ पद का मण्डल बनाकर पूजा करना चाहिये । इरन विषय में परमपूज्य आचार्य परमेष्ठी एवं विज्ञ शिल्प शास्त्रियों से परामर्श अवश्य लेना चाहिये।
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देव शिल्प
(५७) वास्तु ज्योतिष प्रकरण
कार्य प्रारंभ मुहर्त का चयन
मन्दिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ करने के लिये यह परम आवश्यक है कि यह कार्य ऐसे मुहूर्त में सम्पन्न किया जाये कि कार्य द्रुत गति से निर्विघ्न सम्पन्न होवे। इसके लिये विद्वान आचार्य परमेष्ठी एवं विज्ञ प्रतिष्ठाचार्य से परामर्श करके ही शुभ मुहूर्त निकालना चाहिये तथा सभी विधि विधानों के साथ चतुर्विध संघ की पावन उपस्थिति में निर्माण कार्य प्रारम्भ करना चाहिये । विभिन्न शास्त्रों में ज्योतिष की दृष्टि से पृथक पृथक मुहूर्त निकालने के सूत्र दिये हैं। उनका अवलोकन करके सर्वोत्तम मुहूर्त चयन करके कार्यारम्भ करें।
सामान्यतः चातुर्मास अवधि में कार्यारम्भ न करें। शुक्ल पक्ष की तिथि में प्रारंभ किया गया कार्य सुफलदाता होता है जबकि कृष्ण पक्ष मे प्रारंभ कार्य चौर्य भय का कारण है।
मन्दिर आरम्भ के समय राशि सूर्यफल मन्दिर निर्माण आरंभ करते समय किस राशि पर सूर्य है यह निर्णय करने के बाद ही मुहूर्त निकालना चाहिये । राशियों पर सूर्य का फल इस प्रकार है :
मिथुन, कन्या, धनु और मीन राशियों पर सूर्य हो तब मन्दिर का आरम्भ नहीं करें। * मेष, वृषभ, तुला और वृश्चिक इन चार राशियों पर सूर्य हो तब पूर्व पश्चिम द्वार वाले मन्दिर को आरम्भ न करे । दक्षिण उत्तर द्वार वाला मन्दिर बना सकते हैं। कर्क, सिंह, मकर, कुम्भ इन चार राशियों पर सूर्य हो तब उत्तर दक्षिण द्वार वाले मन्दिर का प्रारम्भ न करें। किन्तु पूर्व पश्चिम दिशा वाले मन्दिर का निर्माण करें। #
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* थनमीणमिहुणकण्णा संकंतीएम कीरपणेहं। तुलविच्छियमेसविसे पुष्यावर सेस-सेस विसे ।।व.सा.१/१२ कार्किलक्तहरिकुम्भातेऽक, पूर्वपश्चिपमुखानि गृहाणि । तौलिपेषवृषदृश्चिकयाते, दक्षिणोत्तरसुखानि च कुर्यात ।। अन्यथा यदि करोति दुर्मति-धिशोकथनजाशमश्नुते । पीजचापमिथुनातकनागते, कारवेत्तु गृहमेव भास्करे ॥१२/०५ मुहूर्त चिंतामणि टीका
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(देव शिल्प)
मन्दिर आरम्भ के समय सूर्य फल
जिस दिन कार्य आरंभ करना हो उस दिन मुख्य रुप से जिन भगवान की प्रतिमा (मूल नायक प्रतिमा) मंदिर में स्थापित करना है उनकी नाम राशि पर सूर्य होने पर तथा उनके राशि से क्रमानुसा अलग-अलग राशियों के सूर्य का प्रभाव देखकर ही मुहूर्त चयन करना चाहिये।
१.
२.
मंदिर कार्य आरम्भ के दिन मूलनायक की राशि पर सूर्य होने का प्रभाव मन्दिर निर्माण का कार्य आरम्भ करने का समय चथन करते समय विशेषज्ञ (ज्योतिष विद्) विद्वान का परामर्श लेना उपयुक्त है । जिरा दिन मन्दिर का कार्य प्रारम्भ किया जाता है, उस समय मूलनायक की कौन - सी राशि पर सूर्य की स्थिति है, यह निर्माण करना है। सूर्य जब बलवान स्थिति में हो तभी मन्दिर
का कार्य आरम्भ करना चाहिये।
होंगे -
निम्नलिखित सारणी का अवलोकन करने से पाठक सूर्य की स्थिति के प्रभाव से अवगत
नाम राशि पर सूर्य
नाम राशि से प्रथम राशि पर सूर्य होने पर
नाम राशि से दूसरी राशि पर सूर्य होने पर
तीसरी राशि पर सूर्य होने पर
चौथी राशि पर सूर्य होने पर पांचवीं राशि पर सूर्य होने पर
छठवीं राशि पर सूर्य होने पर
नाम राशि से नाम राशि से नाम राशि से नाम राशि से नाम राशि से नाम राशि से नाम राशि से नाम राशि से नाम राशि से
सातवींराशि पर सूर्य होने पर आठवीं राशि पर सूर्य होने पर
नवमी राशि पर सूर्य होने पर दसवीं राशि पर सूर्य होने पर धारहवीं राशि पर सूर्य होने पर
नाम राशि से बारहवीं राशि पर सूर्य होने पर विशेष रूप से पुनरपि यह स्मरण रखें
मन्दिर आरम्भ में सुयोग
परिणाम
उदर पीड़ा
धन नाश
कन्या, मीन, मिथुन में धन लाभ होता है कुम्भ, सिंह, वृषभ में सर्व सिद्धि प्राप्त होती है।
३५८
धन लाभ
समाज में भय
पुत्र नाश
शत्रु विजय
स्त्री कष्ट
प्रमुख व्यक्ति का अवसान
धर्म में अरुचि
कार्य सिद्धि
लक्ष्मी लाभ
धननाश
कि सूर्य बलवान होने पर ही मन्दिर बनवाना चाहिये।
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देव शिल्प
मन्दिर कार्य आरम्भ के समय निर्बल ग्रह
जिस समय मन्दिर निर्माण कार्यासभ किया जाना है, उस समय की ग्रह स्थिति मूलनायक की राशि में देखी जाती है। इस समय जो ग्रह निर्बल स्थिति में रहने पर विभिन्न फल देते हैं। ग्रह की निर्बल स्थिति का प्रभाव इस सारणी में दृष्टव्य है। कुल मिलाकर सर्वश्रेष्ठ समय का चयन करें। यह ध्यान रखें कि निम्नलिखित स्थिति में ग्रह निर्बल समझे जाते हैं.
9.
जो ग्रह अस्त हों
२.
नीच राशि में स्थित हों
3.
४.
शत्रु द्वारा देखे जा रहे हों
वक्र हों
उल्कापात के कारण दूषित हों
५.
19.
शत्रु से पराजित हों
बाल या वृद्ध हों
अतिचारी हों
६.
८.
सूर्य
चन्द्र
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
शनि
निर्बल ग्रह मन्दिर निर्माण आरम्भ के
समय शुभ फल नहीं देते। मन्दिर निर्माण आरंभ के समय निर्बल ग्रहों के फल का विचार करके ही मुहूर्त चयन करना चाहिये । मन्दिर निर्माण आरम्भ के समय
परिणाम
निर्बल ग्रह
३५९
प्रमुख व्यक्ति को पोड़ा
प्रमुख व्यक्ति को स्त्री दुख समाज को पीड़ा
पुत्रों को पीड़ा
सुख सम्पत्ति की हानि
धन हानि
सेवकों को पोड़ा
मन्दिर निर्माण आरम्भ के लिये लग्न शुद्धि
जन्म राशि से १/६/१० तथा ११ वीं लग्न तथा जन्म लग्न से आठवें लग्न को छोड़कर शेष लग्नों
में कार्यारम्भ करें। लग्न से ३, ६, ११ वें स्थान में पाप ग्रह हों तथा केन्द्र ( १, ४, ७, १०) तथा त्रिकोण (५.८)
में तब मन्दिर कार्यारम्भ करें।
ध्यान रखें कि मन्दिर निर्माण आरम्भ के समय यदि पाप ग्रह हों तो वे प्रमुख व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनेंगे।
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देव शिल्प
लग्न से सम्बन्धित मन्दिर की आयु विचार
शुक्र लग्न में, बुध दशम स्थान में, सूर्य ग्यारहवें स्थान में और बृहस्पति केन्द्र (१-४-११-१० स्थान) में होवे, ऐरो लग्न में यदि नवीन वास्तु का खात करें तो उंरा वास्तु की आयु सौ वर्ष होती है। *
दसवें और चौथे स्थान में बृहस्पति और चन्द्रमा होने, तथा ग्यारहवें स्थान में शनि और मंगल होवे, ऐसे लग्न में वास्तु का निर्माण आरंभ करें तो उस वास्तु में लक्ष्मी अस्सी (८०) वर्ष स्थिर रहती हैं। बृहस्पति लग्न में (प्रथम स्थान में ), शनि तीसरे, शुक्र चौथे, रवि छटवें और बुध सातवें स्थान में होवे, ऐसे लग्न में आरंभ किये हुए वास्तु में सौ वर्ष तक लक्ष्मी स्थिर रहती है । **
३६०
शुक्र लग्न में, सूर्य तीरारे, मंगल छटवें और गुरु पांचवें स्थान में होवे, ऐसे लग्न में वास्तु का निर्माण आरंभ किया जाये तो दो सौ वर्ष तक यह वास्तु रामृद्धियों से पूर्ण रहता है। $
स्वगृही चंद्रमा लग्न में होवे अर्थात् कर्क राशि का चंदमा लग्न में होवे और बृहस्पति केन्द्र (१४-७-१० स्थान) में बलवान होकर रहा हो, ऐसे लग्न के समय वास्तु का आरंभ करें तो उस वास्तु की निरंतर प्रगति होती है । गृहारंभ के समय लग्न से आठवें स्थान में क्रूर ग्रह होवे तो बहुत अशुभ कारक है और सौम्यग्रह रहा हो तो मध्यम है|#
यदि कोई भी एक ग्रह नीच स्थान का, शत्रु स्थान का अथवा शत्रु के नवांशक का होकर शातवें स्थान में अथवा बारहवें स्थान में रहा होवे तथा गृहपति के वर्ण का स्वामी निर्बल होवे, ऐसे समय में प्रारंभ किया हुआ वास्तु दूसरे विपक्षियों के स्वामित्व में चला जाता है । ##
लग्न में उच्च का सूर्य अथवा ४ थे भाव, उच्च का गुरु और ११ वें भाव में उच्च का शनि हो तो मन्दिर की आयु १००० वर्ष होती है।
मन्दिर निर्माण आरंभ के समय उच राशि के शुभ ग्रह यदि लग्न अथवा केन्द्र में हों तो मन्दिर की आयु २०० वर्ष की होली है।
*भिगु लग्गे बहु दसमे दिणयरु लाहे बिहप्फई किंदे ।
जड़ गिनीभारंभ ता वरिससयाउयं हवइ ।। उ. सा १/२८
** समच्छत्थे गुरुभसि सगिकुजला हे अलच्छि वरिस असी । इवा विउ छ मुणि कमसों गुरुसणिभिगुरविबुहम्मि सवं ।। व. सा. १/२९ $ सुक्कुद रवितर मंगलि छडे अ पंचमे जीवे ।
इअ लगकर गेहे दो वरिससयायं रिद्धी । व. स.१/३० #साहित्यो ससि लब्जे शुरू किंचे बलजुओ सुविखिकरो। कुरम-अअहा सोमा मज्झिम झिहारंभे ॥ व. स. १/३० ## इक्केवि आहे पिच्छ परमेहि परेसि सत्त-शरसमे। हिसामिवण्याला अबले परहत्थि होइ सिंहं न. ग. १ / ३२
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(देव शिला)
(३६१) लग्न से संबंधितमंदिर काफलाफल विचार 4. मन्दिर निर्माण आराम के समय यदि कर्क में चन्द्रमा हो, केन्द्र में गुरु हो और अपने मित्र की
राशि या उच्च की राशि में अन्य ग्रह हो तो उरा गटिर में चिर काल तक लक्ष्मी निवास करती है। २. अश्विनी, विशाखा, चित्रा, शतभिषा, आद्रां, पुनर्वसु और घनिष्ठा इन नक्षत्रों में से किसी में शुक्र हो
तथा उसी नक्षत्र में शुक्रवार को मन्दिर निर्माण आरम हो तो वह सम्पन्न ब-|| रहता है। रोहिगी, हस्ता, उत्तरा फाल्गुनी, चित्रा, अश्विनी और अनुराधा नक्षत्रों में से किसी में बुध हो और
उसी नक्षत्र में बुधवार को मन्दिर निर्माण आरम्भ हो तो धन एवं पुत्र सुख मिलता है। ४. पुष्य, तीनों उत्तरा, मृगशिरा, श्रवण. आश्लेष, पूर्वाषाढ़ा इन। नक्षत्रों में से किसी पर गुरु हो और उसी
दि. गुरुवार हो तो इरा दिन निर्माण प्रारंभ किया गया मन्दिर पुत्र एवं राज्य सुख देता है।
मन्दिरआराम के समय योग औरउसका फल १. एक भी ग्रह शत्रु के नवांश में होकर सप्तम में या दशम में हो तथा लग्न का स्वामी निर्बल हो और उस
समय मन्दिर आरंभ हो तो मन्दिर अल्प समय में ही विपक्षियों के हाथों में चला जाता है। २. पाप ग्रहों के मध्य में लग्न हो और शुभ ग्रह से युत या दुष्ट न हो तथा आठवें भाव में शनि हो तो
मन्दिर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। मन्दिर आरम्भ के समय यदि दशा का स्वामी और लग्न का स्वामी निर्बल हो तथा सूर्य अनिष्ट में हो तो
मन्दिर शीध्र -1 हो जाता है । ४. गन्दिर आरम्भ के समय लग्न में क्षीण चन्द्रमा हो तथा अष्टम मंगल हो तो मन्दिर की आयु अत्यल्प
रहती है। मूला, रेवती, कृत्तिका, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वा फाल्गुनी, हस्त और मधा इन सात क्षत्रों पर मंगल हो और मंगल गन्दिर निर्माण आरम्भ के रागय सूर्य और चन्द्र दोनों कृतिका नक्षत्र पर हों तो वह शीध्र ही जल जाता है। लग्न में उच्च का सूर्य अथवा चौथे भाव, उच्च का गुरु और ग्यारहवें भाव में उच्च का शनि हो तो
मन्दिर की आयु १००० वर्ष होती है। 5. ज्येष्ठा, अनुराधा, भरणी, स्वाति, पूर्वाषाढा और धनिष्ठा इन नक्षत्रों में शनि हो तथा मन्दिर निर्माण
आरंभ शनिवार को हो तो पुत्र हानि होती है। ८. मकर, वृश्चिक और कार्य) लग्न में मन्दिर आरंभ करने से नाश होता है। ९. मेष, तुला, धा में कार्यारंभ करने से मन्दिर कार्य दीघे समय में पूर्ण होता है । १०. मध्याह्न और मध्य रात्रि में कार्यारंभ करने से मन्दिर के प्रमुख कार्यकर्ता का धन नाश होता है। ११. दोनों सन्ध्याओं में भी मन्दिर निर्माण आरंभ न करें।
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(देव शिल्प
राहू दळ निर्देश *
मास मार्गशीर्ष, पौष, माघ फाल्गुन, चैत्र वैशाख ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण भाद्र पद, आश्विन, कार्तिक
राहू का दिशा में वास पूर्व दिशा दक्षिण दिशा पश्चिम दिशा उत्तर दिशा
वार वरील राहू वास #
वार
रविवार
सोमवार मंगलवार बुधवार गुरुवार
राह का दिशा में मुख ऋत्य दिशा उत्तर दिशा आग्नेय दिशा पश्चिम दिशा ईशान दिशा दक्षिण दिशा वायव्य दिशा
शुक्रवार
शनिवार
राहू दिशा कार्य फल
राहू की दिशा में स्तम्भ स्थापित करने से वंश नाश द्वार स्थापित करने से अग्नि भय, यात्रा करने से कार्य हानि तथा मन्दिर निर्माण आरंभ करने से कुल नाश होता है।
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*त्रिषु त्रिषु व मासेषु मार्गशीर्षादिषु क्रमात् । पूर्व दक्षिणे टोयेश पोस्लयाशाक्रमादधुः ।।८ # रक्ष कुबेराठिन जलेश यम्य वायट काष्टासु च सूर्य वात् । वसेदगुश्चाष्ट सु दिनभचके मुख्य विवज्या गपनं गृहंच ।। १०
स्तम्भे वंश विनाशः स्याद् द्वारे यहि पदं भवेत् । बमने कार्यहालिः स्याद गृहारम्भं कुल क्षयः ।।९ विश्वकर्मा प्रकाश/नेहारम्भ प्रकरण
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(देव शिल्प मदिर भारंभ के समय १२ भावों में नवग्रहों का शुभाशुभ कथन
सूर्य
लग्न में भाव से ५ लाम से २लग से ३ लग्न से
लग्न से ५लग्न रो ६ लग्न से ७ लग्न से ८ लग्न से
चन्द्र मंगल
बुध बज्रपात द्रव्य हानि मृत्यु आयुपर्यंत कुशलता हानि
शत्रु नाश बन्धन बहु सम्पत्ति चिलंब से सिद्धि अपेक्षित सिद्धि विलंब से सिद्धि अभीष्ट सिद्धि मित्रों से हाने बुद्धि नाश मन्त्रणा 'भेद धन लाभ सन्तान नाश कलह कार्य अवरोध रन लाभ रोग नाश
लाभ
ज्ञान, धन लाभ कीर्ति नाश क्लेश, भ्रम विपत्ति अश्व प्राप्ति शत्रु भय हानि रोग भय प्रतिष्ठा वृद्धि धर्म हानि धातु क्षय , रोग धन नाश अनेक भोग मित्रता वृद्धि
रत्न लाभ विजय, स्त्रीधन लाभ लाभ लाभ लाभ
लाभ व्या व्यय व्यय
व्यय
९लग्न से
शोक
१० लग्न से ११ लग्न रो १२ लग्न से
लग्न में भाव से
शनि
१लग्न रो
दरिद्रता
र लग रो ३ लग्न से हलग्न से ५लग्न से ६लग से ७ला से ८ लन से ९ लग से १० लग्न से ११ लग्न से १२ लग से
गुरू धर्म, अर्थ लाभ धर्म सिद्धि अभोष्ट सिद्धि राज राम्गान मित्र, धन लाभ यंत्रणा गजा प्राप्ति विजय विद्या लाभ, आनंद महत सुख लाभ व्यय
शुक्र पुत्र लाभ यथेष्ट पूर्ति अभीष्ट सिद्धि भूमि लाभ पुत्र सुख विद्या लाभ धन लाग आपसी कलह विजय शय्यासन लाभ लाभ
विघ्नोत्पत्ति विलम्ब से सिद्धि सर्वस्व नाश बंधु नाश शत्रु नाश अंगहीनता का भय रोग भय धर्म दोष कीर्ति नाश
लाभ
व्यय
व्यय
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(देव शिल्प
वेध प्रकरण मन्दिर का निर्माण करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये कि किसी प्रकार का वेध दोष न आये। वेध दोष बिभिन्न प्रकार के होते हैं तथा उनका फल प्रत्यक्ष ही देखने में आता है। धर्मशाला, त्यागी भवन आदि के निर्माण में भी इन दोषों का परिहार करना चाहिये।
वेध के प्रकार १. तल वेध - जिस भूगि पर निर्माण किया जाना है वह भूमि समतल हो । उबड़-खाबड़ अर्थात् विषम या गड्ढे
वाली भूमि होने पर तलवेध कहा जाता है। इस पर निर्माण अशुभ होता है। २. कोण वेध -यदि वास्तु में कोने समकोण ९० के न होकर न्यून अथवा अधिक हों तो इसे कोण वेध कहते
हैं। इस वेध के प्रभाव से सम्बन्धित निवासी परिवारों में निरन्तर अशुभ घटनाएं, परेशानियां,
वाहन दुर्धटना इत्यादि की संभावना होती है। व.स.१/११७ * ३. तालू वेध -मन्दिर की दीवारों के पीढ़े अथवा खूटी ऊंची नीची होने पर तालू वेध होता है। इससे अनायास
चोरी का भय निर्मित होता है। समाज में भी ऐसी घटनाएं संभावित होती हैं। ४. शिर येध- मन्दिर के किसी द्वार के ऊपर मध्य भाग में बूंटी आदि लगाने से शिर वेध होता है। इससे
समाज में दरिद्रता तथा शारीरिक, मानसिक संताप बना रहता है । व.सा १/११८** ५. हृदय वेध-मन्दिर के लीक मध्य में स्तम्भ होने पर हृदय वेध होता है। ठीक मध्य में जल अथवा अग्नि का
स्थान बनाने पर भी मन्दिर में हृदय शल्य या वेंध माना जाता है। इससे समाज में कुल क्षय, वंश
नाश इत्यादि परेशानियां बनी रहती है। व. सा. १/११९# ६. तुला वेध-मन्दिर में विषम संख्या में खूटी अथवी पीढ़े हों तो इसे तुला वेध कहते हैं। इसके प्रभाव से
समाज में अशुभ घटनाएं घटने की संभावना बनी रहती है। व.सा. १/१२०%23 ७. द्वार वेध- मन्दिर के द्वार के ठीक सामने अथवा मध्य में यदि स्तम्भ अथवा वृक्ष हो तो इसे द्वार वेध कहते
हैं। किसी अन्य गृह अथवा मन्दिर का कोना मन्दिर के दरवाजे के सामने पड़ता है तो भी द्वार वेध होता है। किसी अन्य का गाय भैंस आदि पशु बांधने का खुंटा द्वार के सामने पड़े तो भी यही दोष होता है। व.सा. १/१२१%
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"समविसमभूमि कुंभि न तालपुरं परनिहस्स तलवेहो। कुणसम जइ कूर्ण न हवाइ ता कूणवेहो अ॥व.सा. १/११७
*इक्कखणे नीचुर्च पीढं तं मुणह तालुयावेह। बारस्शुबरिमपट्टे गड पीढ़ च सिरवहं ।। व.सा. १/११८ #गेहस्स मज्झिमाए धमेगं तं मुह उरसलम। अह अजलो विनलाईहविऊन जा यंमबेहो सो॥व.सा. १/११९
#हिछिम उमरि खणाणं हीणाष्टियपीढ़ तं तुलावेहं। पीढा समसंस्खायो हवंति सइ तत्थ नहु दोसो।। व.सा. १/१२०
म-कूय-धंभ कोणय-किलाविले डुवारबेहोय। बेहुच्चबितणभूमी तं न विरुखं बुहा विति।। ३.सा.१/१२१
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(देव शिल्प
मन्दिर के सामने कीचड़ होना अथवा मलिन पशु जैसे शूकर आदि बैठे रहना भी महादोष है। ... इससे शोक उत्पन्न होता है। किसी के घर का रास्ता गन्दिर से होकर जाना अथवा किसो के घर के गन्दे पानी के निकारा की नाली मन्दिर या उसके द्वार के ठीक सामने से जाने से भी अत्यंत अशुभ होता है तथा समाज के लिए क्षतिकारक होता है। मंदिर के मुख्य द्वार से अन्य वास्तु का रास्ता जाना भी विपरीत प्रभावकारी एवं हानिकारक होता
* * *
संख्याओं के अनुसार वेधों का फल यदि मन्दिर एक वेध से दूषित हो तो आपसी कलह का कारण बनता है। यदि दो लेन से पित होने से अति हानि होगी। यदि तीन वेध हों तो मन्दिर में सूनापन रहेगा तथा भूत-प्रेत निवास करते हैं। यदि चार वेध से टूषित हो तो मन्दिर की सम्पत्ति नष्ट होती है। यदि पांच वेध होवें तो वह ग्राम ही उजड़ जाता है तथा महामारी आदि महान उत्पात होने की संभावना रहती है।
*
*
वेध परिहार मन्दिर और वेध के बीच यदि राजमार्ग, कोट, किला आदि हो तो वेधजनित दोष नहीं होता है। यदि मध्य में दीवाल हो तो स्तंभों के पद का भी दोष नहीं रहता है ।*
मकान की ऊंचाई की दूनी जमीन को छोड़कर (दूनी दूरी से अधिक दूरी होने पर) वैध दोष नहीं होता है। गृह एवं वेधवस्तु के मध्य राजमार्ग हो तो भी वेध नहीं होता।#
प्रासाद अथवा गृह के पीछे या बगल में ये सब वस्तु हों तो वेध नहीं होता। सिर्फ सम्मुख रहने पर ही वेध होता है । ##
"इनवेहेण य कलहो कमेण हाणिं च जत्थ दो हति। तिहआण निवासी चउहि वऔपंचहिं मारी।। न.सा.१/१२४ *उच्छायाद द्विगुणां तिहाच पथिवीं रेधो न भित्यन्तरे प्राकारान्तर राजमार्ग परता वेद्यो न लोग दये। (वस्तु राजवल्लभ /२७) (वास्तु रत्नाकर ८/५४) #पृष्टतः पार्श्व योर्वापि न वेधं चिन्तयेद बुधः । प्रासादे वा गृहे वापि वेधपो विनिर्दिशेत्।। वास्तु रत्नाकर ८/५५ ##उच्छायभू िद्विगुणां त्यक्त्वा चैत्ये चतुर्गुणाम् वेधादिदोषी जैवं स्वाद एवं स्वष्टवातं यथा। -आचार दिनकर
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देव शिल्प
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गृहवास्तु की ऊंचाई से दूनी तथा एन्जिर की ऊंचाई से चौगुनी भूमि को छोड़कर कोई वेध हाँ तो उनका दोष नहीं माना जाता ।
यदि किसी कारण दक्षिण अथवा पश्चिमाभिमुखी मंदिर बनाये गये हों तो इसका समाज एवं मंदिर नियंता दोनों पर विपरीत प्रभाव होता है। इस अनिष्ट का परिहार करना अत्यन्त आवश्यक है। दक्षिणाभिमुखी मंदिर के ठीक सामने उसी देव का उत्तराभिमुखी मंदिर बनायें तो दोष का परिहार हो जाता है । इसी भांति पश्चिमाभिमुखी मंदिर के समक्ष यदि उसी देव का पूर्वाभिमुखी मंदिर बनाया जाये तो वैध दोष परिहार हो जाता है।
इन दोनों मंदिरों का एक परिसर में होना आवश्यक है यदि मध्य में राजमार्ग होगा तो परिहार नहीं होगा।
द्वार वेध विचार
मुख्य द्वार के समक्ष जो स्थिति अथवा संरचना वास्तु के लिए अकल्याणकारी होती है उसे द्वार वैध कहते हैं। वैधों को निर्णय करने के उपरान्त उनका निराकरण करना अत्यंत आवश्यक है।
१.
