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(देव शिल्प
१५.
कार्यकुशलता सूत्रधार का प्रमुख गुण है। सूत्रधार न केवल वास्तु निर्माण की योजना बनाता है वरन् उसे क्रियान्वित करके मन्दिर चारस्तु को तैयार करता है। उसे लम्बे समय तक शिक्षित, अल्पशिक्षित अथवा अशिक्षित कार्यकर्ताओं एवं श्रमिकों से काम करवाना होता है। कार्यकर्ताओं एवं श्रमिकों की संख्या भी सामान्यतः काकी होती है। उनकी व्यवस्था करना सूत्रधार की प्रबन्ध कुशलता पर ही निर्भर होता है।
सूत्रधार में प्रतिभा का होना अत्यंत आवश्यक है। उसकी कल्पनाशीलता तथा प्रज्ञाबुद्धि ही यह निर्णय करती है कि मन्दिर का स्वरुप क्या होगा। मन्दिर किस शैली का, किस आकार का तथा कितना कलापूर्ण होगा इसकी कल्पना कर उस स्वप्न को साकार करना ही सूत्रधार का कार्य होता है । सूत्रधार को अपनी वास्तु से उतना हीं लगाव होता है जितना पिता को अपने पुत्र से जिस तरह पिता अपने • गुणों एवं विद्या को पुत्र में आरोपित करता है तथा उसे अपने से भी श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करता है उसी प्रकार सूत्रधार भी अपनी पूरी योग्यता को अपनी वास्तु में उड़ेल देता है।
अर्थ प्रबन्ध का वास्तु निर्माण में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। मन्दिर वास्तु का निर्माण अत्यंत व्यय साध्य कार्य है। लम्बे समय तक कार्य चलने से लागत में भी वृद्धि हो जाती है। मन्दिर निर्माता के अनुमानित अर्थ प्रबन्ध के अनुरूप ही यदि वास्तु का निर्माण होता है तो मन्दिर निर्माता अपने संकल्प को हर्षपूर्वक पूरा कर पाता है तथा यह वास्तु वर्तमान एवं भविष्य दोनों में सुखदायक एवं कीर्तिवर्धक होती है। शीलवान होना सूत्रधार का आवश्यक गुण है। अपने निर्माता के प्रति ईमानदारी, निष्ठा, चायित्व का निर्वाह करने की सद्भावना प्रत्येक सूत्रधार में होना ही चाहिये । यदि सूत्रधार चरित्रहीन होगा तो उसका प्रभाव उसके द्वारा निर्मित वास्तु पर उसी तरह पड़ेगा, जिस भांति चरित्रहीन भ्रष्ट पिता का प्रभाव उसकी संतानों पर पड़ता है।
वर्तमान युग मे सूत्रधारों में चरित्र का अभाव होने का प्रभाव शासकीय वास्तु निर्माणों में आमतौर पर दृष्टिगोचर होता है। निर्माण का घटियापन, अल्पायु, कमजोर निर्माण सूत्रधार के नीचे चरित्र का उदाहरण है।
वास्तु निर्माण की शिक्षा योग्य गुरु से लेवें
वास्तुशास्त्र एक विशिष्ट शास्त्र है। इसमें उल्लेखित सिद्धांतों का अर्थ स्पष्ट हुए बिना यदि अल्पज्ञसूत्रधार शिल्प का निर्माण करता है तो उससे न तो अपेक्षित परिणाम प्राप्त होंगे न ही शिल्प निर्माणकर्ता को सुख होगा।
अतएव यह अत्यन्त आवश्यक है कि सूत्रधार को अपने योग्य गुरु से मन्दिर एवं गृह वास्तु का निर्माण करने का शिल्प ज्ञान, लक्ष्य, लक्षण का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । *
*लक्ष्यलक्षणतोऽभ्यासाद् गुरुमार्गानुसारतः । प्रासाद भवनादीनां सर्वज्ञानमवाप्यते । प्रा. ५.०/१०