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(देव शिल्प
चतुर्विंशति तीर्थंकर स्तव
थोरसामि हं जिणवरे तित्थयरे केवली अणंत जिणे ।
पर पवर लोए महिए विहुय स्य मले महप्पण्णे ॥२१॥
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मनुष्यों में श्रेष्ठ लोक में, तथा कपल को क्षय करने वाले महान आत्माओं अर्थात जिनवरों, तीर्थकरों अनंत केवली जिनेन्द्रों की मैं स्तुति करता हूं। लोयस्सुज्जोययरे धम्मं तित्थंकरे जिसे वंदे ।
अरहंते कितिस्से चौबीसं चैत्र केवलिणो ॥ २॥
लोक में उद्योत को करने वाले धर्म तीर्थ के कर्ता जिनेन्द्र देव की मैं बन्दना करता हूँ। अरहंत पदविभूषित चौबीरा भगदंतों और इसी प्रकार केवली भगवंतों का मैं कीर्तन करूंगा ।
उसह मजियं च वन्दे संभव मभिणंदणं च सुमइंच ।
पउप्पहं सुपासं जिणं ध चंदप्पहं वन्दे || 31
वृषभनाथ तीर्थंकर को अजितनाथ तीर्थंकर को मैं नमस्कार करता हूं । संभवनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ तीर्थंकर को मैं नमस्कार करता हूं। सुविहिं च पुप्फयंत सीयल सेयं च वासुपुज्जं च ।
विमल मणतं भयवं धम्मं संति च वंदामि ॥॥ ४ ॥
सुविधि अथवा पुष्पदंत, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ वासुपूज्य विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ और शांतिनाथ तीर्थंकर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ।
कुंधुं च जिण खरिद अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमिं ।
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वंदामि रिपुणेमि तह पासं वढमाणं च ॥ ५ ॥
जिनवरों में श्रेष्ठ कुंथुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत, नमिनाथ, अरिष्टनंगि पारसनाथ और वर्धमान तीर्थंकर को मैं नमस्कार करता हूं ।
एवं मए अभिथुआ विहुय श्य मला पहीण जर मरणा । चवीस पि जिणवरा तित्थयश मे पसी यंतु ॥६॥
जो कर्मरूपी रजोमल से रहित हैं तथा जिन्होंने जरा और मरण को नष्ट कर दिया है ऐसे चौबीसों जिनवर तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न होवें ।
कित्तिय वंदिय महिया एवे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा ।
आरोग्य णाण लाह दिंतु समाहिं च मे बोहिं ॥ ७
इस प्रकार मेरे द्वारा कीर्तन किए गए, वन्दना किये गये, पूजे गए ये लोक में उत्तम जिनेन्द्रदेव सिद्ध भगवान मेरे लिए ज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न निर्मल केवल ज्ञान का लाभ, बोधि और समाधि प्रदान करें।
चंदेहि णिम्मलयरा आइच्चेंहिं अहिय पया संता । सायर मित्र गंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥८॥
चन्द्रमा से भी निर्मलतर, सूर्य से भी अधिक प्रभासम्पन्न, सागर के समान गंभीर सिद्ध भगवान मुझे सिद्धि को प्रदान करें ।