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(देव शिल्प
उपाध्याय प्रतिमा में ऊंचे स्थान पर दिगम्बर साधु हाथ में शास्त्र लेकर पढ़ाने की मुद्रा में हों तथा नीचे साधु गण बैठे हो । सभी साधु एवं उपाध्याय पीछी कमंडलु सहित हों । साधु प्रतिभा में ध्यानस्थ मुद्रा में पीछी कमंडलु सहित साधु हों। जिन धर्म भाववाचक संज्ञा है। जिन धर्म को समझाने के लिए धर्म चक्र की स्थापना की जाती है। धर्म चक्र में चौबीस आरे होना चाहिए। धर्मचक्र तीर्थंकर प्रभु के विहार के समय आगे चलता है। तीर्थंकर का बिहार धर्म को रथापना का प्रतीक है अतः धर्म के रूप में धर्म
चत्र की स्थापना की जाती है। ७. जिनागग- इसकी प्रतिभा में वेदी पर एक आसन पर जिन शास्त्र की आकृति रखें । ८. जिन चैत्य - तीर्थंकर प्रतिमा को जिन चैत्य के स्थान पर रखें।
जिन चैत्यालय- मंदिर की एक छोटी प्रतिकृति जिसमें भीतर गर्भगृह में जिन चैत्य विराजमान हों।
पंच परमेष्ठो जिनालय में आरेहंत, सिद्ध, आचार्य , उपाध्याय एवं साधु की प्रतिमा पृथकपृथक येदी में अथवा एका बदाम स्थापित की जाती है। मूल नायक के स्थान पर अरिहंत प्रतिमा स्थापित की जाती है।
नव देवता जिनालयों में इन प्रतिमाओं को पृथक पृथक वैदियों पर स्थापित करना हो तो मध्य में मूल नायक के स्थान पर अरिहंत प्रतिमा रखें। संयुक्त रुपेण प्रतिमा के प्रसंग में इसका स्वतंत्र जिनालय भी बनाया जा सकता है तथा पृथक वेदों में भी इसे रखा जा सकता है। नव देवताओं की मूर्तियां अनेकों स्थानों में है। अकलूज (महाराष्ट्र) का नवदेवत। जिनालय भी दर्शनीय है।
रत्नत्रय मन्दिर जैन धर्म में मुक्ति का एक मात्र मार्ग रत्नत्रय हैं। ये तीन रन हैं : सभ्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सन्यग्चारित्र । रत्नत्रय की महत्ता को पूजनीय बनाने के लिए रत्नत्रय प्रतिमाएं बनाई जाती हैं।
रत्नत्रय प्रतिमा में रत्नत्रय के स्थान पर तीन-तीन तीर्थंकरों की प्रतिमा की स्थापना की नाती है। ये तीर्थंकर हैं :- शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ।
इनमें शांतिनाथ की प्रतिभा मध्य में रखो जाती है। इन तीर्थंकरों की संयुक्त प्रतिमा रखने का एक अतिरिक्त कारण यह भी है कि ये तीनों तीर्थंकर अपने पद के अतिरिक्त चक्रवर्ती एवं कामदेव पद के भो धारक थे अर्थात एक साथ तीन पदों के धारक थे अतः स्नत्रय के रुप में इन्हीं में तीर्थंकरों की प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं। तीनों तीर्थंकरों की प्रतिमायें एक ही आसन में बनायें ।