यदि मुख्य द्वार के नीचे पानी के निकलने का मार्ग है तो यह वेध निरन्तर धन के अपव्यय का निमित्त होता है।
द्वार के सामने यदि निस्तर कीचड़ जमा रहता है तो इससे समाज में शोक पूर्ण घटनाक्रम होते हैं। यदि द्वार के समक्ष वृक्ष आ जाता है तो यह वेध बच्चों एवं संतति के लिए कष्टकारक होता है। यदि द्वार के समक्ष कुआं, नलकूप आदि जलाशय होवें तो यह रोग कारक एवं अशुभ होता हैं। यदि द्वार के ठीक सामने से मार्ग आरंभ होता है तो यह यजमान एवं मन्दिर निर्माता के लिए अति
२.
3.
४.
५.
अशुभ एवं विनाशकारी हो सकता है।
द्वार में छिद्र धनहानि का सूचक है।
वेध विचार करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इनका परिहार अवश्य ही करना चाहिये । वास्तु निर्माण के पूर्व ही इनका विचारकर उराके अनुरूप ही निर्माण की योजना बनायें । यहाँ यह विशेष स्मरणीय है कि यदि मुख्य द्वार की ऊंचाई से दुगुनी दूरी छोड़कर कोई वेध है तो वह प्रभावकारी नहीं होता ।
इसी भांति द्वार एवं वेध के मध्य प्रमुख मार्ग हो जिस पर आवागमन निरन्तर होता हो तो भी वेध का दुष्प्रभाव नहीं रहता है।
जिस भांति गृह वास्तु का निर्माण करते समय वेध विचार एवं परिहार किया जाता है उसी भांति प्रासाद के निर्माण के समय भी वेध परिहार करना अत्यंत आवश्यक है।
६.
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(देव शिल्प
अपशकुन एवं अशुभ लक्षण
ज्योतिष शास्त्र में शकुन विचार का अपना महत्व है, इनके विपरीत असर देखने में आते हैं। अतः मंदिर परिसर में निम्नलिखित लक्षण उपस्थित होने पर उनका परिहार करना चाहिये - १. मन्दिर में मधुमक्खी का छत्ता लगने पर, कुकुरमुत्ता होने पर तथा खरगोश के प्रवेश करने पर अर्धवर्ष
अर्थात छह माह का दोष रहता है। गिद्ध पक्षी, कौआ, उल्लू, चगगादड़ मन्दिर में प्रवेश करें तो पंद्रह दिन तक दोष रहता है। मन्दिर में गोह प्रवेश करने पर तीन माह तक दोष रहता है। इन दोषों के होने पर मन्दिर में पुनः शान्ति (शान्तिविधान एवं हवन) करवाना उपयुक्त हैं। प्रासाद की छत पर, झरोखों में, दरवाजे पर अथवा दोवारों पर यदि एकाएक टिड्डियां अथवा मधुमक्खियां
आकर गिर जाती हैं तो भय, शोक, कलह, जनहानि इत्यादि कष्ट हो सकते हैं। ३. यदि मन्दिर में उल्लू या बाज पक्षी घोंसले बनाकर रहने लगते हैं तो इससे समाज में दरिद्रता आती है। ४. यदि मन्दिर में बिल्ली अथवा कुतिया प्रसव कर देवे तो समाज के वरिष्ठ सदस्य की मृत्यु की सम्भावना
होती है। यदि अग्नि के बिना ही मन्दिर में धुएं जैसा वातावरण प्रतीत हो तो इससे समाज में कालह एवं अशान्ति
का वातावरण बनता है। ६. यदि कौआ हड्डी-गांस मन्दिर में गिराता है तो समाज में अमंगला, दिया हो की आशंका न पनिार
में चोरी की सम्भावना होती है। ७. मन्दिर का कलश अथवा ध्वज यदि अचानक टूटकर गिर जाये तो मन्दिर एवं समाज में अनेकों उपद्रव
होने की संभावना रहती है। यांदे मन्दिर का मुख्य द्वार अचानक गिर जाये तो यह महान अनिष्ट कारक है तथा समाज के प्रमुख या
वरिष्ठ व्यक्ति के मरण का संकेत समझना चाहिये । ९. यदि मार्ते एवं मन्दिर में से अकस्मात् जलधारा बहती हुई दिखाई दे तो यह राष्ट्र विप्लव की ओर संकेत
करता है। ५०. यदि ऐसा आभारा हो कि देवप्रतिमा नाच रही है, रो रही है, हंस रही है अथवा नेत्रों को खोल बन्द कर
रही है तो समझना चाहिये कि महा भय है। यह अत्यंत अशुभ संकेत है। *
अशुभ लक्षण आने की स्थिति में आंवेलम्ब उसका परिहार करने का यत्न करें। आचार्य परमेष्टी अथवा साधुगण अथवा उपयुक्त विद्वान से परामर्श कर धर्म क्रिया कर इसका परिहार करना चाहिये।
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*जतन रोदनं हास्यमुभीलमनिमीलने । देवा या प्रकुर्वन्ति तत्र दिघान्महाभवम् ।। पं. १/१९
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(देव शिल्प
मन्दिर में महादोष निम्नलिखित सात दोषों को मन्दिर वास्तु के सात महादोष कहा जाता है। इसका यथा विधि निराकरण कर शुचिता कराना आवश्यक है। *
मन्दिर में दीवालों से चूना उतर जाना
मकड़ी के जाले लगना ३. कोलें लगी हो ४. पोलापन हो गया हो ५. छेद पड़ गए हों ६. सांच एवं दरारें दिखती हों ७. गन्दिर को कारागृह में परिवर्तित कर दिया गया हो।
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मन्दिर निर्माण में वास्तु दोष
भवनों की भांति ही प्रासादों एवं मन्दिरों का निर्माण करते समय यह विशेष ध्यान रखना चाहिये कि निर्माण में वास्तु दोष न आयें तथा आने की संभावना हो तो निर्माण चलते समय ही विद्वानों एवं शिल्प शास्त्रों से परामर्श कर तत्काल ही उनका निराकरण कर लिया जाये। ऐसा न किये जाने पर अनपेक्षित विपरीत घटनायें घटती हैं तथा : केवल मन्दिर निर्माता वरन् निर्माण शिल्पी तथा समाज भो दीर्घ काल तक इनसे कर पाते हैं।
शिल्पी कृत महादोष शिल्पियों की अज्ञानता, असावधानी से कुछ दोषों का होना संभव है। इनमें सर्व प्रमुख हैं **.. O दिग्मूढ़ - ॐ नष्टछन्द - ® आयहोन - @ प्रमाणहीन -
दिमुळे या दिशा मूढ़ दोष से तात्पर्य है कि मूल दिशाओं से हटकर वास्तु का निर्माण हो जाये अर्थात् दिशाओं के कोण टेढ़े हो जायें।
ईशा- कोण की तरफ अथवा नैऋय कोण की तरफ मन्दिर वास्तु यदि टेढ़ी हो इसे दिशा मूढ दोष नहीं माना जाता। जिस प्रकार कि तीर्थस्थलों में मन्दिरों में दिशा मूढ़ दोष को महत्व नहीं दिया जाता।
*पंडलं जालकं चैव की सुधिर तथा छिद्र काग्धिश्व कारा महादोषः इटि. स्पृहा ।। प्रा.मं 4./१६,शि.र. ५/१३२ **पूर्वोत्तर टिशर्ट मुदं पश्चिम दक्षिण। त्रन्दममुद्र वा वत्र तीर्थसपाहतम् ।। प्रासाद मन्इन ८/९
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(देव शिल्प
दिशा मूढ़ के अन्य प्रकरण यदि पूर्व पश्चिम की दिशा में लम्बाई युक्त मन्दिर का प्रमुख प्रवेश द्वार अथवा जिनेन्द्र प्रतिमा का मुख यदि आग्नेय अथवा वायव्य की ओर हो जाये तो यह महा अनर्थकारी है। ऐसा होने पर मन्दिर निर्माता अथवा प्रतिष्ठाकारक, यज्ञनायक अथवा समाज के प्रमुख सदस्य को स्त्री मरण का कष्ट होता है।
___ उत्तर दक्षिण लम्बाई वाले जिनालयों में यदि यह दोष अर्थात् मन्दिर का प्रवेश द्वार या जिन बिम्ब का मुख आग्नेय अथवा वायव्य की तरको सो मन्दिर निर्माता, प्रतिमा , सामन, प्रज्ञनायक समाज के प्रमुख सदस्यों को महाअनिष्टकारी एवं सर्व विनाश का कारण होता है। अतएव मन्दिर निर्माता इस दोष का पूर्ण निराकरण अवश्य ही करें।
सिद्ध क्षेत्र, पंच कल्याणक भूमि, सरिता संगम स्थान, में निर्मित जिन मन्दिरों में दिशा मूढ़ दोष नहीं माना जात| स्वयंभू एवं बाण लिंगों के मन्दिरों में भी यही बात लागू होती है। फिर भी नवनिर्माण करते समय दिग्मूढ़ दोष का निरसन करके ही मंदिर वास्तु का निर्माण करना शुभ एवं श्रेयस्कर है। "
___ मन्दिर, महल तथा नगर यदि दिग्मूढ़ दोष से सहित होवे तो इनसे निर्माता का महान अनिष्ट होता है उसका द्रव्य क्षय, कुल क्षय तथा आयु क्षय होतो है। इससे मुक्ति (निर्वाण) भी प्राप्त नहीं हो सकती। अतएव दिशा- विदिशाओं में वास्तु का वेध का शोधन करना सदैव कल्याणकारी है। सर्वप्रथम पूर्व पश्चिम में सूत्रपात करना चाहिये । इसके उपरान्त वर्गाकार क्षेत्र करने में दिग्मूढ़ दोष का परित्याग करना चाहिये। **
छाया भेद दोष प्रासाद की ऊंचाई एवं चौड़ाई के अनुसार बायीं और दाहिनी ओर जगती शास्त्र के गान के अनुरूप होना चाहिये । ऐसा न होने पर छाया भेद दोष होता है। $
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*सिधदायतन तीर्धेषु नदीजो संगामेषु च । स्वयंभू बष्णलिंगेषु तत्रटोषो न विद्यते ।। प्रा. म.८/१० **दिङमुद्देन कृते वास्तौ पुर प्रासाद मन्दिरे। अर्वजाशः क्षयोमृत्युनिर्वाण जैन ठगच्छति ।। शि.र. १२८ दिशश्च विदिशोश्चैव नास्तु वेध विशोधनम् । जोर्णन वर्तते वस्ती वैध दोषो न विद्यते ।। १२९ शि. र. सूत्रपातस्तु कर्तव्या सानुप्रास्योरजन्तरम् । चतुरसं समं करवा दिग्मूढ परिवर्जयेत् ।। शि. २. १२६ $प्रासादाच्छाय विस्तारांज्जाती वाम दक्षिणे। छायाभेदा न कर्तव्या यथा लिंगास्य पीठिका । प्रा. पं. ८/२८.
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देव शिल्प
वास्तु दोषों के अन्य भेट
@ भिन्न दोष- ये ४ प्रकार के हैं।
© मिश्र दोष ये ८ प्रकार के हैं।
3 महामर्म दोष- ये दो प्रकार के हैं, जाति भेद एवं छन्द भेद
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जाति भेद
प्रासाद की अनेकों जातियों में से पीठ एक जाति की बनायें तथा शिखर आदि अन्य जाति के बनायें तो इसे जाति भेद कहते हैं। इसे महामर्म दोष की संज्ञा दी गयी है।
३७०
छन्द भेद
पाद एवं मन्दिर में छत नहीं करना चाहिये। जैसे छन्दों में गुरु लघु यथा स्थान न होने पर छंद दूषित होता है उसी प्रकार प्रासाद की अंग विभक्ति शास्त्र नियमानुसार न करने पर प्रासाद दूषित होता है। ऐसा दोष रहने पर स्त्री मृत्यु, शोक, संतान होता है तथा पुत्र, पति एवं धन का क्षय होता है।' मन्दिर वास्तु का निर्माण करते समय यदि पद लोप, दिशा लोप अथवा गर्भलोप होवे तो मन्दिर निर्माता तथा निर्माणकर्ता (बनाने वाला तथा बनवाने वाला) दोनों ही अधोगति को प्राप्त होते हैं। जिनालय में स्तम्भों के पाषाणों का थर भंग होने पर मन्दिर के शासन देव कुपित होते हैं तथा शिल्पी का क्षय होता है। मन्दिर बनवाने वाला भी मृत्यु को प्राप्त होता है। अतएव शास्त्र विधि से रहित देवालय कदापि न बनवायें अन्यथा वे कल्याणकारी नहीं होंगे।
प्रमाण दोष
यदि मन्दिर का निर्माण शास्त्रोक्त विधि से सही प्रमाणों में किया जाता है तो वह मन्दिर निर्माता तथा समाज के सभी के लिये सुफल दायक एवं पुण्यवर्धक होता है। किन्तु यदि यही निर्माण प्रमाण से विरुद्ध कम ज्यादा किया है तो नाना प्रकार के संकटों का कारण बनता है। प्रमाण से युक्त मन्दिर आयु, सौभाग्य एवं पुत्र पौत्रादि संतति दायक होता है। यदि यह मन्दिर प्रमाण रो हीन हो तो महान भयोत्पादक होता है।
* छन्द भेदो न कर्तव्यः प्रासाद पठ मन्दिरे ।
स्त्री मृत्यु शोक संतापः पुत्र पति धन्क्षवः । शि. २.५ / ४७
छन्द भेदी न कर्तव्यां जातिर्भदो वा पुनः ।
उत्पले महापर्व जाति भेद कृते सति । प्रा. मं. ८/२१
पद लोप, दिशा लोपं, गर्भ लोपं स च ।
उभयौ तौ नरकं याता स्थापक स्थपक सदा । शि.र. ५/१५२
**मान प्रमाण संयुक्ता शास्त्र दृष्टिश्च कारयेत
आयुः पूर्णश्च सौभाग्यं लभते पुत्र पौत्रकम् ।। शि. २. ५ / १४४
दीर्घे नानाधिके इस्ते वचःपि सुरालये ।
छन्द भेदे जाति भेदं ही पाजे महद्भटम् । प्रा. मंजरी / १६०
शास्त्रं मन्दिरं कृत्वा प्रजा राजगृह तथा । दोहनशुभं गेहं श्रेयस् तत्र न विद्यतं ।।
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(देव शिल्प
प्रमाण दोषों के परिणाम १. जिन प्रासाद अगर प्रमाणों से हीन होता है तो अनपेक्षित परेशानियों का आगमन होता है। २. यदि प्रासाद की पीठ प्रमाण से हीन हो तो मन्दिर निर्माता को वाहन हानि एवं दुर्घटना की आशंका
होती है।
यदि मन्दिर के रथ उपरथ आदि अंग प्रमाण से हीन हों तो प्रजा/ समाज को पीडादायक होता है। . यदि प्रासाद की जंघा प्रमाण से हीन हो तो मन्दिर निर्माता एवं समाज को हानिकारक होता है। ५. यदि मन्दिर का शिखर प्रमाण से हीन अर्थात् कम ऊंचा हो तो पुत्र - पौत्र धन की हानि तथा रोगों की
उत्पत्ति होती है जबकि प्रमाण से अधिक बनाया गया शिखर निर्माता के लिए कुलहानि कारक होता है। ६. यदि मन्दिर में द्वार मान से होन होवें तो धन क्षय होता है। ** ७. यदि स्ताम अपद में हो तो रोगोत्पत्ति होती है। ८.. यांदे स्तम्भ का मान चौड़ाई अथवा ऊंचाई में हीन हो लो मन्दिर निर्माता का विनाश होता है।
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*रधोपश्यहीजे तु प्रजापोड़ा विनिर्दिशेत् । कर्णहीले सरागारे फलं वापि न लभ्यते ।। प्रा.६.८/२४ जंयाहीले हरेद बन्ज कर्तृकारापरादिकान्। शिखरे होनमाने तु पुत्रपौत्र धनक्षदः ।। प्रा. म.८/२५ अतिदीर्ध कुलच्छेदो हस्ये व्याधिर्टिनिर्दिशेद। तस्माच्छास्त्रोक्तपान सुखटं सर्वकापटं ।। प्रा. पं. ८/२६ दरहीने हनेच्येक्षुः जालीहीने यन.क्षयः। अपदे स्थापित स्तम्भे महारोग विनिर्टिशेत् । प्रा..८/२२. स्तम्भ चासोदये हीने का तत्र विनश्यति । प्रासादे पीठ है.जे तु नश्यन्ति भजवाजिनः ।। प्रा. म.८/२३ **अन्यथा च न कर्तव्य मानही न कारयेत। क्रियते बहीषाः स्य सिद्धिरा उ जायते ।। शि.र. १२/१४.५ तिर्दोष. जायमाना स्थात शिल्पिदोषे महदभवम् । शास्त्रहीन न कर्टव्य स्दानिश्वर्दधनक्षयः ।। शि.र. १/१४८
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(देव शिल्प
तीर्थंकर प्रतिमा निर्णय
जब यह निर्णय लिया जाता है कि जिनेन्द्र प्रभु का मंदिर निर्माण करना है तब यह भी गुनेश्चित किया जाता है कि मंदिर के मूल नायक कौन से तीर्थंकर होंगे। मूल नायक के नाम से ही मंदिर का नाम प्रचलित होता है। प्रतिष्टा ग्रन्थों में इस विषय में स्पष्ट निर्देश उपलब्ध होते हैं। तीर्थंकर प्रभु की राशि का मिलान प्रतिमा स्थापनकर्ता की राशि से किया जाता है। साथ ही तीर्थंकर प्रभु की राशि का गिलान नगर या ग्राम के नाम की राशि से भी किया जाता है। इसके साथ ही यह राशि मिलान तीर्थंकर की नवांश राशि से भी किया जाता है। इस विषय में विद्वान प्रतिष्टाचार्य के साथ ही परमपूज्य आचार्य परमेष्टी अथवा साधु परमेष्ठी से विनय पूर्वक निवेदन करके समुचित मार्ग-दर्शन लेना चाहिए, तभी किन्न तीर्थंकर को मूल नायक बनाना है यह निर्णय करना चाहिए।
सामान्य रुप से देखने में आता है कि समाज अथवा मंदिर निर्माणकर्ता इस तथ्य का विचार किये बिना हो मूल नायक का निर्णय कर लेते हैं। ऐसा करने से समाज को अपेक्षित पुण्य लाभ नहीं मिल पाता एवं धर्म का अतिशय भी प्रकट नहीं होता। जिनेन्द्र प्रभु का मंदिर न सिर्फ उपासक के लिए वरन सारे नगर के लिए पुण्य वर्धक होता है। अतएव नगर, मंदिर निर्माणकर्ता तथा मूल नायक प्रभु तीनों का राशि मिलान अवश्य ही करना चाहिए।
यदि प्रतिमा स्थापनकर्ता धर्मानुरागवश किसी विशिष्ट तीर्थकर की प्रतिमा स्थापित करना चाहता है तथा राशि मिलान नहीं हो रही है तो ऐसी स्थिति में उन तीर्थंकर की प्रतिमा को मूल नायक नहीं बनाना चाहिए, अन्य वेदी में उन तीर्थंकर की प्रतिमा स्थापित करना चाहिए।
जिन मंदिरों में मूल नायक का पद तीर्थंकर को ही देना चाहिए तथा उन्हीं के यक्षयक्षिणी की स्थापना श्रेयरकर है। भरत, बाहुबली, राम, हनुमान, गुरुदत्त इत्यादि मोक्षगामी महापुरुषों के स्वतंत्र मंदिर बनाने के बजाय तीर्थंकर मूल नायक के साथ इन्हें स्थापित करना चाहिए।
राशि मिलान एवं नवांश राशि मिलान का चक्र अनलिखित है। किसी भी संशय की स्थिति में पूज्य गुरुजनों से मार्गदर्शन लेकर निर्णय करना चाहिए।
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तीर्थंकर एवं प्रतिमा स्थापनकर्ताको राशिका मिलान चक्र तीर्थंकर नक्षत्र योनि
नाड़ी | अशुभ राशि ऋषभनाथ टष.. धन
। वृष, मकर अजितनाथ | रोहिणी वृषभ
अत्य
भेष, धनु संभवनाथ शिर मिथुन साई
मध्या कर्क, वृश्चिक, कुंभ अभिनंदननाथ नर्वसु
विडाल
आद्य कर्क, वृश्चिक, कुंग सुमतिनाथ मूषक | राक्षस अंत्य | मकर
क्षत्रिय पदाप्रभ चित्रा कन्या | ध्याध राक्षस मध्य
मेष,मकर
वैश्य. सुपार्श्वनाथ विशाखा तुला
| राक्षस | संत्य | वृश्चिक, मीन चन्द्रप्रभ अनुराधा दृश्चिक | हरिण
| मिथुन, कर्क, तुला पुपटत मूल श्वान राक्षर आध. वृष, मकर
क्षत्रिय शीतलनाथ पूर्वाषाढ़ा चादर मनुष्य मध्य वृष, मकर
क्षत्रिय श्रेयरानाथ श्रवण
अंत्य । सिंह, कन्या.धनु वासुपूज्य |शतभिषा कुन
अश्व राक्षस आर. | मिथुन, कर्क, मीन विमलनाथ स. भा.
मनुष्य मध्य | कर्क, तुला, कुंभ अनंतनाथ खती गीन हरिते देव अत्य । क. तुला, कुंभ
विप्र. धर्मनाथ | पुष्य | कर्क अज
मध्य । मिथुन, वृश्चिक, कुंभ. मीन | विप्र. शांतिनाथ अश्विनी मष अश्व
। वृष, कन्या | कुथुनाथ कृतिका
अज । अन्य
वैश्य. अरहनाथ रेवतो मीन
अंत्य कर्क, तुला. कुंभ मल्लिनाथ अश्विनी अश्व
वृष, कन्या गुनिसुव्रत श्रयण गकर वानर
अत्य । सिंह, कयानु नामिनाथ अश्विनी | मेष
आय. वृष, कन्या नेमिनाथ कन्या व्याघ्र
मध्य पेष, मकर पार्श्वना विशाद्धा
राक्षस
अत्य वृश्चिक,मीन धन
मनुष्य
मेष,मकर
गयु
विप्र.
१३ १४
९
जल
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१५
१६
क्षत्रिय
म
१७
वृषभ
भेष,धनु
२८
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| मेष
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| जल
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वैश्य.
। भनि
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(देव शिल्प) प्रतिमा स्थापनकर्ता एवं तीर्थकर कीनर्वाश राशि का मिलान
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मध्यम
क्र. नक्षत्र चरण सर्वोत्तम
उत्तम अक्षर
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शीतलनाश
-- ------------------- ...... आदिनाथ, अजितनाथ
श्रेयासनाथ, कुन्थ्नाथ मुनिसुव्रतनाथ. वासुपूज्य
२.
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पदाप्रभ. नेमिनाथ महावीर, मुनिसुव्रतनाथ
विमलनाथ वासुपूज्य
३.
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मल्लिनाथ, नमिनाथ शांतिनाथ, अरहनाथ अनंतनाथ, वासुपूज्य विमलनाथ
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मल्लिनाथ नमिनाथ आदिनाथ पुष्पदंत
पभप्रभ, महावीर नेमिनाथ संभवनाथ, अभिनंदन आजतनथ, कुंथुनाथ
धर्मनाथ
सुपार्श्वनाथ श्रेयासगाथ संभवनाथ
पार्श्वनाथ मुनिसुव्रतनाथ, अजितनाथ कुथुनाथ, अभिनंदननाथ
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अभिनंदननाथ
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पदाप्रभ महावीर नेमिनाथ
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श्रेयांसनाथ, नमिनाथ मुनिसुव्रत, पाप्रभ, महावीर, सुपार्श्वनाथ, पाश्वनाथ
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(देव शिल्प
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सुपार्श्वनाथ, कुंथुनाथ श्रेयांसनाथ, संभवनाथ पार्श्वनाथ, अजितनाथ
वृषभ
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महावीर, पद्मप्रभ सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ
संभवनाथ, चंद्रप्रभ अरहनाथ, आदिनाथ
पुष्पदंत, शीतलनाथ,
चन्द्रप्रभ, आदिनाथ,
अजितनाथ, सुमतिनाथ मुनिसुव्रतनाथ आदिनाथ, पुष्पदंत, शीतलनाथ
अभिनंदननाथ, पद्मनु
नेमिनाथ, महावीर मुनिसुव्रतनाथ
पार्श्वनाथ
अरहनाथ, मल्लिनाथ, नमिनाथ
शांतिनाथ, पद्मप्रभ महावीर, नेमिनाथ
शीतलनाथ
मध्यम
मुनिसुव्रतनाथ अभिनंदननाथ
३७५.
