________________
(देव शिल्प)
रंग संयोजना
वास्तु का निर्माण करने के उपरांत उस पर रंग करके उसे रमणीय तथा शांतिवर्धक बनाया जाना चाहियो मन्दिर में भी बाहर ऐसी रंग योजना को जाना चाहिये कि बाहर से गन्दिर
आकर्षक एवं गातेप्रदायक हो। भीतर पहुंचने के उपरांत भी गन्दिर का वातावरण धर्ममय, ध्यान योग निया में सहायक तथा श्री जिनेन्द्र प्रभु की प्रभावना में वृद्धिकारक हो । मन्दिर में प्रवेश होते ही उपासक संसारी मोहमाया के पाश रो विरत होकर श्री वीतराग जिनेन्द्र प्रभु के श्री चरणों में शरण पा सकें, ऐसा आमारा गीतरी सयोजना से होना आवश्यक है। जिस प्रकार वाटिका में हमें पुष्प आकर्षित एवं आल्हादित 4.रते हैं उसी प्रकार मंदिर का वातावरण भी हमें प्रसन्न करने वाला होना चाहिये। रंग योजना इस प्रक्रिया का अविभाज्य अंग है।
पूजन, जाप. विधान इत्यादि करते समय वस्त्र, माला, पुष्प, आसन इत्यादि के रंगों का स्पष्ट विवेचन जैन ग्रन्थों में मिलता है। मन्दिर के भीतरी भागों में ज्यादा गाढ़े रंगों का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिये। काला, डार्क चाकलेटी, डार्क नीला. डार्क ब्राउन, डार्क ग्रे कलर कहीं भी इस्तेमाल न करें।
गुलाबी, आसमानी, सफेद, पीला, केसरिया, हरा इत्यादि रंग यथास्थिति प्रयोग करें। दो या आंधक रंगों का प्रयोग करते समय यह अवश्य स्मरण रखें कि नीचे गाढ़ा तथा ऊपर फीका रंग, इस प्रकार रायोजित करें।
छत का रंग या तो सफेद रखें अथवा एकदम फीका । रंगों में चमक होना भी वर्जित नहीं है किन्तु उससे मन्दिर के धीतरागी स्वरूप में परिवर्तन न हो, यह आवश्यक है।
___ मन्दिर का शिखर श्वेत रंग का रखना उपयुक्त है। यही रंग सर्वाधिक प्रभावकारी है। भगवान जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए दृष्टाष्टक स्तोत्र में भी यही कहा है -
जिनेन्द्र भवनं भवतापहारि। भव्यात्ममा विभव संपद भूहिहंतु ।। दुग्धादिध फेन धवलोज्जवल कट कोटि । नदप्वज प्रकर राजि विराजमानम् ।।
इस स्तुति में जिनेन्द्र भवन का बाहरी रंग तथा शिखरादि का रंग फेन के समान उज्ज्वल श्वेत होना निर्देशित है। अतएव सभी प्रकार की रंग संयोजनाओं में यहीं प्रमुख लक्ष्य रखें कि उनसे वातावरण शांतिदायक एवं मनोरम बने। श्वेत रंग का शिखर दूर से ही उपासक को आकर्षित करता हैं तथा उसका चित्त जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन की कल्पना मात्र से ही पुलकित हो उठता है