________________
(स्व शिल्प
३५४) वास्तुपुरुषप्रकरण किरोगी वास्तु संरचना का निर्माण करने से पूर्व उसका मानचित्र बनाकर एक संकल्पना । तैयार की जाती है। किस स्थान पर स्तंभ बनायें अथवा न बनायें इसका निर्णय करने के लिए प्राचीन । शास्त्रकारों ने हमें वास्तु पुरुष मंडल की संयोजना दी। इसके लिये भूमि की आकृति का चित्र बनाकर उसमें वास्तु पुरुष की आकृति बनाई जाती है ।
जैनेतर पुराणों में वास्तु पुरुष की उत्पत्ति महादेव के पसीने की बूंद से बताई जाती है तथा उसकी शांति के लिये उसकी पूजा एवं उस पर स्थित देवताओं को विधिपूर्वक पूजा बलि देने का विधान है।
वास्तु पुरुष की आकृति इस प्रकार बनायें कि एक आँधा गिरा हुआ पुरुष जिसकी दोनों जानु एवं हाथ की कोहनियां वायु कोण तथा अग्नि कोण में आयें। चरण नैऋत्य कोण में तथा मस्तक ईशान कोण में आये।
इस आकृति के मर्म स्थानों अर्थात् मुख, हृदय, नाभि, मस्तक, स्तन एवं लिंग के स्थान पर दीवार, स्तम्भ या द्वार नहीं बनाना चाहिये।
आर्यमा
उत्तर
धरकी
वायव्य
वायव्य
ईशान
पाफराक्षसी
भल्लाट कुबर ।
नाग । मुख्य भिल्लाट 1 कुबेर |
दिति।
पीलीपच्या
पर्जन्य
यापयक्षम"
रुद्र
ई पृथ्वीधर
आपवत्स
मरिचि
मित्र
| सूर्य
पश्चिम बदल
पश्चिम
वैवस्वान
PADS
Hat
i
anp
राहक्षत
विदारिका
'ENCE नैऋत्य पूतना
दक्षिण
जम्भा आग्नेय