चंद्रप्रभ नेमिनाथ
विमलनाथ, अनंतनाथ
श्रेयांसनाथ, मुनिसुव्रतनाथ धर्मनाथ
वासुपूज्य, श्रेयांसनाथ,
विमलनाथ
अनंतनाथ
अरहनाथ
विमलनाथ, शांतिनाथ, अनंतनाथ, सुमतिनाथ
अरहनाथ, मल्लिनाथ, नमिनाथ
चन्द्रप्रभ
अजितनाथ, कुंथुनाथ
विमलनाथ, शांतिनाथ, धर्मनाथ, अनंतनाथ,
आदिनाथ, पुष्पदंत,
मल्लिनाथ, नांमेनाथ,
संभवनाथ, अजितनाथ,
कुंथुनाथ, अभिनंदननाथ
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(देव शिल्प)
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आदिनाथ, अनंतनाथ, अरहनाथ, सुमतिनाथ, पुष्पदंत, पद्मप्रभ,
मुनिसुव्रतनाथ, महावीर नेमिनाथ, सुमतिनाथ श्रेयांसनाथ
सुपार्श्वनाथ, शांतिनाथ, नमिनाथ, मल्लिनाथ, पद्मप्रभ, पार्श्वनाथ, विमलनाथ
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संभवनाथ, अभिनंदननाथ पार्श्वनाथ, विमलनाथ, सुपार्श्वनाथ
अनंतनाथ, अरहनाथ, शीतलनाथ,आदिनाथ, पुष्पदंत, चंद्रप्रभ
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मल्लिनाथ, नमिनाथ, धर्मनाथ, चंद्रप्रभ, पुष्पदंत, शांतिनाथ आदिनाथ, शीतलनाथ
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अजितनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, वासुपूज्य, आदिनाथ, श्रेयांसनाथ, शीतलनाथ, पुष्पदंत
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नेमिनाथ, महावीर संभवनाथ मुनिसुव्रतनाथ, वासुपूज्य अभिनंदननाथ
श्रेयांसनाथ,पद्मप्रभ, विमलनाथ, अनंतनाथ, अरहनाथ
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धर्मनाथ, शांतिनाथ, विमलनाथ, अनंतनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, नमिनाथ
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नमिनाथ
आदिनाथ, पुष्पा मल्लिनाथ, नेमिनाथ
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धर्मनाथ, अनंतनाथ, विमलनाथ
अरहनाथ, आदिनाथ
पुष्पदंत
चंद्रप्रभ
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अनंतनाथ, अरहनाथ,
पुष्पदंत, आदिनाथ, पार्श्वनाथ, विमलनाथ, अभिनंदननाथ
नमिनाथ
चंद्रप्रभ
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कुंथुनाथ, अजितनाथ
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पण, महावीर, नेमिनाथ
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श्रेयांसनाथ, कुंथुनाथ
संभवनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, अजितनाथ, अभिनंदननाथ
सुमतिनाथ, संभवनाथ,
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सुमतिनाथ, शीतलनाथ, पद्मप्रभ, महावीर, नेमिनाथ
सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, महावीर पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, श्रेयांसनाथ
शांतिनाथ, सुपार्श्वनाथ
वासुपूज्य, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ
शीतलनाथ, सुपार्श्वनाथ, सभवनाथ
मुनिसुव्रतनाथ, शांतिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ
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(देव शिल्प
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संभवनाथ, महावीर अभिनंदननाथ, पद्मप्रभ, नेमिनाथ,
विमलनाथ अनंतपक्ष अरहनाथ
श्रेयांसनाथ मुनिसुव्रतनाथ वासुपूज्य,
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पद्मप्रभ महावीर नेमिनाथ .
संभवनाथ, अभिनंनदनाथ. अजितनाथ, कुंथुनाथ
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अभिनंटननाथ धर्मनाथ
पार्श्वनाथ, मुनित्रतनाथ, अजितनाथ, कुथनाथ. संभव, सुपार्श्वनाथ, श्रेयांसनाश्य
19.
टी
अभिनंदननाथ
धर्मनाथ
चंद्रप्रभ, वासुपूज्य, सुमतिनाथ, संभवनाथ
विमलनाथ
आदिनाथ, पूष्पदंत अनंतनाथ, अरहनाथ, धर्मनाथ
शीतलनाश्य, सुमतिनाश्य, पद्मप्रभ, महावीर, नेमिनाथ
..-----
-----------------------.
९.
टे
मल्लिनाथ, नमिनाथ
मुनिसुव्रतनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पद्मप्रभ, महावीर, पार्श्वनाथ सुमतिनाथ, श्रेयांसनाथ, सुपार्श्वनाथ
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
देव शिल्प
क्र. नक्षत्र चरणाक्षर सर्वोत्तम
1
२.
३.
४.
५
६.
15
९.
पा
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पो
अजितनाथ, कुंथुनाथ महावीर, पद्मप्रभ पार्श्वनाथ, नेमिनाथ
संभवनाथ अभिनंदननाथ
सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ
श्रेयांसनाथ मुनिसुव्रतनाथ
सुमतिनाथ
कन्या
संभवनाथ, अभिनंदन पद्मप्रभ नेमिनाथ
महावीर, श्रेयासनाथ मुनिसुव्रतनाथ, वासुपूज्य
पार्श्वनाथ
पद्मप्रभ महावीर नमिनाथ
उत्तम
वासुपूज्य
अनंतनाथ, अरहनाथ
पुष्पदंत, शीतलनाथ आदिनाथ
आदिनाथ, पुष्पदंत शीतलनाथ, शांतिनाथ
मल्लिनाथ, नमिनाश
अजितनाथ, आदिनाथ पुष्पदंत, शीतलनाथ
सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ अजितनाथ, संभवनाथ अभिनंदनाथ, श्रेयांसनाथ
मुनिसुव्रतनाथ
वासुपूज्य
चंद्रप्रभ, विमलनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ,
अनंतनाथ, नमिनाथ अजितनाथ, कुंथुनाथ
आदिनाथ, पुष्पदंत, शांतिनाथ, मल्लिनाथ, संभवनाथ, अभिनंदननाथ
मध्यम
चन्द्रप्रभ सुपार्श्वनाथ
विमलनाथ
चन्द्रप्रभ
धर्मनाथ
चंद्रप्रभ
श्रेयांसनाथ, मुनिसुव्रतनान वासुपूज्य कुथुनाथ
विमलनाथ, अनंतनाथ अरहनाथ
३५९
विमलनाथ, अनतनाथ. अरहनाथ, मल्लिनाथ नमिनाथ, शांतिनाथ
सुमतिनाथ शांतिनाथ
अजितनाथ,
कुंथुनाथ
कुंथुनाथ धर्मनाथ
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्र. नक्षत्र चरणाक्षर सर्वोत्तम
१.
२.
3.
४.
५.
19.
देव शिल्प
८.
९
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री
६. ता
रु
रे
ती
तू
तुला
वासुपूज्य संभवनाथ अभिनंदन नाम
उत्तम
नेमिनाथ, श्रेयांसनाथ,
वासुपूज्य
सुपार्श्वनाथ, वासुपूज्य
शीतलनाथ, विमलनाथ
वासुपूज्य, सुपार्श्वनाथ अजितनाथ, कुन्थुनाथ, महावीर, पद्मप्रभ पार्श्वनाथ, नमिनाथ
श्रेयांसनाथ, शांतिनाथ, सुमतिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ
संभवनाथ, सुपार्श्वनाथ अभिनंदननाथ, पार्श्वनाथ
श्रेयांसनाथ, शांतिनाथ, नमिनाथ
कुन्थुनाथ, श्रेयःसनाथ, वासुपूज्य
पद्मप्रभ, महावीर,
मुनिसुव्रतनाथ, संभवनाथ
अभिनंदननाथ
पार्श्वनाथ, धर्मनाथ
मध्यम
सुमतिनाथ, धर्मनाथ, चन्द्रप्रभु
अनंतनाथ
आदिनाथ, पुष्पदंत अरहनाथ, धर्मनाथ, सुमतिनाथ
पद्मप्रभ, महावीर, नेमिनाथ
[૩૮૦
मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, सुपार्श्वनाथ, पद्मप्रभ महावीर, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ
चन्द्रप्रभु
विमलनाथ, शीतलनाथ, अनंतनाथ, अरहनाथ, पुष्पदत, आदिनाथ,
चन्द्रप्रभ
मुनिसुव्रत, मल्लिनाथ, धर्मनाथ, शीतलनाथ, चन्द्रप्रभु, पुष्पदंत, आदिनाथ
सुमतिनाथ, शीतलनाथ
विमलनाथ, अनंतनाथ, अरहनाथ
शांतिनाथ, भमिनाथ, विमलनाथ, अनंतनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
(देव शिल्प
वृश्चिक
-------
-------------------
-
-
-
-
-
---- -
क्र. नक्षत्र चरणाक्षर
सर्वोत्तम
उत्तम
मध्यम
१.
तो
कुंथुनाथ, अजितनाथ
सुमतिनाथ, विमलनाथ, चंद्रप्रभ, मल्लिनाथ, शांतिनाथ , नमिनाथ अनंतनाथ, अरनाथ
२.
ना
शीतलनाथ,
पुष्पदंत, नेमिनाश्य, आदिनाथ, शांतिनाथ नमिनाथ
मल्लिनाथ, पद्मप्रभ, महावीर संभवनाथ, कुंथुनाथ, अजितनाथ, अभिनंदननाथ
-----------
---
--
३.
नी
सुपार्श्वनाथ, धर्मनाथ, पार्श्वनाथ, श्रेयांसनाथ कुंशुनाथ, संभवनाथ
मुनिसुव्रतनाथ, अजितनाथ, अभिनंदननाथ,
चन्द्रप्रभ, अभिनंदननाथ
सुमतिनाथ, धर्मनाथ, वासुपूज्य, संभवनाथ
5.
ने
शीतलनाथ, विमलनाथ, पुष्पदंत, अनंतनाथ, धर्मनाथ, सुमतिनाथ आदिनाथ, अरहनाथ
नेमिनाथ,पद्मप्रभ, महावीर
------------
६.
नो
सुमतिनाश्य
शांतिनाथ, नमिन्नाथ, श्रेयांसनाथ
मुनिसुव्रत, मल्लिनाच, सुपार्श्वनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर
----------- 7. या
सुपार्श्वनाथ, वासुपूज्य
अजितनाथ, कुंथुनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर पद्मप्रभ, नेमिनाथ, चंद्रप्रभ
उ.
यी
पार्श्वनाथ, संभवनाथ, अभिनंदननाथ,चंद्रप्रभ
विमलनाथ, परितलनाथ, सुपार्श्वनाथ, अनंतनाथ, अरहनाथ, आदिनाथ, पुष्पदंत
---
-------
---
--------
3.
यू
शीतलनाथ
आदिनाथ, पुष्पदंत, शांतेनाथ,धर्मनाथ चन्द्रप्रभ
श्रेयांसनाथ, मल्लिनाथ नमिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
(देव शिल्प
३८२]
ন
क्र. नक्षत्र चरणाक्षर सर्वोत्तम
उत्तम
मध्यम
-------
-
-
-
-
-
-
-
-
सुमतिनाश, शीतलनाथ
आदिनाथ, पुष्पदंत
श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य मुनिसुव्रत, अजितनाथ कुंभुनाथ
२
यो
- . . . .
श्रेयसनाथ, वासुपूज्य, . . . . : . शिल'थ, :
अनंतनाथ, अरहनाथ, मुनिसुव्रत. राभवनाश्य, अभिनंदन, पद्मप्रभ, नेमिनाथ नहावीर
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-------
------------
३.
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-
वासुपूज्य,धर्मनाय सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ
विमलनाथ, अनंतनाथ, अरहनाथ, शांतिनाथ मल्लिनाथ, नमिनाथ
----------..
४.
भी
अजितनाथ,
समत्निाथ, विमलनाथ, चन्द्रप्रभ अनंतनाथ, अरहनाथ शांतिनाथ, मल्लिनाथ
कुंथुनाथ
नमिनाथ
-
-
-
-
-
-
-
आदिनाथ, पुष्पदंत शीतलनाथ, शांतिनाथ मल्लिनाथ, नमिनाथ
पद्मप्रभ, महावीर, नेमिनाथ सम्भवनाथ, अभिनंनदननाथ, अजितनाथ. कुंथुनाथ
-
-
-
-
-
-
-
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-
-
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------
-----
६
धा
श्रेयांसनाथ,धर्मनाथ सुपार्श्वनाथ, संभवनाथ
मुनिसुव्रतनाथ, पार्श्वनाथ. अजितनाथ, कुंथुनाथ, अभिनंदननाथ
----
७.
फा
वासुपूज्य,संभवनाथ, अभिनंदननाथ .
सुमतिनाथ, धर्मनाथ, चन्द्रप्रभ
---------
८.
दा
अदिनाथ, पुष्पदंत चिमलनाथ, शीतलनाथ अनंतनाथ. अरहनाथ सुमतिनाथ ਬਸੰਤਾਪ
पद्मप्रभ, महावीर नेमिनाथ
---
----------------
-------
९.
भे
शातिनाथ, मल्लिनाथ, श्रेयांसनाय, गेमिनाथ नेमिनाथ, सुमतिनाथ
पद्मप्रभ, गहावीर, सुपार्श्वनाथ पाश्वनाथ, नेमिनाथ
Page #405
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________________
(देव शिल्प
८
)
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--------... क्र, नक्षत्र चरणाक्षर सर्वोत्तम
उत्तम
मध्यम
.
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वासुपूज्य, अजितगथ सुपार्श्वनाथ. पार्श्वनाथ
महावीर, पदप्रभ नेमिनाथ
कुंथुनाथ. चन्द्रप्रभ
---------
-
-
-
-
-
-------- २. जा
पार्श्वनाथ
विमलनाथ, अनंतनाथ अरहनाथ, शीतलनाथ आदिनाथ, चन्द्रप्रभ
-----------------
३.
जी
शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, शांतिनाथ. आदिनाथ
सुपार्श्वनाथ संभवनाथ, अभिनंदननाथ पुष्पदंत
------------. मुनिसुव्रतनाथ पुष्पदंत, मल्लिनाथ, नमिनाथ, धर्मनाथ चंद्रप्रभ -----...-----.:--- आदिनाथ, शीतलनाथ मुनिसुव्रतनाथ, वासुपूज्य कुंथुनाथ
४.
खी
श्रेयांसनाथ, अजितनाथ सुमतिनाथ, पुष्पदंत
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-
नुनिसुव्रतनाथ, वासुपूज्य, नेमिनाथ महावीर
श्रेयांसनाथ, संभवनाथ अभिनंनदननाथ, पद्मप्रभ
विमलनाथ, अनंतनाथ अनंतनाथ अरहनाथ
-------
-----
-
---------
वासुज्य
सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ, धर्मनाथ
विमलनाथ, अनंतनाथ अरहनाथ, शांतिनाथ, मल्लिनाथ, नमिनाथ
५.
खो
विमलनाथ, अनंतनाथ, अरहनाथ
चन्द्रप्रभ, मल्लिनाथ, नमिनाथ नमिनाथ, सुमतिनाथ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अजितनाथ
---------
८.
गा
------------------ महावीर, नभिनाथ आदिनाथ, शीतलनाश्य
शांतिनाथ, मल्लिनाथ, नमिनाथ पुष्पदंत. पद्मप्रभ, कुंथुनाथ अजितनाथ, रांभवनाथ अभिनदननाथ
९.
गी
श्रेयांसनाथ, अजितनाथ
धर्मनाथ,पार्श्वनाथ
मुनिसुव्रतना सुपार्श्वनाथ,संभवनाथ अभिनंदननाथ
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क्र. नक्षत्र चरणाक्षर सर्वोत्तम
उत्तम
मध्यम
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१.
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धर्मनाथ, संभवनाथ अभिनंदननाथ
सुमतिनाथ, चंद्रप्रभ
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आदिनाथ, शीतलनाथ, अनंतनाथ अरहनाथ, सुभतिनाथ, महावीर. नामनाथ,पुष्पदंत, पद्मप्रभ
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३.
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मुनिसुव्रतनाथ पल्लिनाथ, नामिनाथ श्रेयांसनाथ
शातिनाथ, सुगलिनाथ, महावीर, नेमिनाथ,सुपार्श्वनाथ, पद्मप्रभ पार्श्वनाथ
--------------
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४.
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चन्द्रप्रभ
कुंथुनाथ, सुपार्श्वनाथ वासुपूज्य, महावीर
महावीर, पद्मप्रभा पार्श्वनाथ, नेमिनाथ
५.
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संभवनाथ, सुपार्श्वनाथ अभिनदननाथ, पार्श्वनाश, विमलनाथ, अनंतनाथ, पार्श्वनाथ, शीतलनाथ अरहनाथ, पुष्पदत, आदिनाथ,
चन्द्रप्रभ
--------
-------------------
श्रेयांसनाथ
आदिनाथ, पुष्पदंत, शीतलनाथ, मुनिसुव्रत
शांतिनाथ, चन्द्रप्रभ मल्लिनाथ, नमिनाथ, धर्मनाथ
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------------
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७.
से
शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, वासुपूज्य कुंथुनाथ
आदिनाथ, पुष्दंत, सुमतिनाथ
अजितनाथ
८.
सो
विमलनाथ. अनंतनाथ अरहनाथ
श्रेयांसनाथ, संभवनाथ अभिनंदननाथ . नेमिनाथ
पद्मप्रभु, महावीर मुनिसुव्रतनाथ, वासुपूज्य
९.
वासुपूज्य, सुपार्श्वनाथ पार्श्वनाथ
धर्मनाथ, विमलनाथ, शांतिनाथ, नमिनाथ, मल्लिनाथ, अनंतनाथ, अरहनाथ
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(देव शिल्प
६८)
तीर्थकर की राशि तथा प्रतिमा स्थापनकर्ता की राशि का मिलान करके मूल नायक भगवान का निश्चय किया जाता है। पूर्वोक्त सारणियों का अवलोकन करके विद्वान प्रतिष्ठाचार्य तथा मर्मज्ञ आचार्य परमेष्ठी से इस विषय का निर्णय कराना चाहिये। नगर की राशि का भी इसी प्रकार मिलान करना चाहिये।
प्रतिमा किस द्रव्य की बनानी है इसका निर्णय प्रारंभ में ही कर लेना चाहिये। शिला परीक्षण के लिये शुभ मुहूर्त का चयन करके ही प्रस्थान करना चाहिये। उतावली में कभी भी प्रतिमा नहीं लेनी चाहिये । प्रतिमा की स्थापना भी मुहूर्त का चयन करने के बाद ही करना चाहिये।
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(देव शिल्प
(३८७) प्रासादों के भेद प्राचीन शास्त्रों में प्रासादों के अनेकानेक भेद बनाये गये हैं। जिन देवों ने जिस प्रकार की पूजा की उनके अनुरुप प्रासादों का उद्भव हुआ। ये चौदह प्रकार के भेदों से जाना जाता है - देवों के पूजन से
नागर जाति के प्रासाद दानवों के पूजन से । आदिड़ जाति के प्रासाद गन्धर्यों के पूजन से
लतिन जाति के प्रासाद यक्षों के पूजन से
विमान जाति के प्रासाद विद्याधरों के पूजन से
मिश्र जाति के प्रासाद वसु देवों के पूजन से
वराटक जाति के प्रासाद नाग देवों के पूजन से
सान्धार जाति के प्रासाद नरेन्द्रों के पूजन से
भूमिज जाति के प्रासाद सूर्य के पूजन से
विमान नागर जाति के प्रासाद चन्द्र के पूजन से
विमान पुष्पक जाति के प्रासाद पार्वती के पूजन से
वलभी जाति के प्रासाद हरसिद्धि देवियों के पूजन से सिंहावलोकन जाति के प्रासाद व्यन्तर देवों के पूजन से फांसी जाति के प्रासाद इन्द्र लोक के पूजन से स्थारुह (दारुजादि) जाति के प्रासाद
जिनेन्द्र प्रासादों के लिए उत्तम जाति के प्रासादों का निर्माण करना निर्माता एवं समाज दोनों के लिए अतीव हितकारी हैं। प्रासादों की मुख्य जातियों में से निम्न जतियों के प्रासाद उत्तम कहे गये हैं* :
१. [[गर २. द्राविड़ ३. भूमिज ४, लतिन ५. सांधार ६. विमान -नागर ७. विमान पुष्पक ८. मिश्र (श्रृंग व तिलक युक्त)
__ नागर जाति के प्रासाद
इन प्रासादों की तलाकृति को रुप, गवाक्षयुक्त भद्र से बनाया जाता है। इनमें शिखर अनेकों प्रकार के होते हैं । अनेकों प्रकार के वितान तथा श्रृंगयुक्त फालना से इन प्रासादों को शोभायमान किया जाता है।
द्राविड़ जाति के प्रासाद
इस प्रकार के प्रासादों में लीन अथवा पांच पीठ बनाये जाते हैं। पीठ पर वेदी का निर्माण किया जाता है। उनकी रेखा (कोना ) का निर्माण लता एवं श्रृंगों से युक्त किया जाता है।
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* झागप्रकाश पार्णव का चारतु विद्या जिन प्रासाद अधिकार
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(दन शिल्प
३८८
लत्तिनजाति के प्रासाद ये प्रासाद एक श्रृंग वाले होते हैं।
श्रीवत्स प्रासाद ये प्रासाद वारि मार्ग से युक्त होते हैं।
सांधारपासाट परिक्रमा युक्त नागर प्रासाद को सांधार कहतें हैं। इनका आकार दस हाथ से बड़ा रहता है तथा ये अव्यक्त प्रासाद (भिन्न दोष रहित) होते है। इनमें सूर्य किरण का सीधा प्रवेश नहीं होता
विमाननागरप्रासाद प्रासाद के कोने के ऊपर केसरी आदि अनेक श्रृंग बनायें तथा भद्र के ऊपर उसश्रृंग बनायें, शिखर पांच मंजिला हो, ऐसा प्रासाद विमा- नागर जाति का कहा जाता है। इनके ऊपर अनेक श्रृंग तथा उरुश्रृंग होते हैं।
मेरुप्रासाद मेरु प्रासाद पांच हाथ से छोटा नहीं बनाया जाता है। पांच हाथ के विस्तार वाले गेरु प्रासाद के शिखर के ऊपर १०१ श्रृंग चढ़ाये जाते हैं। पांच हाथ से एक-एक हाथ पचास हाथ तक बढ़ाने में इनके एक-एक भेद हैं। प्रत्येक अगले भेद के लिए २०-२० अधिक श्रृंग चढ़ाये जाते हैं। इरा प्रकार पचास हाथ के मेरु प्रासाद पर १००१ श्रृंग हो जाते है । मेरु प्रासादों के गौ भेद भी वर्णित हैं :१. मेरुप्रासाद
- १०१श्रंग २. हेम शीर्ष मेरु - १५० श्रृंग ३. गुरवल्लभ मेरा २५० श्रृंग ४. भुवन गंड-| मेरु - ३७५ श्रृंग ५. रत्नशीर्ष मेस
५०१ श्रृंग ६. किरणोद्भव गेरु - ६२५ श्रृंग ७. कमल हंस मेरु - ७५० श्रृंग ८. स्वर्णकेतु मेरु - ८७५ श्रृंग .. ९. वृषभ ध्वज मेरु - १००१ श्रृंग
ये मेरु प्रासाद परिक्रमायुक्त अथवा बिना परिक्रमा के दोनों बनाये जाते हैं। यदि दो परिक्रमा बनायें तो उसके भद्र में प्रकाश के लिये गवाक्ष बनाना चाहिए। मेरु प्रासाद सिर्फ राजाओं को हो बनाना चाहिए । अकेले धनिक इन्हें न बनायें, यदि धनिक बनाना भी चाहे तो राजा के साथ बनायें अन्यथा महा अनिष्ट की संभावना है ।*
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* प्रा.मं. ६/३५-४६
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३९३)
केसरी आदि पच्चीस प्रासादों के नाम
नागर जाति के प्रासादों में केसरी आदि पच्चीस प्रासाद प्रमुख माने जाते है । ये प्रदक्षिणा युक्त अथवा बिना प्रदक्षिणा के भी बनाये जाते है। केसरी आदि पच्चीस प्रासादों के नाम एवं विवरण इस प्रकार
१- केसरी
२- सर्वतोभद्र ३- नन्दन ४- नन्दशालिक ५- नन्दीश ६- मन्दर ७- श्रीवृक्ष ८- अमृतोद्भव ९- हिमवान १०- हेमकूट ११- कैलाश १२- पृथ्वीजय १३- इन्द्रनील १४- महानील १५- भूधर १६- रत्नकूटक १७. वैडूय
१८- पदमा १९- वज्रक
२०- मुकुटोज्जवल २१- ऐरावत २२- राजहंस २३- गरुड़
२४- वृषभध्वज २५- गेरु इन प्रासादों में मेरु प्रासाद ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं सूर्य के लिये बनाना चाहिए । अन्य के लिए नहीं।"
जिनेन्द्र देव के लिए भी केसरी आदि प्रासाद बनायें जाते हैं उनका विवरण पृथक दिया गया हैं।
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*केशरी सर्वतोभद्री नंदनो जंदशालिकः। जंदीशो मंदिरश्चैव श्रीवत्वातोभ्दवः ।। शि.र.६/५ हिमवान् हेपाट कैलासः पृथिवीजयः। इन्द्रनीलो पहानील) भूधरो रत्नकूटकः ।। शि.र.६/६ वैड्यः परागश्च दजको मुकुटोज्वलः। ऐरावती राजहंसो गरुडो वृषभध्वजः ।। शि.२.६/७ मेरुः प्रासादराजश्व देवानामालयं हि सः । केशरवाः समाख्याता नामतः पञ्चविंशतिः ।। शि..६/ **हरो हिरण्यगर्भश्च हरिर्दिनकरस्तथा। एते देवाः स्थिता धेरौ नान्येषां स कदाचन ।। प्रा.म.प.०/६७
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________________
(देव शिल्प
विभिन्न देवताओं के लिये उपयुक्त प्रासाद
हिमवान
मंदिर का नाम
उपयुक्त देव केसरी
पार्वती देवी नन्दन
सर्वदेव स्वामी का आनंद, पापहारी श्रीवृक्ष
विष्णु अगृतोद्भव
सर्वदेव
देव, नागकुमार कैलास
ईश्वर (शिव) इन्द्रनील
इन्द्र, सर्वदेव, शिव भूधर
सर्वदेव रत्नकूट
शिवलिंग, सर्वदेव
सर्वदेव वजक
इन्द्र ऐरावत
इन्द्र पक्षीराज वृषभ
ફૅરવર मेरु
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य गंदिर निर्माता को चाहिए कि वह देवों के अनुरुप ही मंदिर का निर्माण करें। यदि कम अर्थशक्ति हो तो लघुआकार में निर्माण करें किन्तु यद्वा-तद्वा निर्माण न करें। शास्त्र के अनुरुप निर्माण करने से मंदिर निर्माणकर्ता एवं उपासक दोनों को शुभकारक होता है।
विष्णु
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________________
(दैव शिल्प) .
