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(देव शिल्प
मन्दिर में महादोष निम्नलिखित सात दोषों को मन्दिर वास्तु के सात महादोष कहा जाता है। इसका यथा विधि निराकरण कर शुचिता कराना आवश्यक है। *
मन्दिर में दीवालों से चूना उतर जाना
मकड़ी के जाले लगना ३. कोलें लगी हो ४. पोलापन हो गया हो ५. छेद पड़ गए हों ६. सांच एवं दरारें दिखती हों ७. गन्दिर को कारागृह में परिवर्तित कर दिया गया हो।
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मन्दिर निर्माण में वास्तु दोष
भवनों की भांति ही प्रासादों एवं मन्दिरों का निर्माण करते समय यह विशेष ध्यान रखना चाहिये कि निर्माण में वास्तु दोष न आयें तथा आने की संभावना हो तो निर्माण चलते समय ही विद्वानों एवं शिल्प शास्त्रों से परामर्श कर तत्काल ही उनका निराकरण कर लिया जाये। ऐसा न किये जाने पर अनपेक्षित विपरीत घटनायें घटती हैं तथा : केवल मन्दिर निर्माता वरन् निर्माण शिल्पी तथा समाज भो दीर्घ काल तक इनसे कर पाते हैं।
शिल्पी कृत महादोष शिल्पियों की अज्ञानता, असावधानी से कुछ दोषों का होना संभव है। इनमें सर्व प्रमुख हैं **.. O दिग्मूढ़ - ॐ नष्टछन्द - ® आयहोन - @ प्रमाणहीन -
दिमुळे या दिशा मूढ़ दोष से तात्पर्य है कि मूल दिशाओं से हटकर वास्तु का निर्माण हो जाये अर्थात् दिशाओं के कोण टेढ़े हो जायें।
ईशा- कोण की तरफ अथवा नैऋय कोण की तरफ मन्दिर वास्तु यदि टेढ़ी हो इसे दिशा मूढ दोष नहीं माना जाता। जिस प्रकार कि तीर्थस्थलों में मन्दिरों में दिशा मूढ़ दोष को महत्व नहीं दिया जाता।
*पंडलं जालकं चैव की सुधिर तथा छिद्र काग्धिश्व कारा महादोषः इटि. स्पृहा ।। प्रा.मं 4./१६,शि.र. ५/१३२ **पूर्वोत्तर टिशर्ट मुदं पश्चिम दक्षिण। त्रन्दममुद्र वा वत्र तीर्थसपाहतम् ।। प्रासाद मन्इन ८/९