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________________ देव शिल्प (३०८) क्षेत्रपालदेव क्षेत्रपाल की स्थापना प्रत्येक मन्दिर में आवश्यक रूप से रखी जाती है। इनकी स्थापना जिन मन्दिर के क्षेत्र के अधिपति क्षेत्ररक्षक देव के रूप में की जाती है। इनका स्वरुप यद्यपि उग्र रहता है किन्तु पूजा के लिये उग्र स्वरुप का आधार सामान्यतः ठीक नहीं होता है अतएव क्षेत्रपालजी की पूजा के निमित्त मूर्ति शांत रुप की रखी जाती है। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों जैन सम्प्रदायों में क्षेत्रपाल की पूजा अर्चना आरती समान रुप से की जाती है। ये देव तात्कालिक रुप से फलदायक माने जाते हैं। दोनों सम्प्रदायों में पूजा करने की पद्धतियों में परम्परानुसार किंचित अन्तर हो सकता है। तैल अर्चना तथा सिंदूर लेपन पूरी प्रतिमा पर किया जाता है। क्षेत्रपालदेव का स्वरूप (आचार दिनकर के अनुरूप) वर्ण कृष्ण, गौर, सुवर्ण, पांडु, भूरे वर्ण भुजा बीस केश - बर्बर तथा बड़ी जटाएं यज्ञोपवीत - वासुकी नाग मेखला - तक्षक नाग हार शेषनाग हाथों में- अनेक भांति के शस्त्रों का धारण धारण- सिंह चर्म आसनवाहन - कुत्ता नेत्र - मस्तक पर तीन नेत्र -
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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