SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (देव शिल्प सूत्रधार प्रकरण जब राजा, समाज अथवा धर्मात्मा गृहस्थ यह निर्णय लेते हैं कि उन्हें देव मन्दिर का निर्माण करना है तो सबसे पहले यह भी निर्णय करना आवश्यक होता है कि किस सूत्रधार अथवा शिल्पकार के निर्देशन में मन्दिर वास्तु का निर्माण करवाया जाये। मन्दिर का निर्माण तथा साधारण वास्तु के निर्माण में महान अन्तर है। मन्दिर में देव प्रतिमा की स्थापना कर उनका प्रतिदिन पूजा, अभिषेक आदि किया जाता है। देव प्रतिमाओं की भी पंचकल्याणक, अंजन शलाका आदि प्राण प्रतिष्ठा विधियों से प्रतिष्ठा की जाती है। ऐसी परिस्थिति में यदि मन्दिर का निर्माण वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों से अपरिचित नौसिखिये अथवा अल्पज्ञानी सूत्रधार के निर्देशन में किया जायेगा तो इससे न केवल मन्दिर तथा मन्दिर निर्माता को हानि होगी बल्कि मन्दिर की व्यवस्थापक समाज, पूजक तथा शिल्पकार की भी हानि होगी। यह हानि अनेकों प्रकार की होती है तथा लम्बे समय तक इसके प्रभाव दृष्टिगत होते हैं। चैत्यालय अथवा मन्दिर स्वयं भी देवता स्वरुप हैं। जैनधर्म में इसे नव देवताओं में सम्मिलित किया जाता है । इसके निर्माण में असावधानी तथा अज्ञानता सर्वत्र हानिकारक होगी, इसमें रान्देह नहीं है। इसी कारण चैत्यालय वास्तु के निर्माणकर्ता शिल्पकार का अनुभवी होना अत्यन्त आवश्यक है। सूत्रधार से कार्य प्रारम्भ करने के लिये निर्माता को आदरपूर्वक अनुरोध करना चाहिये। सूत्रधार को अपनी पूरी योग्यता के रााथ भगवान की पूजा समझकर मन्दिर वास्तु का निर्माण कार्य शुद्ध मुहूर्त में प्रारंभ कर || चाहिये। सूलधार के अपरनाम सूत्रधार के समानार्थी अन्य प्रचलित शब्द हैं - शिल्पी, शिल्पकार, स्थपति, शिल्पाचार्य, शिल्पशास्त्रज्ञ इत्यादि। सूत्रधार के लक्षण सुशील, चतुर, कार्यकुशल, शिल्पशास्त्र के ज्ञाता, लोभरहिल, क्षमाशील, द्विज व्यक्ति को ही सूत्रधार बनाना चाहिये । ऐसे शिल्पकार से जिस देश / राज्य में मन्दिर आदि वारतु का निर्माण किया जाता है वह राज्य प्राकृतिक आपदाओं एवं भय, चोरो आदि बाधाओं से मुक्त रहता है। मन्दिर निर्माण का कार्य अपने हाथ में ग्रहण करने वाले सूत्रधार के लिये यह आवश्यक है कि वह शिल्पशास्त्र का पूर्ण ज्ञाता हो। शिल्पशास्त्र की आधुनिक एवं प्राचीन शैलियों से वह सुपरिचित हो। आधुनिक शैली के बेहतर साधनों को अपने में वह सिद्धहस्त हो किन्तु शास्त्र के मूल सिद्धांतों में फेरबदल न करे। उराके शिल्प शास्त्र ज्ञान के अनुरुप ही वह मन्दिर वारतु का निर्माण करने में सक्षम होगा । *(श.र. १/१, *सुशीलश्चतुरो दक्षः शास्त्रज्ञो लोभवर्जितः । क्षमावाज स्यादडिजश्चैव सूत्रधारः स उत्त्यचे ।। शि. र. १/१
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy