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(देव शिल्प
देवों के चैत्यालय
भवनवासी देवों के चैत्यालय जैन शास्त्रों में सर्वत्र उल्लेख मिलता है कि देवों के स्थानों में जिन भवनों का अस्तित्व रहता है। ये चैत्यालय अत्यंत रमणीय तथा धर्मप्रभावना से संयुक्तारहते हैं। भवनवासो देवों के जिन भवन (चैत्यालय) में प्रत्येक में तीन-तीन कोट रहते हैं। ये कोट चार-चार गापुरों से संयुक्त रहते हैं। प्रत्येक वीथी (मार्ग) में एक मान स्तम्भ तथा नौ स्तूप तथा कोटों के अन्तराल में क्रम से वन भूमि, ध्वज भूमि तथा चैत्यभूमि होती है । वन भूमि में चैत्य वृक्ष स्थित हैं। ध्वज भूमि में हाथो आदि चिन्हों से युक्त आठ महाध्वजाएं हैं। प्रत्येक महाध्वजा के साथ १०८ शुद्रध्यजाएं हैं।
जि-। मन्दिरों में देवच्छन्द के भीतर श्रीदेवी, श्रुतदेयो तथा रार्वाह तथा स-त्कुिमार यक्षों की मूर्तियां एवं अष्ट मंगलद्रव्य होते हैं। उन भवनों में सिंहासन आदि सहित चंवरधारी नाग यक्ष युगल तथा नाना प्रकार के स्लों से युक्त जिन प्रतिमाएं विराजमान होती हैं। .
व्यंतर देवों के चैत्यालय ध्यंतर देवों के जिन भवन अष्टमंगल द्रव्यों से सहित होते हैं। इनमें दुन्दुभि आदि की मंगल ध्वनि होती है। इन मन्दिरों में हाथों में चंवर धारण करने वाले नागथक्ष युगलों से युक्त, सिंहासन आदि अष्ट प्रातिहार्यों से सहित अकृत्रिम जिन प्रतिमाएं विराजमान हैं।
इन जिनभवनों में प्रत्येक में छह-मण्डल हैं। प्रत्येक गटल में राजांगण के मध्य उत्तरी भाग में सुधर्मा नामक सभा है इसके उत्तर भाग में जिन भवन है।
देवनगरियों के बाहर चारों दिशाओं में चार बनखण्ड हैं, इनमें एक-एक चैत्यवृक्ष हैं। चैत्यवृक्ष की चारों दिशाओं में चार जिन प्रतिमाएं स्थित हैं। **
कल्पवासी देवों के चैत्यालय सगस्त इन्द्र मन्दिरों के आगे न्यग्रोध वृक्ष होते हैं। इनमें से एक-एक वृक्ष पृथ्वी स्वरुप तथा सम्रा वृक्ष के सरीखे रचना युक्त होते हैं। इसके मूल में प्रत्येक दिशा में एक-एक जिन प्रतिमा स्थित होती है।
सौधर्म इन्द्र के मन्दिर में ईशान दिशा में सुधर्मा नामक सभा होती है । उसके भो ईशान विभाग उपपाद सभा होती है। इसी ईशान दिशा में पांडुकवन के जिनालयों के सदृश रचना वाले उत्तम रस्मया जिनालय हैं। #
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*(ति.प./३/४४ से ५२) "(लि.१.६/१३ से १५, ति.प.५/ ५९० से २०० एवं २३०) #ति.५/८/४०५ रो४११)