SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (देव शिल्प जिन भवन महिमा भारतीय संस्कृति में स्तुति पाठ का अपना विशिष्ट स्थान है। साधारण शान वाला उपासक भी प्रभु की उपासना स्तुति पाठ करथे लेता है विभिन्न संतों एवं कवियों ने विभिन्न भाषाओं में स्तुति पाठ किये हैं उहें सामान्य गृहस्थ भी पढ़कर अपना कल्याण प्राप्त करते हैं। जिनेन्द्र प्रभु का मन्दिर उपासक के मन को बाह्य रूप से ही आल्हादित कर देता है। उनकी महिमा का दर्शन करते ही उपासक के चित्त में भक्तिभाव उमड़ पड़ता है तथा प्रमुदित मन से वह प्रभु चरणों में स्वयमेव नतमरतक हो जाता है। जिन मन्दिर का वैभव उसके मनोभावों को और अधिक प्रमुदित करता है। आचार्य सकलचन्द्र मुनि ने अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति एक संस्कृत स्तोत्र रचना के माध्यम से की है। ये मनोभाव तब प्रकट हुए हैं जब उन्होंने अत्यन्त विनय भाव से जिन भवन की ओर प्रस्थान किया तथा जिन भवन के बाहा रुप की शोभा के दर्शन किये । तदनन्तर जिनालय में प्रवेश करके उन्होंने त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्र प्रभु के दिव्य रुप को प्रकट करने वाले जिन बिम्ब के दर्शन किये। यहाँ पर उनके द्वारा रचित एक विशिष्ट स्तोत्र का भावार्थ प्रस्तुत है जिससे पाठकगण जिनेन्द्र प्रभु के मन्दिर की महिमा का अवलोकन कर पायेंगे - दृष्ट जिनेन्द्र भवनं भवताप हारे, भव्यात्मनां विभव संभव भूरि हेतु दुग्धाब्धि फेन यवलोज्ज्वल क्ट कोटी नब्द प्वज प्रकर राजि विराजमान ।। मैंने आज जिनेन्द्र प्रभु के मन्दिर के दर्शन किये जो कि मेरे भवरोग (जन्म-मरण के चक्र) को दूर करने वाला है। जिसके दर्शन रो असीमित वैभव की प्राप्ति होती है। जो दुग्ध एवं समुद्रफेन की गांति धवल (श्वेत) एवं उज्ज्वल शिखरों से युक्त हैं। जिसके शिखर ध्वजों की पंक्तियों से शोभान्वित हो रहे हैं। ऐसे जिन भवन के आज मैं दर्शन कर रहा हूँ। दृष्टं जिनेन्द्र भवनं भुवनेक लक्ष्मी थाम िवर्पित महामुनि सेव्यमानम् । विद्याधरामर वजज मुक्त दिव्य पुष्पांजलि प्रकर शोभित भूमि भागम् ।।२।। आज गर्ने ऐसे जिला के दर्शन किए जहाँ पर त्रिभुवन लक्ष्मी का निवास है तथा जहाँ पर विद्याधरों एवं देव-देवियों द्वारा अर्धित पुष्पांजलि वहां की भूमि की शोभा में अभिवृद्धि कर रही है। ऐसे जिनालय में महानऋद्धि धारी मुनिगण जिनेन्द्र प्रभु की चरण सेवा में निमग्न हैं।
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy