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________________ (द शिल्प ८९) सहसकूट जिनालय जिनेन्द्र प्रभु की १००८ प्रतिमाओं के मन्दिर को सहस्रकूट चैत्यालय की संज्ञा दी जाती है। इस जिनालय में मन्दिर की आकृति में ऐसे जिनालय शिखरयुक्त होते हैं। अरिहन्त प्रभु के १००८ शुभ लक्षणों के प्रतीक स्वरुप भगवान की ही १००८ प्रतिमाओं के रुप में आराधना करने के लिये भक्त जन इस प्रकार के जिनालयों का निर्माण करते हैं। सहस्रकूट जिनालयों की रचना चारों दिशाओं में चार द्वार युक्त होना चाहिये। सहस्रकूट जिनालय में मूलनायक के स्थान पर प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा स्थापित की जाना चाहिये। प्रथम तीर्थकर ने एक हजार वर्ष तक तप किया था, उसके प्रतीक स्वरुप १००० प्रतिमाओं के जिनालय बनाने का कार्य भो भक्तों द्वारा किया गया। नामानुसार इस प्रकार के मन्दिर में १००० कूट (शिखरयुक्त मन्दिर) होना चाहिये । देवगढ़ में एक सहस्रकूट जिनालय है जिसमें शिखरयुक्त मन्दिरों का पृथक निर्माण नहीं है वरन् मन्दिर की बाहरी दीवाल पर ही म००० लघु मन्दिर उत्कीर्ण किये गये हैं। कारंजा (जि. वाशिम, महाराष्ट्र) में प्राचीन बलात्कार गण मन्दिर में पीतल/ कांसे से बनी एक सुन्दर रचना सहस्रकूट जिनालय की है। जिन्तूर, श्री महावीरजी आदि स्थानों पर भी ऐसी संरचनायें हैं। ------- ---------------------------------------------------- सहस्रकूट जिनालय में १०२४ प्रतिमाएं भी स्थापित की जाती हैं। उनकी गणना करने की विधि दिशेषतः श्वे.परंपरा में इस भांति है - भरत क्षेत्र ऐरावत क्षेत्र कुल १० क्षेत्र की प्रत्येक में तीन काल की चौबीसी = १०४३४२४ = ७२० पंच विदेह में अधिकतम जिन एक साथ वर्तमान चौबीसी के प्रत्यके के पंच कल्याणक १२० शाश्वत जिन ऋषभानन आदि (चारों तरफ स्थापित मुख्य प्रतिमा) ----- १०२४ चारों दिशाओं में प्रत्येक में २५६ प्रतिमायें स्थापित की जाती है।
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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