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सम्पादक की कलम से प्रस्तुत रचना देव शिल्प की रचना जैन आगम साहित्य की एक अभूतपूर्व कृति है। मन्दिर वास्तु एवं स्थापत्य पर सर्वांगीण जानकारी प्रस्तुत करने वाला कोई भी ग्रन्थ अभी उपलब्ध नहीं है। जो भी ग्रन्थ मिलते हैं वे एकांगी हैं। परम पूज्य गुरुदेव प्र. आवार्य श्री १०८ देवनन्दिजी महाराज ने निरन्तर ज्ञानोपयोग एवं चिन्तन के उपरांत इस विषय पर अपनी लेखनी चलाई है। यह ग्रन्थ मन्दिर वास्तु एवं स्थापत्य के प्राचीन एवं आधुनिक दोनों पहलुओं पर समानता से प्रकाश डालता है।
देव शिल्प ग्रन्थ की रचना करने गेंदीन प्रमुख उद्देश्य निहित हैं :मन्दिर वास्तु एवं स्थापत्य विषय पर सर्वोपयोगी जानकारी देना ताकि इस विषयक
अनभिज्ञता दूर हो। २. जैन संस्कृति एवं स्थापत्य कला का संरक्षण व संवर्धन। ३. तीर्थयात्रा के जो चार स्यं विकास के लिए आधारभूत जानकारी का प्रस्तुतीकरण ।
शुक्राचार्य के अनुसार शिल्प चौसठ कलाओं में एक है। कला से तात्पर्य है बिना वाणी के भावाभिव्यक्ति। शिल्पकला में कलाकार बिना कुछ कहे सब कुछ कह देता है। हजारों सालों से निर्मित मन्दिर एवं कलाकृतियां बिना वाणी के ही तत्कालीन वैभव एवं संस्कृति की गौरवमयी गाथा कहती आ रही है। जब भारत में विधर्मियों का प्रवेश हुआ तो उन्होंने सर्वप्रथम अत्याचार के बल से अपना धर्म चलाना चाहा तथा भारतीय संस्कृति के आधारभूत स्थापत्य कला का मिटाना चाहा। इतना अधिक विध्वंस करने के उपरांत भी अवशिष्ट स्थापत्य से सारे विश्व को आज भी भारत की ऐतिहासिक गरिमा का आभास होता है । अवशिष्ट पुरातत्व अवशेष भी संस्कृति के पुनरुत्थान के लिये पर्याप्त है । विभिन्न नगरों एवं तीर्थक्षेत्रों का दर्शन करने के उपरांत निर्मित यह कृति न केवल सम्पूर्ण समाज के लिये एक मार्गदर्शक है, वरन् जिनवाणी की अनुपम सेवा भी है।
प्रत्येक गृहस्थ के लिये भगवद् आराधना के निमित्त देवालय होना अत्यंत आवश्यक है। गृहस्थ की पूजा-अर्चना क्रिया तभी सुफलदायक होती है जबकि वह शास्त्रोक्त रीति से पूरी श्रद्धा भावना के साथ की जाये । शास्त्रोक्त रीति से पूजा अर्चना करने के उपरांत भी हमें यह दृष्टिगत होता है कि अतिशय क्षेत्र, सिद्ध क्षेत्र अथवा किन्हीं विशिष्ट देवालय में किन्हीं विशिष्ट प्रतिमा के समक्ष भावना उत्कृष्ट होती है तथा परिणाम भी शीघ्र ही दृष्टि में आते हैं। यह प्रश्न मन में उत्पन्न अवश्य होता है कि इस अन्तर का कारण क्या है ? अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि जिन प्रतिमाओं एवं देवालयों का निर्माण शिल्प शास्त्र के सिद्धान्तों के अनुरुप होता है वहां पर अतिशय (चमत्कार पूर्ण घटनाएं, स्वतः ही होती है, वातावरण दिव्य रहता है तथा आराधक की मनोभावना भी प्रशस्त, शुभ एवं कल्याणकारी होती है।
जैन धर्म के अनुरागी गृहस्थ पीढ़ियों से मन्दिर निर्माण कर अपना पुण्य संचय करते आये हैं। शास्त्रकारों ने एक राई के दाने के बराबर जिन प्रतिमा बनाकर एक भिलावे के बराबर जिनालय बनाकर उसमें स्थापित करने से असीम पुण्य प्राप्ति उल्लेखित की है। गृहस्थों के छह आवश्यक कर्मों में देव पूजा को प्रथम स्थान दिया गया है। अतएव देवालय का निर्माण असंख्य गृहस्थों को देवपूजा का निमित्त बनने से अतिशय पुण्यवर्धक कार्य होता है।