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ग्रन्थ प्रकाशन के कार्य में दानदाता आवकों की उदार भावना का होना अत्यंत आवश्यक है। उसके बिना ग्रन्थ प्रकाशन होकर सर्वजन सुलभ होना असंभव है। प्रस्तुत रचना देव शिल्प' के प्रकाशन हेतु उदारमना, दानवीर, समाजरत्न परमगुरु भक्त श्रीमान नीलमकुमार जी चंपतरायजी अजमेरा, उस्मानाबाद (महा.), महाराष्ट्र जैन महासभा के उपाध्यक्ष समाजभूषण संघपति परमगुरुभक्त श्रीमान हीरालाल (बाबूभाई) माणिकचंदजी गांधी, अकलूज (महा.), दानवीर श्रीमान पवन कुमारजी जैन, पहाड़ी धीरज, दिल्ली, दानवीर श्री सुनील कुमारजी सु. जैन नागपुर (महा.), सौ. हर्षा महावीर जी मंगवाल, औरंगाबाद (महा.), श्री विजय कुमारजी पाटनी, (घाटनांदरावाले) औरंगाबाद आदि महानुभावों का अत्यधिक सहयोग रहा है। ये सभी आवक श्राविकाएं जिनधर्म में इसी प्रकार अनुराग रखें, देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति रखें तथा अपनी चंचला लक्ष्मी का सदुपयोग करें। ये सभी धर्म की सेवा में तत्पर रहकर परम्परा से मुक्ति सुख का प्राप्ति करें। इनका जीवन सुख समाधानमय बने, इस हेतु हमारा शुभ आशीर्वाद है।
देव शिल्प की कम्पोजिंग का कठिन कार्य सुन्दर रूप से श्री रजत गुप्ता, कु. रुचि वर्मा एव श्री राजेश मालवीय ने छिन्दवाड़ा में किया है। इनकी समन एवं परिश्रम से यह कार्य सम्पन्न हुआ है। इन्हें हमारा पूर्ण आशीर्वाद है।
यह ग्रन्थ मन्दिर एवं प्रतिमा स्थापनकर्ताओं के लिये उपयोगी सिद्ध होगा, यह हमारी भावना है। मन्दिर एवं तीर्थक्षेत्रों के न्यासी, व्यवस्थापक एवं कार्यकारीगण, समाज के प्रबुद्ध वर्ग, सक्रिय कार्यकर्ता एव दानवीर श्रेष्ठीगण इस कृति का लाभ उठायेंगे तथा मन्दिर, तीर्थक्षेत्र, प्रतिमा स्थापना, जीर्णोद्वार, मुनि निवास, धर्मायतनों के निर्माण आदि में मार्गदर्शन लेवेंगे, तभी इस रचना की उपयोगिता सिद्ध होगी। आप सबके लिये यह ग्रन्थ उपयोगी होगा तभी में अपना श्रम सफल समझुंगा ।
जगत के तारणहार प्रथम तीर्थंकर श्री १००८ आदिनाथ प्रभु की कृपा दृष्टि हम सब पर बनी रहे। मम आराध्य श्री १००८ चिन्तामणि पार्श्वनाथ की करुणामय दृष्टि मुझ समेत सभी जीवों के लिये कल्याणकारक हो । परम पूज्य गुरुदेव गणाधिपति गणधराचार्य श्री १०८ कुन्युसागरजी महाराज सदा जयवम्स रहें। चिरकाल तक जिनशासन की अक्षुण्ण प्रभावना होती रहे। समस्त जीवों का कल्याण हो । अमृतवर्षिणी सरस्वती मातेश्वरी की अनुकम्पा हम सब पर बनी रहे, यही आत्मीय भावना है।
गली
सिद्ध क्षेत्र नैना गिरि १५/०७/२०००
मलाई प्रज्ञाश्रमण आचार्य देवनन्दि मुनि