(३९५)
१. केसरी प्रासाद
तल का विभाग
. वर्गाकार प्रासाद के आठ भाग करें। दो भाग का कोना तथा दो भाग का भद्रार्ध बनायें। इन अंगों का निर्गम एक भाग रखें। एक भाग की परिक्रमा, एक एक भाग की दो दीवार तथा दो भाग का गर्भगृह बनायें। यदि बिना परिक्रमा का प्रासाद बनाना इष्ट हो तो प्रासाद की चौड़ाई के चौथे भाग के बराबर एक . एक दीवार तथा आधे भाग के बराबर गर्भगृह बनायें । गर्भगृह वर्गाकार रखें।
प्रासाद की भूमि के माप का आधा भद्र की चौड़ाई रखें, इससे आधा कोण (कर्ण) का विरतार रखें। कोण से आधा भद्र का निर्गम रखे।
शिखर की सजा भद्र के ऊपर रथिका तथा उद्गम बनायें। प्रासाद के चारों कोण के ऊपर एक- एक श्रीवत्स श्रृंग चढ़ायें।
श्रृंग संख्या - कोण ४ शिखर
-------
कुल
Chita
मिति
भ्रम
केसरी प्रासाद
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________________
(देव शिल्प
३९६) २. सर्वतोभद्र प्रासाद
तल का विभाग प्रासाद जो वर्गाकार भूमि के परा- टस भाग अर्थात् २० भाग करें। उसमें मध्य में सोलह भाग का गर्भगृह बनायें। दो भाग का कोना, १, १/२ भाग प्रतिरथ, भद्रार्ध १, १/२ भाग करें। . ...एक भाग की बीमार, ए... माही परिक्रमा, एक भाग की दूसरी बाहर की दीवार करें।
दो-दो भाग का कोण तथा छह भाग की भद्र की चौड़ाई रखें । भद्र का निर्गम एक भाग रखें ; भद्र के दोनों तरफ एक एक भाग की एक एक कोणी बनाएं। भद्र के दोनों तरफ आधे-आधे भाग की एक एक कर्णिका बायें। कर्णिका तथा कोणी का निर्गम आधा- आधा भाग रखें। इस प्रकार कुल एक भाग निर्गम रखें।
छह भाग चौड़े भद्र में से दो कोणी तथा दो कर्णिका का कुल तीन भाग छोड़कर शेष तीन भाग जितना मुखभर की चौड़ाई रखें । 'भद्र के ऊपर पांच-पांच उद्गम करें।
शिखर की सजा कोण के ऊपर दो -दो इस प्रकार कुल आट श्रृंग चढावें । आमलसार तथा कलशयुक्त श्रीवत्स शिखर बनायें।
श्रृंग संख्या कोण शिखर
--------------
कुल
९
FICE
सर्वतोभद्र प्रासाद
भ्रम
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________________
(देव शिल्प)
३. नन्दन प्रासाद
इराका निर्माण सर्वतोभद्र प्रासाद के अनुसार ही किया जाता है किन्तु भद्र के गवाक्ष एवं उदगम को ऊपर एक एक उरुश्रृंग और चढ़ावें।
श्रृंग संख्या कोण
भद्र
शिखर
-----------
कुल १३
४.नन्दिशाल प्रासाद इराका निर्माण नन्द- प्रासाद के अनुसार ही किया जाता है किन्तु गद्र के ऊपर एक एक उरुश्रृंग और चढ़ावें।
श्रृंग संख्या कोण ८
भद्र
शिखर
१
कुल
१७
५. नन्दीश प्रासाद
इसका निर्माण सर्वतोभद्र प्रासाद के अनुसार हो किया जाता है किन्तु भद्र के स्थान पर तीन भाग का गद्र तथा डेढ़- डेढ़ भा का प्रतिरथ बायें।
शिखर की सजा कोण पर २-२ श्रृंग भद्र पर १-१ श्रृंग प्रतिरथ पर १-१ अंग चढ़ावें। .
श्रृंग संख्या
कोण
प्ररथ भद्र
शिखर
कुल
10
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________________
(देव शिल्प
(३९८)
8. मन्दरप्रासाद
तल का विभाग प्रासाद की वर्गाकार भूगि के बारह भाग करें। कोना २ भाग, प्रतिकर्ण २ भाग, भद्राई २ भाग करें। छह भाग का गर्भगृह बनायें। एक एक भाग की दोनों दोवार तथा एक एक भाग की परिक्रमा बनायें । गर्भगृह के बाहर कोणा, प्ररथ, भद्रार्ध ये सभी दो दो भाग का रखें । उसका निर्गम समदल रखें । भद्र की निर्गम एक भाग का रखें।
शस्पर की सज्जा को के उपर दो दो श्रृंग चढावें भद्र के ऊपर दो दो उस श्रृंग चढ़ायें. प्रतिरथ के ऊपर एक एक श्रृंग चढ़ायें आमलसार, कलश, रेखा, गवाक्ष, उद्गम सभी शोभायुक्त बनाना चाहिये।
14.
-
-
-
..
--
-
-
.
श्रृंग संख्या कोण प्रस्थ
भट्र
शिखर
।
।
...Jal
कुल
भ्रम मिति
मंदर प्रसाद
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________________
(देव शिल्प
[३९९] ७. श्रीवृक्ष प्रासाद
वल का विभाग प्रासाद को वर्गाकार भूमि के चौदह भाग करें। का) २ भाग, प्रतिकर्ण २ भाग, भद्रा २ भाग तथा गद्र के दोनों तरफ एक एक भाग की नंदिका (कोणी) करें। इसका भोतरी गान इस प्रकार लें -
अट भाग का गर्भगृह, एक भाग की दीवार, एक भाग की परिक्रमा, एक भाग बाहरी दीवार, बाहरी मान मंदर प्रासाद के अनुसार ही करना चाहिए, दो भाग का कोना, दो भाग का प्रतिस्थ, एक भाग का नन्दी, दो भाग का भद्राय रखें।
पर
..b
ua
शिरपर की सजा शिखर की चौड़ाई आठ भाग करें। कोण के ऊपर
दो श्रृंग चढ़ायें। प्रोतेरथ के ऊपर एक श्रृंग और एक तिलक चढावें। नन्दी के ऊपर एक तिलक रखें। भद्र के ऊपर
तीन तीन ऊराझंग चढ़ायें
श्री वृक्ष प्रासाद
श्रृंग संख्या कोण प्रतिरथ
तिलक संख्या प्रतिरथ ८
८ । १२
गद्र
शिखर
-
-
-
-
-
-
----
-
---------
-----
कुल २९
कुल
१६
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________________
(देव शिला)
( ४०००
८.अमृतीभव प्रासाद
।
च
इसका निमण श्रीवृक्ष प्रासाद के अनुसार ही किया जाता है इसमें कोण पर तीन श्रृंग : शेष पूर्ववत् रखें।
श्रृंग संख्या तिलक संख्या को १२ प्रतिरथ . प्रतिस्थ ८ • I-दो मट्र १२ शिखर १
----- कुल ३३ कुल १६
e. हिमवान प्रासाद
इसका निर्माण अगृतोदभव प्रासाद के अनुसार ही किया जाता है इसमें अमृतोद्भव प्रासाद में प्रतिरथ थे। पर तिलक के बदले श्रृंग अर्थात् दो अंग चड़ावें । भद्र के ऊपर ती-1 के स्थान पर दा करुअंग रखें।
तिलक संख्यानन्दी ८
श्रृंग संख्याकोण १२ प्रतिस्थ १६ भद्र ८ शिखर १
-
-
-
-
-
-
-
-
-
कुल ३७
कुल ८
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________________
४०१
(৫ ফিল্ডি)
१०.हेमकूट प्रासाद
इसका निर्माण हिमवाला प्रासाद के अनुसार ही किया जाता है इसमें भद्र के ऊपर तोरारा उरुश्रृंग चढ़ावें । नन्दी के ऊपर दूसरा तलक चढ़ायें।
श्रृंग संख्या तिलक संख्या कोण १२ नन्दी १६
'मद्र शिखर
---- कुल ४१ कुल १६
११.कैलास प्रासाद इराका निर्माण हेभकूट प्रासाद के अनुसार ही किया जाता है इसमें नदी पर दो तिलक के स्थान पर एक तिलक तथा एक श्रृंग चढ़ावें। कोण पर तीन श्रृंग के स्थान पर दो श्रृंग तथा एक तिलक चढ़ावें ।
श्रृंग संख्या तिलक संख्या कोण ८ कोण प्रतिरथ १६ नन्दी
गन्दी
भद्र
र
शिखर
कुल ४५ . कुल १६
१२. पृथिवीजय पासाद इसका निर्माण कैलास प्रासाद के अनुसार ही किया जाता है इसमें कोण के तिलक के स्थान पर श्रृंग चढ़ावें
श्रृंग संख्या तिलक कोण १२ नन्दी ८ प्रतिरथ १६ नन्दी ८ भट्र १२ शिखर १
कुल ४९
कुल ८
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________________
४०२
म
(देव शिल्प
(४०२) १३. इन्द्रनील प्रासाद
तळ का विभाग प्रासाद की वर्गाकार भूमि के १६ भाग करें। उन्नमें दो गाग का कोण, एक मा' का नन्दी, दो माग का प्रतिस्थ, एक भाग की दूसरी नन्दी तथा दो भाग का भद्रा बनायें।
इन सब अंगों का निर्गम समदल तथा भद्र का निर्गग एक भाग रखें। सोलह भाग में गर्भगृह पे चौड़ाई के आठ भाग (वर्गाकार के चौस. ११) करें। गर्भगृह की दीवार एक भाग, परिकामा दो भाग तथा बाहर की दीवार एक भाग रखें।
शिरवर कीसम्जा शिखर की चौड़ाई बारह भाग रखें, नोकर होगा बहावें. कर्ण नन्टी के ऊपर एक तिलक चढ़ायें, दो भाग का प्रत्यंग चढ़ायें . . प्रतिरथ के ऊपर दो श्रृंग पायें, पहला उरुग्नंग छह भाग चौड़ा रखें, गद्र नन्दी के ऊपर एक श्रृंग चढ़ारों,
दुसस उरुश्रृंग चार भाग, इन्द्रप्रसाद
तीसरा उतभंग दो भाग चौड़ा रखें। इन उरुश्रृंगों का निर्गम चौड़ाई से आधा रखें।
तिलक संख्या कर्ण नन्दी ८
श्रृंग संख्या का प्रतिरथ भद्र- नन्द
प्रत्यंग शिखर
-----------------
कुल
.
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________________
(देव शिल्प)
१४. अडानी
प्रासाद
इसका निर्माण इन्द्रनील प्रासाद के अनुसार ही किया जाता है इसमें कर्ण नदी के तिलक के स्थान पर श्रृंग चढ़ायें तथा कोने के ऊपर से एक अंग हटाकर एक तिलक रखें ।
श्रृंग संख्या
कोण
कर्णगन्दी ८
प्रत्यंग ८
प्रतिरथ भद्र नन्दी ८
भद्र
शिखर
४
कुल
१६
१२
१
५७
कुल
श्रृंग संख्या
कोण
नन्दी
८
८
प्रत्यंग ८
प्रतिरथ १६
नदी ८
भद्र
शिखर १
१२
१५ भूधर प्रासाद
इराका निर्माण महानील प्रासाद के अनुसार ही किया जाता है इसमें कोण के ऊपर एक श्रृंग अधिक चढ़ायें ।
कुल
६१
तिलक संख्या
कोण
४
है
कुल
तिलक संख्या
कोण
४०३
४
४
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________________
(देव शिल्प
४०४
१६. रत्नकूट प्रासाद
. तल का विभाग
वर्गाकार प्रासाद के तलमान में १८ भाग करें। कर्ण, प्रतिस्थ, भद्रार्ध २-२ भाग, कोणी, नन्दी, दूसरी नन्दी १-१ भाग करे । भद्र के दोनों तरफ एक एक भाग को दूसरी नन्दी बनायें। बाहर की दीवार दो भाग की रखें।
शिवर की सजा शिखर की चौड़ाई १२ भाग रखें। कोण के ऊपर दो श्रृंग तथा एक तिलक चढ़ायें। कर्ण नन्दी पर दो भाग का प्रत्यंग तथा २ तिलक चढायें। प्रतिस्थ के ऊपर तीन श्रृंग तथा मंदी पर एक तिलक चढ़ायें। भद्र न्दी पर एक श्रृंग तथा एक तिलक चढ़ायें। भद्र पर चार उरुश्रृंग चढ़ायें। पहला उरुश्रृंग छह भाग, दुसरा चार भाग, तीसरा तीन भाग तथा चौथा दो भाग रखें। उरुश्रृंगों का निर्गम चौड़ाई से आधा रखें।
TOPPEARESS
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-
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-
-
श्रृंग संख्या कोण प्रत्यंग प्रतिरथ भद्रनन्दी
तिलक संख्या कोण कोणी प्ररथ नंदी १६ भद्रनन्दी ८
२४ ८ १६
शिखर
------------
स्नकूट प्रासाद
कुल
-----
४४
६५.
कुल
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________________
(देव शिल्प
(४०५) १७. वैडूर्य प्रासाद इसका निर्माण रत्नकूट प्रासाद के अनुसार ही किया जाता है इसमें कोण के ऊपर से तिलक के स्थान पर उसके एवज में एक तीसरा उरुश्रृंग चढ़ायें। श्रृंग संख्या
तिलक संख्या कोना १२ कर्णनन्दी
१६ प्रत्यम ८ प्रतिरथ नदी प्रतिरथ २४ भद्रनन्दी भद्रनन्दी ८ भद्र १ शिखर १
------------
कुल
६९
कुल
४०
१८. पवाराग प्रासाद
वैद्य प्रासाद में कोण के ऊपर के तीसरे श्रृंग के स्थान पर तिलक चढ़ायें। भद्र नन्दी के ऊपर एक तिलक एक श्रृंग के एवज में दो श्रृंग करें। श्रृंग संख्या
तिलक संख्या कोण ८
कोण ४ प्रत्यंग ८ कर्णनन्दी १६ प्रतिस्थ २४ प्रतिस्थ नन्दी १६ भद्रनन्दी १६ भद्र १६ शिखर १
कुल ७३ कुल ३६
१.वकाक प्रासाद इसकी रचना पद्मराग प्रासाद की तरह करें किन्तु इसमें कोण के तिलक के बदले श्रृंग चढ़ायें। श्रृंग संख्या
तिलक संख्या कोन १२ कर्णनन्दी १६ प्रत्यंग ८ प्रतिरथ नन्दी १६ प्रतिरथ २४ भद्रनन्दो १६ भद्र १६ शिखर १
-----
कुल
७७
कुल
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________________
४०६
(देव शिल्प २०. मुकुटीग्ज्वल प्रासाद
तल का विभाग वर्गाकार भूमि के बौस भाग करें।
दो भाग का कोण, डेढ़ भाग की नन्दी, दो भाग का प्ररथ, डेड भाग का -न्दी. एक
भाग की भद्र नन्दी, चार भाग भद्र की चौड़ाई रखें। भद्र का निर्गम एक भाग रखें। दो भाग बाहर की दीवार, दो भाग थी परिक्रमा, दो भाग गर्भगृह की दीवार, तथा आठ भाग का गर्भग्रह रखें।
NTS
शिखर की सज्जा रेखा का विस्तार चौदह भाग रखें। कोने के ऊपर दो श्रृंग एक तिलक रखें, कण नन्दी पर एक श्रृंग एक तिलक रख प्रत्यंग के ऊपर तीन श्रृंग रखें, प्ररथ के ऊपर तीन श्रृंग रखें, नन्दी के ऊपर एक श्रृंग तथा एक तिलक रखें, भद्र नन्दी के ऊपर एक श्रृंग बढ़ायें, भद्र के ऊपर चार भंग चढ़ायें।
पहला उरुश्रृंग सात भाग का, दूसर। उस्श्रृंग छह माग का तथा तीसरा उरुश्रृंग पांव भाग का तथा चौथा उरुश्रृंग दो भाग का रखें। श्रृंग संख्या तिलक संख्या कोण ८ कोण ४ प्रत्यंग कर्ण नन्दी ८ कर्णनन्दी ८ प्ररथ नन्दी र प्रस्थ नन्दी ८ भट्रनन्दी
A
SIC
-
HALA
4CLE
L
मुकुटोज्दल प्रासाद
शिखर
५
--
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
कुल
८१ कुल
२०
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________________
(४०७
(दव शिल्प
. २१.उरावत प्रासाद मुकुटोज्ज्वल प्रासाद में कोण के ऊपर के तिलक के स्थान पर श्रृंग चढ़ायें।
ख्या
तिलक संख्या कोण १२ कर्ण नन्दी प्रत्थंग ८ प्ररथम नन्दी प्रस्थ २४ -न्दो भट्रनन्दी ८ भद्र १६ शिखर १
----------
कुल ८५
कुल
१६
२२. राजहंस प्रासाद ऐरावत प्रासाद में कोण के ऊपर के तीसरे श्रृंग के स्थान पर तिलक चढ़ायें , भद्रनंदी पर एक श्रृंग
बनायें।
तिलक संख्या कोण ४ कर्ण नन्दी प्ररथ नदी ८
श्रृंग संख्या कोण ८ प्रत्यंग ८ कर्णनन्दी ८ प्ररथ २४ प्रस्थनन्दी ८ भन्द्रनन्दी १६ भद्र १६ शिखर १
-
-
-
-
-
-
-
-
-
--
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-..
फुल
८९
कुल
२०
Page #430
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________________
(देव शिल्प
(४०८० २३. पक्षिराज (गरुड़) प्रासाद
इसकी रचना राजहंरा प्रसाद की तरह करें। इसमें कोण के ऊपर का तिलक के स्थान पर श्रृंग चढ़ाये।
तिलक संख्या काण -दी ८ प्रस्थ नन्दी ८
श्रृंग संख्या कोण १२ प्रत्यंग ८ कर्णनदी ८ प्ररथ २४ प्ररथनन्दी ८ गद्रनन्दी १६ भद्र १६ शिखर १
-----------
२४. वृषभ प्रासाद
तल का विभाग वर्गाकार शूमि के २२ भाग करें। दो भाग की बाहर की दीवार, दो भाग की परिक्रमा, दो भाग को गर्भगृह की दीवार तथा दस भाग का गर्भगृह करें।
भट्र के दोनों तरफ दी १-१ भाग, प्रतिस्थ (स्थ, उपरथ, प्रतिस्थ) कर्ण, भद्रार्ध २-२ भाग करें। बाहर के अंगों में कोण, प्रतिस्थ, रथ तथा उपरथ्थ प्रत्येक दो- दो भाग की चौड़ाई रखें । भद्र नन्दी एक भाग तथा पूरा भद्र चार भाग का रखें । भद्र का निर्गम एक भाग का रखें । शेष सभी अंग समदल बनाएं।
शिखर की सजा शिखर की चौड़ाई के सोलह भाग करें। कोणों के ऊपर दो श्रृंग तथा एक तिलक चढ़ायें। प्रस्थ के ऊपर दो श्रृंग उसके ऊपर तीन तीन भाग का प्रत्यंग चढ़ायें। रथ्य के उपर तीन श्रृंग, उपरथ के ऊपर दो - दो श्रृंग चढ़ायें। भद्र नन्दी के ऊपर एक श्रृंग चढ़ायें । भद्र के ऊपर चार उरुश्रृंग चढ़ायें।
पहला उरुश्रृंग आठ भाग का, दूसरा छह भाग का, तीसरा चार भाग का तथा चौथा दो भाग का
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________________
(देव शिल्प
तिलक संख्या कोण
श्रृंग संख्या कोण प्रत्यंग प्रस्थ रथ उपरथ भद्रनन्दी
अद्र
शिखर
-
---
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
कल
कुल
२५. मेरु पासाद वृषभ प्रासाद के कोणों के ऊपर के तिलक हटाकर उसकी जगह श्रृंग चढ़ावें ।
संख्या कोण १२ प्रत्यंग प्ररथ १६
श्रृंग
स्थ
उपरथ भद्र-मन्दी
ARRHORT
Lion
शिखर
१
--------------
कुल
१०१
हाधA
त्त
रुप्रासाद
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________________
(देव शिल्प
(४१०
'वराज्यादि प्रासाद
वैराज्यादि प्रासाद पच्चीस प्रकार के हैं। शिखर एवं भद्रादि की अपेक्षा रो ये भेद किये जाते हैं। ये प्रासाद नागर जाति के हैं। उनके नाम इरा प्रकार हैं :१. वैराज्य २. नन्दन ३. सिंह ४. श्रीनन्दन ५. मन्दर । ६. मलय ७. विमान ८. सुविशाल ९. त्रैलोक्य भूषण १०. माहेन्द्र ११. रत्नशीर्ष १२. शतश्रृंग १३. भूधर १४. भुवनमंडल १५ त्रैलोक्य विजय ६. पृथ्वी वल्लभ७. महीधर १८. कैलाश १९. नवमंगल २०. गंधमादन २१. सर्वांगसुंदर २२. विजयानन्द २३. सर्वांगतिलक २४. महाभोग २५. मेरु
निम्न लेखित सारणी में विभिन्न देव देवियों के अनुकूल मंदिरों के नाम तथा उनके निर्माण का फल दर्शाया गया है। यशाशक्ति मूलनायक मंदिर इसी के अनुरुप बनाना चाहिए।
देवताओं के अनुकूलमंदिर एवं उनका फल
देव
मंदिर का नाम वैराज्य सिंह माहेन्द्र. सितसंग कैलाश महाभोग महादेव
सर्व देव देव-देवियां, पार्वती सर्व देव ईश्वर शंकर रावदेव रावदेव,
ब्रह्मा कथित, विश्वकर्मा निर्गित सौभाग्य, धन, पुत्र लाभ राज्य लाभ शुभ शुभ सर्व कार्य फलदाता (सिद्धि) मेरु
मंदिर निर्माता के लिये आवश्यक है कि वह देवों के अनुरुप ही मंदिर का निर्माण करें। यदि अल्प अर्थशक्ति हो तो लधुआकार में निर्माण करें किन्तु यदा-तद्वा निर्माण न करें। शास्त्र के अनुरुप निर्माण करने से मंदिर निर्माणकर्ता एवं पूजक दोनों को कल्याणकारक होता है।
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________________
(देव शिल्प)
१वराज्य प्रासाद
तलका विभाग वैराज्य प्रासाद वर्गाकार तथा चार द्वार वाला होता है। इसमें प्रत्येक द्वार पर चौकी मंडप बनाया जाता है। इसकी वर्गाकार भूमि के सोलह भाग करें । गध्य के चार भागों में गर्भगृह बनायें। शेष में २ भाग दीवार तथा २ भाग की भ्रमणी अर्थात् परिक्रमा बनायें।
शिखरकी सज्जा शिखर की ऊंचाई का मान प्रासाद की चौड़ाई से सवा गुना करें। इस पर आमलसार तथा कलश चढ़ाना चाहिये। चारों दिशाओं में शुकनास तथा सिंह कर्ण लगायें । चार द्वार लगाने की स्थिति में चारों दिशाओं में द्वार लगाना आवश्यक है। यह काल्याणकारक है।
वैराज्य प्रासाद सिर्फ एक अंग - एक कोण वाला है।
सम
भित्ति
वैराज्य प्रासाद
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________________
(४१२)
(देव शिल्प)
२. नन्दन प्रासाद
तल का विभाग प्रासाद के तल के चार भाग करें। उनमें एक एक भाग का कोण बनायें तथा दो भाग का भद्र करें भद्र में मुख गद्र भी बनायें।
THEHimedia
शिखर की सम्मा कोने के ऊपर एक एक श्रृंग रखें। भद्र के ऊपर दो दो उरुश्रृंग भी रखें।
श्रृंग संख्या कोण भद्र शिखर
-------------
कुल १३ नन्दन प्रासाद सिर्फ तीन अंग वाला है :दो कोण तथा भद्र।
३. सिंह प्रासाद नन्दन प्रासाद
वल का विभाग प्रासाद का तल विभाजन नन्दन प्रासाद के समान रखें। मुख भद्र में प्रतिभद्र बनायें । भद्र के गवाक्ष के उपर उद्गम बनायें। .
