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२. सिद्ध -
(देव शिल्प
पंच परमेष्ठी एवं नवदेवता जिनालय
जैन धर्म में तीर्थंकरों के अतिरिक्त उनकी वाणी , धर्म , मुनिजन आदि को भी देवता की संज्ञा दी जाती है। सभी नव देवता की एक साथ स्थापना कर नव देवता जिनालय का निर्माण किया जाता है।
नय देवता के नाम तथा उनका स्वरुप इस प्रकार है - १. अरिहन्त - वे महान पुरुष है जिन्होंने तप करके घाातियां कर्मो को नष्ट करके केवल ज्ञान
अवस्था प्राप्त कर लो है। वे महान आत्माएं है जिन्होंने आटों कर्म (घातिया तथा अघातिया) को नष्ट कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त करे मोक्ष में स्थान पा लिया है, ये संसार चक्र से मुक्त
हो गये है। ३. आचार्य - वे महान गुांने पुरुष है जो महाव्रती साधुओं के संघ नायक तथा निर्यापक हैं। ये
दीक्षा एवं प्रायश्चित्त देने के अधिकारी हैं। ४. उपाध्याय- वे महान मुनि पुरुष हैं जो साधुओ को धर्म शास्त्र, जिन आगम ग्रन्थों को पढ़ाते है। ५. साधु- वे महान मुनि पुरुष हैं जिन्होंने पूर्ण निग्रन्थ अवस्था को ग्रहण कर महाव्रतों को
अंगीकार किया है। ६. जिन धर्म- अनादि काल से जिनेन्द्र प्रभु द्वारा प्रणोत धर्म जैन धर्म है। ७. जिनागम- ऐरो शास्त्र जिनमें जिन धर्म की प्ररुपणा एवं उपदेश दिया जाता है । मूलतः ये
जिनेन्द्र प्रणीत है। ८. जिन चैत्य- अरिहन्त , सिद्ध प्रभु की पूजा, स्तुति के निमित्त तथा उनके स्वरुप का आभार
कराने हेतु धातु, काष्ठ, पाषाण अथवा रत्न आदि से निर्मित प्रतिमा है। ९. जिन चैत्यालय- वह प्रासाद जिसमें जिन चैत्य विराजमान हैं जिन चैत्यालय कहलाता है। इसमें
जिनागम शास्त्र भी विराजमान होते हैं तथा समय-समय पर आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी आकर धर्मोपदेश देते है। धर्मानुरागी गण यहां जिनेन्द्र प्रभु की
पूजा भक्ति , शारत्र पाठ तथा जिन गुरुओं की वैयावृत्ति आदि करते हैं। जैन शास्त्रो में ये सभी देवता की स्थिति रखते हैं तथा धर्म अद्धालुओं के द्वारा पूज्य है। इनकी रांयुक्त रूप से उपासना करने के लिए नव देवता की संयुक्त प्रतिमा स्थापित की जाती है 1 एक चक्राकार आकृति की प्रतिमा की स्थापना की जाती है। जिनमें मध्य में अरिहन्त प्रभु की स्थापना करते हैं, पृथक -पृथक देवताओं की पृथक-पृथक प्रतिमाएं भी स्थापित की जाती हैं। इन प्रतिमाओं के लिए विशेष संकेत इस प्रकार है। १. अरिहन्त प्रभु की प्रतिमा अष्ट प्रातिहार्य युक्त बनाएं। प्रतिमा पद्मासन तथा शास्त्रानुसार
तालमान में होना परम आवश्यक है।
सिद्ध प्रतिमा बिना सिंहासन, चिन्ह एवं प्रातिहार्य के बनाएं। ३. आचार्य प्रतिमा में ऊंचे स्थान पर दिगम्बर आचार्य बैठे हुए अभय मुद्रा में हों तथा नीचे
साधुगण बैठे हों। सभी साधु एवं आचार्य पीछी कमंडलु सहित हों।