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(देव शिल्प
दिशा मूढ़ के अन्य प्रकरण यदि पूर्व पश्चिम की दिशा में लम्बाई युक्त मन्दिर का प्रमुख प्रवेश द्वार अथवा जिनेन्द्र प्रतिमा का मुख यदि आग्नेय अथवा वायव्य की ओर हो जाये तो यह महा अनर्थकारी है। ऐसा होने पर मन्दिर निर्माता अथवा प्रतिष्ठाकारक, यज्ञनायक अथवा समाज के प्रमुख सदस्य को स्त्री मरण का कष्ट होता है।
___ उत्तर दक्षिण लम्बाई वाले जिनालयों में यदि यह दोष अर्थात् मन्दिर का प्रवेश द्वार या जिन बिम्ब का मुख आग्नेय अथवा वायव्य की तरको सो मन्दिर निर्माता, प्रतिमा , सामन, प्रज्ञनायक समाज के प्रमुख सदस्यों को महाअनिष्टकारी एवं सर्व विनाश का कारण होता है। अतएव मन्दिर निर्माता इस दोष का पूर्ण निराकरण अवश्य ही करें।
सिद्ध क्षेत्र, पंच कल्याणक भूमि, सरिता संगम स्थान, में निर्मित जिन मन्दिरों में दिशा मूढ़ दोष नहीं माना जात| स्वयंभू एवं बाण लिंगों के मन्दिरों में भी यही बात लागू होती है। फिर भी नवनिर्माण करते समय दिग्मूढ़ दोष का निरसन करके ही मंदिर वास्तु का निर्माण करना शुभ एवं श्रेयस्कर है। "
___ मन्दिर, महल तथा नगर यदि दिग्मूढ़ दोष से सहित होवे तो इनसे निर्माता का महान अनिष्ट होता है उसका द्रव्य क्षय, कुल क्षय तथा आयु क्षय होतो है। इससे मुक्ति (निर्वाण) भी प्राप्त नहीं हो सकती। अतएव दिशा- विदिशाओं में वास्तु का वेध का शोधन करना सदैव कल्याणकारी है। सर्वप्रथम पूर्व पश्चिम में सूत्रपात करना चाहिये । इसके उपरान्त वर्गाकार क्षेत्र करने में दिग्मूढ़ दोष का परित्याग करना चाहिये। **
छाया भेद दोष प्रासाद की ऊंचाई एवं चौड़ाई के अनुसार बायीं और दाहिनी ओर जगती शास्त्र के गान के अनुरूप होना चाहिये । ऐसा न होने पर छाया भेद दोष होता है। $
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*सिधदायतन तीर्धेषु नदीजो संगामेषु च । स्वयंभू बष्णलिंगेषु तत्रटोषो न विद्यते ।। प्रा. म.८/१० **दिङमुद्देन कृते वास्तौ पुर प्रासाद मन्दिरे। अर्वजाशः क्षयोमृत्युनिर्वाण जैन ठगच्छति ।। शि.र. १२८ दिशश्च विदिशोश्चैव नास्तु वेध विशोधनम् । जोर्णन वर्तते वस्ती वैध दोषो न विद्यते ।। १२९ शि. र. सूत्रपातस्तु कर्तव्या सानुप्रास्योरजन्तरम् । चतुरसं समं करवा दिग्मूढ परिवर्जयेत् ।। शि. २. १२६ $प्रासादाच्छाय विस्तारांज्जाती वाम दक्षिणे। छायाभेदा न कर्तव्या यथा लिंगास्य पीठिका । प्रा. पं. ८/२८.