शिस्तर की सजा कोण के श्रृंगों के ऊपर सिंह रखें। भद्र की रथिका के ऊपर सिंह कर्ण रखें। श्रृंगों के ऊपर भी सिंह कर्ण रखें।
श्रृंग संख्या कोण
भद्र
शिखर
१
कुल १३ सिंह प्रासाद सिर्फ तीन अंग वाला है :- दो कोण तथा भद्र ।
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________________
(देव शिल्प
(४१३) ४. श्री नन्दन प्रासाद इराकी रचना नदन प्रासाद की भांति है इसमें कोण के ऊपर पांच अंडक वाला केसरी श्रृंग चढ़ायें।
श्रृंग संख्या कोण (केसरी क्रम) २० भद्र शिखर
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
--
-
-
-
-
-
कुल श्रीनन्दन प्रासाद सिर्फ तीन अंग वाला है :- दो कोण तथा भद्र।
५. मन्दिर प्रासाद
तल का विभाग वर्गाकार तल के छह भाग करें। इसमें कर्ण एक एक भाग का रखें । प्रतिकर्ण एक एक भाग का रखें। भद्रार्ध एक एक भाग का रखें। कर्ण और प्रतिकर्ण का निर्गम समदल रखें। भद्र का निर्गम आधा रखें।
शिखर की सजा कर्ण के ऊपर दो-दो श्रृंग चढ़ायें । भद्र के ऊपर दो- दो श्रृंग चढ़ायें। प्रतिकर्ण के ऊपर एक एक श्रृंग चढ़ायें।
श्रृंग संख्या कोण
Im
भद्र
प्ररथ शिखर
:
मित्ति
कुल २५ मन्दिर प्रासाद पांच अंग वाला है :दो कर्ण, दो प्रतिस्थ तथा 'मद्र।
मंदिर प्रासाद
HomeR
-AAR
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________________
(देव शिल्प)
६. मलय प्रासाद इसका निर्माण मन्दिर प्रासाद की मात करें तथा उसमें भद्र के रूपर एक तीसरा उरुश्रृंग
चढ़ायें।
श्रृंग संख्या कोण
प्ररथ शिखर
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-
-
-
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-
-
-
-
-
-
कुल
२५ मलय प्रासाद पांच अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिस्थ तथा भद्र।
-
-
-
७. विमान प्रासाद इसका निर्माण गलय प्रासाद की भांति करें तथा उसमें भद्र के ऊपर से एक उरुश्रंग हटायें। कर्ण के दोनों तरफ एका एक प्रत्यंग चढ़ायें। प्रतिरथ के ऊपर एक- एक तिलक चढायें। श्रृंग संख्या
तिलक संख्या कोण
प्ररथ प्ररथ गद्र प्रत्यंग
ફિશર્વર
-
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-
-
--
--------
कुल
कुल ८ विमान प्रासाद पांच अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिस्थ तथा भद्र ।
८. विशाल प्रासाद इसका निर्माण विशाल प्रासाद की भांति करें तथा उसमें भद्र के ऊपर एक एक उरूश्रृंग अधिक चढ़ायें। विशाल प्रासाद पांच अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिरथ तथा भद्र। श्रृंग संख्या तिलक संख्या पर
प्ररथ को ८ प्ररथ ८ प्रत्यंग शिखर
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-
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-
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-
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कुल ३७
कुल
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________________
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(देव शिल्प
(४१५) e.लोक्य भूषण प्रासाद इरायः। निर्माण विमानप्रासाद की भांति करें तथा उसमें प्रतिरथ के ऊपर एक एकः उरुश्रृंग अधिक बढ़ाएं। अंग संख्या
तिलक संख्या कोण ८
प्रस्थ प्रतिस्थ ८ भद्र प्रत्यंग ८ शिखर १
----------
कुल ४५ कुल ८ त्रैलोक्य भूषण प्रासाद पांच अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिरथ तथा भद्र ।
१०. माहेन्द्र प्रासाद
তে স্কা বিলে वर्गाकार तल के ८ भाग करें। इनमें कर्ण, प्रतिस्थ, उपरश्य तथा भद्रार्ध का एक एक भाग रखें ।भद्र का निर्गम १/२ भाग रखें।
ये सब अंग वारिमार्ग से युक्त करें। कर्ण, प्रतिरथ तथा उपरथ का निर्गम एक- एक 'माग करें।
शिखर की सजा भूल शिखर की चौड़ाई पांच भाग रखें। कर्ण के ऊपर दो- दो श्रृंग तथा एक- एक तिलक चढ़ायें। प्रतिरथ के ऊपर दो- दो श्रृंग चढ़ायें। उपरथ के ऊपर एक- एक श्रृंग चढ़ायें। भद्र के ऊपर तीन-तीन उरुश्रृंग चढ़ायें।
श्रृंग संख्या तिलक संख्या कोण. ८ कोण . ४ प्ररथ १६ उपरश्य भाद्र १२ शिखर
--------.
४५ कुल ४ माहेन्द्र प्रासाद सात अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिस्थ, दो रथ तथा भद्रा माहेन्द्र प्रासाद
-
-
-
-
-
--
-
-
-
-
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________________
(देव शिल्प
४१६) ११. रत्नशीर्ष प्रासाद इसका निर्माण माहेन्द्र प्रासाद की भांति करें तथा उसमें कर्ण के ऊपर तीन श्रृंग चढ़ायें।
श्रृंग संख्या कोण १२ प्रस्थ
१६ उपरथ
शिखर
-
-
-
-
-
-
-
-.
कुल ४९ रत्नशीर्ष प्रासाद सात अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिरथ, दो रथ तथा भद्र।
१२. सितश्रृंग प्रासाद इसका निर्माण स्नशीर्ष प्रासाद की भांति करें तथा उसमें भद्र के ऊपर दो उरुश्रृंग करें तथा एक मत्तावलम्ब (गवाक्ष) बनायें तथा उसके छाद्य के ऊपर दो श्रृंग चढ़ावें।
श्रृंग संख्या कोण १२
प्ररथ
उपरथ भट्र शिखर
१६
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
कुल
५३
सितश्रृंग प्रासाद सात अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिस्थ, दो रथ तथा भद्र।
१३. भूधरप्रसाद इसका निर्माण सितश्रृंग प्रासाद की भांति करें तथा उसमें उपरथ के ऊपर एक- एक तिलक चढ़ायें।
भूधर प्रासाद सात अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिरथ, दो रथ तथा भद्र ।
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________________
(देव शिला
( ४१७)
१४. भुवनमंडन प्रासाद
इसका निर्माण भूधर प्रासाद की भांति करें तथा उसमें पाराष्ट्र के छाध के दोनों अंगों के ऊपर एक- एक तिलक चढ़ायें।
_ 'भुवनमंडन प्रासाद सात अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिस्थ, दो रथ तथा भद्र ।
१५.त्रैलोक्य विजय प्रासाद
इसका निर्माण भुवः। मंडन प्रासाद की भांते करें तथा उसमें उपरथ के ऊपर को श्रृंग और एक तिलक करें।
त्रैलोक्य प्रासाद सात अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिरथ, दो रथ तथा भद्र ।
१६. क्षितिवल्लभ प्रासाद
इसका निर्माः। त्रैलोक्य विजय प्रासाद को भांति करें तथा उसमें गद्र के ऊपर एक श्रृंग अधिक बदायें। श्रृंग संख्या
तिलक संख्या कोण १२
उपरथ प्रस्थ १६ उपरथ १६ भद्र १२ शिखर १ --- --------
कुल ५७ क्षितिवल्लभ प्रासाद सात अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिरथ, दो रथ तथा 'भद्र ।
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________________
महीधर प्राशाद
(देव शिल्प
०
भ्रम
मिति
१७. महीधर प्रासाद
तल का विभाग
तल के दस भाग करें।
वर्गाकार
भद्रार्ध, कर्ण, प्रतिकर्ण, रथ तथा उपरथ प्रत्येक एक- एक भाग का बनायें । इनका निर्गम भी एक- एक भाग का रखें। भद्र का निर्गम आधे भाग का रखें।
शिखर सज्जा
कोना, प्रतिरथ तथा भद्र के ऊपर दो- दो श्रृंग चढ़ायें तथा स्थ और प्रतिरथ के ऊपर एक- एक तिलक चढ़ायें ।
रथ के ऊपर प्रत्यंग चढ़ायें। भद्र मत्तावलम्ब ( गवाक्ष) वाला बनायें। तिलक संख्या
श्रृंग संख्या
कोण
रथ
प्रस्थ
उपरथ
भद्र
प्रत्यंग
शिखर
श्रृंग संख्या
कोण ८
१६
प्रस्थ
भद्र
प्रत्यंग ८
शिखर
9
८
१२
१६
८
१
४१८
कुल
१८. कैलास प्रासाद
इराका निर्माण महीधर प्रासाद की भांति करें तथा उसमें भद्र के ऊपर एक और तीसरा श्रृंग
चढ़ावें ।
तिलक संख्या
रथ
उपरथ
८
८
कुल ४१ महीधर प्रासाद नौ अंग वाला है
दो कर्ण, दो प्रतिकर्ण, दो रथ, दो उपरथ तथा भद्रा
:
८
८
१६
कुल
४५
कुल
१६
कैलास प्रासाद नौ अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिकर्ण, दो रथ, दो उपरथ तथा भद्र ।
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________________
दिव शिल्प
४१९
१९. नवमंगल प्रासाद
इसका निर्माण कैलास प्रासाद की भांति करें तथा उसमें भद्र के ऊपर से एक उरुश्रृंग कम करें। स्थ के ऊपर एका एक श्रृंग चढ़ावें।
नवमंगल प्रासाद नौ अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिकर्ण, दो रथ, दो उपरथ तथा भद्रा
२०. गंधमादन प्रासाद
इसका निर्माण नवमंगल प्रासाद की भांति करें तथा उसमें भद्र के ऊपर एक उरुश्रृंग अधिक चढ़ावें। श्रृंग संख्या
तिलक संख्या कोण ८
उपरथ प्ररथ १६ भद्र ८ रथ ८ प्रत्यंग ८ शिखर १
कुल ४९
कुल ८ गंधमादन प्रासाद नौ अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिकर्ण, दो रथ, दो उपरथ तथा भद्रा
२१. सर्वांगसुन्दर प्रासाद
इसका निर्माण गंधमादन प्रासाद की भांति करें। उसमें भद्र के ऊपर से एक उरुश्रृंग कम करें।
उपरथ के ऊपर एक- एक उरुश्रृंग बढ़ावें। सर्वांगसुन्दर प्रासाद नौ अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिकर्ण, दो रथ, दो उपरथ तथा भद्र।
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________________
(देव शिल्प)
(४२०) २२. विजयानन्द प्रासाद इसका निर्माण राजगिसुन्दर प्रासाद की भांति करें तथा भद्र के ऊपर एक उरुश्रृंग पुनः चढ़ायें।
श्रृंग संख्या कोण ८ प्ररथ १६ स्थ ८ भद्र उपरथ ८ प्रत्यंग ८ शिखर १
कुल ५७ विजयानन्द प्रासाद नौ अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिकर्ण, दो रथ, दो उपरथ तथा भद्र ।
२३. सांग तिलक प्रासाद इसका निर्माण विजयानन्द प्रासाद की भांति करें तथा भद्र के ऊपर से एक - एक उत्तश्रृंग करें तथा मत्ताबलम्ब बनाएं। इस मतावलाब के छाद्य के ऊपर दो श्रृंग रखें।
श्रृंग संख्या कोण प्ररथ
१६ रथ उपरथ प्रत्यंग भद्र के गवाक्ष १६ शिखर
--------
-----
-----
कुल
६५ सर्वांग तिलक प्रासाद नौ अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिकर्ण, दो रथ, दो उपरथ तथा भद्र।
२४. महाभीग प्रासाद
इसका निर्माण सांग तिलक प्रासाद की भांति करें तथा गवाक्ष वाले भद्र के ऊपर एक - एक उरुशृंग अधिक चढ़ायें।। महाभोग प्रासाद नौ अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिकर्ण, दो रथ, दो उपरथ तथा भद्र।
२५. मेरुप्रासाद इसका निर्माण महाभोग प्रासाद की मांति करें तथा प्रासाद के कर्ण, रथ, प्रतिरथ इन सबके रूपर एक एक श्रृंग अधिक बढ़ायें।
मेरु प्रासाद नौ अंग वाला है :- दो कर्ण, दो प्रतिकर्ण, दो रथ, दो उपरथ तथा भद्र ।
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________________
৫ হিলি)
मेरु आदि बीस प्रासाद मेरु जाति के प्रासाद भी लोक आनन्दकारी प्रासाद हैं। इनके बीस भेद हैं। शिखर एवं तल के विभागों में किंचित अंतर करके ये विभाग किये गये हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं -
१. ज्येष्ठ मेरु २. मध्यम मेरु ३. कनिष्ठ मेरु ५. लक्ष्मो कोटर ६. कैलास ७. पंचवक्त्र ८. विमान ९. गंधमादन १०. मुक्तकोण ११. गिरि
१२. तिलक १३. चंद्रशेखर १४. मन्दिर तिलक १५. सौभाग्य १६. सुन्दर १७. श्री तिलक १८. विशाल १९. श्री पर्वतकूट २०. नन्देिवर्ध
४.
मन्दिर
इनके शिखरों की रचना अंडक तथा तिलक पर आधारित हैं। संक्षेप में यहाँ इनके तल का विभाग एवं शिखर के अंडकों की संख्या दे रहे हैं। विशेष विवरण अन्य ग्रन्थों में दृष्टव्य हैं।
१. ज्येष्ठ मेरु
अण्डक १००१
तल भाग ७२ २. मध्यम मेरु
अण्डक ५०५ तल भाग ६४ कनिष्ठ मेरु अण्डक २९३ तल भाग ५४ मन्दिर प्रासाद अण्डक १८५ तिलक ८ तल भाग ३८ लक्ष्मी कोटर प्रासाद अण्डक १४९ तिलक ६४ तल भाग ३८
कैलास प्रासाद अण्डक १२९ तिलक २४
तल भाग ३६ ७. पंचवक्त्र प्रासाद
अण्डक १६१ तिलक ७२ तल भाग १८ विमान प्रासाद अण्डक ७७ तिलक २४ तल भाग २६ गंधमादन प्रासाद अण्डक २०९ तिलक १६४ तल भाग ३६
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________________
(देव शिल्प)
( ४२२०
१०. मुक्तकोण प्रासाद
अण्डक १२५ तिलक २० तल भाग २६ गिरि प्रासाद
आण्डक तिलक
१४५ १३६
तिलकप्रासाद अण्डक २१ तिलक ८४
तल भाग १८ १३. चंद्रशेखर प्रासाद
अण्डक १०९ तिलक ९२
तल भाग ३४ १४. मन्दिर तिलक प्रासाद
अण्डक ७३ तिलक ५६
तल भाग २८ १५. सौभाग्य प्रासाद
अण्डक ३३ तिलक १६ तल भाग २२
१६. सुन्दर प्रासाद
अण्डक ४९ तिलक ४८
तल भाग २२ १७. श्रीतिलक प्रासाद
अण्डक १४९ तिलक ३९
तल भाग २० १८. विशाल प्रासाद
अण्डक १५७ तिलक ४० तल भाग २८ श्रीपर्वतकूट प्रासाद अण्डक १ तिलक ४४ तल भाग १२ नन्दिवर्धन प्रासाद अण्डक ४७ तिलक ४० तल भाग २२
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________________
(४२३)
देव शिल्प
तिलक सागरआदि२५प्रासाद
शिल्प शास्त्रों में तिलक सागर आदि पच्चीस मंदिर का वर्णन मिलता है । इन मंदिरों में कोने एवं फालना (खांचों) के आधार पर तल के विभाग किये जाते हैं शिखर में पृथक - पृथक संरचनाओं के आधार पर भेद प्रभेद किये जाते है। उन्हीं के आधार पर इन मंदिरों के नाम तथा उनके तल का विभाग एवं शिखर की सजावट का बोध होता है । इनका विस्तृत विवरण शिल्प रत्नाकर में देखा जा सकता है ।
तिलक सागर आदि २५ प्रासादों की नामावली १- तिलक सागर २- गौरी तिलक ३- इन्द्र तिलक
४- श्री तिलक ५- हरि तिलक
६- लक्ष्मी तिलक ७- भू तिलक
८- रंभा तिलक ९- इन्द्र तिलक
१०- मन्दिर तिलक १५- हेमवान तिलक १२- कैलास तिलक १३- पृथ्वी तिलक १४- त्रिभुवन तिलक १५- इन्द्रनील तिलक १६- सर्वांग तिलक १७- सुरवल्लभ तिलक
१८- सिंह तिलक १९- मकरध्वज तिलक २०- मंगल तिलक २१- तिलकाक्ष
२२- पद्म तिलक २३- सोम तिलक
२४- विजय तिलक २५- त्रैलोक्य तिलक
momsa
R wwewwwseemasomeone
ana
" प्यास
तिलक सागर प्रासाद
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(देव शिल्प)
४२४)
तिलक सागर आदि प्रासाद सभी देवों के लिये उपयुक्त हैं तथा पूजक एवं निर्माणकर्ता दोनों को कल्याणकारक हैं। इतना अवश्य है कि जिस भी प्रासाद को बनायें, शास्त्र सम्मत ही बनाये, अन्यथा वह अल्पबुद्धि शिल्पकार तथा मन्दिर स्थापनकर्ता, दोनों ही वंशनाश को प्राप्त होते हैं।
---------
------- *अन्यथा कुरुते यस्तु शिल्पी वाल्पबुद्धिपान । शिल्पिजो निष्कलं चान्ति कर्तृकारापकामौ ।। शि.२.७/१०६ अतः सर्वप्रयत्नेन शास्त्रोष्टेन कारयेत । आयुरारोग्यसौभाग्यं कर्तकारापकस्य च ।1 शि.र. ७/१०७
कशि. र.७/७-११
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________________
(दव शिल्प)
जिनेन्द्र प्रसाद
शिखर एवं तल विभाग की संरचना में विधिता कर.) रो प्रासादों के प्रकारों की संख्या असंख्य तक हो सकती है। नौ हजार छह सौ सत्तर प्रकार के शिखर होते हैं ऐसा वर्णन अन्य शास्त्रों में मिलता है किंतु नाम एवं सविस्तार वर्ण-1 अनुपलब्ध है।*
जितनी अधिक विविधता की जायेगी, उतने आंधक प्रकार बनते जायेंगे । आचार्यों .) शैलियों के अनुरुप कुछ प्रकार के प्रासादों को उत्तम कोटि में रखा है।
निम्नलिखित प्रकार के प्रासाद जिनप्रभु के लिए बनाये जायें तो अत्यंत गंगलकारी है - श्रीविजय, महापद्म, नयावर्त, लक्ष्मी तिलयः, नद, कामलहंस तथा कुंजर ।*
जिनेन्द्र प्रासादों के लिये उपयुक्त श्रेष्ठ प्रासाद
निम्-लिखित जातियों के प्रासाद उत्तग माने जाते हैं। इन्हीं के आधार पर चौबीस तीर्थंकरों के लिये श्रेष्ट प्रासादों को निर्मित किया जाता है :- **
१. मेरु प्रासाद २. मगर जाति के भद्र प्रासाद ३. अंतक प्रासाद ४. द्राविड़ प्रासाद ५. महीधर प्रासाद ६. लतिर जाति के प्रासाद
टोपार्णव में जिनेन्द्र प्रासाद के लिए पृथक-पृथया तीर्थकारों के लिए पृथक-पृथक भेद का वर्णन किया गया है। यदि गूलनायक तीर्थंकर के नाम के अनुरुप उसी भेद का मन्दिर बनाया जाये तो यह सर्वसुखकारके होगा तथा निर्माता एवं रामाज दोनों के लिए शुभ एवं मंगलगय होगा।
उत्तर भारतीय नागर जाति की शैली के प्रासादों को प्रत्येक तीर्थकर के लिए पृथक निर्देश दिया गया है। शारत्रकार उन्हें उन तीर्थकरों के प्रिय मन्दिर कहते हैं। वास्तव में तीर्थंकर प्रभु मोक्ष गमन कार चुके हैं तथा संसार, इच्छा, प्रिय अप्रिय गावों से राहेत हैं फिर भी वास्तुशास्त्र में बल्लभ प्रासाद शब्द का प्रयोग किया जाता है । यह उनके प्रासादों के भेद बताने की अपेक्षा मात्र से है।
दिगम्बर एवं श्वेतांबर दोनों ही परम्पराओं में पहचान के लिए प्रतिगाके नीचे सिंहासन पीत में चिन्ह बनाया जाता है । ##
-----------------
--
*व.सा.३/५," प्रा. मं. प./२/४, #व.सा. ३/११ ##चिन्हों का विवरण प्रतिभा प्रकरण में दृष्टव्य हैं।
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________________
(देव शिल्प
जिन मंदिरों में मंडपक्रम
सभी प्रकार के मन्दिरों में मण्डप क्रम का ध्यान अवश्य रखें -
___ जिनेन्द्र प्रभु के आलय में गर्भगृह के आगे गूढमंडप का निर्माण करें। फिर नौ चौकी मण्डप बनायें । इराके आगे रंगमण्डप (नृत्य मण्डप ) बनायें। इनके आगे बलाणक (दरवाजे के ऊपर का मण्डप) बनायें।*
वत्थु सार में छह चौकी बनाने के लिए निर्देश है ।*
अतः मण्डपों का क्रम यही रखें । गर्भगृह के बायें और दाहिने भाग में शोभामण्डप तथा झरोखेदार शाला बनायें जिसमें नृत्य करते हुए गंधर्व हों। #
चौबीस तीर्थंकरों के लिए मन्दिर की रचना
प्रासाद की वर्गाकार भूमि के तीला अथवा निर्दिष्ट कोण, प्रतिर, जगर, गार्ध बनायें । इनका प्रमाण प्रत्येक तीर्थकर के साथ अलग-अलग निर्देशित है शिखर में श्रृंग समूह क्रम चढ़ाएं।
जिन मंदिरों में तीर्थंकर प्रतिमा के साथ पूरा परिकर बनाना चाहिए । इसका विवरण प्रतिमा प्रकरण में पठनीय है। बिना परिकर के तीर्थकर प्रतिमा कदापि ना बनायें । परम्परानुसार यक्ष-यक्षिणी एवं क्षेत्रपाल, सरस्वती देवी की भी प्रतिमाएं जिन मंदिर में लगाना चाहिए। इनका विवरण इसी ग्रंथ में प्रकरणानुसार दृष्टव्य है।
--------------
*त्रिकस्तथा नृत्य पेण पण्डपास्त्रयः । जिनस्वाशे प्रकर्तव्यः सर्वेषां तु बलाणकम् ।। प्रा.म.७/३ **पासादकमल गृढव्रख्यमंडदं तओ छक्कं। पुण खगमंड तह तोरणासबलाणपंडवयं ।। व. सा. ३/४९ #दाहिण्वामदिसेर सोहमंडपाववजुअाला। गीदं नट्टविणोयं गंधवा जत्थ पकणंति ॥व.सा. ३/५० .
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________________
४२७
(देव शिल्प
तीर्थंकर ऋषभनाथ ऋजिम प्रासाद कमल भूषणप्रासाद
.
ऋषभ जिन दलभ प्रासाद - कमलभूषण प्रसाद
--07
...
तल का विभाग प्रासाद की वर्गाकार भूमि के ३२ भाग करें। उसमें कोग
३भाग प्रतिकार्य
३भाग उपरथ
३भाग भद्रा
४ भाग करें तथा नन्दिका तथा कोणिका १-१ भाग करें।
शिखर की सजा कोण के ऊपर
४क्रम चढ़ावें प्रतिकर्ण के ऊपर
३ क्रम चढ़ावें उपरथ के ऊपर
२क्रम चढायें नन्दियों के ऊपर
२ क्रम चढ़ावे चारों दिशाओं के भद्र के ऊपर कुल २० उरुश्रृंगचढ़ावें। कोण के ऊपर, नीचे से पहला नन्दीश क्रम चढ़ावें ; कोण के ऊपर, नीचे से दूसरा नन्दशालिक क्रम चढ़ावें। कोण के ऊपर, नीचे से तीसरा' नन्दन. क्रम चढ़ावें ; कोण के ऊपर, नीचे से चौथा केसरी क्रम चढ़ावें ; उसके ऊपर एक तिलक चढ़ावें। श्रृंग संख्या
तिलक संख्या कोण
कोण प्रतिवर्ण २८० उपरथ १४४ नन्दी
२२४
भद्र
२० १६
प्रत्यंग शिखर
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
--
-..--
१११७
कुल
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________________
(देव शिल्प)
। ४२८
तीर्थकर अविगतनाथ अजित जिन वल्लभप्रासाद कामदायक प्रासाद
दाल का विभाग
...OR4
प्रासाद की वर्गाकार भूमि के १२ भाग करें। उनमें रो
कोण प्रतिकर्ण भद्रार्थ
२'भाग २भाग २ भाग रखें।
शिखर की सजा कोने के ऊपर ३क्रम (केसरी, सर्वतोभद्र, नन्दन); प्रतिकणं के ऊपर २क्रम : उतश्रृंग
८क्रा : प्रत्यंग
८ क्रम कोने पर चढ़ायें।
अजित जिन वल्लभ प्रासाद - कामदायक प्रसाद
ESH
१०८
श्रृंग संख्या कोण પ્રતિess. भद्र प्रत्यंग शिखर
-
-
-
-
-
-
-
-
--
कुल
२३७
Page #451
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________________
(४२९)
(देव शिल्प तीर्थकर संभव नाथ
स्वयंभू प्रासाद
MUN
রত্র ফ্লা বিষ प्रारको वर्गाकार यूमि के १८ ना करें। कार्ग
२ भाग कोकि
१भाग प्रतिरक्ष
भाग नंदिका
१माग भट्राई
३भाग इसी प्रकार चारों पाश्वों में रचा करें।
Homed
KIWAN
का प्रतिकणं कां का
शिखर की सजा २ क्र केशरी एवं श्री र! चढ़ाएं १ क्रम केशरी एवं श्रीग्रा चढ़ाएं श्रृंग चला
श्रृंग चढ़ाएं उरु श्रृंग चढ़ायें
भद४
NA
KAN
S
कुल अण्डा) ११३
TH
ASIATREFER
अमृतोदभव प्रासाद इस प्रासादका निर्माण करते समय तल और स्वरूप रू। कोटि प्राप की तरह ही करें। कोपा एवं प्रतिरक्ष के ऊपर एक तिलक वाद श्रृंग संख्या
तिलक संख्या २०९ पूर्ववत्
कोण पर - प्रतिकर्ण पर ८
-
-
-
-.
--.-
..
