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मनोगत किसी भी धर्म, सम्प्रदाय अथवा संस्कृति का सभास उसकी पुरातात्विक सम्पदा को देखकर होता है। शास्त्रों से उस विचारधारा का बोध अवश्य होता है किन्तु उनका स्थापत्य उनके वैभव की माया शताब्दियों तक विना कुछ कहे भी कहता रहता है। जैन धर्म के विशाल मन्दिर एवं प्रतिमाएं आज भी इसका प्रमाण हैं कि यह धम प्राचीनतम है तथा इसकी वैभव गाथा अन्य किसी भी परम्परा से न्यून नहीं है। विधारधाराओं का सीधा प्रभाव उस समय की शिल्प कसा पर दिखता है।
गुरुदेव की शरण में आने के बाद य.यू. गुरुदेव के साथ अन्का तो क्षेत्रों के दर्शन किटो। पश्चात भी उस्तरेकानेक तीर्थक्षेत्रों एवं नगर-रामों में जिनदर्शन किये। विभिन्न स्थलों पर वहां की सराज एवं मन्दिर स्थापरकता अत्यंत शोषनीय स्थिति में दृष्टिगत हुए। इस विषय में अनेको घार चिन्तन किया था जिनालय निर्माण का असीम पुण्य इतन्ना शरण क्षीण हो एव्या उरथवा कहीं ऐसी चूक है जो दृष्टि बरहा है। ऐसा स्पष्ट परिलक्षित होने समा कि मन्दिर निर्माण की शिस्य विधा से समाज अनभित है तथा इसी कारण देवस्थानों एवं तीर्थक्षेत्रों में समरज बड़ी उपेक्षा की स्थिति में है। देव पूजा एवं मन्दिर निर्माण से प्राप्त असीम पुण्य फस से भी मात्र अज्ञानता एवं उपसावधानी के कारण यथोचित परिणाम नहीं मिल रहे। गृहस्थ जन भी दोषपूर्ण वास्तु के कारण पुरुषार्थ को निष्फल कर रहे हैं।
निरन्तर यह भावना मन में उत्यन्न होती रही कि जिनामम का अध्ययन कर श्रावकोपयोगी जानकारी यदि प्रस्तुत की जाये तो गृहस्थ अपने दरन एवं पुरुषार्थ को सार्थक कर सकेंगे। विहार एवं वर्षावार दोनों में निरंतर मन्दिरों के शिल्प एवं प्रतिमाओं का गहन अध्ययन किया। प्रावकों के लिये दरन एवं यूज्ज मुरण्टर कर्तव्य हैं। ये दोनों कर्तव्य तभी सफल होने जवकि समुचित रीति से मन्दिरों का निर्माण किया गया हो तथा उनमें जिरेन्द्र प्रभु की प्रतिमा सही प्रमाण में हरे । साथ ही पूजक भी संपूर्ण निम्तर से मवान की आराधना करे। इस विषय में कोई भी ऐसा ग्रन्य दृष्टिगोचर नहीं हुआ जिसमें सभी उपयुक्त विषयों का सुमम प्रस्तुतिकरण किया गया हो। श्री कचरेर तीर्थ में गृहस्थो के लिये उपयोगी बन्यवास्तु चिन्तामणि की रचना हुई जिसका सदुपयोग बड़ी संख्या में सर्वत्र जेन जेनेतर पाठकों ने किया।
तीर्थकर प्रभु के केवल ज्ञान से उत्पन्चर वाणी को ग्यारह अंग चौदह पूों में विभक्त किया जाता है। इसका दृष्टि प्रबाद अंग कर किया विशाल पूर्व शिल्य शास्त्रों का मूल है। कालान्तर में ज्ञान का संरक्षण न कर पाने से इन्हें शास्त्रों में लिया गया तथा विधर्मियों के उशयात से इनका भी क्षय हुआ। शास्त्र भले ही अनुपलब्ध हुए किन्तु तत्कालीन पुरातत्व के अवशेष आज भी धर्म का मौरवमयी इतिहास वर्णित करते हैं।
मन्दिर निर्माण का असीम युण्यफल तो है ही साथ ही यह शताब्दियों तक प्रभु का वीतरागी माय आराधक को दर्शाता है। इस प्रकार स्वयं की गई देवपूजर के अतिरिक्त मंदिर से लाभान्वित गराधक के पुण्यार्जन का निमित्त कारण बनकर मन्दिर स्थापनकर्ता निरन्तर पुण्य संचय करता रहता है। यदि मन्दिर ठीक नहीं बनर हरे अयका देव प्रतिमा सही प्रमाण में नहीं बनी हो तो उसका विपरीत परिणाम दोनों को ही मिलता है।
शिलोकपति चिन्तामणि पार्श्वनाशस्थामी की ही अनुकम्पा से उनके श्री चरणों में तीर्थक्षेत्र कचनेर में यह भावना उत्पन्न हुई कि नरशम की वास्तु शिल्य विद्या का उछोत किया जाये ताकि सामान्य पाठक की अनभिज्ञता दूर हो । परमपूज्य गुरुदेव गणाधिपति राणपराचार्य श्री १०८ कुन्थुसागर जी महाराज का दरद आशीर्वाद प्राप्त कर कार्यारम्भ किया। श्री क्षेत्र कचनेर में श्रायकों को लक्ष्य कर एक रचना वास्तु चिन्तामणि की उपलब्धि हुई।