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(देव शिल्प
(३४६)
जीगोंद्वारप्रकरण
मन्दिर निर्माण करने के उपरांत निरन्तर उपासकगण वहाँ आराधना आदि धर्म कार्य करते हैं। पर्याप्त समय के उपरान्त प्राकृतिक परिवर्तनों तथा काल यापन से वास्तु में जीर्णता आने लगती है। भित्ति, स्तंभ, छत आदि शिथिल होने लगते हैं तथा उनके पुननिर्माण की आवश्यकता का आभास होने लगता है। पूजनादि क्रियाओं के परिणामस्वरुप पर्याप्त काल के पश्चात् प्रतिभाओं में क्षरण होने लगता है। अंगोपांग घिसने से प्रतिमा का स्वरुप बदल जाता है तथा उनकी पूज्यता समाप्त हो जाती है। ऐसे परिस्थिति उत्पन्न होने पर दो ही विकल्प होते हैं -
प्रथा - नवीन मन्दिर का निर्माण तथा द्वितीय - प्राचीन मन्दिर का जीर्णोद्धार कर पुनर्जीवन ।
वास्तु शास्त्र के दृष्टिकोण से नवीन मन्दिर से भी अधिक महत्व जीर्णोद्धार करने का है। ऐसा करने से प्राचीन वास्तु के साथ हो पुरातत्व स्थापत्य की सुरक्षा होती है। वास्तु के जीर्ण होने से गन्दिर अंगहीन होकर सदोष हो जाता है। प्रतिभा भी खण्डित होने पर पूज्य नहीं रहती अतरव इनका समयोचित जीर्णोद्धार करा देने से वास्तु की आयु में वृद्धि हो जाती है।
जीर्णोद्धार के लिए निर्देश जीर्णोद्धार कराते समय आवश्यक है कि मन्दिर वास्तु यदि अल्प द्रव्य से निर्मित हो, उससे अधिक द्रव्य की वास्तु का निर्माण करें। यदि वास्तु मिट्टी की है तो काष्ठ की बनाएं। यदि काष्ठ की हो तो पाषाण की बनाये । पाषाण की हो तो धातु की बनायें। धातु की हो तो रस्न की बनाये । मूल भावना यही है कि श्रेष्ठतर द्रव्य का उपयोग किया जाये। * २. मंदिर निर्माण अथवा जीर्णोद्धार के लिए किसी अन्य वास्तु का गिरा हुआ ईंट, चूना, गारा, पाषाण, काष्ठ आदि प्रयोग नहीं करें। आचार्यों ने इसका स्पष्ट निषेध किया है। ऐसा करने से देवालय सूने पड़े रहते हैं उनमें पूजा नहीं होती। गृह वास्तु में ऐसा किये जाने पर गृहस्वामी उसमें नहीं रह पाता।" ३. . यह आवश्यक है कि जीर्णोद्धार की जाने वाली वास्तु जिरा आकार अथवा मान की हो नवीन वास्तु उसी आकार एवं मान की रखना चाहिये। यदि पूर्व मान से कम किया जायेगा तो क्षय होता है। यदि मान अधिक किया जायेगा तो स्वजन हाने होने की संभावना रहेगी। अतएव भान परिवर्तन नहीं करें। # ४. जीर्णोद्धार का कार्य प्रभु के समक्ष निश्चित समयावधि का संकल्प लेकर करें। ५. प्रतिमा का उत्थापन विधि विधान पूर्वक करें । अनावश्यक ऐसा न करें अन्यथा भोषण संकटों का आगमन होगा। जीर्णोद्धार के लिए वेदी से प्रतिमाओं के उटाने का कार्य शुभ लग्न, मुहुर्त में पूर्ण विधि रो करें। ऐसा करने से कार्य निर्विधन सम्पन्न होता है।
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*प्रा. मं. ८/८ शि. २. ५/१०८, "शि. र. १/१५९ प्रा. म. ८/४, #प्रा. मं.८/ शि. २.५/१०६