कुल २०९
Page #452
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________________
(देव शिल्प)
तीर्थकरसंभवनाथ संभव जिन वल्लभ प्रासाद
सत्न कोटि प्रासाद
सार---------
वाल का विभाग
------
--
-
---
----
प्रासाद की वर्गाकार भूमि थे ९ भाग करें। भद्रार्थ
१,१/२ भाग प्रतिस्थ
१भाग कणी
१/४ भाग
१/४ भाग कोण
१/२ भाम
शिखर की सजा कोग के ऊपर २ क्रम चढ़ायें (केसरी तथा सर्वतोभद्र) प्रतिकर्ण के ऊपर २ क्रम चढ़ावें (केसरी तथा सर्वतोभद्र) काणी के ऊपर मग चहावे. नन्दिका के ऊपर १श्रृंग चढ़ावें। चारों दिशा के भद्र के ऊपर १६ उरुश्रंग चढ़ावें। कोने पर
८ प्रत्यंग चढ़ावें
संभव जिन वलभ प्रारत-नकोटिप्रासाद
श्रृंग संख्या कोण प्रतिकर्ण कणी पर नन्दी पर उरुश्रृंग प्रत्यंग शिखर
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
कुल
२०९ श्रृंग
Page #453
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________________
४३१]
(देव शिल्प
तीर्थकर अभिनन्दन नाथ अभिनन्दन जिनवल्लभप्रासाद
क्षितिभूषण प्रासाद
রত কুI বিঃ प्रासाद की वर्गाकार भूमि पर भाग को, जिभाग - कोण
२भाग प्रतिस्थ
२ भाग उपरथ
२ भाग करें
भद्रार्ध
कोण के ऊपर प्रतिरथ के ऊपर उपरथ चारों तरफ के भद्र के ऊपर
शिखर की सजा
४ क्रम चढ़ावें ३ क्रा चढ़ावें २ क्रम तथा एक तिलक चढ़ावें १२ उभंग तथा १६ प्रत्यंग चढ़ावें।
तिलक संख्या उपरथ ८
श्रृंग संख्या कोण पर प्रतिरथ उपरथ
१७६ २१६ ५१२
----
-----
प्रत्यंग शिखर
PRO
-
--
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
अभिनन्दन लिन बाट यासारः - क्षितिभूषा प्रासाद
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
तुल
५३३
कुल
.८
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
(देव शिल्प
( ४३१]
तीर्थकर अभिनन्दन नाथ अभिनन्दन जिन वल्लभ प्रासाद
कर्ण
तल का विभाग प्रासाद की वकार भूमि के १८. भाग करें, जिसमें -
३ भाग प्रतिकर्ण
३ भाग भट्राध
३ भाग करें। निर्गहस्तांगल प्रगा। रखें।
कर्ण को पर प्रतिकर्ण के ऊपर भद्रके ऊपर
शिखर की सजा २ क्रा| फेरी एवं सर्वतोभद्र चढ़ावें २ क्रम केशरी एवं रायतोभद्र चढ़ायें तथा एक तिलक चदा २ श्रृंग चढ़ावें तथा एकः तिलक चढ़ा
..
----
कुल श्रृंग संख्या पा
तिरूपः संख्या १२
onr
TARAI
d
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
(देव शिल्प
(४३३)
तीर्थकर सुमतिनाथ सुमति जिन्न वल्लभ प्रासाद
दाल का विभाग वर्गाकार भूमि के १४ भाग करें। उसमें कोना
२ भाग प्रतिस्थ
२भाग नन्दी
१भाग गद्रार्ध
२ भाग बनायें को तथा प्रतिरथ का निर्गम रामदल
रखें।
शिखर की सजा कोने के ऊपर २ क्रम चढ़ायें; प्रतिस्थ के ऊपर २ क्रम चढ़ायें; प्रत्येक भद्र के ऊपर ४ उरूश्रृंग चढायें ; प्रत्येक भद्र के ऊपर प्रत्यंग चढ़ायें: नन्दी के ऊपर १ श्रीवत्स श्रृंग तथा
१ कूट चढ़ायें।
ETUN
कूट संख्या ५६ नन्दो .
HTTERI.C1A,
श्रृंग संख्या
कोण प्रतिरश्च ११२ 'भद्र प्रत्यंग नदी शिखर
६
-
-haniindian
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
कुल
२०१
कुल ८
सुमतिजिन वल्लभ प्रासाद
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३४
(देव शिल्प)
तीबकरपाका पदमप्रभ जिन वल्लभ प्रासाद
तल का विभाग प्रासाद को चार मनिक २० गग करें। उसमें हो
कोना २० प्रतिरः २ भाग काना ही भाग
ना। सं।
पा
शिखर की सज्जा कोमा के ऊपर सोम चढ़। (कतरी तथा
सर्वतोगट्रो प्रतिस्थले पर दो का नहाएं (भोसरी तथा
सर्वतोभद्र): वाणिजार एक श्रृंग एक कूट द्वाएं .) के मार ए. । एक कूट बढ़ाएं।
अंग संख्या
संख्या
पर्णिका
११२
प्रतिस्थ कणिका
प्रत्या
--
-
.
--.
-
---
-
-
----
---..
..---
कुल
२८२
पुल
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
(देव शिल्प
(४३५)
पद्मराग जिन प्रासाद
इसका निर्माण परमप्रभु जिन बालम प्रासाद के उपरोक्त गा-1 से करें तसा उसम प्ररथ के ऊपर भी एक तिलक बढ़ाई
कुल अंग संख्या - २०९. . . . तिलक. ..... * . . .
पुष्टिवर्थन प्रासाद इसका निमांग पदम राग जिन प्रासाद के उपरोक्त मान से करें तथा उराम कोण के ऊपर भी एक एक तिलक बहारें,
r; श्रृंग रख्या - २०२ लिलया - १२
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________________
(देव शिल्प
४३६
तीर्थकर सुपावं नाथ सुपार्श्वजिनवल्लभप्रासाद
রক্ত ক্লা যিমুলা प्रासाद की तर्गाकार भूमि के १० भाग करें। उसम
कोण २ भाग प्रतिकर्ण १.१/२ भाग करें तथा ये दोनों अंग वर्गाकार निकलते हुये हों। भद्रा १,१/२ भाग करें तथा उसके दोनों पार्श्व में भद्र के मान की दो कपिला बनायें। भद्र का निकलता भाग एक भाग रखें।
शिखर की सन्ना कोणों के ऊपर क्रम चढ़ावें; प्रतिकर्ण के ऊपर उद्गग बगायें; भद्र के ऊपर उद्गम बनायें ।
श्रृंग संख्या कोग ५६ शिखर १
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
कुल
५७
क
DARA
श्री वल्लभप्रासाद इसका निर्माण सुपार्श्व जिन प्रासाद के उपरोक्त मान से करें तथा उसमें
प्रतिकर्ण के ऊपर १-१ श्रृंग तथा मद्र के ऊपर १-१ उरुश्रृंग चढ़ायें
श्रृंग संख्या को प्रतिकणं ८
भद्र
शिखर
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
--
-
-
-
-
-
-
कुल
६९
सुपाय जिन बल्लभ प्रासाद
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________________
CATEH Hit
ALLAHLI.
(देव शिल्प
तीर्थकर चन्द्रप्रभ चन्द्रप्रभ वल्लभप्रासाद
शीतल प्रासाद तल का विभाग प्रासाद की वर्गाकार भूमि का ३२ भाग करें। उसमें से -
कोण ५ भाग प्रतिकर्ण ५ भाग भद्रार्ध ५ भाग को
५"नदिका १भाग रखें।
शिखर की सज्जा कोण के ऊपर ३ श्रृंग चढ़ावें (श्रीवत्स, केसरी, रायतोभद्र); उपरथ के ऊपर ३ श्रृंग चढ़ावें (श्रीवत्सर, केसरी, सर्वतोभद्र) : कोणी के ऊपर २ वत्सश्रंग चढ़ावें: नन्दिका के ऊपर २ वरसभंग चढ़ावें; भद्र के ऊपर ४ उरुश्रृंग चढ़ावें; प्रत्यंग
२४ चढ़ावें। श्रृंग संख्या कोण प्रतिकर्ण १२० कोणी
६०
नन्दी भद्र
प्रत्यंग शिखर
कुल २५३
श्रीचन्द्रप्रासाद इसका निर्माण शीतल प्रासाद के उपरोक्त गा-1 से करें तथा उसमें प्रतिकर्ण के ऊपर भो एक एक तिलक चढ़ावें। श्रृंग रांख्या
लिलक संख्या पुर्ववत् २५३ प्रतिकर्ण
-
-
-
-
कुल २५३
कुल
चन्द्रप्रभा प्रसाद - शीतल प्रासात
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________________
४३८
(देव शिल्प
तीर्थकर सुविधि नाथ प्रासाद सुविधि जिन वल्लभ प्रासाद
हितुराज प्रासाद इसका मर्माण, श्रीचन्द्र पारा के पूर्वोतमा। रो करें तथा AL उसमें जी ला दी के उपर गाएक एक तिला पायें। श्रियांश प्रासाद ताल का विभाग प्रासाद बीवीकार के २४ ना करें
काग ३माग प्रतिस्थ ३ उपर ३भाग
दार्थ निर्गन में ये राब रा रखें। शिखर की सजा
भद्र को ऊपर २ऊरश्रृंग नहाएं कोना के अपर ड्रग तथा १ तिलक बहावें प्रतिरथ के ऊपर २ श्रृंग तथा १ तिलक चहावे उपरथ के ऊपर २ श्रृंग चढ़ायें। श्रृंग संख्या
तिलक संख्या कोण ८
कोण है प्रतिका १६
प्रतिकण . रापत्य
भद्र
शिखर
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
--.
.-
.
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
पुल
४९
कुल
१२
श्रयांश प्रासाद
Page #461
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________________
(देव शिल्प)
तीर्थकर शीतलनाथ शीतल जिन वल्लभप्रासाद
तल का विभाग के २४ भाग करें। उनमें से
४माग ३माग ५ भाग बनायें।
प्रासाद की वर्गाकार
कोण प्रतिस्थ भद्राध
शिखर की सजा को के ऊपर श्रृंग तथा २ तिलक प्रातका के ऊपर १ अंग तथा २ तिलक चारों गद्र के ऊपर रउभंग तथा
(प्रत्यंग चढ़ावें। श्रृंग संख्या
तिलक संख्या को ४ कोग प्रतिकार प्रांतेक १६ गद्र १२ प्रत्यंग शिखर
------
------
कुल ३३
कुल
२४
ता
.
शीतलप्रसाट
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________________
(देव शिल्प
(४४०
कीर्तिदायक प्रासाद.
इसका निर्माण शीतल जिन वल्लभ प्रासाद के पूर्वो मान से करें तथा उसमें एक तिलक करें तथा इसके स्थान पर एक श्रृंग चढ़ा।
श्रृंग संख्या कोण पर ८ प्रतिकण
१२ प्रत्यंग
तिलक संख्या कोण ४ प्रतिकर्ण १६
शिखर
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
कुल
कुल
२०
मनोहर प्रासाद
इसका निर्माण कीर्तिदायक प्रासाद की तरह करें तथा इसमें कोण के ऊपर एक केसरी कम तथा दो श्रीवत्रा श्रृंग चढ़ावें । प्रतिकणं के ऊपर एक केसरी क्रम चढ़ायें।
श्रृंग संख्या
कोण
४० १२
प्रतिकर्ण भद्र प्रत्यंग शिखर
-----
कुल
८९ श्रृंग
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--------------------------------------------------------------------------
________________
देव शिल्प
प्रासाप की वर्गाकार भूमि का १६ भाग करें। उसमें
कोण
३ भाग
प्रतिकर्ण
३ भाग
भद्रार्ध
२ भाग बनायें
इसके अंगों का निर्गम प्रासाद जितने हाथ का हो उतने अंगुल रखें ।
कोण के ऊपर प्रतिकर्ण के ऊपर भद्र के ऊपर
तीर्थंकर श्रेयांस नाथ श्रेयांस जिन बल्लभ प्रासाद तल का विभाग
श्रृंग संख्या
कोण
प्रतिकर्ण
शिखर
कुल
श्रृंग संख्या
कोण
स्थ
भद्र
शिखर
कुल
४
८
५
१३
४
८
८
१
शिखर की सज्जा
4 श्रृंग चढ़ायें तथा १ तिलक चढ़ायें; १ श्रृंग चढ़ायें तथा १ तिलक चढ़ायें ; उद्गम बनायें ।
၃
तिलक संख्या
कोण
४
प्रतिकर्ण ?
कुलनन्दन प्रासाद
इसका निर्माण श्रेयांस जिन वल्लभ प्रासाद के पूर्वीक मान से करें तथा उसमें गद्र के ऊपर ८ उरु श्रृंग चढ़ावें ।
कुल
१२
तिलक संख्या
कोण
प्रतिकर्ण
कुल
४
८
४४१
१२
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
देव शिल्प
तीर्थकर श्रेयांस नाथ
सुकुल प्रासाद
प्रासाद की वर्गाकार भूमि का १६ भाग करें। उतने
कोण
३ गाग
प्रतिक
भद्रार्ध
३ भाग
२ भाग बनायें
इसके अंगों का निर्गम प्रसाद जितने हाथ का हो उने अंगुल रहें।
शिखर की सज्जा
कोण के ऊपर प्रतिक के ऊपर भद्र के ऊर्
श्रृंग संख्या कोण
प्रतिक
४
८
भट्ट
४
शिखर ง
फुल
श्रृंग चायं तथा १ श्रंग चढ़ायें तथा
श्रृंग चढ़ाय तथा उद्गम बनायें।
१७
१ तिलक चढायें;
तिलक चढ़ायें;
तिलक संख्या
कोण
प्रतिकर्ण
कुल
AA
४
L
१२
सुकुल प्रसाद
४४२
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४३
(देव शिल्प
INE
तीर्थकर वासुपूज्य वासुपूज्य जिन वल्लभप्रासाद
तन हा विभाग वर्गाकार गाने के २२ भाग करें। उसमें कोज
४ भाग कागदी
१भाग
भाग भद्र नदी . भाना भद्रा
२ भाग रखें।
शिखर की सजना
HIL --- -
m. AL
H
I
HEAR
कोण के ऊपर ३.प्रेम चढ़ारों : प्रतिकर्ण के ऊपर २ प्रेम चढ़ावें ; कोणेथे ऊपर त्रिकट भंग और उराक पर तिलक बहायेंB नन्दी के ऊपर निकट श्रृंग और उराक ऊपर तिलक चहावे : भद्र के ऊपर ३ सश्रृंग चढ़ावें ; प्रत्यंग
८. वढावें। श्रृंग संख्या तिलक संख्या कोर 4०८ दोनों दी पर १६ प्रतिरथ ११२ कानिन्दी भद्रन दो ८ पद पर प्रग शेिखर
-
-
MPS-
MA
-
-
-..
-
-
-.
-
-
-
-
-
-
-
-
-
बाराव्यप्रसाद
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(देव शिल्प
(४४४)
४४४
तीर्थकर वासुपूल्य
___ रत्नसंजयप्रासाद इसका निर्माण वासुपूज्य जिन वल्लभ प्रासाद के पूर्वोता मान से करें तथा उसमें कोण के क्रम के ऊपर ५ तिलका चढ़ावें।
श्रृंग संख्या पूर्ववत् २५७
तिल्क संख्या कोण पर ४ दोनों नन्दी पर १६
---------------
कुल
२५७
कुल
२०
-----------
धर्मदप्रासाद इराका निर्माण रत्न संजय प्रासाद के पूर्वोक्त मान रो करें तथा उसमें भद्र के ऊपर चौथा एक अधिक उरूश्रृंग चढ़ावें।
तिलक संख्या कोण पर दोनों नदी पर १६
श्रृंग संख्या कोण १०८ प्रतिरथ
११२ कोणी नन्दी भद्र १६ प्रत्यंग शिखर
-
-
-
-
-
-
-
-
कुल
२६१
कुल .
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________________
(देव शिल्प
तीर्थकर विमलनाथ विमल जिन वल्लभ प्रासाद
वर्गाकार भूमि के २४ भाग करें। उनमें से कोण ३ भाग प्रतिकर्ण ३ भाग कोणिका १ भाग नन्दिका १ भाग भद्रार्ध भाग बनायें।
भद्र का निर्गम एक भाग रखें। रथ तथा कर्ण यः। निर्गम सगदल रखें।
शिखर की सजा
कोण के ऊपर प्रतिकर्ण के ऊपर मंदिका के ऊपर कोणिका के ऊपर भद्र के ऊपर प्रत्यग
३ श्रृंग चढ़ायें २ श्रृंग चढ़ायें ; १ श्रृंग १ फूट चढायें ; १ श्रृं। १ कूट चढ़ायें ; ५ उरुश्रृंग चढ़ायें तथा ८. चढ़ायें।
-
-------
Akan
जिनल जिल्ला प्रसाद
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________________
...देव शिल्प: ... ... ... ... ... .:: :
कूट संख्या
दी १६ कांणिका ८
श्रृंग संख्या कोण १२ प्रतिरथ कोण गंदी पर भद्र प्रत्यंग शिखर
१६
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
--
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
कुल
६९ कुल
१६
मुक्तिद प्रासाद
इराका निर्माण विभल जिन वल्लभ प्रासाद के पूर्वोक्त गान से करें तथा उसमें प्रतिस्थ के पर एक एक तिलक चढ़ा चढ़ावें तथा लोन नंदियों के ऊपर कूट के बदले श्रृंग चढ़ायें। श्रृंग संख्या
तिलक संख्या कोण १२
प्रतिरथ प्रतिरथ १६ कोणी नन्दो
प्रांतरथ शिखर
----
-------
कुल
कुल
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--------------------------------------------------------------------------
________________
देव शिल्प
तल का विभाग
प्रासाद की वर्गाकार भूमि के २० भाग करें। उसमें
कोण
३ भाग,
उपस्थ
भद्रार्ध
भद्रनंदी
इन अंगों का निग
तीर्थकर अनन्त नाथ अनन्त जिन बल्लभ प्रासाद
कोण के ऊपर
(प्रति) रथ के ऊपर
भद्र के ऊपर भद्र नदी के ऊपर
कोण
श्रृंग संख्या
प्रस्थ
नन्दी
भद्र
शिखर
कुल
शिखर की सज्ळा
श्रृंग संख्या पूर्वअत
१०८
२१६
११२
४५३
१६
9
३ भाग,
३ भाग,
४५३
५ भाग,
१ भाग रखें।
|
;
३ क्रम चढ़ायें ३ क्रम चढ़ायें;
४ उरुश्रृंग चढ़ा २ न चढ़ायें।
सुरेन्द्र प्रासाद
इराका निर्माण अनन्त जिन वल्लभ प्रारगद के पूर्वोक्त मान से करें तथा उसमें प्रस्थ के ऊपर एक-एक तिलक चढ़ाए चढ़ावें ।
TIR
तिलक संख्या
प्रस्थ
८
४४७
अनन्त जिनवल्लभ प्रासाद
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--------------------------------------------------------------------------
________________
देव शिल्प
तीर्थकर धर्मनाथ
धर्मनाथ जिन वल्लभ प्रासाद
तल का विभाग
प्रासाद की वर्गाकार भूमि के २८ भाग करें। उसमें से
कोण
४भाग,
घा' जिनवल्लभ प्रासाद - धर्मद प्रासाद
प्रस्थ
भद्रार्ध
कोणी
भननन्दी
ये सभी अंग समदल में रखें।
४ भाग,
४ भाग,
१ भाग लथा
शिखर की सज्जा
कोण के ऊपर
उसके ऊपर
प्ररथ के ऊपर
उसके ऊपर जी के उपर
नन्दी के ऊपर
भद्र के ऊपर
प्रत्यंग
श्रृंग संख्या
कोण
प्रस्थ
कोणी
नंदी
भद्र
प्रत्यंग
शिखर
कुल
१ भग्ग बनायें
८.
จ
२ क्रंग चढ़ाएं (केसरी, सर्वतोभद्र)
१ तिलक चढाएं;
२ क्रम चढ़ाएं;
१ तिलक चढ़ाएं; श्रृंग चकाएं २ श्रृंग चढाएं :
४ उश्रृंग चढाएं :
८ चढ़ाएं।
तिलक संख्या
कोण
५६
११२ प्रस्थ
१६
१६
५६
४
८.
४४८
२२५ ल
धर्मवृक्ष प्रासाद
इसका निर्माण धर्मनाथ जिन बल्लभ प्रासाद के पूर्वोक्त मान से करें तथा उसमें प्रस्थ के ऊपर तिलक के स्थान पर एक एक श्रृंग चढ़ावें । श्रृंग संख्या- प्रस्थ पर १२० शेष पूर्ववत् कुल २३३ तिलक संख्या का पर ४
कुल- ४
१२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
AUTTATE
-
न
HALA
।
----
Mone
(देव शिल्प
तीर्थकर शांतिनाथ शांति जिनवल्लभप्रासाद
श्रीलिंग प्रासाद तल का विभाग प्रासाद की वर्गाकार भूमि के १२ भाग करें। उसमें कोण २ भाग प्रतिकर्ण २ भाग भद्रार्ध १,१/२ भाग भद्रनन्दो /२ भाग बा;
शिखर की सन्ना कोण के ऊपर
२क्रम चढ़ायें प्रतिकर्ण के ऊपर २ क्रम चढ़ायें भद्रनन्दी के ऊपर श्रृंग तथा १ कूट चढ़ायें चारों भद्रों के ऊपर १२ उम्श्रृंग चढ़ायें। श्रृंग संख्या
कूट संख्या कोण ५६ नन्दी प्ररथ
११२ भद्र-नन्दी
१२ शिखर १
--------- १८९ कुल ८
कामदायकप्रासाद इसका निर्माण शांति जिन वल्लभ प्रासाद के पूर्वोक्त मान रो करें तथा उसमें भद्र के ऊपर एक उरु श्रृंग अधिक चढ़ावें।
श्रृंग संख्या कोण ५६
११२ भद्रनन्दी ८ भद्र १६ शिखर
. शांति जिन वल्लभ प्रासाद - शांत प्रासाद कुल १९३
(श्री लिंग प्राराद)
भद्र
------------
प्ररथ
-
-
-
-
-
--
-
-
-
-
-
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
देव शिल्प)
(४५०
भाग करें। उसमें
TANT
तीर्थकर कुन्थुनाथ कुन्थु जिन वल्लभ प्रासाद
कुमुद प्रासाद तल का विभाग
प्रासाद की वर्गाकार भूमि के कोण भाग प्रतिकर्ण माग भद्रा १.१/२ माग गादी १/२ भाग करें 'मद्रका नियंग भाग करें। ऐसा चारों दिशाओं में करें ।
शिखर की सजा को। र श्रृंग (केसरी) तथा १ तिलक चढ़ाएं ; प्रतिक रूपर अंग केरारी) त!! १ तिलक चढाएं : मद्रनन्दी के ऊपर १ तिलक चढ़ाएं। भद्र के ऊपर १रुश्रृंग चढ़ाएं।
श्रृंग संख्या तिलक संख्या कोण २० को ४ प्ररथ ४० प्ररथ ८ भन्द्र ४ नदी ८ शिखर १
..
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-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
--
-
-
-
-
कुल ६५ कुल २७ शुजिन वाम पारात
शक्तिदप्रासाद इरसका निर्माण कुमुद जिन वन्तम प्रासाद के पूर्वोक्त मान से करें तथा उसमें प्ररथ के ऊपर एक एक तिलक अधिक चढ़ा। फुल श्रृंग संख्या - ६५ Kल तिलक संख्या २८
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
(देव शिल्प)
तीर्थकर अरहनाथ अरहनाथ जिन वल्लभ प्रासाद
कमल कन्द प्रासाद तल का विभाग प्रासाद को तगाकार शनि के ८ भाग कर। उस
२भाग भद्रा
बनायें। शिखर की सजा को के ऊपर एक एक श्रृंग (केसरी) चढ़ाएं। गद्र के ऊपर उदगग बायें। अंग संख्या यो २० शिखर
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
क्ल
HAYARI
श्रीशैल प्रासाद इसका निमाण कमल कन्द प्रसाद के पूर्वो मान से करें तथा उसमें योग के ऊपर एक एक तिलक चढ़ावें। श्रृंग संख्या
तिलक संख्या क। २० कोण ४ शिखर १
READRI
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----
---------
कुल २१
{}ল
2
सरुनाशल!! सद
काल:प्रा
अरिनाशन प्रासाद इराका निमाण श्री शैल प्रासाद के पूर्वोh मान से करें संथः उरामें भद्र के ऊपर एक एक उरुश्रंग चढ़ावें। . श्रृंग संख्या
तिलक संख्या कोण
मोण ४ गद्र ४ शिखर
कुल २५
कुल ४
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
देव शिल्प
तीर्थकर मल्लिनाथ मल्लि जिन वल्लभ प्रासाद महेन्द्र प्रासाद
मल्लिनाथ जिन वल्लभ प्रासाद
महेन्द्र प्रासाद
तल का विभाग प्रासाद की वर्गाकार भूमि के १२ भाग करें। उसमें
कोण
२ भाग
१, १/२ भाग
५, १/२ भाग
१/२ भाग १/२ भाग शिखर की सकळा
प्रतिरथ के ऊपर २ क्रम चढ़ाएं (केसरी व सर्वतोभद्र ) कोण के ऊपर २ क्रम चढाएं (केसरी व सर्वतोभद्र ) भद्र के ऊपर १२ उरुश्रृंग चढ़ाएं
प्रतिरथ
भद्रार्ध कर्ण नन्दी
भद्र नन्दी
कोण
प्रस्थ
भद्र
शिखर
कुल
मानवेन्द्र प्रासाद
१८१
श्रृंग संख्या
५६
११२
१२
9
४५२
१८१
१८१
इसका निर्माण महेन्द्र प्रासाद के पूर्वोक्त मान से करें तथा उसमें प्रतिरथ के ऊपर एक एक तिलक चढ़ावें। श्रृंग संख्या तिलक संख्या
पूर्ववत्
प्रतिरथ
<
कुल १८१ कुल पाप नाशन प्रासाद निर्माण मानवेन्द्र प्रासाद के पूर्वोक्त मान से
था उसमें कोण के ऊपर एक एक तिलक चढ़ावें । श्रृंग संख्या
तिलक संख्या
पूर्ववत्
कोण
प्रतिरथ
८
४
८
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
समा
(देव शिल्प)
तीर्थकर मुनिसुवत नाथ मुनिसुब्रत जिन वल्लभप्रासाद
मानस तुष्टि प्रासाद
तल का विभाग प्रासाद की वर्गाकार भूमि के १४ भाग करें। उसमें
कोण २ भाग प्ररथ २ भाग भद्रार्ध ३ भाग करें।
शिखर की सगा कोण के ऊपर २ क्रम चढ़ाएं (केसरी व सर्वतोभद्र) प्ररथ के ऊपर २ क्रम चढ़ाएं (केसरी व सर्वतोभद्र) भद्र के ऊपर १२ उरुश्रृंग चढ़ाएं
श्रृंग संख्या कोण प्ररथ ४८ भद्र १२ शिखर
-
-
-
-
-
-
-
-
P
कुल ८५
मनोल्याचन्द्रप्रसाद इसका निर्माण मानसतुष्टि प्रासाद के पूर्वोक्त मान से करें । लथा उसमें प्ररथ के ऊपर एक एक तिलक चढ़ावें। श्रृंग संख्या तिलक संख्या पूर्ववत् ८५ प्ररथ ८
-
-
-
-
-
।
कुल ८५ कुल
श्रीभवप्रासाद इसका निर्माण मनोल्या चन्द्र प्रासाद के पूर्वोक्त गान से करें उसमें कोण के ऊपर श्रृंगों के बदले में दो केसरी श्रृंग चढ़ावें। श्रृंग संख्या तिलक संख्या
४० प्ररथ प्ररथ
४८
कर्ण
भद्र
१२
शिखर
मुनिसुव्रत जिन वल्लभ प्रासाद ---
मानस तुष्टि प्रासाद
१०१ कुल
८
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
(देव शिल्प)
ta
(४५४) तीर्थकर नमिनाथ सुमति कीर्तिप्रासाद
___टल का विभाग प्रामाः जागकर भूमि क २६ HIT :ht | रामें का
४ भाग प्रस्थ भट
भाग 5 करें। शिखर की सजा को के जार ३ क्रम चढा प्रा के रूपर २ क्रमा हार
कार२ रुश्रृंग जाएं प्रसंग
३२ वर्ष श्रृंग संख्या
תיִן אַ
प्रस्थ
११२
10
प्रत्या शिखर
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
niuminiaNEER
ल सुमति की प्रासाद में ही प्रश्रय के ऊपर २ प्रा। नांदेर राय सर्वतोगद रखने पर
'श्रृंग संख्या केण प्ररथ
TRAI DIDI.
