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________________ तदुपरान्त मन्दिरों को लक्ष्य में रखकर पुनः एक सर्योपयोगी रसना की आवश्यकता प्रतीत हुई। शाहगढ़ (म.प्र.) में अक्षय तृतीया १९९९ को इस कार्य का प्रारंभ किया। प.यू. गुरुदेव की असीम्र कृपा एवं वरद हस्त के प्रभाव से यह कार्य २००० में श्री पार्श्वनाथ प्रभु के समवशरण विहार स्थली में चातुर्मास स्थापना के समय समाप्त किया यद्यपि यह कार या फिर रेरामधुपयों ने हमें पूई कार किया तथा श्रुत देवी की इस आरधना में अत्यंत भक्ति एवं वात्साय पूर्ण सहयोग दिया। इसके प्रभाव से अन्य कार्य अल्प समय में सम्पन्न हो गया। वास्तु चिन्तामणि की ही भांति जन सामान्य के लिये उपयोगी मन्दिर वास्तु एवं स्थापत्य शास्त्र की रचय देव शिल्प' का प्रारंभ किया। इस ग्रन्थ में सुगम भाषा में ग्यारह प्रकरणों में मन्दिर निर्माण से संबंधित सभी पहलुओं की समुचित जानकारी प्रस्तुत की है। वर्तमान युग में निर्मित किए जाने वाले मन्दिरों में कौन-सा निर्माण कहरं एवं कैसे किया जाने चाहिये, इस हेतु शास्तु शास्त्र एवं प्रतिष्ठर अन्यों का समन्वय कर निर्णय करना आवश्यक है। शिल्य शास्त्र के पारिभाषिक शब्द ज्न्न सामान्य की भाषा से पृथक हैं। अतएव सावधानी रखना अवश्यक है। शिल्प शास्त्र में कथित शब्दों एवं उद्धरणों का शब्दार्थ नहीं वरन् भावार्थ ही ग्रहण करना आवश्यक है। पारंपरिक शिल्पकला का अध्ययन करने पर इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट होने लगता है। जैनाचार्यों ने प्रतिष्ठा प्रयो में मन्दिर एवं प्रतिमा के प्रमाण के वर्णन किए है। इतर शिल्ए शास्त्रों का अध्ययन एवं समन्वय करने पर ही सही निर्णय किया जा सकता है। विभिन्न शिल्य शास्त्रों में प्राप्त मतभेदों का समन्वय विद्वान सूत्रधार, स्थापत्य देता एवं परम पूज्य आधाई परमेष्ठी के मार्गदर्शन पूर्वक करना चाहिये। देव शिल्प शास्त्र की रचना का उद्देश्य उन उपासकों का मार्गदर्शन है जो निरन्तर जिन पूजा में रत हैं, आगामी पीढ़ी के लिये उपयोगी महान पुण्य का अर्जन जिन मन्दिर निर्माण से आठ गुनर पुण्य मन्दिर के जीर्णोद्ररर में बताया गया है। जीर्णोद्धार करने से प्राचीन कलाकृति का संरक्षण होता है। पुण्यार्जक आराधक भावोत्कर्ष में नियमों का उस्सयन कर जीर्णोद्वार के नाम पर अनुपयुक्त निर्माण अथवा विघटन कर डालते हैं। इसका निराकरण भी इस रचन्दर में करने का प्रयास किया गया है। अन्य की सामग्री के संघयर में हमारी शिष्या विदशी आर्यिका श्री १०५ सुमंगलाश्री माता जी की अग्र भूमिका रही। उरसातर कर्मोदय के कारण शारीरिक स्थिति प्रतिकूल होने पर भी अपने इस कार्य हेतु उस्यक परिश्म किया। वे प्रस्कूिस शारीरिक स्थिति के बावजूद भी निरंतर हानाभ्यास में रत रहती हैं। निरतियार संयम के कठिन मार्ग पर चलकर रत्नत्रय का पालन करती हैं। मैं उन्हें अपना मंससमय आशीर्वाद प्रदान करता हूँ कि माताजी शीघ्र ही उरनुकूल स्वास्थ्य एवं आत्मोप्सव्यि की प्राप्ति करें। देव शिल्प ग्रन्य की विधिवत् समायोजना का गुरुतर कार्य हमारे अनन्य भक्त, देव शास्त्र सुरु के अनन्य आराधक, आर्ष परम्परा के पोरक, कर्मठ व्यक्तित्व के धनी, विद्वता की अर भूमिकर के निर्वाह में नियुण, वास्तु शास्त्रज्ञ श्री नरेन्द्र कुमार जैन बड़जात्यर, छिन्दवाडर ने किया है तथा अन्य को सर्योपयोगी बनाया है। ये पारिवारिक जीवन के उत्तरदायित्वों के निर्वहन में सतत् व्यस्त रहते हुए भी निरन्तर गुरु जर पालन में तत्पर रहते हैं। मैं अपने इष्ट आराध्य देव श्री १००८ चिन्तामणि पावनाय स्वामी से उनके सुख समृद्धि मय जीवन की मंगल कारतर करता हुआ उन्हें अपनर शुभाशीष प्रदरचर करता हूँ। वे इसी तरह देव शास्त्र गुरु की सेवा में तत्पर रहें।
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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