१५६
शिक्षा
-
-
-
-
-
-
-
-,
"
-
-
-
-
383
सानिमी प्रार
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
दय शिल्प
तीर्थकर नमिनाथ नमिनाथ जिन वल्लभ प्रासाद
नमि श्रृंग प्रासाद
तल का विभाग प्रासाद की नकार भूमि के १६ मा। करें। उरागें
कोण ३ भाग प्रतिरथ गा गाय ३ गागाकार।
शिखर की सजा कोण के पर
२ मचाए प्ररथ के ऊपर
२ क्रा। चढ़ाएं चारों दिशाओं में भद्र के ऊपर ४ उतश्रृंग चढ़ाएं : श्रृंग संख्या तिलक संख्या को ५६ प्ररथ ११२
प्ररथ । भट्र १६ शिखर
-.----.---
----------
कुल १८५
कुल १२
सुरेन्द्रप्रसाद
राजेन्द्रप्रासाद इसका निर्माण सुमति की प्राराराद के पूर्वोत मान इसका निर्माण सुरेन्द्र प्रसाद के पूर्यो।मन से बारे रो करें तथा उसमें प्रस्थ के ऊपर एक
तथा इसमेंद्र के ऊपर १२ बदले १६ उसQ श्रृंग अधिक यहा।
चढ़ावें। श्रृंग संख्या
श्रृंग संख्या कोण
कोण
१५६ प्रस्थ २८०
प्ररथ भद्र १२
'गद्र प्रत्यंग ३२
प्रत्यंग शिखर
शिखर
१५६
-
-
-
-
-
-
--
-
-
-
-
--
-
कुल
४८१
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
8 Կ
(देव शिल्प
तीर्थकरनेमिनाथ नेमिनाथ जिन वल्लभप्रासाद
नेमेन्द्रेश्वर प्रासाद
वल का विभाग प्रासाद की वर्गाकार भूमि का २२ भाग करें। उसमें कोण २ भाग कोणी १भाग प्रतिकर्ण २'भाग उपरथ २ भाग नन्दी १भाग भद्रार्ध ३भाग रखें।
शिखर की सन्ना कोण के ऊपर २ क्रम चढ़ाएं (केसरी एवं सर्वतोभद्र) प्रतिकर्ण के ऊपर १ क्रम (केसरी) एवं एक तिलक चढ़ाएं उपरथ के ऊपर १ क्रम (कसरी) एवं एक तिलक चढ़ाएं कोणी के ऊपर १ श्रृंग एवं एक तिलक चढ़ाएं नदियों के ऊपर १ श्रृंग एवं एक तिलक चढ़ाएं भद्र के ऊपर ४ उरूश्रृंग चढ़ाएं प्रत्यंग
१६ चढ़ावें।
Roman
ARTHAPTOIN ARIHERERNETHER
श्रृंग संख्या कोण ५६ कोणी ८ प्ररथ ४० कोणी ८. उपरथ ४० नन्दो ८ भद्र १६ प्रत्यंग १६ शिखर १
तिलक संख्या प्ररथ ८ उपरथ ८ कर्ण नन्दि ८ प्ररथ नन्दि ८ भद्र-न्दी ८
कुल १९३
कुल
४०
नेनिनाश जिन वल्लभ प्रासाद
नेमीन्द्र प्रासाद
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोण
(द शिल
यति भूषण प्रासाद | इसका निर्माण नेमिनाथ प्रासाद के पूर्वोक्त मान से करें तथा उसमें प्ररथ एवं उपरथ के ऊपर तिलक के स्थान पर एक एक श्रृंग चढ़ावें । श्रृंग संख्या
तिलक संख्या
कर्ण नन्दी ८ कोणी
प्ररथ नन्दी ८ प्ररथ
भद्र नन्दी ८ कोणी उपरथ नन्दी ਮਰ प्रत्यंग शिखर
१६
१६
--------------
कुल
२०९
कुल
२४
सुपुष्पप्रासाद इसका निर्माण यतिभूषणप्रासाद के पूर्वोक्त मान से करें तथा उसमें प्ररथ एवं उपरथ के ऊपर श्रृंग के स्थान पर एक एक केसरी क्रम चढ़ावें।
श्रृंग संख्या कोण कोणी प्ररथ कोणी
तिलक संख्या कर्ण नन्दी ८ प्ररथ नन्दी ८ भद्र नन्दी ८
उपरथ
नन्दी भद्र प्रत्यंग शिखर
----
कुल
२७३
कुल २४ तिलक
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
(देव शिल्प
तीर्थकर पाश्र्वनाथ पावबल्लभप्रासाद
तल का विभाग
प्रासाद की वर्गाकार गामे के २६ भाग करें। उसमें का। भाग जोगी १ प्रतिरथ ३ नन्दी १भाग भद्रार्ध ४भाग रखें।
शिखर की सजा कोण के ऊपर १म (केसरी)
तयः एक श्रीवास श्रृंग चढाएं प्रस्थ के ऊपर १क्रग (केसरी)
तथा एक श्रीवत्रा श्रृंग चढ़ाएं कोणो के अपर १ श्रृंग चढ़ाएं नन्दी के ऊपर १ श्रृंग ढ़ाएं भन के ऊपर ४ उरूभंग बढ़ाएं प्रत्यंग
चढ़ायें।
२४
श्रृंग संख्या कोण प्ररथ भद्र काणी नन्दी प्रयंग
पासवानापास
शिखर
-
-
-
-
-
-
-
-------
-
११३
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(देव शिल्प)
तीर्थंकर पाश्र्वनाथ
पद्मावती प्रासाद इसका निर्माण पाय वल्लभ प्रास्ताद के पूर्वोक्त मान रो करें तथा उसमें काण के पर एक एक तिल चढावें।
तिलक संख्या
२४
श्रृंग संख्या कोण प्ररथ भद्र
. दी प्रत्यंग
------
---
३
रुपवल्लभप्रासाद इसका मणिनगा तो प्रासाद के पूर्वोत्तम मान रो करें लथा उसमें प्ररथ के ऊपर एक एका
तिलक चढ़ावें। श्रृंग संख्या तिलक संख्या
कोण २४ कोग प्ररथ
४. प्ररथ ८
भद्र
कोणी
प्रत्यंग शिखर
१
---
-----------.
--
कुल
११३
कुल
१२
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৫ হিল
INUENIN
MAMमर
तीर्थकर वर्धमान महावीर
वीर जिन वल्लभ प्रासाद वीर विक्रम पासाद
महीधर प्रासाद বল I বিধান प्रासाद की वर्गाकार शूमि के २४ भाग करें। उनमें कोण ३ भाग प्रतिकर्ण , ३ भाग कोणी १ भाग नन्दी १ भाग भद्रार्ध ४ भाग रखें।
शिखर की सन्ना कोण के ऊपर २ क्रम (केसरी व सर्वतोभद्र)
तथा एक श्रीवत्स श्रृंग चढ़ाएं ; प्ररथ के ऊपर २ क्रम (केसरी व सर्वतोभद्र)
तथा एक श्रीवत्स श्रृंग चढ़ाएं ; द्र के ऊपर ४ उरुश्रृंग चढ़ाएं : कोणी के ऊपर १ श्रीवत्स श्रृंग चढ़ाएं ; नदी के ऊपर १ श्रीवत्स श्रृंग चढाएं : प्रत्यंग
८ चढ़ाएं :
MIR
६०
श्रृंग संख्या कोण प्ररथ १२० प्रत्यंग
गद
कोशी मन्दी शिखर
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
कुल
२२१
वीर जिन वल्लभ प्रारगट वीर विक्रम प्रासाद- महीधर ग्रासाद
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(देव शिल्प
अष्टापदप्रासाद इसका निर्माण वीर विक्रम प्रासाद के पूर्वोक्त मान से करें तथा उसमें कोण के ऊपर एक एक तिलक चढ़ावें।
तिलक संख्या कोण
श्रृंग संख्या कोण ६० प्रस्थ १२० प्रत्यंग
मद्र
कोणी नन्दी शिखर
कुल
२२१
कुल
४
तुष्टि पुष्टिप्रासाद इसका निर्माण अष्टापद प्रासाद के पूर्वोक्त मान से करें तथा उसमें भद्र के ऊपर ४ के स्थान पर ५ उरुश्रंग चढ़ायें। श्रृंग संख्या
तिलक संख्या कोण . ६० कोण . ४ प्ररथ १२० प्रत्यंग भद्र कोणी नदी शिखर
-
-
-
कुल
२२५
कुल
४
तीर्थंकर प्रभु के जिनालय उपरोक्त माग से ही बनाना श्रेयस्कर है। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में मंदिर एवं शिखर का प्रमाण एक सा रखें । केवल प्रतिमा के स्वरूप में अंतर रखें। जिनालय निर्माण का पुण्य अर्जन करने वाले आवक परमपूज्य आचार्य परमेष्ठी के निर्देशन एवं आशीर्वाद पूर्वक ही जिनालय का निर्माण करें।
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(देव शिल्प
४६२
उपसंहार
देवशिल्प रचना आपके लिए प्रस्तुत हैं । इसमें मन्दिर विषय पर यथा संभव अधिकाधिक व्यवहारिक जानकारी देने का लघु प्रयास किया गया है । यद्यपि यह विद्या प्राचीन काल से ही विद्यमान है फिर भी समय परिवर्तन के साथ ही कुछ नए निर्माण तथा नई शैलियां विकसित हुई हैं। यथा शक्ति यह प्रयास किया गया है कि सभी प्रकार के धार्मिक निर्माणों को इस ग्रन्थ की परिधि में लाया जा सके | सुधी पाठक ही बतायेंगे कि यह उपक्रम अपने उद्देश्य में कितना सफल होता है ।
ग्रन्थ समापन के निमित्त मैं इतना निवेदन अवश्य करना चाहता हूँ कि समाज के प्रतिष्ठाचार्य विद्वान गण, श्रेष्ठी वर्ग तथा तीर्थ क्षेत्र एवं समाज के सक्रिय कार्यकर्ता इस बात को स्मरण रखें कि मन्दिर त्रिलोकपति तीर्थंकर प्रभु का आलय है। यह नय देवताओं में से एक है । भन्दिर पृथक रूप हो भी देवता होने के कारण पूज्य है । मन्दिर में स्थापित प्रतिमा का दर्शन मात्र भी कर्म क्षय का हेतु हैं तथा सम्यग्दर्शन प्राप्ति का कारण भूत है। ऐसी स्थिति में भगवान की प्रतिमा की अपनी मर्जी से इधर-उधर करना, अविनय पूर्वक कहीं भी स्थापित करना तथा वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों के विपरीत मन्दिर एवं परिसर की अन्य रचनाओं का निर्माण करना अत्यंत हानिकारक है। ऐसा करने से न केवल तीर्थक्षेत्र एवं मन्दिर का दिव्य प्रभाव कम होता है बल्कि उपासक, समाज एवं मन्दिर की व्यवस्था करने वाले प्रबन्धक गण भी विपरीत रूप से प्रभावित होते हैं।
दानदाता की मर्जी से अथवा यशोलिप्सा में बत व्यक्तियों के प्रभाव में आकर मन्दिर की तोड़फोड़ करना तथा शास्त्रोक्त रीति से विपरीत कार्य करना भयावह परिणाम उत्पन्न कर सकता है। अतएव विवेक पूर्वक, समझकर ही परम पूज्य गुरुजन आचार्य परमेष्ठी के आशीर्वाद पूर्वक मार्गदर्शन लेकर ही मन्दिर निर्माण आदि का उद्यम करना चाहिये ।
प्रतिमाओं की स्थापना भी विवेक पूर्वक करना चाहिये। मूलनायक प्रतिमा किस तीर्थंकर की बनायें, इसका निर्णय ज्योतिष प्रकरण के अनुसार अवश्य करें । मन्दिर की प्रतिष्ठा भी पूर्ण विधि विधान से ही करना चाहिये। शार्टकट के चक्कर में पड़कर विधि विधान में करार न करें | वास्तु
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४६३
(देव शिल्प शांति विधान आदिशाभी यथोचित समय पर करना चाहिये।
मन्दिर के शिखर की विभिन्न जातियों के उपयुक्त भेद का ही शिखर बनाना चाहिये । शिखर पर ध्वजा अवश्य (रोहित करें।
मन्दिर निर्माण से न केवल मन्दिर निर्माणकर्ता बल्केि उपासक, समाज, साधु राष्ट्र सभी लाभान्वित होते हैं। अतः मन्दिर निर्माण के साथ ही उसकी व्यवस्था एर्य शुचिता बढाये रटाना परम आवश्यक है । भन्दिर निर्माण करने से तथा उसमें प्रतिमा स्थापना करने से जितना पुण्य अर्जित होता है उससे कई गुना अधिक जीर्ण मन्दिर के पुनर्निर्माण से प्राप्त होता है अतएव मन्दिरों का जीर्णोद्धार अवश्य ही करायें।
जिनेन्द्र प्रभु के केवल ज्ञान से निःसृत जिनवाणी के अशह महासागर की एक बिन्दु मात्र ही
7. उपलका साहित्य का मूल है ! मुद्र सरीरंवे अल्प बुद्धि ने इस महासागर में उतरने का टुस्साहरा किया है। मैंने अपनी तरफ पे यथाशक्ति टिषय समझाने का प्रयास किया है फिर भी मूलें रह जाना स्वाभाविक है। विद्धान पाठक गण मेरी भूलों को ध्यान न देकर उसमें जिनागभ सम्मत संशोधन कर लेवेंगे, यह विश्वास है।
Tradleसावा
सिद्ध क्षेत्र नागिरि १५/०७/२०००
प्रज्ञाश्रमण आचार्य देवनन्दि मुनि
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देव शिल्प
अण्डक
अंध्रि
अंश
अंतर पत्र
अंतराल -
अग्र मण्डप
अग्रेतन
अनन्त
अनुग
अतिभंग
अंधकारिका
अधिष्ठान
अनर्पित हार
अभय मुद्रा
अश्व थर
अष्टापद
अर्धचन्द्र
अलिन्द
अवलम्ब
अव्यक्त
अश्वत्थ
अष्टासक
अस
अर्धमण्डप -
अंचिता
अंतराल मंडप
शब्द संकेत
लघु शिखर की एक डिजाइन, श्रृंग, शिखर, आमलसार, कलश का पेटा,
ईडा
चरण, चौथा भाग
विभाग, खंड
दो प्रक्षिप्त गोटों के मध्य का एक अंतरित गोटा, केवाल और कलश
इन दोनों थरों के मध्य का अन्तर
गर्भगृह और मंडप के मध्य का भाग प्रवेश मंडप, मुख मंडप
ऊपर का भाग
व्यासार्ध के ७/९ भाग की ऊंचाई वाला गुम्बज कोने के समीप का दूसरा कोना, पढरा
जिसमें अत्यधिक वक्रता हो
४६४
परिक्रमा, प्रदक्षिणा, अंधारिका
मन्दिर की गोटेदार चौकी, वेदिबन्ध
विभान की मुख्य भित्ति से पृथक स्थित एक हार
संरक्षण की सूचक एक हस्त मुद्रा जिसमें दाहिने हाथ की खुली हथेली दर्शक की ओर होती है।
अश्वों की पंक्ति
आठ पीठिकाओं से निर्मित एक विशेष पर्वत की अनुकृति
(ऋषमनाथ की निर्वाण स्थली), चारों दिशा में आठ आठ सीढ़ी वाला पर्वत प्रासाद की देहली के आगे की अर्धगोल आकृति, शंखावटी
बरामदा, दालान
ओलम्भा, रस्सी से बंधा हुआ लोहे का छोटा सा लहू जिसको शिल्पी निर्माण कार्य करते समय अपने पास रखता है।
अप्रकाशित, अंधकारमय, अघटित, शिव लिंग
ब्रह्मपीपला, पीपल
आठ कोना वाला स्तम्भ
कोना, हद
एक खांचे वाला स्तंभ आधारित मण्डप जो प्रायः प्रवेशद्वार से संयुक्त होता
है।
गर्भगृह के आगे ५/५ भाग के मान की कोली
कपिली, कोली मंडप
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(देव शिल्प आगारआमलसारआमलसारिकाआयतनआरात्रिकआलयआसन पट्ट
आयाग पट्टआयइन्द्रकीलइष्टिकाउदयउच्छ्रायउत्क्षिप्तउत्तरंगउत्तानपट्टउत्रोधउद्गम
देवालय, घर, स्थान शिखर के स्कंध के ऊपर कुम्हार के चाक जैसा गोल कलश आमलसार के ऊपर की चन्द्रिका के ऊपर की गोलाकृति देवालय आरती वास स्थान, घर, देवालय बैठने का आसन, तकिया, कक्षास-7 या पत्य गवाक्ष (छजेदार) का एक समतल गोटा जैन मूर्तियों और प्रतीकों से अंकित शिला पट संज्ञा विशेष जिरासे गृहादिक का शुभाशुभ देखा जाता है स्तंभिका जो लादण्ड को मनाने के लिए साया जाता है ईंट, इष्टका ऊंचाई ऊंचाई गुम्बज का ऊंचा उला हुआ चन्दोवा, छत द्वार शाखा के ऊपर का मथाला बड़ा पाट ऊंचाई चैत्य तोरणों की त्रिकोणिका जो सामान्यतः देव कोष्ठों पर शिखर की भांति प्रस्तुत की जाती है द्वार शाखा का निचला भाग, देहरी, देहली प्रासाद की दीवार का आठवां थर, जो सीढ़ी के आकार वाला है चार प्रकार की आकृति वाली छत, छत का एक भेद दक्षिण भारतीय अधिष्ठान के नीचे का उप अधिष्ठान दक्षिण भारतीय अधिष्ठान का सबसे नीचे का भाग या पाया (जो उत्तर भारतीय खुर से मिलता जुलता है) उरूमंजरी, उरःशृंग, मध्यवर्ती प्रक्षेत्र से संयुक्त कंगूरा, शिखर के भद्र के ऊपर चढ़ाये हुए श्रृंग, छातिया श्रृंग खड़ी मूर्ति कार्निश की तरह का नीचे की ओर झुका हुआ गोटा, जो सामान्यतः चौकी (अधिष्ठान) के ऊपर होता है। कणी, जाड्यकुम्भ और कणी ये दो थर वाली प्रासाद की पीठ कणी नाम का थर. कवली, कोली; शुक नास के दोनों तरफ शिखराकृति मंडप, अंतराल मंडप
उदुम्बरउद्गमउभिन्नउप पीउउपान
उरुश्रृंग
ऊर्ध्वाचाकपोत
कणककणालीकपिली
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देव शिल्प
कपोताली -
करोटक
कर्ण
कर्णक
कार्य कूट
कर्ण गूढ़कर्ण श्रृंगकर्णिका
कर्ण दर्दरिका
कर्ण सिंह -
कर्णाली
कर्म / प्रनकलश
कलशाण्डक
कला
कलास
कामदपीट
कीर्ति चक्त्र
कीर्ति स्तंभ
कीर्ति मुखकायोत्सर्ग
कीलक
कुंचिता
कुम्भ
कुंभिका
कूटच्छाय
कूर्म
कूर्मशिलाकेसरिन
४६६
केवाल थर, कपोतिका
गुन्बज
कोना, पट्टी, सिंह कर्ण, कोना प्रक्षेप, कोण प्रस्तर कणी, जो थरों के ऊपर नीचे पट्टी रखी जाती है
कर्ण या कोने के ऊपर निर्मित लघु मंदिर या कंगूरा छिपा हुआ कोना, बन्द कोना
कर्ण या कोने पर निर्मित कंगूरा
थरों के ऊपर नीचे की पट्टी, छोटा कोना, कोण और प्ररथ के बीच में कोणी का फालना, असिधार की तरह का गोटा, पतला पट्टी जैसा गोटा गुम्बज की ऊंचाई में निचला थर प्रासाद के कोने पर रखा सिंह
कणी, जाड्यकुम्भ के ऊपर का थर मृगों का समूह
पुष्प कोश के आकार का गोटा जिसका आकार घट के समान होता है। दक्षिण भारतीय शैली में स्तंभ शीर्ष का सबसे नीचे का भाग
'
कलश का पेट
रेखा विशेष
सोलह कोने
गज आदि रूप थरों से रहित पीठ
ग्रास मुख
विजय स्तंभ, तोरण वाले स्तंभ
सिंह के शीर्ष की बनावट वाली प्रतीकात्मक डिजाइन
खड्गासन, तीर्थंकर मूर्तियों को खड़ा हुआ रखें ऐसा आसन, खड़ा हुआ रहना ऐस आसन
कील, खूंटा
प्रासाद के ३/१० भाग के मान की कोली
भन्डोवर का दूसरा थर, कलश, अधिष्टान का खुर के ऊपर का एक गोटा, दक्षिण भारतीय स्तंभ शीर्ष का एक ऊपरी भाग स्तंभ की अलंकृत चौकी, स्तंभ के नीचे की कुंभी
छज्जा
स्वर्ण या रजत का कछुआ जो नींव में रखा जाता है कछुए के चिन्हवाली धरणी शिला
पांच श्रृंग वाला प्रासाद
1
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(देव शिल्प) कारकोलक्षणक्षिप्तक्षेत्रक्षोभकनीयस्क्षेत्रपालकुडू(तमिल)कट्ट (तमिल)
पोलापन, पोला भाग गुम्बज की ऊंचाई में गज तालू थर के ऊपर का थर खण्ड, विभाग लटकती हुई छत प्रासाद तल कोनी लघु, छोटा अमुक मर्यादित भूमि का देव चैत्य गवाक्ष स्तंभ के ऊपर के तथा नीचे के दो चतुष्कोण भागों के बीच का अष्टकोण
भाग
खण्डखर शिला
खातखुर
खत्तकगगारक जतालू
गजथरगजपृष्ठाकृतिगजधरगंडान्तगर्भकोष्ट गर्भगृहगव्हर
विभाग, मंजिल जगती के दासा के ऊपर तथा भिट्ट के नीचे बनी हुई प्रासाद को धारण करने वाली शिला भवन की नींव प्रासाद की दीवार का प्रथम खर, अधिष्ठान का सबसे नीचे का गोटा. खुरक, खुरा अत्यंत अलंकृत प्रक्षिप्त आला, गवाक्ष सदृश देहरी के आगे अर्धचन्द्राकृति के दोनों ओर फूलपत्ती आकृाते छत का एक अवयव जो मंजूषाकार सुई के अगले भाग के रामान होता है, गुम्बज की ऊंचाई में रुपकण्ठ के ऊपर का थर गजों की पंक्ति अर्धवृत्ताकार, गजपृष्ठ के आकार का मन्दिर देवालय एवं भवन निर्माता शिल्पी तिथि नक्षत्रादि की संधि का समय गर्भगृह का भीतरी भाग मन्दिर का मूल भाग, गर्भ, गर्भालय, गेह गुफा (गुका?) रस्सी, डोरी गूढ, दीवार वाला मंडप मकान, घर, भवन, आलय गर्भगृह किला के द्वार के ऊपर का गृह, मुख्यद्वार, प्रवेश द्वार के ऊपर निर्मित, प्रासाद के अग्र भाग में किले का सुन्दर दरवाजा
गुण
गूढ मण्डपगृहगेहगोपुर
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(देव शिल्प ग्रास पट्टीग्रन्थिग्रासग्रीवा
ग्रीवा पीठगूमटघटघण्टाघण्टिकाघट पल्लवचतुर्मुख
चतुःशालचतुर्विंशति फ्टचतुस्कीचतुरस्रचण्ड
(४६८ कीर्ति मुखों की पंक्ति, ग्रास के मुख वाला दासा गांठ जलचर प्राणी विशेष शिखर का स्कंध और आमलसार के बीच का भाग, मुख्य निर्मिति के शिखर के नीचे का भाग कलश के नीचे का गला घण्टा, मन्दिर के ऊपर की छत कलश, आमलसार कलश, आमलसार, गुमट छोटी आमलसारिका, संवरणा के कलश पल्लयांकित घट की डिजाइन चौमुख, सर्वतोभद्र, मंदिरों या मंदिर ( अथवा उसकी अनुकृति) का ऐसा प्रकार जो चारों दिशाओं में खुला होता है। घर के चारों तरफ का ओसरा (दालान) ऐसा पट्ट, जिसमें चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां हों खांचा, चौकी, चार स्तंभों के मध्य का स्थान, चत्वर वर्गाकार, सम चौरस, चतुष्किका शिव का गण, जिसका स्थान शिवलिंग की जलधारी के नीचे रखा जाता है। जिससे स्नात्रजल उसके मुख से जाकर पीछे गिरता है। इससे जल उल्लंघन का दोष नहीं रहता है। खुली छत खुला भाग, जालीदार गोख (चन्द्र की किरण पड़े इस प्रकार खुला) आमलसार के नीचे औंधे कमल की आकृति वाला भाग सबसे नीचे का अर्धचन्द्राकर सोपान धनुष के आकार का मंडल जिसमें पाव पाव सोलह बार बढ़ाया जाता है, संख्या चूना देव प्रतिमा वक्र कार्निस (कपोत) से आरम्भ होने वाला एक ऐसा प्रक्षिा भाग जो तोरण के नीचे खुला होता है, चैत्य वातायन, कुडू मन्दिर, देवालय तल विभाग छदितट प्रक्षेप, छज्जा
चन्द्रशालाचन्द्राबलोकनचन्द्रिकाचन्द्र शिलाचापाकारचारचूर्णचैत्यचैत्य गवाक्ष
चैत्यालयछन्दसछाद्य
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(देव शिल्प
जगती
जंघा
जाड्यकुम्भ
जालक
जीर्णतल्पतवंगतल
तरंगतरंग पोतिकाताडिताल तिलकतोरण
४६९) ऐसा पीठ जो सामान्यतः गोटेदार होता है, पीठिका, प्रासाद की मर्यादित भूमि, प्रासाद का ओटला प्रासाद की दीवार का सातवां थर, मन्दिर का वह मध्यवर्ती भाग जो अधिष्ठान से ऊपर तथा शिखर से नीचे होता है, पीढ़ के नीचे का बाहर निकलता गलताकार थर, द्रष्टव्य पीठ (चैकी) का सबसे नीचे का गोटा, जाल, जालीदार खिड़की, जाली जो सामान्यतः गवाक्ष या शिखर में होती है, तराशी हुई बारी। पुराना शय्या, आसन प्रासाद के थर आदि में छोटे आकार के तोरण वाले रतंभयुक्त रुप मन्दिर, विमान या गोपुर का एक खंड, नीचे का भाग, दक्षिण भारतीय मंदिर एक, दो या तीन तल हो सकते हैं एक लहरदार डिजाइन जो पश्चिम के एक गोटे से मिलती जुलती है तोड़ा युक्त शीर्ष जिसका गोटा शुमावदार होता है दक्षिण भारतीय स्तम्भ का एक गद्दीनुमा भाग बारह अंगुली का माग एक प्रकार की कंगूरों की डिजाइन अनेक प्रकारों एवं डिजाइनों का अलंकृत द्वार, दोनों स्तंभों के बीच में वलयाकार आकृति, मेहराब, कमान चौकी मंडप तीन चतुष्कियों का खांचों सहित मंडप तीन विमान जो एक ही अधिष्ठान पर निर्मित हो या एक ही मंडप से संयुक्त हो द्वार ते तीन अलंकृत पक्खों सहित चौखट पेट के ऊपर पड़ती तीन सलवटें तीसरा भाग, तृतीयांश ध्वजा लटकाने का दण्ड (लकड़ी) छत का सीधा किनारा, (छदितट प्रक्षेप) फालना लकड़ी, कारीगर भयंकर दिशा, दिश दिशा के अधिपति देव
त्रिकत्रिक मंडप
त्रिकूट
त्रिशाखत्रिवलि त्र्यंशदण्डदण्ड छाद्य दलदारुदारुणदिकदिक्पाल
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________________
४७०
(देव शिल्प दिक्साधन
दीर्घदेवकुलिकादेवायत्तनदैघ्यदोलाद्राविड़द्वारपालघनदधरणी ध्वजध्वजादंडध्वजाधारध्वांक्षनन्दिनीनन्दीनर थरनर्तकी- छंदनवरंग
दिशा का ज्ञान करने की क्रिया प्रासाद, गृह का टेढ़ापः। लम्बाई लघु मंदिर, भ्रमती के स-मुख स्थित सह मन्दिर, देवों की पंचायत लम्बाई झूला, हिण्डोला अधिक श्रृंगों वाले प्रासाद की दीवार, जंघा चौकीदार, दरवाजे का रक्षक कुबेर, उत्तर दिशा के अधिपति देव गर्भगृह के मध्य नींव में स्थापित नवमी शिला पताका, झंडा, ध्वजा ध्वजा लटकाने का दण्ड ध्वजा रखने का कलावा कोका कोआ . . . .. .. पंच शाखा वाला द्वार कोणी, भद्र के पास की छोटी कोनी पुरुष की आकृति वाली पट्टी, मानवाकृतियों की पंक्तिः नाच करती हुई पुतली जिसकी तल विभक्ति बराबर न हो वह महामंडप जिसमें चार मध्यवर्ती तथा बारह परिधीय रतंभों की ऐसी संयोजना होती है कि उससे नौ खांचे बन जाते हैं. हाथी मध्य भाग बिना रुपक की सादी जंधा गर्भ भेद दो जाति की मिश्र आकृति वाली छत, एक प्रकार की अलंकृत छत, जिस पर मंजूषाकार सूच्यग्रों की डिजाइन होती है पानी निकलने का परनाला, नाली आवृत्त सोपा-नयुक्त प्रवेश द्वार, बलाणक कोना दक्षिण भारतीय विमान का वह खुला भाग जो प्रक्षित और तोरण युक्त होता है। अल्प नासिका या क्षुद्र नासिका छोटो होती है तथा महानासिका उससे बड़ी होती है।
नागनाभिनागरीनाभि भेदगाभिच्छद
नालगाल मंडपनासकनासिका
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(देव शिल्प) निरंधारनिषीधिका
प्रकाश सहित, व्यक्त, प्रदक्षिणा पथ से रहित मंदिर, प्रासाद जैन महापुरुष का स्मारक स्तंभ या शिला, निषद्या, समाधि अथवा मोक्षगमन का स्थल बाहर निकलता हुआ भाग आमलसार का देव, चन्द्रमा
निर्गमनिशाकरनिःस्वननृत्यमंडप
पट्टपट्टभूमिकापट्टिकापताकापंचदेव पंच मेरुपंच रथपंच शाखापंचायतनपंजरपदपत्र लतापत्र शाखा
रंग मंडप, परिस्तम्भीय सभा मंडप पानी का बहाव पाषाण का पाट, अलंकरण से रहित या सहित पट्टी ऊपर की मुख्य खुली छत दालान, बरामदा ध्वजा ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य, ईश्वर तथा सदाशिव इन पांच देवों का समूह, उरुश्रृंग के देव जैन परंपरा के पांच मेरुओं की अनुकृति पांच प्रक्षेपों सहित मन्दिर द्वार की पांच अलंकृत पक्खों सहित चौखट चार लघु मंदिरों से परिवृत्त मन्दिर लघु अर्धवृताकार मन्दिर, नीड़ भाग, हिस्सा पत्रांकित लताओं की पंक्ति प्रवेश द्वार का वह पक्खा जिस पर पत्रांकन होता है, द्वार की प्रथम शाखा कमलाकार गोटा या एक भाग, दक्षिण भारतीय फलक को आधार देने के लिये बनाया जाने वाला एक कमलाकार शीर्षभाग समतल छत कगल की कली जैसा आकार, शिखर का गूमटनुमा उठान पत्तियों के आकार वाला थर, दासा एक अलंकृत पट्टी जो दक्षिण भारतीय स्तंभ के मध्य भाग और शोर्ष भाग में होती है। गुम्बज के ऊपर की मध्य शिला, नीचे लटकती दिखती है, छत का अत्यलंकृत कमलाकार लोलक, पद्मा पद्मशिला नवशाखा वाला द्वार पलंग, खाट, पल्यंक
पद्म
पदाकपद्मकोशपद्मपत्रपप्रबंध
पद्मशिला
पद्मापद्मिनीपर्यंक
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________________
(देव शिल्प पबासनपरिकरपर्वन्पादपार्श्वपालवपाश
पिण्ड
पिशाचपीठपुरपुरुषपुष्पकंठपुष्करपुष्करिणी पुष्पर्गहपृथुपेटपौरुषपौलीप्रणाल प्रतिकर्णप्रति भद्रप्रतिरथप्रतिष्ठा
देव के बैठने का स्थान, पोठिका मूर्ति के साथ की अन्य आकृतियां ध्वजादण्ड की दो चूड़ी का मध्य भाग चरण, चौथा भाग एक तरफ, समीप छज्जा के ऊपर छाध का एक थर जाल, फंदा, शत्रु को बांधने की डोरी का गुंजला मोटाई क्षेत्रगणित के आय और व्यथ दोनों बराबर जानने की संज्ञा प्रासाद की खुरसी, आसन, चौकी पादपीठ नगर, ग्राम प्रासाद का जीव जो सुवर्ग पुरुष बनाकर पलसान पर रवाना है। दासा, अंतराल जलाश्रय का मंडप, वलाणक मकान में बना हुआ टांका पूजनगृह विस्तार, चौड़ाई पाट आदि के नीचे का तल, पेटक प्रासाद पुरुष संबंध की विधि प्रासाद की पीठ के नीचे भिट्ट का थर परनाला, पानी निकलने की नाली कौने के समीप का दूसरा कोना मुख भद्र के दोनों तरफ के खांचे कोने के समीप का चौथा कोना, भद्र और कर्ण के मध्य का प्रक्षेप देवस्थापन विधि पोल, प्रासाद आदि के आगे तोरण वाला दो स्तंभ, देवालय अथवा जलाशय के किनारे अथवा चार स्तंभ और उसके ऊपर मूर्ति और मेहराबदार बना हुआ
सुन्दर स्तम्भ शिखर के कोने के दोनों तरफ लम्बा चतुर्थांश मान का श्रृंग परिक्रमा, फेरी पानी का बहाव, प्लव थरों के भीतर का भाग श्रृंगों के नीचे का थर
प्रतोली
प्रत्यंगप्रदक्षिणाप्रवाहप्रवेश
प्रहार
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(देव शिल्प) प्रस्तारप्राकप्राकारप्रासादप्राग्नीवफालककालनाफांसना
बलाणक
बाणबीजपुरबांधनाभग्नभद्रभद्रकभद्रपीठभमतीभरणीभवनभवनाजिरभिट्टभित्तिभिन्नभूमिभ्रगभ्रमामकरमकर तोरणमंचमंचीमंचिका
दक्षिण भारतीय विमा का विस्तार, कोणी मय पूर्व दिशा, प्राची मन्दिर को परिवृत्त करने वाली भित्ति देव मन्दिर , राजमहल अग्र मंडप, मुख मंडप का प्रक्षेप, गर्भगृह के आगे का गंडप स्तंभ का शीर्ष भाग प्रासाद की दीवार के खांचे भवन का आड़े पीठों से बना भाग (पश्चिमी भारत में प्रचलित, उड़ीसा में पीढ़ा देउल कहते हैं) बलाण, कक्षासन वाला मंडप, गर्भगृह के आगे का मंडप, मुख मंडप, आवृत्त सोपानबद्ध प्रवेशद्वार, टंकारखाना, नगारखाना शिवलिंग कलश के ऊपर का बिजौरा जंघा को ऊपरी और निचले भागों में विभक्त करने वाला एक प्रक्षिप्त गोटा खंडित प्रासाद का मध्य भाग, गर्भगृह का मध्यवर्ती प्रक्षेप भद्र वाला स्तंभ गोटेदार पादपीठ का एक दक्षिण भारतीय प्रकार मन्दिरों में दृष्टव्य स्तंभों के मध्य का मार्ग स्तंभ शीर्ष, प्रासाद की दीवार का तथा स्तंभ के ऊपर का थर मन्दिर, मकान, गृह, प्रासाद घर का आंगन प्रासाद की पीठ के नीचे का थर, उप अधिष्ठान दीवार सूर्य किरण से भेदित गर्भगृह, दोष विशेष, वितान की एक जाति मंजिल परिक्रमा, फेरी, भ्रमणी, भ्रमन्तिका प्रासाद के १/३ भाग के मान का कोली मंडप मगर के मुख बाली नाली प्रवेश द्वार का अलंकरण या मकर मुखों से निकलता वंदनवार अधिष्ठान का एक दक्षिण भारतीय प्रकार प्रासाद के दीवार की जंघा के नीचे का तथा केवाल के ऊपर का थर विशेष पट्टिका के समान एक ऊपर कोटा
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४७४
(देव शिल्प) मंजरीमटमंडनमंडपमंडलमंडुकीगंडोवर
प्रासादका शिखर अथवा श्रृंग ऋषि आश्रम, धर्मगुरु का स्थान आभूषण गर्भगृह के आगे का मंडप गोल आदि आकार वाली पूजन की आकृति यजादंड के ऊपर की पाटली जिसमें ध्वजा लगाई जाती है प्रासाद की दीवार, पीट, वैदिबंध तथा जंधा से मिलकर बने भाग का नाम (पश्चिमी भारतीय स्थापत्य में प्रचलित) प्रासाद का उदय भाग, द्वार की अलंकृत देहली, देहली के मध्य का गोल अर्द्धचन्द्र भाग
मंदारक
मर: मत्तावल-ब
गत्र
मध्यस्थामर्कटोमहामंडप
महानरामाडमिश्र संघाटमुकुलीमुख भद्रमुख मण्डप
गधाक्ष, झरोखा, आला, ताका जाप विशेष प्रासाद के १/४ भाग के मान का कोली मंडप का नाग ध्वजादण्ड के ऊपर की पाटलो जिस पर ध्वजा लटकाई जाती है मध्यवर्ती स्तंभ आधारित मंडप, जिसके दोनों पार्श्व अनावृत्त होते हैं (मध्यकाल मंदिरों में प्रचलित) रसोईघर मंडप, मंडवा ऊंचा नीचा खांचा वाला गुम्बद का चंदोवा, छत आठ शाखा वाले द्वार का नाम प्रासाद का मध्य भाग गर्भगृह के आगे का मंडप, बलाणक, सामने का या प्रवेश द्वार से संयुक्त मंडप छज्जा के ऊपर का एक थर टेढ़ा, तिरछा नीचे का भाग शिखर के नीचे का कोना शिखर के नीचे के दोनों कोण के बीच का नाप, कोना मूल मन्दिर मुख्य स्थान पर स्थापित तीर्थंकर मूर्ति प्रवेश द्वार से संयुक्त मुख मंडप या सामने का खांचा चारों ओर से निराधार स्तंभ जिसके शीर्ष पर चार तीर्थंकर मूर्तियां होती हैं
मुण्डलीक
मूलमूल कर्णमूल रेखामूल प्रासादभूलनायकमुख्य चतुष्कीमान स्तम्भ
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४७५
देव शिल्प मृषामृतमेखलामेद्रमेरु. यक्षयमचुचीयानरत्न शाखारथरंग गंडपरंग भूमिरश्चिकारन्ध्रराजसेनरीतिरुचकरुपकण्टरुप स्तम्भरूप शाखाराक्षराराज सेनकरेखालयललितासन
लम्बा अलिन्द, बगडा मिट्टो, मृतिका दीवार का खांचा पुरुष चिन्ह, लिंग प्रासाद विशेष पर्वत आय से व्यय जानने की संज्ञा सम्मुख लम्बा गर्भगृह आसन, सवारी प्रवेश द्वार का हीरक अलंकरण सहित पक्खा मन्दिर का प्रक्षेप, कोने के समीप का दूसरा कोना, फालना विशेष स्तम्भ आधारित मंडप जो चारों ओर अनावृत्त होता है गर्भगृह के सामने पांचवां नीचा मंडप, नृत्य मंडप भद्र का गवाक्ष, आला प्रवेश द्वार भण्डप की पीठ के ऊपर का थर पीतल धातु समचौरस स्तंभ आकृतियों रो अलंकृत एक अंतरित पट्टी या पंक्ति द्वार शाखा के मध्य का स्तम्भ प्रवेश द्वार का आकृतियों से अलंकृत पक्खा आय से ध्यय अधिक जानने की संज्ञा कक्षा या छज्नेदार गवाक्ष का सबसे नीचे का गोटा खांचा, कोना मकान, गृह विश्राम का एक आसन जिसमें एक पैर मोड़कर पीठ पर रखा होता है तथा दूसरा पीठ से लटककर मनोज्ञा लगता है स्त्री युगल वाली प्रासाद की जंघा मुख हीरा आकाशीय कल्पित एक संज्ञा शरीर ग्रास, जलचर विशेष, मगर प्रतिकर्ण वाला स्तंभ अश्वथर
लाटीयक्त्रवनवत्स
वपुस्
वरालवर्धमानवाजिन्
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देव शिल्प
वापी
वामन
वाराह
वारि
वारिमार्ग
विधु
विद्धविपर्यास
विलोक्य
विस्तीर्ण
वृत
वेदिका
वरद
वरंडिका
विद्याधर
वेदी
वेदिबन्ध
वैश्मन
वैराटी
व्यक्त
व्यंग -
व्यजन
व्यक्तिक्रम
व्यास
व्योमन् -
वितान
विस्तार
शंकुशंखावर्त
शदुरम् -
बावड़ी
मंडप के व्यास के आधे मान की ऊंचाई वाला गुम्बद, जगती के आगे का बलापक मंडप
मंडप के व्यासार्ध के २/३ मान की ऊंचाई वाला गुम्बद
जल
दीवार से बाहर निकला हुआ खांचा, बरसाती पानी के बहाव के लिए बारिक नालियां, सलिलांतर
चन्द्रमा
वेध, रुकावट
उल्टा
खुला भाग
विस्तार, चौड़ाई
गोलाई, गोलाकृति
पील, प्रासाद आदि का आसन
वर प्रदान करने की सूचक हस्त मुद्रा
| शेखर और जंघा के मध्य बना कुछ गोटों से मिलकर बना भाग
गुम्बद में नृत्य करने वाले देव रुप
पीठ, राजसेन के ऊपर का थर अधिष्ठान, आधार, जगती
मन्दिर, घर
प्रासाद की कमलपत्र वाली दीवार
प्रकाश वाला
टेढ़ा
पंखा
४७६
मर्यादा से अधिक
विस्तार, गोल का समान दो भाग करने वाली रेखा
शून्य,
आकाश
गूमट का नीचे का भाग, छत
चौड़ाई
छाया मापक यंत्र
प्रासाद की देहली के आगे की अर्धचन्द्र आकार वाली शंख और लताओं वाली
आकृति
स्तंभ का चतुष्कोण भाग (दक्षिण भारतीय) (तमिल)
:
+
I
i
1
·
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(देव शिल्प)
शाखाशस्याशाखोदरशाल भंजिकाशाला
शिखर
शिर
शिरपत्रिकाशिरावटीशुक नास
शुण्डिकाकृतिशुद्ध संधाटश्रृंगश्रीवत्सषड्दारूसभा मंडपसभा मार्ग
(४७) द्वार की चौखट का पक्खा, जो भिति स्तंभ के समान होता है प्रासाद के २/५ गान का कोली मंडप शाखा का पेटा भाग नाच करती हुई पाषाण की पुतलियां प्रासाद, गभारा, छोटा कमरा, भद्र, परसाल, बरागदा, ढोल के आकार की छत सहित आयताकार मन्दिर शिवलिंग के आकार वाला गुम्बद, मन्दिर का ऊपरी भाग या छत, सामान्यतः उत्तर भारतीय शिखर वक्र रेखीय होता है, दक्षिण भारतीय शिखर गुम्बदाकार या अष्टकोण या चतुष्कोण होता है. शिखर शिरावटी, ग्रास मुख ग्रास मुख वालो पट्टी, दारा भरगी के ऊ पर प्रासाद की नासिका, उत्तर भारतीय शिखर के राम्मुख भाग से संयुक्त एक बाहर निकला भाग जिसमें एक बड़े चैत्य गवाक्ष की संयोजना होती है। शुक नासा शिखर के जिस भाग पर सिंह की मूर्ति बनाई जाती है, वह स्थान हाथी गुम्बद का समतल चंदोवा, छत्त छोटे- छोटे शिखर के आकार वाले अंडक एक ही सादा श्रृंग दो दो स्तंभ और उसके ऊपर एक एक पाट रंग मण्डप एक प्रकार की अलंकृत छत जिसकी रचना अनेकों मंजूषाकार सूच्यग्रों से होती है। तीन प्रकार की आकृति वाली छत अवनतोन्नत तलवाली ऐसी छत जो साधारणः पंक्तिवद्ध सूचियों रो अलंकृत होती है। तीर्थंकर प्रभु की बारह खण्डों की धर्मसभा, तीन प्राकार वाली बेदी बनावट सहित वर्गाकार . देव प्रतिष्ठा की विधि विशेष यज्ञ शाला प्रासाद के १/२मान का कोली मंडप चतुर्मुख, एक प्रकार का चारों ओर सम्मुख मंदिर, चारों ओर मूर्तियों से संयोजित एक प्रकार की मंदिर अनुकृति खड़ा अंतराल, वारिमार्ग, बरसाती जल निकालने की बारीक नालियां, जहां फालनाओं के जोड़ मिलते हैं
समतल वितान
समवशरणसमचतुरनसकलीकरणसत्रागारसभ्रमासर्वतोभद्र
सलिलांतर
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(देव शिल्प सहस्रकूट
संवरणा
संघाटसंधिसांधार सारदारुसिद्धासन सिंह स्थानसुरवेश्मन्सुषिरसूत्रधारसूत्रारम्भ
सृधिसोपानसौधस्कन्धस्तन्मस्तम्भवेधस्थन्डिलस्थावररगरवीतिस्वयंभूहर्म्यहर्यशालहस्तांगुल
पिरामिड के आकार की एक मन्दिर अनुकति जिस पर एक सहस्त्र तीर्थंकर मूर्तियां उत्कीर्ण होती है अनेक छोटे- छोटे कलशों वाला गुम्बद छत जिराके तिर्यक रेखाओं में आयोजित भागों पर घंटिकाओं के आकार के लघु शिखर होते हैं, गूमट का ऊपर का भाग तल विभाग सांध, जोड़ परिक्रमा युक्त नागर जाति के प्रासाद श्रेष्ठ काष्ठ ध्या-1 आसन में आसीन तीर्थंकर की एक मुद्रा शुकनास देवालय पोलापन, छेद शिल्पी, मंदिर मकान बनाने वाला कारीगर नौंव खोदने के प्रारंभ में प्रथम वास्तु भूमि में कीले ठोंककर उसमें सूत बांधने का आरंभ दाहिनी ओर से गिनना सीढी राजमहल, हवेली शिखर के ऊपर का भाग थंभा, खम्भा, ध्वजादण्ड ध्वजाधार, कलावा प्रतिष्ठा मंडप में बालुका वेदी जिसके ऊपर देव को स्नान कराया जाता है प्रासाद के थर, शनिवार एक शाखा वाले द्वार अघटित शिवलिंग मकान, मध्यवर्ती तल, दक्षिण भारतीय विमान का मध्यवती भाग घर के द्वार के ऊपर का बलाणक एक हाथ के लिए एक अंगुल, दो हाथ को लिए दो अंगुल इस प्रकार जितने हाथ उतने अंगुल सात शाखा वाला द्वार कम होना, न्यून, छोटा कूट, शाला और पंजर नामक लघु मन्दिरों की पंक्ति जो दक्षिण भारतीय विमान के प्रत्येक तल को अलंकृत करती है
हस्तिनीहस्वहार
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________________ सन्दर्भग्रन्थसूची 1. तिलोय घण्णत्ति 2. भगवती आराधना 3. उमा स्वामी श्रावकाचार . . . 4. वसुनन्दि श्रावकाचार 5. प्रतिष्ठा तिलक : आचार्य नेमीचंद 66. वसुनन्दि प्रतिष्ठा पाठ 7. जयसेन प्रतिष्ठापाठ 8. प्रतिष्ठा सारोद्धार 9. कुन्दकुन्द श्रावकाचार 10. महापुराण : आचार्य जिनसेन 11. पद्मपुराण : आचार्य रविषेण 12. हरिवंश पुराण 13. धर्म रत्नाकर : आचार्य जयसेन 14. त्रिशष्टि शलाका पुरुष 15. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश 16. जैन ज्ञान कोश मराठी 57. वत्थुसार : ठक्कर फेरु 18. प्रासाद मंडन 19. शिल्प रत्नाकर 20. क्षीरार्णव 21. दीपार्णव 22, वास्तु रत्नाकर 23. अपराजित पृच्छा सूत्र 24. रुपमंडन 25. समरांगण सूत्रधार 26. राजवल्लभ 27. आचार दिनकर 28. भारतीय शिल्प संहिता 29. प्रासाद मंजरी 30. जैन कला एवं स्थापत्य 31. वास्तु कला निधि 32. विश्वकर्म प्रकाश 33. विवेक विलास 34. ज्ञान प्रकाश 35. प्रासाद तिलक 36. वास्तु राज 37. धवला 38. त्रिलोकसार 39. मत्स्यपुराण 40. नवदेवता स्तोत्र 41. अष्ट पाहुड़ 42. सावयधम्म दोहा 43. राजवार्तिक